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________________ २४६ वक्तृत्वकला के बीज सब सामग्रियों में युक्त शान्त मुनि महान् ऋद्धिशाली राजा की तरह विरक्ततारूप रानी के साथ आनन्दपूर्वक सोता है। ११. धीरज-तात क्षमा-जननी, परमारथ-मीत महारचि-मासी ! ज्ञान-सुपुत्र सुता-करुणा, मति-पुत्रवधू समता प्रतिभासी ।। उद्यम-दास विवेक-सहोदर, बुद्धि-कलत्र शुभोदय दासी। भाव-कुटुम्ब सदा जिनके ढिग, यो मुनि को कहिए गृहवासी ।। -बनारसीदास ५२. वेदान्तविज्ञान - सुनिश्चितार्थाः, सन्यासयोगाद् यतयः शुद्ध सत्त्वा । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले, परामृता: परिमुच्यन्ति सर्वे ।। मुण्डकोपनिषद् ३।२।६ वेदान्त रहस्य से जिन यतिजनों ने तत्त्व का निश्चय कर लिया है, सन्यास-योग से जो शुद्ध अतःकरण हो गये हैं, वे अन्तिम देहावसान होने पर ब्रह्मलोकों में अमरत्व को भोगते हुए पूर्णरूप से छूट जाते हैं ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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