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________________ छठा भाग : पौधा कोष्ठक २४६ जसे-मोजन में रहता हुआ भी घाटू उसके रस को नहीं जानता, उसी प्रकार बहुत से व्यक्ति चारों वेद और अनेक धर्मशास्त्र पढ़ते हैं, फिर भी आत्मा का ज्ञान नहीं कर पाते । ६. श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः, शृण्वन्ऽपि बहवो यं न विद्यः । आस्चयों बक्ता कुशलास्य लब्धा-ऽऽरचई ज्ञाता कुशलानुशिष्टः। -कठोपनिष २७ यह आत्मज्ञान अत्यन्त गूढ़ है | बहुतों को तो यह पहले सुनने को भी नहीं मिलता, बहुत से लोग सुन तो लेते हैं, किन्तु कुछ जान नहीं पाते । ऐसे गूलतत्त्व का प्रवक्ता कोई आश्चर्यमय बिरला ही होता है, उग़को पानेवाला तो कोई बुशल ही होता है और कुशल गुरु के उपदेशा से कोई विग्ला ही उसे जान पाता है । ७. जे अज्झत्थं जाण्इ, से बहिया जारगइ, जे बहिया जागड, से अज्झतथं जारगइ । -आचारांग-१७ जो अध्याम को आत्मा के मूलस्वरूप को जानता है वह बाह्म को (पृद्गलादि द्रव्यों को) जाना है और जो बाह्य-पदार्थों को जानता है, वह आत्मा के मूलस्वरूप को-अध्यात्म को जानता है। ८. रण याणंति अपणा वि, किन्नु अपोसि । —आचारांगचुणि-१॥३॥३ जो आत्मा को नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा ?
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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