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________________ २८५ सुम्बर आय मिले सबहीं, वक्तृत्वकला के बीज इक दुर्लभ संतसमागम भाई ! ५. कोटि जन्म की पुष्यकमाई तब सन्तन की संगति पाई। सतसंगति जन पावे जबही, आवागमन मिटावे तबही || ६. सवर्ण नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे व संजमे । - अणहए तवे चेब, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥ - भगवती २५ तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञान से प्रत्यास्थान सांसारिक संयम से अनाश्रव साधुसंग से धर्मश्रवण धर्मश्रवण से विज्ञान - विशिष्ट तत्त्वबोध, विज्ञान में पदार्थों से विरक्ति, प्रत्याख्यान से संयम नवीन कर्म का अभाव, अनाथ से तप, तप से व्यत्रदान (पूर्वबद्ध कर्मों का नाश ) व्यवदान से निष्कमंता सर्वश्रा कर्मरहित स्थिति और निष्कमंता से सिद्धि - अर्थात् मुक्तस्थिति प्राप्त होती है । ७. गिहिसंथवं न कुज्जा, कुज्जा साहूहि संथवं । दशवेकालिक ८५३ गृहस्थों संसारियों का परिचय नहीं करना चाहिए, किन्तु साधुओं का सत्संग करना चाहिए । ८. संगति साधुन की करिये, कपटी लोगन से डरिये । निपट निरंजन
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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