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________________ १९२ . कला के बीज लवेला, असुचिविसा परमदुब्भिगंधा, काजयअगणिबण्णाभा, कक्ण्ड़फासा, दुरहियासा, असुभानरगा, असुभा नरपसु वेयरणा | नो चेत्र रगं नरए नेरइया निदायति वा, पयलायंति वा, सुई बा, रई वा, धिदं बा, मई वा उवल भति । - दशाश्रुत स्कन्ध ६ नरकस्थान भीतर से गोल, बाहर से चांसे उस्तरे के समान तीक्ष्ण है। वहां सदा अंधकार रहता है। सूर्यचन्द्रादिक का प्रकाश नहीं होता | नरकों का भूमितल विकृत यसा मांस- लोड़ी पीव के समूह के कीचड़ से लिप्त रहता है । मलमूत्रादि युक्त एवं दुर्गन्धसहित है, कृष्णअग्नि के समान प्रभा है । उसका स्पर्श कर्कश एवं दुस्सह है। इस प्रकार नरक-स्थान अशुभ है एवं उसमें वेदना भी अशुभ है। नरक में पापीजीवनिया एवं विशेषनिद्रा नहीं ले सकते तथा स्मृति, रति, घृति एवं मति की प्राप्ति नहीं कर सकते । ८. नेरइयारणं भंते! केवइयं कालंठई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहस्साइ उक्कोसेर तेत्तीस सागरीब माई | - प्रज्ञापना ४ 1 भगवन् ! नरको में आयुष्य कितनी हैं ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की एवं उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है 1 ¤
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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