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संयम-दीक्षा का समय आदि
कप्पइ निम्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा खुटुगस्स डिडिया बा साइरेगट्ठ वा सजायं उपहाबितए धासंभ जित्तएवा।
व्यवहार १०१३० साधु-साध्वियों साधिक आठ वर्ष (गर्भ सहित नव वर्ष) के बालक-बालिका को दीक्षा दे सकते हैं एवं उनके नाथ भोजन
कर सकते हैं। २. वनेषु च वित्यैवं, तृतीयं भागमायुषः । चतुर्थमायुषो भाग, त्यक्त्वा सङ्गान् परिजजेत् ।।
-मनुस्मति ॥३३ आयुष्य के तीसरे भाग में वन में विचर कर चौथे भाग में सब विषगों का त्याग करके संन्यास-दीक्षा ले । यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद, ब्रह्मचर्याद्वा गृहाद्वा । अथ पुनरवती वा, ती स्नातको वोत्सनाग्निकोवा ।
—जाबालश्रुति जिस दिन वैराग हो, उसी दिन प्रजित हो जाना चाहिए । चाहे ब्रह्मचर्याश्रम रोको या गृहस्थाश्रम से हो। वह व्यक्ति चाहे अवनी हो, अती हो. स्नातक हो या उत्सनाग्निक 1 प्रनजेब ब्रह्मचर्यावा, प्रव्रजेद् वा गृहादपि । वनाता प्रमजेद् विद्वा-नातुरो वाथ दुःखितः ।
-अङ्गिरास्मृति २२६
३. यम