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________________ वक्तृत्वकला के बीज में जब श्रावक राम-दिन का पूर्ण पौषध करता है, तब तीसरा विधाम होता है ।। ४ जब मारणान्तिक गंलेखणा-नप धारकर यान जीवन आहार पानी का त्याग करके स्थिरता में मरण की बांदा न करता हुआ विचारता है, तब नौथा विथाम होता है । (भारवाहक पहले विथाम में भार एक कंधे मे दुसरे को पर लेता है, दुगरे विश्वाम' में उसे उतारकर मल-मूत्र का त्याग करता है, तीसरे विश्राम में नाग आदि के मंदिर में बहाता है और चौथे विश्राम में भार को जहाँ पहुंचाना होता है, वहां पहुंचाकर मुफ्त होता है।) श्रावक के तीन मनोरथ२. तिहि ठाणेहि समणोत्रासए महानिजरे महापज्जवसाणेभनइ. तं जहा-कया।महमप्पं का बहुं वा परिगहं परित्र इस्मामि । कन्याएं अहं मुंडे भविता आगाराओअरणगारियंपवइरसामि। कयाणं अहं अपच्छिम-मारणतिय-सलेहणाभूसणाझसिए भत्तवाणपडियाइविखए पाओवगए कालमरणवकखमाणे विहरिस्सामि, एवं समगासा, सवयसा, सकायसा, जागरमाणे समणोबासए महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । -स्थानात ३।४।२१० निम्नलिखित तीन मनोरथों का चिन्सन करता हुआ श्रावक महानिर्जरा एवं महापर्यवसान-समाधिमरणवाला होता है-(१) कन्न मैं थोड़ा या बहुत परिग्रह का सर्वथा त्याग करूंगा, (२) कब मैं गृहवाम को छोड़ एर्य मुण्डित होकर गाधु वनगा तथा (३) कब मैं संलेखना-संथारा करके मरण की इच्छा न करता हुआ रिभरता से विचरूगा?
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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