Book Title: Lokprakash
Author(s): Vinayvijay, 
Publisher: Sanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकलाससागरसरिमा 5130 महावीर जैन आराधना केना +di ३ ॥ॐ श्री अहँ नमः ॥ ॥ स्वपरसमययारावारपारीण-शासनसम्राद-जगद्गुरु-सर्चतन्त्रस्वतन्त्र-मरिचक्रचक्रवर्ति-तपागच्छाधिपति-भट्टारकाचार्य _ महाराजाधिराज-प्रत्यूपाभिस्मरणीय श्री विजयनेमिसूरिभगवद्भ्यो नमो नमः ॥ । तपागच्छगगनाङ्गणभास्कर--भट्टारकाचार्यश्रीहीरविजयसूरीश्वरविनेयोपाध्यायधीकीर्तिविजयगणिशिष्योत्तंसमहोपाध्याय श्रीविनयविजयगणि विनिर्मितः ॥ ॥ श्रीलोकप्रकाशः॥ ॥ तस्य चायं ॥ 2 ॥ द्रव्यलोकप्रकाशसत्कसर्गत्रयात्मकः प्रथमो विभागः॥ ॥ यंत्रचित्रटिप्पण्यादिविभूषितगूर्जरभाषानुवादविस्तृतविवेचनसमलङ्कृतः॥ समलतः " Cuy ॥ विवेचनादिप्रणेता ।। ॥ तपागच्छाधीश्वरश्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरपट्टधरशिष्यः सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशाह DELISTED श्रीविजयोदयसूरिः।। है ॥प्रकाशयित्री ॥ ॥ संघवी शेठ नगीनदास करमचंदसमर्पितवपूर्ण साहाय्येन राजनगर ( अमदावाद स्था । श्री जैनग्रन्थप्रकाशकसभा ॥ वीर संवत् २४६०] प्रति १००० [विक्रम संवत्, १५ 13 :11 ! भमहापा:-.. स्त नगर 9.499 CC Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो सिद्धचकस्स ॥ ॥ णमो सिरिगुरुणेमिसूरीणं ॥ ॥ शार्दूलविक्रीडित ॥ जेनो उत्तम पोध शोध करतो, तत्वार्थना तस्वनी । एकीसाथ प्रचंसना मतिधनो, जना करे सत्त्वनी ॥ पाम्यो हुं श्रुतबोध योगविधिने, जेना प्रसादे करी । वंदं श्रीगुरु नेमिसरिचरणे, ते उपकारो स्मरी ॥ १ ॥ ॥ प्रस्तावना ॥ धर्मवीर प्रियबंधुओ ! अविछिन्नप्रभावशालि त्रिकालाबाधित आपणं श्री जैनेन्द्रदर्शन सर्व दर्शनोमां प्रधानपद भोगवे छे, ते व्याजबी ज छे. कारण के ते जैनेन्द्र दर्शन ज अन्य सर्व दर्शनोने उचित न्याय आपवा समर्थ छे. माटे ज जैनेन्द्र दर्शन "निष्पक्षपातिदर्शन" "अनेकांतदर्शन" एवा नामथी ओळखाय छे. जुओ! " अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षमावाद्-यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन् , न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ १॥" एज आशयी महर्षि भगवंतोप ते लोकोत्तर दर्शनने समुद्री उपमा आपी छे, तेमज अन्य दर्शनोने नदी समान कया छे. जुओ "उदधाविव सर्वसिंधवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभिमासु सरित्स्विनोदधिः ॥ १॥" जेम समुद्रमा सर्व नदीओनो समावेश थाय छे तेम जैनेन्द्र दर्शनमाज सर्प दर्शनोनो समावेश थाय छे. अन्य प्रत्येक दर्शननी आगीया जीष जेपो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश पण जैनेन्द्र दर्शनमा एक अंशाने ज आभारी छे, जेथी समजी शकाय तेम से के अन्य दर्शनो अपूर्ण अने आपेक्षिक ज्ञान संपादन कराववामां असfar at नथी माटे ज म छे. कारण के - कोइ कोइ म एकांतवाद स्थापना जतां अनेकांतवाद स्वीकार्यों होय तेम अनेक स्थले जणाय छे, जे वात प्रसंगे जणाची उचित छे. - तात्पर्य ए के मोनसाधनने कपादिनी शुद्धि दर्शावचापूर्वक संपूर्ण रीते प्रतिपादन करनार - भवोभव चाह्नवालायक श्री जैनेन्द्र दर्शन ज छे, माटे ज मंत्री वस्तुपाले अंतिम समये एज भान्छे के " यन्मयोपार्जितं पुण्यं जिनशासन - सेवया ।। जिनशासनसेवैव तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥ १ ॥ " " शास्त्राभ्यासो जिनपदनतिः संगतिः सर्वदाऽयैः, सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोपवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतच्चे, सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदाप्तोऽपवर्गः ॥ १ ॥ " शासननी सेवा तो लोकोत्तर फलदायक छे एमां नवाइ शी ? परंतु तेनो प्रेम पण चहाणना जेवुं काम करे छे, माटे ज श्रीमान वाचकवर्ये कयुं छे के" अस्मादृशां प्रमादग्रस्तानां चरणकरणहीनानां । अन्ध पोत वे प्रवचनरागः शुभोपायः ॥ १ ॥ " " विषयानुबन्धर्वधुर - मन्यन्न किमप्यहं फलं याचे । किंत्वेकमिह जन्मनि, जिनमतरागं परत्रापि ॥ २ ॥ " आया सर्व दुःखनाशक ज्ञानानन्दना विलासी भरेला - सर्वसंपत्तिदायक जैनेन्द्रशासनमां मोनी प्राप्ति संक्षेपे ज्ञानयुक्त क्रियाराधनथी अने विस्तारे उत्तम दर्शनादि त्रणना आराधनथी कही छे. जुओ– ज्ञानक्रियायां मोक्षः || सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि भोक्षमार्गः ।। अहीं एक प्रश्न उपस्थित थाय छे के क्रियानी पहेलां ज्ञान फेम कीधुं ? उत्तर - क्रियानी निर्दोष आराधना तो ज्ञानने आधीन छे, माटे ज फझुं छे के Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम नाणं तओ दया०॥ नाणं पयासग मोहओ-तबो संजमो अगुनिधरो॥ ___ आ ज अभिप्राये ज्ञानने आदिमां का छे, पवा ज्ञाननी आवश्यकताने ममजता शास्त्रकारो फरमावे छे के-त्रीजा लोचन समान, अलौकिक सूर्य समान, आश्चर्यकारी घरेणा समान, चोर न चौरे सेवा धन समान सम्यगशान छे. हेच पदार्थोथी निवृनि अने उपादेय पदार्थोमा प्रवृत्ति कगवनार पण ते ज ज्ञान छे. कृत्याकृत्यादिनी पिछाण-चारित्रनी माधना-चिननी निर्मळता-कपायनो अय पण पूर्वोक्त ज्ञानी ज की झकाय छ. माटे ज तेने सूर्य-बम विगैरेनी 'उपमा आपी छ. अन्यत्र एम पण कमु छ के-पीपमममुद्रोत्थमित्यादि ।। शानथी पवित्र बनेली क्रिया मोनाना घडा जेवी कही छे. नथा ज्ञानपूर्वक क्रियाराधनधी भयेलो कमेनय दग्धमंडूकर्णनी जैया कन्या छ. माज ज्ञानविनानी क्रिया खद्योत प्रकाशतुल्य कही छे. अने मानने अपनाए सूर्यतुल्य कहुं छे, खम मनुप्यत्व पण आवाज ज्ञानथी मेळवी शकाय छे, तेथी आवाशानने धारण करनार प्रमण विगैरेनी ऊर्ध्वगति शास्त्रमा दर्शाची छे. एम होवाथी अनेक अपेक्षाओने ध्यानमा लइने पूर्वाचार्य भगवंतोय शानना उत्कर्षने चारित्र कामु छे. एटले ज्यां ज्ञाननो परिपाक होय त्यां अवश्य चारित्र होय ज, माटेज कई छे के.'ज्ञानस्य फलं विरतिः' ॥ आवा ज्ञानकल्लोलश्री भीजायेला मनपाला जीवो मोहराजानो मुखथी पराजय करी शके छ. मिथ्यात्वरूपी पर्वनना पक्षने छेदी नांखनार ज्ञानरूपी वसथी शोभायमान योगी-निर्भयपणे आत्मानंदरूपी नंबनधनमा शक्रनी माफक क्रीडा करे छे. आवा ज्ञानना बले ज-कर्मोदयकाले पण शानीने वेश धतो नथी, एम तो गीमा पण कबूल करे छे. जुओ-ज्ञानिनोऽझानिश्चात्र० || नार्थ पण तेषा मानीने ज का छे. जुओ ते धन्ना सुकयत्या, जेसि नियतत्तयोहरुइजाया । जे तत्तबोहभोई, ते पुझा मुभवाणं ॥ १ ॥ इत्यादि-- एकांत पक्षवालाओ पण पोनाना अभिप्रायानुसारे ज्ञानने तो मुक्तिना साधनरूपे स्वीकार ज छे. जुओ 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ॥ (पंचविंशतितत्वज्ञः मुच्यते नात्र संशयः ।। ज्ञानामिः सर्वकर्माणिः ।। परंतु भिन्नता स्यां ज जणाय छ के तेओ अपेक्षा शानना अभावे शान थी ज मुक्ति माने के. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले क्रियाने मानता ज नथी अने परमप्रमावसंपन्न श्री जैनेन्द्रदर्शन शानयुक्त क्रियाथी मुक्ति माने छे. पर्नु रहस्य ए छे के-ज्यारे प्रत्येक ज्ञानमा अने क्रियामा मुक्ति पमाडवार्नु देशधी सामर्थ्य छे त्यारे संपूर्ण सामर्थ्य तो उभयमा ज रहेलु छे. जेम गगडाने चलावबार्नु सामर्थ्य प्रत्येक पैडामा देशथी छे अने बनेमां संपूर्ण रहेलुं छे, तेम ज्ञानक्रियामां पण समजवू. बळी प पण ध्यान म्हार न ज हो, जोइए के ज्ञानविनानी क्रिया अंधजेवी अने क्रियाविनानुं ज्ञान पंगु( पांगळो माणस ) ना जेवू छे. जेम वनमा सकगेला दावानलना प्रसंगे भलेने अंधमा चालवानी शक्ति होय पण ज्यांसुधी पांगळाने खभे बेसाड़ी वेना बतावेला मार्गे अंधजन न चाले त्यांमुधी दावानलना दुःख थी न बचे, तेम ज्ञानक्रिया उभयनु आराधन न करे तो आ जीव संसारदावानलथी शुं बचे खरो के ? न ज यचे. पूर्वे कहेल ज्ञान-सर्वानुयोगमय पंचमांग श्री भगवतीसूत्र तथा श्री नंदीसूप्राविमा पांच प्रकारचें कहेल छे. युक्ति पण एम ज जाहेर करे छ के-जेम दुनियाना प्रकाशक सूर्यादि पांच छे तेम ज्ञान पण पांच का छे; कारण के ते पण प्रकाशक ज छे. प्रकाश अने ज्ञान ए वे समान अर्थवाळा शब्दो छ. माटे न नाणं फ्यासयं० इत्यादि पूर्वधर भगवंतोए का छे. आ पांचे ज्ञानमा स्वपरस्वल्पने जणावनार श्रुतज्ञान ज छ. जेमा द्वादशांगी मुख्य गणाय छे. ते अंगरचनाना संबंधां एम समजवू के जेम एक पुरुष वृक्ष ऊपर चढी फलो भेगा करी नीचे नांखे, ते फूलोने माळी वनमा झीली माळा बनावे हे तेम पूज्यपाद सर्वज्ञ प्रभु श्री तीर्थकर महाराजाए केवळज्ञानरूप वृक्षउपर चढी अनेकार्थरहस्यगर्भित सकलजीवोपकारिणी सुधासमान देशनाद्वारा कहेला वचनोरूपी पुष्पोन वीणीने यथार्थ स्वरूपे बीजबुद्धिना निधान पूज्य श्री गणधरभगवंतोष आचारांगादि सूत्रोरूपी माळा गुंथी. माटे ज कल्यु के–अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरा निउणं॥ श्रुतफेवळी आदि स्थविर भगवंतोए अंगोन स्पष्टीकरण करचा उपांगादिनी रचना करी. भा प्रसंगे ए. पण ध्यान बहार न ज होवु जोइए के-दृधमा जेम घी रहेलु छे, तेने विचक्षण पुरुष जुईं करी शके छ एम अंगसूत्रो दृध जेया अने नियुक्तिभाष्य-चूर्णी धी जेवा समाजचा. चतुर्दशपूर्वघर श्री मद्रबाहुम्वामी आदि महापुरुषोग ते सूत्रनी साथे अभिन्न स्वरूपे रहेला नियुक्त्यादिने जुदा गोठव्या, एम सर्वानुयोगमय पंचमांग श्री विवाहप्रज्ञाप्तिसूत्रमा कहेल मुत्तस्थो खलु पल्मो० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि वचनधी जाणी झकाय छे. पूर्वे ए आगमरूप गणाता सूत्रोना दरेक पर्नु चारे अनुयोगगर्भित व्याख्यान करवामां आवसु हुनुकेटलोक समय वीत्या बाद अवसर्पिणीना दुषम काळना प्रभावे जीवोनी थती बुद्धिमंदत्तायी ते ते अनुयोगोमा पती गुंचवण विगैरे कारणो ध्यानमा लइने पूज्यपाद-- जगद्गुरु-न्यूनदशपूर्वधर भगवान् श्री आर्यरक्षितसूरीश्वरजी महाराजाप ते चारे अनुयोगोने प्रत्येक सूत्रोमां जुदा जुदा हेच्या त्यारथी ते ते सूत्रोन व्याख्यान ते ते अनुयोगने आश्रयीने ज करवामां गौरव छे. वळी हालनी अनेक शोधखोळो पण ते ज विद्या मंत्र विगेरेना बजाना समान आगमोमांथी ज नीकली छे. कारण के से आगमोमां ज कर्मवाद-परमाणुवाद-आत्मवाद विगैरे संपूर्ण अपूर्व फिलोसोफी भरेली छ. मार कहतुं जाइए, फे-दरेक परमाणु जुदा जुदा स्वरूपे परिवर्तन पामे छे, माटे वास्तविक रीते रागद्वपनुं खरं कारण कोई अन्य छेज नहीं, केवल अज्ञानजन्य जुदी जुदी प्रतीति थाय छ. एम जैनागम पहेलेथी ज फरमावे छे. वळी शब्दने आकाशनो गुण छ एम माननारा नैयायिकोने जैनदर्शन पहेलेथी जणावतुं हतुं के-'शब्द प पौद्गलिक पदार्थ छ.' एम नहीं स्वीकारनारा तेओ फोनोग्राफनी शब्दने केच (पकडवानी) करवानी शक्ति जोइने हवे कबूल करे ज छे. कारण गुण नो पकडाय ज नहि; पुदल ज पकडी शकाय. ए वात तो जगजाहेर छे. वळी वायरलेसू टेलीग्राफनी शोधखोलने जैनदर्शन नवीन शोधखोल तरीके स्वीकारतुं ज नथी; कारण के अमारा निर्दोष सुवर्णसमान पवित्र आगमो पहेलेथी ज डिडिम वगाडीने जगावे छ के तारना अनुसंधान विना पण मुघोपा घंटाना शटदो असंख्य योजन दूर रहेला बीजा विमानोनी घटाओमां उतरे छे. ते सांभाळवाद्वारा देवताओ कल्याणकनो महोत्सव करवा सावधान थाय छे. र शवशक्ति सिवाय बीजु शु होइ शके ? सदाकाल आरंभपरिप्रहथी निवृत्त रहेनारा आपणा श्रीतीर्थंकरदेवो आरंभपरिग्रहादिथी बनता पपेरीमेंट (प्रयोग) अजमाच्या शिवाय मात्र केवलज्ञानथी जाण्या यार देशनाद्वारा कहे छ के–वे वायुना योगे पाणी नीपजे छे. आ वात जुओ सूयगडांगसूत्रमा वातयोनि पाणी कमु छे. तथा वनस्पतिमा जीच छ एम कहेलुं छे. (जुओ आचारांगसूत्रमा) एम छतां हालना शोधखोल कर नाराओ, जेओ उपर कहेल बातने नवीन शोधखोळ तरीके जाहेर करे छ, तेओ जैनसिद्धांतनो पुरेपूरो अनुभव नहि होवाने लइने ज तेम जणाचे छे. वळी आत्माना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्य प्रदेशी, दरेक प्रदेशे रहेली अनंती ज्ञानादि पर्यायो, दरेक आत्मप्रदेशे चोंटेली अनंत परमाणुमय अनंती कर्म वर्गणाओनो दरेक परमाणु-कये टाइमे केवा परि वर्तनने पामे के ? बंध- उदय उदीरणा-सत्ता अबाधाकाल- स्थितिघात - रसधातगुणश्रेणीतामं निषेचनावरणकरणनिरी-कप-छेद - ताप विगेरेनुं अपूर्व संपूर्ण स्वरूप अलौकिक तत्त्वज्ञान - कहो तो खरा के जैनेन्द्रागमो (जैनमाहिरा ) सिवाय अन्यत्र क्यों छ ? आवाज आशयने लहने एक महापुरुष शास्त्राभ्यास विगेरे सात वानां मने भवोभव मन्त्रजो एम कट्टेल छे एम पहेलां पण कयुं छ. अढार हजार शीलांगरथ आदिनी संख्याने ध्यानमां लड़ने गणधर भगवने जेओना १८ हज़ार आदि श्रमणा बमणा पदो बनाव्या छे, ते पवित्र आगमो कालादिक दोषे करी पूर्व स्थितिने जाळवी शक्या नथी एम देखातुं प्रमाण पण साश्रीती करावी शके तेम हे. तो पण जैनसाहित्य जेटलुं विशाल अने सुसंगत स्वरूपमा हाल मोजुद छे तेलुं भाग्ये ज अन्य कोई दर्शननुं साहित्य हशे तत्वज्ञाननापिपासु बुद्धिशाळी वर्गने पण जैनसाहित्यज-संतोष पसाउद, ए वातमां चेमत होय ज नही. कुदरतनो नियम एवो के जेना पायो - भीन- पाटडा मजबूत होय ते ज महेल टकाउ कही शकाय, तेस जैनसाहित्यरूपी महेलना बाना मजबूत होवाथी ते विजयवंत वर्से द्वे, अने वर्तशे जण वानामां पाया समान निर्दोष शांतरससिंधु श्री वीतराग देव जाणवा. भींत सरखा कंचनकामिनीना त्यागी - निरभिलाषि शुद्ध गुरु समजवा. तथा पाटडा समान - अविच्छिन्न प्रभावशाली त्रिपुटी ( कप, ताप, छेद ) शुद्ध क्ष्यामय धर्म जागवो. एज कारणथी जेओ जैनसाहित्यमा आंशिक बोध धरावे छे, एवा ते पाश्चिमात्य विद्वानो पण जैन साहित्यनेज मुक्तकंठे प्रशंसे छे, एम अनेक आधारोद्वारा कही शकाय तेम छ. 1 जैनसाहित्यमा बनायेला एक पण पढ़ार्थनो संपूर्ण संगीन योध- तेन्हाथी बीजां तमाम पदार्थोंने जाण्या शिवाय नज थड़ शके माटेज क के - जे एगं जाणह से सवं जाणइ० || एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन ष्टष्टाः ० ॥ इत्यादि । एज कारणची सर्वे सूत्रांना यथार्थ अर्थो गुरुद्वाराज आणी शकाच. जुओ - सब्बे सुतथ्था गुरुमहहीणा || स्वतंत्र अभ्यासथी तो fauta बोध थाय, तेथी संसारभ्रमण वधे, माटेज व्यवहारसूत्रमां जीनत्र्यवहारने अनुमारे सूत्र भणाववाने दीक्षापर्यायनो नियतकाल जणाच्यो छ. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश परमप्रभावसंपन्न श्री जैनसाहित्यमा आगमरूपे गणाता सिद्धांतोनो साधुवर्ग सिवाय अन्य वर्ग लाम लइ शकतो नथी. कारण के दरेक सिद्धांतना अभ्यासमां कारणभूत पवित्र योगोद्बह्ननी क्रिया छे. जेनो साधुवर्ग ज अधिकारी छे. तेथी दरेक वर्गने तेओमां कहेल भावोनो बोध थाय; ते सार श्रीअंग-उपांगादिमांधी रहस्य प्रहण करीने पूर्वाचार्य महर्षि भगवंतोए नीतत्त्वार्थ-संप्रहणि-धर्मसंप्रहणिप्रवचनसारोद्धार-क्षेत्रसमास-पंचसंग्रह-कर्मप्रकृति आदि ग्रंथो बनाव्या छे. आ प्रथो पण घणा ज विस्तीर्ण-महार्थवाला-गहन-तीक्ष्णबुद्धिगम्य होवाथी ते तमाम सूत्रादिमाथी सार सार ग्रहण करीने गीतार्थशिरोमणि पज्यपाद महोपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराजे आ श्रीलोकप्रकाश नामनो अपूर्व रत्ननिधाननी जेवो प्रथ यनान्यो छे. जेम कुंचीविना म्हेलर्नु द्वार उघाडी शकाय नहीं, तेम आगमरूपी महेलनुं द्वार उघाडवाने कुंचीसमान गणाता श्री भगवती-काका-नदीमा-कोद्वारसूत्र-जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति जीवाभिगम-वृह क्षेत्रसमासादिमा ते ते स्थले रहेल समजवामां कठीन करणाम्नायादि प्रक्रियाने तथा अन्य पदार्थस्वरूपने सरलरूपे जणाववापूर्वक सुबोध शब्दरचना पण ग्रंथकारे आ ग्रंथमा घणी ज सरस वापरी छे. ___ प्रस्तुत अंथकारे आ पंधर्नु अन्य कोइ नाम न राखता लोकप्रकाश पवं नाम केम राख्यं ? उत्सर-जेना बळे जीवनी उर्ध्वगत्यादि थाय छे तेवा धर्मास्तिकायादि अलोकमां नथी. अनंता तीर्थंकरादि शलाका पुरुषो लोकमा ज थयेला होवाथी लोकनी प्रधानता छे. धर्मसामग्री पण अहीं ज छ, दर्शनादि शुद्धिकारक विशिष्ट पदार्थों पण लोकमा ज रहेला छे; माटे ज लोकमां विशेष वक्तव्य होवाथी लोकप्रकाश नाम राख्यं होय एम संभवे छे. प्रकाशनो अर्थ ज्ञान पण थाय छे, माटे लोकना स्वरूपने जयावनार एवो ग्रंथ लोकप्रकाश कही शकाय. लोकमां अने अलोकमा रहेला सकल पदार्थो द्रव्यादि चारनी अपेक्षाए चार स्वरूपमा व्हेंचाया छे. स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावनी अपेक्षाण दरेक पदार्थोमा अस्तित्व रहेल्छे अने परद्रव्यादिनी अपेभाए नास्तित्व रहेलं छे, एम दरेक पदार्थोर्नु अस्तित्व अने नास्तित्व-द्रव्यादि चारनी अपेक्षाथी ज जाणी शकाय छे. एथी ज सप्तभंगी आदिनी उत्पत्तिनो पण बोध थइ शके छे. ते चारेनुं निरूपण होवाथी आ पंधना चारे विभागो अन्वर्थ पोतपोताना नामथी फहेवाय छे. १ द्रव्यलोकप्रकाश. २ क्षेत्रलोकप्रकाश. ३ काललोकप्रकाश. ४ भावलोकप्रकाश, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यलोकप्रकाशना ११ विभागो छे जे सर्गना नाभथी कला के. ग्रंथकारना परिचय परस्बे पटलु जागी सकाय छे के सेओलीना तेजपाल नामना पिता अने राजश्री नामना मातुश्री हवा. स्वोपज्ञवृत्ति समेत श्री हैमलघुप्रक्रिया विगेरे जोवाथी तेओश्री वैयाकरणशिरोमणि हता एम कही शकाय छे. शांतसुधारस मंथ, अनेक स्तोत्रो तथा नयकर्णिका विगेरे तेओभीनी अपूर्व कृतिओ संस्कृतकाव्यरचनामां तथा नयप्रमाणादिनिरूपणमां पण तेमनी कुशळता जणावे छे. श्रीकल्पसूत्री सुबोधका टीका पण तेओश्रीए बनावी छे. श्रीपाल रास - पुण्यप्रकाश तेओश्री स्तवन विगेरे जोतां तेओश्रीनी गुर्जर कान्यकुशळता पण सात्रीत थाय छे. अपूर्व तत्वबोधशाली हत्ता, एम आ एकज ग्रंथ कही शके तेम छे. ग्रंथकारनी पट्टपरंपराश्रीहरिविजयसूरि वाचकविः उपाध्याय कीर्तिविजय गणि L लाभवि० जीतवि० उ० विनयवि० गणि नयवि० पद्मवि० उ० यशोवि० गणि श्रीपालरासनो अधुरो भाग पूरी करवाने प्रथकारे समर्थ विद्वान् श्रीमान उपाध्यायजी यशोविजयजीने भलामण करी जेथी ते महापुरुषे महागंभीर अर्थ - वाळा चोथा खंडसमेत रास पूर्ण कर्यो. ए उपरथी बने महात्माओ समकालीन हता एम जाणी शकाय छे. शंरमां मंथकार काळधर्म पाया छे. आ मंथनो अभ्यास करती वखते केटलेक स्थळे संस्कृतना बोधवाला जीवाने संक्षेप होवाने कारणे समजवामां मुश्केली नवे छे. बळी केटलेक स्थले स्पष्टीकरणनी खास आवश्यकता दृष्टिगोचर थाय छे. तथा संस्कृतना अजाण जीवोने स्पष्ट अर्थनो बोध-मूलमंथधी यह शकतो नथी. विगेरे कारणोने ध्यानमां लइने सर्वतंत्रस्वतंत्र - तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट् - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगद्गुरु-मरिचक्रचक्रवर्ति-मारा आन्मोद्धारक-परमोपकारिशिरोमणि-पूज्यपारश्रुतयोगसंपसंपादक-प्रानःस्मरणीय-जंगमकल्पनर-कलिकाले श्रीगौतमगुरुसमान-परमाराध्य-सदाध्येयपरमगुरु-सुगृहीतनामधेय-श्रीस्थानांगोक्तपंचातिशयघारक- आचार्य श्रीगुरुमहाराज विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज साहेबजीना पट्टधर-सिद्धांतवाचस्पति-न्यायविशारद-श्रुतज्ञानदाता-मारा विद्यागुरु सत्कृतिसानिध्यकारक-परमोपकारी-पूज्यपाद-गुरुभक्तिपरायण-भव्यजीवोने अध्यापनादिद्वारा कृतार्थ वनावनार-जैनतत्त्वपरीक्षा-नवतत्त्वविस्तरार्थ-दंडकविस्तरार्थ विगैरे अपूर्व ग्रंथोना अनावनार-गीतार्थशिरोमणि-आचार्य महाराज श्रीमान विजयोदयसरिजी महाराज साहेबजीए यंत्रादि महिन विस्तरार्थ लख्यो छे; तथा तेओश्रीए ज घणे ठेकाणे स्फुटनोटद्वारा पण स्पष्टिकरण घणुज सरस कयुं छे. तेोश्रीनो आ अनहद उपकार अनाग्रही तत्त्वरसिक जीबो भृले तेम छ ज नही. तेथी आखो द्रव्यलोक भेगो बहार पाडवानी इच्छा छतां पण तत्त्वज्ञानना पिपासुओनी तीन मछाने मान आपीने प्रथमना त्रण सर्गनी आ प्रथम विभाग बहार पायो छे. विषयानुक्रमणिका जुदी छपायेली होवाश्री अंथना विपयोनुं ज्ञान के द्वारा यइ शके तेम छे. ___ अंसमां आ ग्रंथना पठन-पाठन-निदिध्यासनद्वारा भव्यजीबो आत्मस्वरूप ओळखे, पदार्थतत्वनो यथार्थ योध मेळवे, हितमार्गमा प्रवर्ने, अहितमार्गथी पाछा हठी, पवित्र वीतराग परमात्ममार्गनी आराधना करी मुक्तिपद मेळवे एम हार्दिक निवेदन करी आ टुंक प्रस्तावनाने संक्षेपी लइश. तथा छमस्थ जीवोने शानावारककर्मना प्रतापे अनाभोगजन्य स्खलना अनिवार्य छे. कमु छ के अवश्यंभाविनो दोपा, छअस्थत्वानुभावतः। समाधि तन्वते मन्तः, किं नराश्चात्र चक्रगाः ॥ १ ॥ तेथी आ प्रथमां गुणग्राही वाचकवर्गने संशोधनजन्य नथा मुद्रणजन्य जे कांइ भूलचूक जणाय तेने महाशयो मुधारीने वाचशे तथा कृपा करी जणायशे तो बीजी आवृत्तिमां मुधारो पण थइ शकशे. निवेदकभावनगर । तपोगच्छाधिपति-श्रुतयोगसंपत्संपादक-परमोपकारिशिरोमणिमौनएकादशी श्रीगुरु नेमिसूरीश्वरचरणकिंकर-उपाध्याय पविजयगणि. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। पृष्ठाङ्काः प्रथम सर्गः । विषयाः १ मङ्गलाचरणविवेचनप्रस्तावे ॐकारवर्णनम् । २ मङ्गलाचरणविवेचनम् ... ... ... ३ शिष्टप्रमादप्रार्थनादिविवेचनम् ... ४ त्रिविधाङ्गुले औत्सेधागुलत्रिवेचनम् ५ औत्सेधांगुलप्रदर्शनपूर्वकः प्रमाणांगुलोपक्रमः ६ प्रमाणांगुल-आरमांगुलस्वरूपम् ७ श्रीवीरप्रभुदंहप्रमाणविरोधशकोद्भावना तभिरामश्च ८ प्रमाणांगुल-आत्मांगुलविपयस्वरूपम् ९ अंगुलसप्ततिकागतचर्चाविचारः .... १० गुणकारादिगणितविषयविचारः .... ११ गुणाकारविषयविचारः .... १२ विविधपल्योपममागरोपमस्वरूपम् १३ बादरोद्धारपल्योपमविचारः १४ सूक्ष्मोद्धार-बादरसूक्ष्माद्धाप० सा० विचारः १५ सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमशंकानिरामः .... १६ संख्यातादिभेदाःसंख्यातच्यावणनम् १७ उत्कृष्टसंख्यातस्वरूपनिरूपणे चतुप्पल्पस्वरूपम् १८ उत्कृष्टसंख्यातस्वरूपम् १९ परित्तासंख्यात-युक्तासंख्यातस्वरूपनिरूपणम् २० मिद्धान्तानुसारिअसंख्यात-अनन्तकविचारः २१ कार्मग्रन्थिकविचारेण असंख्यान-अनन्तकस्वरूपम् २२ असंख्यातादिस्वरूपे कार्मग्रन्थिकविचारः २३ अनन्तके प्राप्तभावविचारः २४ अनन्तजीवाल्पाबहुत्वयन्त्रम् २५ संख्यातादिमेदविचारकोष्टकम् ... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) द्वितीयः सर्गः १ द्रव्यादिचतुर्भेदलोकस्वरूपविचारः .... २ धर्मास्तिकाय - अधर्मास्तिकायस्वरूपविचारः ३ आकाशास्तिकाय - तद् मेदवर्णनम् ... ४ अलोकगत्यभावादिदृष्टान्त- अवगाहविचारः ५ अवगाहपरिणाम - धर्मादिविशेषविचारः ६ अगुरुलघुपर्याय - हानिवृद्धिचक्रविचार: ७ हानिवृद्धिचक्रं तथा जीवद्रव्यविचारः ८ जीवास्तिकाय तलक्षणवर्णनम् ९ जीवस्वतत्त्वभूतज्ञानवैचित्र्यहेतुविचारः १० सिद्धजीमे १५ विचास ११ सिद्धजीवानां सिद्धिस्थानगतिहेतुविचारः १२ जीवनिर्गममार्ग-तद्धेतुकगतिज्ञानविचारः १३ सिद्ध्यमानजीवगनि-जीव संख्याविचारः १४ द्वारभेदेन सिद्ध्यमानजीव संख्याविचारः १५ सिद्ध्यमानजीव संख्या- मुक्तिक्षेत्रावगाहविचारः १६ मिद्धक्षेत्रस्थिनमिद्धजीवस्वरूपविचारः 444 १७ सिद्धावस्थाजीवस्वरूपविचारः १८ सिद्धावगाहना - मरुदेवावगाहनासमाधानविचारः १९ सिद्ध्यमानजीवपूर्वावस्था सिद्धाल्पबहुत्व विचारः २० निरुपमसिद्धजीवमुखविचारः २१ सिद्धसुखनिरुपमतात्रिचारः २२ मिद्धस्वरूपनिस्यन्द- सिद्धसंख्यायन्त्र २३ सिद्धप्राभृतोक्तद्वारविशे पविचारः तृतीयः सर्गः । ३ योनिद्वार स्वरूपभेदादिविचारः ४ योनिद्वारन मेद्विशेषवर्णनम् 4141 १ संसारिजीवानां मप्तत्रिंशद्वराणां स्वरूपम् २ पतिद्वारविशेषवर्णनम् ... ... **** ८२ ८४ ८६ ८८ ९० ९२ ९४ ९६ ९८ १०० १०२ १०४ १०६ १०८ १.१० ११२ ११४ ११६ ११८ १२० १२२ १२४ १२६ १३२ १३६ १४३ १४६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ १६८ - (३) ५ योनिद्वारे योनिमेदनिरूपणम् .... ६ कुलद्वारे कुलकोटिसंग्व्यानिरूपणम् ... ७ भवस्थितिद्वार-उपक्रमस्वरूपनिरूपणम् ८ भवस्थितिद्वारे आयुर्वन्धकालविचारः ९ कायस्थितिद्वारे शरीरद्वारवर्णनम् १० शरीरद्वारे तदर्थहेत्वादिनिरूपणम् ... ११ शरीरद्वारे कारणकृतादिभेदविचारः १२ शरीधारे कामविषयकृतभेदविचार: १३ शरीरद्वारे प्रोजनावगाहनाकृतभेदविचारः .... ... १६४ १४ एकेन्द्रियादीनां मरणान्तममुद्घाते नजमकार्मणावगाहविचारः १६६ १५ नारकतिर्यकमनुप्यायां मरणान्नममुद्धातेश्वगाहविचार १६ देवाना मरणान्तममुद्घाने तैजमकार्मणावगाहविचारः ..... १७ शरीरद्वारे स्वामिविषयकृतभेदविचारः १८ शरीरद्वारे स्थिनि-अल्पबहुवकतभेदविचारः.... १९ शरीरद्वारेऽल्पबहुत्व-अन्तरकतो भेदविचारः... .... १८० २० शरीरद्वारे तेजसावगाहनायन्त्रकम् ... २१ शरीरद्वारे ११ प्रतिद्वारयन्त्रकम् ... ... १८३ २२ संस्थानद्वारे समचतुरस्रादिसंस्थानविचारः ... १८५ २३ समुद्घानद्वारे बेदनाकपायममुद्घातविचारः .... १८६ २४ समुद्घातद्वारे मरणान्तसमुद्घाव-बैंक्रियसमुद्घात--आहारकसमुद्यातविचारः ... १८८ २५ समुद्घातद्वारे केवलिममुद्घात विचारः .... १९१ २६ संस्थानद्वारे समचतुरस्त्रादिसंस्थानविचारः ... २७ समुद्घातविचारनिरूपकोविजयनन्दनमूरिग्रणीनः समुद्घात तन्य ग्रन्थः .... .... .... २८ समुद्घातद्वारयन्त्रकम् ... ... २९ लेश्यास्वरूपं मतभेदविचारनिश्चयः..... ... २३५ ३. लेण्याद्वारे लेश्यापरिणामदृष्टान्तविचारः ३१ लेण्याद्वारे लेश्यापरिणामभेदविचारः २४३ ३२ लेश्याद्वारे लेश्यास्थितिविचारः ... ... २४५ ૨૮૨ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ २५२ २५४ २५६ २६३ २६३ २६८ २७० ३३ लेण्याद्वारे नारकदेवसम्बन्धिलेश्यास्थितिविचारः ३४ लेगाने शुक्ललेल्गारियनिसमा विचार ३५ लेण्याद्वारे लेश्यापरिणाम दृष्टान्तविचार: ३६ लेण्याद्वारे लेख्यापरिणामभेदविचारः... ... ३७ लेण्याद्वारटिप्पनकम् ... ... .... ३८ लेश्यायन्त्रम् ... ... ३९ लेण्याद्वारे नारकदेवसम्बन्धिलेग्यास्थितिविचारः ४० नारक लेश्यास्थितियन्त्रम् ... .... ४१ विगाहारद्वारस्वरूपम् ... ४२ दिगाहारद्वारे द्रव्यादित आहारस्वरूपवर्णनम् .... ४३ मंहननस्वरूपनिरूपणम् ... .... ... ४४ कपायद्वारे अनन्तानुबन्ध्यादिस्वरूपवर्णनम् ... ४५ कपायद्वारे कपायस्थिन्यादिस्वरूपनिरूपणम् ४६ कपायद्वारे प्रकारान्तरताकपायभेदनिरूपणम् .... ४७ संत्राद्वारे संज्ञाभेदाः संज्ञास्वरूपनिरूपणं च ... ४८ कमाययन्त्रम् ४९ एकेन्द्रियेषु संज्ञास्वरूपदृष्टान्ताः .... ५० आचाराङ्गादिसंबादेन पोडशादिसंज्ञादिनिरूपणम् ५१ मंत्राद्वारे संज्ञाविचारयन्त्रकम् ... ५२ इन्द्रियद्वारे इन्द्रियम्वरूयं तद्भेदादिनिरूपणं च ५३ इन्द्रियद्वारे द्रव्येन्द्रियस्वरूपभेदादिनिरूपणम् ५४ इन्द्रियद्वारे भावेन्द्रियनिरूपणम् .... ५५ इन्द्रियद्वारे द्रव्येन्द्रियपत्रकम् .... ... ५६ इन्द्रियद्वारे तद्विशेपस्वरूपनिरूपणम् ... ५७ इन्द्रियद्वारे तद्विपयप्रमाणादिनिरूपणम् ५८ इन्द्रियद्वारे प्राप्यकारित्याप्राप्यकारित्वविचारः ५९ इन्द्रियद्वारे नद्विययप्रमाणनिरूपणम् ... ६० इन्द्रियद्वारे नद्विषयप्रमाणम्वरूपनिरूपणम् ... ६१ इन्द्रियद्वारे तदवगाह-प्रदेशाल्पबहुत्वनिरूपणम् २७२ २७४ ૨૭૬ ૨૭૭ २७८ २८२ २८६ २८८ २९२ २९४ २९६ ३०२ ३०४ ३०६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -> ६२ इन्द्रियेषु ९ नवद्वारयन्त्रकम् ६३ इन्द्रियद्वारे आमुक्तिप्राप्तर्भावीन्द्रियविचारः ... ६४ इन्द्रियद्वारे आमुक्तिप्रासंजीवेषु भूतभावीन्द्रियविचारः ६५ इन्द्रियद्वारे नोइन्द्रियमनो निरूपणं - इन्द्रियाल्पबहुत्वविचारश्व ६६ संशिद्वार - वेदद्वारनिरूपणम् ६७ वेदद्वारे वेदत्रयस्वरूपलक्षणाल्पबहुत्वादिनिरूपणम् ६८ वेद्वारे बेकायस्थितिविचारः ६९ सम्यग्दृष्टिद्वारे नदुत्पनि-करणत्रयनिरूपणम् ग्रन्ध्यासनस्थ जीवत्रयस्वरूपनिरूपणम् ग्रन्थिभेदानिवृत्तिकरणनिरूपणम् ७० ७१ ७२ क्षायिका दिन भेदनिरूपण मचान्तरमाक्षेप ३२८ परिहारादि च क्षायिकादितद्भेदनिरूपणम् एकद्वित्र्यादिसम्यक्त्वभेदनिरूपणम् ३३० ३३४ ३३८ क्षायिकादिस्थिति - संख्यागुणस्थाननियमविचारथ ३३६ देशविरत्यादिप्राप्तिसामायिकचतुष्क विचारश्व सम्यक्त्व सामायिकादीनामापविचारः मिध्यादृष्टिमिश्र दृष्टिविचारच ७३ ७४ بای ७६ ७७ " ++ " "" " 17 12 ( ५ ) :: ... 1+ ... 4.4 ३४० ७८ मिध्यात्व भेदपूर्वकनत्स्वरूपमिश्रदृष्टिविचारः ३४२ ७९ मिध्यादृष्टिद्वारं आभिनिवेशिकमिध्यत्वे गोष्ठामा हिलस्वरूपम् २४४ ८० दृष्टिद्वारयस्त्राणि ३५४ ८१ सामायिकचतुष्के विशेषविचारः ८२ ज्ञानद्वारे मतिज्ञानप्रभे द्रव्य अनावग्रहस्वरूपनिरूपणम् ८३ मतिज्ञानभेदप्रभेदविचारः ... ८४ दृष्टान्तपुरःसरं व्यञ्जनावग्रहादिमतिज्ञानस्वरूपम् ८५ ज्ञानद्वारे मतिज्ञानप्रभेद हुबहु विधादिस्वरूपनिरूपणम् ८६ ज्ञानद्वारे मतिज्ञानभेदमभेद विचारः ८७ ८८ 44 ... ... 194b २०७ ३०८ मनिज्ञानभेद औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्कविचारः ..... श्रुतनिश्रितमनिज्ञानभेदविचारः ३१० ३१४ ३१६ ३१८ ३२० ३२२ ३२४ ३२६ ३५७ ३६२ ३६८ ३७० ३७२ ३७४ ३७६ ३७८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ३९८ . Ccccccccccwww J0 . .. . . ० ० ८९ , श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्... ... १ , शुतज्ञानगातुमलेदापिताः ९१ , दृष्टान्तपुरःसरं श्रुतज्ञानचतुर्दशमंदविचारः ३९४ " श्रुतज्ञानविंशतिभेदनिरूपणविचारः एकादशाङ्ग चतुर्दशपूर्वस्थपदमाशायंत्रकम् ज्ञानद्वारे अवधिज्ञानभेदविचारनिरूपणम् .... , अवधिमनःपर्यायज्ञानमेदाक्षेपपरिहारविचारः ४०४ ९६ , मनःपर्याय- केवलज्ञाननिरूपणम् ... , मतिज्ञानविषयविचारः .... , श्रुतज्ञानविषयविचारः ... अवधिज्ञाननिरूपणम् .... , अवधिज्ञानविषयविचारः .... अवधिज्ञानविषयक्षेत्रकालसंवेधनिरूपणम् , मनःपर्यायक्पिपविचारनिरूपणम् ... ४२० केवलज्ञानविषयः मत्यज्ञानाधज्ञानत्रयविषयविचारः ... झानानां प्रमाणान्तर्गतता-प्रमाणभेदादिविचार: ४२४ , झानानां प्रमाणम्वरूपतानिरूपणम् .... .... ज्ञानानां प्रमाणान्तर्गतताविचारः .... .... ४२८ , झानानां सहभाव फेवलिन उपयोगविचारच .... ४३० , केवलज्ञानविषयतदुपयोगसम्बन्धिमतभेदविचारनिरूपणम् ४३२ केवलोपयोगविषयिमतत्रितपैकमत्यनिरूपकाणि वाचकवर्य श्रीयशोविजयोपाध्यायपद्यानि तद्विवरणं च " मत्यादिज्ञानानां स्थितिविचारः .... .... ४४२ , मत्यादिज्ञानानामन्तरविचारः . .... .... ४४४ , माक्षेपपरिहारं मतिद्वानस्य पर्यायनिरूपणम् .... ४४६ , श्रुतज्ञानपर्यायनिरूपणम् ... ... , अवध्यादिज्ञानानां पर्यायनिरूपणं, पर्यायाल्पाबहुत्वं च ४५० , ज्ञानपर्यायाणां अल्पबहुत्वनिरूपणम् .. ... ४५२ ११७ , अवग्रहादीनां स्थितिमानयन्त्रम् ... ... ४५३ ० ० o-o-MoovoMvovor oov ० : ४३३ १११ ~ara GMSCAM eu Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ४६७ ४७२ ४७४ १३० ४८२ (७) ११८ , ज्ञानद्वारविचारयन्त्रकाणि ... ४५४ ११९ , प्रमझायातं पदस्थानकनिरूपणम् १२० दर्शनद्वारे दर्शनभेदविचारः ... १२१ , दर्शनभेदनिरूपणम् ... ४६६ १२२ , दर्शनद्वारयन्त्रकम् १२३ उपयोगद्वार-आहारकद्वारनिरूपणम् ४६८ १२४ आहारकद्वार प्रासङ्गिक संघातादिनिरूपणम् ४७० १२५ संघातादिकरणयन्त्रकम् ..... ... १२६ आहारकद्वारे वक्रगतिभेदादिस्वरूपम् १२७ , विग्रहमतावनाहारकविचारः ४७६ १२८ , ओजमादित्रिविधाहारस्वरूपम् ४७८ १२१ , ओजसादित्रिविधाहारमन्त्रम् , विग्रहगनियन्त्रम् १३१ गुणस्थानद्वारे प्रथमगुणस्थाननिरूपणम् १३२ , प्रथमद्विनीयगुणस्थानप्ररूपणम् , तृतीयम्मादाससमगुणप्ररूपणम् ४८६ पश्चमगुणस्थानप्ररूपणम् १३५ , . अएमगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् ... अष्टमापूर्वकरणगुणस्थानस्वरूपम् .... नवम दशमैकादशगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् १९६ १३८ एकादशोपशान्तमोहगुणस्थाननिरूपणम् ४९८ एकादशगुणस्थानप्रसंगन उपशमश्रेणिस्वरूपम् ५०० द्वादशक्षीणमोहगुणम्यानप्ररूपणम् .... द्वादशक्षीणमोहगुणस्थानप्रसंगतः क्षपक श्रेणिप्ररूपणम् ५१६ क्षपक श्रेणिस्थापना ५२८ १४३ प्रयोदशसयोगिकवलिगुणस्थानवर्णनम् चतुर्दशायोगिकेवलिगुणस्थाननिरूपणम् ५३२ गुणस्थानानां परभवसहगमनादिविचारः .... , अल्पबहुत्वविचारः .... .... . ५३६ ४८४ १३३ ४८८ ४९० ४९२ १४१ द्वादशक्षामा १४४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... १४९ ५३८ ५४० ५४२ ५४४ ५४६ ५४८ ५५४ ५५६ ५५८ (८) १४७ , , कालनियमविचारः .... १४८ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानानामन्तरस्वरूपनिरूपणम् गुणस्थानेषु सत्पदप्ररूपतादिद्वारविचारः द्रव्यप्रमाणविचारः .... , क्षेत्रस्पर्शनाद्वारविचारः स्पर्शनाद्वारविचारः.... कालद्वारविचारः .... कालान्तरद्वारविचारः १५५ , अन्तरद्वारविचारः .... , मात्रद्वारविचारः ..... अल्पबहुत्व-भागद्वार-गुणश्रेणिविचारः गुणस्थानेषु नवद्वारयन्त्रकवर्णनम्.... १५९ , सत्पदपरूपणतादिद्वारविचार: , जीवभेदसङ्ख्यायन्यविचारः १६१ योगद्वारे नएसयोगस्वरूपनिमणम् औदारिकमिश्रयोगविचारः १६३ , मनोवचोयोगभेदविचारः ..... भापावाग्योगविचारनिरूपणम् .... वचनयोगप्रसङ्गतोभाषाभेदनिरूपणम् भापाभेदस्वरूपनिरूपणम् ..... १६७ , भाषामेदविचारः .... १६८ , भाषाभेदविचारे मिश्रभाषाभेदविचारः १६९ , भापावाग्योगविचारनिरूपणम् । १७० , भाषाभेदस्वरूपनिरूपणम् शेषद्वारवर्णनं च १७१ तृतीयसर्गोपसंहारः .... .... ५७० પ૭૨ ५७४ ५७६ ५७८ vMoMMM ~~ ur ur rururarur Prora : ५८२ ५८८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक. पत्र पति অনুঃ आकार आकर बग्ने वउने अने तमां पण प्रथम पर मकेल होबाथी ध्वनित य छ के विशेष करी सव ३३ विकास ईश्वर तस्य अर्था विशिष्ट अर्था विशिष्ट दिनी दिना कर्या कयु न्याद यया शाभिम शिरच्छ पामे छे. विगाओ सूय संकीनन निविप्न मत्रण तीश्रा माग द्रव्योना पणी नो। धनुषनों न्यार धयों दिन शिरछ पामषा मंभव छ, पण विचाओ माये पूर्य मंकीनन निर्विघ्न मंत्रण सीथों मागे इयोना. घणी नो १ गाउ अने ४ धनुषनो १ गाउ अने ४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) उर्व सवी सू तीक्ष्ण उर्ध्व सर्वथी सू तीक्ष्ण पाडी मुक्तिः T. पाडो मुच्छितः शतोत्तम । शतोनु । રા दीर्घ सव YYY आय सर्व आर्य क्षेत्रफल)थी गुणतां अगुल ३६ war WANA १ क्षेत्रफळ) अडगुल गुण्यो येक यथाथ प्रकारमा हस्ताऽशुलः ध्येक यथार्थ प्रकारमा ईस्तोगुलैः रम्यक पहोलाइ) शब्दार्थः प्रसार्पता सम्यक x प्होलाइ शब्दाथः प्रसप्पता नीच असल्येय नीचे ख्य कपणे चकः असंख्येय यं कर्षणे चैकः कायते संस्पृष्टा कप्यते ४८ मस्पृष्ठा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) एकक गकैक मस्तकवाला मस्तवाला कघ कर्ये कल्ये अन्य पन्थ सपशला म्पर्शला उडोडो अने ८॥योजन जगणी तथा वेदिका साथै चो सव सर्व अ.स असं प्रक्षेपवा प्रक्षेपी पुनः त्रिवर्ग करी केवलज्ञानदर्शनना अनन्त पर्यायो प्रक्षेपवाथी श्रयेल राशि अनं. ( यंत्रमां) अनं० केलो फैकेल्या पुद्ल ता नमी नमो नमो अने । अने सर्वदार तरमता तरतमता पूर्व चक्रमां हिंडोलामा चक्रमा हिंडोलामां २१ अव. ना त्रीजा अने अव० ना त्रीजा आराना उत्सना चोथा आराना छेवटना अने उत्स० ना छेवटना चोथा आराना प्रारंभमां अन्य अन्य देव-ने भांगार्माथी भांगामांथी २१ अ श्य अवश्य 12.33 1 1 48 4.43 43 पुद्गल १०३ १०९ १०९ ११० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ १५.३ ११५. १४८ ? 사이 १२ १६६ १२६ १२६ १२.६ १२.६ १२७ १२५. १३३ १३४ १३५ १३.५. ૨૬ १३६ १३ १३५. १.४४ १४२. १४२ १४२ १.४२. E २१ ५ ४ १. ३ ४ १. १ १५. ३० १६ २२. २.४ २.४ A. २४ ५. २१ ३० १३ ४ ५. २४ ३० ( ४ ) सब जीवना च्छया ३ जग्घ र य सिद्ध ह तियंची घम गुण. तेथी अरूप व कुम गुण, तेथी अल्प, तेथी विशेषाधिक विशेषाधिक, तेथी उत्स० अव ० ना दुःषम सुषमारकमिद्ध असंख्यगुण, श्री अकालना सर्वसिद्ध असंख्यगुण, उन्मः कालना सर्वसिद्ध विशेषाधिक. वर्ष कुर्मो शरीराक्षा निः गंगराश्रा निः यवामां पर्यामा वामां आग्धाङ्ग पूर्ण मोऽय तेन बाथ मायी मर्य जीवनो च्छ्रया ६ संपूर्ण शंखख जग्ध ध्य सिद्ध यं तिर्यचणी धर्म थवामां पर्यामिओ धवामां आरब्धाङ्ग पूर्ण मोऽयं तेना चाधा मायो संपूर्ण शंख Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धणे काळे त्यय तुरता घणा काळ यत्य मुद्दत १५७ पंध M ar 3 याम १६५ दुवार आवेलं १८. कामाण काभणं यान देवकृत देवकृन विगैरे यत्रीश कोड त्रण कोड बीश लाख दुर्वा अवेल हवाथी होवाधी पंडफवन त्रीजी श्रीजी सम्थान मंस्थान कोट केटला आपुर्श आपूर्या नाऽभि तोऽभि लंबाइमां लंबाइगांवझरीर प्रमाणधी अधिक पंढयन ur ": V. . . आना मंधान ". २७ कपाट आठमे TAD . गिना मोहनो ममुग्धारणं सहिता हिना मोहनी समुन्धागणं महिया , २५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ २०७ २०७ २०७ २१० २१२ २१६ २१९ ૨૩ २२३ h २२५ २.२५ २२५ २४१ २४६ २४८ 13 73 २५२ ર * २५६ २६० ૬૦ २६० २६९ १७ ६ ९ २.३ १५ か १५ ८ २८ ܀ १५ २० ૨ २९ ११ રક્ १२ २४ २८ 14 م २९ 9 १५ ८ १७ ( ६ ) नन्वेवं सत्यात् सुर नचैवं क्षपणीतया वेदनीयादेः मन्थ न्यूमन्यून आहारसरीरका कम्म सरीरका ० कदया नामम नामकर्मा वोध्यमिनि dea श्रो दश हजार वर्ष दश हजार वर्ष लेगा द्वार कर्मग्रथ ते ते तेजो सवलोकम स्पश परावस हाय नत्वैवं सत्त्वान सर नचैवंति क्षपणीयतया दीयादेः मन्धान न्यूनन्यून आहारगसरीरका कम्मगसरीरका कर्मोदया नामकर्मा नामकर्मो चौध्यमिति वैद्धर्थ श्री कापोतले यानी उत्कृष्ट स्थिति सरखी पटले पल्यासंख्यभागा धिक ऋण लागरोपम साधिक ऋण सागरोपम लेश्या द्वार कर्मग्रंथ तेथी त सर्वलोकमा स्पर्धे परा हो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ २८३ 10 h , V VVM VVVV - ४. r ४ mmm rm or or ४ r or or गोमत्रिका सषदा दशि वल्ली बल्ली नाममिः विषयक अथ परभेसर निवृति निधत्ति एकेंद्रिय नुवत्य अत्मा सख्य रिन्द्विय द्वीन्द्रिया सम्बन्धि मथी जम्भने झाधिता: गोमूत्रिका सर्वदा दर्शि यल्लीओ वल्ली नामभिः विषयक अर्थ परमेसर नित्ति निति पकेन्द्रिया नुभवत्य आत्मा संख्य रिन्द्रिय थे वार एकेन्द्रिया सम्बन्धि २५६ ६ मंथि जम्भत शोधिताः केटलाए एवमति मिथ्या मण्डपा केटलाएक एवमप्रति मिथ्या ३५३ ३४४ मण्डपमा m mmm xx कयो कर कयों ३४८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंताप अंतरींप हतुक गृह अहचाय हेतुक गृह ३७८ ३७८ पिनाने मामनो शिष्य करवा शरु क्यों ७६८॥ जाणे बचाय का पोनान गामनो शिष्ये करचो शा कयों ७६८|| का आणे ३८५ पछे ममांगा रेते प्राभन विपुलमिति पूर्वादिभद् वाळी समवा छवास्थ मीमांसा रैनैः प्राभृन विपुलमति पूर्वाविभृद् पालो ममजवा श्रिय बुद्धि मामान्य धर्म वृत्ति सामाधर्म थी अमात्र स्थानेस्थने बन्धु भवि जोबाने (वे) नथी अभाव स्थानस्थाने बन्धुः भावें जीवोने Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ ४४६ समथन वषना परायो समर्थन वर्षना परपर्यायो 200 ४५५ ४५६ ४५६ ४५९ ४६७ ४६७ ४६७ ४६८ मतिज्ञानमा मतिझानमा (अस्तित्व स्वत्वरूपे) __ जाय ते जाय ते अनुदात्त अने मध्यमां स्पर्श करीने जाय ते सव सर्व श्रुत सागरोपम सागरोपम-माधिक संख्ये संख्येय असंख्ये असंख्येय सांगर सागर-साधिक अवधिज्ञान अवधिज्ञान, अचक्षु, अवधिक मति-अज्ञान मति-अज्ञान अचक्षु ओप औप अचक्षुदर्श अचक्षुर्दर्श यधी सर्पयी सागरोपम सागरोपमसाधिक सागरोपम मागरोपमसाधिक प्राणमन प्राणभूत म था सर्वथा दशिनं दर्शिन नहारकः नाहारकः नजसः वम् ध्रुवम् साम्य सम्य श्वति अन्तर्मु स्थि स्थिति ४७४ ४७५ तेजसः ४८२ ४८६ धति ४९८ अन्तमु ५०० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ५१२ ५२५ ५३६ ५४५ ५४३ ५४३ ५४९ १५५१ ५५३ ५५४ ५५८ ५७१ ५७३ ५७६ ५७८ ५८० ५८१ ५८२ ५८३ ५८४ ५८४ ५८४ ५८६ ५९० ५९० ५९० ५९१ ५९१ २४ १७ २ २६ ૨૮ ३० २७ २९ ९ ५ २० २.५ १८ ११ १७ ४ २.० १० १४ १५ १५ २५ १८ २३ २४ २० ૨૦ ( १० ) निवृत्ति उपश श्रेणि विशेषा श्या तीय समूर्छिम जीवो थाय तारतम्य जाणवुं उत्तर— रिन्मनंतरपा स्थानन मुहूर्त अघ नियुक्ति ततीया संकल्प जाव रूप अते व निर्णित जावा द्दे, ४-५ यां नैन निग सगः नीती अब अनिवृत्ति उपशमश्रेणि विशेषाव ० स्यात्तृतीय संमूर्छिम जीयो केम न थाय १ तारतम्यनो संभव जाणो निरंतरपमा स्थानक मुहूर्ते अर्थ Q निर्युक्ति तृतीया संकरूपं जीव रूपं अने च निर्णीत जीवा 8-4, ६ या नैन निर्ग सर्गः नीति आय Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अई नमः ॥ | सकलस्वपरसमयपारावारपारीणेभ्यः सत्संयमभृदवतंसकेभ्यो जगदनुग्रहकरणेभ्यस्तपोगच्छाचार्यभट्टारकश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरपादपायल्यो नमो नार :: विवरणादिसमेतः ॥ ॥ परमकामणिकमहोपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविनिर्मितः ॥ takakakakakakakakakakhatrkakakankantakari NEश्री लोकप्रकाशः ॥ " T-Tipsycarry Pprporayagar CHIT 4Y तस्य चाय ॥ श्रीद्रव्यलोकप्रकाशाभिधानः प्रथमो विभागः ॥ (प्रथमः सर्गः) श्रीशङ्केश्वरमाप्तपूजितपदं पायें सदाऽऽनन्दर्द, वीरं तीर्थपतिं प्रणम्य गणभृच्छीगौतमं सद्गुरुम् ।। सूरीशं विजयादिनेमिममलं नत्वा मुदा भारती, स्तुत्वा मन्दमतिप्रबोधविधये यन्त्रादिभड्यान्वितम् ॥१॥ लोकप्रकाशनाम्नो, ग्रन्थस्यास्यार्थमत्र लोकभाषातः ॥ वितनोमि विनयविजय-सन्मन्त्रं हृद्गतं कृत्वा ॥२॥ बुद्धिमन्यानमथित सिद्धान्त-ग्रन्थोना नवनीतम्बरूप निखिलतचपदर्शक सकलभन्यसवोपकारक आ लोकप्रकाशमन्थना प्रारंभमां परमकरुणानिधान महोपाध्याय श्रीमान् विनयविजयजीगणी महाराज शिष्टाचारपालन, निर्विघ्न ग्रन्थ समाप्ति विगैरे अनेक हेतुभोनो विचार करी अभीष्ट -अभिमत-अधिकृत देवत्रितपर्नु मंगलाचरण करतां प्रथम अनेकातिशयसूचक अभीष्टदेव श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमभुना नमस्कार स्वरूपसंकीर्तन-आशीर्वादात्मक मंगलत्रिकने त्रण श्लोकोये प्रतिपादन करे छे, देमां प्रथमनमस्कारस्वरूप मंगलपतिपादक आवश्लोक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकारे प्रश्नः बर्गः ॥ ॥ मङ्गलाचरणम् ॥ ॐनमः परमानन्द-निधानाय महाखिने ।। . शंखेश्वरपुरोत्तंस-पार्श्वनाथाय तायिने ॥ १॥ शब्दार्थ-उत्कृष्ट आनन्दना निधानरूप, तेजस्वी (भने सर्व जोवना) रक्षण करनारा शंखेश्वर नगरना मुकुटरूप श्रीपाश्वनाथ मभुने प्रणवसहित नमस्कार थाओ.(१) विवेचन-सर्व तत्त्वोना आकार अने सकल सिद्धान्तना नियन्दरूप आ (लोकप्रकाश) ग्रन्थना प्रणेता उपाध्याय श्रीमद 'विनयविजयजी महाराजा' पवित्र ओंकार स्वरूप चमत्कारिक प्रणवाक्षरथी प्रारंभ करायेला प्रन्थनी शरमानमां “शिष्टसम्मत उत्तम पुरुषो कोइपण शुभ कार्य शरुआत करतां पोताना अभीष्ट देवनी स्तुति या नमस्काररूप मंगलाचरण करीने अ प्रवृत्ति करे छे. " ते मार्गनु पालन करवाने माटे अने तेम करवाथी ज पोतानामां पण शिटपणु आवे छे. कारण के " शिष्टाः शिरत्वमायान्ति शिष्मागांनुपालनात " ' शिष्ट पुरुषोमां शिष्टपणुं त्यारेज आवे छे के ज्यारे तेश्रो शिष्ट मार्गर्नु रालन फरे छ,' आवी पूर्वमूरिओनी सोनेरी मुद्राओन, मनन करी सेमज बळी अतिशय उद्भवेली भक्तिपूर्वक आचिर्भूत श्रयेला श्रद्धादिगुण पूर्वक शुभ भावनारूप धोघबंध जल प्रवाहे की क्लिप्ट कर्म मलना खिलय परामवाथी ज प्रस्तुत प्रधनी निर्विघ्न पणे समाप्ति थशे, अन्यथा महत्पुरुपोने पण श्रेयः कार्योमा घणां विनो आपी नडे छे, कारणके " श्रेयांसि यहुविधानि भवन्ति महतामपि " 'श्रेयः कार्यो मोटाओने पण घणा विघ्नवाळा होय छे' धेयः कार्यनी समाप्तिमा आहे आवनारा ते विघ्नो भवसन्ततिमां करेला पूर्वना दुष्कृत अशुभ पापकर्माना उदयश्रीज थाय छे, अने ते कर्मोना यां सुधी अ. पवर्त्तनादि करणे की स्थितिघात रसधातादि करवामां न आवे त्यां मुधी अवसरे विपाकरूपे अर्गला समान आडा आधीने पडे छे, माटे ते अशुभ कर्माना स्थिति-रसधातादिना हेतुरूप शुभ अध्यवसायनी आयश्यकता छे, ते शुभ अध्यवसाय पणा परमात्माना सद्भुत अलौकिक आश्चर्यप्रय गुणोनु कीन तथा तथाभूत गुणवत् त्रिभुवनगुरु तीर्थकर महाराजना नमस्कारद्वारा प्रदीप्त थाय छे आवो अपूर्ष विचार मनमा लावी श्रीशंखेश्वर पाचप्रभुनु गंभीर अने अलौकिक चमत्कारिक अपूर्वभावजनक शब्दोमां नमस्काररूप मंगलाचरण करे छे. __ हवे “महावाक्या वोधात्मक या तो हवाफ्यार्थबोधात्मक शाम्दषोधमा ते से पदजन्य पदार्थज्ञाननी कारणता छे." वो सामान्य नियम होचाथी तेमज "संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य पद्दविधर || १ ||" प छ व्याख्याना संहिताविमेदोमां पदार्थ म पण एक वीजु व्याख्यांग होवाश्री प्रथम आ स्तुतिमा आवेला पदो संबंधी वि. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मङ्गलाचरणविवेचनप्रस्तावे ॐकारवर्णनम् ॥ [ ३ ] धारणा करीये !!! आ स्तुतिमां प्रारंभमांज 'नमः' पद साधे प्रणवाक्षरनु उपपद . मुकी नमस्कारने घणो ज सुशोभित भने महिमास्पद बनाव्यो छे, वेमज आ स्तुतिने प्रारंभ मां सर्व मंत्रोना आदिबीजरूप ॐकारनो न्यास करी मंत्रना रूपमा सूत्रित करी छे, वळी आकारमा चौर पूर्वना साररूप सकल धुत स्कन्धोनी अभ्यन्तर वर्तता पंच परमेष्ठिनो पण समावेश थयेलो छे, ['अ (अरिहंत ) - अ (अशरीरी सिद्ध) था- आ (आचार्य) आ- उ ( उपाध्याय) ओम ( मुनि-साधु) ओम' वे 'अ' मळी आ, मा'ने' आ मळीने पण 'आ', तेमां उ मळवाथी ओ, तेनी साधे म् भूकवाथी 'ओम्' थाय छे. कछे के "अरिहंता असरीरा आयरिय उवज्झायया सुणिणो ॥ पंचक्खर निफन्ने पणवक्खरे पचपरमिट्टी ॥ १ ॥ इत्यादि जेनुं विशिष्ट स्वरूप गीतार्थ गुरु आम्नायथी समजी शकाय के तेमज ॐकारनुं ध्यान शा माटे करवामां आवे छे तेना फळ विगेरे संबंधी अनेक चमत्कारिक विचारों के जे गीतार्थ गुरु कुलवासनी उपासनाथी प्राप्त शके तेम छे, यही " कार बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्ष चच काराय नमो नमः ॥ ६ ॥ ईप्सित वस्तुने तथा परंपराये मोक्ष फळ ॐकारनुं योगीओ हमेश ध्यान करे छे ते ॐकारने वारंवार नमस्कार थाओ, आपनार बिन्दुसहित जे तेमज आकार अने अथ शब्द विगेरेने महामांगल्यसूत्रक तरीके वर्णव्या है, परदर्शनवेसाओ पण ॐकार अक्षरने अने अथ शब्दने ब्रह्माना आदिष्वनिरूप मान्या छे, अने तेथी ने बेउने कारने तेओ पण मंगळपणे कड़े छे. क के के:- "ॐकारश्चाथशब्दश्ध द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ॥ कंटं भित्त्वा विनिर्यातौ सेन माङ्गलि कावुभौ ॥१॥ तेमज ॐ शब्दना निरुत्तमां पण तेओ "अकारो विष्णुरुद्दिष्टो उका रस्तु महेश्वरः । मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः ॥ १ ॥” “अ, उ, म, पण अक्षरोधी उत्पत्ति पामेलो ॐकार है" तेम बतायी मां अकारथी पालन शक्तिमत् चिष्णुनुं अधिष्ठान छे, उकारधी संहारशक्तिमत् शंकरनुं अधिष्ठान के असे मकारथी उत्पादशक्तिमत् ब्रह्मानुं अधिष्टान छे तेम सूचये छे भने तेज कारणथी शक्तित्रयसंपन्न देवत्रितयनो वाचक अकार महामंगलरूप थपलो छे. जो के आओ मन्तव्य आकाशकुसुम वर्णन जेषु केटलं सत्य छे से हाल मंगल प्रस्ताव होवाथी सुल्तवी राखी आगळ उपर सेनो विचार करीशुं परन्तु लुं तो निर्विवाद छ के तेओ पण अकारने मंगळरूप मानी पवित्र कार्य प्रसंगे ध्यान करे छे, बळी तेश्रो ॐकारनं केटला उच्चतमाशयश्री पवित्र अभ्यसनीय, उपासनीय अने ध्याननो विषय माने छे ते विचार नीचे लखेला तेओनाज पवित्र ग्रन्थोना पद्योथी आणवामां आवशे ॥ "यथा पण पलाशस्य, शकुनैकन धार्यते । तथा जगदिदं सर्व- माँकारेणैव धार्यते ॥ १ ॥ अकारं चायुकारं च मकारं च प्रजापतिः । बेयानिरदुहत् भूर्भुवःस्वरिति भिवा ॥ २ ॥ सिद्धानां चैव सर्वेषां वेदवेदान्तयोस्तथा । अन्येषामपि शास्त्राणां निष्ठाऽथकार उच्यते ॥ ३ ॥ प्रणवाद्या यतो वेदाः प्रणवे पर्यवस्थिताः । चाङ्मयं प्रणवः सर्वे तस्मात्प्रणवमभ्यसेत् ॥ ४ ॥ तत्सदिति निर्देशों, ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः 1 ब्राह्मणाश्चैव बेदाश्च, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ थीयोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ यशाच विहिताः पुरा ॥ ५ ॥ तस्मादोमित्युदाहस्य, यशदानतपक्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सात ब्रह्मवाविनाम् ॥ ६॥" यळी मांश्योपनिपद विगेरे उपनिषदोना पण प्रथम मनोमा प्रजापतिष सम्, यजुः, साम पत्रण वेदोमाथी साररूप दोहन करेला अनुक्रमे अ, उ, म्, स्वरूप कारनो सर्वोच्चतम महिमा वर्णन करतां जणान्यु जे "ओसिमावदारशिय खाय शस्योपासनम् । भूत भवनविष्यदिति सर्वौकार एष " चली धिशेषथी उपदिशे छे के, "प्रणयो धनुः शरो बारमा, ब्रह्म नल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमनेन वेद्धव्यं शरवसन्मयो भवेत् ॥ १ ॥ इत्यादि कारना संबन्धमा उपनिषद् विगेरेना अनेक विचाग शाम्रोधी जाणधा योग्य छे. ____ॐकार ए मर्य मंत्रोमा आधपद छे मंत्रोन आदिवीजक छे, सर्व घोंनो आधजनक छे, शब्दसृष्टिनु मूलबीज छे. अनाद्यनन्तगुणयुक्तास्वरूपमंत्र के, ज्ञानज्योतिनु केन्द्र छे, अनातिनादनो प्रतिघोष परब्राह्मनो घोतक अने परमेष्टिपदनो याचक छ, सर्वदर्शन अने सवतंत्रोमां एक सरखी रीते ते व्यापक छ, योगिजनोनो आराध्य देव छ, सकाम उपासकोने कामितफलनो अने निष्काम उपामकोने आध्यात्मिक मोक्षफलनो दाता छे. हृदयना धक्कारानी जेम योगिओना हृदयमां निरन्तर स्फुर्या करे छे. भिन्नभिन्न वर्णरूपे ध्यान करातो विविध फलने आपनार छ, इत्यादि विशिष्ट स्वरूपमय शालाकारोये चर्णब्यो छे, यळी महापुमपो 'फरमावे छ के-दुःक्दावानलनी ज्यालाने शान्त करवामां नवीन मेघ, सकल शास्मशानना प्रकाशमां दीपक अने पुण्यना शासनरूप ा प्रणवने निरन्तर स्मरण करो जे प्रणयरूप कारथी अत्यन्त निर्मल शब्दात्मक ज्योति उत्पन्न था छे ते ॐकारनी साथेज परमेष्ठिनो वाच्यवान्त्रक सम्बन्ध छ. पटले के *कारनु परमेमिट वाच्य , अने परमेप्टिनो कार वाचफ के कयु छ केम्मर दुःखानालज्यादाप्रशान्तनवनीलम ॥ प्रणयं थायमानप्रदीपं पुण्यशासनम ॥ यस्मान्छन्दाम ज्योतिः प्रस्तमनिनिर्मलम् ॥ वाच्यवाचकसम्बन्धम्सेनैव परमेष्ठिनः ॥ आ ॐकारने मंत्रशास्त्रोमां प्रणव धनामधी कहेवामां आध्यो छे, जो के प्रणवशब्द मंत्रीजक सूचवे के तो पण व्युत्पत्यर्थथी पटलुतो निर्विवाद के के, "क स्तुतो', धातुउपरथी 'नवनं नयः' म शम्न घने छै प्रकृष्टो नवः प्रणवः एटले के उत्कृष्ट प्रकारनी स्तवना अथवा प्रकर्षण नूयते स्तूयतेऽननेति प्रणयः "प्रकर्षपणे स्तवना काय छ जे अन्नबढे ते प्रणम्र अक्षर कहे. याय ए प्रणवशन्दनो अर्थ थाय छे बळी आ प्रणयने योगशास्त्रकारोण, आत्मकास माटे घणो अगत्यनो तेना जारविधि साथे बतायो छ, कहे छ के-ते इश्वरनो वाचक छ इश्वर तेनो वाच्य छे. जुओ पातंजलयोगदर्शन नस्य (बे सत्र) समाधिपदसूत्र २७-२८ "नस्थ वाचकः प्रणव" "जपस्तदर्थभावनम" वळी अन्योना परमागध्यशास्त्र गीताजीमां पण प्रणववाचक अंकारनो परम महिमा असाव्यो के जुओ गीता अध्याय ८ श्लोक १३, "ओमित्येकाक्षर ब्राहमव्याइरन्मामनुस्मरन् || यः प्रयाति त्यजन्देई स याति परमां गतिम् ॥ "धळी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मङ्गलाचरणविवेचनम् ॥ स्मृतिकारोए पण कारनो महिमा गायो छ के-"अरविग्रहो देवो भावप्रायो मनोमयः । तस्यौतारः स्मृतो नाम, तेनाइतः प्रसीदति ॥ १ ॥ " " अपश्च प्रणवो नित्यं, प्रज्ञविष्णुशिवात्मकम ॥ कोटिसूर्यसम् तजरे, ध्यायेदात्मानं निर्मलम् ॥ २ ॥ " सेमज "जयित्वा पूर्वमों कारं वेदाध्ययनमारमेन् ॥ " इत्यादि स्मृतिवचनोथी वेदाध्ययनना प्रारम्भमा 'कार' जापनी कर्तव्यता बताषेली होवाथी *कारनी मांगलिकता ध्वनित थाय छे. वळी पातञ्जलयोगदर्शनना साधनपावमां समाधिसाधनो तरीके जे स्वाध्याय विगेरे धतान्या छेतेना अर्थमां प्रणव जाप ए मुख्य स्वाध्याय कह्यो छे, "स्वाध्यायः प्रणवजपः, मोक्षचारमाध्ययनं या", आ उपरथी अणाशे के प्रणवजाप ते समाधिनु मुख्य साधन छे, तेम पतञ्जलि फरमावे छे. व्याकरण शास्त्रकारोए पण प्लुतविधान सूत्रोना प्रसंगमा 'ॐ' ने संमार्यो छे के, ज्यारे प्रारंभ एटले प्रणाम विगेरेनुं अभ्यादान गम्यमान होय त्यारे '' ना स्वरोमांनो अन्त्य स्वर प्लुत विकल्प थाय छै, जेमके "ओश्म ऋषभमृरभगामिन प्रणमत (२)" विगेरे, जुभो सिद्धडैमशब्दानुशासन सातमा अध्यायना चतुर्थपादनु सूत्र २६ मुं" ओमः प्रारंमें " आ विगरे अनेक विचारोथी भर्पियोग कारने घणोज महिमाशालि वर्णव्यो छे, वळी शब्द प्रकृति-प्रत्ययनी व्युत्पत्तिथी पण विचारतां महामंगलरूप छे, कारण के मंगल विध्नथी रक्षा करे छे, ज्यारे अनी शास्त्रकारोष करेली व्युत्पत्ति पण तेज अर्थ बताये छ, ' अवति विघ्नादित्योम् ' तेमज अनेकार्थक आ ॐकारको प्रयोग करेलो होचायी ग्रन्थनो प्रारंभ, मंगलकारक, मंगलस्वरूप, शुभ रीते आ नमस्कार धाओ प विगेरे अनेक अर्था अकारथी संभवी शके छ !! वळी उपाध्यायजी महाराज आ मतुतिमां नमस्काग्थाचक नमस्पद मुकी पोतानी अलौकिक भक्ति प्रदर्शित करे छे, कारणके " नमः प नैपातिकपर द्रव्यथी हस्त शिरः चरणादि संकोचरूप यिशिकाययोगात्मक पंचांगप्रणिधान अथवा अष्टांगप्रणिधानादिना अरस्थाने तेमज भावधी मननी प्रस्तुत नमस्कार विपयमां एकाग्रता करवारूप मनोयोगात्मक भाव प्रणिधानवशाने सूचषे छे" तथा " शब्दोचारणमां वचनयोग प्रणिधान तो स्पष्ट अछे." आ उपरथी योगत्रिकथी करेलो नमस्कार भावनमस्कार छे, अने शेष द्रव्यनमस्कार छे. वास्तविक रीते परमार्थ ऐहिक आमुग्मिक फळने आपनार भायवन्दन ज छे, जैने माटे कृष्ण शांधकुमार विगेरेना प्रान्तो प्रसिद्ध ज छ, अने द्रव्यवन्दन वास्तविक तेवा फलनं आपनार या नथी, तेने माटे पण धीरकशालवी, पालक कुमारादिना निदर्शनो पण सिद्ध ज छ, आ नमः निशतने पण शास्त्रोमां मंगलाळपणे प्राचीन आचार्योर ग्रहण करेलो छ ? ? ? । हवे आपणे उपाध्यायजी महाराजे आपेला शंखेश्वर पार्श्वनाथप्रभुना अलोकिक आश्चर्यास्पद गुणषोधक अतिशायि विशेषणोनो विचार करीये. 'परमानन्दनिधानाय' आ पदना अनेक अर्थों संभवी शके छे, जेमांना फेट Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकमकाशे प्रथम सर्गः ॥ लाक अर्थों आपणे क्रमशः जोर शकीर्ण, उत्कृष्ट मानन्दना निधानस्थरूप पार्श्वनाथ भगयान् ए प्रथम प्रसिद्ध ज अर्थ छे, या उपरथी उत्कृष्ट आनन्द के 'जे कोइपण यखते दुःखथी मिश्रित थतो ज नथी.' 'जे आनन्दनी विच्युति नथी. ' 'जे आनन्द अगम अगोचर अलक्ष्य कहेवायेलो के.' 'जे आनन्दने साक्षात् केवलटिए सर्वशप्रभु जाणतां छतां प्रत्यक्ष यथास्थित तथाभावे कही शकता नथी. मात्र जे कार देखाडे के ते पण असत् उपमाप करी यत्किंचित् देखाडे छे. ' 'जे आनन्द मुमश्च आत्माओने सयंदा पच्छा विषयरूपे रमी रह्यो छ,' जे मानन्दने परमयोगीओ यत्किचित्पणे सहजानुभवथी वेदी रहा छ, ' 'जे आनन्द करी आन्माना सहगुण ज्ञान दर्शन चारित्र धीर्थादिनी स्वरमणतामां आत्माओ लय पामी रहेछ, ' ' आनन्दने माटे तीर्थकर गणधर प्र. तिपादित मोक्षानुष्ठानमा अखंड अविच्छिन्न अविचलपणे उद्यम करवानी आय. श्यकता छ,' 'जे आनन्दथी आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक शारीरिक मानसिक परकृतादि आधि व्याधि उपाधिो सर्वथा दूर ज रहे ले, ' 'जे आनन्दमा कोरपण जातनी परभावनी रमणता के विपरीतता भ्रान्ति विगेरे रहेता अ नथी, ' विगेरे भायनाथी पट्कारक चक्रो पण जेनी अन्तर्गत थाय छ, आवा अपूर्व मानन्दनो यत्किचित् अनुभवास्वाद पोताना शुद्धशीलमां वर्तता मुनिओ अनुभवे छे. कारणके तेवा मुनिओना मासादिपर्यायनी वृद्धिय देवताना उत्तम सुखोनो पण अतिक्रम 'भगवतीमानि' सिद्धान्त प्रन्थोमां प्रतिपादन कयों छे, आ परमानन्दनी अपेक्षाए मुनिमोना यत्किंचित् आनन्दने पण सिद्धा. न्तकारोए चमतिना सुखथी पण अनुपम वर्णव्यो छे. कधु के के " विनय थया छे रागद्वेष जमना एघा वासना संथारा उपर बेटेला मुनि जे निलोभ दशाना सुखने अनुभवे छे. ते सुग्नने चक्रवत्ति पण क्याथी अनुमवी शके ? " था वचनने वसपूर्वघर वाचक उमास्वाति महाराआर्नु वचन मजवून टेको आपे छ, " लोकव्यापारधी विरक्त रहेनार मुनिश्रीने जे सुख अहीं के ते मुख चकवत्तिने के इन्दने पण नथी " आ उपरथी पटलं तो निर्विधावपणे आपणने कबुल करवू पडशे के रागद्वेषनी विरक्तिथी पकान्त शान्तरसमां मन्न रहेनार मुनिओ अवर्णनीय लोकोसर आनन्दनो अनुभव करे छे !! ___सुम्खता हेतु कान्तरसेन्द्रने शास्त्रकारोए चक्रवत्तिनी साथै सरमाच्या छे, कारणफे सक्रनिने जेम रला पटले पृथ्वीन इन्द्रप' होवाथी रसेन्द्र कहेवाय है, लेम शान्तरस पण शृंगार वैधाग्यादि सर्व रसोमां अधिपति होघाथी ते पण रसेन्द्र छे, तेमज चक्रवत्तिने नयनिधानो प्राप्त थाय के लेम शान्तरसेन्द्रमा सर्व मंगलोनो निधि प्राप्त थयेलो छ !! । पली शान्तरसने शास्त्रकारोप अमृतनी साथे सरसाव्यो छे, जेम लो. किक उदन्त प्रमाणे देयोए घणी ज महेनते मन्दार पर्वतरूपी रवैयापी समुत्तुं मन्थन करी अमृत काहयु तुं लेम पूर्वाचायाप अंगउपांग प्रकीर्णकादि भागमो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । महलावरणविधेचनम् ॥ तथा प्रन्यरूपी समुद्रमाथी नीत्र क्षयोपशमजन्य महाबुद्धिरूपी रवैयाधी आशान्तरसामृत्तने दोहन को छे, म ज शान्तरसेन्द्र ने रसेन्द्र सर्व रसायणामां उत्तम पारानु उपमान पण घटी शके छे ! ! आवा अत्युसम शान्तरसनी भावनामा लीन रहेनार मुनिओ जे सुखने अनुभवे के ते सुखानी आगळ सर्व इन्द्रियोथी थतुं सुख समुद्रनी आगल पाणीना विन्दुनी उपमाने लायक थाय छे. ज्यारे सामान्य मुनिमुम्न पण आटलु लोकोतम छे तो वीतरागतानु अने सिद्धदशा- अलौकिक मुख तो निर्वथन करी शकाय ज नहीं, प्रकरणकारो पण वीतरागसुखना वर्णनमा जणावे छे के " आ सोफमां से फामजन्य पियसुख छ भने यौन जे महासुख छ से पण चीतरागना सुखनी आगळ अनन्समाभागे न्यून छे, " आज कारणमाटे लौकिकसुम्सने कुसुमपुर नगरमां भिक्षुकना स्वप्ननी उपमाए असत्स्वरूपे शास्त्रमा वर्णव्यु के, आ सिद्धना अनुपम सुखने आज अन्यना धीजा सर्गमां अन्धकार उपाध्यायजी पोतेज वर्णन करशे !!! आवा अवर्णनीय अपूर्व परमानन्दनिधि परमात्मानो नमस्कार अवश्य मंगलने माटे थाय छै??? आ मानन्दना तरंगो अमजेम रागपनी हानि थती जाय तेम तेम प्रगट थता जाय छे. ते यावत् क्षपक श्रेणीमा आरुढ थर निद्रा स्वपन जागर ए शात्रिक उल्लंघी खोथी उजागर यशामां लीन थता स्तापक निन्थावस्थामां कंघललक्ष्मी संपादन की यावत् शैलेशीकरण विगेरे अवस्थाओमा कर्मोनो क्षय करी संपूर्ण प्रशरस अनिर्वचनीय अखडानन्द प्राप्त कराय छे, या विशेषणना अर्थमां तीर्थकृत्प्रभुना मूल चार अतिशयमांनो प्रथम 'अपायापगम ' नामनो अतिशय तेमज सुखातिशय' पण ध्वनित थाय छे. १, 'प-रमा आनन्दनिधानाय' आ प्रमाणे शब्दालेप करवाधी 'पातीति पः' ए व्युत्पत्तिप करी प्रकृति प्रत्ययना विभागवाळा 'प' शब्दना पजीवनिकायना पालक तीर्थकर महाराजा वाच्य छ, भने 'रमा' पाक करी तेओधीनी जे आईन्त्यलक्ष्मी चौत्रीश अतिशयो अष्टमहाप्रातिहार्यों पांत्रीश याणी गुणो विगेरे तेना आनन्दना निधान पार्श्वनाथ प्रभु छ, प बीजो अर्थ थाय छे, मा अर्थधी तीर्थकर प्रभु के जेमणे पोताना अग्रिम श्रीजा भवे विशतिस्थानक पदोमांधी कोरपण पदनी अथवा तो चेत्रण सार यावस् चीशपदोनी यथाविधि सम्यगाराधनाथी तीर्थकर नामकर्म निकाचित करी पेव अथषा नरक भवमाथी ते ते गति संबन्धि अवधिशानसहित भरत ऐवत के विदेहीय यत्रीश विजयना मध्यखंडमां आर्यदेशमा उत्सम जाति कुलने विषे परमात्मरूपे सर्व जगजीवना उद्धारने माटे रत्नकुंक्षी मातामा गर्भमां अवतरे ले, तेज चखते भिभुवनमा उद्योत, सर्व जीवोने आनन्द, नारकी जेवा दुःखानुयद्ध, जीयोने पण वर्ष थाय छे, देवेन्द्रना अचल सिंहासनो पण चलित थाय ले. अवधिप्रयोगधी परमात्मानु च्यवन जाणी शफस्तवथी त्यां राधां छतां द्रव्यधी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ सन्मुख जया पूर्वक भाववन्दन करी विशाल हृदयथी च्यवन कल्याणकनो महिमा करे छे, त्याद्याद गर्भस्थिति पूर्ण थये परमात्मा सुखद जन्म प्राप्त करे छे, सेज समये प्रभुना प्राच्य पुण्य प्रभावपुख पमना मकरन्दथी आकृए थयेली छपपन्न दिनकुमारी भमरीओ आवी सूतिकर्मादि करे, यावत् चोसठ इन्द्रो स्थ स्वपरिवार सह मळी मेरुपर्वत उपर, परमात्मानो अन्माभिषेक करी अमकस्पा महोत्सव समोशभक्तिपूर्वक रुडी रीते करे छे. यावन् दीक्षाकल्याणक महोत्सव, केवलज्ञानकल्याणकमहोत्सव, समवसरणादिसमृद्धि, इत्यादि तीर्थंकरसाम्राज्य जे काललोकनी अंदर भागळ ग्रन्थकार उपाध्यायजी पोतेज वर्णचशे ते सकल तीर्थकर लक्ष्मीना भोक्ता पाव. नाथप्रभुनो नमस्कार मंगलप्रद छे, आ अर्थ करवाथी बीजो पूजातिशय ' पण व्यजित थाय छ, २ 'पर-मा-आनन्दनिधानाय' आ प्रमाणे शब्द विश्लेष करवायी पर-सर्वथी श्रेष्ठ ज्ञानस्वरूप या भोक्षस्वरूप, मा-लक्ष्मी तेना आनन्दना निधान पार्श्वनाथ प्रभु छे. आ पण एक अर्थ था शके छ. मा अर्थधी श्रीजो 'शानातिशय ' स्पष्ट पाय छे. ३ 'प-रमा-आनन्दनिधानाय' प विश्लेषधी पोदगलिक उत्कृष्ट ऋद्धिनो आनन्दमोक्ता जेम प--कुबेर छे तेम पार्श्वनाथप्रभु निजस्वरूप आत्मिक ऋद्धिना आनन्दनिधि छे ए चोथो अर्थ.४ परम-श्रानन्दनिधानाय' आ विश्लेषधी ऐ. कान्तिक आनन्दनिधि प पंचम अर्थ. ५ इत्यादि अनेक अर्थीथी आ विशेषणमा उपाध्यायजीए पार्श्वनाथप्रमुना अद्भूत आश्चयपद अनेक गुणो तथा अतिशयोनो भास आपणने कराव्यो छ, पली शंखेश्वर पार्थप्रभुनु यीशुं 'महस्विने' ए, अपूर्वगुणवोधक विशेषण छे. एटले के तेजयंत पा नाथप्रभु छे. प्रस्तुविशेषणमां कदाच कोइने अज्ञान अवस्थाथी के भ्रान्तभावथी चितर्क उत्पन्न थशे के आ विशेषण तेओश्रीना आत्माने लागु पडे मेम नथी कारणके उद्योत के प्रभा स्वरूप तेज पुलात्मक होवाथी अमूर्त आत्माने ते होई शके नहि, माटे तेमना प्रतिबियतुं या तो नेओनीना शरीरनु ज आ विशेषण मानg पडशे, प्रतिषिवना गुणने अने परमात्माने कोइपण संबंध नहीं होवाथी प्रतिबिंबना गुणनु वर्णन करवू केवल व्यर्थ छे, धली परमात्मा मिद्धदशामा 'शुद्धनिरंजन निराकार होचाथी लेओनी आरुति पण मभक्ति नथी विगेरे विगेरे आ तेओनी मीमांसा फेटली भूल भरेली छे ते तेमज चार निक्षेपामांधी कया निक्षपानों नमस्कार उपाध्यायधीने अभिमत छे, चारे निक्षेपा केवी रीतना परस्पर कथंचित् अभिन्न दोई उपकारक थाय छे, वीतरागता, शान्ति आदि अनेक गुणोनो भास करावनारी तेओधीनी आकृति केटला निःसीमगुणने उत्पादन करनारी छे विगेरे विचारो विशेष्यपदान्तगत विशेषणथी जोह शफीये, आ पार्श्वप्रभुनु तेज सकल देच देवेन्द्रीना पिडित करेला तेजधी पण अनन्तगुणुछे । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - || मङ्गलाचरणविवेचनम् ॥ जे असह्यदर्शन तीर्थचन्मभुना तेजना वर्शन मादे प्रभुमा तेजःपुखमांधी पिडित करेलु बादश सूर्य तुल्य महातेजपन्त भामंडल प्रभुनी पुढे रामधु पडे छे. आ अपूर्व तेजः स्वरूपन शास्त्रकारोप अम्नां औजाणिक मत रति प्राहुना अतिशयोनु वर्णन आदि अनेक घले वर्णन कर्य छे. शरीर आकृति कोइना पण गुणबोधक विशेषण तरीके अर्थ न करता 'महस्विने' र पदनो केवल ज्ञानरूप झालहलता दीप्तिमान सूर्यनो उदय थयाथी शानरूपी अपूर्व मेजोनिधान पार्श्वप्रभु छ यो अर्थ करवाथी को प्रकारनी विरोधापत्ति भासमान थशे नही ! ! आ अर्थ करवाची बली एक अद्भुतलाभ प ययो के धीजो शानातिशय नामनो अतिशय स्पमतया शब्दित् थयो. आ पाप्रभु शश्वरपुरना मुकुट छ आ वाक्यश्री पटलो नैसगिक विचार उद्भचशे के थी पाप्रभुना च्यवनादि कल्याणकोबड़े पवित्र श्रयेलु शखेश्वर नगर नथी तेमज निर्वाण कल्याणकपडे पण नथी कारणके च्यवन-जन्मादि कल्याणकोथी पावन थयेली धाराणसी नगरी छे, ज्यारे निर्वाण कल्याणकथा पवित्र धीसमेतशिवर महातीर्थ छे, तो श्री पाश्वनाथ प्रभुना शंखेश्वर-सेरीसक स्तम्भन -गोडी-शमी-पश्चासरा-जीराषला मुहरी-बरकाणा-करहेटफ- फलवृद्धि-नाफोडा--लोध्रधा-अवन्ती-मकसी विगेरे उपपदो कहेवाय ने केवीगरील संभवी शके ?, आ विचारनो उत्तर नो मायज छे के- ते ते नगरोमा प्रतिधित थयेली प्रतिमाओना औपाधिक (नगरोना नामरूप उपाधियुस । ते ते नामी श्रीपाश्वप्रभु अने सेमनी प्रतिमा एकरूप होपाधी श्रीपार्श्वनाथना ते ते उपपद सहित नामो वालवामां मज ते ते प्रतिमाओना अधिटानी पाचन येली ते ते नगरीओना मुकटरूर प्रापनाथजी कहेवामा कोइपण बाधकचिचार. अवकाश पामी शकनो नथी, अर्थान् विश्वविदित श्री. पार्श्वनाथप्रभुनो महिमा मायालगोपाल जगप्रसिद्ध छे, या शस्लेश्वरनगरना प्रदेशमां ज्यारे प्रतिवासुदेव जरासंध अने बासुदेष कृप्णने अतुलयुद्ध शाम्यु हतु, धणो काल वीत्या पछी जरासंधे शत्रुसैन्पने अमेय जाणी कोपण रीत जय धवानो संभव नहीं थवाथी छेवटे पर्चे साधेली असुरी जगना बलथी मलदेव वानुदेव श्रीमन् नीर्थकर नेमिनाथजी प्र. प्रण विना सर्व शत्रु सैन्यने भूछिनावस्थाये पहोंचायु. उच्छवासमात्र धारण करतुं बनायु, प्रातःकाले मङ्गल विरूदावलीपूर्वक जागेला कृष्ण वासुदेवे पोताना मैन्यने तथावस्थ देखीने करमायला मुखे नेमिकुमारने का, हे बन्धु ? आशुं थयु ! तमारा देवानां माकं मैन्य भूचित जेधु थाय छ ? म्यामिषीनेमिश्रुमारे अवधिज्ञानना उपयोगी असुरसुन्दरी जरानी चेपा जाणी वासुदेवने जणायचाथी कृपणे नम्रवचनधी हर्षे शुं करवू ? ते प्रमाणे नेमिकुमारने पुण्यु नेमिकुमारे उत्तर आपतां जणाव्यु, हे कृष्ण ? पाताल ( अधोलोक) मां भुवनपतिनी बीजी नागकुमारनिकायना दक्षिणश्रेणिना अधिपति धरणेन्द्रना भुषना अधिकमहिमाशाली भविष्यकालमा थनारा त्रेधीशमा तीर्थर भीमन्यानाथजीनी प्रतिमा छे मारे अहम (३ उपघास) यजे एकाग्रध्यानधी धरणेन्दनी आराधना करी सेमनी पांसे ने प्रतिमानी याचना Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ।। करो, तमारी प्रार्थनाथी महिमाशालि पाठप्रभुढे विव ते तमने आपशे, " ते बिपना चरणकमळना स्तात्र अल सिंघवाथी तमासं सर्व सैन्य मूछा त्याग करी उत्थित थशे." त्यारे कृष्णायासुदेवे नेमिकुमारने कछु, है यम् । वण दिवस मुधीई जो ध्यानमां लीम थाउं तो सैन्य कोण रक्षण करशे ? आषा कृष्णनां दयाजनक पचनो सांभली, नेमिकुमारे है हरि । शत्रु संकटमाथी तारी सेनानुं हुं रक्षण करीश. तमे निश्चिन्त पाओ !! श्रीनेमिकुमारना अनुग्रहषचनो सांभळी हर्षथी उत्साहित हृदयघाळा कृष्णयासुदेव अप्रमतपःपूर्वक पौषधशालामा पौषध अङ्गीकार करी पकामध्याने धरणेन्द्रनी आराधना करया लाम्या, पघामां अही पण प्रभातकाले जेटलामा जरासन्ध हर्षपूर्ण हृदयधी जराथी व्यास थयेलु मूzितावस्थ शत्रु सैन्यने जाणी चतुरङ्गसेनाधी परिवरेलो बाणोनो घरसाद वरसावतो यादयोने हणवा तत्पर थयो सेटलागं इन्द्र मोकलेला धीनेमिकुमारना ग्थना सारथी मातलिग श्रीनेमिकुमारनी आमाथी यादव मैन्यनी फरता चारे दिशामा संघनकवायुनी माफक स्वच्छन्दपणे नेमिकुमारना रथने भमाझ्यो रथमा बॅटेला श्रीनेमिकुमार पण एकदम चोनरफ याणो छोडवा लाग्या. जरासन्धपक्षना ग़जाओ भावनी वाणपंक्ति जोर से युद्धमा जाणे मध्यस्थ साझिओ ज होय नहिं शुं ? तेम दूर उभा रहा अहो ! हो ! हो ! आश्चर्यजनक तीर्थकर परमात्मानी सवयता के जे प्रभ हजु नो गृहस्थावासमा छे, आरंभथी विरक्त नथी, रणसंग्राममां शनी सामा उमा छे, बाणोनो वरसाद वरसावे छ, छतां पण प्रभुप शत्रुसैन्यना सुभटोमांना कोइना यत्रतर, कोइना मुकुट, कोइना ध्वज के कोइना बाण विगेरे निर्जीव पुदलोनो मात्र चमत्कार देखाइवानी खातर छेद कर्यो, पण कोइ जीवना प्राणोनो वियोग करायचो ते तो दर ज रह्यो। परन्तु किनिन्मात्र शत्रुमन्यमां दुःख कयु नहीं, वळी केटलाको कहे के जे सेटलो पण छेद् प्रभुए कर्यों नथी. परन्तु विष्णु सैन्यनी चौतरफ रथ भमाइना नेमिप्रभुए मात्र शङ्ख चगाड्यो के जेथी शत्र सैन्य प्रास पाम्यु, अने विष्णुसैन्यर्नु रक्षण थयु अस्तु ! गमे सेम हो ? पण विष्णुसैन्यर्नु रक्षण कोइफ्ण प्रकारे थयु एवामां ध्यानमा लय पामेला कृष्णनी आगळ श्रीजे दीवसे धरणेन्द्रनी आशाथी प्रभापुञ्ज मध्यमां रहेला धरणप्रिया पद्मावती अनेक देवी परिवारथी परिबरेला प्रकट थया, सुरीगणधी वीटायेला पद्मावतीने जोर कृष्ण सेमना चरणनो प्रणाम करी स्तुति करवा पूर्वक कृष्ण वासुदेय नीचे प्रमाणे घोल्या "हे पवित्रनेवि ! तमा जे मने दर्शन शय तेथी माग आन्माने आजे हुँ धम्य कृतार्थ पवित्र श्रयेलो मार्नु छ, आज मारी सर्व कामनाओ सफल थर. हे पवित्रदेवि ! नमारा जे वैभवने शकाविदेवन्द्रो पण वर्णवचा अशक्त छ, ने वैभवने हूं पोनानी जीमे शु वर्णन करें ? " इत्यादि कृष्णना अप्रतिम भक्तियचनथी प्रीति पामेला पद्मावतीदेवी कृष्णने कहे , हे हरि ! ज कारण माटे नमे मारा स्वामिनाथने संभार्यों ते काय दर्शावो के जेथी ई नमार इएकार्य शीघ्र पार पाई, देवीना बच्चनो मांभळी कृष्ण योल्या, हे पवित्र भगवति ? जो आप तुष्टमान हो तो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मालाचरणविवेचनम् ॥ आपना मयनमा रहेल अत्भुत श्रीपार्श्वप्रभुनु यिंच मने आपो. के जे विना लाजले करी अरामस्त मार सैन्य स्वस्थ कर्क! पद्मावती उत्तर आपनां बोल्या. श्रीपार्शप्रभुनी प्रतिमा तो अहीं नहीं आये, परंतु ते शिवाय जष्टुं नमार सैन्य स्वस्थ कम, पळी पण योल्या जरासन्धन सेनाधिपति सहित वांधी अण. पारमा तमारी पांसे लाची आयु विगेरे तमा जे जे इए. होय में सर्व संपादन कर, परन्तु श्रीपार्श्वप्रभुनी प्रतिमा मारा स्थानमाथी लावघाने मने उत्साह थतो नथी. त्यारे बली कृपण बोल्या. हे भगवति ! आप कहेलं मर्य सत्य के. आप ते सर्व करवाने समर्थ छो. परन्तु तेम करवाथी अमारामां कांडपण पुरुष फार नयी ते ज जणाय भने मात्र लोकोमा अपवाद ज थाय जे 'देवताए सर्वे शत्रुपराजयादि कार्य कर्यु पण यादवोमां कांइपण शक्ति मथी.' माटे जो आप प्रसन्न अ हो तो मने पार्श्वप्रभुनी प्रतिमा आणे के जेधी हुँ आफ्ना प्रसादे करी पोते ज संप्राममा शत्रुने पराजय पमाई. कृष्णना अन्याग्रह अने भनिथी तुष्टमान थपेला देवी पावती श्रीपार्श्वप्रभुनी प्रतिमा लाची आपी स्वस्थाने गया, हवे कृष्णे श्रीपाचप्रभुनी प्रतिमानी विधिपूर्वक स्नानादि पूजा करी स्नात्रपाणीथी सिञ्चन करायेल समन सैन्य निद्राथी प्रबोधनी माफक स्वस्थावस्था पाम्यु. याधा मैन्य मान्त था, हम प्रतिविशुजरासन्धनो चक्रवडे शिरच्छेद कयों, जयस्थल मेदिनीना प्रदेशमां वासुदेवे, भीपाप्रभुनी पूजा समृद्धि माटे मिजनामथी गुणमिष्पन्नमामवाला शंखेश्वरनगरनी स्थापना करी कारणके कृष्ण शंखना ईश्वर छे, तेमज घळी आ नगर शंखपुर एवं पीजु नाम पण छे. कारण के ते भूमिमां कृष्णे शत्रुसैन्यने पास उपजावया शंख पूर्या छतो, आ नगरमां पनापती समर्पित श्रीपाचप्रभुना सिंघने कृष्णे अपूर्व अप्रतिम भक्तिपूर्वक स्थापन कर्य !!! " कृष्णोऽथ घामेयजिनस्य मूर्ति-ममेयभकिर्यदुभिः प्रणुनः ॥ अस्थापयत्तत्र निजां च भूत्ति, तच्छासने तच पुरं चकार || केटलाक एम पण कहे छे के ज्यारे कृष्ण ध्याममा बेठा इता अने नैमि. नाथ प्रभुप सैन्य रक्षण माटे शंख पो हतो तेने उद्देशीने ज आ नगर कृष्ण बसाव्यु ! जेपी से नगरनुं शम्बपूर ( शस्सेश्वर ) नाम प्रसिय थयु ! अस्तु । उपरना वृत्तान्तमां आपणने अंतरंग रटिधी वास्तधिक विचार करतां अपूर्व बोधजनक सारतस्वनी प्राप्ति धाय छे. श्रीमत्तीर्थंकरदेवनी गृहस्थावास. मां पण अप्रतिम निरभिमानता के श्रीमान् नेमिप्रभुना चरणकमळना स्नावशलधी त्रिभुवननी सर्व प्रकारनी आधिव्याधिभी दूर थह शक नेम छे, छतां एण पोतानो ते प्रभाष न जणावतां भावितीर्थकर श्रीमत्प्र भुनी पूज्य प्रनिमानो ते प्रभाव वाव छ वली तीर्थफर प्रभुनी अलौकिक दया के जे प्रभु भविष्यमा पशुपक्षिो उपरनी पाथी संसारमंगल विवाहनो पण त्याग करशे. तेमज पहजीघनिकायना अभयदाता पद भविजीवोने ते मार्गमा उपदेश आपी दोरशे इत्यादि अनुभव करायता ज जाणे होय नहि, तेम अत्यारे पण शत्रुसै. न्यमां किंचित् दुःस्व मात्र उत्पन्न कर्यु नही. भीमत तीर्थकर वे सामानस्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ।। मुखे भाषेलो देषाराधननो प्रकार, महरपुरुषोनी अपूर्ष वाक्षिण्यता, शलाका पुरुष वासुदेवकृष्णे देवाराधमनो करेलो व्यवसाय, शाश्वती नही पण कृत्रिम मतिमा उपर सम्यग्रष्टि देवोनी स्थिति नहि पण भक्तिप्राग्भार, प्रभु प्रतिमानो अनुपम महिमा इत्यादि अनेक सारतस्योमी उपलब्धि धाय के !! हो पा श्री पावनभुनी प्रतिमा कोणे निर्माण करी ? शा हेतुथी ? त्यार पछी धरणेन्द्र नागकुमाराधिपति पांसे क्यांधी आवी ? विगेरे विगेरे अनेक ऐतिहासिक आरेकामो अवकाश पामे छे ते संबंधमां गुरुकृपाधी शालोमा मली भावतो इतिहास तपासतां सर्व शंकास्थानो चिलय पामे छे. या द्रव्यानुयोगनो अन्य दोषाधी रोमन अन्धविस्तारना भयधी था तेमज बीजा पण प्रसंगानुप्रसंगे प्राप्त थता भनेक विचारो आगल उपर भाटे मुल्तवी राखीम घाजा प्रयोमा विस्तृत विचार करेलो होबाधी आ स्थले संकोच करवामां आवे के। प्रस्तुत मंगलश्लोकमां वर्णवेला 'शंखेश्वरपुरोसंस' विशेष्य पदान्तर्गत विशेषणपदी 'उपाध्यायजी श्रीमान्ने' स्थापना निक्षेपस्वरूप प्रतिमानो नम स्कार आ मंगलाचरणमा अभिप्रेत छ, सेम सहज अनुभव पर आवे छे. परन्तु ते स्थापनानिक्षेप पण युक्तिथी, तेमज 'श्रीमगषतीजी' आदिमा पर्णवेल अधिकारोधी तेमज 'शाताधर्मकांग' 'रापप्पसेणीय' 'जीवामिगम' विगेरेमा 'द्रौपदी', सूर्याभइय, "विजयदेव' विगरेए प्रतिमाजी पांसे भक्तिपूर्वक उदार भावथी उबा. रेल मायजिनना अधिकारमय शक्रस्तष नमुत्थुर्ण विगेरे स्तोत्रपाठथी, तेमज प्रतिमाजी आगल अलेवेल धूपना प्रसंगमा "धूध दाऊणं जिणघराणं" इत्यादि पाठोयी भाषनिक्षेपनी साथे कञ्चित् अभिनपणे रहेल छे. आपोंक्ति पण के के 'जिनपडिमा जिन सारीखी.' हवे इतिहासपिए अवलोकन करना मा प्रतिमा जीना संबंधमां मळी आवो इतिहास परवार करे के के, गई चोषीशी मटले के जेषो आ ऊतरता भावधाळा छ आरा स्वरूप 'अवसर्पिणीकाल' प्रवते के, मने छठो धारो पूर्ण थये चढतां भाववाला छ आरा स्वरूप 'उत्सपिणीकाल' प्रधतशे के जे घने कालोनु स्वरूप 'काललोकमा' प्रन्थकार पोतेज विस्तारथी वर्णन करशे. तेवा आ अवसपिणीकालना प्रथम भारा पूर्वे थइ गोल उत्सर्पिणी कालना छ आराओ पैकी धीमा चोथा आरामोमा मली 'ऋषभादि-महावीर पर्यन्त' घोषीश तीर्थकरोनी माफक 'केवलज्ञानी प्रभृति संप्रति पर्यल' खोवीश नीर्थकरो थर गया . जे पैकीना श्रीशा भारामां धयेल 'इन्द्रमहाराजे जन्माभिषेक समये कंठमा पूजन निमिने स्थापन करेली दाम । माला) उदर (पेट) उपर शोभी रहेल होयाथी दामोदर" शुभ नामथी प्रसिद्ध थयेल आ चोवीशीना सोलमा प्रभु शान्तिनाथ' नथा भावि चोवीशीना नवमा 'पाहिलप्रभु' तुल्य नवमा तीर्घकरप्रभुना शासनमां "आपराढि" नामना मध्य भायके माझं पोतार्नु कल्याण क्यारे ? कोना तीधमां ? अने कोना आलंबनयी ? थशे, तेवा प्रो पूछेला, जेना उत्सरमां प्रभुप. ने कालनी अपेक्षाए भावी खोवीशीना एटले के वनमान चौधीशीना वीशमा नीर्थकर 'पार्श्वनाथप्रभुना' समयमां, मना Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मालाधरणषिवेचनम् ॥ तीर्थमा, अने ते पार्श्वनाथना उपदेशथी तेमने हाथे प्रवज्या ला, गणधरपर पामी, तमा कल्याण धशे, ते प्रमाणे आपेल उत्तर सांभळी भावि उपकार मनमां लाषी अनेक भत्र्य जीवोमा योधि पीजनुं साधन मतिमा भरावी सुषिहित आचार्य पासे प्रतिष्ठा करायी अद्भूतमधिमानिधान ते प्रतिमा पूजित था हती, कालान्तरे 'श्री ऋषभदेव प्रभुना' विद्यमान कालमां चोवीशीनी शरुआतमा छशस्थ अवस्थामां रहेला 'श्रीऋषभदेय प्रभुनी सेवाथी सन्तुर धयेल श्री धरणेन्द्र जैखोने अडतालीश या अड़तालीश हजार विद्याथो वैतादय पर्वतनी दक्षिणोत्तर श्रेणिने राज्य समर्पण कर्यु छतुं ते 'भी नमिबिनमि' विद्याधरेन्द्रो पांसे ते [श्री शंखेश्वर पाचप्रभुर्नु] बिम्ब आव्यु, तेो निरन्तर पूजन करता हता. त्यारपान सौधर्माधिपति 'शक' इन्द्र महाराजे स्वधिमानमां से विम्बर्नु पूजन कयु. तेमणे कालान्तरे रैवतायलना कांचनबलानक' नामक शिस्त्ररपर स्थाप्यु. त्यांधी ते प्रतिमानी 'चंद्र-सूर्य' ज्योति केन्द्रोये स्वधिमानमा ला जर चिरकाल पूजा करी, न्यारवाद से प्रतिमा तेमणे पूर्वस्थान व नकाबल (गिरिनार गिरि) ना.शिखरपर स्थापी. त्यांची नागेन्द्र धरणकुमारे मेळवी. तेज आ शंखेश्वर पाश्वनाथप्रभु छ, के जेमनी सेवा मिषे 'धरणेन्द्र' सर्वदा समीपमांज रहे छे, तेम छाशीहजार मागकुमारोमा अधिपति जेमर्नु पूर्वमनमा 'वर्धमानआचार्य' नाम इतुं ते नागेन्द्र जे शंखेश्वर पार्श्वनाथना अधिष्ठायक के. पाटणमा श्री जिनहर्षसहिए रात्रि भोजनरास यनान्यो छे, सेना मंगलाचरणमा नेमो भी चन्द्रमभुस्वामिनाधारा (कालमा आ विंब भराव्यानुं जणाये छे "श्री शखश्वर' पास प्रभु, महिमा त्रिजगवास, ॥ जक्षजागतो जेहनो, पूरे वंछित आस १ ॥ अनी मूर्ति जेहनी, तुरत जणाधे वेह, ॥ वारे चंद्र प्रभुतणे, पिंच भराव्यो पह ॥२॥ "श्री प्रद्युम्नसूरि" कृत "समरादित्य संक्षेपमा" -भूतानन्द' नामक मागकुमार निकायनी उत्तरश्रेणिना अधिपति जेमना मधिष्ठायक वर्णव्या छे ! ! अडतालीश बजार यक्षोना नायक पार्श्वयक्ष जेमना यक्ष से.!! जेमना आराधनथी "सज्जन" मंत्रीये अनेक यंत्र, मंत्र, तंत्र, सिद्धिमओ सिद्ध करी इती. ! ! जेमनी उपासना तेमज स्नात्रजलना सिंचनथी "बुर्जन शल्य" नामना "झीवाडाना' राजा के जेमने प्रत्यक्ष प्रभाव देनाडनार अधिष्ठायकसहित सूयप्रतिमानी उपासना करतां अधिष्ठायकदेवे का इतुं जे, "तवाङ्गकुप्ठादिरोगमयो भयाऽपनेतुं न शक्यचे, ततस्त्वं शंखेश्वरपाश्वनाथपा प्रयाहि, सरत्र तब सङ्गीणान्रोगानपनेति' नारा शरीरना कुष्ठादिरोगो दूर करवा माराथी शक्तिमान् थवाय तेम नथी, माटे ते शंखेश्वर पार्श्वनाथ पांसे जा, तेज 'सारा सर्व शरीरमां व्यापी गयेल समग्न रोगोने दूर करशे.' त्यार बाद से राजा शंखेश्वर पार्श्वनाथनी आराधनाथी सर्व रोग मुक्त थयो. ! भने तेणे षिमानतुल्य नूतन बैत्य (मंदिर) घान्यं, तेमां सेमनी (शश्वर पाश्वनाथप्रतिमानी) स्थापना करी, पूर्वोक्त समप्र वर्णन प्राचीन भगवंतोये स्तुतिमिपे वर्णव्युं पण छे. "अपूपुजत्त्वां विनमिनमिश्न, वैतादयशैले वृषभेशकाले । सौधर्मकल्प सुरनायकेन, त्वं पूजितो भूरितरं च कालम् ॥१॥ भाराषितस्त्वं समय कियन्त, चान्द्रे विमाने किल भानवेपि। पनापतीदेवतपा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ च भागा-धिपेन देपावसरेऽचितस्त्वम् ॥ २ ॥ यदा अरासन्धप्रयुक्त विद्या-लेन जात स्वबलं जरानम् । तदा मुदा नेमिगिरा मुरारिः, पातालतस्त्वां तपसा मिमाय ॥ ३॥ नव प्रभो ? स्तात्रअलेन सिक्त, रोगैर्विमुक्तं कटकं बभूष । संस्थापितं तीर्थमिदं तदानी, शंखेश्वराख्यं यदुपुगवेन ॥ ४॥ तथा कथंचितव चैत्यमत्र, श्रीकृष्णराजो रचयांचकार । स द्वारकास्थोपि पथा भवन, ननाम नित्य किल समभाषम् ॥५॥ श्रीविक्रमान्मन्मथयाणमेरु-महेशतुल्ये समये व्यतीते । स्वं श्रेष्ठिना सजननामकेन, निवेशितः सर्वसमृद्धिवोऽभूः।। ६ ।। झंझपुरे सूर्यपुरोऽनवातं, स्व. सोऽधिगम्यागमनङ्गरूपम् । अधीकरबुर्जनशल्यभूपो,विमानतुल्यं तव देव ! वैत्यम् ॥ ७ ॥" महा प्रभावशालि श्रीशसेश्वर पार्श्वप्रभुना नामस्मरण मात्रथी सर्वे महाभयोना नाशनी साथै सर्व समृद्धिओनी प्राप्ति थाय छे. बहोळे भागे अनेक प्रभाषक आचार्याये मानेश्वर मनिश मानी शमभातमा मंगलाचरण करेलु छे तेम ज जे प्रभुनी भक्ति निमित्ते अनेक अतिशायि स्तोत्रो. स्तवनो, छन्दो विगेरे करेला छ जे अन्यारे घणाज प्रसिद्ध है. ते प्रभुनो नमस्कार अवश्य सफल विनोमो नाश करवापूर्वक प्रन्थ समामिनुं परम कारण छ, '11 __ आटले सुधी परमात्मानी स्वार्थ सम्पत्तिनु वर्णन कर्यु. हषे सेज प्रभुनी परार्थ मंपत्ति श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज तायिने प सुंदर विशेषणे वर्णवे छे. 'नायिने'रक्षा करनारा, प्रभुनी क्रिया, प्रभुनो उपदेश, प्रभुनु व्यान केवळ दयामांज प्रवर्नतुं होषाथी यथार्थ रक्षयिता प्रभुज है. प्रभु पोतेज अनुपम सुख पाम्या के नेटलज नधी, वीजामओने पण अपूर्व बोध देशना आपी हेज सुननी सन्मुखताये लावनारा छे. आथी तेमनी परार्थसंपत्ति अने घचमातिशयनो लाम थाय छे. आ लोकमां पार्वनाथाय' प विशेष्य पवनो 'ममः' किया साथ अन्वय था जबाथी शान्ताकाक्षपणु होइ पुनः तायिने' विशेषण पद आपतां "क्रियान्षयेन शान्ताकाइनस्य विशेग्यवाचकपदस्य विशेषणान्तरान्वयार्थ पुनरनुसन्धान समाप्तपुनरात्तत्वम" (काव्यदोषः) प न्यायथी 'जमात पुनरासत्व" नामक काव्यदोषापसिनी शंका प्रभुमा नमस्कार्यत्व गुणना हेतुरूप तायि विशेषणपदलभ्य मार्ग देशकत्वनी अन्ना विचारणा करतां उस्थिताकानपणुं होषाथी कोश्पण रीते अवकाश पामी शके तेम नधी. आ मंगल नमस्कार पोताना प्रारब्ध प्रन्थनी समामिमां आरे आवनार विनोना निवारणार्थे करी शिष्योने शिम भाखार सम. जावखो, प्रमादी शिष्योने अन्य पठननी शरुआतमा मंगलाचरण करतां भूल न थाय विगेरे अनेक उपकार निमित्त प्रन्यघटक करी मष्यत्रोताओ उपर असीम उपकार का छे ॥ १॥ हवे प्रत्यकार महाराज तेज अभीष्टदेवमा रहेल नमस्कार्यत्वगुणनो हेतु पता‘धवापूर्वक तेज श्रोशंखेश्वरपार्थपर्नु आशीःस्वरूप द्वितीय मालाचरण करे छे. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। मङ्गलाचरणविवेचनम् ॥ ॥ द्वितीयमंगलाचरणम || पिपति सर्वदा सर्व-कामितानि स्मृतोऽपि यः ॥ स कल्पद्रुमजित्पाों , भूयात्प्राणिप्रियङ्करः ॥ २ ॥ शब्दार्थ-जे श्रीशंखेश्वर पार्श्वप्रभु स्मरण कराया छतां पण सर्व काले सर्व माणिओना सर्व इष्टपदार्थोंने पूर्ण कर छे, कल्पक्षने पण (स्त्रमहिमाये करी) जीतनारा ते श्रीपार्श्वनाथप जन्तुओ, अभीष्ट करनारा थाओ. (१) विवेचन-जेनुं आगळ वर्णन करवामां आवशे, ते कल्पवृक्षो दश प्रकारना छे. भने ते बरेक नियत हिकफल अमुफ ज क्षेत्रमा अने अमुक ज कालमा तेनी निकट आवेला आराधक अमुक ज जीधोने ( मनुष्योने) आपे छे, ज्यारे शंखेश्वर पार्श्वनाथ महाराज स्मरण मात्रमा जइह परभव संबंधी वांछित एकान्त हितरूप फळ सर्व क्षेत्रमा सर्वकाले तेमज सर्व जीयोने आपनारा छे. जो के श्रीपाश्चप्रभु कोनु प्रियाणिसकरनार नथी तो पण से प्रभ- स्मरण करवाथी थयेली भक्तजीवनी शुभचित्तवृत्ति अथवा से पाचप्रभुना शासमना घिनविदारक तथा शासनरक्षक नागकुमाराधिपति धरणेन्द्र के अणे पूर्यभषना पोतामत्येना असीम-अमोघ उपकारनुं स्मरण करी कृतज्ञभावथी कमटे करेला श्रीपाचप्रभुना उपसगी दूर फर्या हता, ते धरणेन्द्र अधया पार्श्वयक्ष पण जेमना स्तोत्र, मंत्र, नामोना स्मरणधी सन्तुष्ट चित्तवाळा थर आज पण भक्तजीवोना कमोनो नाश करवा साथे वांछित वस्तुओ पूर्ण करे छे. क' पण के. के. "श्रीपार्श्वस्तोत्रमंत्राख्या स्मरणानुएमानसः ॥ अद्यापि शमयन्कटमिष्टानि वितरत्यसी ॥ १ ॥" (२) सर्वन सर्वथा हितकरवापणुं विन विघातकन्च अने सर्व पदार्थ मानना अभावे यइ शके नही जेथी उपमा सहित निरुपम अवयव वर्णनद्वारा विघ्न वियातकत्व गुण बताववा पूर्वक पर्नु सर्व पदार्थ विषयक ज्ञान निरूपण करता 'स्वरूप संकीतन' नामक चरम मंगलभेदरूय श्री शंखेश्वर पार्भमसुनुं मंगलाचरण करे छे. ॥ तृतीयमंगलाचरणम् ॥ पाचक्रमनखाः पान्तु दीप्रदीपाकुरत्विषः ॥ प्लुष्टप्रत्यूहशलभाः, सर्वभावावभासिनः ॥ ३ ॥ शब्दार्थ-चळकता दीवानी फळी सरखी कान्तिवाला, बळी गयां छ. (वा बाळ्या छ) विनस्वरूप पतंगीथाओ जेमा (जेनाथी, वा जेणे), सर्व पदार्थों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे पथमः सर्गः ॥ अने सर्व पदार्थोनी पर्यायोने प्रकाश करनारा, श्रीपाचमभुना चरणना नखो रक्षण करनारा थाओ. (३) विवेचन-ग्रन्थनी समाप्ति पदार्थ ज्ञानना अभावमा मात्र मंगलाचरणश्रीज था शकली नधी, तेम पदार्थशान होय पण प्रन्यरचनाना उद्यममा प्रमाद रोग प्रभृति अनेक विनो उपस्थित थमा होय तोपण अन्य समाप्ति थवी दुःशक छे. तेमज रक्षण थर्बु चे प्रकारे छ, उपद्रव नाश थवाथी, अने र षस्तुनो योग मळवावी. में तमाम प्रकारोमां सर्वाशे श्रीपार्श्वप्रभु समर्थ होय नेमां तो नवाइन शो! पण समना एक अंगोपांग अवयवरूप नस्यो पण समर्थ छ, ते आ श्लोकमां श्रीमान उपाध्यायजी महाराजे सूचन कर्यु छे, यद्यपि सर्व तीर्थकर भगवंतो सर्वातिशय संपूर्ण छे. तथापि श्रीपाश्वनाथ प्रभुनो तो कोई अलौकिक अनिर्याच्य महिमा, पुण्य प्राग्भार के के. सर्व मांगलिक कायोमा तेमनी स्तुतिने आवश्यक कर्तव्य तरीके गणेली के. साधुओ विहार करी जे वसतिमां पधार्या होय त्यां, तेमज पाक्षिकचतुर्दशी, बानुर्मासिक, मांवत्सरिक पाना अगाउ दियसे देवसिक प्रतिक्रमणमां श्रीपार्श्वप्रभुर्नु स्तोत्र (चैत्यवन्दन) स्तवे छे. प्रतिष्ठा विधिको प्रतिष्ठा, प्रवेश, अटोत्तरी, शान्ति। स्नानादि मांगलिक महोत्सबोमां पण 'श्रीजीगउली (पल्ली) पार्श्वनाथना' मंगलनामरूप मंधस्मरण उपयोग वारंवार करे छे. दुष्प व्यन्तर देवोये करेला उपद्रवोर्नु महापुरुषोये रचेला श्रीपार्श्वप्रभुना स्तोत्र स्मरणा निवारण थयेर्छ सुप्रसिद्ध छे. मूळसूत्रोमां संधोधेलं श्रीपाचप्रभुतुं 'पुरिसादाणीये विशेषण निरुपम पुण्यातिशय साधीन करे छ, थीपालप्रभुना विनविनाशकन्च गुण विगेरे संयं. धमा अनेक विचारो छ, जे अहीं द्रव्यानुयोगनो प्रन्थ होवाथी संक्षेपबा पडे छे, पण एटल तो निर्विवाद छेके भीगार्श्वग्रभुना मंगलथी प्रारब्ध कार्य निविप्न पूर्णता पामे छे. पज कारण इएकार्यना प्रारंभमां अनेक महापुरुषोये श्रीपाचप्रभुनु स्मरण करेलु ठामोठाम देखाय छे. ( ३ ) श्री बारवेश्वर पार्थप्रभु रूप अभीष्ट देव के जेममुं त्रिविध मंगलाचरण उपग्ना त्रण श्लोकमां वर्णववामां आव्यु ! ! हवे जेना उपकारयी अन्धरचनानुकूल पदार्थबोध थयो छे, ते श्री तीर्थकर प्रभुनी वाणी (आगम)नुं 'तुलादण्डमध्यग्रहण' न्याये त्रिविध मंगलो पैकी आशी स्वरूप मध्य भंगल वर्णवे छे. जयन्ति व्यजिताशेष-वस्तवोऽन्तस्तमोगुहः ।। गिरः सुधाकिरस्तीर्थ-कृतामद्भुतदीपिकाः ॥ ४ ॥ शब्दार्थ-प्रगट करायेल (प्रकाशित) छे सर्व पदार्थां जेनायी, अने अ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मङ्गलाचरणविवेचनम् ॥ (१७) न्तरङ्ग अन्धकार [मोह-अज्ञान नो द्रोह (नाश) करनारी, अमृत झरनारी, अद्भुत ( अलौकीक ) दीवीओ सरखी श्री तीर्थंकर भगवंतनी वाणी जयवन्तो वर्त छे. (सर्वोत्कर्षभावे वर्ते छे.) (४) विवेचन - दीवानी कळी अमुक (नियत) क्षेत्रमांज पोतानी प्रभाने ते क्षेत्रना पण स्थूल ( सूक्ष्म नहीं), अने अमुकज ( सर्च नहिं ) ते पण सर्वोशे नही पण अमुक भागे, अमुक पर्यायोपेता प्रकाशक यारे श्रीमतीर्थकर देवे प्ररूपेली वाणी स्ववाध्यपणे लोकालोकनो विषय करी लोकालोक सर्वक्षेत्रवर्ती यावर सूक्ष्म सब पर्यायोपेत सर्व पदार्थोंने सर्व स्वरूपे प्रकाशित करे छे. बळी दीवी ज्यारे पोतानी नीचे अन्धकार राखती काजळ झरती छनी मात्र या अव्यवहित द्रव्य अन्धकारनो नाश करे छे, त्यारे प्रभुनी वाणी सर्वत्र प्रकाश करती अभ्यन्तर भायान्धकारतो पण नाश करे छे. ज्यारे दीवी अनि वर्षानारी से, न्यारे प्रभुनी वाणी को दवानलथी तपला जीवोने पण परम शान्ति आपनारी होवाथी अमृत झरनारी छे, वळी अमृत रूपक प्रभुवाणीने आपवाथी अमृततृप्त आत्माओने रज्जु आदि बन्धन, क्षुधा, पिपासा, चकरी: (भ्रमि), घाम, कोढ़, शूल, जीर्णता, ज्वरदाह, चक्षुमां काच पडो, इत्यादि वेदनाओ जेम पीडा आणी शकती नयी तेम प्रभुवाणी तृप्त आत्माओने पण दृढकर्मसन्तान दोरडाओनुं बन्धन, विषयोप्रत्ये असन्तोष रूप क्षुधा, विषयाभिलाष तृषा, संनतपणे भवचक्रभ्रमण, कषायधामनी गरमी, मिथ्यात्व महाकोट, अन्यत्येय शूल, वी संसारसां अवस्थानथी जीर्णता, रागमहाज्वरनो दाह, कामरूप काच पडलथी अन्धता यगेरे बेदनाओं उपद्रव करी शकती नथी जेथी अद्भुत (आश्चर्यकारी अलौकिक ) दीवीओ सरखी प्रभुनी वाणी छे भने ते पाणी सर्व दर्शनका रोनी वाणीओमां पूर्वापर अविरोध, अर्थगांभीर्य प्रभृति भनेक गुण गण विभूषित होइने सर्वोत्कभावे व 11 ( ) पंचेन्द्रियत्वमां श्रवणलब्धि प्राप्त थया छतां पण परमात्मत्राणीनुं श्रवण अ. नन्त पुण्यराशिये पण आत्माने दुर्लभ थे, ज्यां श्रवणनी आटली दुर्लभता छे त्यां तेनी मातिमां तो अनेक विघ्नो ( अन्तरायो ) आवी पडे छे, ते विघ्नोने दूर क वाम अने चिमाथिमां परमनिमित्त अभिमत देवस्वरूप श्रुताविष्ठायिका श्रुतदेवीat स्तवना करवी कृतज्ञ जीवोने आवश्यक है, नेम विचार करी श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज प्रतिपादन करे छे. कृपाकटाक्षनिक्षेप - निपुणीकृतसेवका ॥ भव्यक्त सवित्री सा जयति श्रुतदेवता ॥ ५ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः॥ शब्दार्थ-कृपारूप कटाक्षो (सम चच बेष्टा विशेषो) फेंकवायी निपुण बनान्या छे सेवको जेणीये ते भक्तजीवोनी प्रकटमाता श्रुतदेवता जयवन्ती वर्ने छ. भक्तजीवोने निपुण बनावत्रामा सर्वोत्कर्ष भावे वर्त के. (५) विवेचन-अहिं श्रुतं देवी से बुताधिष्टायिका देवी समजबी परन्तु उपरमा शोकमा वाणीनी स्तुतिमां वर्णवेल होपाथो तेमज प्राचीन महापुरुषोना वचनधी धृतरूप देवी अहीं जाणवी नहीं. थुतदेवीनी आराधनाथी अनेक महापुरुषोना स्प्रान्तो कविस्व, वित्त्व शक्ति मळवषाना संबंधमा सुप्रसिद्ध ! (५) उपर बताच्या प्रमाणे अभीष्ट अभिमत देवोना नमस्कार-आशी:-वस्तुसंकीर्तन-स्तुति आदि प्रकारवाळां मंगलो प्रतिपादन करो इवे पोताना परमोपकारक विद्या, बोध, सुचरित प्रभृतिगुणोना परमहेतु अधिकृतदेव स्वरूप गुरुनी स्तवना रूप मंगल करतां युगमधान तुल्य शासनप्रभावक स्वदेशना प्रमावे अकल्परनृप जेवा सम्राट्ने प्रतिबोध आपी दयाडिडिम वगहावत्रा पूर्वक तीर्थसाम्राज्यने उपतिमा लावनार श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी महाराज- स्तुत्यात्मक मंगल कर छ.! जीयाजगद्गुरुर्विश्व-जीवातुवचनामृतः ।। श्रीहीरविजयः सूरि-र्मदीयस्य गुरोर्गुरुः ॥ ६ ॥ शब्दार्थ-जगतमां (सर्वने) जोवनौपथरूप छे वचनामृत जेमोनु ते मारा गुरुना गुरु (दादा गुरु) जगन्ना गुरु ( जगद्गुरु विरुदधारक) श्रीहीरविजयमरीश्वरजीमहाराज जयवन्ता बों. (६) विवेचन-धीमान 'विजयदानसूरीश्वरजी' महाराजना पहप्रभाषक श्रीमान् हीरविजयसूरिजी चरमतीर्थकर प्रभु 'श्रीमहावीर' शासनवर्ति जे श्रमण गण प्रथमपट्टाधिपति पश्चम गणधर, 'श्री सुधर्मा' स्वामिथी 'निर्गन्ध' नामे प्रसिद्धि, पाम्यो हनो, तेज श्रीश्रमण संघ, अनुक्रमे धीधीरप्रभुना निर्वाणथी श्रण सफाबाद नवमी पाटे थयेल सूरिमन्त्रनो कोटिशः जाप करनार 'श्री सुस्थितसरि' अने श्रीसुप्रतिवद्धवरि' आचार्योथी'कोटिक' वीरनिर्वाणधी अठा सकामां पंदरमा पट्टाधिपति 'श्रीचन्द्रसूतिथी चन्द्र' तथा तेज श्रीचन्द्रसरिना शिष्य सोलमापट्टप्रभु श्री 'समन्तभद्र' मूरिथी 'वनवास' पीरनिर्वाणथी १४१५ पटले विकमधी ९५४ वर्षे पांत्रीसमापट्टपति ' श्रीसर्वदेव' सरिथी 'वड (बट, अने श्री वीरनिर्वाणधी ५७५५ एटले विक्रमथी १२८५ वर्षे चुंवालीशमा पट्टनायक जेओश्रीने 'मेदपाट' महीपति महाराणा 'श्रीजैवसिंहसी' ए अनेकशा विगंवरादि वादिओने धादमा होरानी माफक अमेध रहेवाची 'हीरला' पषु विरुद् समयें हन्न, अने युग प्रधान तुल्य से श्रीमान् अगचन्द्रसरिष अभिग्रह पूर्वक यावज्जीव आचाम्लादि तीन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मालाचरणविवेचनम् ॥ तपस्याओ करी इती जेधी भक्तिभरदये सन्तुष्टवदनथी तपानामे बोलाववाथी 'ना' नामे प्रख्यातिपाम्यो, कह्यु के के--"निर्गन्ध' १ श्रीसुधर्माभिधगणधरतः "कोटिकः" २ सुस्थितार्या "चन्द्रः" ३ श्रीचन्द्रसूरेस्तदनु च " वनवासी"ति। सामन्तभद्रान् ॥ सूरेः श्रीसर्वरेषाद् " यर " गण ५ इति यः श्री जगश्चन्द्रहरेविश्व ख्यात " स्तराख्यो " ६ जगति विजयतामेप गम्छो गरीमान् ॥१॥ तेज तपागन्द्रमा अठ्ठावनमा पट्टधर श्रीमान् 'हीरविजयसूरीश्वरजी' थया, जेमना अप्रतिमगुण सौरभ्यनी यासनामां लुब्ध बनेला अकबर भूपाले भक्तिगौरवधी आमत्रणफरी उपदेशामृतर्नु पानकरी प्रतिवर्ष छमास जेटला दियसोमां अमारि उदघोषणाना परवाना करी आएषा साथे "जगद्गुरूनुं विरम् अप्यु हुनु, सेमज म्वेताम्बर प्राचीन जैन तीर्थो "श्रीसिद्धगिरिजी-समेतशिखर गिरनार-नागा-अर्बुदगिरि (आनु)-राजगृहना पंचपाहाड केशरीगाजी आदितीयोंना जन्मसिद्ध कायमी) हकोना पण परवाना करी आल्या हता जे अन्य ग्रन्थो तेमज न्यायालयोमा घणाज सुप्रसिद्ध के. श्रीमान् हीरविजयसरिजी एक महान् प्रतापी. प्रभावक अने प्रतिभा. शालि आचार्य थाया, ए तो निर्दियाद छे ले संबंधमां अन्य ऐतिहासिक प्रन्यो पण साबीती आपी रह्या छे. ! ! ! (६) उपरना "लोकमां पोताना पितामहगुरु (दादा गुरु, गुरुना गुरु) श्रीहीरविजयमूरि महाराजश्रीनु स्तुल्यात्मक मंगल कयु. हवं पोताना गुरु के जेमने भाधीन तमाम शास्त्रारंभो रहेला छे. 'गुर्वायत्ता यस्मा-छात्रारंभा भवन्ति सर्वेऽपि.' पोताना सर्वधार्मिक जीवनना परमआधार, महोपाध्याय 'श्रीकीर्तिविजयजी' रूप अधिकृत देवतार्नु मंगलज जाणे अनित करना होय नहीं तेम आलंकारिक भापाथी अपूर्वमंत्रना रूपकमां स्तवना करे छे. श्रीकीर्तिविजयान्सूते, श्रीकीर्तिविजयाभिधः । शतकृत्वोऽनुभूतोऽयं, मन्त्रः स्तादिष्टसिद्धिदः ॥७॥ शब्दार्थ:-जे 'श्रीकीर्तिविजय नामनी मंत्र ज्ञानादिलक्ष्मी अथवा शोभा, कीर्ति (गुणपसिद्धि) अने विजयने जन्म आपे छे. सेंकडो वरवत ( आराधीने) अनुभवेलो आ मन्त्र इष्टसिद्धि आपनारो थाओ.। ७ ॥ विवेचन-आ श्लोकपी पोताना गुरुवर्य प्रत्येनी अप्रतिमभक्ति साबीत करी बतावे छे. महापुरुषो आ युगमा गुरुमहाराजने साक्षात् देवरूप वर्णवे छे. ज्यारे जगत्प्रकाश सूर्य 'भानु' शम्दयो धोलाय छे. न्यारे राधिना अन्ध १ गुणश्रेणिमणिसिंधीः, श्रोहीरविजयप्रभोः । जगद्गुरुरिद तेन, बिरुदं प्रददे तदा ॥ १॥ (होरसौभाग्यकाव्य.) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रयमा सर्गः॥ कारनो नाश करनार अग्नि 'वृहद्भानु ' कडेवाय छ, “ गुरुगीरवाही गुरूपक्रियातः । फली देषतोऽपीति सम्यम्मतिम 1 लमिनातमिलापहारी कृशानु खदानुरित्युच्यते किं न लोके ॥ ३n" ___ आटले मुधी आ महान् ग्रन्थना भारंभमां अभीष्ट, अभिमन, अधिकृत देवविकना सर्व प्रकारे भंगलो कर) आभश्य, अधिकारी, प्रयोजन सम्बन्ध प्रतिपादनादि निरूपण कर छे. अस्ति लोकस्वरूपं य-दिपकीण श्रुताम्धुधौ ॥ परोपकारिभिः पूर्वपंडितः पिंडयते स्म तत् ॥ ८॥ ततः संक्षिप्य निक्षिप्त-मानायैः करणादिभिः ॥ संग्रहण्यादिसूत्रेषु । भूयिष्ठा) मिताक्षरं ॥ ९ ॥ साम्प्रतं च ऋमात्मायः । प्राणिनो मंदमेघसः ॥ असुबोधमतस्तस्तत् । कवित्वमिव यालकैः ॥ १० ॥ ततस्तदुपकृत्यैतन्मया किंचिद्वितन्यते ।। करणोक्त्यादिकाठिन्य-मपाकृत्य यथामति ।। १ ।। अर्थ-श्रतरूपी समुदमा लोक स्वरूप जे छुटुं छुड़े विखगयल छ नेने परोपकारी एवा ( श्री आर्यश्यामाचार्या दि ) पूर्वना पंडितोए ( जीवाभिगम-पज्ञापना-जंवृद्धीपमज्ञप्त्यादि उपांगोमां) एकटुं करल छ, ॥ ८ ॥ अने मांथी पण संक्षेपीने (श्रीजिनभद्रगति क्षमाश्रमणादि पुज्य भगवंतोए) करणादि ( गणि. तप्रक्रि'यादि ) आम्नाय । संप्रदाय ) बडे संग्रणि ( क्षेत्रसमास ) विगेरे मृत्रोमां थोडा अक्षरोमां घणो अर्थ समाय तेत्री रीते ते लोकनु स्वरूप स्थापल्लु छे. ॥१॥ परन्तु, वर्तमानकाळयां जीवो मायः (घणुं करीने) अनुक्रमे मन्दबुद्धिवाळा यता जाय छे, ए हेतुथो ते ( गणितनी कठिनतावाछु ) लोकनुं स्वरूप बालकोने काव्यनी माफक मुखे समजाय तेम नथी ॥ १०॥ तेथी तेओनापर उपकार करवाने माटे हूं आ लोक- स्वरूप गणितमक्रियादि कठिनता दर करीने मारी मतिने अनुसार १ मेनागरी अनेक भागापूर्वक घणो अर्थ उपजाधी काय तेत्रो मूळ गति ते करण कडेवाय जेमके 'संग्रहणीसूत्रमा नारकनां देवमां प्रति प्रतरे भिन्न भिन्न आयुष्य शरीर प्रमाण विमान संख्या विगेरे कहेगाने 'पई खिदििषसेसो' इत्यादि ' सोहम्मुक्कोस ठिा, निपपयरविहस न्यादि मूळ सेतियाळो गाथाओ आपेली छे. ते परयो आयुष्यादि जुदा जुदा कादी शकाय छे माटे तेथी संक्षिप्त मूम रीतियाळी गाथा भो ते करणाक्ति-करणगाथा कहे. याय, तथा क्षेत्रसमासादिमा परिधि गणितपद जीवा-वाहा-धनुशादि लाषषा माटे अतावेल विक्खंभाग दहगुण, करणी पट्टस्त परिरमो घोर विगरे ते पण करणोक्ति गाथाओं कद्देयाप. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || शिष्टपसादमार्थनादिविवेचनम् ॥ (२१) कंडक विस्तारथी कहुंछ ।॥ ११ ॥ हवे ग्रंथकार पोतानी लघुता दर्शावे छे. आ ग्रंथ वनावामां मारां शक्ति विचार. ____ अपि प्रसन्नास्ते सन्तु । सन्तः सर्वोपकारिणः ॥ मयि प्रवृत्ते पुण्याथ-माविमृश्य स्वशक्यताम् ॥ १२॥ शिशुक्रीडागृहमाया । ममेयं वचः मां कला ।। निवेशनीयास्तत्रामी | कथमर्था दिपोपमाः ॥ १३ ।। श्रीगुरूणां प्रससाना-अचिन्त्यो महिमाथवा ।। तेजःप्रभावादादौँ । किं न मान्ति धराधराः ॥ १४ ॥ सक्षिप्ताः सङ्ग्रहाः प्राच्या पथा ते सुपठा मुखे ।। तथा सविस्तरत्वेन । सुबोधो भवतादयम् ॥ १५॥ लोकमकाशनामानं । ग्रन्धमेनं विचक्षणाः ॥ आद्रियध्वं जिनमोक्त-विश्वरूपनिरूपकम् ॥ १६ ।। पाप्यानुशासनमिदं समुपक्रमेऽह-मदंयुगीनविहरद्गुरुगौतमस्य ।। श्रीमत्तपागणपतेविजयादिदेव-मरीशितुर्विजयसिंहमुनीशितुश्च ।। १७ ।। ( इति ग्रन्थप्रस्तावना.) ___ अर्थ-आ ग्रंथ धनाववामा पोनानी शक्यता : माराथी आ कार्य बनशे के केम ? ते शक्ति] विचार्या विना मात्र पुण्यने अर्थन मवतला मारा उपर सर्वने उपकारी एवा ते सज्जन पुरुषो ! प्रसन्न थाी 1 ! ॥ १२ ॥ वळो मारी आ वचनो नो कला ते बाळकना 'क्रीडागृह सरखी छे, अने तेवा वचनोरूपी क्रीडागृहमां मोटा हाथीओसरखा आ अर्थ केवी रीते पेसाडीशकाय॥१३॥ अथवा प्रसन्न थयेला एवा श्रीगुरुमहाराजनो महिमाज कोइ अचित्य प्रभाववालो छे, जेथो एवा मोटा अर्थरूप हाथोओ पण मारा वचनरूपी लघुगृहमा उत्तरी शके ? प्रवेश करी शके छे; (आ बायतमा प्रत्यक्ष दृष्टान्त छे के ) तेजना प्रभारथी दाना सरखा आरिसामां मोटा पर्वतो पण शुं समाता (मवेश थता) नथी । ॥ १४ ॥ जेम पर्चे करायला ने अर्थना संक्षिप्त संग्रहो ( दृकां मृत्रो) मुखे करीने कंगन थइ शकतां हतां, नेम विस्तारपणावडे आ ग्रंथ मुखपूर्वक समजाइ शके लेवो थाओ.! ! ।। १५॥ है विचक्षण सज्जनो! श्रीजिनेवरे कहेल सर्व जगत् पदार्थने निरूपण करनार आ "लोकप्रकाश" नामना ग्रंधनो आदर करो. !! ॥ २६ ॥ आ युगमां (वर्तमानकाळमां) विचरता मुनिगणमा गौतम गुरु सरखा श्रीतपागच्छना अधिपति "श्रोविजय देवसरि" अने " श्री विजयसिंहमूरीश्वरनी " आज्ञा पामीने हुं आ प्रन्थ रवशालमा भूळमां रमता पालको जे धृतना घरी बनाये है ते. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ (कार्य) नो प्रारंभ करुई. ॥१७॥ ॥त्रण प्रकारना अंगुलनुं स्वरूप.॥ अवतरण-आ ग्रन्थमा आगळ वर्णनाता जीवाजीवद्रव्योना क्षेत्रना, काळना तथा भावना स्वरूपमा अंगुलादिना प्रमाणनी विशेष आवश्यकता होवायी तेओनुं स्वरूप प्रथम कहे जोइये? अने तेमां पण अंगुलना मापनी प्रथमज आवश्यकता के कारण-अंगुल प्रमाणनो निर्णय कर्या शिवाय योजन रज्जु आदि प्रमाण थड़ शके नही. तेमज पन्योपम तथा सागरोपमर्नु स्वरूप प्यालानी तया तेमा भरेला वाळोनी कल्पनाथोज थाय छे, अने ते प्यालो अमुक प्रमाण इंडो पहोलो लांवो परिधिवालो विगेरे मापसहित होय छे, ते मापवामां पण प्रथम अंगुलनी जरुर छे वळी उत्कृष्ट संख्यात असंख्यातुं विगेरे गणित पण आगळ वतावाती अनवस्थितादि प्यालानी कल्पनायीज बतायेलं छे, तो ते प्यालाओगें माप पण अंगुलादियो करेला प्रमाणपडेज थाय छे, माटे तेमापण अंगुल स्वरूपनो प्रथम उपयोग छे. माटे ते अंगुल मेदो बताये छे. मानरगुलयोजन-रज्जनां सागरस्य पल्पस्य ॥ सङ्ग्यासहख्यानन्त-रुपयोगोऽस्तीह यद्भूयान् ॥ १८ ॥ (आर्या) ततः प्रथमतस्तेयो। स्वरूपं किञ्चिदुच्यते ॥ तत्राप्यादावङ्गुलानाम् | मानं वक्ष्ये त्रिधा च तत् ॥ १९ ॥ औतसेधाख्यं प्रमाणाख्य-मात्माख्यं चेति तत्र च ।। उत्से. धाक्रमतो वृद्धे-र्जातमोत्सेधमङ्गलम् ॥ २० ॥ __ अर्थ-आ ग्रंथमां अंगुल-योजन-रज्जुना-सागरोपम-भने पल्योपमना प्रमाण तथा संख्याता-असंख्याता-अनंता(ना प्रमाण) वडे घणीन उपयोग छे ॥१८॥ माटे सौथी पहेलु ते अंगुलादिकन कंइक स्वरूप कहेवाय छे, नेमा पण प्रथम अंगुलनु प्रमाण कडीश. ते अंगुल त्रण प्रकारचें छे ॥१९॥ औत्सेधांगुल-आत्मांगुल अने १ आयोजनादिना परिमाणन कोष्टक आगळ विस्तारथी ग्रन्थकार घनाघे रखे पण तेथी लौकिक परिभाषामां को कोई स्थळे भिन्नता देखाती होय जेम वैजयरतो कोशमा चार हायन धनुष्य, १००८ धनु ? कोश, २ फ्रोश १ गव्यूस, ४ गब्यून १ योजन, ए कोशलादि देशोनो परिभाषा छ भने मगधादिमा २ गठ्यूप्त १ योजन ए प्रमाणे छ, कौटिलीय अर्थ शानामा १ हजार धनुषनो १ गाउन १ योजन विगेरे, पण तेषी जैन सिद्धान्तोनी परिभाषा अमुक देशीय छ नेम कही शकाय महि, कारण सिद्धांत परिभाषा नियत पक स्वरूपज रहे छे ज्यारे भिन्नभिन्न देशीय परिभाषा कालभेदे परिवर्तन पण पामे छ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रिविधानले औल्सेधागुलविवेचनम् ॥ (२३) प्रमाणांगुल, तेमां उत्सेधथी एटले (परमाणुथी मांडीने) अनुक्रमे वृद्धि पामवाधी थयेलुजे अंगुल ते प्रथम औरसेवांगुल ॥ २० ॥ (इये अनुक्रमे दि बताये छ) तयाहि-द्विविधः परमाणुः स्यात् । सूक्ष्मश्च व्यावहारिकः ॥ अपरशुशि लूम करेगुपदापिका ॥ २१ ॥ सोऽपि तीव्रण शास्त्रेण । विधा कर्तुं न शक्यते ॥ एनं सर्वप्रमाणाना-मादिमाहुर्मुनीश्वराः ॥२२॥ व्यवहारनयेनैव । परमाणुरयं भवेत् || स्कन्धोऽनन्ताणुको जात-सूक्ष्मत्वो निश्चयात्पुनः ॥२३॥ अनन्तव्यवहाराणु-निष्पोत्दलक्ष्णइलक्ष्णिका । निष्पद्यते पुनाइलक्ष्ण-इलरिणका ताभिरष्टभिः ॥२४॥ ॥अयं भगवत्यावभिप्रायो, (मा. १) जीवसमाससूत्रे (सा. २) च परमाणू य अणंता, सहिया उसण्हसण्डिया एक्का | साणंतगुणा सन्सी । समणिहया सोणु ववाहारी ॥ ( परमाणवश्वानन्ताः, सहिता उत्पलक्ष्णश्लक्ष्णिकैका । साऽनन्तगुणा सन्ती, इलक्षणलक्ष्णिका सोऽणुर्व्यावहारिकः ॥ १॥)-आगमे चेय पूर्वस्याः सकाशादनेकस्थानेव्वष्टगुणैव निर्णीता, अनेन त्वनंतगुणा कुतोऽपि लिखितेति केवलिन एवं वेतार इति तवृत्तौ ( सा. ३ । ॥ ताभिरष्टाभिरेक: स्या-दृर्वरेणुजिनोदितः ॥ अष्टोवरेणुनिप्पन-नसरेणुरुदीरितः ।। २५ ॥ त्रसरेणुभिरष्टाभि-रेका स्याद्रधरेणुकः ॥ अष्टभिस्तर्भवेदेकं । केशाग्रं कुम्युग्मिनाम् ॥ २६ ॥ ततोष्टनं हरिवर्ष-रम्यकक्षेत्रभूस्पृशाम् ॥ ततोष्टघ्नं हैमवत-हरण्यवतयुग्मिनाम् ॥ २७ ॥ तस्मादष्टगुणस्थूलम् । वालस्याग्रमुदीरितम् । पूर्वापरविदेहेषु । नृणां क्षेत्रानुभावतः ।। २८॥ स्थूलमष्टगुणं चास्मा-भरतैरषताजिनाम् ॥ अष्टभिस्तैश्च याला-लिंक्षामानं भवेदिह ॥ २० ॥ * || अयं तावत्संग्रहणीवृहपृत्ति (सा. ४) प्रवचनसारोद्धारकृत्यापभिप्रायः, (सा० ५) जंबूढीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृष्यादिषु ( सा ६-७) तु अष्टभिः पूर्वापरविदेडनरकेशागैरव लिक्षामानमुक्तमिति ज्ञेयम् ।। * लिक्षाष्टकमिता यूका । भवेधूकाभिरष्टभिः ॥ यवमध्यं ततोऽष्टाभि-स्तैः स्यादौत्सेधमङ्गुलम् ॥ ३० ॥ (इत्योत्सेधागुलस्वरूपम्) अर्थ-(प्रथम औत्सेधांगुल स्वरूप) ने आ प्रमाणे-मुक्ष्म अने व्यावहारिक । अंगुल-धेत हाथ-धनुष्य-कोश-योजन इत्यादि प्रमाणोमा. २ एक भाकाश प्रदेश जेटला प्रमाणवाळो, जेना के विभागो केलि - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ ए प्रमाणे परमाणु चे प्रकारनो छे, स्यां अनंत सूक्ष्मपरमाणुओ मन्त्री ने एक 'च्यावहारिक परमाणु थाय. ॥ ३१॥ ए व्यावहारिक परमाणु पण अति तीक्ष्ण शस्त्रबड़े वे भाग करी शकाय नहि, ए हेतुथी महर्पिओ पने सर्व प्रमाणोमां आदि कारण माने छे. ॥ ३२ ॥ बळी ए परमाणु व्यवहारनयेज परमाणु कहेवाय अने निअयनयथी तो थयेल छ मूक्ष्मपणुं जेने एवो अनंतपरमाणुनो बनेलो सूक्ष्मस्कंध कवायो एमा भर नमहानिक परमाण मलीने एक' 'उत्श्लक्ष्णश्नक्षिणका' थाय' पुनः नेवी आठ उत्श्लक्ष्ण लक्ष्णिका मळीने एक लक्षण लष्णिका' थाय. ए श्री "भगवत्यादि" मृत्रनो अभिप्राय कायो. अने श्री "जीवसमास' मूत्रमा नो-"अनंन परमाणु मळीने एक उल्लक्ष्णश्लक्षिणका, अने अनंत उपलक्ष्ण उत्तलक्ष्णिका मळोने एक उलक्ष्णइलक्षिणका थाय, ए लक्ष्णइलक्ष्णिका तेज व्यावहारिक परमाणु कहेवाय." (पुनः जीवसमासनी वृत्तिकार कहे ले के) “ सिद्धान्तमां अनेक स्थाने आ इलक्ष्णलक्ष्णिकाने उत्दलणश्लक्ष्णिकाधी आठ गुणीज कहेली छे. छनां मा जीवसमास कर्ताए अनंतगणी कोइ स्थानेयो पण लग्बी ? ने केवलिज जाणे" एम' जीवसमासनी वृत्तिमा फयु छे. __ तेवी पाठ लक्ष्णलक्षिणका मळीने एक जवरेणुः जिनेश्वरे कहेलो छे, अने आठ अवरेणुए ! 'त्रसरेणु' कहेलो 2. 11 ३५ ॥ पुनः आठ त्रसरेणु मलीने ? 'स्थरेणु' थाय, अने आठ रथरेणु मलीने देवरु अथवा उत्तरकुरुना बुद्धिथो पण करी शकाय मही, अप्रदेशी छे. पक वर्ण गन्ध रस अने थे स्पर्शवाळो छे, सबथो खाम, अने म स्कन्धान मूळ कारण तेज निश्चयनयथी परमाणु मानेलो हे तेथा अनन्त परमाणुओ पंकठा थाय स्यारे व्यषहार माटे कल्पेली परमाणु कहेशाय जोके तेला पण तोरणशनादियो छेर भेदादि पता नथी तोपण श्रुद्धिथी नेता अनन्ना भागो पाडी शकाय ! अनन्स प्रदेशोछे, तेमा रहेला वर्ण गन्ध रस रादिना अनेक भगो पाडो शकाय छे. (मान्पय) १-२ रण-पटने मुक्ष्म अने श्लक्षिणकापटले अति सूक्ष्म अर्थात् मूकममा रकम अने उतू उपसर्ग अतिशय वाची होवाची उरलक्षणलक्षिणका कषाय, ने लणक्षिणकाथी अति (आठमें भागे ) सक्षम होय हे. ३ महिं वृति काप अनंतगुणपणानो एका तफाषत दर्शाग्यो छे. प. रन पास्तविक रीते थे तफावत पढे छै. 'तेमा प्रथम तफाषत लणक्षिणकाने ( उत्रणश्लक्षिणकाथी) अगतगुणी कहो ते, अन बीमो तफावत लणमष्णिकाने व्यवहार परमाणु मान्यो ते. ___स्वतः वा परपयोग (वायुयोगे) ऊर्य अधोने तिर्यग् गति करनारी रेणु (रज)-(श्री अनुयोगद्वार.) २ पर प्रयोगे (घायुयोग ) गति करमारी रेणु-(श्री अनुयोगद्वार.) ६ रथ चालवाथी उड़ती धूळनो रजकण -(श्री अनुयोगद्वार.) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ औत्सेध(गुल मदर्शनपूर्वक प्रमाणांगुलोपनमः ॥ (२५) युगलीपाओनो एक वाला थाय ॥२६॥ ते (कुरुक्षेत्रना युगली आना वालाप्रयी) आट गुणो हरिवर्ष अने रम्यकक्षेत्रना मनुष्यो ( युगलीआ) नो वालाग्र यी आठगुणो हेमवन्त अने ऐरण्यवन्त क्षेत्रमा युगलीआनो वालाम यापछे॥२६॥ तेथी आटगुणो जाडो क्षेत्रना तथारूप महिमाथी पूर्वमहाविदेह अने पश्चिममहाविवहक्षेत्रमा मनुष्योनो एक बालान कहेलो छे ( आ सर्व स्थले एकज वालामा सूक्ष्म अने जाटापणुं क्षेत्रना ते ते कालना महिमाथी थायछे, जेम आ भरतक्षेत्रमा अवसर्पिणीना प्रथम आरामा तथा उत्सर्पिणीना छहा आरामां कुरुक्षेत्रजेचा भावो होबाथी तेवरखते भरतना मनुष्योनो वाला पण कुरुक्षेत्रना मनुष्यो जेवो न होय पछो अनुकमे घटना बीजे तथा पांचमे आरे हरिवर्ष रम्यक् जेवो. पछी कमे क्रमे कालहानि थतां आगळ बतावातो जाटो कालाग्र थायछे, अने तेज प्रमाणे एरचनक्षेत्रमा पण समजवू. ॥ २८ ॥ तेयी ( विदेहनावालाग्यी) आठमुणो जाडो भरत अथवा एरवनक्षेत्रना मनुष्यनो १ वालाग्र होय, अने सेवा आठ चालान मनोने १ लीख थाप ॥ २९ ॥ ए संग्रहणीनी वृहत्ति सथा प्रपचनसारोबारचि विगेरेनो अभिमाय कयो, अने जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्रनी वृत्ति विगेरेमा सो आठ पूर्वपश्चिमविदेहमनुष्यना चालान मळीने १ लीखन प्रमाण थाय एम काही छे. आठ लीखनुं प्रमाण मळीने १ ज़ थाय, आठ जू मळीने ? यवमध्य थाय. अने तेवा आठ यवमध्य मळीने १ उत्सेधागुल थाप. || ३० ।। चत्वार्योत्सेधांगुलाना, शतान्यायामतो मतम् । तत्सार्द्धचंगुलव्यासं, प्रमाणांगुलमिष्यते ॥ ३१ ॥ प्रमाणं भरतश्चक्री, युगादौ वादिमो जिनः । तदंगुलमिदं यत्तत्, प्रमाणांगुलमुच्यते ॥ ३२॥ यदौत्सेधांगुलैः पंच-धनुःशतसमुच्छितः । आत्मांगुलेन चाद्योऽहैन, विशांगुलशतोन्मितः ॥ ३३॥ ततः षण्णवतिघ्नेषु, धनुः १ अ दरेक क्षेत्रना मनुष्यमा जे बाजाम का ते जन्मदियमाना यालाय लेषा के बीजी को अषस्थाना लगाते संबंधि स्पष्ट निर्णय नयी तीपण आग. ल पस्योपममी गणत्रीमा मस्तक मुडाव्या बाद सात दिवस सुधीमा वालायन प्रहण कार्य है, ते अनुसार अहिंपण तेघाज घालान गणथान समजाय स्टे. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ (२६) ॥ लोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ शतेषु पंचसु । (अंगु० ४८०००)शतेन विंशत्याढयन, भक्तेष्वाप्ता चतुःशती ॥३४॥ यच्च क्वाप्युक्तमौत्सेधा-सहस्रगुणमेव तत । तदेकांयुलविष्कंभ-दीर्घश्रेणि विवक्षया ॥ ३५ ॥ यचतुःशतदी. र्धायाः, सातपंगुलविस्तृतेः । स्यादेकांगुलविस्तारा, सहस्त्रांगुलदीर्घता ॥ ३६ ॥ द्विशी गुलजारूप ।। अर्थ-चारसो (४००)उत्सेधांगुल लांबु अने ॥ उत्सेधांगुल व्यासपालु (होकुं १ प्रमाणांगुल यायछे. ॥१॥ अहि भरतचक्रवर्ती अषया युगनी - दिमां ययेला श्री श्रादिजिनेश्वर ते प्रमाण, अने तेमर्नु जे आ अंगुल ते प्रमाणांगुल फहेवाय. (ए व्युत्पत्यर्थ कडयो) ॥ ३२ ॥ कारण के आ युगनी आदिमां थयेळ श्रीऋषभदेव भगवान् उन्सेंधांगुला ५०० धनुष्य उंचा हवा.अने आत्मांगुलबडे (पोताना अंगुलबडे ) १२० अंगुल उंचा हवा ॥ ३३ ॥ तेथी ५०० धनुष्पना अङ्गुल करपा माटे ५०० ने ( ९६ अङ्गुलनो १ पनुष्य होगाथी) ९६ ए गुणसां ५००x९६-४८००० उन्सेघाङ्गुल उंचाइ आये ते ४८००० उत्सेधानुलनी उंचाइने पुनः १२० आत्मांगुलबडे भाग आप ४८००+ १२०-४०० उत्सेधांगुलनुं श्रीऋषभदेवनु १ श्रात्मांगुल थयु ॥ ३४ ॥ बळी के. टलेक स्थाने जे उत्सेधांगुलथी प्रमाणांगुल १००० गणुं ज काछे तेनी ( आ. स्मांगुलनी) १ अङ्गुलनी (उन्से गुमनी पहोळाइवाळी दीर्घश्रेणीनी अपेक्षा * सांप्रतकाले चालता भरतक्षेत्रमा व्यषहारना मूळ प्रवर्तक भगवान, श्री ऋषभदेवजी छ तथा माणवकनिभिने अनुसारे समज भगवान ना अनुः शापिपणे भरतचकतिए करेला आर्य वेदोम छे, माटे ऋषभदेव प्रभु तपा भरतचक्रति प्रमाणमूत है. १. अहिं अघसपिणीना युगमी आदि ममयी. कारण के उत्सपिणी युगनी आदिमां वक्ष्यमाण देहप्रमाण ( जिनेश्वरनु ) होय नहि. २ आस्मांगुलना । अंगुलनी जे २॥ उत्सेधांगुल प्होकार छे से व्होकारने २|संघांगुल प्रमाण नहिं रामतां १ उसैधांगुल प्रमाण राखीप तो दी. धता ।। गुणी पधे रीते दीर्घश्रेणीनी अपेक्षा जाणवी. - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) । पयाणांगुल-आत्मांगुलस्वरूपम् ।। ए कधूछे ।। ३५ ॥ फारण के ४०० अङ्गुल दीर्घ अने २।। अझुल विस्तृतनी एक अंगुलप्रमाण विस्तारपाळी लंबाइ १००० अंगुल थाय(४००४२१०००)३६ दृष्टांतश्चात्र ॥ चतुरंगुलदीर्वायाः, साद्धद्वथंगुलविस्तृतेः । पटया यथांगुलव्यास-श्वीरो दैये दशांगुलः ॥