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________________ १२४ वक्तृत्वकला के बीज जो अनन्यदर्शी - सम्यग्दृष्टि है, वह अनन्य आराम - परमार्थ में रमण करनेवाला है। जो अनन्य क्षारामवाला है, चह्न अनन्यदर्शी है । तत्त्व यह है कि सम्यग्दृष्टि जीन अद्वितीय आनन्द में रमण करता है | ७. जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । - समयसार १६३ सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके क्रमों की निर्जरा के लिए ही होता है । ८. खवेंति अप्पाणममोहद सिणो । ६६२ तत्वदर्शी पुरुष अपने पूर्व कर्मों का क्षय कर डालते हैं । ६. सम्मदिट्ठी जीवो, गच्छई नियमं विमाणवासिसु । जह न विगयसम्मतो, अह नवि बढाउयपुब्बं || सम्यग्दृष्टिजीब निश्चित रूप से वैमानिकदेवों में जाता है, लेकिन शर्त यह है कि मरने के वक्त सम्यक्त्व विद्यमान हो और सम्यक्त्र के पूर्व आयुष्य का बंधन पडा हो ! १०. सम्यग्दृष्टि जीव तरते हुए जहाज के समान समुद्र में नहीं डूबता । वह नटों के समान जय-पराजय में सुख-दुःख नहीं मानता। वह संसार को जेल समझता है न कि राजमहल | वह काली कोठरी में न होकर काँच की कोठरी में है, जिसमे स्व-पर को देख सकता है। वह खुद को घर का मालिक न मान कर मैनेजर मानता है । वह बस्तु को यथावस्थित रूप में देखता है, रोगी नेत्रवत् विकृतरूप में नहीं ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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