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वक्तृत्वकला के बीज
समझाते हुए कहा- तुम दो शस में हो बस गए और में जिस प्रसन्नता से तुम्हारा मोहनभोग खाता था, उसी प्रसन्नता से यहां सूखी रोटियां भी खा रहा हूं बस, तुम्हारे और मेरे में इतना ही अन्तर है ।
१२. ईहे प्रभुताको जो किशन, प्रभुता को त्यागे, छारी ना वित तो विभूति कहा बारी है। जो लीं भग तजो नाहि तो लौं भगनजी नांहि, काहे को गुसाई जो गुसाई से न यारी है। काहे को विरामन जोको नवि राहमन, कहा पीर जो पै पर पीर ना विचारी है । कैसो वह जोगी जन जाको न विजोगी मन, आसन ही मार जान्यो आस नहि मारी है ।
- किसन बावनी
१३. जनेभ्यो वाक ततः स्पन्दो, मनस वित्तविभ्रमः ।
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भवन्ति तस्मात्संसर्ग, जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥
- समाविशतक जहाँ बहुतजनों से सम्पर्क हो, यहाँ बोलना पड़ता है। बोलने से मन में सदन पैदा होता है और स्पन्दग से संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं। अतः योगी को जनसम्पर्क का त्याग करना चाहिए ।