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________________ १६४ वक्तृत्वकला के बीज दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं-जो सफलतापूर्वक प्राणियों की आयु का अपहरणस्वरूप अपना काम कर के व्यतीत हो रहे है। इस बात को आप समझते क्यों नहीं ? (उक्स पिता-पुत्र संबाद उत्तराध्ययन १४ से मिलता-जुलता है ।) ६. प्रदीप्ताङ्गारकल्पोयं, संसारः सर्वदेहिनाम् । -त्रिषशिलाका पुरुषचरित्र मभी प्राणियों के शिकायत पार पाकने हा अंगारे के समान है। ७. डाझमाणं न बुझामो, राग-सिम्रि, रणा जगं । --उत्तराध्ययन १४।४३ राग-द्वषरूप अग्नि से जलते हुए इस संसार को देखकर भी हम नहीं समझते । ८. बहु दुक्खा हु जंतवा । -आचाराङ्ग ६१ संसारी जीब बहुत दुःखों से घिरे हुए हैं । ६. न त दस्ति दुःख किचित्, संसारी यन्न प्राप्नोति । योगवाशिष्ठ २।१२।४ ऐसा कोई भी दावा नहीं है, जो संसारियों को सहना न पड़ता हो। १०. सारीरा माणसा चेव, बेयगाओ अणंतसो।। --उस राध्ययन १६४६ इस संगार में शरीरसम्बन्धी और मनसम्बन्धी अनन्न वेदनायें हैं । ११. जम्मदुक्खं जरादुर. रोगा य मर ग य । अहो ! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतुगो ।। - उत्तराध्ययन १९१६ जन्म का दुःख है, वृद्ध अवस्था का दुःख है, रोग एवं मृत्यु का -..MADH..
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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