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________________ २१४ वक्तृत्वकला के बीज समझाते हुए कहा- तुम दो शस में हो बस गए और में जिस प्रसन्नता से तुम्हारा मोहनभोग खाता था, उसी प्रसन्नता से यहां सूखी रोटियां भी खा रहा हूं बस, तुम्हारे और मेरे में इतना ही अन्तर है । १२. ईहे प्रभुताको जो किशन, प्रभुता को त्यागे, छारी ना वित तो विभूति कहा बारी है। जो लीं भग तजो नाहि तो लौं भगनजी नांहि, काहे को गुसाई जो गुसाई से न यारी है। काहे को विरामन जोको नवि राहमन, कहा पीर जो पै पर पीर ना विचारी है । कैसो वह जोगी जन जाको न विजोगी मन, आसन ही मार जान्यो आस नहि मारी है । - किसन बावनी १३. जनेभ्यो वाक ततः स्पन्दो, मनस वित्तविभ्रमः । 1 भवन्ति तस्मात्संसर्ग, जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ - समाविशतक जहाँ बहुतजनों से सम्पर्क हो, यहाँ बोलना पड़ता है। बोलने से मन में सदन पैदा होता है और स्पन्दग से संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं। अतः योगी को जनसम्पर्क का त्याग करना चाहिए ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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