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चौथा भाग : चौथा कोष्ठक
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आध्यात्मिक-शुभ ध्यान' के योग से प्रशस्तसंयमवाला
होता है ||४|| ६. नाभिनन्देत मरणं, नाभिनन्देत जीवितम् ।।४।।
दृष्टिपूत न्यसत्पाद, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यतां वदेद्वाचं, मनः पूतं समाचरेत् ।।४६।। क्रुद्ध यन्तं न प्रतिक्रुद्ध ये-दाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सप्तद्वारावकीर्णी च, न वाचमनतां वदेत् ।।४८||
-मनुस्मृति अ०६ मुनि न तो जीने की अभिलाषा करे और न मरने की ।।४५॥ मुनि देख-देखकर पैर रखे, वस्त्र से छानकर जल पीवे, सत्य से पवित्र वाणी बोले और मन से पवित्र विचार करे ।।४६|| क्रोध करनेवाले पर क्रोध न करे, आक्रोश करनेवाले के प्रति भी अच्छे वचन बोने तथा पाँच इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि
इन सातों से व्याप्त-वाणी बोलें एवं असत्य वाणी न बोले ।४। १०. मही शय्या रम्या विपुलमुपधानं भुजलता,
वितानं चाकाशं व्यजनमनुकलोयमनिलः । स्फुरदीपचन्द्रो विरतिबनिता संङ्गमुदिता, सुखं शान्त: शेते मुनिरतनुभूतिर्नुप इव ।।
--महरि-वैराग्यशतक ७E भूमि सुन्दरशय्या है, भुजा तकिवा है, आकाश चंद्रवा है, अनुकूल हवा पंखा है और चन्द्रमा प्रकाशमान दोपक है। इन
गीता के १२वें अध्याय में कहा हुआ भक्त का वर्णन भी इससे काफी कुछ मिलता-जुलता है।