SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवां भाग : तीसरा कोष्टक १६५ दुःख है । अहो ! वह संसार निश्चितरूप से दुःखमय है एवं इसमें प्राणी दुःख पा रहे हैं। १२. हर सांझ वेदना एक नई, हर भोर सवाल नया देखा । दो घड़ी नहीं आराम कहीं, मैंने घर-घर जा जा देखा । - हिन्दी कविता १३. गतसारेऽत्रसंसारे, सुख-भ्रान्तिः शरीरिणाम् । लालावानमिवाङ्गुष्ठे, बालानां स्तन्यविभ्रमः ॥ - सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३८४ इस निःसार संसार में सुख न होने पर भी अज्ञानी जीव भ्रमवश सुख मानते हैं । जैसे- बच्चे अँगूठे के साथ अपनी लग्न (थुक) को चुसकर भी भ्रमवश उसे माता के स्तन का दूध समझते हैं १४. छोड़कर निश्वास कहता है नदी का यह किनारा, उस किनारे पर जमा है, जगत भर का हर्ष सारा । वह किनारा किन्तु लम्बी साँस लेकर कह रहा है हाय रे । हर एक सुख उस पार ही क्या वह रहा है ? " - हिन्दी कविता १५. यह जगत् काँटों की बाड़ी है, देख-देख कर पैर रखना ! -- गुरु गोरख ¤
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy