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सम्यक्त्व की दुर्लभता
१. संबुज्झह किं न बुज्ज्ञह, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । जो हु वर्णमति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ।।
– सूत्रकृतांग २०१ समझो ! तुम क्यों नहीं समझते, आगे सबोघि सम्यक्त्व का मिलना कठिन है । दोती हुई रातें वापस नहीं आतीं। मनुष्य जन्म बार-बार सुलभ नहीं है । ईओ विद्ध समाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा ।
-सूत्रकृतांग १५५१८ यहां से भ्रष्ट हो जाने के बाद पुनः सम्यगदर्शन का मिलना
कठिन है। ३. णो सुलभं बोहियं च आहियं । --सूत्रकृतांग २।३।१६ " . सम्यग् शान-दर्शनरूप बोधि वा मिलना सुलभ नहीं है । ४. मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोही ।
-उत्तराध्ययन ३६।२५२ जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त हैं, निदानसहित कर्म करने वाले है और कृष्णलेश्या से युक्त हैं, उनको मृत्यु के पश्चात् अन्य जन्म में बोधि-सम्यक्त्व की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है ।