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________________ २१ १. परोपकारशून्यस्य, धिग् मनुष्यस्य जीवितम् । धन्यास्त पशवो येषां चर्माप्युपकरोति हि || परोपकारहीन मनुष्य का जीना धिक्कार चाम भी लोगों का उपकार करते हैं । २. स लोहकारभस्त्रेव दवसन्नपि न जीवति । 3 - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ freeकारी । ये पशु धन्य हैं, जिनके — योगशास्त्र उपकारहीन व्यक्ति लोहार की धोंकणी की तरह श्वास लेता हुआ मी मुर्दा है । २. तृणं चाहे वर मन्ये नरादनुपकारिणः । घासो भूत्वा पशु पाति, भीमन् पाति रणाय ।। ver ४. जो नृप मे अधिकार ले करें न परउपकार | पुनि ताके अधिकार में, आदि न रहत अकार ॥ ५. बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर | पंथो को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ उपकारहीन व्यक्ति में तो में तृण को भी अच्छा मानता हूं, वासरूप से पशुओं की रक्षा करता है और संग्राम में रक्षा करता है । - शाकुन्तल क्योंकि वह कायरपुरुषों की -कमोर ॐ
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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