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________________ धन की भूख १. जातिर्यात रसातलं गुणगणस्तस्याप्ययोगचढ़ताच्छीलं खेलतटात् पतत्व भिजनः सन्दयतां वह्निना। शो गिगी बचमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः कवलं, येने केम बिना गणास्तृगालवप्रायाः समस्ता इमे ।। ..-मह हरि-नीतिशतक-३६ चाहे जाति पाताल को चली जाय, सारे गुण पासाल से नीचे चले जायें, शील पर्वत से गिर कर नष्ट हो जाय, स्वजन अग्नि में जलकर भस्म हो जाये और वरी-शौर्य पर शीघ्र ही वयात हो जाय-तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिए, क्योंकि कब के दिशा गट के जाने में गुण तिन दीड निकम्मे हैं । २. बुभुक्षितव्याकरणं न भुज्यते, पिपासितः काव्यरसो न पीयते । न छन्दसा केनचिदुद्धतं कुलं, . हिरण्य मेवाजय निष्फला गुणाः ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार पृष्ठ ६७ भूखे व्याकरण नहीं लाया करते, ग्यासे वायरस नहीं पिया करते तथा वेद से किसी ने कुल का उद्धार नहीं किया, अतः धन का ही अर्जन करो I दूसरे सारे गुण निष्फल हैं। ३. न दुनियाँके हों काम धन के बगर , न मुर्दा भी उठता कफन के बगैर । मिले जर से कुब्बत ओ जर से तमीज , खजाने हैं जिसके वही है अजीज ॥ - शेर
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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