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१. परोपकारशून्यस्य, धिग् मनुष्यस्य जीवितम् । धन्यास्त पशवो येषां चर्माप्युपकरोति हि ||
परोपकारहीन मनुष्य का जीना धिक्कार चाम भी लोगों का उपकार करते हैं ।
२. स लोहकारभस्त्रेव दवसन्नपि न जीवति ।
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- सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ
freeकारी
। ये पशु धन्य हैं, जिनके
— योगशास्त्र
उपकारहीन व्यक्ति लोहार की धोंकणी की तरह श्वास लेता हुआ मी मुर्दा है ।
२. तृणं चाहे वर मन्ये
नरादनुपकारिणः । घासो भूत्वा पशु पाति, भीमन् पाति रणाय ।।
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४. जो
नृप मे अधिकार ले करें न परउपकार | पुनि ताके अधिकार में, आदि न रहत अकार ॥ ५. बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर | पंथो को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥
उपकारहीन व्यक्ति में तो में तृण को भी अच्छा मानता हूं, वासरूप से पशुओं की रक्षा करता है और संग्राम में रक्षा करता है ।
- शाकुन्तल
क्योंकि वह कायरपुरुषों की
-कमोर
ॐ