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वक्तृत्वकला के बीज
उन सबमे इन्कार कर दिया । तब ये रोते-रोते आकर ऋषियों के चरणों में पड़ गये और उनके उपदेश से इनके ज्ञान-नेत्र खुल गएँ । घिगों - हानाग का पंग दिया । ये एक नी जगह बैठकर रामराम जपते रहे। इनका शरीर दीमकों का घर वन रक्षा । (दीमकों के घर को वल्मीक कहते हैं) तेरह वर्ष बाद, ऋषि वहाँ वापिस आये और इनको नल्मीक से निकाला। वल्मीक से निकलने के कारण इनका नाम वाल्मीकि हुआ। ये ही वाल्मीकिऋषि आदिकवि के नाम से प्रख्यात हैं। (स्कंदपुराण पाँधयाँ अतिखंड, अवंतिक्षेत्र माहात्म्य अ० २४)
जगद्गुरु-आदिशंकराचार्य
इनका जन्म सम्बत् ८३५, कोचीन (केरस),माता सत्ती, पिता शिवगुरु एवं जन्म का नाम शंकर था। शंकर प्रथम वर्ष में मातृभाषा गढ़े एवं दूसरे वर्ष में १८ पुराण पढ़े । तीन वर्ष की आयु में पंडित बने एवं पांचवें वर्ष इन्हें जनेऊ दी गई। इनके विषय में यह भी कहा जाता हैअष्टवर्षे चतुर्वेदी, द्वादशे सर्वशास्त्रवित । षोडशे कृतवान् भाष्यं, द्वात्रिशे मूनिरभ्यगात् ।।
ये आठ वर्ष की आयु में चारों वेद और वारह वर्ष की आयु में अन्य सभी शास्त्र पर चुके थे । सोलह वर्ष की आयु में इन्होंने ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषदों के माध्य बनाए और बत्तीसवें वर्ष में ये दिवंगत हो गये ।
बैदिकधर्म का मंडन करना इनको यचपन से ही अभीष्ट था । वेदपारंगत कुमारिलभट्ट से प्रयाग में मिले ।