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चौथा भाग दूसरा कोष्ठक
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११. सम्यग्दृष्टि को इन १२ बोलों का चिन्तन करते रहना
चाहिए -
मैं भव्य हूं या अभव्य, सयम्ग्रद्दष्टि हूं या मिथ्यादृष्टि, परित हूं या अपरित सुलभबोधि हूँ या दुर्लभबोधि, चरम हूँ या अचरम, आराधक हूं या विराधक । - राजप्रश्नीय सूर्यामाधिकार
१२. सम्यग्दृष्टि जीवों को ऐसा विश्वास कभी न करना चाहिए कि लोक आलोक, जीव-अजीव पुण्य-पाप, आस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, बन्ध-मोक्ष, धर्म-अधर्म, क्रिया-अक्रिया, क्रोधादि कषाय, राम-द्वेष, चतुर्गतिरूपसंसार, मोक्ष-अमोक्ष, एवं सिद्धस्थान नहीं हैं, किन्तु निश्चितरूप से मानना चाहिए कि उक्त वस्तुएँ बिद्यमान हैं । - सूत्रकृतांग पुस २, २०५, गाथा १२ से आगे १३. निस्संकिय- निक्केखिय निष्वितिमिच्छा अमूढदिट्ठी य ।
उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल - पभावणे
अद्य ॥
- उत्तराध्ययन] २८|३१
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(१) सर्वज्ञ भगवान् की वाणी में संदेह नहीं करना, (२) असत्य भतों का चमत्कार देखकर उनकी अभिलाषा नहीं करना, (३) धर्म फल की प्राप्ति के विषय में शंका नहीं करना, (४) अनेक मत-मतान्तरों के विचार सुनकर दिग्मूढ़ न बनना अर्थात् अपनी सच्ची श्रद्धा से न डोलना, (५) गुणिजनों के गुणों की प्रशंसा करना और गुणी बनने का प्रयत्न करना, (६) धर्म से विचलित होते हुए प्राणी को समझाकर पुन: धर्म में स्थापित करना, (७) बोतरागभाषित धर्म का हित करना,