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मंगल
ममुख्य विभिन्न शक्तियों का स्रोत है। नहीं, वह अनन्तशक्तियों का स्रोत है।
पर, जिन-जिन शक्तियों को अभिव्यक्त होने का समय और साधन मिल पाता है वही हमारे सामने विकसित रूप से प्रगट होती है, शेष अनभिव्यक्त रूप में अपना काम करती रहती हैं।
संग्राहक शक्ति भी उन्हीं में से एक है, जो अन्वेषण-प्रषान है और दूसरों के लिए बहुत उपयोगी बन जाती है।
मवक्षन का आस्थापन करना एक बात है, पर उसे दही में से मथकर निकालकर संग्रहीत करना एक विशिष्ट शक्ति है।
पुनि श्री धनराजजी (सिरसा) में यह शक्ति अच्छी विकसित हुई है। शुरू से ही उनकी यह धुन रही है, आवत रही है, वे बराबर किसी न किसी रूप में खोज करते रहते हैं और फिर उसको संग्रहीत कर एक आकार दे देते हैं । यह साहित्य बन जाता है, जम-जन की खुराक बन जाता है।
"वक्तृत्वकला के बीज" एक ऐसी ही कृति हमारे समक्ष प्रस्तुत है जो मुनि धनराजजी को संग्राहकशक्ति का एक विशिष्ट उदाहरण है। उसमें प्राचीन, अर्वाचीन अनेक ग्रन्थों का मन्थन है, अनेक भाषाओं का प्रयोग है।
मूल उद्धरण के साथ हिन्दी अनुवाद देकर और सरसता उसमें साई गई है। १. मड़ा सुन्दर प्रयास है 1 अपनी वक्तृत्वकला का विकास चाहनेवाले वक्ता के
लिए बहुत उपयोगी है यह ग्रन्थ, जो अनेक भागों में विभक्त है। मेरा विश्वास है--यह प्रयत्न बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय मिड होगा ।
-आचार्य तलसी ।
- rary.