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________________ २६२ वक्तृत्वकला के बीज , अणवज्जेस णिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्कर। --उत्तराध्ययन १६।२७ नित्य एनं निर्दोष शिक्षा का ग्रहण करना भी दुकार है । ७. अकप्पियं न गिहिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं । -- दमकलप, ५.१.२७ साधु अकल्पनीय-सदोष वस्तु नहीं ले एवं कल्पनीय अहण करे। ८. एकान्नं नैव भोक्तव्यं, बृहस्पतिसमादपि । —अविस्मृति साधु को सदा एक ही कुल का भोजन नहीं लेना चाहिए, चाहे वह कुल बृहस्पति जैसों का भी क्यों न हो । ६. अनग्निरनिकेतः स्याद्, ग्राममन्नार्थमाप्रयेत् । -मनुस्मृति ६४३ मुनि अग्नि का स्पर्श न करें, घर में न रहे, मात्र भिक्षा के लिए ग्राम में जाये। समणेणं भगवया महावीरेणं, समणाणं निगंथाणं नवकोडीपरिसुद्धे भिवखे पष्णते, तं जहा-न हणाइ, न हणावेइ, हणं तं नाणुजाणेइ । न पयाइ, न फ्यावेइ पयतं नाणुजाण । न किणइ, न किणावे, किणतं माणुजाणई। स्थानांग ६६८१ श्रमग – भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए नवकोटिदिशुद्ध भिक्षा कही है- साव आहार आदि के लिए न तो हिंसा करता, न करवाता और न करते हुए का अनुमोदन १०,
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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