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साधुओं के वस्त्र
१. तिहि ठाणेहि वत्थं घारेज्जा तं जहा - हिरिवत्तिय
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दुगु छावत्तिय परीसहबत्तियं ।
- स्थानांग ३।३।१७१
२.
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साधु को तीन कारणों से वस्त्र पहनने चाहिए- संयम लज्जा की रक्षा के लिए, लोगों को घृणा से बचने के लिए तथा शीतउष्ण एवं दंशमशकादि के परीषह से आत्मरक्षा करने के लिए ।
कष्पइ निरगंथाणं वा निसगंयोगं वा पंच वत्थाइ धारेतए वा परिहरितए वा तं० जंगिए, भंगिए, लागए, पोत्तिए, तिडपट्टए ।
- स्थानांग ५२३।४४५
माधु-साध्वी पांच प्रकार के वस्त्र धार सकते हैं एवं पहन सकते हैं- ( १ ) ऊन के ( कंबलादि) (२) रेशम के (३) सण के ( ४ ) कपास के (५) तृण घास व वृक्ष की छाल के ।
३. साधु-साध्वियों को महामूल्य वस्त्र नहीं कल्पता । आधारांग भूत २ अ० ५ ० १
४. साधु-साध्वियों को वस्त्र लेने के लिए अर्धयोजन से आगे जाना नहीं कल्पता ।
--- आचारोग भूत २ अ० ५ ० १
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