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________________ श्रीज सम्यग्दृष्टि २२ १. भूयत्थमस्सिदो खलू, सम्माइट्ठी हवइ जीवो । समयसार ११ जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ — शुद्धदृष्टि का अवलम्बन करता है, नहीं सम्यष्टि है | २. हेयायं च तहा, जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी । —सुलपाहूड, ५ जो हेय और उपादेय को जानता है, वहीं वास्तव में सम्यग् - दृष्टिवाला है। ३. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । - आचारोग ३१२ सम्यग्दृष्टि परमार्थ को जानकर (आत्मध्यान में रमण करता हुआ ) पाप नहीं करता । ४. सम्यग्दर्शन संपन्न, कर्म भिर्ननिबद्धयते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते || - मनुस्मृति ६।७४ सम्यग्दर्शन के बिना प्राणी संसार में भटकता है, किन्तु सम्यम्दृष्टि अज्ञान के कर्मों से लिप्त नहीं होता । ५. सम्मदिट्ठी सया अमूढं । - वशवेकालिक १०/७ सम्महष्टि सदा अमुक है, वह बाह्यवस्तु में मूर्च्छित नहीं होता । ६. जे मणन्नदंसी से अणन्नारामे, जे अणन्नारामे से अणन्नदंसो । १२३ -- आचारांग २६
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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