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________________ २८६ वक्तृत्वकला के बीज ३. साधुदर्शन(क) साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः, तीर्थ पुनाति कालेन, सद्य: साधुसमागमः । —चाणक्यनीति १२५ साधुओं का दर्शन पवित्र है क्योंकि साधु तीर्थरूप होते हैं । तीर्थ तो कालान्तर में पवित्र करता है, किन्तु साधुओं का समा गम तत्काल ही तार देता है। (ख) न बमयानि तीर्थानि, न देवा मुछिलामयाः। ते पुनन्त्युरुकालेन, दर्शनादेव साधवः ।। –श्रीमद्भागवत १७/४८।२१ वास्तव में न तो नदी आदि के जल से युक्त तीर्थ हैं, च मिट्टीपत्थर से बनी हुई मूतियां देवता है । वे बहुत काल के पश्चात् पवित्र करते है, किन्तु साघुजन दर्शन-मात्र से पावन कर देते हैं। (ग) तनकर मनकर वचनकर, देत न काहू दुःख । तुलसी पातक झड़त है, देखत उनका मुख ।। मुख देखत पातक झड़े, पाप बिलय हो जाय । तुलसी ऐसे सन्तजन, पूर्व भाग्य मिल जाय ।। -तुलसी वोहावली (घ) साधु-दर्शन लाभ है, बड़भागी दरसाय । जिनरंग शुली की सजा, कांटे ही टल जाय । --हिन्दी दोहा
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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