३७॥ वस्तुतः पुनरौत्सेधासाद्विगुणविस्तृतं । चतुःशतगुणं देध्ये, प्रमाणांगुलमास्थितम ॥३८॥एतच भरतादीना-मात्मांगुलतया मतं । अन्यकाले त्वनियत-मानमात्मांगुलं भवेत् ॥ ३९॥ यस्मिन् काले पुमांसो ये, स्वकीयांगुलमानतः । अष्टोत्तरशतोत्तङ्गा, आत्मागुलं तवंगुलम् ॥ ४० ॥ एतत्प्रमाणतो न्यूना-ऽधिकानां तु यदंगुलम् । तस्यादास्मांगुलाभासं, न पुनः पारमार्थिकम।। ४१ ॥ पदाहुः प्रवचनसारोगरे-जे जैमि जुगे पुरिसा, असायंगुलसमुच्छिा इति || तेसिं जे निअमंगुलमायगुलमित्य त होइ॥१॥जे पुण एअपमाणा-कणा अहिगा प तेसिमे तु । आयंगुल न भष्पाइ, किंतु सदाभासमेवत्ति ॥२॥ (सा०८) (ये यस्मिन्युगे पुरुषा अष्टशतांगुलस. मुछूिता भवन्ति । तेषां यन्निजकांगुलमात्मागुलपत्र तद्भवति ॥ १ ॥ ये पुनरेतरममाणादना अधिकाश्च तेषामेतत्तु | आस्मांगुलं न भण्यते किन्तु तदाभासमेवेति ॥२) प्रज्ञापनावृत्ती तु-जेणं जया मणूसा, ते. सिं जं होह माणरूवं तु । भणिअमिहायंगुल-मणिमयमाण पुण इम तु ॥ १॥ इत्येवंरूपमात्मांगुलम् ॥ परमाणू रहरेणू । तसरेण अग्गपं च वालम्स । लिक्खा जपा य जयो, अगुणा विवादिया कमसो ॥२॥ इत्यादिरूपमुच्चांगुलम् ॥-उस्सेहंगुल मेग, हवह पमाणंगुल सहस्सगुणं । तं चेव दुगुणियं खलु, वीररसायं गुलं भणियं ॥ ३ ॥ इत्येवं रूपं प्रमाणांगुलमिति ज्ञेयम् ।। (सा. ९) (ये यदा मनुष्यारतेषां यन्मा. नरूपं तु । तणितमिहात्मागुलमनियतमान पुन रिदंतु ॥ १ ॥ परमाणू रथरेणु खसरेणुरग्रक च वालस्य । लिशा यूका व यवः अष्टगुणा विषचिता। क्रमशः॥२ ॥ औत्सेधांगुलमेकं भवति प्रमाणांगुलं सहस्रगुणं । तदेव विगुणितं खलु वोरस्थात्मागुलं मणितम् ॥ ३ ॥) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - (२८) ॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ अर्थ-मई शान्त पा प्रमाणे जे-जेम ४ अडल दीप बने २। अङ्गुरू पोळी पटीनो पीरो एकज अडल पहोलो राखे तो लंबाइमा १० अङ्गुल थाय.(४४२॥20॥३७॥ पुनः वास्तविक रीवे वो उन्सेपागुलथी अढीगणाविस्तारवाळु अने ४०० गणु दीर्घ (खा) प्रमाणांपूल के ॥ ३८ ॥ बळी ए पमाण भरतादिकना आस्मांगुलने अनुसारे मान्यु छ, अने भरन चक्रवर्ति शिरायना पीजा काळमां यात्मांगुरूनुं प्रमाण अनियमिन होय , ( माटे शेषकाळना आत्मांगुलने अनुसारे प्रमाणागुलर्नु ममाण गणी काय नहिं. !!! १९ ॥ कालो कासगे विषे जे पुरुषो पोवाना अंगुल प्रमाणषी १०८ अंगुल ईवा होय आर्नु अंगुल आस्मांशुल कडेवाय ॥ ४० ॥ अने पनी न्यूनाधिक प्रमाणाळा पुरुषोर्नु जे अङ्गुल ते 'आस्मामुलाभास कवाय, परन्तु वस्तुतः यथार्थ आत्मांगुल न कषाय. ॥४१॥ श्रीप्रवच सारोदारमा कयु के के "जे युगने विषे जे पुरुषो १०८ अंगुल उंचा होय तेश्रोन पोतार्नु जे अंगु ल ते अहिं आत्मागुल होय . ॥ १ ॥ परन्तु जेओ श्योक्त मागणी हीन चा अधिक होय तेओर्नु जे आ अंगुल हे पात्मागुल नहि पण आस्मांगुलाभास कोचाय." |॥२॥ श्रीप्रज्ञापना सूत्रनी दृचिां तो " जे काळमां जे मनुष्यो (होय ) तेओना अंगुलन के प्रमाण होय ते अहिंसात्यांगुल कवाय के. बळी आ आत्मागुल अनियत प्रमाणपालु के. ॥१ १२ अंगुलनी होळाइ तोटीने ! अंगुल होलु राख्ने ने बधली १॥ अंगुलमी पटोने पण दोध करी आगळ ओरतो || गुणी लबार बयाधी १० अंगुष्ठ पोचता थाप, १ पथार्थ प्रमाणरहित जे आस्मांगुल से आस्मांगुलाभास कडेवाय, २ पोताना अंगुष्ठपटे १०८ अंगुलमी उचाई रूप प्रमाणथी. * अहिं पोताना अंगुलषडे जे १०८ अंगुल यो होय सेनु अगुल अ आत्मांगुल पम न गण्यु मादे प्रथमाना वक्तव्ययी तफावत के. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भीवीरप्रदेहमाणविरोधशकोद्भावना || ( २९ ) ए प्रमाणे आत्मगुलतुं स्वरूप क ॥ परमाणु-रेथरेणु सरेणु - बालाम - खीख जू--अने जप अमुक्रमे आठ आठ गुणा अधिक कर्या छतांसेगुरू याय || २ || इत्यादि रूप से सुं ॥ एषी ममार्णागुल १००० होय, अने तेज उरसेषांगुल बमणुं पयुं छतुं अर्थात् वे उसे गुड प्रमाण श्रीवीर भगवाननुं १ आत्मगुल क . ॥ ३ ॥ प्रमाणे प्रमाणांनु स्वरूप जाणवुं " ॥ १ अहिं परमाणु " शब्दषडे व्यावहारिकपरमाणु जाणको पुनः जीणिकानेज परमाणु माग्यो हतो से मन्तब्य समासमा कता जे आ प्रज्ञापनातिकर्माना मन्तव्य साथै मळतु आयु छे. २ चालु प्रकरणने अनं करेणुने बदले रथरेणु गण्यो छे. 48 ३ चालु प्रकरण ८ रेणु मळोने १ त्रसरेणु थाय म कह ने अ८ि रथरेणु महीने १ त्रसरेणु कधी तफावत फ्रे. चालु प्रकरणमा त्रसरेणु पछी रथरेणु गण्या बाद बालापनी गणश्री यह इसी अहिं त्रसरेणुथी सुरतज वाला को ए तफावत है, इत्यादि परस्पर घणो तफावत छे. ५ जब पटले अवनी मध्यम भागल समजषो. (*श्री मापनाशीने अभिप्राये २०९७१५२ परमाणु १ उसेघांगुल पाय छे.) कोष्टक नीचे प्रमाणे २०९७१५१ परमाणुये(व्य० ) १ अंगुल ५१२ २६२१४४ रथरेणुये ६४ ३२७६८ स ४०९६ बाळा 35 " " छोखे १ अंगुल सूप ८ य 14 ( भगवती आदि सिद्धान्तोने अनुसारे सूक्ष्मपरमाणुथी मांडीने प्रकरणो चाक उस्ले गुल प्रमाणनुं कोष्टक. ) I 1 'अनंतासूक्ष्म परमाणु अनंतभ्यषचार परमाणु १ ( जीवसमासमते अनन्तसूक्ष्मपरमाणुश्री अ उत्तणश्लक्ष्णिका बाय छे. बने अनन्तलक्षणलक्ष्णिकाथी एक क्षणलक्षिणका बने थे आणि का व्यवहारपरमाणु नाम कडेबाथ छे, अवान्तर जुषो व्यवहारपरमाणु नधी) १ व्यवहार परमाणु १] उणणिका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कोकमकाशे प्रयमः सर्गः ॥ ८ उस्लपणलक्षिणको | কলিজা ८ लक्षणलक्षिणका १ रेणु ८ ऊर्ध्वरेणु . १ सरेणु : . प्रसरेणु । যন্ত ८ रपरेणु १ कुरुक्षेत्रवालान ८ कुरुक्षेत्रवालान १ हरियपरम्पकपालाम ८ हरिवर्षरम्यकवालाम { हिमपंत हिरण्यवंतवालाय ८" हिमपंतहिरण्यवंतषालान १ विदेहवालाप ८ विदेहवाला १ भरतऐरषतवाला ८ भरत ऐश्वतवालाम १ लीन ८ हीच १ यूका (पू) ८ यूका (5) १ यबमध्य ८ यषमध्य १ उत्सेधोगुळ १ ( जम्मूखोप प्रमाप्तिआदिसूत्रोने अभिप्राये विदेहक्षेवना पाठवासानेकरी पक लीना याय के साकी पूजा विगेरे प्रमाण सरखं छे.) ६ अहि पाटीगणितनो अपेक्षाए ( क्षेत्रफलमे हिसाये ) १००० गणु प्र. माणांगुल कटु छे. ७ अधेि उम्सेधांगुले घोचीरनु पक आस्मांगुल का', परन्तु से प. हु विचारषा याग्य छे. अने से संबंधि से विस्तृत उल्लेख श्री मलयगिरिमी महाराजे वृहत्संग्रहणीनो टीकामों की छे तेज अर्थ अने अक्षरश: दशाियरी जो हजारगणुं उत्सधांगुल ते पक प्रमाणांगुल कहेषाय छे. अने प्रमाणां गुरु ते भरतनु भारपांगुल छ तो भरतपत्ति श्रीपीर भगवामयी ५०० गुण थाय. ते केवी रीते ' पम जो पूछता हो तो कहीप छीप के.. " उ. तमपुरषो तो स्वांगुलपडे १.८ अंगुल उधा होय" ५ वचम प्रमाण होवाची भरतचक्रवति पोताना अंगुलषद १८ अंगुल प्रमाण होई शके, अमे भरतनु खात्मांशुल उस्सेधांगुलगी अपेक्षाये १००० गणु दोध के तो १०८ मै १०००पी गुणतां १०८000 (पक हाल आठ हजार ) पाय, हवे भगवान श्रीवर्धमान Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +1 || श्रीवीरपभुदेहप्रमाणविरोधाशङ्कानिरामः ॥ स्वामी उत्सेधांगुलनी अपेक्षाए २१६ अंगुल प्रमाण ( थे उनमेधांगुले श्रीषोरनुं १ आत्मांगुल गणतां ) थाय, तो १०८००० ने २१६ घी भाग भापता ५०. आवे, तेथी भरतगी अपेक्षाप श्री धीर भगवान. ५,५० में अशे ( भागे) छे. अथवा श्री वीरथी भरत ५०० गुणा मोटा छे, कापले के- " भरहायगुलमैग, जाइ य पमाणेगुलं विणिहिट । तो भरहो वीराओ, पंचमय गुणो न मेंदेहो ॥१॥(अर्थ-भरतनु भामागुल मेज प्रमाणांगुल कारले, तो ते श्रीशीरभगधा. नथी भरन ५०० गुणा होय एमो संदेह नथी.) या जो बे उत्सेधांगुल प्रमा ण श्रीधीर- १ आमांगुल है, तो श्रीधीर भगवान् आत्मांगुल बढे ( पोताना अंगुलबडे) १०८ अगुलं उ'चा कंघी रोते होय ? कारण के प प्रमाणे नो श्री वीरभगवार गुलजा के शरी, 3 माणं-- श्रीधीर भगवान उन्सेधांगुलबडे ७ हाथ प्रमाण छ, अंने एक हाथना २४ अंगुल थाय नो चोयोशने सातथी गुणता १६८ उत्सेधांगुल थाय, अने में उत्सेधांगुले. श्रीधीरन १ भास्मांगुल छ तो १६८ में वेए भाग आपता (१६८ अंगुलने अर्ध करतां) ८४ आत्मागुल श्रीवीरभगवाननुं प्रमाण आवे छतां श्री पीर भगवान् १०८ भास्मांगुल प्रमाण' गणाय छे. पुनः जी श्री वीरभगवानं २०८ आरमोगुल प्रमाणन होय तो वे उस्सेधांगुले श्रीधीरनु १ आत्मांगुल गणतां श्री वीरभगवान. २१६ उत्सेधांगुल प्रमाण थाय, अने सेम एवापी भगवान् उस्सेधांगुल पद ( २१६ अंगुलने २४ थी भाग आपतां ) १ हाथ प्रमाण थाय, अने ए बात(भीषीरपभुनी ९हाथनी उचाइ)कोइने पण सम्मत नधी तो थे उस्सेचांगुके श्रीधीरनु एक आत्मांध इत्यादि अंगुल में प्रमाण निर्मषाद रहित कम गणाय ! पीजे स्थाने पण कम्युछ के पर्व वायंगुलओ. कहम. दुसयं जिणा इषा धोरो । उस्ले हगुलमाणेणं. कहं च सयमसष्टुं सी ॥१॥ दा सोलमुत्तरसया, उस्सेहंगु रुपमाणी पर्व । अहवायंगु रमाणेण, होड चुलसी मुयिती ॥२॥ (अर्थ-जो प प्रमाणे होय तो श्री घोर मिनेश्वर आत्मांगुलथी १५८ अंगुल प्रमाण केसी रीते होय ? अने जो आत्मांगुलश्री १०८ अंगुल प्रमाण होय तो ते श्री धीर उस्सेधांगुलपडे १६८ अंगुल (७ हाथ) केवी रीन होय ? ॥ १ ।। अने प प्रमाणे तो उस्तधांगुलथी २१६ अंगुल, अथवा आ. मांगुल पढे ८४ अंगुल श्री धीर भगवान 'पा होशके छ. ) ए प्रमाणे .. श्रीशीरप्रभुथी भरतचक्री ५०० गुणा उचा" संबंधी प्रथम विरोधोद्धापना अने अनंतरोफ बे गाथामा धोजी विरोधोडायना करी. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) लोकाशे प्रथमः सर्गः ॥ ॥ पूर्वोक्त बन्ने विरोधनुं समाधान ॥ - पूर्वे भमोष " १००० उत्सेधांगुल १ प्रमाणांगुल, अने ए प्रमाणांगुल ते भरतनुं १ आत्मगुल " एम जे कक्षु तेनु कारण आ छे के भरतचको freerat आत्मगुलबडे १२० अंगुल प्रमाण छे. कारण के म तीर्थंकरचक्रपति अने वासुदेव आत्मांगुष्टषडे ( पोताना अंगुले करी ) १२० अंगुल प्रमाण डोछे अने श्री अनुयोगद्वार सूक्ष्म " हुंति पुण अहियपुरमा, अडलयं अंगुलाण उब्षिा ( बळी उत्तम पुरुषी १०८ अंगुल उंचा होय छे) पन से कम से तीर्थकर बाकी अने बासुदेषयी शेष ( सिवायना प्र धान पुरुषोनी अपेक्षाप जाणवु. ए हेतुथी १२० अंगुळनो ( २६ अंगुले १ धनुष्य प हिसावे ) १। धनुष्य थाय, अने उत्सेधांगुलपडे भरतच ५०० धनुष्य प्रभाणना हताहिताय गणत आत्मगुलना १) धनुष्ये उत्सेवांगुलमां ५०० धनुष्य याय तो अम्मांगुलना १ धनुष्यवके उस्सेधांगुलना केलां धनुष्य थाय ? अहिं वर्तमानपद्धति त्रिराशि स्थाप ना १ – ५०००- १ छे. त्यां प्रथमनो राशि अंशसहित ले ( अपूर्ण से ) माटे गुण्यगुणकने सरखा करवाने १| धनुष्यमा हाथ करतां ५ हाथ चाथ, अमे ५०० ते ४ ही गुणतां २००० हाथ पाय असे अन्त्यराशि १ मे पण चारे गुणत थाय. जेथी पुनः त्रिराशिस्थापना ५- २०००-४ ए प्रमाणे मध्यमा २००० राशिने गुणतां ८००० आपसां १६०० शाथ धाय तेना धनुकरवाने पुनः [ चार हाथनो १ धनुष्य ए हिसावे ] सारथी भाग आपतां ४०० धनुष्य आवे तो जवाब प आयो के आत्मगुलना एक धनुयत्र उत्घांगुलमा ४०० धनुष्य थाय, पममाणे आम्मां गुलना एक हाथ रहे उसे गुना ४०० हाय, एक आत्मांगुलवडे ४०० उत्सेधांगुल, अने पकआत्मांशु थ, डवे अम्ल्यना ४ रूप राशिवडे थाय अने प्रयमना ५ राशिवडे भाग - योजनमा ४०० उत्सेधांगुल योजन पाय, तेथी एक श्रेणीप्रमाणां गुलने विषे४ ० उत्सेधांगु थायरम सावित थयु अने ते श्रेणीप्रमाणांगुल १ उत्सेधांगुष्ठ जाडु अमे २॥ उत्सेधांगुल विस्तारवादु पशु. तेथी श्रेणीना जे ४०० उत्सेवांगुल ते २॥ उत्सेधांगुलमा विस्तारवडे गुणीप तो एक प्रमाणांगुल २००० उत्सेधांगुल में लांघु थाय. एवा प्रकारमा प्रमाणांगुलवडे ( प्रमाणांगुलना विभष ) पृथ्व्यादिकतां प्रमाण माचधां, परन्तु ४०० उत्सेधांगुल दीर्घ ― Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीरप्रदेशप्रमाणविरोधनकापरिहारः ॥ पवा सूची ( अणि ) प्रमाणांगुलबडे पृथ्व्यादिनुं माप न कर. ॥ इति पथमविरोधापहारः ।। तथा “बे उम्सेधांगुले भीवीरनुं पक आत्मांगुल थाय' प. संबंधमां मे विरोध दर्शाग्यो ते पण परमार्थ नहिं जाणाधी अयुक्त छे. कारण के भगवान श्री वर्धमाम स्थामी सूत्रान्तरोमां कया प्रमाणे आमांगुलपटे ८४ अंगुल, अने उस्लेधांगुलपडे १६ अगुल गण है. श्रीअनुयोगदार चूर्णिकारे का छे के-- " त्रीरो आपसंतरओ आय गुलण चुलती अंगुलमुनिय. यो । उस्से गुरुओ सयमसटि हवा . माटे अम्म्मेघांगुले श्रीधीरन १ आत्मागुल थाय. बळी जेओना मते श्रीवीरमगवान मारमा गुलबरे १२० अंगुलप्रमाण छ, तेसोना मत प्रमाणे समचतुरबबाहा मतियाहा गणितमा (समचारस क्षेत्रफलमा गणितना) कापडे बे उत्सेधांगुले श्री वीरनु १आश्मांगुल थाय. ते फेषी रीले ? पम जो पूछता हो तो कीप छीप केजो भगवाम् आत्मांगुलबजे १२० अगुल प्रमाण हो तो हस्त संख्याए पोताना ५ हाथ प्रमाण रहे. अने पूर्वं कहेला १६८ अंगुलथी एयेला ५ हाथ समी . रस क्षेत्रफळना हिसाबे ४९ हाथ थाय, अने एक हाथ पडी अने केश विगेरेमा प्रमाणनो गणतां सर्व मलीने ५० वाथ (क्षेत्रफळ प्रमाणे ) थाय ए ५० हायर्नु अई करता २५ हाथ थाय. ( तो ५. x ५= २५ ए रोते २५न क्षेत्रमूळ ५ हाथ आषवाथी प्रथम का प्रमाणे १२. आत्मांगुल पवाथो बे उत्सेधांगुले श्रीवीरनु १ आरमांगुल ( सभघोरम क्षेत्रफळनी रीते ) प्राप्त पयु. अने जो बाहागणितमी अपेक्षा न रात्रीप तो भगवतमा १ मामांगुलना १ उत्सेधांगुल पूर्ण. अने बीजा उत्सेधांगुलना पांचीया बे भाग (= , २ उत्सागुल ) थार. ते आ प्रमाणे-जी १२० आमांगुलमा १६८ उरसेधांगुल प्राप्त थाय तो एक आत्मांगुलना कटला उत्सेधांगुल प्राप्त थाय ? अहिं विराशिस्थापमा १२०-१६८-१ थाय, स्पां अन्त्यमा १ बरे मध्यराशि १६८ ने गुणतां १६८ आये, अने प्यार वाद १६८ ने प्रथमराशि १२. परे भाग आपती १ उत्सेधांगुरू संपूर्ण आवे ने शेष १८ षधे तेनी कोवीसपदे अपवर्तना फरषाथी ४८ मे स्थाने २ अने १२० ने स्थाने पांच आवे जेषी एक पूर्णाकरे पश्चर्माण (२) उस्सेधांगुलमो १औषीपनो मात्मांगुल पाय. बळी अोमा मते मगवान् १०८ मारमांगुल प्रमाण छ, तेसोना मले भी वीरनु पक आत्मांगुल , ५ उम्सैधांगुल जेटल पाय, अहिं पण त्रि राशिनी रीति पूर्ववत जाणवी. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ॥ लोकमकाशं प्रथमः सर्गः ॥ ॥ कया अंगुलवडे कया पदार्थों मापंवा? ते कहे . औत्सेधांगुलमानेन, ज्ञेयं सर्वांगिनां वपुः 1 प्रमाणांगुलमानेन, नगपृथ्व्यादि शाश्वतम् ॥४२॥ तत्रापि || तस्यांगुलस्य दैयेण, मीयते वसुधादिकम् । इत्याहुः केचिदन्ये च, तरक्षेत्रगुणितेन वै ॥ ४३ ॥ तद्विष्कभेण केऽप्यन्ये, पक्षेवतेषु च त्रिषु । ईष्टे प्रामाणिक पक्ष, निश्चेतुं जगदीश्वरः ।। ४४ ॥ ॥ अत्र प्रथमपक्षे एकस्मिन् योजने उत्सेधांगुलनिष्यन्नानि चवारि योजनशतानि भवन्ति, द्वितीयपक्षे सहस्र, तृतीये दशक्रोशा भवन्ति । परं श्रीअनुयोगहारचूर्णी तृतीय एव पक्ष आहतो दृश्यते । तथा च तद्ग्रन्थः ।। जे च प्रमाणंगुलाओ, पुढवाइप्पमाणा आणिज्जति । से अपमाणगुलविकांव-भेणं आणेगव्या ण पुण सूहअंगुलेणंति (सा०१०) (यानि च प्रामाणांगुला पृथ्व्यादिप्रमाणान्यानीयन्ते । तानि च प्रमाणांगुलविष्कम्भेणानेसम्पानि न पुनः मूच्वंगुलेनेति ॥१॥) ॥श्रामुनिचन्द्रसूरिकृतांगुलसप्ततिकायामप्युक्तं ।। एथं च खित्तगुणिएण, केइ पगस्स जे पुण मिणति । अन्ने उ सहअंगुल-माणेण न सत्तभणियं ॥ १ ॥ (सा.११) (एतच्च क्षेत्रमुणितेन केचिदेतस्य यत्पुनर्मिन्वन्ति । अन्ये तु सूच्यंगुलमानेन न सूत्रमाणितं तत् ॥ १ ॥ ) ।। अत्र चर्चादिविस्तरः अंगुलसप्ततिकातोऽवसेयः ॥ वापीकूपतडागादि, पुरदुर्गगृहादिकं । वस्त्रपात्रविभूषादि, शय्याशस्त्रादि कृत्रिमम् ॥ ४५ ॥ इंद्रियाणां च विषयाः, सर्व मेयमिदं किल ॥ आत्मांगुलैर्यथामान-मुचितेः स्वस्ववारके॥४६ . ___ अर्ध-उरसेवांगुलना प्रमाणवढे सर्व जीवोना शरीरनी उंचाइ जाणवी अने Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रमाणांगुल-भान्मांगुलविषयम्वरूपम् ।। प्रमाणांगुलना मानपद पर्वन अने पृथ्व्यादि शाश्वनपदार्थों. मापया ॥ ४२ ॥ तेषां पण केटलाएक एम कहेछे के-पृथ्व्यादिकनु माप प्रमाणांचलनी दीर्घता (४०. उन्सेशंगुल प्रमाण दीर्घता ) वडे कर, अने केटलाएक कहेछे के प्रमाणांगुलना ( १००० उन्सेघांगुलरूप ) क्षेत्रफळबडे माप कर, ॥ ४३ ॥ अने फेटलाएक प्रमाणांगुरु ना विकभव हे मापचा कहेछे, एत्रण पक्षमा प्रामाणिक पक्ष कयो के ? तेनो निश्चय करवाने सहज समर्थ छे ॥ ४४ ॥ अहि प्रयमपक्षमा एक योजनने विषे उत्सेगुलममाणवाला ४०० योजन, चीजे पक्षे १००० योजन, अने श्रीजे पक्षे २॥ जोजन (१० कोश ) यायहे. परन्तु श्रीअनुयोगद्वारचूर्णिमां बीजो ज पक्ष ग्रहण करेलो देखाय छे तेनो पाठ आ प्रमाणे __"धळी जे प्रमाणांगुलथी पृथ्व्यादिकनां प्रमाण मपायछे, ते प्रमाणांगुलना विकभव हे मापयां, परन्तु सूचि अंगुल वडे नहि." पुनः श्रीमुनिचंद्रसूरिकृत अंगुलसित्तरिमा पण कई छे केकेदलाएक ए पृथ्व्यादिकने ( प्रमाणांगुलना ) क्षेत्रफळवर जे मापे छे, अने केटलाएक वळी सूचिअंगुलना प्रमाणषदे मापे छे ते सूत्रमा कहेल नथी" संबं अधिक चर्चानो विस्तार श्रीमुनिसुंदरसूरिकृत 'अंगुलसप्ततिका ग्रन्थयी जाणवो. ५ अंगुलसिप्तरी ग्रन्यनो भार्थ आ प्रमाणे छ - जे पृथ्ठयादिकनां प्रमाण कहेला छ ते तेना ( प्रमाणांगुलना ) विक्रम बहे मपाय छ, प प्रमाणे श्री अनुयोगद्वारणिं अने वृत्तिमां कडेल, के. ते मा प्रमाणे- गाथा १३ मी ॥ "ज अ पमाणांगुलाओ पुदवाइपमाणा आणिति ते अ पमाणांगुल विश्वंभण आणेयख्या ण पुण सूद अंगुलणति " ॥६॥ ( गतार्थ ) बळी पृथ्व्यादिकमा प्रमाण केटलापक प्रमाणांगुलमाक्षेत्रफळपडे मापेछे अने बीजा केटलापक सूचिअंगुलबडे मापे छे ते सूत्रोक्त नयी ॥ १५ ॥ परन्तु सम्ने मतने विषे ( सूचिथी अने क्षेत्रफळथी मापता ) मगधवेश अंगदेश, अने काला विगेरे प्रायः सर्थ आयवेश पकज योजनमा समार जाय ॥ १६ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकाकाशे प्रथमः सर्गः ।। (क्षेत्रफळने हिमाय ) दोध अने विस्तृत भावषढे १००० योजन प्रमाणपाळा समवोरस योजनने परस्पर गुणतां १० लाग्य योजन ( १८००४ १०००-२०००००0) उत्सेधांगुलमानबाळा प्राट थायछे. (सूचि अंगुलने हिसावे) १०. योजम प्रमाणने परस्पर गुपये छते एक लाख साठ हजार (४००x४१६००८०) उम्सेधयोजन थाप पेप रोते बन्ने पक्षपाळा ! प्रमाणांगुल्योजनमा प्रायः मर्व आर्यदेश केम * म्माय ? "...८ ॥ बळी ए वाचत पण अलौकिक छ के जो पकज योजनमा ते सधळा आर्यदेश समाया सो (६२६ योजन-६ कला प्रमाण ) भरत क्षेत्रना बाकी. रहेल योजन ( ५२५, ६) लर्य निरुफल थायछे ( हाली रहेछ. ) ॥ ११ ॥ ___ सथा मारिका अथवा अयोध्या नगरी के जे धम्ने नगरीओ कुवरदेव बनावेली होषाथी निश्च प्रमाणमां (लबार पहोळामा) मरखीज छे. कारणके बग्ने नगरी १२ योजन कांधी अने १ योजन पहोळो छ ।। २०॥ पमांनी पकज नगरीना प्रमाणने १००० (=१००० ना क्षेत्रफळ) करतां १० कोड में ८० लाख योजन ( १२.९=१०८+१.००=1000=१०८०००००० योजन ) याय, अने ४४० मा क्षेत्रफळ्या गुणतां ( १०८+१६००००=) १७२८. 0000 उस्सेध मोशन प्रमाण एक नगरी धायः ॥ २१ ॥ जे कारण माटे नगरीनु ए प्रमाण घणुन मोटु थयु ते अयोग्य भासे के. मादे पूरच्या विकर्नु ( नगरीनु प ) प्रमाण प्रमाणांगुलना षिष्कमयी प्रक्षण करवू जोड्प, ॥ २४ ॥ तथा पूर्वे किया प्रमाणे एषा घणा मोटा प्रमाणवाळी मगरी होय तो साधेली छे दक्षिण दिशा ( दक्षिणना ३ खंड ) जेणे अने परिमित आयुप्यषाळा पषा कोणिक राजानु ( चकनि यमवाना स्लोभे ) पैतान प्रत्ये गमन केम या शके? (अर्थात् मगरी बहार निकलना पहेलांज आयुष्य संपूर्ण था रहे.) ।। २५ ॥ पुनः शाश्वतस्यवन्दना करवाने घेताय गुफा पाते. अने ( अशाश्वतदेवाधिष्टित प्रभाधिक ) चैत्यने वन्दन करपा माटे सभयनगरमां (# हाल पंजायमां पिंडदादरखा गामनी नजोक भेरानामथी आळस्याय ने तेमा) गंधार श्रापकर्नु गमन केम था शके ? ॥ २६ ॥ ( माटे पृथ्व्यादि. का प्रमाण प्रमाणांगुलना विष्फभषडे जमाएषा युक्त छ. परात्पर्य का) वळी भेटलापक जे एम कहै है के–५ प्रमाणे ( विस्कंभवढे ) पृथ्क्यादि प्रमाण माप्ये छते भरतक्षेत्रमा भरतचक्रीनो परिवार ( ७२००० महानगर विगेरे- बार यार योजन प्रमाण ९ निधिभो-६४०० परिणीत सीमो अमे हरेक श्रीमो थे वे दातो मलीने १९२... सर्व स्त्रीयो-३२००० देश८४00000 घोडा-८४०००८. स्मि-८५-०... रथ-९६ कोड गाम-स्यादि) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अंगुलसप्ततिकागतचर्चाविचारः ।। ५२६ योजन मात्र भरमक्षेत्रमा केपी ने समाइ शके ! ते सम्बन्धमा सम जधानु के एमां कोई विरोध नथी ॥ २७ ।। कारणके भरतक्षेत्रनु म प्रसर । भरतनी भूमि ) ५३८८६८२ योजन छे. ( प्रतर लाश्वानी रीति क्षेत्रसमासधी जाणवी. ) प प्रतर गणित दशिणभरत-उत्तरभरत-अने घेतादयतुं तल प गर्नु मळीने छ. || २८-२९ ।। यो० कळा. विकला. स्यां दक्षिणभरमा १८६४८ - १२--.६ छ. तादयतलनु प्रतर ५१२३०७ गो०-१२ कळा छे. अने उत्तरभरतनुं प्रतर ३०३२८८८ यो०-१२ कळा-११ विकळा है. ॥ ३०-३१-३२ ॥ प प्रमाणांगुलयोजनना उसैधांगुल योजन करपा माटे प्रमाणांगुलना विष्कम || 4 गुणतां एक प्रमाणांगुष योजनना श उत्स० योजन याय, अने तेना गाउ (४+२||=) १. था। तेनुं क्षेत्रफळ १०x१०=१०० उन्से० गाउ थाय प रीते हरेक समचतुरख १ प्रमाणांगुल योजनना उस्लेधांगुली क्षेत्रफळ गाउ १०० थाय तो पूर्वना पार योजनना गाउ करतां भरतक्षेत्रमा उत्सेधांगुल मानपडे क्षेत्रफल गाऊ १३८०६८२०० घाय. अर्थात भग्नक्षेत्रनी क्षेत्रफळ भूमि ( स भूमि ) १३८०६८२०, उस० गाउ प्रमाण छ, ते. खा एक चौरस गाउने विषेबे प्रण अथवा चार गाम होयछ, जेथी आग दाव्या प्रमाणे .कोद्ध गाउमा ९६ क्रोड गाम ममा शकेले. ॥ ३३.३४-३५-३६ ।। ८ क्रोड गाउमां ये घे गाम होय, वीजा आट कोड गाउमां त्रावण गाम होय, अनं १४ कोड गाउमां चार चार गाम होषाथी [८+८+१४) ३० क्रोड गाउर्मा ५१६+२४+२६८) ९६ कोह गाम समार शके 2. अने शेष कांकि न्यून २४ कोड गाजना अर्धमा ( कंडक म्यून १२ क्रोड गाऊमा ) पत्तन -पुर-- कन्वर-खेट प्रत्यादि जे भूत्रमा कया छे ते सर्व समाइ रहेछ. ॥ ३७-३८ ॥ प पतनादि सर्व मळीने ३१७१.०५ होय ते पटलामा किंचित् न्यून १२ कांड गाउमा सुश्च समाह शके छ.नया चैताहयादि पर्वतो मने तानादि उपर ने नगरादि होय ते सर्व भरनक्षेत्रनी एज १२ फोड गाउ प्रमाण भूमिमां जाणधा अने शेष १२ कोड गाउमां गंगा सिंधु विगेरे नदायी अने सीमा पण अनेक पठाशयो तथा नरोगों विगेरेना द्वीपानि समाा शके. अने ए बस्ने वारकोडोमां पटरी चीजो ममाय तोपण गणो जमीन पडतर रहे ॥ ३९-४-५ || इत्यादि वर्णन अंगुलमित्तरीमां का, तेमाथी उपयोगी विषय अग्रे भाषार्थ रूपे कश्मी, अहिं गाथाओमा जे जे अंक (टक छे ते ते गा. धानो विषय अत्र अति उपयोगी नहि होवाथी ग्रहण का मधी गम जाणवु. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ॥ श्रीलोकाशे प्रथमः सर्गः ॥ बाब - कूत्रा - वळाव विगेरे जळायो, नगर- किल्ला - अने घर विगेरे वस्तुओं तथा वस्त्र - पात्र अने आभूषणादि - तेमज शय्या अने शस्त्र विगेरे सर्व कृत्रिम वस्तुओं, तथा इन्द्रियना विषयो ए भर्व निश्रय पोतपोताने बारे * उचित एवा आत्मगुळवडे यथायोग्य मापनु... ४५-४६ ।। ॥ सूचि - प्रतराने घनांगुलनु स्त्ररूप ॥ सा आत्मौत्सेधप्रमाणाख्यं त्रैधमप्यंगुलं त्रिधा ॥ सूच्यंगुलं च प्रतुर्रा-गुनं चापि धनांगुलम् ॥ ४७ ॥ एकप्रदे शबाहल्य— व्यासैकांगुलदैर्घ्ययुक् ॥ नभःप्रवेशश्रेणिर्या, सूच्यंगुलमुच्यते ॥ ४८ ॥ वस्तुतस्तदसंख्येय- प्रदेशमपि कल्प्यते ॥ प्रदेशत्रय निष्पन्नं सुखावगतये नृणाम् ॥ ४९ ॥ सुखी सूच्यैव गुणिता, भवति प्रतरांगुलम् । नवप्रादेशिकं क - रूप्यं तद्दैर्घ्यव्यासयोः समम ॥५०॥ प्रतरे सूचिगुणिते, सप्तविंशतिखांशकं ॥ देर्ध्यविष्कंभवाहल्यैः, समानं स्याद घनांगुलम || ५१ ॥ उपर्युपरिप्रतरत्रये स्थापिते स्थापना || अर्थ - आत्मगुल - उत्सेधांगुल-अने ममाणगुल ए प्रवरअंगुल - अने धर्नागुल एम ऋण ऋण प्रकारनां ले ॥ आकाश प्रदेश जाडी अने होळी तथा एक अहुल दीर्घ लांची पत्री जे आकाशप्रदेशनी श्रेणी ते सूचीअंगुल कहेवाय || ४८ || वास्तविक रीते जो के ते सूचीअंगुल असंख्य आकाश प्रदेश प्रमाण दीर्घ द्वे नोपण मनुष्योने सुखे समजाववा माटे त्रण प्रदेशात्मक कल्पाय के, ४९ ॥ मूची वढे गुणाकार अकुल सूचीअडगुल ४७ ॥ त्यां एक १ स्पर्शेन्द्रियादिनो त्रिषय १ योजन इत्यादि (मेया आत्मगुलैरेव प्रागुक्रोत्रियगोचरा इति इन्द्रियद्वारे कहेल होत्रार्थी ) २ भरतचीने वारे भरतना आत्मांगुल, अने भी धरने बारे श्री वीरमा आत्मशुलवडे तथा जे काळे जे उत्तम पुरुषीथाय तेओना अमांपुरुषले. ३ यथा००० प अणि सूखी अंगुल " Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गुणकारादिगणितविषयविचारः ॥ फरायली सूची (सूची अंगुलनो जे वर्ग ) ते 'प्रतर्रागुल थायछे, अने लगा तपा होळाइमा सरखं एवुले पनरांगुल नत्र आकाश प्रदेशन फल्पाय के ॥ ५० || पुनः मतरने सुचीवडे गुण्ये छते २७ बाकाशप्रदेश प्रमाण तपा रुवाइ होकार अने जाहाइमां सरखु एवं घनागुल होयछे, ॥ ५१॥ ते उपराउपरी त्रण मनरो स्थापनाथी थायछे, ते स्थापना नीचे (स्फुटनोटमां ) दर्शाची के, तत्र गुणनविधिश्चैवम् ॥ यंकोऽतिमो गुण्यराशे-गुण्यो गुणकराशिना ॥ पुनरुत्सारितेनोपा-त्यादयोऽप्येवमेव च ॥५२॥ उपर्थधश्चादिभात्यो, राश्योगुणकगुण्ययोः ॥ कपाटसंधिवत्स्थाप्यौ, विधिरेवमनेकधा ।। ५३ ॥ स्थानाधिक्येन संस्थाप्यं. गुणिते के फलं च यत् ॥ यथास्थानकमंकानां. कार्या संकलना ततः ॥ ५४॥ अंकस्थानानि चैवं ॥ एकं दशशतसहस्वा-युतलक्षप्रयुतकोटयः कमतः ॥ अबुदमब्जं खर्व, निख महापद्मशंकवस्तस्मात् ।। ५५ ।। जलधिश्चात्यं मध्यं । परायमितिदशगुणोत्तरं संज्ञाः ॥ इति ॥ अत्रोदाहरणं ॥ पंचव्यक १ . • ए प्रप्तांगुल २ घनांगुळनी (उपरा उपरी प्रतर गोठवधारूप) स्थापमा यथाथ स्थापी अशक्य होय छे तोपण प्रणे प्रतरोनी भिन्न स्थापनाथी समजी शकाय के ते उप्रतर मध्यप्रतर अध:प्रतर आ प्रमाणे- ००० एत्रण प्रतरने उप ००० राउपरी स्थापयाथी घांगुल थाय. गुणक गुण्यनी रकमने १२ गुणक प रीते कपाट सधिवन एटले आग १३५ गुण्य ळना भागमा समणिप आये पत्री रीते स्थापषी पण १२ - १२पादिरी न स्थापधी. अहिं अनेक प्रकारमा १३. पम पण स्थपाय. १३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) ॥ लोकप्रकाशे प्रयमः सर्गः ॥ मितो राशि-दिवाकरगुणोकृतः । स्थाहिंशा षोडशशती, क्रमोऽकानां च वामतः ॥ ५३ ।। अथ प्रसंगादुपयोगित्वाच्च भागहारविधिरुच्यते॥यद्गुणो भाजकः शुद्भये-दत्यादेर्भाज्यराशितः ॥ तत्फलं भागहारे स्थात्, भागाप्राप्तौ च खं फलम ॥ ५७ ॥ अग्रे यथाप्यते भागः, पूर्वमकं तथा भजेत् ।। ष. भिर्भागे यथा षष्टेः, प्राप्यन्ते केवलं दश ॥ ५८ ॥ अर्थ-अहीं सूचीबडे प्रतरने जे गुणवार्नु फछु ते गुणाकारनो विधि आ प्रमाणे छे-जे राचिनो ( रकमनो ) गुणाकार करबो होय ते गुण्यराशिनो ( गुणवा लायक राधिनो) छेल्लो अंक गुणकराशिवडे ( जे. टलाए गुणवाना होय ते रकमबडे ) गुणवो. पुन: गुण्पराशिना गुणेला बेल्ला कने छोडी दह पाछळ हठया पूर्वक उपान्त्यादि (छेक्लानी पांसेनो विगेरे ) अंकने पण ए प्रमाणेज ( अन्त्य अफनी पेठे ) गुणवा. ॥ ५२ ॥ त्यां मुणक अने गुण्पनी रकममा पहेलो गुणक रकमने उपर अने छेन्ली ( चीनी ) गुण्य रकमने नीचे कमाउनी संधिवत् स्यापपी, ए प्रमाणे रकम स्थापवानी विधि अनेक प्रकारनी है ॥ ५३॥ बळा एकेक अंकने गुणता जे जे ( जवान ] आरतुं प्राय ते ते फळने एकेक अंकस्थान ( आगळमा भागमा ] अधिक रहेतु जाय तेवी रीते गोठव स्पारवाद सर्व फळनो ( नावनी रकमनो ] सर्वाळो 'करको ।। ५४ ॥ गुणाकार विगेरेमा उपयोगी अंक स्यानो आ प्रमाणे - - • - १ गुणाकार करवानी रोति स्थापना पूर्वक आप्रमाणे शास्त्रीय रीतिप पालू रीतिय अपधा १३५ बे रीते स्थापना थाय छ परन्तु अथवा १३५ इत्यादि पीते गुणक गुण्यनी रकमम स्थपाय. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दश सो इजार दश हजार लाख दश लाख क्रोड दश कोड ॥ अंगुलसन निकागत चर्चाविचारः ॥ १ ܤ ܘ ܕ १०२३ १०००० १२ १०८००,०००००० महापद्म १०००००००००००० शंकु १०,०००००००००००० जलधि १००००००००००००० 1,000,00000,0000000 7000000000,Û°ÛÛÛÛÜ {00000.00000,0000000 एप्रमाणे वर्तमानकाळ पण १८ संख्याश्रो अनुक्रमे दश दश गुणी गणवामां आवेछे. ॥ ६५ ॥ ܘܘܘܘܘܨܐ १०,००००० १,००००००० १०,००००००० ६० फल ३६ फल फल अब्ज ख निखर्च ( ४१ ) मध्य अख्य परार्ध १००००००००० १०००, ००००००० पूर्वे कला गुणाकार विभिनुं उदाहरण ( दाखलो ) आ प्रमाणे हे— जेम १३५ नी रकमने १२ गुणी करी होय मो १६२० आये सर्वत्र शास्त्रपां शब्दद्वारा जे रकम कही होय ते शब्दोनो अनुक्रम 'डावी बाजुर गणवो ॥५३॥ 7 श्रीजी बीते १३२ गुणक १२ गुणक १३५ गुण्य १२ गुण्य २७० फल पगाथामा गुणक गुण्यनो रकमने स्थापवानी विधि दर्शाची अने मा. गळनी गाथांमां गुणक गुण्यनो गुणाकार करतो एकेक रकमनो जे गुणाकार आये तेने स्थापघानी विधि दर्शायी है. इथे गुणाकारती विधि नीचे प्रमाणेएक रौते म १२ गुणकपदे १३५ गुण्यने गुणतां प्रथम १२ ने अभ्य अंक ५ धी गुणां फळ ६ आवे त्यारबाद १२ ने उपास्य अंक ३ थो गुणतां फळ ३६ आवे से उपरमा ६० मां जो एक अंक बाकी राखी नीचे स्थापेल . त्यारबाद १२ १६२० सं० १६२० मंक० ने पालक हटी १ साथै गुणतां फळ १२ आ तेने पण पूर्वफळ ३६ नो एक अंक ६ ने अधिक [ बाकी ] रात्री ३ नी नीचे स्थापनानी रोते स्थापेल छे. त्यास्वाद यथा स्थाने रहेला त्रण फळ मी (६०-३६-१२ भो) संकलना-लर्षाळी करता गुणाकार जवाब १६२० आये. १३५ फल १ जेम के शास्त्रमां पांच-त्रण - एक एम शब्दोमां स्वेल होय सी रकम गोटववामां प्रथम एक स्पारयाद त्रण ने त्यारबाद पांच गो. या जेथी १३५ याय. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ '-'.- -.. ... -..-.छवे प्रसंगथी अने उपयोगी होवाथी भागाकारनो विधि कहेवाय छे ते आ प्रमाणे- अन्त्यादि भाज्य राशिमाथी जेटला गुणो माजक बाद नाय तेटलो भागाकारमा जवाब आयो जाणवो. अने भाज्यराशिमाथी भानक बाद न जवो होय तो जवायने स्थाने शून्य जवाब आये ॥५७ ॥ अने भागक जेम जेम प्राप्त पतो जाय तेय तेम पूर्व अंकने ( भाज्यना अभने ) भागता जQ. जेम ६० ने ६ ए भागता मात्र जवार १० ज आवे. ॥१८॥ ॥ अथ प्रकृतम् ॥ पादः स्यादंगुलः षभि-वितस्तिः पादयोई यम् ॥ वितस्तिहितयं हस्तो, द्वौ हस्तौ कुक्षिरुच्यते॥५९।। कुक्षितयेन दंडः स्या-त्तावन्मानं धनुर्भवत् ॥ युगं वा मुसलं वापि, नालिका वा समाः समे ॥६॥ अंगुलेः षण्णवत्यैव, सर्वेऽपि प्रमिता अमी । सहस्त्रहितयेनाथ, क्रोशः स्याद्धनुषामिह ॥ ६१ ॥ चतुष्टयेन क्रोशानां, योजनं तत्पुन स्त्रिधा । औरसेधात्मप्रमाणाख्य-रंगुलैर्जायते पृथक ॥६२ ॥ एवं पादादिमानानां, सर्वेषां त्रिप्रकारताम् । विभाव्य विनियुञ्जीत । स्वस्वस्थाने यथायथम् ।। ६३ ।। प्रमाणांगुलनिष्पन्न-योजनानां प्रमाणतः । असंख्यकोटाकोटीभि-रेका रज्जुः प्रकीर्तिता ॥६॥ स्वयंभूरमणाब्धेर्ये, पूर्वपश्चिमवेदिके। तयोः परातान्तरालं, र. ज्जुमानमिदं भवेत् ॥ ६५ ।। लोकैश्च ॥ यवोदरैरंगुलमष्टसंख्या हस्ताऽगुलः षड्गुणितैश्चतुर्भिः । हस्तैश्चतुभिर्भवतीह दंडः, • | १० अहिभाश्य रकम ६० ने भाजक रकम ६ हे भागतां ६ थी १० गुणी रकम भाग्यमाथी वाप जाय। माटे १० पज जवाब कषाय. अहिं शास्त्रकर्ताप भागाकार संबम्धी सामान्य विधि वषी छ, ने विशेषविधि ग्रन्थान्तरमा ( लीलावती परेमा ) छे. न्याधी जाणवी. पुन: मागाकारविधि अभ्यासीओने (शाळाभोमा भणता होवाथी) सुगम होयळे माटे ते संबंधि विशेष वर्णन, अत्रे प्रयोजन नथी. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। प्रमाणांगुल-आन्मांगुलविषयम्वरूपम् ॥ कोशः सहस्त्रद्वितयेन तेषाम् ॥ ६६ ॥ स्यायोजनं को शचतुष्टयेन, तथा कराणां दशकेन वंशः ॥ निवर्तनं विंशतिवंशसंख्यः, क्षेत्रं चतुर्भिश्च भुजनिबद्धम् ॥ ६७॥ इत्यायभिधीयते ।। अर्थ-इथे चालु विषय कईशय छे-परन्तु पूर्वनो संबंध जोडवाने पाटे शो के अंगुल प्रमाण पूर्ने सारीरीते बताघेल के नोपण फरीधी कोष्टकमारा दर्शवाय के * अनन्त मूक्ष्मपरमाणुभोनो १ न्यावहारिकपरमाणु अनंत व्यवहार परमाणुनी १ उमलणक्षिणका ८ जलक्षणलक्षिणकानी १ श्लष्णशक्षिणका लापतानो १ उध्वरेणु ८ उधरेणुनो १ प्रसरेणु ८ मरेणुनो १ श्यरेणु ८ रपरेणुनो १ कुरु (युगलिफनो) वालाप ८ कुरु बालापनो हरिवर्षमयमालाम ८ इरिकरम्यवालाननी भवनहरण्यवसवालान ८ हैमवतहरण्यवनबालापनो १ पूर्वापरविदेहवालान ८ पूर्वापरविदेहवालामनो १ भरतरखनवालाम ८ परतैरवनवालाग्रनो १ लीव ८ जीवनी १ युका ८ यूकानो १ पवमय ८ यरमध्यनो १ उत्सेपांगुल ५ गतविषय कोष्टक कही चालु विषय कोष्टक कहेबाय छे, ६ उन्सेशंगुले १ पाद (पगना नळीयानी पहोलाइ * जीवसमासमते अनंत सूम परमाणुधीज अश्लणलक्ष्णिका थायो अने अनंत उसणश्लक्षिणकाधी पक लक्षणलक्षिणका बनेष्छे आ लक्षणलमिणकानुज वीजें नाम व्यवहार परमाणु कडेवायछे अधारतर जुदो व्यवहार प. माणु मथी. १ जम्बूद्वीपप्राप्ति आदि सूधीना अभिप्राय विदेहना चालामधीज होखनु प्रमाण पायजे. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ॥ श्रीलोकपकाशे पथमः सर्गः ॥ २ पादनी पत २३तनो १ हाथ. २पनी १ कुक्षि २कुक्षिए वा ४ हाथनो १ दंह (अयवा धनुष्य-युग-मुसल) वा ९६ अंगुलनो । नालिका इत्यादि. २००० धनुष्यनी १गाउ ४ गाउनो १ योजन शब्दार्य:- अशुलीये एक पादयाय, बे पादौनी एक न, वे ननो हाय, अने चे हाथे एक कुक्षि कहवाय छे. ॥ ५९॥ ने कुक्षिये एक दंड पाप, तेटलान ( दंड जेटला ) प्रमाणवाल धनुष होय, युग, सुशल, नालिका ( दद, धनुष) ए सर्व सरखा (एक अर्थपमाणवाळा ) ॥ ६ ॥ आ दंड विगेरे सर्वे पण छन्नु आंगले [ चार हाथे, वे कुक्षिये ] मपायेला छे. आ शासनयां धनुषनी हजार संख्या (वे इनारधनुप ) बड़े एककोश थाय ॥ ६१ ।। चारकोश (गाउ) वडे एक योजन थाय, परन्तु ते योजन उत्सेध, आत्म, प्रमाण, अंगुलेकरी जुई जुई त्रण प्रकारे याय के. अर्थात्-आ योजन उत्सेधयोजन आत्मांगुलपोजन ने ममाणांगुलयोजन ए गते ३ मकारनो (ते ते अगुलना अनुकमी) जुदा जुदा पकारमोके ॥ ६२ ॥ अने ए रीते अंगुलना तफावतवडे वन-पाद इत्यादि स प्रमाण त्रण प्रण प्रकारना जाणीने पोतपोनाने उचित स्थाने यथासंभव ( जे मापमा जे पमाणनो उपयोग यतो होय ने प्रमाणपी) योजवां ( उपयोगमा लेवा, )॥ ६३ ॥ अहिं प्रमाणांगुल योजनना पापथी असंख्प कोदाकोहि योजननो ? राज (रज्जु ) कडेल के॥ ६४ ॥ स्वयंभ्रमणसमुदनी जे पूर्ववेदिका अने पश्चिम पेदिका ते बन्ने वेदिकाओर्नु पूर्वयी पश्चिम अधीनुं ( वच्चेनु' ) जे अंतराल ( अंबर)वे एक रज्जु (मान विशेष) प्रमाण पायजे. ( पमाणे लोकोत्तर जन शास्त्रने अनुसारे अंगुप्लादिकन प्रमाण काय)॥६५॥ लोकोरडे अन्य शाखमा-" ८ यव मध्यनो १ अगुल, २४ अंगुलनो १ हाथ, ४ हाथनो एक दंड, तेवा २००० दंडनी , गाउ, ४ माउनी एक पोजन, नथा-१० हायनो १ बैश ( दास ), २० वंशनो ! निवर्तन, अने ४ हाययुक्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ श्रीवीरप्रभुदेममाणविरोधशङ्कापरिहारः ॥ (४५) २० वंशनु' (२०४ हाथनु) क्षेत्र, इत्यादिरीते कवायछे ॥६६ ॥ ६७ ॥ ॥ इति ३ अगुलादि, योजन, अने रज्जु रामलोक) प्रमाण का ॥ ॥ हवे पत्योपमर्नु तथा सांगरोपमर्नु स्वरूप कहेवाय ॥ मानं पल्योपमस्याथ, तत्सागरोपमस्य च । वक्ष्ये विस्तरतः किंचित, श्रुत्वा श्रीगुरुसन्निधौ ॥ ६८ ॥ आयमुद्धारपल्यं स्या-दद्धापट्यं द्वितीयकम् । तृतीय क्षेत्रपल्य स्था-दिति पट्योपम त्रिधा ॥ ६९ ॥ एकैकं हिप्रकारं स्यात् सुक्ष्मबादरभेदतः। धस्येवं सागरस्या--प्येवं ज्ञेया विभेदता ॥ ७० ॥ उत्सेधांगुलसिद्धक--योजनप्रमितोऽवटः। उण्डत्गयामविष्कंभ-रेष पथ्य इति स्मृतः ॥ ७१ ॥ परिधिस्तस्य वृत्तस्य, योजनत्रितयं भवेत् । एकस्य योजनस्योन- षष्ठभागेन संयुतम् ॥ ७२ ॥ संपूर्य उत्तरकुरु-नृणां शिरसि मुंडिते ॥ दिनैरेकादिसप्तान्तै- रूढकेशाप्रराशिभिः ॥७३॥ क्षेत्रसमासबृहवृत्ति-जबृहोपप्रज्ञप्तिकृत्यभिप्रायोऽयम्. (सा० १२-१३) प्रवचनसारोद्धार ति-संग्रहणीहवृत्योस्तु । __"मुण्डिते शिरमि एकेनाहानाम्यामहोभ्या गावदुत्कर्षनः मप्सभिरहोभिः परूढानि वालाग्राणीत्यादि सामान्यतः कथनादुत्तरकुन्नर. बालाग्राणि नोक्तानीति ज्ञेयम् ॥ (सा० १४-१५) वीरं जयसेहरक्षेत्रविचारसत्कस्वोपज्ञवृत्तौ तु-- " देवकुरुत्तरकुरूद्भवसप्तदिनजातोरणस्यौत्सेपांगुलप्रमाणे रोम सप्तकृत्वोऽष्टवंडीकरन विंशतिलससप्तमतिसहसकशानद्वापंचाश. त्पमितखण्डभावं प्राप्यते, ताश रोमखण्डरेष पल्यो भियत इत्यादि. रथंतः संप्रदायो दृश्यत इति ज्ञेयम्" ॥ (सा- १६) १ पस्य-कुचाती छे. उपम-उपमा जेने ते पायोपम. २ मागर-समुद्रनी छे, उपम-उपमा जेने ते सागरोपमा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) ॥ लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ एतानि चांगुलसस्कानि रोमखण्डानि चतुर्विशतिगुणानि हस्ते, तानि चतुर्गुणानि धनुषि, तानि हिसहस्रगुणानि क्रोशे, एवं क्रमेण समवृत्तपनयोजनपल्यगतो रोमखण्डराशिवति ॥ स चांकतो यथा ॥ त्रयस्त्रिंशत्कोटयः स्युः, सप्त लक्षाणि चोपरि । द्वापष्टिश्च सहस्राणि, शतं च चतुरुत्तरम् ॥ ७४ ।। पतावत्यः कोटिकोटि-कोटाकोटयः स्मृता अथ ॥ चतुर्विशतिलक्षाणि, पञ्चषष्टिः सहस्रकाः ॥ ७५ ॥ पंचविंशाः शनाः षट् च, स्युः कोटाकोटिकोटयः ॥ कोटाकोटीनां च लक्षा, द्विचत्वारिंशदित्यथ ॥ ७६ ॥ एकोनविंशतिरपि, सहस्राणि शता नव । षष्टिश्चोपरि कोटोना, मानमेवे निरूपितम् ॥७७॥ लक्षाणि सप्तनवति--त्रिपञ्चाशत्सहनकाः । षट् शतानि च पस्येऽस्मिन्, स्युः सर्वे रोमखण्डकाः ॥ ७८ ॥ त्रित्रिखाश्वरसा. क्ष्याशावाद्ववक्ष्यधिरसेन्द्रियाः। द्विपञ्चचतुर्येकां-कांकषट्खाकवाजिनः ॥ ७९ ॥ पञ्च त्रीणि च षट् किञ्च, नव खानि त. तः परम् । आदितः पल्परोमांश-राशिसंख्यांकसंग्रहः ॥८॥ अत्रोक्तशेषो विस्तरस्तु उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिकृतश्रीजम्बूहीपप्रज्ञप्तिवृत्तेरवसेयः (सा०१७)।तथा निविडमाकण्ठं,भ्रियते स यथा हि तत् । नाग्निदहति वालासलिलं च न कोथयेत्॥८१ यथा च चक्रिलैन्येन, तमाकम्य प्रसप्पता । न मनाक्रियते नीच-रेवं निबिडतां गतात् ॥ ८२ ॥ समये समये तस्माद्वालखंडे समुद्भुते । कालेन यावता पल्यः, स भवेनिष्ठितोऽखिलः ॥ ८३ ।। कालस्य तावतः संज्ञा, पल्योपममिति स्मृता । तत्राप्युद्धारमुख्यत्वा-दिदमुद्धारसंज्ञितम् ॥ ८४ ॥ [ त्रिभि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। गुणाकार विषयविचारः ॥ (४७) विशेषकम् ] इदं बादरमुद्धार - पल्योपममुदीरितम् । प्रमाणमस्य संख्याताः । समयाः कथिता जिनैः ॥ ८५ ॥ अस्मि निरूपिते सूक्ष्म, सुबोधमबुधैरपि । अतो निरूपितं नान्य--- स्किचिदस्य प्रयोजनम् ॥ ८६ ॥ एतेषामथ पढ्यानां दशभिः कोटिकोटिभिः ॥ भवेद्वावर मुद्धार-संज्ञकं सागरोपमम् ॥८७॥ अथैकैकस्य पूर्वोक्त-वालाग्रस्य मनीषया ॥ असंख्येयानि खण्डानि, कल्पनीयानि धीधनेः ॥ ८८ ॥ यत्सूक्ष्मं पुद्गलद्रव्यं छद्मस्थश्चक्षुषेक्षते । तदसंख्यांशमानानि तानि स्युद्रव्यमानतः ॥। ८९ ।। सूक्ष्मपनकजीवाङ्गा--ऽवगाढक्षेत्रतोऽधिके । असख्येयगुणे क्षेत्र-गाहन्त इमानि च ॥ ९० ॥ व्याचक्षतेऽथ वृद्धास्तु, मानमेषां बहुश्रुताः । पर्याप्तवाद रक्षोणी-- कायिकांन सम्मितम् ॥ ९१ ॥ समानान्येव सर्वाणि तानि च स्युः परस्परम्। अनन्तप्रादेशिकानि, प्रत्येकमखिलान्यपि ॥ ९२ ॥ ततस्तैः पूर्यते प्राग्वत्, पल्यः पूर्वोक्तमानकः । समये समये चैकं, खण्डमुद्धियते ततः ॥ ९३ ॥ निःशेषं निष्ठिते चास्मिन्, सुक्ष्ममुद्धारपल्यकम | संख्येयवर्षकोटीभिमितमेतदुदाहृतम् ९४ सुसूक्ष्मोद्धारपल्यानां दशभिः कोटिकोटिभिः । सूक्ष्मं भवति चोद्धाराभिधानं सागरोपमम् ॥ ९५ ॥ श्रभ्यां सागरपल्याभ्यां मीयन्ते दोपसागराः । अस्याः सार्द्धदिसागर्याः, समयैः प्रमिता हि ते ॥ ९६ ॥ यद्वैतासु पल्यकोटा - कोटीषु पञ्चविंशतौ । याafa वालखण्डानि । तावन्तो द्वीपसागराः ॥ ९७ ॥ एकादिसप्तान्तदिनोद्गतैः केशाग्रराशिभिः । भृतादुक्तप्रकारेण, पल्पापूर्वी कमानतः ॥ ९८ ॥ प्रतिवर्षशतं खण्ड -मेकमेकं समुद्ध Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८ ) | लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ रेत । निःशेषं निष्ठिते चास्मिन्नद्धापल्यं हि वादरम् ||१९|| एतेषामथ पढयानां दशभिः कोटिकोटिभिः । भवेद्यादरम द्धाख्य, जिनोक्तं सागरोपमम् ॥ १०० ॥ पूर्वरीत्याथ वालाग्रेः, खण्डीभूतैरसंख्यशः । पूर्णात्पल्यात्तथा खण्डं, प्रतिवर्षशतं हरेत् ॥ १॥ कालेन यावता पल्यः स्यान्निर्लेपोऽखिलोऽपि सः । तावान्कालो भवेत्सूक्ष्म - मापल्योपमं किल ॥ २ ॥ एतेषा मथ पल्यानां दशभिः कोटिकोटिभिः ॥ सूक्ष्ममद्धाभिधं ज्ञानसागराः सागरं जगुः ॥ ३ ॥ सूक्ष्माचापल्यवाधिभ्यामाभ्यां मीयन्त आर्हतैः । आयूंषि नारकादोर्ना, कर्मकार्यस्थिती तथा ॥ ४ ॥ एतेषामेव वाधीनां दशभिः कोटिकोटिभिः । उ- ! सर्पिणी भवेदेका, तावत्येवावसर्पिणी ॥ ५ ॥ एकादिसप्तांतघस्त्र - रूढकेशाग्रराशिभिः । भृतादुक्तप्रकारेण, पदयात्पूर्वोक्तमानतः ॥ ६॥ तत्तद्वालाय संस्पृष्ट- खप्रदेशाप कषणे । समये समये तस्मिन् प्राप्ते निःशेषतां तथा ॥ ७ ॥ कालचक्ररसंख्यातेमितं तत्क्षेत्रनामकम् । बादरं जायते पल्यो- पममेवं जिनमतम् ॥ ८ ॥ कोटाकोटयो दशैषां च, बादरक्षेत्रसागरम् । सुबोधतायै सूक्ष्मस्य, कृतमेतन्निरूपणम् ॥ ९ ॥ छिनेर संख्यशः प्राग्वत् केशाः पत्यतो भूतात् । समये समये चैकः, खप्रवेशोSपकयते ॥ ११० ॥ एवं केशांशसंस्पृष्टा - ऽसस्पृष्टा भ्रांशकर्षणात् । सस्मिन्निःशेषिते सूक्ष्मं, क्षेत्रपल्योपमं भवेत् ॥ ११ ॥ यद्ययत्र वालाग्रखंड स्पृष्टास्पृष्टनभः प्रदेश कर्षणेऽधिकृते एककस्थ. ] बालाग्रस्याऽसंख्यभागकरणं नोपयुक्तमुभयथाप्य विशेषात्, त थापि प्रवचनसारोद्धारवृत्त्यादिषु पूर्वप्रन्थेषु तथावर्शनादत्रापि Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विविधपस्योपमसागरोपमस्वरूप ॥ तथोक्तागिदि हेयम् न. १) मायेनं निशिसे पल्ये, वालाग्रः सभवन्ति किम् । नभःप्रदेशा अस्पृष्टा-स्तदुद्धारो पदीरितः॥१२॥ उच्यते संभवन्त्येवा-ऽस्पृष्टास्ते सूक्ष्मभावतः ॥ नभोऽशकानां पालाम-खण्डौघातादृशादपि ॥ १३ ॥ यथा कुष्मांडभरिते, मातुलिंगानि मञ्चके ॥ मान्ति तैश्च भृते धात्री-फलानि बदराण्यपि ॥१४|| तत्रापि मान्ति चणका-दयः सुक्ष्मा यथाक्रमम । एवं वालाप्रपूर्णेऽपि, तत्रास्पृष्टा नभोऽशकाः ॥ १५ ॥ यहा ।। यतो घनेऽपि स्तम्भादौ, शतशो मान्ति कीलकाः॥ ज्ञायतेऽस्पृष्टखांशाना, ततस्तत्रापि संभवः ।। १६ । एवं वालायखण्डौंधे-रत्यन्तनिचितेऽपि हि !! युक्तैव पट्ये खांशाना-मस्पृष्टानां निरूपणा ॥ १७ ॥ एतेषामथ पख्यानां, दशभिः कोटिकोटिभिः ॥ सूक्ष्म सूक्ष्मेक्षेभिः क्षेत्र-सागरोपममीक्षितम् ॥ ॥ १८ ॥ बादरक्षेत्रपक्ष्यांभो-निधिभ्यां सूक्ष्म के इमे ॥ असंख्य गुणमाने स्तः, कालतः पदयसागरे ॥ १९ ॥ क्षेत्रसागरपल्याभ्या-माभ्यां प्रायः प्रयोजनम् ॥ द्रव्यप्रमाणचिन्तायां, दृष्टिवादे क्वचिद्भवेत् ॥ २० ॥ पट्य पस्योपमं चापि, इषिभिः परिभाषितम् ॥ सारं वारिधिपर्यायं, सागर सागरोपमम् ॥२१॥ इषे श्रीगुरुना मुखथी श्रवण करीने पल्योपम अने नेना (जे नामनो परपोपम ते नामवाळा ) सागरोपमनुं प्रमाण कंडक विस्तारयी कहीश. ॥६॥ स्यां पयम उद्धारपल्योषम, बीजो अदापल्पोपम अने त्रीमो क्षेत्रपल्पोपम ए रीते पल्योपय ३ पकारना के. ॥ ६९ ॥ ते पण दरेक सूक्ष्म-भने वादा ए भे. दही बेचे प्रकारना के ( अर्थात् पत्योपम ६ प्रकारना छे. ) अने ए प्रमाणे पणे प्रकारना सागरोपम पण थे वे भेदवाळा जाणा ॥७०॥ ते आ प्रमाणे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकनकाशे प्रथमः सर्गः॥ १. चादर उसार पल्योपम (वा सागरोपप) २. सूक्ष्म उद्वार पल्पोपम (वा सागरोपम) ३. चादर अद्धा पल्योपम (वा सागरोपम) ४. सूक्ष्म अखा पल्योपम (वा सागरोपम) ५. बादर क्षेत्र पल्पोपम (वा सागरोपम) ६. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम (वा सागरोपम) ___उत्सेधांगुले निष्पन्न थयेक [ उत्सेधांगुळमानवाळा ] १ योजनप्रमाणनो उदो-लांबो-अने पहोलो पो जे मोटो खाडो-कबो ते पत्य कहेल छ, ।।७१|| ते पश्यनी गोळाइनो परिष ? योजनना किंचित न्यून ६ हा भाग युक्त ३ योजन प्रमाण छ, [ अर्थात् किंचित् न्यून:१ योजन हेराले मारे देश अथवा उत्तरकुरु मनुष्योना मुंढोवेला मस्तकपर एकधी सात दिवस सुधीना उगेला बालानना राशिवडे पूरचो ॥७३॥ ए क्षेत्रसमासवहत्ति अने जम्बूद्वीपपज्ञपितत्तिनो अभिमाय कयो. प्रवचनसारोद्धारष्ट्रति-अने संमहणीनी वृत्तिमा सो ए प्रमाणे कडु के के-" मस्तक मुंडाव्ये छते एक दिवसनाचे दिवसना यावत् उत्कृ घटथी ७ दिवसना उगेला वालाग्रो" इत्यादि सामान्यपणे कडेवाधी उत्तरकुरुमनुष्यना चालाम(के कोइ बोजा क्षेत्रवर्ती मनुष्यना बालाघ्र? ते) कया नथी एम जाणवु. अने वीरअपसेहर क्षेत्रविवारनी स्वोपैजत्तिमा तो " देवकुरु अने उत्तरकुरा उत्पन्न श्रयेला सात दिवसना जन्मेला बेटाना १ * अहिं बालाप पटले पामी अग्रभाग नहिं पण “ अमुक प्रमाणनो पाळ " से वाला कवाय अन शब्द अमुक प्रमाणवाचक छ जेथी मुंडापनदिनथी सात दिवस सुधीमा जेटला बध तेटला बालोन वालाय लेघु, १५ युगलिक मनुष्योने मस्तक मुंडावानु होय महिं परन्तु कोरपण मुंहावेल मस्तवाला मनुष्यनो पकथी लास दिवस सुधीमां जेटलो वाळ उगे ते बाळ अणावमा शुष्टांत मात्र आपत्रानु छे. २ क्षेत्रसमासनी हेली गाधान हेल वरण "वीरंजयहरपय, ५ प्रमाणे होषाथी ए लघुक्षेत्रसमास नाम धीरजथहर क्षेत्रसमास" छ. ३ मूळकर्तानी रनेली. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र नंबर २ पल्य · पल्य I ! आ समवनवृत्त ? योजन प्रमाण पत्य ( कुवो) छे. नेमां रोम खंडवाला ग्र भरेला छे चादर पल्योपस लावया एकबालना संख्यान टुकड़ाओ अनं सूक्ष्म पस्योपम लावला एकेका खेड़ना असंख्य असंख्य टुकडाओ करीने भरवा झीणा मां झीणा पण पुद्गल स्कंन्ध मां प्रायः विरल | प्रदेश होयछे तथीज स्पृष्ट प्रदेशो करती अस्पृष्ट प्रदेशा | असंख्यात गुणा होय छे. आनन्द प्रो. प्रेम-भावनगर. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पादरोद्धारपल्योपमविचारः ।। उत्सेधांगुल प्रमाण रोमने सातवार आठ आठ वड करवायडे २०१७१५२ खंड ( भाग) थाय सेवा रोमखंडपड़े आ पल्प भरवो" इ. त्पादि संप्रदाय अर्थ देखाय छ एम जाणवु. ए एकेक अङ्गुलना करेला रोमखडनी राभिने २४ गुणी करीए तो ( ५०३३१६४८ रोमरवंड ) हाथ जेटली जग्यामां समाय; पुनः एने ४ गुणा करतो (२०१३२६५९. रोमखंड) एक धनुष्य जेटली जम्यामां समाय. पुनः तेने २००० गुणा करतां ( ४०२६५३१. ८४००० रोमखंड) एक गाउमां समाय: ए प्रमाणे अनुक्रमे सरस्वा गोळाकार. वाळा १ घनयोजन ( १ योजन लांघो-एक पोजन पहोलो ने एक योजन - हा एवा ) कूचामा रहेका रोमखडनो जे राशि थाय के ते आफदायी कवाय छे. ३३ कोड ७ लाख अने उपर ६२ हजार एकसो चार पटकी कोराकाडी कोडा कोरिओ कईली छे. पुन: २४ लाख ६५ हजार छसे ने पचीश कोडाकोडि कोडि छे. पुनः ४२ लाख १९ हजार ९ सो ने ६० एटली कोटाकोडि. बने ९७ लाख ५३ हजार ने ६ सो क्रोड एटला सर्व रोपखंड आ पल्यमा (कुवामा) समाय. ॥ ७४ यी ७८ ॥ अर्थात् ' ३३०७६११०४,२४६५६५५.४२१९९. ६०,९७५३६००,००००००० ए प्रमाणे पल्पोपमनी रोमखंड संख्यानो अंक अहि मयमयी अनुक्रमे गणवो ( परन्तु शास्त्रपरतिए अंकाना वामतोगतिः ने अनुसारै नहि. ए तात्पर्य है, )॥ ७९-८० ॥ अहिं पूर्व कयाथी बाकी रहेलो विस्तार जम्बूदीपप्रज्ञप्तिनी वृत्तिथी जाणवो. १ विषक्षित १ रोममा प्रथमवखत ८ खंड कर्यावाद पुनः ते आठे खंडना बीजीवार आठ आठ खंड करवाथी ६४ थाय पुनः ते ६४मांना दरेकना जीजीवार आठ भाट संड करवाथी ५१२ खर थाय बोधीवर ४०९६, पांचमी पार ३२७६८, छठोवार २६२१४४ अने परीले सातमीवार आठ आठ मंड करतां २०९७१५२ खंड (१ उन्सैधांगुल पालना ) वाय. २ संप्रदाय अर्थ-गुरुपरंपरयो वाल्यो भाषतो अर्थ के जे शाखा सोय अथवा न पण होय. ३ प्रथम एक गाउमा समायला रोमखंडने ४ गुणा करतां १६१०६१२७३ ६... रोमखंड १ सूची योजनमा समाय, तेनो वर्ग करतां (तेटलायज गुणतां ) २५९४०,२५३३८५३,६५४१५६९,६०००००० रोमखंड १ प्रतर योजनमा समाय, पुनः पनो धर्म करता ४१७८०३७६३,२५८८१५८.४२७७८४५४४२५,६०००००. ०८०७ रोमांड पक घनयोजनमा समाय, परन्तु पटला रोमखंड चोरम घन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लोकभकाशे पथमः सर्गः॥ ते कूवाने तेवा प्रकारना रोमखंडथी एवी रोते किनारा सुषी निविड (नस्कर) गावो के लेगी है, नामाने अग्नि बाळी शके नहि, पाणी भिजाची शके महिं. ॥८॥ बळी तेने चौपीने चाळता पवा चक्रवर्तीना सैन्यवडे (तेमांनो एक बाहान पण) नीचो नमावाय (दपाय) नहि, एवी रीते नक्कर भरेला ते कुवामांधी ॥ ४२ ॥ एकेक समये एकक वालाग्र काढये छते जेटला काले ते कुवो सपळो खाली थाय ॥ ८३ ।। तेटला काळनी पल्योपम एवी संझा (नाम) कहेली छे, तेषां पण (प्रति समये प्रत्येक रोमखंड ) उद्धवानो-बहार कावानी मुख्पताए आ (पादर) उबार नामर्नु (पल्योपम) छे, ।। ८४ || आ जे चादर उद्धारपल्पोपम को ले. तेनुं प्रमाण जिनेश्वरोए संख्यात समय कहल के. ॥ ४५ ॥ वळी आ बादरचें प्रथम निरूपण कर्याथी सूक्ष्मपल्पोपम अल्पमति . वाळा जीरोथी पण मुखे समनी शकाय माटे प्रथम बादर पल्पोपमर्नु निरूपण करेल छे, माटे आ चादर पल्योपमना निरुपणन बीजु कापण प्रयोजन नथी. ॥ ८६ ॥ अने एवा १० कोदाकोडि बा०३० पल्योपमनो एक बादर उसार ( नापनो) सागरोपम थाय. ॥ ८७ ॥ ( सूक्ष्म-उद्धार पल्योरम) ____ इवे पूर्वे कईला दरेक बालानना धुद्धिमान पुरुषोए घुरिवडे असंख्य अ. संख्य खंड कल्पवा ।। ८८ ॥ द्रव्यममाणथी ( कर्मा) ते रोमरखंड छमस्थजीव चक्षुवढे जे सूक्ष्मपुद्गलने ( कंषने) जोइ के छ तेनाथी असंख्यातमा भाग जेवडा नाना होय छे. ॥४९॥ वळी क्षेत्रथी सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकायनें (नि. गोदन)जीव शरीर जेटला क्षेत्रमा (जेटली जम्यामां) समाइ सके से ते करतां पण असंख्यगुण अधिक क्षेत्र(जग्यामां आ रोमखंड समाइ शके छे।।९०|| बळी बहुश्रु. समानी एषा हलो(पूर्व पुरुषो)कहे छ के-ए रोमखंडोमांना प्रत्येक रोमखडनु प्रमाण पर्याप्त पादरपृथ्वीफायना शरीर जेवटुं छे, ॥९१॥ भने ते सर्व रोमवंडो परस्पर सरखा कदना छे. पण कोइ नाना मोटा नयी अने ने पण सर्व अनन्त अनन्त प्रदेशवाळा के. ॥१२॥ तेषी तेवा मुक्ष्म रोमखंडो बढे पूर्वोक्त प्रमाणवाळा बाने योजनमा समाया तेयो वृत्त धनयोजनमा केटला समाय ते आणवाने ५ सं. ख्याने १९ गुणी करी (ओगणीशे गुणवाथो. ७९३८२९०५०१९१७५०१०१२७९०६३३०८६५००००००००० संख्या थाय छे. ) २४ थी भागतां पूर्वोक्त संख्या आषी रहे, (शतक कर्मग्रन्थनी टोकार्मा कोरमन वृत्त करवा माटे १९ पी गुणी २२ व? भागधा- कारळे.) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सूक्ष्मोद्धार-बादरसूक्ष्मादाप० सा विचारः ॥ (५३) पूर्व कहेकी रीतिए भरीए, अने त्यारबाद ते कुवामाथी मतिसमय एकेक वालाम वहार काहीये ।। ९३ ॥ तो ए वो सपलो खाली थतां जेटली काळ लागे तेटको काळ सूक्ष्म उद्वार पल्योपम कहेवाय, ए मू०० पस्योपमकाळ संख्याता कोडवर्षे प्रमाणनो को छे ||९४॥ दश कोडाकोडि सूक्ष्मउद्धार पल्योपमे करीने एक मूक्ष्म उद्धार (नामनो) सागरोपम थाय छे. ॥९५|| आ सू० उ० पल्योपम अने सागरोपम बडे दीप अने समुदोनी संख्यान प्रमाण थइ शके थे. कारणके ए २ ०७० सागरोपमना जेटला समयो छे तेटलान द्वीप अने समुद्री (चन्ने मलीने) 2. ॥ ९६ ॥ अथवा एवा २५ कोटाकोडि कुवाओमां जेटका वालान समाय तेटला द्वीपसमुद्रो छे. ॥२७॥ ( अदापल्योपमस्वरूप) ___ तया एकथी सात दिवस सुधीना उगेला वालाग्रना राशिवडे पूर्वोक्त प्रकारे भरेला (प्रत्येक अङ्गुल प्रमाण वाळना सासवार आठ आठ खंड करीने भरेका) पूर्वोक्त प्रमाणवाळा (१ योजन लोबो-होळो-ने उंडो एवा ) कुवामांधी सो सो वर्षे पकेक बालाय हार काहे तो ते सपळो कुचो खाकी घतां जे काळ लागे नेटलो काळ बादर असा पल्पोपम कडेवाय ॥ ९८९९ ।। अने एका १० कोडाकोडि बा० अ० पल्योपमनो जिनेश्वरे कहेलो एक पादर अद्धा सागरोपम थाय. ॥१०० ॥ (सूक्ष्म-अडापल्पोपम ) तथा पूर्वोक्त रीतिए प्रत्येक वालापनो असंख्यवार खंड कर्ये छते ते असख्यातमा भाग जेटला सूक्ष्मवालाग्रो पढे भरेळा ते कुचामाथी प्रत्येक रोमरवडने तेवीन रीते सो सो वर्षे एकेक ( वालाग्र) बहार काहे ।। १०१ || अने जेटले काळे ते सघको कुचो खाली थाय तेटलो काळ निश्चय सूक्ष्म अडा पल्पोपम फहेवाय ।। १०२ ॥ अने तेवा १० कोडाफोडि सु० अापल्पोपमे श्री सर्वेशोए एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम कहेल के. ॥ १०३ ॥ आ सूक्ष्म अडापल्पोपम अने सागरोपम वडे श्री अरिहन्तो नारकी वगेरे जीवोना आयुष्य, कर्मनी स्थिति-तथा जीवोनी स्वाय स्थिति वगैरे मापे छे. ॥ १०४ ॥ बळी एन १० कोडाकोडि सूक्ष्म अदा सागरोपमनी एक उत्सर्पिणी, अने नेटलाज प्रमाणवाळी एक अवसप्पिणी थाप छ. ॥ १०५ ॥ (क्षेत्रपल्पोपमस्वरूप). तथा एकथी मांडीने सात दिवस सुधीना उगेला बालानना राशि वडे पू. वोक्न प्रकारे ( प्रत्येक रोमना सातबार आठ आठ खंड करवा पूर्वक ) भरेला Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) ॥ लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ www.................. ... .......... ......... ................... . . पूर्वोक्त प्रमाणपाळा कुवामाथी ॥ १०६ ।। ते ते वालाग्रने स्पशेला आकाशमदेशोने प्रतिसमये एकेक ( आकाश प्रदेश) काढतां तेवीज रीते ते स्पष्ट आ. काशमदेशो संपूर्ण काढी बह्ये छते जे असंख्य काळचक्र ( २० को० को० सागरोपममुं १ काम्या एका अल काळयक) धेटलो काळ लागे तेटलो काळ, षादर क्षेत्र पल्योपम थाय एम श्री जिनेश्वरोए मानेलं. ॥ १०७-१०८ ॥ अने एवा १० कोडाकोडि वा क्षे० पल्पोपमे एक चादर क्षेत्र सागरोपम पाय. वळी आ पा० क्षे० पस्योपप तथा सागरोपमनुं निरूपण सूक्ष्म क्षेत्र पस्योग तथा सागरो० मुखे समजा माटे करेलु छे. बीजु कर प्रयोजन नथी. ॥१०९॥ पुनः पूर्वोक्स रीतिए असंख्यवार खंडित करेल ( पटले दरेकना असंख्य असंख्य खंड करेल ) वाळाम्रो बढे भरेला कुषामांची प्रत्येक समये एकेक आफाश प्रदेश अपहरे-पहार काढे ॥ ११० ॥ तो ए प्रमाणे बाकायोने स्पशेला अने नहिं स्पर्शेला आकाश भदेशोने बहार काढता ते कुषो संपूर्ण खाली थये छते ( अथवा ते कुवामांना सर्व आकाशमदेशो अपहराये छने ) जेटको काळ लागे तेटळो काळ सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कईचाप, ॥ १११ ॥ जो के अहिं वालाग्रने स्पर्शेला अने नहिं स्पशेला आकाशमवेशो पहार काढयामा प्रत्येक बालानना असंख्य भाग करवाने प्रयोजन नयी कारणके असंख्य भाग करे अथवा न करे सो पण बन्ने रीते सरखं ज छे, छतां पण प्र. पचनसारोद्धार वृत्ति वगेरे पूर्वग्रंथोपा तेवा प्रकारे देववादी अ पण नेमज ( असंख्पभाग फरवार्नु ) कहलं . पप जाणg. १ प्रश्नः-ज्यारे बालानने स्पर्शला अने नहि स्पर्शला (पटले आनाकुवाना) आकाशप्रदेशो काढवा छै नो पालाम भरयानु का प्रयोजन मथी. उत्तर-भीष्टिवादमा केदलापक ब्रम्य चालान स्पृष्ट आकाशप्रदेश बडे, केटलांपक अस्पृष्ट आकाशप्रदेशधरे अने केटलापक स्पृधास्पृष्ट आकाशनदेशवरे मपाता होचायी पालाम भरपार्नु भयोजन छे.मा प्रमाणेघृष्टत्संग्रहणि रीका-अनुयोगद्वारवृत्ति पंचमकर्ममयसि विगेरेमो कहेलु मे, इति विशेष:) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमा निवासः ॥ ( ५५ ) प्रश्न- ए प्रमाणे वाला प्रोवडे कृवो अति निविड भये छते पण शुं वालाग्र मे नहि स्पेशला आकाशप्रदेशी होय के ? के जेथी ते अस्पृष्ट प्रदेशोने उद्धरचानुं कर्त्तुं छे ! ।। ११२ । उत्तर—तथा प्रकारना बालाग्रखंडना समूहथी पण आकाशप्रदेशो अति सूक्ष्म होवाथी ते आकाशप्रदेशोपांना केटलाएक आकाशप्रदेशो वालाप्रखंडोने नहि स्पर्शेला पण संभवी शके छे. ॥ ११३ ॥ जेमके कोळी वडे भरेला मंचकमां (मांचा वगेरे स्थानविशेषम) बीजोरा समाय है, अने बीजोरांना आंवरा - ओषां जेम रहे अने इरडेना अंतराओमां बोर ||११४|| अने बोरना अंतरा - योगां जेम पणा वगेरे अनुक्रमे नानी नानी वस्तुओं समाय के ते प्रमाणे सूक्ष्मबालावडे भरेला एवा ते कुत्राम पण अतिसूक्ष्म एवा आकाशप्रदेशो अस्पर्शामला रहे छे. ॥ ११५ ॥ अथवा जम नक्कर एवा यांभळा बगेरेमां से कहो खीला समा जाय, तेम ते कुत्रायां पण नहि स्पर्शेला आकाशप्रदेशोनो संभव होय छे. ॥ ११६ एप्रमाणे वाला समूहबडे अत्यन्त भरेला एवा वामां पण नहि स्पर्शेला आकाशप्रदेशोनी प्ररूपणा करी ते योग्यज के || ११७ इए १० कोडाकोडि सु० क्षे० पल्योपमानो एक सूक्ष्मक्षेत्रसागरोपम सूक्ष्मदृष्टिवाळा सर्वज्ञोए जोयेल ले ॥ ११८ ॥ बादर क्षेत्रपल्योपम अने सागरोपमयी आ सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम अने सागरोपमनो काळ असंख्यगुणो के. ।। ११९ ।। आ सू० क्षे० पल्पोपम अने सामरोपमनुं प्रयोजन माय: श्री दृष्टिवादसूत्र कोइ कोइ स्याने प्रसादि द्रव्योनी संख्या मापाने माटे होय छे. ॥ १२० ।। पूर्वाचार्यो पल्योषम, पल्य अने सागरोपम-सार-वारिधि सागर ( अंतर ) इत्यादि पर्याय शब्दो ( एकार्थसूचक शब्दो ) कहेला है. ! ॥ १२१ ॥ ॥ इति पेल्पोपमसागरोपमस्वरूपम् ॥ १ पूर्वे कडेला बालाम्रो बढे समवृश घनयोजन कूवी कोर देवादिके भर्यो नथी भरता नथी ने भरशे पण महिं, परन्तु काव्यनुं प्रमाण समजाववाने माटे लवं कल्पना आपल है. ए Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः॥ | पल्थोपम १॥ पम्योपमनामानि [पालाश (वा आकाशप्रदे श) संख्या कालाप्रमाण __ संख्या |१ | यावर उद्धार पक्ष्यो० ३३०७६ इत्यादि ३७| अंगुलना संख्यातमा अंक प्रमोण भागमा २ | सूक्ष्म उशार फ्ल्योपा. उ०मा बालाप्रोधी पर्यावा. पृथ्वीवेह मे. असख्य गुणा पहा, वा मूळ पालापनो अमख्यानमा भागमा पादर अक्षा परयो या उ० ना सालान जेटला वा० उ०मा चालान अषता सूक्ष्म अशा पल्यो०] सू० उबारना पालाम जेटला उतारना बालाप अवस पाएर क्षेत्र पल्यो | पालाप स्पृष्ट असंख्य __ भाकाश प्रदेश तुक्य माकाशप्रदेश पल्पगत वाला स्पृष्ट सूक्ष्म क्षेत्र पल्यौ । तथा अस्पृष्ट सर्व आकाश प्रवेशो Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:.--- '-:" ' ... - || लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ भेदयन्त्रकम् ॥ उद्धरणकालः ( पकैक बालाप्रम्य या आकाश प्रवेशस्य) उद्धारसमाप्ति कालः प्रयोजनम (७) प्रति समये ३३०७६ इत्यादि ३७ अंक | सू. उद्धार पायो. समजेदला ममय । मंण्यात अषा माटे. ममय ) जि समय की बर्य नोपसमद्रांनी पंन्या मपाय रे. दर १०० वर्षे | घा० उ० ना चालान जेट-सू. अद्धा पस्यो समलां १०० वर्ष ( मल्यात जवा माटे. १०० वर्ष ) दर १०० वर्षे असंख्यात अपं. आयष्य. काय स्थिति, क. मस्थिति, उत्सपिणी ___ आदि मयाय इंद्र प्रति ममये अर्मग्य कालचक्र |सूमक्षेत्रपम्यो० समजषा माट. प्रति समये असंख्य काळचक्र जीवादिद्रध्य मख्या मपायछे | केटलांपक स्पृष्ट उद्धरणथी | केटलापक अम्पृष्टथी कंट लांपक उभयथी. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८) ॥ संख्यातादिभेदाः संख्यातव्यावर्णनम् ॥ ॥ हवे संख्यात--असंख्यात -खने अनन्तनुं स्वरूप कहेबायले. ॥ ad अथ संख्यातादिकानां स्वरूपं किंचिदुच्यते । श्रोतव्यं तर सावधान - जैनैस्तत्त्वबुभुत्सुभिः ॥ १२२ ॥ त्रिधा संख्यातं जघन्य-- मध्यमोत्कृष्टभेदतः । असंख्याताऽनन्तयोस्तु, भेदा नव नवोदिताः ॥ १२३ ॥ परीत्तासंख्यातमाद्यं युक्तासंख्यातकं परम्। तातायीकमसंख्याता संख्यातं परिकीर्त्तितम् ॥ १२४ ॥ परीचानन्तमाद्यं स्या - गुक्तानंतं द्वितीयकम । अनंतात सार्त्ता - पीकं च गदितं जिनैः || १२५॥ षडप्येते स्युर्जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदतः । अष्टादशाथ संख्यातै --स्त्रिभिः सहैकविंशतिः ॥ १२६ ॥ द्वावेव लघु संख्यातं, ध्यादिकं मध्यमं ततः । अर्वागुरकृष्टसंख्यातात् नैकस्तु गणनां भजेत् ॥ १२७ ॥ यत्तु संख्यातमुत्कृष्टं तत्तु ज्ञेयं विवेकिभिः । चतुष्पल्याद्युपायेन, सर्पपोत्करमानतः ॥ १२८|| तच्चैवम् || (संख्यातादिमेदोनो उद्देश, संख्यात मेदवर्णन ) " " I अर्थ-हये संख्यामादिक कड़क स्वरूप कहेवाय केले, ते सम्बजिज्ञासु अनोप सावधानपणे सांभळ ॥ १२२ ॥ जघन्य मध्यम- अने उत्कृष्ट ए मा संख्यातना ३ प्रकार के अने असंख्यात तथा अनंतना नच नव भेद कहेला छे. ॥ १२३ || ते प्रथम प्रत्येक असंख्यात, बीर्जु युक्त असंख्यात, अने श्रीजुं असंख्यात असंख्यात कहेलुं छे, ॥ १२४ ॥ तथा प्रथम प्रत्येक अनंत छे, बीजुं युक्त अनंत, अनेत्री अनंतानंत श्रीजिनेश्वरोए फहेलुं छे. ॥ १२५ ॥ ए छप ज घन्प - मध्यम - अने उत्कृष्ट ए व्रण त्रण मेदवाळा होवाथी १८ थाय छे, अने पूर्वोक्त संख्यातना ३ भेद मेळत संख्यातादिकना सर्व २१ भेद थाप के. ।। १२६ ॥ तेपां वे ( २ नी संख्या) ते जघन्य संरूपात, अने त्रण ( ३ ) श्री मांडीने उत्कृष्ट संख्यावथी अर्वाक् ( हेलां – १ कमी ) सुधीनी सर्व संख्याभो मध्यम संख्यात कहेवाय के. पण एक (१) नी संख्या गणत्रीप Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ (५०) ( संख्यातमा) गणाती नंधी. ॥ १२७ ।। तथा जे उत्कृष्ट संख्यात ले ते तो विवेकी पुरुषोए आगळ कईवाला चार पल्यादिकना उपायबडे सरसत्र राशिना प्रमाणयी जाणवू. ॥१९८॥ ते आ प्रमाणे-(संख्यातादिभेद कोष्टक ! १ जघल संख्यास | १२ उत्कृष्ट असंख्यान अमरख्यान २ मध्यम संख्यान १३ जया प्रत्येक अनन्त ३ उत्कृष्ट संख्यान १४ मध्यम प्रत्येक अनन्त ४ जघ० प्रत्येक असंख्यात १५ उत्कृष्ट प्रत्येक अनन्न ५ मध्यम प्रत्येक असंख्यात १६ जघ० युक्न अनन्न ६उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्यात १७ मध्यम युक्त अनन्त ७ जघ० युवत असंख्यात १८ अकृष्ट युक्त अनन्त ८ मध्यम युक्न अमंख्यान ९ उत्कृष्ट युक्त असंख्यान १९ जप. अनन्तानन्त १० जघा असंख्यात असंख्यान २० मध्यम अनन्नानन्त ११ मध्यम असंख्यात असंख्यान २१ उत्कृष्ट अनन्ताअनन्न जंबूद्वीपसमायाम-विष्कभपरिवेषकाः । सहस्रयोजनोहे. धाः, पल्याश्चत्वार ईरिताः ॥ १२९ ॥ उच्चया योजनान्यष्टौ, जगत्या ते विराजिताः। जगत्युपरि च क्रोश-द्वयोच्चवेदिकांचिताः ॥१३०॥ दिदृक्षवो हीपवाधीन् , स्वीकृतोद्ग्रीविका इव । ध्यायंतो ज्येष्टसंख्यातं, योगपट्टभृतोऽथवा ॥ १३१ । त्रिभिविशेषकम् ॥आयोऽनवस्थिताख्यः स्या-च्छलाकाख्यो द्वितीयकः । तृतीयः प्रतिशलाक-स्तुर्यों महाशलाककः ॥ १३२ ॥ आवेदि १ प घटादि वस्तु देखता आ पक घट के पम नहिं, पण आ घट मं. पत्रो एकाधिषिशेषण रहित घोध थाय छे. तेथी. अथवा आपका लेवाना व्यत्रहारमा पक प्रस्तुनी गणत्री थती नथी माटे, अथवा अति अल्पसंख्या हो. घाथी पकनी संख्या संख्या तरीके ( संख्यातमा) गणाती मधी ( इति ४ थे कर्म ग्रन्थ टीका ). घळी अंमधेने थे पण आदि आगळनी सरूयाये गुपायाशी चार, छ आदि संख्यावृद्धि याय छे, तेम पकने पके गुणवायी अगर थे, त्रण आदिनै एके गुणवायो पक, वे प्रण आदि संख्यामां पधारो थनो नपो, विगेरे अनेक कारणोथी पक मठ्या संख्यातानी गणत्रोमां गणातीमधी. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) ॥ उत्कृष्टसंख्यातस्परूपनिरूपणेचतुष्पल्पस्वरूपम् || कांत सशिख-स्तत्र पल्योऽनवस्थितः । मायादेकोऽपि न यथा, सषभ्रियते तथा ॥ १३३ ॥ असत्कटपनया कश्चि-ईवस्तमनवस्थितं । कृत्वा वामकरे तस्मा-त्सषपं परपाणिना ॥१३४॥ जंबूद्वीपे क्षिपेदेकं, द्वितीय लवणोदधौ । तृतीयं धातकीखण्डे, तुर्य कालोदवारिधौ ॥ १३५ ॥ एवं हीपे समुद्रे वा, स पढ्यो यत्र निष्ठितः। तत्समायामविष्कंभ--परिधिः कटप्यते पुनः ॥ ॥ १३६ ॥ उद्वेधोत्सेधतः प्राग्वद्-भ्रियते सर्पपैश्च सः । क्रमाद्हीपे समुद्रे च, पूर्ववन्न्यस्यते कणः ॥ १३७ ॥ एवं द्वितीयवारं च. रिक्तीभूतेऽनवस्थिते । मुच्यते सर्षपः साक्षी, शलाकाभिः धपल्यके ॥ १३८ ॥ पूर्यमाणे रिच्यमाने--रेवं भूयोऽनवस्थितः । शलाकाख्योऽपि सशिखं, पूर्यते साक्षिसर्षपः ॥ १३९ ॥ अत्रेदं ज्ञेयम्-(अनपस्थितादि पल्पस्वरूप, उत्कृष्ठसंख्यातविचार ) । अर्थ-जंचूदीप सरखा (एक लाख योजन) लांचा (एक लाख योजन) प. होळा अने (३१६२२७॥ योजन अधिक) परिधिवाळा, नया १०००योजन उडा एवा चार पैल्य कहेला छे, ॥ १२९ ॥ ने चारे पल्प आउ योजन उंची पनी जगसी (फोट गढ बडे शोभित अने जगती उपर थे गा ची वेदिका युक्त छे. ॥ १३० ॥ एवा पकारना ते चारे पल्प द्वीपसमुद्रोने जोश माटे जाणे उंची डोक करीने रखा होय तेवा अथवा उत्कृष्ट संख्यातनुं ध्यान करता पना योग १ धाम्यमरी राखषाने बांसभी बीपोनां पनावेला पालां-कह ने गोळ बाळे , ने तेमा धान्य मरे छे, जने धाम्पना माटा कहे हे ते मादा प्या. लाना (पाणी पोषाना जामना) आकारमा होय छे, माटे पल्य पटले प्याला कहेवाय. पूर्वे कहेल " पठ्य पटले वो " प अयं अत्र नयी: २ जगतो मूळमां वार योजन, मध्यमां आठ पोजन अने उपरथी ५ यो. जन पहोळी छ त होळाइना धराधर मध्य भागमां बारे बाजु फरती थे गाउ उंची अने । (१) गाउ कोळी सडक मरखी ने सपाट भूमि फरवा . H परवाना उपयोगमा आये ते घविका कोषाय. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकमकाशे प्रथमः मर्गः ॥ (६१) पट्टने धारण करनारा जाणे योगीयो न होय ? तेवा शोमे छे. ॥ १३१ ॥ ए चारमा प्रथम अनवस्थित नामे, चीजो शलाका नामे, श्रीजो प्रतिशलाका, अने चोथो महाशलाका नामनो पत्य छे. ॥ १२ ॥ त्या पड़ेलो अन• वस्थित प्यालो वेदिका र-कांठा बुधवारसदारे भरे बिरला सहित रची रीते भरवो के जेथी एक पण सरसव न समाय ( मकाय. ) ॥ १३३ ।। हवं असत्कल्पनाए कोइक देव अनवस्थित प्यालाने हाचा हाथमा उपाही नेमांथी जपणे हाथे एक सरसब अंबूद्वीपमां, बीजो लवणसमुद्रमां, चीजो धासकीखंडयां, अने चोथो कालोदधि समुद्रमा नाखे, ॥ १३४ १३५ ॥ १ प्रमाणे सरसव नाखतां जे द्वीपमा अथवा समुद्रमा ते अनस्थित प्यालो ( लाख. योजन वृत्त वायो) खाली ययो होय, ते द्वीप चा समुद्र सरखी लंबाइ अने पहोलाइ वाळो अने लंबाह होलाइ ने अनुसार परिधियानो (त्रण गणी अधिक परिधिवाळो) फरी बीजो प्यालो कल्पवो. ॥ १३६॥ परन्तु उडाइ अघवा उचाइमा तो पूर्व कथा ममाणे १०००जोजन उहो जाणवो प नचा कल्पेला पोरा प्यालाने पण पुनः सरसको वडे तेवीज रीते भरवो,अने पूर्वोक्न रीते अनुक्रमे त्यांथी आ. गळना द्वीपमा अने समुद्रमा एकेक दाणो नाखना जवं. ॥ १३७ ॥ ए रीते नाखतां आ पोटो अनवस्थित प्यालो पण (ईका प्यालानी अपेक्षाए) पीजीबार खाली थये छते साक्षी माटे ( खात्री यवाने ) १ सरसव शलाका नामना प्यालामा नारखो. ।। १३८ ॥ ए प्रमाणे वारंवार भरीने खाली कराता ( अनेक ) अनवस्थित प्यालाओनो साक्षी रूप सरसबो वडे शलाका नामनो प्यालो पण शिस्त्रा सहित संपूर्ण भरवो. ॥ १३९ ।। श्राद्येऽनवस्थिते रिक्ती-भूते साक्षी न मुच्यते । सवैः पल्यैः समानत्वा-नानवस्थितताऽस्य यत् ॥१४०॥याऽस्याऽनवस्थितेत्याह्वा, ज्ञेया योग्यतया तु सा । घृतयोग्यो घटो यहद, घृतकुंभोऽभिधीयते ॥ १४१ ॥ साक्षी च सर्वपकणो, मुच्यते यः श १ पृष्ठजाग्योः समायोगे, वश्यं बलयबदबढम् । परिषेरन य स्तिष्टे सयोगपट्टकम् ।। १ ॥ योगिनामासनाधिशेषो योगपट्टकम् ॥ इत्यादिस्वरूप आसनविशेषे. (पकजातनुं ध्यान फरवार्नु आसन छे.) २ जे घात बनी शकती न होय पण स्वरूप मात्र समजावान कहेषी होय से वात असत करपनावाची कहघाय. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) ॥ उत्कृष्टसंख्यातस्वरूपम् ॥ लाकके। अनवस्थितसकं ते, जगुरेके,परे परम् ॥१४२ ॥ पूर्णा- + भूते शलाकेऽथ, स्थाप्यस्तत्राऽनवस्थितः । क्रमागतहीपवाद्धि-- समानः सर्षपैर्भूतः ॥१४३ ॥ अथोत्पाटय शलाकाख्यं , प्राग्व. तस्य कणान् क्षिपेत् । अनवस्थातिमकणा-क्रांतद्वीपांबुधेः पुरः ॥ १४४ ॥ रिक्तीभूते शलाकेऽथ , पत्ये प्रतिशलाकके । क्षिप्यते सर्षपस्तस्य, साक्षीभूतस्तृतीयके ॥ १४५ ॥ अथ तत्र स्थित पू. ण, तं गृहीत्वाऽनवस्थितम् । शलाकान्त्यकणाकान्ता-दने प्राग्यस्कणान् क्षिपेत् ॥ १४६ ॥ पूर्यमारिच्यमाने-भूयोभूयोऽनवस्थितेः । पुनः शलाको प्रियते, प्राग्वत्तथानवस्थितः ॥ १४७ ॥ प्रा. ग्वच्छताकमुत्पाटय, परतो द्वीपवार्धिषु । रिक्कीकृत्य च तत्सा क्षी, स्थाप्यः प्रतिशलाकके ॥ १४८ ॥ एवं प्रतिशलाकेऽपि, स. शिख संभृते सति । थनवस्थशलाकाख्यौ, स्वयमेव भृतौ स्थितौ ॥ १४९ ॥ शलाकसाक्षिणः स्थाना-ऽभावात्स रिच्यते कथम् । आद्यस्यापि तदभावात् , कथं सोऽपि हि रिच्यते ।। १५०॥ ततः प्रतिशलाकाख्य-मुत्पाटय तस्य सर्षपान् । क्षिपेत्पूर्वोक्त. या रीत्या, परतो द्वीपवाधिषु ॥ १५१ ॥ एवं प्रतिशलाकेऽपि, निखिलं निष्ठिते सति । साक्षीभूतं कणमेकं, क्षिपेन्महाशलाकके ॥ १५२ ॥ ततः शलाकमुत्पाटय. हीपाब्धिषु तदग्रतः । ल. पंपान्न्यस्य तत्साक्षी, स्थाप्यः प्रतिशलाकके ॥ १५३ ॥ ततः क्रमावर्द्धमान--विस्तारमनवस्थितम् । उत्पाट्य परतो दोप-पाथोधिषु कणान क्षिपेत् ॥ १५४ ॥ प्राग्वदेतत्साक्षिकणैः, शलाकाख्यः प्रपूर्यते । तमप्यनेकशः प्राग्वत् , संरिच्यतस्य साक्षिभिः ॥१५५||तृतीयः परिपूर्येता--ऽसकृदेतस्य साक्षिभिः । पढ्यो महा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लोकप्रकाशे प्रयमः सर्गः ॥.. (६) शलाकोऽपि, सशिख पूर्यते ततः॥१५६॥यथोत्तरमथो साक्षि-स्थानाऽभावादिमे सभे। भृताः स्थिता दिक्कनोनां, कीडासमुदगका इव ॥१५७ ॥ यत्रांतिमायां वेलायां , रिक्तीभूतोऽनवस्थितः । तावन्मानस्तदास्त्येष , त्रयस्वन्ये यथोदिताः ॥१५८ ॥ अर्थ-हेलो (लाख योजन समवृत्त) अनवस्थित प्यालो खाली थये छने मा. क्षीनो ? सरसव शलाकामा मुफातो नथी,करणके सर्व "प्याळाओनी साथे मर. खापर्ण होवाधी ए पहेला प्यालाने अनवस्थित पणुं नथी, 401 छमा एनं नाम अनचस्थित छे ते योग्यतानी अपेक्षाए जाणवं. जेम घी भरवाने योग्य एको घडो योग्यता पायी (धी भर्या विना पण) "धीनो घहो " कहेबाप छ. ।। १४१ ॥ पळी साक्षीभून जे १ सरसवनो दाणो शलाका प्यालानी अंदर नखाय छे ने दाणो केटकाएक आचार्य अनवस्थित प्यालामांनो कडे के. अने केटलाफ एक तो बीजो नवो दाणो लेवान कहे . ॥ १४२ ॥ इवे ए प्र. माणे शलाका प्यालो संपूर्ण भराइ रणा वाद अनुक्रमे मान धयेला बीप वा समुद्र जेबडो अनवस्थित प्यालो सरसव बडे भरीने हमणा त्यांज राखी मूको ( कारणके ते दरम्यानयां शलाका प्यालानी व्यवस्था करवानी छे ). ॥१४३॥ हवे (अनवस्थित प्यालाभोनी साक्षीओवढे संपूर्ण भरायलो) शलाका प्यालो पाडीने अनवस्थित प्यालानो छेल्लो दाणो जे द्वीपमा अथवा समुद्रयां पडयो होय ते दीप वा समुद्रधी आगळना दीप वा समुद्रोमां पूर्वनी पेठे ते शलाकाना सरसवोने नाखता जवू, ॥ १४४ ॥ ए प्रमाणे ( शलाकामांना सर. सब नाखतां) शलाका प्यालो खाली थये छते ते शलाकानो साविभून मरसबनो १ दाणी प्रतिशलाकानामना वीजा प्यालामा नारखवो ॥ १४५ ॥ हर्ष ( ज्या अनवस्थितनो छेल्लो दाणो पडयो हतो) त्यां [ ते दीप वा समुद्रमा ] १ शलाका-प्रतिशलाका-अने महाशलाका पत्रण प्यालाओगी साथ, २ अर्थात् अनवस्थितपणानी गणत्री लाख योजन प्रमाणना ला अनव स्थित प्यालाथी नहिं पण घीजा अमवस्थित प्यालाथी गणधी. कारण पहेला अनस्थित प्यालान नाम अमवस्थित छ पण प्रमाण तो मर्य प्यादामी जेदलु होवाथी अवस्थितज छ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) || उत्कृष्टसंख्यातकररूरूपम् ॥ मयम राखी मृकेला ते पूर्ण ( सरसबो बडे भरी मूकेल) अनवस्थित प्यालाने उपाही जे स्थाने शलाकाप्याळानो छेल्लो दाणो पडयो छे ते स्थानथी आगळना बीप समुद्रोमां पूर्वनी पैठे अनवस्थित प्यालाना सरसच दाणाना खता जर्बु ।। ॥ १४६ ॥ प प्रमाणे वारंवार भरी भरीने खाली कराता अनवस्थित प्यालाओनी साक्षिो वडे धीजी चार शलाका प्यालो भरवो अने ते साथे पूर्ववत ( अनवस्थिमना छेल्लो दाणी ज्यां पड्यो छे त्यां ) अनवस्थित प्यालो पण भरी राखतो. ॥ १४७ ।। हुवे प्रथमनी पेठे आ बीजो शलाका प्यालो उपाही ने आगलना द्वीप समुद्रोयां खाली करीने तेनी साक्षीरूप ! दाणो त्रीजा प्रतिशलाकामां नाखयो, ( अहिं सुधीमा प्रतिशलाकाने विषे चे दाणा पडया के. ॥१४८॥ ए प्रमाणे वारंवार शलाकाओनी साक्षीओपडे प्रतिशलाका प्यालो शिखा सहित संपूर्ण भराइ रहे छते अनवस्थित अने शलाका ए वे प्याला स्वतः भरेलाज पझ्या छ. (पण साक्षी दाणानी जम्या नहिं होवायी खाकी करी शकाना नथी, कारणके) ॥१४९|| शलाकानी साक्षिना स्थानना अभावथी ते शलाका प्यालो खाची केम थइ सके?,तेमज अनवस्थितष्यालानी साक्षीना स्थानना अभावधी ते अनवस्थिन प्यालो पण खाली केम था शके १ ॥१५० ॥ माटे प्रतिशलाका प्यालो उपाडी तेना सरसबोने आगळना द्वीपसमुद्रोमां पूर्वपलिए नाखवा, ॥ १५१ ॥ अने ए प्रमाणे प्रतिशलाका प्यालो पण संपूर्ण खाली थये छते साक्षीभूत (-अतिश नी साक्षीरूप ) दाणो महाशलाकामां नाखयो । १५२ ।। त्यारबाद शलाका प्यालो ( के जे भरीने राखी मूक्यो है तेने ) उपादी त्यांची आगळना ( पनिशलाकानो छेल्लो दाणो ज्या पक्ष्यो के त्यांयी आगळना)द्वीपसमुद्रोमा सरसवो नाखी तेनी साली प्रतिशलाकामा नाखवी. ॥१५३।। तदनन्तर अनुक्रमे वधता विस्तारवाळो अनवस्थित प्यालो [ के जे शलाका साथे म भरी राखी मृक्पो हतो ते ] उपाही भागना (दाणा रहित ) द्वीप समुद्रोपां तेना सरसव नाखवा ॥ १५४ ॥ अने पूर्ववत् एनी साक्षीना सरसवो बडे शलाका प्यालो भरवो, वळी ते शलाकान पण पूर्वनी पेठे अनेकवार भरी भरीने खाली करी एनी साक्षिो बड़े बीजो प्रनिशलाका प्यालो भरवो, पुनः वारंवार प्रतिशलाका साक्षीभी बड़े महाशलाका प्यालो पण शिखा सहित संपूर्ण भरी देवो. ॥