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त्याग के भेद
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१. निघतस्य तु संन्यासः, कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्याग - स्तामसः परिकीर्तितः ॥७॥ दुःखमित्येव यत्कर्म, कायक्लेशभयात्त्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८|| कार्यमित्येव यत्कर्म, नियतं क्रियतेऽर्जुन । सङ्ग त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||६||
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- अध्याय १८ शास्त्रोक्त विधि से निश्चित जिस कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है। मोहवश उस कर्म को छोड़ देता तामसत्याग कहा गया है | ||७||
जो कर्म है यह सब दुखरूप ही है ऐसे सोचकर शारीरिकक्लेश के भय से जो व्यक्ति कर्मों का त्याग करता है, वह राजस त्याग है। त्याग करने पर भी उसका फल नहीं मिलता || 5 || आसक्ति एवं फल का त्याग करते हुए मात्र कर्तव्य समझकर जो शास्त्रोक्तविधि मे निश्चित कर्म किया जाता है, वह सात्विकत्याग है ||
ण हि णिरवेक्खो चागो,
हवदि भिक्खुस्स आसय विसुद्धी ।
अविसुद्ध हि चित्ते,
कह णु कम्मबखओ होदि ॥
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--प्रवचनसारोबार ३।२०