SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ पाँचवां भाग पहला कोष्ठक साध्वी अवश्य रहती है, अतः तीन व्यक्ति होने से यह आलोचना षट्क। छः कानोंवाली कहलाती है। यदि आलोचना करानेवाला साधु युवा जवान हो तो उसके निकट प्रौढ़वयवाला एक साधु भी अवश्य रहता है । अतः दो साधु और दो साध्वियों के समक्ष होने से यह आलोचना अष्टकरण आठ कानोंवाली मानी जाती है। [यह विवेचन गम्भीर दोषों की अपेक्षा से समझना चाहिए] ( यह विवेचन बृहत्कल्पभाध्य गाथा ३६५, २६६ के आधार पर किया गया है ।) [C] बेमचित्त दत्रं, जरणवय सट्टाणे होइ त म । दिशा- निसि सुभिक्ख-दुभिक्ख, काले भावमि हट्टियरे । द्रव्यादि की अपेक्षा से आलोचना के चार प्रकार है द्रव्य से - अकल्पनीयद्रव्य का सेवन किया हो— फिर वह चाहे अचित्त हो, सचित्त हो या मिश्र हो । क्षेत्र से -- ग्राम, नगर, जनपद व मार्ग में काल मे ---दिन रात में या दुर्भिक्ष किया हो । - ― ६. मिच्छामि दुक्कडं भाग से - प्रमत्र - अप्रसन्न, अहंकार एवं ग्लानि आदि किसी भी परिस्थिति में दोषमेवन किया हो। सभी प्रकार के दोषों की आलोचना करके शुद्ध बन जाना चाहिए । 'मि' त्ति मिउ महत्त दो रेवन किया हो । सुभिक्ष में दोषसेवन 'छ' त्ति दोसाछाद होइ ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy