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आ त्म निवेदन
'मनुष्य की प्रकृति का बदलना अन्यन्त कठिन --यह मूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आना ठीक साबित हई। बचपन में जब मैं बालकत्ता--श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंधी-विद्यालय में पढ़ता था जहाँ नक याद है, मुझे जलपान के लिए प्रायः प्रति-दिन एक आना मिन्नता था। प्रकृति में संग्रह करन की भावना अधिक थी, अतः मैं खर्च करके भी उसमें से कुछ न कुछ बचा ही लेता था। इस प्रकार मर पान कई रूपये इकटर हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी में रखा करता था।
विक्रम संवत् १६७६ में अचानक गाताजी को मृ होने से विरक्त होकर हम (पिता थी केवलचन्द जी मैं, छोटी बहन दीपांजी और मोटे भाई चन्दनमल जी) परमकृपान् श्रीकालमणीजी के पास दीक्षिन हो गए । यद्यपि दीक्षित होकर रुपयों-पैसों का संग्रह छोड़ दिया, फिर भी संग्रहृत्ति नहीं घट सकी । वह धनसंग्रह से हटकर ज्ञानसंग्रह की ओर झुक गई। श्री कालुगणो के चरणों में हम अनेक बालक मुनि आगम-व्याकरण-काव्य-कोष आदि पढ़ रहे थे। लकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार की बन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-लोकहान-ध्याख्यान-कथा आदि गुमने या पढ़ने में अच्छे लगतं, मैं तत्काल उन्हें लिन लता या संसार-पक्षीय पिताजी ने निम्नवा लेता। फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा संग्रह हो गया। उन देरदकर अनेत्र मुनि विनोद की भाषा में कह दिया करते थे कि न तो न्यारा में जाने की अलग बिहार करने की तैयारी कर रहा है ।" उत्तर में मैं कहा करता—क्या आप मारंटी दे सकते हैं कि इलने (१० या १५) माल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ ही