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________________ पांचवां भाग : तीसरा कोष्टक १६५ इन गार्मियों को मुन्दरादिक से मारो, खङ्गादिक से छेदों, शूलादिक से भेदो, अग्नि से जलाओ । परमाश्रामिक देवों के ऐसे शब्द मुन नैरमिक भय से होकर सोचते हैं कि अब भाग कर कहां जाएँ ? ७. छिवति बालस्स रेरा नक्क उद्घविचिदति दुबेदि कन्ने । ' जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्रां विवाह सूलाहि भिलावयति । - सूत्रकृताङ्ग ५।१।२२ परमधामिक देवता पूर्वजन्म में किये हुए पापों का स्मरण करवा कर छुरे से मापी जीवों के नाक, होठ एवं दोनों कान काटते हैं । उनकी जीभों को खींचकर वितरित (गिल) मात्र बाहर निकाल लेते हैं और फिर उसका तीखे झूलों द्वारा भेदन करते हैं । ८. कर-कर पाप प्रचंड नर, पड़े नरक जमहत्थ । वन विकराल विशेष सुर, फिर गये ते सब सत्थ ॥ फिर गये ते सब सत्थत, पकड़ पिछत्थत, घर के लग्गग, गुर्ज अगलाग सिंह विभग्गग, डरपिय अग्गन मग्गग पाग, धर भुई घुजत घर-घर, शुद्ध नांह सुबुद्धज हीन, कुबुद्धज कर कर | - अमृतध्वनिव ६. जं नरए नेरइया, दुहाई पांवति चोर- अरता | ततो अरणंतगुणियं निगोयम दुहं होइ ॥ नरक में जो पापीजीव घोर अनन्त दुःख पा रहे हैं, निगोद में उससे अनन्तगुणा दुःख होता है । *
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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