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संसार का स्वभाव १. निन्दति तुहीमासीनं, निन्दति बहुभाणिनं । मितभारिणनं पि निन्दनि, नस्थि लोए अनिन्दिओ॥
-धम्मपद २२७ संसार चुप रहनेवालों की निन्दा करता है, बहात बोलनेवाली की निन्दा करता है और मितभाषियों की भी निन्दा करता है।
'वन में ini को नहीं. 'जाबो निन्दा न होती हो । २. दुनियां चढ़ या ने हंसे और पालाने पण हंसे ।
-राजस्थानी कहावत ३. महात्मा छहों दिशाओं में पैर कर करके हार गये, क्योंकि
लोगों ने कहा-पूर्व में जगन्नाथपुरी है, पश्चिम में द्वारका है, उत्तर में बद्रीनारायण है, दक्षिण में रामेश्वरम् है,
नीचे शेष भगवान हैं और ऊपर बैकुण्ठ है । ४. परिचितजनहषी लोको नव-नवमीहते। -माधव
संसार का यह स्वभाव ही है कि वह परिचित लोगों से द्वेष
करता है एवं नए-नए व्यक्तियों को नाहता है । ५. अर्थार्थी जीत्रलोकोऽयम् ।
-विष्णु शर्मा यह सारा संसार अपने स्वार्थ को सिद्ध करनेवाला है । ६. भिन्नरुचिहि लोकः ।।
-रघुवंश १७४