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चौथा भाग चौथा कोष्ठक
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४. स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः । श्रीमद्भागवत १०१६८
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साधु स्वयं तीर्थो को पवित्र करते हैं ।
५. संत हृदय नवनीत समाना,
७.
कहा कविन्ह पै कहै न जाना । निज परिताप जीत, पर दुख द्रवह संत सुपुनीता ॥
६. गङ्गा पाप राशी तापं, दैन्यं कल्पतरुर्यथा । पापं तापं च दैन्यं च हन्ति सन्तो महाशयाः ॥
८.
- रामचरितमानस
— चंदचरित्र, पृ० १०६
गंगा पाप का चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है, किन्तु महामना संतपुरुष पाप ताप एव दीनता - इन तीनों का ही नाश करते हैं ।
कोउक निन्दत कोउक वन्दत,
कोउक भावसों देत है भच्छन । कोउ कहत ये मूरख दीसत,
कोउ कत्त ये चतुर- विचच्छन । कोउक आय लगावत चन्दन,
कोउक दारत है तन तच्छन । सुन्दर ! काहू पै राग न रोष सो,
ये सब जानिये सन्त के लच्छन ।
सज्जन ऐसा होइए, जैसा बन का कैर । ना कहूं सों दोस्ती, ना काहूं सों वैर ।।