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________________ . छठा भाग दूसरा कष्टक शरीर के कारणभूत इन तीनों गुणों को लांघकर (निर्गुण होकर ) आत्मा जन्मजरा-मृत्यु के दुःखों से छूट जाता है एवं अमृतपद मुक्ति को प्राप्त होता है। (च) वैगुण्यविषया वेदा, निस्त्रैगुण्यो निन्द्रो नित्यत्वम्बो, निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ भवार्जुन ! ६. गुणातीत समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टादमकाः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः स उच्यते ॥ - गोता २०४५ -- हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को विषय करनेवाले हैं | इसलिए तू असंसारी अर्थात् निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को न चाहनेवाला और ཏྭཱ आत्मपरायण बन । १०१ -- गीसा १४/२४-२५ जो दुःख-मुख में समान है। आत्मभाव में स्थित है, जिसकी मिट्टी, पत्थर और सोने में समान बुद्धि है, जो प्रिय अप्रिय को तुल्य समझता है, धैर्यवान है, निन्दास्तुति में समान भाववाला है। मान-अपमान में तुल्य है, मित्र शत्रु में समान पक्षवाला है और सब प्रकार के आरम्भ का परित्याग करनेवाला है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है । *
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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