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________________ १८ १. वदनं प्रसादसदनं, सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः । करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्या ! संत जिनका वदन आनन्द का सदन है, हृदय दयासहित है, वाणी अमृतवर्षिणी है और इन्द्रियां परोपकारिणी हैं- ऐसे सन्त पुरुष किसके वन्दनीय नहीं होते । २. सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रणताः समदर्शिनः । निर्ममा निरहंकारा, निर्द्धद्वा निष्परिग्रहाः ।। L - भागवत ११।२६।२७ संत जब किसी प्रकार की इच्छा नहीं करते. वे मुझमें ही चित्त लगाए रहते हैं तथा अतिनम्र, समदर्शी, ममत्वरहित, अहंकाररहित, निर्द्वन्द्व एवं निष्परिग्रह होते हैं । ३. मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णात्रिभुवनमुपकारश्र णिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ मतं हरि नीतिशतक ६१ जिन के मन-वचन काया धर्म-अमृत से पूर्ण है, जो तीनों ही लोकों को अपने उपकार से तृप्त कर रहे हैं तथा जो दूसरों के परमाणु जितने छोटे गुणों को भी पर्वत जितना बड़ा करके मन में खुश हो रहे हैं, ऐसे सन्त कितने-क हैं ? २६४
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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