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________________ चौथा भाग चौथा कोष्ठक २६५ ४. स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः । श्रीमद्भागवत १०१६८ — साधु स्वयं तीर्थो को पवित्र करते हैं । ५. संत हृदय नवनीत समाना, ७. कहा कविन्ह पै कहै न जाना । निज परिताप जीत, पर दुख द्रवह संत सुपुनीता ॥ ६. गङ्गा पाप राशी तापं, दैन्यं कल्पतरुर्यथा । पापं तापं च दैन्यं च हन्ति सन्तो महाशयाः ॥ ८. - रामचरितमानस — चंदचरित्र, पृ० १०६ गंगा पाप का चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है, किन्तु महामना संतपुरुष पाप ताप एव दीनता - इन तीनों का ही नाश करते हैं । कोउक निन्दत कोउक वन्दत, कोउक भावसों देत है भच्छन । कोउ कहत ये मूरख दीसत, कोउ कत्त ये चतुर- विचच्छन । कोउक आय लगावत चन्दन, कोउक दारत है तन तच्छन । सुन्दर ! काहू पै राग न रोष सो, ये सब जानिये सन्त के लच्छन । सज्जन ऐसा होइए, जैसा बन का कैर । ना कहूं सों दोस्ती, ना काहूं सों वैर ।।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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