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श्रीज
सम्यग्दृष्टि
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१. भूयत्थमस्सिदो खलू, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।
समयसार ११
जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ — शुद्धदृष्टि का अवलम्बन करता है, नहीं सम्यष्टि है |
२. हेयायं च तहा, जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी ।
—सुलपाहूड, ५
जो हेय और उपादेय को जानता है, वहीं वास्तव में सम्यग् - दृष्टिवाला है।
३. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ।
- आचारोग ३१२
सम्यग्दृष्टि परमार्थ को जानकर (आत्मध्यान में रमण करता हुआ ) पाप नहीं करता ।
४. सम्यग्दर्शन संपन्न, कर्म भिर्ननिबद्धयते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ||
- मनुस्मृति ६।७४ सम्यग्दर्शन के बिना प्राणी संसार में भटकता है, किन्तु सम्यम्दृष्टि अज्ञान के कर्मों से लिप्त नहीं होता ।
५. सम्मदिट्ठी सया अमूढं ।
- वशवेकालिक १०/७
सम्महष्टि सदा अमुक है, वह बाह्यवस्तु में मूर्च्छित नहीं होता ।
६. जे मणन्नदंसी से अणन्नारामे,
जे अणन्नारामे से अणन्नदंसो ।
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-- आचारांग २६