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बक्तृत्वकला के बीज
है, उसी प्रकार भवनमण से डरा हुआ आस्मार्थी-मुनि अपने संयम की क्रिया में न्यचित्त रहता है। णिम्ममो हिरहंकारो, णिस्संगो चत्तगारबो । समो य सव्व भएसु. तसेसु थावरेस् य ||६|| लाभालाभे मुहे दुक्खे, जीविए मरण तहा । समो णिन्दा-पसंसासु, तहा माणावमाणओ ।।१।। गारवेसु कसाएसु दंड-सल्ल-भएमु य । णियत्तो हास-सोगाओ, अणियाणो अबंधणो ।।२।। अणिस्सियो इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। बासी-चदणकप्पो य, असणं अणसण तहा ।।६३।। अप्पसत्थेहिं दारेहि, सवओ पिहियासवो । अज्झप्पज्झाणजोगेहि, पसत्थदमसासणो 11६४||
-उत्तराध्ययन १६ मुनि निर्मम, निरहंकार, नि:संग और गर्वरहित होता है तथा त्रस-स्थावररूप समस्त जीवों पर समभाय रखता है ||१०|| मुनि लाभ, अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तमा मान-अपमान में समान वृत्तियुक्त होता है !१९१।। मुनि गारब, झपाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त होता है तथा निदान एवं बंधन से मुक्त होता है ||१२|| मुनि इहलोक-परलोक के सुखों की इच्छा नहीं करता। उसे चाहे वसोले से काटा जाय या चंदन से चर्चा जाय तथा आहार मिले या न मिले, वह समानवृत्ति रखता है ।।६।। भूमि सभी अप्रशस्त द्वारा और सभी आभवों का निरोध कर