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पांचवा भाग : टूमाग कोष्टक
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६ यत्र-ध्यान का क्षेत्र । ७ सवा-ध्यान का समय ।
+ यथा--- की निधि । ४. मा मुज्झह । मा रज्जह ! मा दुस्सह ! इट निअटेसु ।
थिमि ट्रह जइ चित्तं, विचित्तशागा-पसिद्धीए । मा चिट्ठह ! मा जपह ! मा चितह ! किं वि जेग होइ थिरो। अप्पा अप्पंमि रओ. इरणमेव परं हवे झारणं !
-व्यसंग्रह है माधक ! यिचित्र शान की सिद्धि में यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इप्ट-अनिष्ट पदार्यों में मोह, राग और दूष मनकर ! किसी भी प्रकार की चेष्टा, जल्पन व चिन्तन मत कर, जिसमे मन स्थिर हो जाये । आत्मा का आत्मा में रक्त हो जाना ही उत्कृष्ट यान है। ध्यानमेकाकिना दाभ्यां, पठनं गायन त्रिभिः । चतुभिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभी रणम् ।।
--चाणक्यनीति ४।१२ ध्यान अकेने का, पढ़ना दो का, गाना तीनों का, चलना चारों का, खेती करनी पांचों का और युद्ध बहुत व्यक्तियों का अच्छा माना गया है।