१५५-१५६।। हवे अनुक्रमे (चारे प्यालाओनी ) साक्षीनें स्थान नहिं होताथी ( पांचमो प्यालो नहि होनापी ) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र नंबर ९ अजय स्थित पल्य प्रति शलाका पत्य श्री चार पल्य ए आनन्द श्री. प्रेस - भावनगर. F F F 5 4 5 55 ग्रं शलाका पल्य १००००० (एक लाख) योजन लांबा पहोळा वर्तुलाकार छे. >> १००० (एक हजार ) योजन उंडा •11 महा शलाका पत्य योजन जगती उंची योजन वेदिका Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J. || लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ ( ६५ ) एसघळा भरेला प्याला ( चार ) दिशारूपी कन्याओंने क्रीडा करवाना [रमदाना] चार दाबडा के जेना पर अनुक्रमे ढाळ पडतुं शिखर सहित सरसर राशिरूप ढाकणुं छे तैदा) देखाय ले || १६७॥ तेषां छेल्ली वखते अनवस्थित प्यालो ज्यां खाली थयो छे ते दीपसमुद्र जेवडो प्रथम अनवस्थित प्यालो भराइ रहेलो छे, अने शेष है प्याला तो प्रथम का प्रमाणे लाख लाख योजना विस्तार बोळा . ॥ १५८ ॥ ( हवे सर्व सरसव दाणाओनी व्यवस्था करे छे.) अथैश्चतुरः पहचान, सावकाशे स्थले क्वचित् । उद्यम्य तत्सर्वपाणां निचयं रचयेद्विया ॥ १५९ ॥ ततश्च जंबूदीपादि -हीपवार्धिषु सर्षपान् । उच्चित्य पूर्वनिक्षिप्तांस्तत्रैव निचये क्षिपेत् ॥ १६० ॥ एकसर्षपरूपेण, न्यूनोऽयं निचयोऽखिलः । भवेदुत्कृष्टसंख्यात - मानमित्युदितं जिनैः || १६१ ॥ एतदुत्कृष्टसंख्यात - मेकरूपेण संयुतम् । भवेत्परीताऽसंख्यातं जघन्यमिति तद्विदः || १६२ | ज्येष्ठात्परीचा संख्याता - दर्वाग् जघन्यतः परम् । मध्यं परोत्ताऽसंख्यातं, भवेदिति जिनैः स्मृतम् ॥ १६३ ॥ जघन्ययुक्ताऽसंख्यात-मेकरूपविवर्जितम् । भवेत्परीताऽसंख्यात मुत्कृष्टमिति तद्विदः ॥ १६४ ॥ जघन्ययुक्ताऽसंख्य प्रकारश्चायम् - अर्थ- हये ए चार यात्राओने कोइक मोटी जन्यात्राळा स्थळमां ते खालीकरीने बुद्धिवडे ते सरसवोनो एक मोटो ढगली फल्पीये ( रचीये ) ॥ १५९ ॥ अने त्याबाद जंबूद्वीपादि द्वीपसमुदोषां प्रथम नाखेळा सरसवो एकटा करीने तेज - कानाखीये ॥ १६० ॥ परीते करतां जेटला सरसव थया नेपांथी मरसत्र ओछो करता ते ढगलाना जेटला सरसव थाप तेटलं उत्कृष्टसंख्यातनुं ममाण १ ए रोले वारंवार भरी खाली करतां महाशलाकामां जेटका सरसव तेली बार प्रतिशलाका खाली थयां अने महाशना सरसवनी वर्ग करीप तेटली बार शलाका प्यालो खाली भयो, अनं महाशरमा लगन धन करोये तेरली बार अनबस्थित प्यालो खाली थयो, अने पणे व्या ला जेटली बार खाली करना पड़या तेथी एकबार अधिक भरवा पहया छे. जेमके महाशलाका मां सरमय है तो प्रतिशलाका ४ वार, शलाको १६ मार ने अनवस्थित ६८ धार खाली याय. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ॥ परिसासंख्यान-युक्तासंख्यानस्वरूपनिरूपणम् ॥ छे, एम श्री जिनेश्वरोप कहेले छे ॥ १६१ ॥ वळी ढगकामाथी जे एक सरसव काढी लीयो हतो ते सरसबने पुनः ते ढगलापां नाखतां ते उगलामा जेटला सर• सर याय तेटला मरमाण सहाय लोकसंख्यात याय, एम जाणवु. ।। १६२ ॥ ए जघन्य प्रत्येक असंरूपानथी एकादि अधिक अने उत्कृष्ट प्रत्येक अ. संख्यानथी एकादिन्यून जे सर्व संख्याओ ते मध्यम प्रत्येकअसंख्यात छे एम श्री जिनेश्वरोए फसले. ॥१६३ ॥ नथा पक न्यन जे जय, युक्त असंख्यान ने ज उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्यात छे, एप जाणवु ॥ १६४ ॥ येते जयन्ययुक्त असंख्यात केवीरीते थाय ? तेनी रीत ा प्रमाणे के यावत्प्रमाणो यो राशि-र्भवेत्स्वरूपसंख्यया ।सन्यस्य तावतो वारान्, गुणितोऽभ्यास उच्यते ॥ १६५ ॥यथा पश्चात्मको राशिः, पंचवारान् प्रतिष्ठितः । मिथः संगुणितो जातः, प्रथमं पञ्चविंशतिः ॥१६६॥ शतं सपादं सजातो, गुणितः सोऽपि पचभिः । पुनः संगुणितः पंच-विंशानि स्युः शतानि षट् ॥ १६७ ॥ जातश्चतुर्थवेलाया-मेकत्रिंशच्छतानि सः। पंचविंशत्युपचिता-- न्यभ्यासगुणितं ह्यदः ॥ १६८ ॥ ततश्च ॥ प्रागुक्त सार्षपे पुंजे, यावन्तः किल सर्षपाः । तसंख्यान् मुख्यनिचय--तुल्यान् राशीन् पृथक् पृथक् ॥१६९ ।। कृत्वा मिथस्तद् गुणने, यो राशिर्जायतेऽन्तिमः । जघन्ययुक्ताऽसंख्यं त-दावलीसमयैः समम् ॥ १७० ॥ इयमत्र भावना- (अभ्यामगुणाकारे जघन्ययुक्तासंख्यातस्वरूप) अर्थ-जे स्कम पोतानी संख्याबडे जेटला प्रमाणवाळी होय ते रकमने तेरलीवार (समश्रेणिए ) स्थापीने परस्पर गुणाकार कर्यापी जे जवाब भावे ते अभ्याम कईचाय. ॥११५ || जेम ५ रकमने पांच वखत म्यापो (५-५-५-५-५ आ गते स्थापी ) परस्पर गुणाकार करतां पहेलो गुणाकार २५ थाय ॥ १६६ ।। तेने पण पांचे गुणतां बीनो गुणाकार १२५ थाय नेने पण पांचे गुणनां चीजो गुणाकार ६२५ थाप, ।। १६७ ॥ अने तेने पुनः पांचे गुणतां चोथी वखननो गुणाकार ३१२५ थाय ए (३१२५ ) अभ्यास (गुणाकार) कडेवाय. १६८॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे प्रथम मगः ॥ (६७) नो हवे पूर्व कहेल सरसवना दगलामां निवप जेटला सम्मत्रो के नेटली संख्यावा. की मुरूप (मूल) ढगला जेटली गशिओ जुनीजुदी ( मपश्रेणिए ) स्थापीने परस्पर गुणाकार करतां जे चेल्लो (गुणाकार ) राशि धाय ते 'जघन्य युसअ. संख्यात' कहेवाय, अने ते एक आवलिना जेटला मपयो छे नेटली संख्यावाळु छे. अर्थात् एक आवलिना समय पण जप युक्त असंख्यात जेटला छे. १६९१७. ॥ अहिं आ प्रमाणे विचारणा करची. स सर्षपाणां निकरः, कल्प्यते चेदशात्मकः । प्राग्वदभ्यासगुणितः, सहस्रकोटिको भवेत् ॥१७१ ॥गरिष्ठयुक्ताऽसंख्याता. दर्वाग् जघन्यतः परम् । मध्यमं जायते युक्ता--संन्यातमिति तद्विदः ॥ १७२ ॥ जघन्ययुक्ताऽसंख्यातं, प्राग्वदभ्यासताडितम्। हीनमेकेन रूपेण, युक्ताऽसंख्यातकं गुरु ॥ १७३ ॥ एतदेव कपयुक्त-मसंख्या:संख्यक लघु । मल्यासण्यासासंस्म्यात-मस्मादु. कृष्टकावधि ॥ १७४ ॥ जघन्याऽसंख्याऽसंख्यातं, भवेदभ्यासताडितम् । एकरूपोनितं ज्येष्ठा-ऽसंख्याऽसंख्न्यातक स्फुटं ।। १७५।। शत्रैकरूपक्षेपे च, परीत्ताऽनंतकं लघु । मध्यं चास्मात्समुस्कृष्टपरीत्ताऽनंतकावधि ॥ १७६|| ह्रस्वं परीत्ताऽनंतं च, प्राग्वदभ्याससंगुणम् | परोत्तानंतक ज्येष्ठ-मकरूपोनितं भवेत्॥१७७॥ सैंकरूपं तज्जघन्य-युक्तानंतकमोरितम। परमस्मात्पराञ्चार्वाग् , युक्ता. नन्तं हि मध्यमम् ॥१७८॥ युक्तानंतं तजघन्य-मभ्यासपरिताडितम् । निरेकरूपमुत्कृष्ट-युक्तानन्तकमाहितम ॥१७९।। अत्रेकरूपक्षेपे स्यादनंताऽनंतकं लघु। अस्माद्यवधिकं मध्या-ऽनंतानंतं च तत्समम् ॥१८०॥ उत्कृष्टाऽनंताऽनंतं तु,नास्ति सिद्धान्तिनां मते, अनुयोगहारसूत्रे, यदुक्तं गणधारिभिः ।।१८।। एवमुकोसयं अणताणंतयं नस्थित्ति ( पवमुत्कर्षक अनन्तानन्तकं नास्ति) इति ॥ (सा०) अर्थ-(अहीं प्रदाहरण मा प्रमाणे छे) ते सरतामा समूहने जो १० प्रमाणराळो Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . ... . (६८) ॥ सिद्धान्तानुसारिअसंख्यात्र-अनन्त कविचारः ॥ कल्पीए ( एटले ते ढगलामा १० सरसव के एम मानीये) तो पूर्व कहेली रीन प्रमाणे अभ्यास गुणाकार करवा (१०x१०x१०x१०x१०x१०x१०x?ox १०x१०-१०००,००००००. ) एक हजार कोड थायर एटला समय प्रमाणनी एक आवलिका छे अथवा ए प्रमाण जघन्य युक्त असंख्यातनुं जाणवू.)॥१७॥ उत्कृष्टयुक्त असंख्यातयी ( एकादि ) न्यून, अने जघन्युक्त असंख्यातथी (एकादि) अधिक संख्या ते मध्यमयुक्त असंख्यात के. एप जाणचु.॥ १७२।। पुनः जघन्ययुक्तसंख्यानने पूर्वनीपेठे अभ्यास गुणाकार करोने एक बाद करवा उत्कृष्टयुक्त असंख्यात थाय. ॥ १७३ ॥ अने बाद करेल एकने पुनः उ. यु० असं पा उमेरसां एज ( एक अधिक उ० यु० असं० ज ) जघन्य असंरूपात असंख्यात थाय. ए ज. असं असं० थी आगळ ( एकादि अधिक) उ० अर्स० असं० सुधीनी संख्याओ सर्व मध्यम असंख्यात असंख्यात कहेवाय. ॥ ॥ १७४ ॥ पुनः जप० असं० नो अभ्यास गुणाकार करी एक ओछो करतां प्रगटरीत उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात थाय, ।। १७५ ।। पुनः ए उ. असं असं० मां एक उमेरमा ( मेळवनां) जघन्य प्रत्येकअनन्त थाय, ए ० ५० अननयी आगळ अने उ. प्र. अनायी नीचेनी सर्व संख्याओ मध्यम प्रत्येक अनंत कवाय. ॥ १७६ । पुनः ज० प्र. अनंतनो पूर्वनी पेठे अभ्यास गुणाकार करी एक रूप कमी करतां उत्कृष्ट प्रस्येक अनंत थाय. ॥ १७७ ॥ पुनः तेमा ( उ० १० अग्नमां ) एक मेळपना जघन्ययुक्त अनंत थाय एम कहेल्लु छे, वळी ए ज० युर अनंतथी आगळ अने उ० यु० अनं० यी नीचेनी सर्व संख्याओ मध्यमयुक्त अनंत कवाय २. ॥ १७८ ॥ पुनः ते ज. यु. अनं० नो अभ्यास गुणाकार करी एक बाद करता जे संख्या आपे ते संध्याने उत्कृष्टयुक्त अनंत कहेल छे. ।। १७०. ॥ पूनः ए ज. यु० अनंतमा एक अधिक मेळां जघन्य अनंतानंत थाय छे. ए ज० अनं० अनं० थी आगळ अने उ. अनं० अनं० थी नीवेनी म संख्या ओ मध्यम अनंतानंत गणाय छे. ॥ १८० ॥ अने उत्कृष्ट अनंतानंत तो सिद्धांतकारोए मानेलूज नया (जेथी तेनी रीत पण दर्शाची नथी. ) जे कारणे श्री अनुयोगदारमत्रमा श्री गणधरमहाराजे का है. के.॥ १८१ ॥" प्रमाणे उत्कृष्ट अनंतानन नी "-(हवे कार्मग्रन्थिकविचार दावे छे) अभिप्रायः समग्रोऽय,प्रोक्ता सूत्रानुसारतः ।अथ कामयधिका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्रीळोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ ( ६९. ) नां मतमत्र प्रपंचयते ॥ १८२ ॥ समद्विधाता वर्गः स्यादिति वर्गस्य लक्षणम् । पञ्चानां वर्गकरणे, यथा स्युः पंचविंशतिः ॥ १८३ ॥ जघन्ययुक्ताऽसंख्याता --वधि तुल्यं मतइये । श्रतः परं विशेषोऽस्ति स चायं परिभाव्यते ॥ १८४ ॥ जघन्ययुक्ताऽसंख्याता - दारभ्योत्कृष्टकावधि | मध्यमं युक्ताऽसंख्यातं, स्यादुत्कृष्टमथोच्यते ॥ १८५ ॥ जघन्ययुक्त संख्यातं वर्गितं रूपवर्जितम् । उत्कृष्टयुक्ताऽसंख्यातं प्राप्तरूपैः प्ररूपितम् ॥ १८६ ॥ एकरूपेण युक्तं तदसंख्याऽसंख्यकं लघु । अर्वागुत्कृष्टतो मध्य-मथोत्कृष्टं निरूप्यते ॥ १८७ ॥ जघन्याऽसंख्याऽसंख्यानं, यततो वर्गितं त्रिशः । अमीभिर्दशभिः क्षेपैर्वक्ष्यमाणैर्विमिश्रितम् ॥ १८८ ॥ चैत्रम् - I 3 त्रिशर कोटाकोटिसारा, ज्ञानावरणकर्मणः । स्थितिरुत्कर्षतो ज्ञेया, जघन्यान्तर्मुहूर्त्तकी ॥ १८९ ॥ अनयोरन्तराले च मध्यमाः स्युरसंख्यशः । आसां बन्धहेतुभूता -ऽध्यवसाया असंख्यशः ॥ १९० ॥ एवमेवाध्यवसाया, अपरेष्वपि कर्मसु । स्युरसंख्येयलो कान - प्रदेशप्रमिता इमे ॥ १९९॥ जघन्यादिभेदवन्तो ऽनुभागाः कर्मणां रसाः । तेऽप्यसंख्येयलोकान- प्रदेशप्रमिताः किल ॥ १९२॥ततश्च ॥लोकाभ्रधर्माधर्मैक - जीवानां ये प्रदेशकाः । अध्यवसायस्थानानि, स्थितिबन्धानुभागयोः || १९३ || मनोवचः काययोग- विभागा निर्विभागकाः । कालचक्रस्य समया - स्तथा प्रत्येकजन्तत्रः ।। १९४ ।। अनन्ताङ्गिदेहरूपा, निगोदाश्च दशाप्यसून् । त्रिर्वगते लघ्वसंख्या --ऽसंख्येऽसंख्यान्नियोजयेत् ॥ १९५॥ | त्रिशः पुनर्वर्गयेश्च भवेदेवंकृते सति । असंख्याऽसंख्यमुत्कृष्ट-मेकरूप Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- (७०) ॥ काग्रन्धिविचारेण असंख्यात-अनन्तकस्वरूपम् ॥ विनाकृतम् ॥ १९६ ॥ तत्रैकरूपप्रक्षेपे, परीत्तानन्तकं लघु । परी- . चानन्तकाज्ज्येष्ठा-यदक तच्च मध्यमम् ॥१९७॥ अभ्यासगुणिते प्राग्व-स्परोत्तानन्तके लघौ । परीत्तानन्तमुत्कृष्ट-मेकरूपोज्झितं भवेत् ॥ १९८ ॥ सैकरूपे पुनस्तस्मिन्, युक्तानन्तं जघन्यकम् । अभव्यजीवस्तुलितं, मध्यं तुकृष्टकावधि ॥ १९९ ॥ जधन्ययुनानन्ते च, वागते रूपवर्जिते । स्थायुक्तानन्तमुत्कृष्ट-मित्युक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ २०० ॥ अत्रैकरूपप्रक्षेपा--दनन्तानन्तकं लघु ॥ प्राग्वदेतदपि ज्ञेयं, मध्यमुस्कृष्टकावधि ॥ २०१॥ जघन्यानन्तानन्तं तत्, वर्गयित्वा त्रिशस्ततः । क्षेपानमूननन्तान् षट्, वक्ष्यमाणालियोजयेत् ॥२०२॥ ते चामी । वनस्पतीन्निगोदानां, जीवान् सिद्धांश्च पुद्गलान् । सर्वकालस्य समयान, सर्वालोकनभोइंशकान् ॥ २०३ ॥ पुननिवागते जात-राशौ तस्मिन् विनिक्षिपेत् । पर्यायान केवलज्ञान--दर्शनानामनन्तकान् ॥ २० ॥ अनन्ताऽनन्तमुत्कृष्ट, भवेदेवंकृते सति । मेयाऽभावादस्य मध्ये-नैव व्यवहृतिः पुनः ॥ २०५ ॥( कमंग्रन्थिकविचारभेद ) अर्थ-ए सर्व अभिप्राय सिद्धांतने अनुमरीने यो. अने ये कर्मग्रंथकर्ताओ नो जे मन छे ते अहिं विस्तार पूर्वक कवाय .. ||१८२॥ ते आप्रमाणे-साखी घे संख्यानो जे गुणाकार ते वर्ग फडेवाय. एन बर्गर्नु लक्षण छे. जेम ५ नो वर्ग करा ( ५+५- )२५ याय, || १८३ ॥ इवे अहिं जघ० युक्त असंख्यात सुधी तो सितकार अने कर्मग्रंथकार बनेनो पन द्वल्प छे अने त्यांची आगळ जे कंइ सफावन के ने दीवाय छे. ते आ प्रमाणे-|| १८४ ।। १ सिद्धान्तकार अने कर्मग्रन्थकार बन्नेला मत प्रमाणे संख्यानी नुस्यता जः यु० असं सुधी छे, अने त्याग्वाद म. यु० असं० पी बग्नेमा मल प्रमाणे मेल्यामी प्रायः सुल्यता रहेती नथी. घणे स्थाने प्ररूपणानी तुल्यता आधे छे, मात्र ४ स्थाने प्ररूपणा मंद पडे छे. ने आगळ स्फुटनोटमा दशविल है, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकमकाशे प्रथमः सर्गः || .... --. : - ....... मपन्य युक्न असंख्यालयी आरंभीने उत्कृष्ट युक्तअसंख्पा मुधी ( मध्य गत संख्याओ) मध्यम युक्त असंख्यात कहेवाय, हवे उ० युक्त असंख्यात केवी रीते थाय ? ते कडेवाय छे.-॥ १८५ ।। जय० यु० असं० नो यग करी १ पाद करतो उत्कृष्ट युक्त असंग्ख्यान याय, एम श्री सर्वोए कडेल. | १८६ ॥ अने ते ३० यु. असं० मा १ अधिक मेळयतां जघन्य असं असं. धाय. एन. असं० अ० थी आगळ अने उ. अम० अ० थी अर्शक (नीचे) मध्यम असं असं० कडेवाय. हवे उ. असं असं० कवाय ले. ॥ १८७॥ जे जय. असं असं० छ तेनो त्रण वखन वर्ग करी आ आगळ कईचानी १० क्षेपक्वा योग्य ( मेलपचा योग्य ) वस्तुओ बडे मिश्रण करवी ( एकत्र करवी.) ॥ १८८ ।। ते १० वस्तुयो आ प्रमाणे-मानावरणकर्मनी ६० कोसाकोडि उस्कूल स्थिति अने जघन्य अन्तमुहर्त प्रमाण स्थिति जाणवी. ॥ १८९ ॥ ए जय० अने उत्कृ० स्थिसियोनी वच्चनी असंख्याती मध्यम स्थितियो के अने सर्वे स्थि. लियोना बंध हेतुभूत अध्यवसायो पण प्रत्येकना असंख्य असंख्य छे. ॥ १० ॥ प प्रमाणे बीजां कर्मोंना पण अध्यवसायो, ते सर्व मलीने असंख्य लोकाकाशना जेटला प्रवेश होय तेटला प्रमाणना छे. ॥ १५१ ।। तथा जघन्य मध्यम इत्यादि मेदवाळा अनुभाग एटले कर्मना रस भेद ते पण निश्चयथी असंख्य लोकाकाशना प्रदेश जेटला छे ॥ १९२ ॥ अने तेथी लोकाफाशना-धर्मास्तिकायना-अधर्मास्ति कायना अने एक जीवना जे ( सरखी संग्ग्याए असंख्य असंख्य ) प्रदेशो तथा स्थितिबंध अने अनुभाग बंधना हेतुभून अध्यवसायस्थानो, ॥ १९३ ।। मन वचन अने काययोगना निर्विभाज्य विभागो ( एटले सर्व योगाशुभो, काक चकना समयो ( एटले २० को० को. सागरोपमनी समय संख्या ), प्रत्येक शरीरी जीवोनी संख्या ( एटले साधारण वनस्पति अने सिद्ध सिवायना सर्व जीवी, ॥ १९४ ॥ नया साधारण वनस्पसिना शरीर रूप असंख्य निगोदो (एटले अनंसफाय जीवनां सर्व शरीरो), प दशे असंख्याती वस्तुने प्रथम प्रणवार १ मेम नो पण घरखत अगे करता (५४५०२५, २५.४२५-६२५. ६२५४६२५-३९०६२५ ) ३९०६२५ आवे परीत. १. लौकाकाशमा प्रदेश, २ धर्मास्तिकायमा प्रदेश, ३ अधर्मास्तिकायना प्रदेश, ४ एकजीषना प्रदेश. ५ स्थितिवन्धना अध्यवसायो, ६ रमयरचना अध्यषमायो: ७ योगाणुओ..८ एक काळयक्रमा समयों, ९ प्रात्येक शरीरीजोयो, १२ निगोव, प १० प्रक्षेप्यषस्तुओं. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) || असंख्यातादिस्वरूपं कार्ममन्धिकविचारः ॥ वर्ग करेला जय० अ० अ०मां मेळवी ।। १२५ ।। बळी मेळवीने पण तेनो पुनः वार वर्ग करवो, ए प्रमाणे कर्वे छते जे संख्या आये मांधी एक बाद करीए वो उत्कृष्ट असं असं० पाप ॥ १९६॥ पुनः ए उ० असं० असं०मां एक मेळतां जय० प्रत्येक तयाग ने जागळ ने उ० प्र० अनन्तनी नीचे सर्व मध्यम प्रत्येक अनंत वाय ॥ १९७ ॥ तथा पूर्ववत् ज० प्रत्ये० अनन्तनो अभ्यास गुणाकार करी एक कमी करवाथी उत्कृष्ट भ त्येक अनंत धाय ॥ १९८ ॥ पुनः तेषां एक प्रक्षेप कर्ये छते अघ० युक्त अनंत थाय, आज यु० अनन्त जेटलान अभव्यजीवो के पुनः ज० यु० अनन्तथी आगळ उ० यु० अनन्तथी नीचेनी सर्व संख्या मध्यम युक्त अनंन कड़ेवाय ।। २९९ ।। तथा जघ० युक्त अनन्तनो वर्ग करी १ कमी करतां जन् ष्ट युक्त अनंत धाय एम पूर्वाचार्योए क छे, ॥ २०० ॥ पुनः ए उ० पु० अनन्त ? अधिक मेळवतां जघन्य अनंतानंत याय, अने पूर्वनी पेठे अनन्तानन्त सुधीनी (बच्नेनी ) संख्याओ सर्व मध्यम अनंतानंत गणाय, || २०१ ॥ पुनः ज० अनन्तानन्तनो प्रणवार वर्ग करतो त्यारबाद तेमां आ आगळ कहेबाना ६ पदार्थों मेळवा || २०२ ॥ ते ६ पदार्थों आ प्रमाणे- १ - नस्पति-२ निगोदना सर्वजीव-३ सर्वसिद्ध-४ सर्वपुल ५ सकाळना समय (त्रणे काळना समय) - अने ६ सर्व अकोकाकाशना प्रदेश ( ए ६५दार्थों मेळवीने ॥ २०३ ॥ पुनः ऋणदार वर्ग कर्ये छते जे संख्या प्राप्त पाय ते संख्यामां के छज्ञान अने केवलदर्शनना अनन्तपर्याय मेळवा ॥ २०४ ॥ एममा कर्ये छते उत्कृष्ट अनंतानंत धाय. परन्तु आ उ० अनन्तानन्तमां (घडे) कोइषण मापी शकाय एत्रो पदार्थ नहि होवाथी पनो व्यवहार प्रवर्त्तनो नेथी. ॥ २०५ ॥ ( मतभेद निःस्यन्द अनन्तकप्रयोजनविचार ) १ अहिं प्ररुणानो तफावत मात्र चार कागंज आयो के से आ प्रमाण१ उत्कृष्ट युक्त असंख्यात सिद्धांतने मते ज० यु० अ० मा अभ्यास गुणाकारमाथी एक कमी करवायी थाय छे अने कार्मग्रन्थिकमले ज० पृ० अ० ना बम १ कमी करणायो थाय छे. २ उत्कृष्ट असे अनं० सिद्धांतने मते जय असं असं ना अभ्यास गुणाकारमाथी १ कर्मी करवायी थाय छे। अने कार्मप्रन्थिकमते जघ० असं०अनं० नो णधार वर्ग करी पूर्वोक्त १० असंख्यात वस्तुओं मेळषी पुनः पणधार वर्ग की एक कमी करणाथी थाय छे. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) ॥ मोकाशे प्रथमः सर्गः ) ॥ अनन्तना भेदनिगमन तथा प्रयोजन ॥ एवं च नवधाऽनन्त,कर्मग्रन्थमते भवेत् 1 भवत्यष्टविध किश्च सिद्धान्ताश्रयिणां मते ॥ २०६ ॥ सर्वेषां रूपमेकेक--मेषां ज्येष्ठकनीयसाम् । मध्यमानां तु रूपाणि, भवन्ति बहुधा किल ।। २०७ ॥ संख्यातभेदं संख्यात-मसंख्यातविधं पुनः । असंख्यातमनन्तं चा-ऽनन्तभेदं प्रकीर्तितम् ॥२०८॥ प्रयोजन त्वेतेषां ॥थभविअ चउत्थणन्ते, पञ्चमि सम्माइपरिवडिअसिद्धा। सेसा अहमणन्ते, पजथूलवणाइ बावीस ॥ २०९ ॥ (सा०२०) (अभ ३ उत्कृष्ट युक्तअनत-सिद्धांतने मते जघ. यु. अनम्तमा अभ्यासमाथी १ कमी करवाथी थाय छे, अने कर्मग्रन्थमते जय० यु. अनन्तना संगमां, कमी करपाथी थाय छे. . उत्कृष्ट अनन्तानन्त-सिद्धांतने मते आ उ० अनेक अनं० छ ज नहि, अमे कर्मप्रथमते अध० अन. अनं० नो अणधार वर्ग करी अनन्लतल्याषाका ६ पदाथों मेळची पुनः प्रणवार घो करी केवलनिकना पर्याय मेलपवायी ज. अनं. अनं० थाय छ, परन्तु मेय पदार्थना अभाव पनो व्यवहार नयी ( अहिं बन्ने मसनी पूरिट अपेक्षापूर्वक होचाथी अधिक समजाय छे. ) पुनः संख्यानी तुल्यता जघ० यु० असं० सुधोज रही छे. अने मध्य यु. अ. म. थो संख्या यदलाती पाली छ, १ श्री पन्नघणामीमा ९८ घालना महापबहुत्यमां सम्यक्त्वपतितमी साथेज सिद्धी गणाच्या छे तथा आगळ आठमा अनन्तनी पापीस वस्तुओमां सिद्ध गण्या नथी, पधा अनेक कारणोथी अनेक आचार्योमा अभिप्राये सम्यसाषथी पटेला अने मितपरमात्मा पचमे अमन्ते वर्णव्या है, बळी केटलाफ विचारको अतीत अनादि अनन्त पुदगलपरावर्तरूप आठमा अनन्तप्रमाण का. लथी मुक्तिमार्ग पंहतो होगाथी कवाय जयन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथो छमासनो बिरहकाल गणीप अने से विरहकाल चार करतो पण ते अनस्तकालमा जघन्यथी एक समये एक अन उत्कृष्टथी पक्रसो आट जीधोनी मु. क्ति गणतां तथा घर्गणातुं रहस्य विचारता पण माठमा अनम्तप्रमाण पण सिधोनी सम्भव थषो जोइप,लेम कहै छे. तस्य केपालि जाणे. वास्तथोक रीते पक निगोदनो अनन्तमो भाग, अने अभव्यथी अनम्तगुणाजीयो सिद्ध पयेला छे. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) ॥ अनन्तमांमाप्तभावविचार: ॥ व्याश्चतुर्थेऽनन्ते, पञ्चमे सम्यक्त्वादिपरिपतितसिद्धाः ॥ शेषा अ. ष्टमेऽनन्ते पर्याप्तस्थूलवनादयो द्वाविंशतिः||२०९॥) तेवामी । बायरपज्जत्तवणा१,बायरपज्ज २ अपजबायरवणा य ३। बायर अपज ४वायर ५,सुहमापजवण ६ सुहमअपजा७॥२१०।। सुहमवषा प. जत्ता ८,पजसहमा ९ सुहम १०भव्व ११५ निगोया १२ । वण १३ एगिदिय १४ तिरिया १५,मिच्छदिघी १६अविरया १७ य ॥२११॥ सकसाइणो १८य छउमा,१९सजोगि २०संसारि २१सव्वजोवा २२ य । जह संभवमन्भहिया, बावीसं अठमेऽपंते ॥२१२॥ (सा०२१) (बादरपर्याप्तवनाः चादरपर्याप्ता अपर्याप्तवादरवनाश्च ॥बादरापर्याप्ताः बादराः सुक्ष्माः सूक्ष्मापर्याप्तवनाः सूक्ष्मापर्याप्ताः ॥२१०॥ सूक्ष्मवनाः पयाप्ताः पर्याप्तसूक्ष्माः भव्याश्च निगोवाः॥ वना एकेन्द्रियास्तिर्यञ्चः मिथ्यादृष्टयोऽविरताश्च ।।२११॥ सकषायिणश्च छनस्था सयोगिनः संसारिणः सर्वजीवाश्च ।। यथासंभवमभ्यधिका द्वाविंशतिरष्टमेऽनन्त॥२१२॥)इत्यादि यथास्थानं ज्ञेयम्।। इत्यंगुलादिप्रकृतोपयोगि-मानं मयाप्तोक्तिमपेक्ष्य दृब्धम् । अथो यथास्थानमिदं नियोज्य,कोशस्थितं द्रव्यमिवागमज्ञैः॥२१३॥ अर्थ--ए प्रमाणे कर्मग्रन्यने मते ९ प्रकारचें अनन्त छ, अने सिडानकारने मते ८ प्रकार छै ॥ २०६ ।। ए २१ प्रकारमा उत्कृष्ट अने जघन्यनी संख्या एकेक प्रकारनी थे, अने मध्यमनी संख्याओ निश्चय अनेक पकारनी छे ( कारणके एक अधिक बे अधिक इत्यादि अनेक प्रकारे मध्यम भेद होय छे.) ॥ २०७॥ ( अथवा मूळ प्रणमेद [ संख्य-असं०-ने अनन्त ] ने आश्रयि विचारना) संख्पात संख्यास भकारनु छ, असंख्यात असंख्य प्रकारचें, अने अनन्त ते अनन्त प्रकारचें कहेल्ल छे. ॥२८॥ (आटले सुधी संख्यातादिना स्वरूपनो विचार कर्यो) अथ अनन्तानो उपयोग-प अनन्तानो उपयोग आ प्रमाणे अभव्य जोको चोथे अनन्ते ( ज. यु. अनन्त भेटला ) छे, सम्पत्यादिकथी (४ थी ११ मा गुणस्थान मुधीषी पतित थयेला) जीयो अने सर्वसिस ए वे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00:17:17 ॥ लोकपकाशे प्रथमः सर्गः ॥(सा० २१) (७५) पांचमे अनन्ते (म० अनन्त घेटला ,अने शेष पर्याप्तवारपनस्पत्यादि २२वस्तु [जीवो] आठमे अनन्ते (म० अनन्तानन्त प्रमाण).॥२०९॥ते २२ वस्तुओ आ प्रमाणे? पादरपर्याप्तवनस्पति-रमादरपर्याप्ताजीव-३ अपर्याप्तपादरवनसवि-४ पादरअपर्याप्वाजीव-५ सर्व पादरणीव-६ सूक्ष्मअपर्याप्त वनस्पति-७ मूक्षाअपर्याप्ता-८ सूक्ष्मपर्याप्तवनस्पति-९ पर्याप्तभूक्ष्मजीवो-१० सर्व सूक्ष्मजीवो-११ भव्यजीवो-१२ निगोदजीवो-१३ वनस्पतिजीयो-१४ एकेन्द्रियजीबो-१५ वियंचमीय--१६ मिथ्याष्टिजीर-१५॥ अविरतडीट- मागीलीद..१९ प्रास्थनीव-२० सयोगीजीव-२१ संसारीजीव-अने २२ सर्वजीव. ए अनुक्रमे अधिक अधिक एका बावीस पदार्थ आदमे अनन्ते के ॥२१०-११-१२॥ इत्यादि जे प. दार्थ जे संख्यास्थाने वर्ततो होय ते पदार्थ ते संख्यास्थाने विचारवो. ( अर्थात् आठमे अनन्ते आ २२ अ"पदार्थ के पम नयी वीजा पण पुरस्त काळ विगेरे के. पण जीवापेक्षाए २२ छे, तेम जाणवु)प प्रमाणे चालु विषयने(प्रन्यने)उपयोगी पर्छ अङ्गुलादिकतुं प्रमाण में सर्ववना वचनने अनुसरीने कर्यु ले. वे आगमना माणकारोप (पीजे पक्षे-कामना जाणनाराओर)भंडारमा रहेला द्रव्यनी(घननी)माफक योग्यस्थाने जोदबु.।।२१३॥ (अनन्तमा प्राप्त थता जीवोना अल्पवाहुत्य नो यन्त्र) संख्या माम । अल्पवहत्व | | १ | अभय चतुर्थ अनन्ते जघन्ययुक्त अनन्तप्रमाण होवाची, सम्यम्वृष्टया- पांचमा , दि पतित (अभ अर्म) अभव्यथी अनन्तगुण होवाधी, सिर पाथमा अनन्ते सम्म पतितथी अनन्तगुण हे.) तिथी अभंग सम्प० पाततथा अनन्तगुण ७.) पर्याप्त पा० तेथी मन०गु० आठमा अनन्तप्रमाण होवाधी. (सिखो करता वनस्पति आठमा अनन्ते एक गिगोपा पण अनन्तगुण जीवो छै. वा० पर्याप्त विशेषाधिक | वा. पर्या. पृथ्वीकायादि प्रक्षेपपाथी तथी पकेक बा० निगोइपर्यानी निमार मक ६ | पा०अप०वम० असं० गुण | अस० वा. अप. निमोद होषाधी. तेथी | बापर अप० मिशेलविषा० अप० पृथ्वीकायाधिको प्रक्षेप करबापी. । " । पर्या० अपर्याप्त पम्मे पादरमा प्रक्षेपणी कारण H बाद Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) ९ १० ११ अप०सु०धन अप० सूक्ष्म सूक्ष्म प० वनस्पति १२ पर्याप्त १३ सूक्ष्म भव्य १५ निगोद जीव १६ वनस्पति पत्रिय १८ तिर्यश १९ मिध्यादृष्टि こ ૨૦ अविरत २१ सकषायी 國落 २३ सयोगी २४. संसारी २५ सर्वक्षीष तेथी असं० तेथी विशेषाधिक लेखी 13 तेथी विशेषाधिक 23 +2 || अनन्तजीपाल्पा बहुत्वयन्त्र || F " गुण " " " 31 29 बादरथी सूक्ष्म अप बन० अ० गुण दोषार्थी सू० प० पृथ्वीकाया दिन प्रक्षेप करवाथी, "" प्रा०भिप्राये सूक्ष्ममां एकेक अप भी निभाए संख्यानपर्या॰ मी ऊत्पत्ति होषाथी (आसा. वृत्ति अभिमाये असंख्य तभी उत्पत्ति कही छे ) पृथ्वीकायादिमा म करवायी ट अपर्याप्त सूक्ष्मय्यादीनो प्रसेष करवायी चोथा अनंत जेटला अल्प अभव्यो सिवाय सर्वे भव्य होवाथी, निगोदान्तर्गत अभव्यजीवराशिनी पण प्रक्षेप करवाथी, प्रत्येक वनस्पतिनो पण प्रक्षेप करवायी. are अने सू० पन्ने पृथ्वीकायादिनो प्र० करषार्थी अपर्या० द्वीन्द्रियादिवस निर्यचोनो प्रक्षेप करवायी. अपति पयो से सम्यग्दृष्टिआदि छे से बाद करी धारेगतिमा सिस्याओं गजवाबी अविरत दोनो प्रक्षेप करणाथो देशविस्ताविकतो (५ थी १० गुण स्था० सुधीभो) प्रक्षेप करवायी I 'P' उपशान्तमोही उ० ५४ अने क्षीणमोही उ० १०८ नो प्रक्षेप करवाथी. योगी केवळ जघ० २ को उत्कृ० ९ कोट नोपक्षेप करवायी अयोगिकेवलि उ १२८नो प्रक्षेप करवाथी. पूर्वोक्त ३ नंवरती संख्याषाळा सिद्धनां पण प्रक्षेप करवायी. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- ---- ---- - ॥ लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ (सा० २११ (७७) ॥सर्गनु अन्तिम निगमन ।। विश्वाश्चर्यदकीर्ति-कीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रोतिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपाक्षात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सी निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णः सुखेनादिमः ॥ ११४ ॥ भोपनाकामा खः समाप्तः ॥ अर्थ-विधमा आश्चर्य उपभाये एवी कीनिवाला श्री कीर्तिविजयउपाध्यापना शिष्य अने राजश्रीना ( संसारीपणामा राजश्री नापनी मावाना) पुत्र तथा श्री तेजपाल (संसारी पिता ) ना पुत्र विनय (विनयविजयजि उपा०) जे काव्य विस्तारसा इशा(रचता हवा)निश्चित (निश्चल) एवा जगतना तय-पदार्थने मगट करवामां दीपक सरखा एवा ते काग्यमा साररूप परेका अर्थना समुदाय बढे करीने सौभाग्यवालो आ प्रथम सर्ग सुखे करीने समाप्त ययो. ॥ २१४ ॥ ( सिद्धान्त मते संख्यातादि २० भेद) १ जघनं ३ (पक गणतरीमा नथी) २ मध्यम संख्या०३.धी १. न्यून ३० संख्यातमुधी.. २४००-एक न्यून सर्व सरसय प्रमाण, (चार प्यालाना टान्तोक्त) १जघ. प्रत्ये० असं०-सर्व सरसद प्रमाण. २मध्यम प्र. असं०-१ अधिक सर्व सर्पवयी १ न्यून उ०म० असं सुधी. ३०२० असं०-१ न्यून जय० यु. असं० प्रमाण.* ४ जघ० युक्त असं-सर्षपराचि अभ्यास प्रमाण. (१ आवलिकाना समय) ५मध्ययु०असं०-सुगम के. (जघन्यथी एकाधिक उत्कृष्टथी एक न्यून) ६ उ० यु० असं०-१.न्यून उ० असं अस० प्रमाण. ७ ज. असं असं-ज. घु० असं ना राशिमभ्यास पमाण. ८ मध्यम असं असं०-सुगम , (ज० थी र अविश थी १ न्यून) ** अहिं उत्कृष्ट भेद कद्देषानी अनुकम शाषीक रीती भिन्न रीते करो के परन्तु संख्यामां तफावत मधी . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) ॥ संख्यातादिमेदारिचारकोष्टक ।। ९. असं असं०-१ न्यून ज. ० अनंतप्रमाण. १ जघ० प्र०अनंत-ज० असं असं० ना राशिअभ्यास प्रमाण. २ मध्यम प्र. अनंत-मुंगेम छ (ज. यी बषि उ० यी १ न्यून) ३१०-१० अनं-- न्यून ज० यु. अनंत पमाण, १ज. यु० अनंत-ज०म० अननना राशिअभ्यास प्रमाण. [अपम्पनीवसंरूपा] ५म० यु० अर्नत-मुगम छे. [ सम्यक्त्वादिपनित, सिद्धसंख्या ] ६७० यु. अनंत-१ न्यून ज० अनंतान प्रमाण. ७ ज० अनंतानंत-ज० यु० अनंतना राशिअभ्यास प्रमाण. ८ मध्यम अनंतनगम के पहाजीद संकपा ] ॥सिद्धान्तमते ९ मुं अनंत नथी. ।। ॥कर्मग्रंथमते संख्यातादि २१ भेद ।। १ जय० सं०-२ २ मध्यम स०-१ थी १ न्यून ७० सं० सुधी. ३ उ० सं०-१ न्यून सर्व सरेप प्रमाण. १ ज०म० असं०- सबै सरसव ममाण. २ म०प्र० असं०- मुगम छे. ३ उ०१० अ० सं०-1 न्यून अघ० यु. असं० प्रमाण, ४ जय० यु० अस०-सर्व सरसबना राशिअभ्यास प्रमाण, '५ मध्यम यु० असं-मुगम छे. ( अहियी फर्मग्रंथाभिप्राय भिम पडे.) '६ उन्यु • असं०-१ न्यून ज. असं असं० प्रमाण. ७ ज. असं असं०-ज. यु. असं० ना वर्ग प्रमाण. ८ मध्य. असं असं०-सुगम के. ९७० असं. असं०-१ न्यून ज०म० अनंत प्रमाण. १ ज०म० अनंत- जघ० अर्स० असं० नो त्रिवर्ग करी पूर्वोक्त १. पस्तुना असंख्याच प्रक्षेपी पुनः त्रिवर्ग करवा ममाण. २म०प०अनंत-मुगम छे. ३०म अनंत-प्र० युग अनंतमा १ न्यून. ४ज.युअनंत-ज०म० अनंतना राशिअभ्यास मपाण. (अभव्य जीवप्रमाण.) ५म. यु. अनंत-सुगम छे. [ सम्यकत्वादिपतिस, सिद्धो ] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संख्यातादिमेदविचार तथा प्रानभाव कोष्टक ॥ (७९) ६ उ० यु० अनंत न्यून ज. अनंतानंत तुल्य. ७ जा अनंतानंत--ज. यु. अनंतना वर्ग प्रमाण, ८म० अनंतानंत- मुगम छे. [२२ जीव संख्या] ९ उ० अनंतानंत-ज. अनंतानननो त्रिवर्ग करी ६ वस्तुना अनंत प्रक्षेपवा प्रमाण, ॥ संख्यातादिकमां प्राप्तभाव ॥ जप युक्त असं०-एक आवलिकाना समय. जप युक्त अनंत- अभव्य जीव, मध्यम युक्त अनंत--सम्यकवादिपनिन जीवो, भने सर्व सिद्ध. मध्यम अनंतानंतर चादरपर्याप्त वनस्पति. २ चादर पर्याप्त, ३ अपर्याम पादर वनस्पति, ४ वादर अपर्याप्त, ५ बादर,६ सूक्ष्म अपयौत वनस्पति, ७ सूक्ष्म अपर्यात, ८ सुक्ष्मपर्याप्त वनस्पति, ९ पर्याप्त सूक्ष्म, १० बम, ११ भव्य, १२ निगोद, १३ वनस्पति, १४ पकेन्द्रिय, १५ निर्यच, १६ मिथ्यादृष्टि, १७ अविरत, १८ सकपायी, १९. छमस्थ, २० सयोगी, २१ संसारी, २२ सर्व जीव. स्वप्रतिबोधिताकन्यरतपादत्ताहिंसा--अनादिमंसिरश्रीनसचाकश्रीशजयादितीर्थस्वायनीकरणम्फुरन्मान जगद्गुरुविरुदधारफमहाप्रभावतपागच्छाचार्यश्रीविजयहीरसूरीश्वर शिष्यमहोपाध्यायश्रीफीतिविजयगणिपिनेयावतंस-अनेकग्रन्थसन्दर्भलब्धयशोधवलीकृत दिखामंडलमहोपाध्यायश्रीविनपविजयगणिविरचिनशाखसन्दोहोपनिषद्भूत--निखिलसवप्रकाशनप्रदीप-लोकमकाशग्रन्थपथपविभागद्रव्यलोकप्रकाशे यन्त्रचित्रालंकृतभाषानुवादविभूषित: प्रथम सर्गः समाप्तः ॥ सर्गनिष्कर्ष, । अंगुलयोजनरज्ज-पल्याधिनिरूपणानि गुणाकारः ॥ विषयसूची | भागाद्वतिसंख्यया-संख्या मन्तानि धादिमे सर्गे ॥ १ ॥ जगद्गुरुधिरुव तथा फरमानमा पुगषा मोथा होय तो ओ होर सौभाग्य, पिअयप्रशस्ति विगेरे प्रायः समानकालीन प्रन्यो, असल परवानाको पण शेठ, आणन्दजी कल्याणजीना अचळ चोपडे मोजुद छ. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ द्वितीयः सर्गः ॥ 5555 जम " प्रथम सर्गमा सर्व ग्रंथोपयोगि अगुलादि-योजनादि-पक्ष्योपमादि संख्यातादिनु स्वरूप प्रतिपादन फयु, हवे अन्य वाच्य जे लोकस्वरूप, लोकना द्रव्य क्षेत्र काल भाव मेदो, तदन्तर्गत द्रव्यलोक वाच्य पदन्यभेदो-अस्तिकायना मकारो तथा तेनु विस्तार वर्णन अने ठेवटे जीवास्तिकायना मेदरूप महा में. गलमय सिद्धजीवन दार-प्रतिहारो सष्टिन विस्तारयी आ सर्गमा वर्णन करायछे. स्तुमः शङ्खेश्वरं पाव, मध्यलोके प्रतिष्ठितम् । देहलीदीपकन्यायाद, भुवनत्रयदीपकम् ॥ १॥ प्रस्तूयतेऽथ प्रकृत, स्वरूपं खोकगोचरम् । द्रव्यतः क्षेत्रतः काल-भावतस्तच्चतुर्विधम् ॥२॥ एकः पञ्चास्तिकायात्मा, द्रव्यतो लोक इष्यते । योजनानामसंख्येयाः, कोटयः क्षेत्रतोऽभितः ॥३॥ कालतोऽभूच भाव्यस्ति, भावतोऽनन्तपर्यवः । लोकशब्दप्ररूप्यास्ति-कायस्थगुणपर्यवैः ॥ ४ ॥ अर्थ-घरना उमरामा रहेलो दीपक जेम घरनी सहारना भागा तथा आखा घरमा प्रकाश फरे छे तेम देहलीदीपक' न्याययी मध्यलोकयां रहया छनां अणे भुवनमा प्रकाश करनार श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथनी स्तवना करीए छोए ॥१॥ हये कहेवा पांडेलुं लोक संबंधि स्वरूप विस्तास्थी कडेवाग छे, ते लोकस्वरूप द्रव्यथी-क्षत्रथी-काळधी-अने भावधी एम चार प्रकारचें छे. ॥२ ॥ त्या पशास्तिकायरूप कोक ते द्रव्यलोक, द्रव्यथी एक छे. क्षेत्रधी १ श्रीशंखेश्वर पाश्चनाय भगवान्नु मनोहर चस्प दीयार देशमा श्रीशंखेश्वर गाममां विषमान छ. जिनप्रतिमा अने साक्षात् जिनर्नु समानपणुं के ते संधी तथा श्रीशंग्वेश्वरपाचमान संबंधी अपूर्ष वर्णन प्रथम मर्गना मंगलापरणमा विस्तारथी भापयामां आव्यु छे त्यांची जोर ई. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___॥ लोकमकाशे वयमः सर्गः ॥ (सा. २३) (८१) सर्व दिशाए असंख्य क्रोड योजन जेटलो के, ॥ ३॥ काळथी प्रथम इसो-आ. गळ रहेचानो छे-अने वर्तमानमा छ, अने भायथी लोक शब्दवडे मरूपयायोग्य अस्मिकायमा रहेला गुण अने पर्यायो बहे अनंन पर्याय युक्त के. ॥ ४ ॥ अथवा ॥ जीवाऽजीवस्वरूपाणि, नित्याऽनित्यत्ववन्ति च । द्रव्याणि षट् प्रतीतानि, द्रव्यलोकः स उच्यते ॥५॥ तथोक्तं स्थानाङ्गवृत्तौ॥जीवमजीवे रूवमहर्षि सपएसमप्पएसे अ। जाणाहि दबलोग, निच्चमनिच्चं च जं दव्वं ॥६॥ (सा०२२)(जीवा अजीवा रूपिणोऽरूपिणः सप्रदेशा अप्रदेशाश्च ।। जानीहि द्रव्यलोकं नित्यमनित्यं च यद्रव्यम् ॥६॥ भगवृश०११-उ०१०पत्र ५२३) ये संस्थानविशेषेण,तिर्यगर्वमधःस्थिताः । आकाशस्य प्रदेशास्तं, क्षेत्रलोकं जिना जगुः ॥७॥ समयावलिकादिश्च, काललोको जिनैः स्मृतः । भावलोकस्तु विज्ञेयो, भावा औदयिकादयः ॥८॥ यवाहुः॥उदईए उपसमिए, खइए थ तहा खवसमिए अ । परिणामसन्निवाए, विहोभावलोडत्ति ॥९॥ इति स्थानावृत्ती ॥ [सा०२३] [औदयिक औपशमिकः क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमि. कश्च ॥ पारिणामिक: सान्निपातिकश्च पविधो भावलोक इति ॥ ९ ॥] तत्र प्रथमतो द्रव्य-लोकः किश्चिद्वितन्यते । मया श्रीकी तिविजय-प्रसादप्राप्तबुद्धिना ॥१०॥ (द्रव्यादि ४ लोकस्वरूप) अर्थ-अथवा जीव भने अजीव स्वरूपवाळां नथा नित्य अने अनिस्थ एवां :सिद्ध जे ६ द्रव्य तेज द्रव्यलोक कहेवाय छे. ॥५॥ -- - - - - -- --- . - १ पांच अस्तिकाय ( जीव-धर्मा--अधर्मा-आका--पुदगल ) ना समु. दायपणे " लोक " पयी संता छै ते पांच अस्तिकायना जे गुणपर्याय से लोफना गुणपर्याय कद्देवाय माटे लोकशब्द रूपया योग्य इत्यादि " क छ. २ . अथवा शब्दथी ब्यादि चारे लोकनो अथं वीजे प्रकारे दर्शावाय छे. - - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (८२) । ॥ द्रव्यादिचारलोकस्वरूपविचारः ॥ ... श्रीठाणांगजीनी वृत्तिमां कहा छ के-"जीव अने अजीव, रूपी अने अरूपी, सप्रदेशी अने अमदेशो, तथा नित्य अने अनित्य एषां जे ६ द्रव्य तेज न्यलोक जाणवो. " ।। ६॥ ____ अनुक संस्थानबहे ( एटले व चने आकारे अशा कडे हाथ दइ जामो हेरी उभा रहेला मनुरुपने आकारे-राट आकार-अथवा शारख संस्थाने ) निर्यकऊर्च-अने अधोदिशामा रहेला जे आकाशना प्रदेशो तेने जिनेश्वरो क्षेत्रलोक कहे छे. ॥ ७ ॥ जे समय-आवली ( तथा मुहूर्तादि ) वगेरे ते जिनेवरोए काललोक कनो छे, अने औदपिकादि (५) भावो ते भावलोक जाणवो. ॥८॥ का छे के-" औदयिक-ओपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकपारिणामिक अने सान्निपातिक एप्रकारनो भावलोकळे " एम श्री ठाणांगवृत्तिमा फळे. ॥१॥ त्यां श्रीकीर्तिविजयवाचक गुरुनी कपाए प्राप्त थयेली बुद्धिवाळो हुँ (विनयविजयजी) प्रथम द्वन्यालोकर्नु स्वरूप कंडक बिस्वारथी कहुं छु.॥१०॥ द्रव्यलोक स्वरूपना वर्णनमा ६ द्रव्यर्नु स्वरूप धर्मास्तिकायाऽधर्मास्ति--कायावाकाश एव च । जीवपुलकालाच, षड्द्रव्याणि जिनागमे ॥११॥ धर्माऽधर्माभ्रजीवाख्याः, पुद्गलेन समन्विताः ।पञ्चामो अस्तिकायाः स्युः, प्रदेशप्रकरात्मकाः ॥१२॥ अनागतस्याऽनुत्पत्ते--रुत्पन्नस्य च नाशतः । प्रदेशप्रचयाऽभावात्, काले नैवास्तिकायता॥१३॥ विना जीवेन पञ्चामी, अजीवाः कथिताः श्रुते ।पुरलेन विना चामी,जिनरुक्ता अरूपिणः॥१४॥ अर्थ-धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाप-जीवास्निकाय-पुद्गलास्तिकाय-अने काळ आ ६ द्रव्य (विद्यमानपदार्थ) श्री जिनेश्वरना सिद्धांतमा कयां छे. ॥ ११॥ त्यां धर्मा-अवर्मा-आका-जीवा०-अने पुद्गला. ५ पांच प्रदेशमा समूह रूप होत्राथी अस्तिकाय कहेवाय छे, ॥१२॥ अने भविष्य. फाळनी उत्पत्ति ही थइ नथी, अने भूतकाळ जे उत्पन्न घइ गयेलो छे ते विनाश पामेलो छ, ए प्रमाणे काळ्ने भदेशनो समूह नहि होवाथी काळमां अस्तिकायपणुं १ " पर्वा " पटले ५ गते थे वे विभागपाळां ( छ यो छ.) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे मयमः सर्गः ॥ (मा० २४) (८३) नधी. ॥ १३ ॥ नथा जीव सिवायनां ए पांने द्रव्य सिद्धानमां अजीव कईल छे, ( अने जीव द्रव्यने जीद कहेल . ) तथा पुद्गल सिवागनां प पनि द्रव्य थी जिनेश्वरोए अरूपी कडेल छ ॥ १४॥ ( भने पुद्गलने रूपी कहेल छे.) ॥ धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय द्रव्यन स्वरूप ।। धर्मास्तिकार्य तत्राह,पञ्चधा परमेश्वरः । द्रव्यतः क्षेत्रतः काल-- भावाभ्यां गुणतस्तथा॥१५॥द्रव्यतो द्रव्यमेकं स्यात् , क्षेत्रतोलोकसम्मितः । कालतः शाश्वतो यम्मा-दभूद भाव्यस्ति चानिशम्स ॥ १६ ॥ वर्णरूपरसगंध-स्पर्शः शन्यश्च भावतः। गत्युपष्टभधर्मश्च, गुणतः स प्रकीर्तितः ॥१७॥ स्वभावतः सञ्चरता, लोकेऽस्मिन् पुद्गलात्मनाम् । पानीयमिव मीनानां. साहाय्यं कुरुते ह्यसौ ॥१|| जीवानामेष चेष्टासु, गमनागमनादिषु ।भाषामनोवचःकाय-यो. गादिष्वेति हेतुताम् ॥ १९ ॥ अस्यासत्त्वावलोके हि, नात्मपुद्रलयोगतिः । लोकाऽलोकव्यवस्थापि, नाऽभावेऽस्योपपद्यते ॥ २० ॥ द्रव्यक्षेत्रकालभाव-धर्मनातेव युग्मजः । स्वादधर्मास्तिकायोऽपि, गुणतः किन्तु भिद्यते ॥ २१ ॥ स्थित्युपष्टम्भकर्ता हि, जीवपुद्गलयोरयम् । मीनानां स्थलवद् येना-लोके नासौ न तस्थितिः ॥ २२ ॥ अयं निषदनस्थान-शयनालम्बनादिषु । प्र. याति हेतुतां चित्त--स्थैर्यादिस्थिरतासु च ॥ २३ ।। इदमर्थतो भग० श० १३ उ०४ मुद्वि०प०६०८ (सा० २४)॥ गतिस्थितिपरिणामे, सत्येवैतौ सहायकी । जीवादीनां न चेत्तेषां, प्रसज्येते सदापि ते ॥ २४ ॥ (धर्मास्तिकापद्रव्यभेदविचार) __अर्थ-ए ६ द्रव्यमा धर्मास्तिकाय द्रव्य जीनेश्वरोए ५ प्रकार कहेलं -2 द्रव्यथी, २ क्षत्रधी, ३ काळधी, ४ भायथी, अने. ५ गुणधी. ॥१५॥ स्पो पर्मास्विकाय द्रव्यधी (संख्याए) एक छे, क्षेत्रथी कोकाकासप्रमाण छ, काळथी शाश्वत हे, कारण के हेला इतुं, भविष्यमा रहेवानुं छे, अने वर्तमान Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (८४) !! भर्मास्मिकाय-अधर्मास्तिकायस्वरूपविचारः ॥ काळमा विद्यमान छे. ॥ १६ ॥ भावधी वर्ण--गंध-रम- अने स्पर्श रहिन छ, अने गुणथी ते (जीव पुद्गलने) गति करवामां सहाय आपवाना स्वभाव वाळू कहेल छे. ॥ १७ ॥ आ लोकमां स्वभावेज गति करता जीव पुद्गलोने मत्स्यने तरचाया जेम जळ तेम आ धर्मास्तिकाय सहाय करे छे, ॥१८॥ चळी जीवोने तो गमन आगमनादि चेष्टा (मिया)मां अने भाषा ग्रहण पनयोग-वचनयोग अने काययोग इत्यादिमों पण ए कारणिक थाय के. ।१९।। आधर्मा. अकोका नहि होवाधी स्यां जीच अने पुद्गलनी गनि यह शकती नथी अने ए धर्मास्तिकायना अभाचे लोक अलोकनी व्यवस्था पण न संभवे ।।२०॥तथा न्यक्षेत्र काळ अने भाववडे धर्मास्तिन्नो साथे जोडले जन्मेलो भाइ सरखो अधर्मास्तिकाय पण छे, (एटले. द्रव्य, क्षेत्र, फाल, भावयी अधर्मास्तिकाय, स्वरूप धर्मास्तिकायना जेवुज छ ) परन्तु गुणमा हफावत के. ॥ २१ ॥ कारणके ए अधर्मा० मत्स्पने स्थिर थवाओ जेम दीपादि स्थळ तेम जीव पुगलने स्थिर धवामा ( अधर्मा० ) अवलवन ( आधार ) भूत छे. जे कारण माटे अलोकमा अधर्मा नथी तेथी त्यां जीवपुद्गलोनी स्थिति पण नयी, ॥ २२ ॥ आ अघमौस्तिकाय वेसवामां--उभा रहेबामा, शयन करवामा, आलंबन लेवापां, अने चित्तनी स्थिरता वगेरे स्थिर कार्यों कारणरूप थाय छे. ॥२३।। आ स्वरूप अर्थथी श्रीभगवतीजीशतक १३मे ४ या उद्देशे का छे. नीवो अने पुद्गलो गति अने स्थिति परिणामवाळा धये छतेज ए पत्र सहाय करनारा छे, अने जो तेम न होय वो जीव अने पुद्गलोनी हमेशां गति थया करे प्रथा स्थिति रहया फरे. ॥ २४ ॥ (धर्मा० अधर्मा० वर्णन संपूर्ण) १ जो था न होय तो भाषादि पुदगलोनी मतिना अभात्र भाषाग्रहण अने मनयोगादि कापण न हो शके माटे भाषा-मन-वचन-त्यादिमां धर्मा० कारणरूप छे. २ कोहक बस्नुने धरी-पकडी राखखामा ३ भाषार्थ प छे के-जीव अथवा पुदगल पोताना स्वभाषधीज गति स्थिति फियामां बर्तता होय ग्यारे ए बने द्रव्यसहायक थाय, परन्तु जीय पुदगल स्वभाषथी गति स्थिति न करता हाय, अने ए बे द्रष्य पओने प्रेरोने ज गति स्थिनि करायता होय तो ए जीव पुद्गटोनी हर हमेश गति अथवा स्थितिज रखा करे अने पम थषाथी परस्पर गति स्थितिमा सांफर्यभाष पण उपजे, माटे वस्तुतः पवे. वन्य जीव पुद्गलोने गति स्थितिमा प्रेरणा करता नथी पण मात्र सहायकज थाय छे. - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --. ' ॥ लोकप्रकाश प्रथमः सर्गसा . २५) ॥षद्रव्य यन्त्रकम् ॥ संख्या | प्रन्यथी। द्रव्यतां नाम. (संख्या- थी) क्षेत्रथी काळकी भाषथी गुणधी धर्मास्तिकाय संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण पर्णादि रहित गतिसहायक २ | अधर्मास्तिकाय | १ स्थितिमहायक. | ३ आकाशास्तिकाय १ । लोकालोक अवकाशदायक प्रमाण संवेद्रव्यो द्रव्यापेक्षाए अमा: अनन्त. | काळ समया। पे० १२॥ द्वीप०२ अती अ- समुद्र नाअनंण वर्तना, परवापर पभाष पुटलास्तिकाय अनंत | संपूर्ण लोक पादिसहित पूरणमलनधर्मयुक प्रमाण ६ | जीवास्तिकाय वर्णादिरहित आशन्यगुण॥ श्राकाशास्तिकायन स्वरूप ॥ भवेदभ्रास्तिकायस्तु, लोकालोकभिदा द्विधा । लोकाकाशा स्तिकायः स्या--तत्रासंख्यप्रदेशकः ॥२५॥ स भात्यलोकाकाशेन, परीतोऽतिगरीयसा । गोलकं मध्यसुषिरं, महान्तमनुकुर्वता ॥२६॥ तथोक्तं भगवतीशतक०११ उ०१०-अलोए णं भंते! किं संठिए प०? गो झुसिरगोलसंटिए प०इत्यादि।(सा०२५)अलोको भदन्त? किं संस्थितः प्रज्ञप्तः, ? गौतम ! शुषिरगोलकसंस्थितः प्रज्ञप्तः) असौ च धर्माऽधर्माभ्यां, स्वतुल्याभ्यां सदान्वितः । भूपाल Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) ॥ शास्तिकाय-तभेदवर्णनम् ॥ इव मंत्रिभ्यां, बिभार्न सकलं जगत् ॥ २७ ॥ अलोकानं तु । धर्माये- वैः पञ्चभिरुज्झितम् ॥ थनेनैव विशेषेण, लोकाभारपृथगीरितम् ॥ २८ ॥ अनन्तस्याप्यस्य पूज्य-महत्तायां निदर्शनम् । असद्भावस्थापनया, पञ्चमाले प्रकीर्तितम् ॥ २९ ॥ तथाहि-सुदर्शनं सुरगिरि, परितो निर्जरा दश । केऽपि कोकिनः सन्ति, स्थिता दिक्षु दशस्वपि ॥ ३० ॥ मानु कोत्तरपर्यन्ते--ऽष्टासु दिक्षु बहिर्मुखाः । वलिपिण्डान दिक्कुमार्यः, फिरन्त्यष्टौ स्वविवध ॥ ३१ ॥ विकीर्णान् युगपत्ताभि--स्तान् पिण्डानगतान क्षितिम् । पया गत्या सुरस्तथा-मेकः कोऽप्याहरेद्रयात् ॥ ३२॥ तया गत्याथ ते देवा, अलोकान्तदिदृक्षया । गन्तुं प्रवृत्ता युगपद्, यदा दिक्षु दशस्वपि ॥ ३३ ॥ तदा च वर्षलक्षायुः, पुत्रोऽभूत् कोऽपि कस्यचित् । तस्यापि तादशः पुत्रः, पुनस्तस्यापि तादृशः ॥ ३४ ॥ काझेन तादृशाः सप्त, पुरुषाः प्रलयं गताः । ततस्तदस्थिमजादि, तन्नामापि गतं कमात् ॥ ६५ ॥ अस्मिश्च समये कश्चित्, सर्वज्ञं यदि पृच्छति । स्वामिस्तेषां किमगतं, क्षेत्र किं वा गतं बहु ॥३६॥ तदा वदति सर्वज्ञो, गतमल्पं परं बहु । थगतस्यानन्ततमो, भागो गतमिहोह्यताम् ॥ ३७॥ अर्थ-आकाशास्तिकाय लोक अने अलोकना भेदचडे वे प्रकारनो के. तेपाकोकाकाश असंख्य प्रदेशवालो छे,अने ते (लोकाकाश! चारे बाजुधी फरीवळेला, ।। २५ ॥ अने मध्यमां पोकळ (पोला ) एवा मोटा गोळा सरखा अलोकाकाशक्डे शोभावाळो छ. ॥ ६॥ श्री भगवती शतक :माना १. मा उहेशामा तेमज कहथु छे के-हे भगवान् ! अलोकाकाश केवा आकारनो ? उत्तर-हे गौतम ! पोला गोळाना आकारवाळो छ इत्यादि " आ छोकाकाश (प्रमाण अने प्रदेशवडे) पोताना सरखा धर्मास्तिक अने अधर्मा० बहे सदाकाळ युक्त रनो उतो रोना जेम चे प्रधाने करीने जगाने धारण करे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोकाकाश नुं चित्र नंबर ३ ( झुसिर संस्थान ..पहोला पगो की केडे ने हाथ दइ उमेकी पुरुषाकृति तुल्य आकार वाको चौदराज यो मध्य भागमां लोक छे, अने तेजी फरतो दरेक दिसा विदिशा अनन्त योजन प्रमाण अलोक छे. :...... जानन्द प्रो. प्रेस - भावनगर, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ (सा. २५) (८७) (राज्यपाळे) छे तेम ए पण जगनने धारण करे थे. ॥२७॥ अने अलो काकाश तो धर्मास्तिकायादि ५ द्रश्यरहिन के ए नफाबतना कारणयीज अलोकाकाशने लोकाकाशथी जुदो कहेल है. ॥ २८ ।। बली आ अलोकाकाश अनंत छ तोपग पूवाचार्योंए एनी मोटाइनु उदाहरण असत्कल्पनाप करीने पांचमा अंगमा (श्री भगव० मां) कहेल छ ॥ २९ ॥ ते आ प्रमाणे--[अलोकमहत्ता दृष्टान्त ] सुदर्शन नामना सुरगिरिनी ( मेरु पर्वननी) दशे दिशाओमा कोइक दन्न (१०) कौतुकी देवो रहेला छे, ।।३०|| अने मानुषोत्तर पर्वमने छेडे ( एटले मेरुपर्वनथी २२।। लाख योजन दूर ) आठ दिशाओने विषे चाहेर मुख करीने (बहारना द्वीप समुद्रो तरफ मुख करीने ) रहेली आठ दिकछमारीओ (देवीपो) पोतपोतानी दिशा तरफ बलिपिड फेंके ।। ३१ ॥ अने ते दिक्कुमारीओर सहुए एक साथे फेकलो वलिपिंट पृथ्वी उपर पहचाविना अधरथीज तेओषांनो कोहएक देव जे गतिवडे करीने शीघ्र उपाही ले ॥ ६२ ॥ तेवरी शीघ्रगनिए अ. लोकनो अन्न देखवानी इच्छाए ते देवो दशे दिशाओमां एक साथे चालवा मोडे ॥ ३३ ते यह कोइक अस्पन लाख वर्षना आयुष्यवाळो पुत्र जन्म्यो, पुनः ते पुत्रने घेर पण तेवोज ( लाख वर्षना आयुष्यवालो ) पुत्र जनयो चली ए पुत्रने पण तेवोज ( लाख वर्पना आयुष्यवाळो ) पुत्र जन्म्यो प प्रमाणे सात पेढीओ सुधी लाख लाख वर्षायुष्यवाळा पुत्रनो जन्म यतो रहो, ॥३४॥ इसे काळे करीने तेवा प्रकारना (लाख लाख वर्षना आयुवाला) माते पुरुषो मरण पाम्या, त्यारवाद तेनां हार मजा मांस विगेरे अने तेओर्नु नाम पण अनुक्रमे नाश पाम्युं ||३५||इये ए वखते कोइक जिज्ञासु श्री सर्वनने प्रश्न करे के हे स्वामिन् ! ते देवोर्नु अगतक्षेत्र (जवाने बाकी रहेल क्षेत्र ) घणु के के गत क्षेत्र ( गयेलउल्लंघन करेल क्षेत्र ) घणु छ ? ॥ ३६ ॥ ते वखते श्री सर्वज्ञ उसर आप के उल्लंघेल क्षेत्र अति अल्प छ, अने वीजें जबाने बाकी रहेळ क्षेत्र घणुं छे, अने ते अ. हिं उल्लंघन करेल क्षेत्र पाकी रहेल क्षेत्रथी अनन्तमा भाग जेटलं अल्प छे (अर्थात ) हजी अनंतगुण क्षेत्र जवाने बाकी रहेल छ. ॥ ३७॥ स्थित्वा सुरोऽपि लोकान्ते, नालोके स्वकरादिकम् । ईष्टे १ मानुपौत्तर पर्वतनी बाह्यपरिधिना जेटला योजन थाय तेथी पण बलि पिंडो मेंटले दूर जाय तेटला योजन अधिक शीघ्र फरवा.प बलिपिंटो जमीन उपर पहचान देना ग्रहण करवा माटे जेवी गति थाय तेषी. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) ॥ अलोकगत्यमावादिहशान्त-अवगाहविचारः ।। लम्बयितुं गत्य-भावात्पुद्गलजीक्योः ॥३८॥ तदुक्तं ॥ देवे गंभन्ते ! महड्दिए जाव महेसक्खे लोगते टिच्चापभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वाजाव करुं वा आउंटावित्तए पसारित्तए वागोणोइणके सम॥इति भग० शतक १६ उद्दे०८ मुद्रित प०७१७॥ (सा० २६)देवो भदन्त ! महर्धिकः यावत् महेशाख्यः (महासौख्या)लो. कान्ते स्थित्वा प्रभुः अलोके हस्तं वा पादं वा यावदरं वा याकुंटयितुं प्रसारयितुं वा? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । वस्तुतस्तु नभोद्रव्य-मेकमेवास्ति सर्वगम् । धर्मादिसाहचर्येण, द्विधा जातमुपाधिना ॥३९॥ लोकाऽलोकप्रमाणत्वात् , क्षेत्रतोऽनन्तमेव सत् । असंख्येयप्रमाणं च, परं लोकविवक्षया ॥४०॥ कालतः शाश्वतं वर्णा-दिभिर्मुक्तं च भावतः। अवगाहगुणं नच्च, गुणतो गदितं जिनः ॥ ४१ ॥ अवकाशे पदार्थानां, सर्वेषां हेतुतां दधत् । शर्कराणां दुग्धमिव, बहेलोहादिगोलबत् ॥४२॥ युग्मम् ॥यतः॥ परमावादिना द्रव्ये--ऐकेनापि प्रपूर्यते । खप्रदेशस्तथा दाभ्या-मपि ताभ्यां तथा त्रिभिः ॥ ४३ ॥ अपि द्रव्यशतं माया-तत्रबैकप्रदेशके । मायाकोटिशतं माया--दपि कोटिसहस्त्रकम् ॥४४॥ अवगाहस्वभावत्वा-दन्तरिक्षस्य तत्समं। चित्रत्वाञ्च पुद्गलानां परि. णामस्य युक्तिमत् ॥४५॥ द्वयोरपि क्रमाद् दृष्टान्तौ ॥ दीप्रदीपप्र. काशेन, यथाऽपवरकोदरम् । एकेनापि पूर्यते त--च्छतमप्यत्र माति च ।।४६॥ तथा ॥ विशत्यौषधसामा --पारदस्यैककर्षके । सुवर्णस्य कर्षशतं, तौल्ये कर्षाधिकं न तत्॥४७॥ पुनरौषधसामातद्वयं जायते पृथक् । सुवर्णस्य कर्षशतं, पारदस्यैककर्षकः ॥ १८॥ इत्यर्थतो भगवतीशतक १३ उद्देशक ४ घृत्ती (सा० २७) मुद्रित प० ६०८॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . .... - - ॥ लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ (सा. २७) (८०) __ अर्थ लोकने अन्ते (किनारापर) रहीने कोइ देवपण ( मनुष्य, मिथचनी तो वातज शी?) अलोफमा पुगलनी अने जीवनी गतिनो अभाव होपाधी ( अलोकमां ) पोतानो हाथ विगो लगाववा सपर्श थी॥ ३४॥ ते गरमी फा छ के-“हे भगवन् ! महाऋडिवाळो यावत् महेश नाम (महा स. मर्थस्वरूप)वाळो कोइक देव लोकने अन्ते उभी रहोने अलोकने विषे हाथ अथवा पग यावत् साथल (विगेरे कोइपण भंग ) संकोचवा अथवा प्रसारवाने समर्थ छे? उत्तर-हे गौतम! ए अर्थ(ए कार्य करवाने) समर्थ नधी." ए प्रमाणे श्री भगवतीजीना १३ मा शतकना ८ मा उई। शामा कथु छे. [ आकाशास्तिकायना च्यादि पांच विचारो] वास्तविक रीते तो आकाश द्रव्य द्रव्यधी एकज अने सर्वच्या छे, परन्तु धर्मास्तिकापादिफनी साथे रहेवास्प उपाधिवडे ( उपचारथी) (लोकाकाशअने अलोकाकाश एप) ये मकारर्नु पयेलु छे. ॥ ३९ ॥ ए पाकायद्रव्य लोका. लोकप्रमाण होबाथी क्षत्रधी अनंत छे. परन्तु लोकाफाशनी अपेक्षाए आकाश द्रव्य असंख्य (असंख्यपदेशात्मक) पण कडेवाय, ॥४०॥ तथा आकाश द्रव्य काळयी शाश्वत, अने भावधी वर्णादि रहिस छे, तया ते द्रव्य गुणथी अवकाश आपवाना स्वभाववाल श्री जिनेश्वरोए कहेल छ. ॥ ४१ ।। साकरने जेम दूध अने अग्मिने अवकाश आपत्रामा जेप लोखंदनी गोळो (हेतुभूत छ ) तेम सर्व पदार्थोंने (धर्मा-अधर्मा०-जीव-अने पुद्गल ए चारने ) अवकाश बापवायां हेतुपणाने धारण करना(आकाशद्रव्य)? ॥४शा (अर्थात् ए चार पदायने अवकान आपापा कारणरूप छ.-( अहिं लीक युग्म होगाथा वे श्लोकनो भैगो अर्थ करथी जोइप तेने बदले आ अर्थमा युग्मनी पद्धति नहिं राखी बसे लोकमो अर्थ छूटो पाडी दोधेल छे) जे कारणथी ( श्री भगवतीजीना तेरपा शतका) कहथु छ के-[आ स्थळे भगवतीजीना पाठनो भावज ग्रंथमा गुथ्यो छे.] ___ एक फाशपदेश परमाणु आदि एक द्रव्यवहे पण पूराय छे, तेज थे द्रश्यबडे (बे परमाणुचडे ) तया त्रण द्रव्यचडे पण पुराय के. ॥ ४३ ॥ वली ते एफ आकाश प्रदेशमा १०० द्रव्य (परमाणु) समाय छ, तथा सेंकडो क्रोड अने इजारोकोट द्रन्यो (-परमाणुओ ) पण समाय छे. ।।४४|| आकाशनो अवकाश आ. पकानो स्वभाव होवार्थी, अने पुद्गलोना परिणामनी विचित्रताथी उपर कहेकी सपळी वात युक्तिवाळीन छ, ॥ ४५ ॥ ए पातनी विशेष प्रनीति माटे अनुक्रमे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अवगाहपरिणाम-धर्मादिविशेषविचारः ॥ चन्नेनुं (अवगाहस्वभाव अने परिणामवैचित्र्य ) दृष्टांत-उदाहरण आ प्रमाणे छबळता एवा एक दीपकना प्रकाशवडे जेम ओरडो पूराय छे,नेम सेंकडो दीपकना प्रकान पण तेटलाज ओरदायां समाइ रहे है, ।। ४६ ।। अथवा (बीर्जु दृष्टांत एले के ) एककर्ष (नोलो-रूपीआभार,पारामा औषधिना सामर्थ्यधी १०० कर्ष तोला सोनुं (सुवर्ण) प्रवेश करी जाय छे (अर्थात् समाय छ) छतां पण ते पारो तोलने विमे १ कर्षज कायम रहे छे. (अर्थात् वोल जरापण पधतो नपी.) 11 ४७ ॥ वळी औषधिन। सामर्थ्यथी ज १०० तोला सुवर्ण अने एक तोलो पारो बन्ने जुदा पण थइ जाय छे. 1४८भावार्थ श्री भगवतीजीना १३ मा शतकना ४ था दशानी वृत्तिपा कयो के. (इये चालु विषय कहे छे.) ॥ धर्मास्तिकायादिकनुं विशेष स्वरूप ॥ किञ्च॥ धर्मास्तिकायस्तद्देश-स्तत्प्रदेश इति त्रयम् । एवं त्रयं प्रर्य ज्ञेय-मधर्माभ्रास्तिकाययोः॥४९॥तत्रास्तिकायः सकल-स्त्रप्रदेशास्मको भवेत् । कियन्मात्रांशरूपाश्च, तस्य देशाःप्रकीर्तिताः॥५०॥ स्कन्दन्ति शुष्यन्ति पुरसविचटनेन, धीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गलचटनेनेति स्कन्धाः । 'पृषोदरादयः' इतिरूपनिष्पत्तिः, इति प्रज्ञापनावृत्तौ व्युत्पादितत्वादेते स्कन्धव्यपदेश नाहन्ति । अत एव सू. त्रे प्रायः 'धम्मस्थिकाए, धम्मस्थिकायस्त देसे' (धर्मास्तिकायः, १ पारान अमुक अमुक औषधिवडे घणा पुट आपतां पारामां बुभुक्षित अवस्था उम्पन्न थवाथी ५ सुषर्णादि खाई जाय छे. अनं (रेचक) औपधिना प्रभाष पुनः सुषर्णादि जूहूँ पण पडी जाय ते सभषित छ, सांभळया प्रमाणे घोडा वखत उपर पक वृद्ध अनुभवी चैचना पहीलो पाराने खुभुक्षित अवस्था आपीने लगभग सात तोला जेटलं सोनु मभाषता हता. श्री स्थानांग सूत्र वृत्तिमा “अचिन्स्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य यथा पारवस्यकेन कणचारिताः सु वर्णस्य से सप्ताप्येकीभवन्ति, पुनर्वामिताः प्रयोगतः सप्तष त इति " ए पाठ मां सात तोला सोनु ग्रहण कयु छे. जे उपरोश वैध वृतांतधी पण सिस थाय ,, अने कोइ विशिष्ट औषध प्रयोग होय तो. सो तोला सोनानो पण प्रवेश निर्गम करयामा विरोध नथी, पज आर्यावर्तना आयशाननी विशालना अने गंभीरता छ के जेने हजु सुधी दालना कलमान नमानाना साइम्सना प्रोफेसरो पण पहोंची शक्या नयी. आर्यविज्ञान त्रिकालाबाधित छ, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! लोकका ममः सर्गः || (सा० २९) ( ११ ) धर्मास्तिकायस्य देशः ) इत्यायेव श्रूयते ॥ सा० २८) नवतत्त्वावचूरौ तु चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके सकलोऽपि यो धर्मास्तिकायः स सर्वः स्कन्धः कथ्यते इत्युक्तमिति ज्ञेयम् (सा० २९ ) ।। निविंभागा विभागाश्च, प्रदेशा इत्युदाहृताः । ते चाऽनन्तास्तृतीयस्यासंख्येया आद्ययोर्द्वयोः || ५१|| अनन्तैश्चागुरुलघु-पर्यायैः संश्रिता इमे । त्रयोऽपि यदमूर्त्तेषु, सम्भवन्त्येत एव हि ॥ ५२ ॥ ० अथ-धर्मास्तिकाय - धर्मास्ति देश-धर्मास्ति० प्रदेश र प्रमाणे ३ प्रकारनो धर्मास्ति छे ए प्रमाणे अप ना अने आकाशना पण ३-३ भेद जाणवा. ( ते आ प्रमाणे ) ॥ ४९ ॥ [ धर्मास्तिकायादिना विभागनुं यन्त्र ] ४ अधर्मास्तिकाय १ धर्मास्तिकाय २ धर्मास्तिकाय देश अधर्मा देश ን ३ धर्मास्तिकाय प्रदेश ६ अधर्मा० प्रदेश ७ आकाशास्तिकाय ८ बाकाशा० देश ९ आकाशा० प्रदेश " स्पां अस्तिकाय ते पोताना सगळा प्रदेशात्मक होय छे, ( अर्थात् पोताना सर्व प्रदेशनो समूह ते अस्तिकाय कहेवाय. अहिं व्युत्पत्ति अस्ति - सर्वप्रदे शनो, काय-समूह " प्रमाणे छे.) अने केलाएक अंशरूप (अर्ध पा इत्यादि) तेना देश कहेला के, (अर्थात् देश एटले स्कंपनी अपेक्षा न्यून स्कंधमांनो भाग.) ||२०|| ( हवे "धर्मास्तिकाय स्कंध " एवो भेद न फकतां मात्र " धर्मास्तिकाय " ज पहेलो भेद कम करे ? ए मनना उत्तरमां समजवा योग्य विचार आ प्रमाणे छे के ) स्कन्दन्ति एटले पुलना खरवा बडे-बिखरवार हे जे शोषाय के अने धीयन्ते पटले पुद्गलना मलवा वडे जे पुष्ट धाय लेते स्कंध कहेवाय. अहिं पृषोदरादयः " ए सूत्री "स्कंध " शब्दनी उत्पत्ति के ए प्रमाणे श्री पन्नवणाजीनी चिमां कल होवाथी ए ० वगेरे अण द्रव्यो "वर्मास्तिकाय स्कंध" एवा व्यपदेशने ( नामते ) योग्य नथी, अने ए हेतुथीज सिद्धान्तो मां माय: ( धणेस्थाने ) धर्मास्तिकाय - धर्मास्ति० देश" इत्यादि पाठ संभवाय के (देखाय के.) नवतस्वनी अवचूरीमां तो १४ रज्जु प्रमाण छोकने विषे सघळ जे धर्मास्तिकाय ते सर्व "घ" कहेवाय छे. ए प्रमाणे कहेलं छे एम जाणवु. द्रव्यना जे निर्विभाज्य (-जेना वे भाग न कल्पी शकाय ) तेवा विभाग ते Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ अगुरुलघुपर्याय-हानिवृद्धिचक्रविचारः ।। प्रदेश कहेला छे, ते प्रदेशो वीजा आकाश श्यना अनंत छे, अने प्रथमना ये द्रव्यना (धर्मा. अधर्मा० ना ) असंख्यात छ. ॥५१॥ बळी आ त्रणे द्रव्यो अनंत अगुरुलघु पर्यायोवढे आश्रित छे, ( अर्थात् ए त्रणमां अनंना अगुरु लघु पर्याप छे, ) कारणके अरूपी द्रव्योमा एन पर्यायो छ. ।। ५२ ॥ --- - - जे गुणवरे प्रध्यमां ६ प्रकारनी हानि अने ६ प्रकाग्नी वृद्धिनी पर्तना होय ते अगुरुलघुगुणा कहेधाय, अने ते गुणवहे प्रवर्तती ६ प्रकारनी वृद्धि था हानि ते अगुरुलधुपर्याय कहेवाय, तें वृद्धिहानिनो नाम आ प्रमाणे -- १ अनन्तभागवृद्धि । १ अनन्तभागहानि असंख्यभागवृद्धि २ असंख्यभागहानि ३ भख्यभागवृद्धि ३ संख्यभागहानि ४ मख्यगुणवृद्धि ४ संख्यगुणहामि ५ असंख्यगुणवृद्धि ५ असंकयगुणहानि ६ अनन्तगुणवृद्धि ६ अमरतगुणहानि प ६ प्रकारनी वृद्धि हानि स १ बलयमा प्रतिममये पते छे. मात्र प पण व्रव्यांज मुछे पम नथो. अरूपि द्रव्योमा कर बाबतनी वृद्धि षा हानि अषत छे ते सम्बन्ध अतिविस्तृत हावाथी श्रीच हुश्रुनी समजषा योग्य छ, प हानिवृधिनी समज नीचे प्रमाणे १ कोइक राशिना अनन्त भाग करीए तेमांनी पकज भाग अधिक होय ते अनन्तभागवृद्धि. ( जेनी अंक स्थापना अहिं दर्शावाशे )आ भाग बटु नानो होय छे, २ कोइक राशिना असंख्य भाग करीप तेमांनी एक भाग अधिक होय ता असंख्यभागवृति कहेवाय. आ एक भाग पूकि अनन्तभाग करता महोटी होय छे. ३ कोइक राशिना संख्याप्त माग फरीप, तेमांनो , भाग वधे तो मं. रळ्यभागवृद्धि आ भाग पूर्योक्त असंख्यभाग करतां पण म्होटो होय है. ४ कोहक राशिने मंण्यात राशिवडे गुणीए अने जे जबाब भावे ते संख्यगुणवृद्धिधालो जाणयो. आ संख्यातराशि जो के पूीक्त अनम्मभाग विगेरे ३ भागोथी मोटी होय अधषा न्हानी पण होय, तोपण ५ राशियडे गुणायलो गशि तो यर्योक्त प्रणे राशिओथी मोटोज होय. ५ कोइकराशिने असंख्यात्मक राशिवडे गुणतां जे अबाब आवे ते जयाबराशि असंख्य गुण कषाय. आ जवावराशि पूर्वक्ति सर्व राशि करतां मोटी होय छे. ६ कोइक राशिमे अनन्तरूप राशिधद्धे गुणतां # अवाब आये ते जवाब राशि अनन्तगुण कवाय. आ जाबराशि पूषित पांच राशिथी म्होटो होयछे. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || लोकप्रकाश प्रथमः सर्गः ॥ (सा० २१) (३) आ ६ वृद्धिमा सबै जनावगशिओ अनुक्रमे मोटा मोटा प्रमाणमा ज प्राप्त था शके छे, ए प्रमाणे यथायोग्य ६ हानि पण विचारधी, नेनी अंक स्थापना आ प्रमाणे धारोके १० प संख्यात छे, १०० अख्यान छ, अने १००० अनन्त छ अने एक निर्णीत राशि १ लाख (१००.०० मुटे तो नियन राशि १००००० नो अनं० मी भाग (पटलं-१०००) २०० आवे ते अधिक करतां १००१०० अनंतभागवृद्धि, नियतराशि 10000) नो असंख्यातमी भाग (पटले १०=) १000 आ ते अधिक करतां १1१000 ए अममयभागवृद्धि. नियत राशि १००००० नो संख्यासमें भाग (पटले-१ =) १०००० आवं ते अधिक करतां ११०००० प संख्यभागवृद्धि __ नियतराशि १००००० ने समयान पदले १० घडे गुणतां १० लास्त्र आवे ते संख्यगुणवि. नियतराशि १००००० में असंख्य पटले १०. बहे गुणतां १ कोड भावे ते (१०००००००) असंख्य गुणवृद्धि जाणवी. नियतगशि १.०००० ने अनन्तगुण पटले १०५० घडे गुणतां (१.००४.200%) १० कोड आये ते अनन्तगुणवृद्धि जाणवी. नियसगशि १०००० ने अमनल पटले १००० यडे भागतां १०० आवे मे १ लामाथी बाद करता ९९९०८ आधे ते अनम्तभाग हानि जाणघी. नियतराशि १.०५८८ ने असंख्य पटले १०. बढे भागतां १००० आध ते १ लाखमांथी बाद करता ९९००० आवे ने असंख्यभागहानि जाणधी. नियतराशि १.०५५० ने संख्यात पटले १० बढे भागतां १००० आधे ते १ लाखमाथी बाद करता २०.०० आवे से संख्यभागहानि. (हवे मख्यगुणशानि पटले संख्यातगुण करीने आवली जबाय मूळराशिमांधी घटानको एको अर्थ मथी परन्तु गुण पटले भाग पत्री अदि पारिभाषिक अर्थ छ. माटे नियतराशिना संख्यात भाग पाडी तेमांनी १ भाग रा. खयो ते संण्यगुणहीन कहेवाय ए गुणहानिनु लक्षण छ, प ममाणे असंख्यगुण हामिमां असंख्य भाग पाडी १ भाग बाम्नी बीजा सर्व भाग घटाडा ते असंख्यगुणहानि अने अनन्तभाग पाडी ! भाग राखघो ते अनन्तगुणहानि कहे. वाय नेनी अंकस्थापना आ प्रमाणे नियाराशि १०००.. ना असंख्यात भाग पाडतां संख्यात पटले १० थी भाग्ये दशहजार दशहजार (१८८५०) जेबडो एकेक भाग पाडे संघा १८ डेनमाथीरबाद करीज भाग राखतां 2000 हेते संख्यातगणहानि मियतराशि १२००८० ना असंख्यात भाग पाडवा माटे असंख्यान पटले १०० थी भागतां १०००, १००८ (पकेक हज्वर) जेवहरे पकेक भाग पवा १०० भाग आश्या समाथी २९ भाग काढतां याकीनो १००० जेबद्धो १ भाग रदेवा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ हानिदिचक्र तथा जीरद्रव्यविचारः ॥ ॥ जीवद्रव्यनुं स्वरूप ॥ अथ जीवास्तिकायस्य, स्वरूपं वच्मि तस्य च । चेतनालक्षणो जीव इति सामान्यलक्षणं ॥ ५३ ॥ मतिश्नुतावधिमनः-पर्यायकवलान्यांप। मत्यज्ञान श्रुताऽज्ञानं, विभङ्गज्ञानमित्यपि ॥ ५४ ॥ अचक्षुश्चक्षुरवधि-केवलदर्शनानि च । द्वादशामी उपयोगा, विशेषाजीवलक्षणम् ॥ ५५॥ उपयोगं बिना कोऽपि, जोवो नास्ति जगत्रये । अक्षरानन्तभागो यद्-व्यक्तो निगोदिनामपि ॥ ५६॥ तं चाक्षरानन्तभाग-मपि त्रैलोक्यवर्तिनः । न शक्नुवन्त्या. वरितुं, पुद्गलाः कर्मतां गताः ॥ ५७ ॥ एषोऽप्यात्रियते चेत्तत्स्याजीवाऽजीवयोर्न भित् । अक्षरं विह साकारे तरोपयोगलक्षणम् ॥ ५८॥ रवेयथातिसान्द्रान-च्छन्नस्यापि भवेत्प्रभा। किपत्यदाप तो से १००० ५ असंख्यगुण हानि है. लियतराशि १००००० मा अनम्त भाग पास्वा माटे अनन्त पटले १००० पदे भागतां १०१.१००( मो सो ) यहा १.०० भाग पटे तेमाथी ९९९ भाग काढतां याकीनो १ भाग १०० जेबडो राखीप ते १८०५ अनम्तगुणहानि है. ५ पमाणे १००००० नियनराशि माटे १० ने संख्यात, १०० ने असंख्यान, तथा १००० ने अनन्त गणतां. अनन्तगुणहानि १०० अनन्तभागवृद्धि ११00 असंख्य गुणहानि १५.343 असंख्यभागवृद्धि १०१० संख्यगुणहानि १00 संख्यभागवृद्धि ११००00 संरूपभागहानि 30 संख्यगुणवृद्धि ५0000 असंख्यभागहानि ९९००० असंख्य गुणवृद्धि १0000000 अमग्तभागहानि ९९९०० अनन्तगुणवृद्धि १00000007 प प्रमाणे अनुकमे अंकलिनी अपेक्षाप आ स्थापना लखी छे, अन्यथा डानिवृद्धिनो अनुक्रम सो " अनन्तभाग " थी प्रारंभीने ज होय छे. यळी. अगुवलघु स्वभावने अनिच्यि स्वरूपचाळो शास्त्रकारीये वर्णन कर्यो छे: धर्मास्तिकायादि सर्वद्रव्यने स्वरूपाघस्थानमां पण अगुरुगधुपर्यायनी अपना संमधे छे, घड़गुणहानि-वृदिना थकोनो विशेष विषार "कम्मएयदी" घिगरे प्रन्थोथी ओर लेखो, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलकमका प्रथमः सः || (सा० २९) (१६) नावृता रात्रि-दिनाऽभेदोऽन्यथा भवेत् ॥ ५९ ॥ इयं चाल्पीयसी ज्ञान- मात्रायसमये भवेत् ॥ अपर्याप्त निगोदानां, सूक्ष्माणां क्रमतस्ततः ॥ ६० ॥ शेषैकाक्षद्वित्रिचतु पंचाक्षादिषु मानया । वर्धमानेंद्रिय योग--लब्धिवृद्धिव्यपेक्षया ॥ ६१ ॥ क्षयोपशमवैचित्र्या-नानारूपाणि विनति । सर्वज्ञेयग्राहिणी स्याद्, घातिकर्मक्षयेण सा ॥ ६२ ॥ नन्वेवमात्मनो ज्ञानं, यदि लक्षणमुच्यते । अभेदः स्यात्तदनयोः सास्नावृषभयोरिव ॥ ६३ ॥ एवं चास्य सदा ज्ञानमिष्यतेऽखिलवस्तुगम् । रूपो न जानातीत्येतद्युक्तमहं न यत् ॥ ६४ ॥ कथं स ज्ञानरूपस्या- त्मनः स्युः संशयस्तथा । अव्यक्तaarsaat च, किंचिद्बोधविपर्ययाः ॥ ६५ ॥ अत्रोच्यते ॥ सत्यप्यस्य चिदात्मत्वे, नोपयोगो निरन्तरम् । भवत्यावरणीयानां कर्मणां वशतः खलु ॥ ६६ ॥ तथाहि ॥ आत्मा सर्वप्रदेशे - षु । त्यक्त्वांशानष्ट मध्यगान् । प्रक्वध्यमानोदकव- रसदा विपरिवर्त्तते ॥ ६७ ॥ ततः स चिरमेकस्मिन वस्तुन्युपयुज्यते । अर्थान्तरोपयुक्तः स्पा-च्चपलः कृकलासवत् ॥ ६८ ॥ उत्कर्षेणोपयोगस्य, कालोऽप्यांतर्मुहूत्तिकः । उपयोगांतरं याति स्वभावातदनन्तरम् || ६९ ॥ न सर्वमपि वेत्येष प्राणी कर्मावृतो यथा । नार्कस्पाभ्राभिभूतस्य प्रसरन्त्यभितः प्रभाः ॥ ७० ॥ संशयाव्यक्तबोधाया, अप्यस्य कर्मणां वशात् । कुर्वतां ज्ञानवैचित्र्यं, क्षयोपशमभेदतः ॥ ७१ ॥ किंच | आभोगानाभोगो-द्भववीर्यवतो यदा क्षयोपशमः । लब्धिकरणानुरूपं तदात्मनो ज्ञानमुद्भवति ॥ ७२ ॥ वोर्यापगमे च पुनस्तदेव कर्मावृणोत्यपाकीर्णम् । शैवलजालमिवाम्भो - दर्पणमिव विमलितं पङ्गः ॥ ७३ ॥ , AMP Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६ ) ॥ जीवास्तिकाय-तालक्षणवर्णनम् ॥ ___ अर्थ-इये जीवास्तिकायन स्वरूप कहुं. स्यां “धेसनालक्षणवालो ते जीव" ए प्रमाणे जीवनु सामान्य लक्षण ॥५॥अने मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधि-ज्ञान-मनापर्यवज्ञान-केवलज्ञान(ए ५मान)मतिअज्ञान-श्रुतअज्ञान-विभंगवान (ए ३ अज्ञान) चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन-अवधिदर्शन-अने केवलदर्शन (९४ दर्शन) ए १२ उपयोग ते जीवनु विशेष लक्षण छ.॥५४-५५॥ त्रणे जगतमां उपयोगरहित एवो कोइ पण जीव नथी जे कारणधी निगोदजीवने (लन्धि अपर्याप्त सूक्ष्म साधारणवनस्पति जीवने भवना प्रथम समये) पण अक्षरनो (ज्ञाननो) अनमो भाग उघाहो छे. ॥५६॥ ते अवरना अनंतमा भाग जेटला अल्पज्ञानने प्रण लोकमां वर्तता अने कर्मत्वने प्राप्त भयेला कोइपण पुद्गलो आवरषाने (आच्छादित करवाने-ढाकवाने)समर्थ नथी,५७॥ अने जो ए अक्षरनो अनंतमो भाग पण अबराइ जाय तो जीव अने अजीवमा काइपण भेद न पढी सके. अहीं अक्षर पटले साकारोपयोग अने निराकारोपयोग, ॥ ५८॥ (अर्थात् अक्षर-शानोपयोग अने दर्शनोपयोग जामवी. ) अतिमा मेघद तपापेछा रखा सुधली प्रभा पण कंडक (के १ माथी षस्तु जणाय (लक्ष्यते पवनेनेति, असाधारणधी लक्षणम् ) तेवो असाधारण (जेनुं लक्षण करषानुं दोय ते वस्तुथी अन्यमा नहि रहेनार ) जे धर्म से लक्षण कषाय, लक्षणर्नु इतरभेद ज्ञान फल छे अने ते लक्षण अध्याप्ति-अतिव्याप्ति-असंभव पण दोष रहित होई जोइये, विदोप रहित लक्षण तेज सलक्षण कवाय, जे वस्तूनुं लक्षण पांधहोय तेना अमुक अंशमा रहेg भने अमुकमां न रहेयु ते अभ्याक्ति, लक्ष्यथो अधिकमा रहेयु ते अति व्याप्ति, लक्ष्य मात्रमा न रहे ते असंभव, आ संबंधी विशेष वर्णन वृष्टान्त पुरःसर-अनुमानादि साये जो होय तेणे नियतव विस्तारार्थमा पोखमी गाथाना त्रिस्तरार्थनी टिप्पणीयी जाणी लेव, मसाधारण धर्म पण वे प्रकारे छ १ सामान्य धर्म, २ विशेष धर्म, जेम वर्ण अ पुगतनो सामान्य धर्म, अने कृष्ण, नील, पीत विगैरे विशेष धर्मो छे, सामान्य धर्म गुण संशाथी ओळखाय छ. अने विशेष धर्म पर्याय शब्दशी ओळखाय छे. आधी यस्तुने ओळखाधनार सामान्य धर्म ( गुण ) ते सामान्य लक्षण अने वस्तु ओळसाषगार विशेष धर्म (पर्याय) ते विशेष लक्षण, चसम्यो जीधनो सामान्य धर्म अने उपयोगांजे विशेष धर्म छे. अथवा. सर्य जीवमात्रमा अने प लक्षण व्याप्त था शके छ (लागु पढी शके छे.) सर्वदा माटे सामान्यलक्षण कडेवाय. अन १२ उपयोगमाथी कोइ जीधन को उपयोग अने कार जीवन कोड उपयोग, पण मबने तथा सर्वदा एका उपयोग होतो नयी माटे विशेषलक्षण कईशाय. * आर्नु विशेषस्वरूप श्रीजा सर्गमा विस्तारथी जोर लेव. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F7... .. -- ॥ लोकप्रकाशे दिनीयः सर्गः ॥ (सा. २०) (१७) रलेक अंशे ) अनाप्त ( नहिं हंकायेली ) होय छे, अने जो तेम न होय तो रात्रि अने दिवसमा कापण भेद न होय. ॥ ५९ ।। ( अर्थात् दिवस अने रात्रि पन्ने सरखांज थइ जाय.) वळी आ अति अल्प ज्ञानमात्रा (काननो अंश) मूक्ष्म कन्धिअपर्याप्त निगोदने भवना प्रथम समये होय छे. ॥६०॥ तेथी शेष एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चरिंद्रिय अने पंचेन्द्रिय जीवोर्मा अनुक्रमे एक मात्राए बधती इन्द्रियलब्धि अने योगलधिनी वृद्धिनो अपेक्षाए ॥६१॥ क्षयोपशमना विचित्रपणाथी अनेक रूपने ( प्रकारने ) धारण करती एवी ने ज्ञानमात्रा अनुक्रमे (वधतां) घानी कर्मना अपवडे सर्व शेषपदार्थोने जाणनारी थाय छे. ॥ ६२ ।। प्रश्न-जो ए प्रमाणे आत्मान ज्ञान एज लक्षण कडेवाय तो सास्ना ( गळानी गोदही) अने वृषभनी "पठे आत्मा अने ज्ञान वे अभिन्न (एकज) होइ शके, ।। ३३ ।। अने ए प्रमाणे होवायी भात्माने समस्तपदार्थने प्रकाश करनार पर्बु मान सदाकाळ होय, जे कारणथी "ज्ञानरूप एवो आत्मा जाणतो नधी" एम कहे, ते युधिने नहि महन करना एटले युक्ति शून्य थाय छे.॥६४ावळी शानरूप एवा आत्माने "संशय-अव्यक्त ( अस्पष्ट ) बोध-अबोध (अजाणपणुं) अने विपरीत योध केवीरीते होय ? ( वळी ज्ञानस्वरूप आत्माने निस्मरण पण केम पाय? विगेरे दोषो पण जाणवा)॥६५|| उत्तर-आ आत्मानं ज्ञान सरूप होते छते पण निश्चय ज्ञानावरणीयादि कर्मना यशही निरन्तर उपयोग होतो नयी ॥६६ ।। ते या प्रमाणे-आत्मा मध्यभागे रहेला आठ प्रदेशोने ( रुचक प्रदे १ त्यारबाद वितीयादि समये एकेक ज्ञाममात्रा बधती आय छ, २ एकेक मात्राए ज्ञानवृद्धि लम्धिअप. सूक्ष्म निगोदने हितोयादि समये होय छे, छतां मीन्द्रियादि जीवोने पण मात्रावृद्धि कही तो अहिं व्यवहारथी में गोषने प्रथम समये जेटल जघन्य ज्ञान होय तेनाथी विमीयादि समय जेटलं शान वधे ते हरेक वृद्धिस्थानो सामनी मात्रा तरीक गणीए तो संगयी सके छे, पुनः अमुक जघन्यज्ञानवाला जीवथी कंडक अधिक ज्ञानघाळा श्रीजा जीषमा पण जे जाननी अधिकता ते पण जीवोमा परस्पगपेक्षाप सरनमात्रा गणी शकाय. ३ अर्थात् जोत्रामा जेम जेम इन्द्रिय लब्धि अंने योगलब्धिमी वृद्धि यती जाय तेम तेम ज्ञानमात्रा पण बघती शाय, जेम पळवनी गळामी गोदडीयो यचद भिन्न नी तम. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . . . (१८) ॥ जीवस्तवभूतज्ञानवैचित्र्यहेतुविचारः ॥ शोने ) छोडीने सर्व प्रदेशोमा उकळता पाणीनी माफक सदाकाळ परिवत्तन पाम्या करे . ॥ ६७ ॥ तेथी ते आत्मा घणाकाळ सुधी एक वस्तुपां उपयोगालो रहेनो नथी, पण काफीडानी माफक (काकीटो के चे वारंवार शरीरना रंग बदले छ अने जेनी डोक प्रति समय प्रंची नीची थया करे छे पण स्थिर रहेती नथी पाटे तेनी माफक) चपळ ययो छतो बीजा पीजा पदार्थोमा उपयोगवाळो थाप छे. ॥ ६८ ॥ ए हेतुथी ए आत्माना उपयोगनो ( एकज वस्तुमा ) उत्कृष्ट काम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छ अने सदनंतर आत्मा स्वभावधीज धीजा उपयोगवाळो थाय है. ॥ ६९ ॥ बळी जेम, मेघधी पराभव पामेली मर्यनी प्रभा चार वाजु प्रमाती (फेलासी) नथी, तेम कर्मवडे आत ययेलो (वींटायलो) आ आत्मा सर्व पदाथने जागी शकतो नयी. ॥७॥ वळो ना मानाने संशय पो आप कर विगेरे पण ज्ञानने विचित्रप्रकारk करनार एवा कर्मना क्षयोपशम भेदो ( विचित्रनातारतम्य) ना वशथीन थाय छे ।।७१॥ बळी अभिसंधिज अने अनभिसंधिज वीर्यवाला आत्माने ज्यारे क्षयोपशम प्रगट थाय छे,त्यारे लब्धि अने करणने अनुसार (अर्थात-क्षयोपशम अने इन्द्रियोने मतुं पटले के तेनी वरमना अनुसारे) ज्ञान पण प्रमट याय छे. ॥ ७२ ।। अने ते वीर्यनो नाश थसां दूर फरेली शेवाळनी जाळ (शेवाळनो समूह ) जेम जळने अने निर्मळ करेल दर्पणने जेम कादव तेम तेज कर्म पुनः आत्माने आहत करे छे. ॥ ७३ ।। (जीवभेदविचार) अथ प्रकृतं ॥ द्विधा भवन्ति ते जीवाः,सिद्धसंसारिभेदतः। सिद्धाः पञ्चदशविधा-स्तीर्थाऽतीर्थादिभेदतः ॥७४|| यदाहुः ॥ जिण अजि १ उकळतं पाणी जेम आम तेम दोहादोंद करी मूकेद्र नेम सयोगी आ. स्मामा प्रदेशो सयोगीपणानी अवस्था रहे त्यां मुधी प्रतिसमय प्रत्येक प्रदेश उपर नीचे श्रया करे छे , जेथी मस्तकगतप्रदेश पर्ग आंच न पगना प्रदेशी मस्तक चढे इत्यादि: परिवर्तना घाल्या करे छे. छतां पण जळमांनी कण जळ घळायमान छतां पण जळथी छटो पडी जतो नी तेम आन्माना प्रदेशो प्रतिसमय थळावमान छतां तेमांनो एक पण प्रदेश आत्माथी छूटी पडतो नथी, परन्तु प्रदेशो माहोमा या पड़ी जाय छ. २-३ मनना विचार पूचक ने क्रियाप्रवृत्ति करवी ने आभोगिक अथवा अभिसंधिज्ञ धीर्य, अने तेथी विपरीन ( विचारशन्य प्रवृत्ति ) अनामोगिक अथवा अनभिसंधिज वीर्य कहेयाय. तेमा अभित० वीर्य फक्त संज्ञि जीयोने अने अनभिसंधिज वीर्य संक्षिमसंक्षि सर्व जीवमात्रने होय. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 .. ॥ लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ३१) (९०) ण तित्थतित्था, गिहि बन्न सलिंग थी नर नपुंसा । पत्तेयसयंबुद्धा बुद्धबोहिकणिका य॥१॥(सा०३०)(जिनाजिनतीर्थातीर्था गृह्यन्यस्वलिंगस्त्रीनरनपुंसकाः । प्रत्येकस्वयंबुद्धाः बुद्धबोधिता एका अनेकाश्च ॥ १॥) जीवन्तीति स्मृता जीवा, जीवन प्राणधारणम् । ते च प्राणा द्विधा प्रोक्ता, द्रव्यभावविभेदतः ॥ ७५ ॥ सिद्धानामिंद्रियोच्छ्वासा--दयः प्राणा न यद्यपि । ज्ञानादिभावप्राणानां, योगाजीवास्तथाऽप्यमी ॥७६ ॥ अलोकस्खलिताः सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । इह सन्त्यज्य देहादि, स्थिता. स्तत्रैव शाश्वताः ॥ ७७ ॥ ते ज्ञानावरणीयायै-मुक्ताः कर्मभिरटभिः । ज्ञानदर्शनचारित्रा-धनन्ताटकसंयुताः ॥ ७८ ॥ तथोक्तं गुणस्थानकमारोहे ।। अनन्तं केवलज्ञानं, ज्ञानावरणसंक्षयात् ।। अनन्त दर्शन चापि, दर्शनावरणक्षयात्।।७९क्षायिके शुद्धसम्म तव-चारित्रे मोहनिग्रहात् ।। अनन्ते सुखवीर्ये च, वेद्यविघ्नक्षयाक्रमात्॥८॥यायुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः। नामगोत्रक्षया देवा-मूर्त्तानन्ताऽवगाहना ॥ ८१॥ [सा० ३१] अर्थ-हये चालू विषय कई के-ते जीवो सिद्ध अने संसारी भेदधी चे प्रकारना छे, त्यां नीसिद्ध-अलीसिद्ध इत्यादिभेदी सिद्ध १५ प्रकारना हे. ॥ ७४ ॥ का छे के-"जिन-अजिन-तीर्थ-४अतीर्थ-५गृहाथ-६अन्यलिंग-स्वलिंग-स्त्री-नर-१०नपुंसक-११प्रत्येकवुद्ध-१२स्वयंबुद्ध -१३वुडबोधित-१४एक-अने १५अनेकसिह " ए प्रमाणे १५ पकारना २. ( एओन स्वरूप कहेवाय छे.) १ तीर्थकरपणु पामीने जे लिख पया ते ऋषभदेवादि । जिनसिद्ध २ तीर्थकरपणुं पाम्या विना # सि यथा ते पुंडरीकगणधरादि ' अजिनसिद्ध' ३ तीर्थनी स्थापना स्थपाया बाद जे मोक्षे गया ते गणधरादि तीर्थ सिर' ४ तीधनी स्थापना भया पहेला जे मोक्षे मया ते मरुदेवादि 'अतीर्थ सिद्ध' Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - लिंगसिय (१००) ।। सिद्धजीवमेद १५ विचारः ।। स्यां जीवन्ति-जीव छे ते माटे जीव कहेला छ, अने जीवq एटले माणने धारण करवू, (५ धुत्पत्ति .) पाणी पण द्रव्यप्राण अने भावप्राण ए मेदथी चे प्रकारना कहेला छे.॥७५|| पुनः सिद्ध परमात्माओने जो के इन्द्रिय उ ५ गृहस्थधेषमा रहीने जेभो मोक्षे गया तेवा अनगड केवली गृहस्थ६ ओ सापसादिक वैषमा ( जैन मुनिथी जशा वषमां ) मोक्षे गया है पलकलषीरी घिगेरे ' अन्य लिंगसिय ७ साधुना घेषमा (जैन साधुना बंषमा ) जे मोक्षे गया तेषा अनेक मुनिमहात्माओं ' स्थलिंगमिडू' ८ जीपणाम (लिंगमां) में जोत्री मोक्षे गया ते चवनम्बालादि 'सोसिद्ध' ९ पुरुषलिंगमा जेलो मोशे गया ते गौतमादि । पुरुषसिन' १० नपुंसकलिंगे जे मोक्षे गया ते गांगेय विगेरे ' नपुंसकसि । ११ कोइफ मिमित्त पामीने वैराग्यादि उत्पन्न यतां मोक्षे गया ते 'प्रत्येकबुद्धसिद्ध ' ( जेम नमिराजर्षि खोमोना कंकणना खदखदा रथी धैराग्य पामी मोक्ष गया ) १२ कोपण निमित्तविना स्वाभाविक्रीते वैराग्य उत्पा पवाथी मोक्षे गया ते कपिलपली वगेरे 'स्पयंवुद्धसिद्ध ! २३ गुरु विगरेनो उपदेश सांभळवाथी वैराग्य पामी मोक्षे गया ते बुखपोधित सिद्ध २४ पक समयमा एकज मोक्षे गया होय ते पकमिद्ध, १५ एक समयमा जे अनेक सिद्ध थया ते ऋषभदेवादि अनेकसिद्ध, ५ १५ भेछ सामुदायिक छ परन्तु वास्तयिकरीत मिना में अने प्रण भेद छै ते आ प्रमाणे सिद्धना २ भेव-जित मिद्ध अने अजिनमिड- अथवा तीर्थसिद्ध अने अतीर्थ मिव - अथषा एक सिख भने अनेक सि, पम २ भेद ३ गते थाय छे. सिचना प्रण भेद- गृहस्थलिंगसिद्ध, यलिंगसिद्ध, मे स्पलिंगसिद्ध. -अथवा खोलिंगसिर- पुरुषलिंगसिद्र, अने नपुंसकलिंगसिद्ध-अथवा प्रत्येकयुद्धसिद्ध स्वयंसिद्ध. अने श्रुखबा सिल पम प्राण भैर पण प्रण प्रकारे ;. पूर्वोक १५ भेदमा कोइपण पक भेद १५ मांना अनेक भेवमा अंतर्गत गणी शकाय छे .-जेम- गौतम गणधर जे मोक्षे गया ते १५ भेदमांधी अमिनसिध-तीर्थ सिध्ध-प्रायः अनेकसिध्ध - स्त्रलिंगसिद-पुरुषलिंगमिश्चअने बुध्धयोधित सिध्ध ए छ भेद मां गणी शकाय. पप्रमाणे कांइपण एक जोध जुदी जुदी री ते पण ६-६ भदमा आची शके के प्रभु महाधीर देवमा मिन, तीर्थ, स्थगि, पुरुष, म्पयंबुद्ध अने पक सिन्दू पम छ भेद होय छे, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (मा० ३१) (१०१) छ्वासादि द्रव्यमाण नथी सो पण ज्ञानदर्शनादिभावप्राणना संयोगथी तेओ " जीव " कडेवाय छे. ॥ ७६ ॥ अलोकवडे स्खलना पामेला ( अलोकर्मा धर्मास्ति नहि होवाथी जनां अरकी गयेला ) सिड परमात्मा लोकना अग्रभागे ( शिखर पर ) रहेला छे. तेओ आ मनुष्यलोकमां शरीगदिकनो त्याग करीने त्या शाश्वतभावेज (पुनः त्यांथी अत्रे आवधान ज नयी एवा प्रकारे ) रहेला छे. ॥ ७७ ॥ ते सिहोज्ञानावरणीयादि पाठ कमरहित थया. तेथी अनन्तज्ञान अनसदर्शन अनन्त चारित्र इत्यादि आठ अनन्त बडे सहित थयेला छे. ॥ ७८ ॥ श्रीगुणस्थानकमारोहमा कय छ के-"ज्ञानावरणकर्मना सयथी अनन्तकेवलज्ञान, दर्शनावरणकर्मना क्षयश्री अनन्तदर्शन ॥७२॥ मोष्टनीयना क्षयथी शुशक्षायिकसम्यक्तव अने क्षायिकमारित्र, वेदनीयना क्षषयी अनन्तसुख, अने अन्तरायना क्षयथी अनन्तवीर्य ॥ ४० ॥ आयुष्यना सयथी सिद्धोनी अक्षयस्थिति, नापकर्मना क्षयधी अस्पोपणु, अने गोत्रकर्मना क्षयी अनत अवगाहमा प्राप्त थयेली छे. ॥ ८१ ॥ रोगमृत्युजराधर्ति-हीना अपुनरुद्भवाः । अभावारकर्महेतूनां, दग्धे बीजे हि नांकुरः ॥ ८२ ॥ यावन्मात्रं नरक्षेत्र, तावन्मात्रं शिवास्पदम् । यो यत्र नियते तत्रैवो गत्वा स सिद्ध्यति ॥ ८३॥ उत्पत्यो समश्रेण्या, लोकांतस्तैरलंकृतः। यत्रैकस्तत्र तेऽनन्ता, निर्वाधाः सुखमासते ।। ८४ ॥ तथोक्तं तत्वार्थभाष्ये ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादृर्व, निर्वाणमधिगच्छति ॥ यथा दग्धेन्धनो बहि-निरुपादानसंततिः ।।८५॥ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रा. दुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, नारोहति भवांकुर: 1।८६।। तदनन्तरमेवोल-मालोकांतात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगाऽसङ्गत्वर --बंधच्छेदो३गौरवैः४ ॥ ८६ ॥ कुलालचके दोलाया-मिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह, तथा सिद्धगतिः स्मृता? ॥ ८७ ॥ मृल्लेपसंगनिर्मोक्षा--यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः । कर्मसं १ अनन्तकाल सुधी पक सरखी रहेनारी. २ अग्नि उत्पन्न वामां मूळ कारणरूप. --- -- -- Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) ॥ सिजीवानां सिद्धिस्थानग विहेतु विचारः ॥ गविनिमक्षा तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ ८८ ॥ एरण्डयंत्र - पेडासु, बन्धच्छेदायथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात, सिद्धस्यापि तथेष्यते३ || ८९ ॥ व्याघ्रपादंबीजबन्धनच्छेदाद्यंत्रबन्धनच्छेदात्पेड बन्धनच्छेदाच्च गति 'ष्टा मिंजाकाष्टपेडापुटानामेत्रं कर्मबन्धविच्छेदात्सिद्धस्य गतिरिति भावः ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो, जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः, पुद्गला इति चोदितम् ॥ ९० ॥ ऊर्ध्वगमन एव गौरवं धर्मः स्वभावो जीवानां, पुद्गलास्त्वधोगमनधर्माण इति सर्वज्ञवचनमिति भावः ॥ यथाधस्तिर्यगूर्ध्व च, लोष्टवाय्वग्भिवीतयः । स्वभावतः प्रवर्त्तन्ते, तथोवंगतिरात्मनः ४ ॥ ९१ ॥ अतस्तु गतित्रैकृत्य - मेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच, प्रयोगाश्च तदिष्यते ॥ ९२ ॥ अवस्तिर्यगथोर्ध्व च, जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेत्र तु तद्धर्मा, ( ताद्धर्म्यात्, इतिउत्त० वृत्तौ ) भवति क्षीणकर्मणाम् ॥९३॥ [सा० ३२ ] । . 4" १ आना तात्पर्य ने भावना तस्वार्थभाग्य ' तथा तेनी 'टीका 'नो पाठ नीचे प्रमाणे छे. बन्धच्छेदाधथा रज्जुबन्धच्छेदात्पेडाया वीजकोशबन्धछेदारण्डवीजादीनां गतिवृष्टा तथा कर्मबन्धनले दशम्मिध्यमान गतिः 11 [भाष्यं ]" बध्यते येन रज्ज्वादिमा सबन्धः, तस्य छैनः शस्त्रेण त्रोटनं वा, तयाच यथा रज्ज्या गाढमापीडयापीड्य बद्धायाः कीचक विश्लाियाः वन्धच्छेदावुपरितनपुरुय गमनम् दृष्टं 'बीजकोशबन्धले चीजकोशः फली फलं वा तस्याः सुबन्धनं गाता सवितृकरजाल शोषि तायाः परिणतिकाले संपुटोद्भेदः द्वेषः ततश्च परंडादिफदे बीजानां गतिई तानि तुडीयोट्रीय दूरे पतन्ति तथा कर्मवन्धः फलकडाहस्थानीयस्तच्छेदाद्विघटनानन्तरमेष यो सिध्यमानगतिरिति” (वृत्तिः) भावार्थ:- प्रेम राय सतबांधेली बांसनी खपाटनी बनावेळ पेढानुं दोरडामुं बन्ध तुटबाची ऊ गमन थाय छे, बन्दी परंडवीजन फलो सूर्यकिरणथी सुकाये छते परिणामकालमा संपुट फुट छते बीज ऊडी ऊडीने दूर पड़े छे, तेम कर्मयन्धननो छेद थयाथो सिद्ध यता जीवनी गति थाय छे. विशेष विचार 'सत्यार्थ वृति' आदिथी जाणवों, 7 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे छिनीयः सर्गः ॥ (सा० ३२) (१०३ )_ अर्थ-रोग मृत्यु अने वृद्धत्वादिक पीहारहित, अने कारणरूप कर्मना अभाषे जेम पोज बळी गये छते अङ्कुर जगतो ना तम पुनः संसारमा नाई उत्पन्न पना एवा सिद्ध परमात्मा छे. ८२॥ तथा जेटलं (४५ लाख योजनवृत्त विस्नास्वालु)मनुष्यक्षेत्र छे. तेटलाज प्रमाण वालुमुक्तिक्षेत्र (मोक्षस्थान) पण छे. कारण के-जे सिद्ध ज्या काम करे छे. त्यांधीज ऊर्ध्वसमणिए जइने ते सिद्ध पाय के. ॥ ८३ ॥ पुनः ते सिधभगवन्तोए ऊर्वसमश्रेणिप जइने अलोकान्तने (लोकना अग्रभागने ) अलंकृत करेल छे, अने ज्यां एक सिद्ध होय त्या अ. नन्तसिद्ध पण कोइपण बाधा-पीहा रहित मुखपूर्वक रही शके छे. ॥ ८४ ॥ श्री तत्त्वार्थभाष्यमा का छे के -“जेम बनी गयेला कावाळो अग्नि अपादान कारणरूप काटना समूह विना स्वयमेव निर्वाण पामे छे ( अर्थात - झाइ जाय छे, तेम सिकपरमात्मा पण सर्वकर्मना क्षयथी ऊर्ध्वगलिए निर्वाण पामे छे. ॥ ८५ ॥ जेम पीन बळी गये छते अंकुर प्रगट थनो नयी तेम कर्मचीज बळी गये छते जन्म अंकुर जगतो नथी ।।८६ अने तदनन्तर (कर्मक्षय यया पछी तुर्वज ) ते सिद्धपरमात्मा पूलप्रयोग- असंगत्व-बन्धछेद--अने ऊर्यगौरववाडे लोकना अन्तमुधी ऊर्ध्व ( उंच उपर ) जाय . ॥ ८६ ।। (पूर्व प्रयोग हेतु दृष्टान्त १ ) कुंभारना चक्रमां--हिंडोलामां--भने धाणमां पण बेषा प्रकारे पूर्व प्रयोगधी क्रिया (गति) देखायो . तेम अहि पण (पूर्व प्रयोगथी) सिद्धोनी गनि कहेली छे,11८७॥(असंगहेतुदृष्टान्तर) जेम माटी विगेरेनो लेप उखरी जवाथी पाणीमा तुम्बडानी ऊर्ध्वगति देखाय छे, तेम कर्मसंगना स्वाथी सिद्धोनी कर्वगति कहली छे, ||६८॥धछेदहेतुहष्टान्त) तथा परंडाना फक-यन्त्र--अने पेडामा बन्धनना छेदथी जेम (एरंडनां बीज वगेरेनी] गति याय छ, तेम फर्मबन्धनना विच्छेदथी सिडनी पण गति थाय छे ॥ ८९ ।। (अर्थात् १ प्रथम दंड नाखीने चक्र फेर त्यारषाय दंड काढी लीपा छतां पण चक्र फर्याज करे सेम २ प्रथम डायथी हलाव्याबाट पण हिंडोळो स्वतः झुल्या करे तम. ३ प्रथम धनुष्यमा महायता प्रयत्न फग्यो पढे ने अनुमाथी गुटबा. बाद प्रथमना प्रयत्न वडेज मीधि दिशामां पर-जाय तेम, ५ षडापर धणी माटीनी लेप करी पाणीमां नाखे तो इनी नीचेज बैसे परन्तु पाणीमां माटी पलाम्याचा जेम जेम लेप उतरती जाय तेम तुंबडं चुं आवत जाय अने सर्व लेप धोया गया बाद तहन पाणीना उपर आवी जाय सेम. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) ॥ जीवनिर्गममार्ग-तहेतुकगतिज्ञानविचारः ॥ वाघना पग सरखा परंडबीजना बन्धननो छेद पवाथो एरंडवीजनी, यन्त्रपन्धननो छेद थयाधी काठनी अने पेडायन्धननी छेद थवाथी पे. डापुटनी जेम गति धाय के तेम सिद्धनी पण गति थाय छे, ए वात्पर्य छे, ॥ (अर्ध्वगौरवदेवस्वरूप४) वषा ऊर्ध्वगतिरूपसरूप धर्मवाळा जीवो के अने मेंधोगतिरूप मुख्यधर्मवाळा पुदलो के, एम जिनोश्वरोए कहथु छे. ॥ ९० ॥ अर्थात् जीवोनो धर्म-स्वभाव ऊर्ध्वगमन करवानी गौरवतावालो मुरूयतावालो छे, अने पुद्गलो अधोगति स्वभाववालाछे. ए श्री सर्वझर्नु वचन के. जेम पापाणनी अधोगति, वायुनी तिर्यग्गति, अने अग्निज्वाळानी ऊर्ध्वगति स्वभारथीज प्रवः छे, नेम आत्मानी पण अर्ध्वगति स्वभावधीज छे. ॥११॥ ए कारणथी जीवोन जे गतित्रै कृत्य ( स्वाभाविकगति ऊय छे छतां तिर्यगादि गमन करवारूप गतिनो विकार ) देखाप छे ते कर्मना पनियातथी अने प्रयोगथी ( अन्यनी मरणाथी- मयस्नथी ) गतिविकार मनाय छे. ॥ ९२ ॥ ए प्रमाणे जीवोनी फर्मथी उत्पन्न थयेली गति अधोतिर्यग् अने अर्व एम प्रण कारनी छे.परन्तु कर्मरहित जीयोनी तो ऊर्ध्वगतिम होय के. ॥१३॥ __ तत्रापि गच्छतः सिद्धि, संयतस्य महात्मनः । सर्वैरंगैर्विनिर्याति, चेतनस्तनुपंजरात् ॥ ९४ ॥ तदुक्तं स्थानांगपंचमस्थानके [३ उद्दे० सू० ४६१]पञ्चविहे जीवस्स णिजाणमग्गे पन्नते, तंजहा-पापहि, उरूहिं, उरेणं, सिरेणं, सबंगेहिं ॥ पाएहिं निजायमाणे निरयगामी भवति, उरूहि निज्जायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निजायमाणे भणुयगामो भवति, सिरेणं निजायमाणे देवगामी भवति, सवंगेहिं णिज्जायमाणे सिद्धिगतिपजत्रसाणे पपणते ॥ [सा० ३३] (पञ्चविधो जीवस्य निर्याणमार्गः । प्रज्ञप्तः, तयथा-पादाभ्यां उरुभ्यां उरसा, शिरसा, सर्वाङ्गैः । पादाभ्यां निर्यान् नरकगामी भवति, उरुभ्यां निर्यान् तिर्यग्गामी भवति, उरसा निर्यान् मनुष्यगामी भवति, शिरसा निर्यान् देवगामी भवति, सर्वाङ्गनिर्यान् सिद्धिगतिपर्यवसानः प्रज्ञतः) भवो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा. ३६) (१०५) पमाहिकांत-क्षण एव स सिद्धयति । उद्गच्छन्नस्पृशन्नत्या, ह्यचिन्त्या शक्तिरात्मनः ॥१५॥ अत्र च अस्पृशंती सिद्धयंतरामप्रदेशान् गतियस्य सोऽस्पृशवगतिः, अंतरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इभ्यते च तत्रैक एव समयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याऽभावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमित्यौपपातिक-- वृत्तौ [सा० ३४] । अबगाढप्रदेशेभ्योऽपराकाशप्रदेशांस्त्वस्पृशन् गच्छतीति महाभाष्यवृत्तौ (सा०३५) । यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो गच्छत्तीति पश्वसंग्रहवृत्तौ (सा० ३६)। तदत्र तत्त्वं केवलिगम्यम् । अर्थ-पां पण मोक्षे जना एवा मुनि महात्मानो आत्मा शरीरस्पी पिंजरामांथी सर्वोगथी निकळे छे ॥२४॥ श्री आणांगजीना पांचमा ठाणामां कयु छ के"जीयने (मायो) निकळबानो मार्ग ५ प्रकारनो कलो के ते मा प्रमाणेपगांधी-सापळगांधी-छातीमांधी--मस्तकमांथी--अने सर्व अंगोमाथी. लेमा पगयी निकळतो जीव नरकगामी पाय, सापळयी निकळनारो तिर्यंचगतिमा जनारो पाय, छानीमांथी निकळतो जीव पनुष्य गतिमां जाय, अने मायापांधी नीकळनारो जीव देवगतिमा जनारो होय, अने सर्वांगी निफळनारो जीर मोक्षमा अनारो को छे. " (सिद्धिगतिमां कई गनिए जीप जाय ? ते कहे के. ) जे समये भवोपनाही ( आखा भवसुधी--संसारना अंतमुधी रहेनारी अ. यानी ) कमैनो अन्न याय छे तेन समये अस्पर्शगनिए उर्वगमन करता केवली भगवान् सिरि पद पामे छे. अहि उववाह सूत्रनी वृत्तिमा कार्यु के के.-"जेनी गति ( मनुष्य क्षेत्र अने ) मोक्षनी रचमा रहेला आकाश पदेशोने पाविनानी होय ते जीष अस्पर्शगनिवाळो कवाय, कारण के बच्चेना प्रवेषो स्पर्षे छते एक समयमा सिधि न होय, अने सिरिगतिनी मासिनो एकम समय कहेलो के माटे बचमा पीजो समय नहीं थवादी वच्नेना आकाशप्रदेशोनी अस्प नाम होय है" तथा महाभाष्य वृत्तिा कर ले के -"अगाहित आकाश. प्रदेशो मियायना पीजा पाकासप्रदेशोने स्पश्य बिनाज जाय छे" नया पत्रसंग्रहपत्तिमा के के " जेटला आकाशमदेशीमा अवगाह (जीव भवगाहेलो) के Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सिद्धधमानभीवगवि-जीवसंख्याविचारः ॥ ( १०६ ) तेरलाज आकाशप्रदेशोने ऊपण अवगाहनो जाय " अहिं श्वश्री सर्व जाणे. || हवे कये स्थानथी केटला मोक्षे जाय ? ते कहे बे. ॥ एकस्मिन्समये चोर्ध्व लोके चत्वार एव ते । सिद्धयन्त्युत्कतो दृष्ट- मधोलोके मतत्रयम् ॥ ९५॥ विंशतिद्वाविंशतिश्च, चत्वारिंशदिति स्फुटम् | उत्तराध्ययने संप्रहृण्यां च सिद्धप्राभृते ॥ ९६ ॥ 'वीसमहे तवेति' (विंशतिरधस्तथैवेति) उत्तराध्ययने जीवाजीवविभक्त्यध्ययने, (सा० ३७) 'उहोतिरियलोए चउबावीस सयं' (ऊर्ध्वास्तिर्यग्लोकेषु चतुर्द्वाविंशत्यष्टोत्तरशतं) इति संग्रहेण्यां, (सा० ३८ ) । 'बीसपुहुत्तं अहोलोए' (विंशतिपृथक्ता मधोलोके ) इति सिर्द्धप्राभृते, (सा० ३९) तट्टीकायां विंशतिपृथत द्वे विंशती' (सा० ४०) इति ॥ अष्टोत्तरशतं तिर्यग्-लोके च द्वौ पयोनिधौ । नदीनदादिके शेषे जले चोत्कर्षतस्त्रयः ॥ ९७॥विंशतिश्चैक -~-~LS १ अपेक्षापूर्वक विचारत त्रणे मत परस्पर अविरुद्ध जणाय छे. २ भी उत्तराध्यनजीनी पादिवेताल श्री शान्तिसूरिजीकृत पर्यटीका ( वृहट्टीका) मां " लोप हुने समुद्दे तओ जले बोसमहे सहेब" इत्यादि गाथाने वैकाणे बीजाओ आ प्रमाणे वे गाथाओं कड़े से यम कही "चउरो उड़ढलोगमि, घोसपहु अहं लोगे ॥" इत्यादि गाथाओ लखी है, त वाधनानुसारे उत्तराध्ययनजीमां पण " अधोलोकमा २० पृथक्त्वमोक्षं जाय" तेम आशय छ इति विशेषः । आ आशय सिद्धप्राभृतने मती थाथ छे. - ३. श्री पुगच्छङ्कार मलधारी श्री अभय वे सूरि पट्टरत्नश्री हेमचन्द्रपरि शिष्यन्द्रसूरि महाराजे बाबेली मंग्रहणिनी तेमना शिष्य श्रीदेवभन्न सूरि के जेमणे श्रीमुनिसम्मसूरिमहाराजधी प्रतिष्ठा मेळवीणे रचेली टीकामलिखे छे - "श्रीसतं अलोप प प्रमाणे सिद्धमभूतम तथा 'शिनेः पृथक्त्वं विशती' प प्रमाणे तो टीकामां पाठ होषायो जो अहीं पण 'बायोमं प पदने बदले C दोषो ' प पर बोली तो सिद्धप्राभृत तथा संग्रहणि यतो संवाद मळत, आज प्रमाणेनो आशय श्रीजिनभजगणिनमाश्रमण महागजनी स्वेटो वृहत्संप्रहणिनी श्रीमलयगिरिजी महाग बनावेली टीकाम प्रक्षेष गाथाओ - खी छे तेमां ' यात्रीस महोलोए ? ए वाक्यमी टीका करतां लगे के आ गाथाने अनुमारे अधोलोकर्मा चाधीश है, पण सिद्धप्राभृतने अनुमानें विंशति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (209) ॥ श्रीः ॥ (सा० ४० ) विजये, चत्वारो नन्दने वने । पंडके द्वावष्टशतं, प्रत्येकं कर्मभूमिषु ॥ ९८ ॥ प्रत्येकं संहरणतो, दशाऽकर्म महीष्यपि । पञ्चचापशतोच्चा हो, चत्वारो द्विकरांगकाः ॥ ९९ ॥ जघन्योत्कृष्टदेहानां मानमेतन्निरूपितम् । मध्यगास्त्वेकसमये, सिद्धयन्त्यष्टो तरं शतम् ॥ १०० ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो --स्तातायीकतुरीययोः । अरयोरष्टसहितं सिध्यत्युत्कर्षतः शतम् ॥ १०१ ॥ यवस्था अवसर्पिण्यास्तृतीयारकप्रांते श्री ऋषभदेवेन सहाष्टोत्तरं शतं सिद्धास्तदाश्चर्य मध्येऽन्तर्भवतीति समाधेयम् ॥ विंशतिश्वा वसर्पिण्या:, सिद्धयन्ति पञ्चमेऽरके । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः, शेपेषु दश संहृताः ॥ १०२ ॥ (सिद्धधमानजीवसंख्या विचारः ) अर्थ- ऊर्ध्वलोफमांथी एक समयमा उत्कृष्ट ४ सिद्ध मोक्षे जाय, अने अधोकोपी मोक्षे जवा३ मत देखेला है. ॥९५॥ आ प्रमाणे - उत्तराध्ययनम २०. सङ्ग्रहणीमां २२, अने सिप्रभ्रतम ४० मोक्षे जाय एप प्रगट कहेल छे. पृथवर जावु अने ते विंशति पृथक्त्व पटले थे बीम अर्थात् चालोश प्रमाण स्पां लीधुं छे तेथी जो अहिं पण 'दोश्री महालीप' एषो पाठ लद्द तो सारी रोते घटे छे. आ बेड टीकाकारी पण सिद्धप्रभृतने संमत छे. 7 ४ श्री सिद्धप्रभृती वर्तमान टीकामां तो "श्रीसपुडुतं अहोलोप" "शिप्रभृति रानवभ्यः पृथक्त्वं अधोलोयगामेसु पयं एटलीज पाट छे, परन्तु श्री क्षेत्र भद्रसूरिमहाराजमो उपर बताये संग्रहणी टीकामां लखेला श्रीमद्धभूतकाना पाठथी श्रविनय विजयजी महाराजे उपर प्रमाण पाठ लख्यां समये छे. अथवा वर्तमानढोकामा आपेला पुरावा उपरथी प्राचीन बीजी टीका दश तेम जाय तो टीका उपरथी आमां या संग्रहणी टीकामां पाठ लोधी होय ! (तापर्य) दरेक विजयमां श्रीश मोक्षं जाय ते रेकने मत छे तो अधोलोकमां मावेली पश्चिममहा विदेहनी छेटी के विजयोमां थर चालीश मोक्षं जाय ए संगम जणाय छे, अने सेनो वंरेकना टीकाकारोप संमति आपली छे, आ प्रमाणे अमीने जणानु तात्पर्य लख्यु छे. पण यथावस्थित श्रीष्टिमहाराज जाणे, P 'जलम वर्क' ५. सिद्धप्रातसूत्र तथा टीकामां ' जले चषकं प्रमाणे पाठी छे, अर्थात पाणीमां बार जीवो मोक्षं जाय. इति विशेषः H Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CLAC (१७८) ॥द्वारभेदेन सिद्धयमानजीवसंग्न्याविचारः ॥ त्यां ॥९६|| उत्तराध्ययनना जीवाजीवविभक्ति अध्ययनमां-मज "वी. स अधोलोकमां" इत्यादि पाठ छ, अने सहणिमा-"ऊर्व अधो अने तियग्लोफर्मा अनुक्रमे चार-पावीस-पने एकसो आउ" इत्यादि पाठ छे अने सिद्धमामृतमा-"अधोलोकमां वीस पृषक्त्व" इत्यादि पाट छे. अने सिसमाभृतनी टोकामा "वीशपथक्त्व पटल ये वीश-४० "एको अर्थ करेलो छे. तियेलो. कमाथी १०८, समुद्रमांथी २, शेष नदी नद विगेरे जयशयोमाथी उत्कृष्ट १ ॥ ९७ ॥ एक विजयमाथी २०, नन्दनवनमाथी ४, पण्डकवनांशी २, पत्येक कर्मभूमिमाथी १०८ ॥ ९८ ॥ संहरणधी प्रत्येक अकर्मभूमिमांधी पण १०, पांच, धनुष्य उवी कायावाला २, चे हायनी कायावामा ४ ॥ ९ ॥ १ ममाणे जघन्योत्कृष्टदेहवाळाओर्नु प्रमाण कहयुं अने मध्यम अङ्गनाळा एक समयमा १०८ सिद्धिपद पामे छे. ॥ १०० ॥ उत्सर्पिणीना ३ जा अने अवसर्पिणीना ४ था आरामा उत्ता १०८ जीवो सिडि पामे के. ॥१०१ ।। बकी जे अबसपिजीना त्रीजा आराने छेडे(नया उत्कृष्ट अवगाहनावाळा) श्री ऋषभदेवसहित १०८ जीयो मोक्षे गया ते(१० भाचर्यमांना) आश्चर्यमा अन्तर्गत थाय के. एप समाधान करवं. अवसर्पिणीना पाँचमा आरामा २० सिदिपद पामे छ भने उत्सपिणीना तथा अवसर्पिणीना शेष आरामा संहरण करायला १० मोक्षे गाय छे. ॥१०२।। पुंवेदेभ्यः सुरादिभ्य--अच्युखा जन्मन्यनन्तरे ॥ भवन्ति पुरुषाः केचितु, स्त्रियः केचिन्नपुंसकाः ॥ १०३ ॥ स्त्रीभ्योऽपि देव्यादिभ्यः स्यु-रेवं त्रेधा सहीस्पृशः ॥क्लीधेभ्यो नारकादिभ्योऽप्येवं स्युर्मनुजास्त्रिधा॥१०॥नवस्वेतेषु भंगेषु,पुभ्यः स्युः पुरुषा १ कोइ देषना मंहरण इत्याविधी ममुत्रमा इयतां अन्नकृत् कंबलो था मोक्षे जाय अथवा प्रयम केवलज्ञान पामेला जीवने कोर पर्षभत्रनो दुश्मन देव समुद्रमा के अने आयुष्यनो अन्त आव्यो होय तो समुद्रमाथी मोक्षे जाय २ अकर्मभूमिमां युगलिको मोक्षे जना नथी माटे आदि देवादिके संहरे. ला केवली मोक्षे जर शके छे, अकर्मभूमिनी प्रेम ५६ अताईपमा मभधे छे. ३ महाविदेशमांची कोडक बैग देषे केवलि मुनिने संहरी आ भरतादि क्षेत्रमा कोइपण आरामा वन्वतमा लाये तो. ने अपेक्षाये अव० मा १, २, ६, ठा तथा उत्स• गा १, २, ५, ६ ठा आरामां पण मोन संभये छ, अब मा तीजा अने उन ना बोथा आराना छेवदना भागो भरतना जीषो पण मोक्ष जाय है. भरतनी जेम पेषतमा पण समजवं. - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ४० ) ( १०९ ) हि ये ॥ सिद्धस्यष्टोत्तरशतं तेऽन्ये दश दशाखिलाः ||१०५ ॥ दशाऽन्यभिक्षुनेपथ्या श्रुत्वारो गृहिवेषकाः । सिद्धयन्त्यष्टोत्तरशतं सुनिनेपथ्यधारिणः ॥ १०६ ॥ विंशतियोषितः क्रिञ्च पुमांसोऽ ष्टोत्तरं शतम् । एकस्मिन्समये क्लीबाः, सिद्धयन्ति दश नाधिकाः ॥ १०७ ॥ एकसमये अष्टोत्तरशतसिद्धियोग्यतासंग्रहश्चैत्रं तिर्यग्लोके १ क्षपितकलुषाः कर्मभूमिस्थलेषु, २ जाता वैमानिकपुरुषतो३ मध्यमांगप्रमाणाः ४ । सिद्धयन्त्यष्टाधिकमपि शतं साधुवेषाः ५पुमांस६ -- स्तातियो के७नियतमरके चिन्त्यतां वा तुरीये ८॥ १०८॥ अर्थ - पुरुषवेदवाळा देवादिकांची चवीने परभवर्मा (नरभवर्मा) केटला एक पुरुष, स्त्री अने केलाएक नपुंसक थाय छे. ॥१०३॥ तथा स्त्री वेदवाळी 'देवी विगेरेमाथी चवीने पण पूर्वोक्त रीते त्रणे मकारना मनुष्य थाय छे तेमज नपुंमक dearer area त्रिरेमाथी चवीने पण ए रीते जे प्रकारना मनुष्य थाय छे. || १०४ ॥ ए९ भगामांथी जेओ पुरुषपांथी पुरुष थया होय तेओ १०८, अने बीजा सर्व (आटे ) भांगावाळा १००.१० सिद्धिपद पाने छे ॥ १०५ ॥ अन्य दर्शनी वापसा दिपवाळा १०, गृहस्थवेषवाळा ४, सर्वज्ञोक्त सुनियेषने धार == १ देव-मनुष्य अने तिर्यवमांथी. २ देवी- मनुष्यणी - अने तीर्थचीथी. ३ नारक मनुष्य देव ने ४१ पुरुषधी पुरुष २ पुरुषथी श्री ३ पुरुषथी नपुंसक ९ भांगामाथी. ५ अग्न्यदर्शनी तापसादि वेषवाळा मांझे जह शके ले. पण अभ्यदर्शनमा तापसादि धर्मयात्रा मोक्षे जाय नहि कारणके मोक्ष पासवान सर्व जीवोनी मार्ग एकज छे के मम्यग्दर्शन ज्ञान वारिवनी प्राप्ति थी जाइए पछी ते बेषथी लापन हो के गये ते हो पण धर्मपरिणति तो सम्यग्दर्शनादिरूप पकज होगी जोहप अन्यथा कोइपण जीव मुक्ति पामी शके ज नहि. ६ अ पण दे गृहस्थनों होय परन्तु स्वाभाविक ते वैराग्य परिण ति यह सम्यक् चारिवती प्राप्ति थतां अन्तकृत केवल यह मोक्ष सह शकेछे. अहिं तापसा विशेषमां अने गृहस्यत्रेषमा केवलज्ञान उत्पन्न थाय अने आयुष्य अन्तर्मु मात्र बाकी होय तो तापसारिवेष मोक्ष होड़ शक छे. अन्यथा तिर्ययमांथी ( नव भांगानुं यत्र ) ४ स्त्रीथी पुरुष ५. स्त्रीधी स्त्री ६ स्त्रीथी मपुंसक ७ नपुं०थो पुरुष ८ नपुग्यो स्त्री २. मपुं० श्री नपुं० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) || सिद्धधमान जीवसंख्या मुक्तिक्षेत्रागाविचारः ॥ ण करनार १०८ सिख थाय छे. ॥ १०६ ।। बळी स्त्रीयो २० पुरुषो १०८, अनै नपुंसक १० सिद्ध थाय छे. पण अधिक नहिं ॥ १०७॥ एक समयमा १०८ सिद्ध. थाय तेवी योग्यतावाळा जीवोनो संग्रह आ प्रमाणे छे – विर्यग्लोकमांकfi (पुंलिङ्ग) वैमानिक देवोपांथी आवेला मध्यम अङ्गना प्रमाणवाळा ४साधु वेषवाळा ५ पुरुषो ६ निधी (उत्सर्पिणीना) श्रीजे ७ अथवा ( असर्पिणीना) चोथे आरे ८क्षपित कर्मवाळा या छतां एक समयमा १०८ मोसे जाप छे. एम जाण ॥ १०८ ॥ ॥ सिद्धपरमात्मा केवी रीते रह्या बे ? ते कहेवाय बे. ॥ यत्रेको निर्वृतः सिद्ध-स्तत्रान्ये परिनिर्वृताः । अनन्ता "नियमालोक - पर्यन्तस्पर्शिनः समे ।। १०९ ।। अयमर्थः ॥ संपूर्णमेकसिद्धस्या--ऽवगाढक्षेत्रमाश्रिताः । अनन्ताः पुनरन्ये च तस्यैकैकं प्रदेशकम् ॥ ११० ॥ समाक्रम्यावगाढाः स्युः, प्रत्येकं तेऽप्यनन्तकाः । एवं परे द्वित्रिचतुः - पञ्चायंशाभिवृद्धितः ॥ १११ ॥ तथा ॥ सिद्धावगाहक्षेत्रस्य, तस्यैकैकं प्रवेशकम् । त्यस्त्रास्थितास्तेऽप्यनन्ता, एवं व्यादिदेशकान् ॥ ११२ ॥ एवं च|| प्रदेशवृद्धिहानियां येऽवगाढा अनन्तकाः । पूर्णक्षेत्रावगाढेभ्यः स्युस्तेऽसंख्यगुणाधिकाः ॥ ११३ ॥ ततश्च ॥ एकः सिद्धः प्रदेशः स्वैः समत्रैरतिनिर्मलैः । सिद्धाननन्तान स्पृशति व्यवगाढेः परस्परम् ॥ ११४ ॥ तेभ्योऽसंख्यगुणान् देश-प्रदेशैः स्पृशति ध्रुवम् । क्षेत्रावगाहनाभेदे - रन्योन्यैः पूर्वदर्शितः ॥ ११५ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनायामौपपा ↑ अधिक आयुष्य होते छते अवश्य माधु वेव अंगीकार करे पत्रो नियम sोषार्थी स्वलिंगे मोक्ष यह शके छे, ( अहिं कुर्मापुत्रादि कोइ जीव अपनारूपे होय, कारण के कूर्मापुत्र गृहस्थ केवलिने ६ मास सुधी ज्ञानिये तथाभाष देय होवाथी साधुषेष प्राप्त थयां नथी ए आश्चर्यरूप जाणवु ) ३ आठ विशेषणो पैकी कोलतो एक जहां माटे मारामांची एक पण म्यून विशेषण होय तो एक समयमा १०८ नो मोक्ष न थाय प तात्पर्य Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसनाडीनी उपरनो भाग १५- १८ प्रदेश हानि वृद्धिएर खेला उर्ध्वक्षेत्र वर्ति अनन्त सिध्यावगाहनानुं दीर्घ क्षेत्र ४५ लाख योजन आनन्द प्री प्रेस– भावनगर. अलोका काश सिध्द्धशिला अने सिधान गांड क्षेत्र थी वचलो भाग इसेगुल हे गाउडि ४५ लाख भोजन लांबी मध्यमायोजन जाड़ी सिध्ध शिला बस नाडीनां उपर ना भाग..... उपरनी सिथावगाहनामां मध्यो जाडो वन समाथगाही अनन्त सिध्धांनी पिंड जाणी. ने मध्य मर्नुली अंदर आयेला पावली रेखाचा का आजुबाजु .ना बीमा वर्तुल प्रदेश की हानि वृद्धि रहेका बीजा अनन्त सिध्धी जाणया । : आ सर्व सिध्ध भगवंनो उपरना लोका से स्प Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाश द्वितीयः सर्गः ॥ (सा. ४३) (१११). -तिके आवश्यके च||फुसइ अणन्ते सिद्धे, सव्वपएसेहिं नियमसो सिद्धो । ते वि असंखिज्जगुणा, देसपएसेहिं जे पुछा ॥१॥ [सा०४१-४२-४३](स्पृशति अनन्तान् सिद्धान्, सर्वप्रदेशैः नियमतः सिद्धः । तेऽपि असख्येयगुणा, देशप्रदेशैर्ये स्पृष्टाः ॥) अर्थ--जे स्थाने एक जीव मोक्षे गयो होय नेन स्थाने घोजापण घणा जीवो मोक्षे गया होय छे, अने ते सर्व अनन्तसिद्ध निश्चयथी लोकना जन्तिनेज स्पर्शनारा होय छे. ॥ १०९॥ अर्थात संपूर्ण एक सिद्धना अवगाह क्षेत्रमा वीजा अनन्न सिद्धो ( तेटलीज अवगाहनाए ) अवगाहेला छे. वली तेओना [ संपूविगाही सिद्धोना ] एकेक प्रदेशने आक्रमीने ( दात्रीने) ॥ ११० ।। प्रत्येक प्रदेशे पण जे सिद्धो अवगाही हेल के ते पण अनन्त अनन्त छ. ए प्रमाणे वे श्रण चार पांच इत्यादि प्रदेशद्धिए आक्रमी रहेला सिन्ही पण प्रत्येके अनन्त अनन्त छ. ॥ १११ ॥ तथा ते सिद्धना अवगाहक्षेत्रमा एकेक प्रदेश छोडीने रहेला जे सिद्धोते पण प्रत्येक अनन्न अनन्त छ. ए प्रमाणे बेत्रण इत्यादि प्रदेशो छोडीने रहेला सिखो पण अनन्त अनन्त छे. ॥ ११२ ॥ ए प्रमाणे प्रदेशनी हानि वृद्धिए अवगाहला सिद्धी संपूर्ण क्षेत्रअवगाही सिद्धोयी असंख्यगुण जेटला अधिक छे. ॥ ११३ ॥ अने तेथी एक सिद्ध पोताना अति निपल अने परस्पर अवगाहेला सर्व आत्मपदेशोवडे अनन्तसिबने स्पर्श . ।। ११४ ॥ अने पूचे द. शपिला भिन्न भिन्न क्षेत्रावगाइनाना भेदोरूण देश अने प्रदेशोवदे निश्चय तेथी पण असंख्यगुण सिखोने स्पर्श छ. ।। ११५ ।। श्री प्रज्ञापनामन्त्रमा उववाइ सूत्रमा अने आवश्यकजीमो कछु के के-" निश्ययी एक सिद्ध सब प्रदेशाग्रबड़े अनन्तसिद्धने स्पर्श के, अने १ आ स्याने प्रदेश पटल आमादा नहि पण आकाशप्रदेश जाणवो. कारणके अन्यमियोप आक्रान्त करेल त सिजायगाढ आकाशप्रदेश एक वे त्रण इत्यादि संख्यावाळा , पण आकानन करेला आत्मप्रदेशो ती मयंक असंख्य असंख्यज छ.ते शिवाय लोकप्रदेशसरस्य प्रीत्रप्रदेशो सेटलामा न रहे. २ एक मिना अवगाहेला आकाशप्रदेश अमेग्य है. ने प्रत्येक आकाश प्रदेशने आशमीने अनमत अनन्त मिथ अषगाहेला छ तो प्रदेशहानिवृद्धि प रहेला सिद्ध संपूर्णानगाही अनम्तसिद्धथी असंख्यगुण अनन्त था शक छ, ३ अर्थात् संपूर्णावगाही सिद्धोनी माथे परम्पर अवगाहेला. ४ " मर्य आत्मप्रदेशो बडे " पटल सर्व मान्मप्रदेशात्मक कन्धयडे ५ मंपूर्णावगाही अनन्तमिदने स्पर्श के. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (११२) । सिदिक्षत्रांस्पांसद्धजीवस्वरूप विचारः ॥ देश तथा प्रदेशबहे स्पर्शायला जे सिरो ते तेनायी पण असंरूपगुणा " ॥१॥ . थशरीरा जीवघना, ज्ञानदर्शनशालिनः । साकारेण निराकारे-णोपयोगेन लक्षिताः ॥११६॥ ज्ञानेन केवलेनैत, कलयन्ति जगत्त्रयीम् । दर्शनेन च पश्यन्ति, केवलेनैव केवलाः ॥११७ ॥ पूर्वभवाकारस्था-न्यथाव्यस्थापनाच्बुषिरपूया। संस्थानमनित्थंस्थ, स्थादेषामनियताकारम् ।। ११८ ॥ केनचिदलांकिकेन, स्थितं प्रकारेण निगदितुमशक्यम् । अत एव व्यपदेशो, नैषां दीर्घादिगुणवचनैः ॥११९।। तथाहुः--*"से न दोहे, न हस्से, न वट्टे" इत्यादि(सा०४४)(सन दीर्घः, न ह्रस्वः,न वृत्तः)[पमा संस्थानं ह्याकारः,स कथममर्तस्य भवति सिद्धस्य ? । (अत्रोच्यते ) परिणामवत्यमर्ने-ऽप्यसौ भवेत्कुम्भनमसीव ॥ १२० ।। पूर्वभवभाविदेहा-कारमपेक्ष्यैव सिद्धजीवस्य । संस्थान स्यादौपा--धिकमेव न वास्तवं किञ्चित् ॥ १२१ ॥ तथाहुरावश्यकनियुक्तिकृतः॥उँगाहणाई सिद्धा, भवतिभागेण हुन्ति परिहीणा । संठा. पमणित्थत्थं, जरामरणविप्पमुक्काणं ॥१॥ उत्ताणओ व पासिलथो व अहवा निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं, सो तह उववजए सिद्धो ॥२॥ इहभवभिन्नागारो, कम्मवसाओ भ *से म दो २, म इस्ले २, म बट्टे ३,न तसे न चउरले ५, म परिमबले ६, न किण्हे ७. म नीले ८, न लोहिप ९, न हालिहे १०, न मुक्किाले ११, म मुरतिगंध १३. मदुरहिगधे १३, न तिते १४, न ऋतुप १५, न कसाप १६, न अम्बिले १७, न महुरे १८, न करखडे १५. न माप, २०, न गहए २१, मल-' हुए २२, न सीप, २३ व २४, न गिद्धे २५, न लुखम्ये २६. न काउ २७, न कहे, २८ म संगे,मास्थी, २९ पुगिसे,३० न अन्नहा३२. परिम्नेसम्ने (आचारांग अध्ययन ५. उद. ६. ) आवश्यकशिमा 'न मंग प पर नथी नया म भम्नाहा ने बदल 'न नपुसे प पर छ. अर्थ बेउनो पका छे. जेथी मिद परमात्मामा ५ संस्थान. १ स्थपणु, २ षर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श; १ काग, । उगदापणु, ३ घेदप पकनीश दोषना अभावकप पकनीश गुणों के. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकभकाशे छिनीयः सर्गः ॥ (मा० ४५) (१३) । वन्तरे होइ । न यतं सिद्धस्स जओ, तंमी तो से तपागारो ॥३॥ जं संठाणं तु इहं, भवं चयन्तस्त चरमसममि । थासीय पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ॥४॥ (सा०४५) (अवगाहनया सिद्धा भवत्रिभागेन भवन्ति परिहीणाः । संस्थानमनिस्र्थस्थं जरामरणविषमुक्तानाम् ॥१॥ उत्तानको वा पृष्ठतो [पार्श्वस्थितो ], वा अथवा निषण्णश्चैव | यो यथा करोति कालं, स तथा उपप यते सिद्धः ॥ २॥ इहभवभिन्नाकारः, कर्मवशात् भवान्तरे भव ति। न च तत् सिद्धस्य यतः,तस्मिन् ततः स तदाकारः ॥३॥ यत् संस्थानं तु इह, भवं स्यजतः चरम समये । आसीत् प्रदेशघन,, सत् संस्थानं तत्र तस्य ॥४॥) ( सिद्धजीवस्वरूपविचार ) अर्थ-शरीररहित, जीवप्रदेशोवढे घन ( निबिड ), ज्ञानदर्शनयुक्स, अने साकार नशा निराकार उपयोगरूप लक्षमा १६ । अर्थात् ज्ञानदर्शनलक्षणयुक्त ) एवा ए सिकपरमात्माओ केवलझाने करीने त्रणे अगतने जाणे के, अने केवल दर्शनबढे समरत जगन्ने देखे छे. ॥ ११७ ॥ पूर्वभवां मिलना जीरन जे आकार हतो ने देहना पोलाण भागो पूरती बखते जुदा प्रकारनो पइ जबाथी ए सिखोर्नु अनियमिन आकास्वाळु अनित्यस्य संस्थान होप के. ॥ ११८ । अर्थात् कोई अलौकिकप्रकारे रहेलु अने ( " अमुक प्रकारनुं छे " एम) कहेवु अशक्य छ, प हेतुपीज ए सिद्धोनो ( अथवा सिडना संस्थानना) दीर्यादिगुणवाळां वचनोद्वारा ( एटले आ दीर्घ छ आ चतुरस्र के इत्यादि ) 4प्रदेश थनो नथी. ॥ ११९ ॥ कछु के के-" ते दीर्घ नथी. ते हस्ष नधी, १ पकक प्रदेशनी हानिवृद्धिथी उत्पन्न थपला, २ उपारे योगनिरोधकाळमां सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति मामर्नु शुक्लध्यान प्राप्त थाय छ ते घखते उदर-मुख विगरे पोलाण भागमां पण आत्मप्रदेशी व्याप्त थाय छ जेयी केवलिनी आरमा संकोचाइने २ भाग क्षेत्रमा ( पटले ९ हाथमी काया वाटा आम्मा ६ हाथ प्रमाण ) रहे रहे. ३ अन् नहि इत्या प्रकारचें स्थ-रहलु हे. अर्थात् ' आपकान छे" पवा व्यपदेशने अयोग्य ने अनिस्यस्थ, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) www.i ते गोळ नधी " इत्यादि, प्रश्न संस्थान एटले आकार ते अरूपी वा सिद्ध परमात्माने केम होय ? उत्तर-- परिणामश्रवाळा एवा अरूपी पदार्थमां पण घटाकाशनी पाफक संस्थान कहेवाय के ॥ १२० ॥ पूर्वभवमाप्तथयेला शरीरना आकारनी अपेक्षाए सिद्धपरमात्माने पण औपाधिक न संस्थान होय छे. परन्तु वास्तविक नहिं ॥ १२१ ॥ ( श्रीववाहय सूत्रां पण तेज भाव छे.) ॥ सिद्धावस्थाभीवस्वरूप विचारः ॥ 74-6-11 श्री आवश्यक नितिकारे कथं छे के" सिपरमात्मा अवगाहनाकरीने पूर्वभवनी अवगाहनाथी बीजे भागे न्यून होय छे, अने जरा मरण रहित एवा सिद्धो अनित्थंस्थ संस्थान होय है ॥१॥ चत्ता अथवा उंधा (वा पाच बा ळीने) सतेला, अथवा नि ठेला वा केवलिभगवान जे जेवा रीते (जेवी अबस्थापकाळ करे तेतेवीज रीते सिद्ध थाय ||२|| जीव कर्मना वशयी आ भवधी भि आकारवाळो भवान्तरमा भने छे.ते कर्म सिडने छे नहिं, ते कारणथी (अहिं जे आकारवाळो जीव हतो) तेज आकारे ते सिद्ध अवस्थामां थाय छे. ॥३॥ अर्थात् आ भवने त्याग करता एवा जीवनो अन्त्य समये जेवो आकार ( पोळाण भाग पूरी वखते थयेलो ) इतो नेवाज आकारे आत्मप्रदेशनो घन सिने पण सिद्धि गतिमां होय के " ||४|| (जवन्यादिभेदेन सिद्धावगाहनादिविचार) > शतानि त्रीणि धनुषां त्रयस्त्रिंशद्धनूंषि च । धनुस्त्रिभागश्च परा, सिद्धानामवगाहना ।। १२२ ।। जघन्याष्टांगुलोपेत-हस्तमाना प्ररूपिता । जघन्योत्कृष्टयोरंत - राले मध्या त्वनेकधा ।। १२३ ।। षोडशांगुलयुक्ता या, मध्या करचतुष्टयी । आगमे गीयते सर्व - मध्यानां सोपलक्षणं ॥ १९४ ॥ प्राच्ये जन्मनि जीवानां या भवेदवगाहना । तृतीयभागन्यूना सा सिद्धानाम: वगाहना || १२५ ॥ उत्कृष्टा च भवे प्राच्ये धनुः पंचशतीमिता । मध्यमा च बहुविधा, जघन्या हस्तयोर्द्वयं ॥ १२६ ॥ जघन्या सप्तहस्तेव, जिनेंद्राणामपेक्षया । त्र्यंशोनत्वे किलैतासां ताः स्युः सिद्धावगाहनाः।। १२७॥ एतदभिप्रेत्येवोपपातिकोपांगे उक्तं ॥ जीवा णं भंते सिज्झमाणा कयरंमि उच्च त्तेसिज्झंति, गो०जहण्येणं सन्तरयणीए । " " Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकमकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ५१) (११५) उकोसेणं पंचधणुलइए सिज्झंति॥ (जीवा भदन्त ! सिद्धधमानाः कतरस्मिन् उच्चत्वे सिद्धयन्ति? । गौतम ? जघन्येन सप्तरत्नों, उत्कृष्टेन पञ्चधनुःशयां सिन्तिा )(सा०४६)मरुदेवा कथं सिद्धा नन्वेवं जननी विभोः। साग्रपंचचापशतो-तंगानाभिसमोच्नया? ॥१२८ ॥ संघयणं संठाण, उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं समं ॥ (संहननं संस्थानं,उच्चत्वं चैव कुलकरैः समम) इति वचनात[सा०४७] शत्रोच्यते ॥ स्त्रियो हात्तमसंस्थानाः, पुंसः कालाहसंस्थितेः। किंचिनप्रमाणाः स्यु- भेरूनोच्छयेति सा ॥ १२९ ॥ गजस्कंधाधिरूढत्वा-मनासंकुचितेति वा । पंचचापशतोच्चैव, सेति किचिन्न दुषणम्॥१३०॥अयं च भाष्यकृदभिप्रायः ॥(सा०४८)। सं. ग्रहणीवृत्त्यभिप्रायस्वयं।यदिदमागमे पंचधनुःशतान्युत्कृष्टं मानमुक्तं तबाहुल्यात्,अन्यथैतद्धनुःपृथक्वरधिकमपि स्यात्,तञ्च पंचविशस्यधिकपंचधनुःशतरूपं बोद्धव्यम् (सा० ४९) सिद्धप्राभूतेऽप्युक्तं ॥ ओगाहणा जहण्णा,रयणिदुगं वह पुणाइ उकोसा । पंचेव धणुसयाई, धणुअपुहुत्तेण अहियाई ति ॥ (अवगाहना जघन्या, रलिहिकं अथ पुनः उत्कृष्टा। पञ्चैव धनुःशतानि, धनुःथक्त्वेन अधिकानि इति ।। (सा० ५० ) एतद्वृत्तिश्च-पृथक्त्वशब्दोऽत्र बहुत्ववाची, बहुत्वं चेह. पंचविंशतिरूपं द्रष्टव्यमिति । (सा० ५१)[धणुपुहुतेण अहियाई मरुदेवीकालवत्तीण मुवृ०] अर्थ-सिद्धपरमात्मानी उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष्य अने धनुष्यनो श्रीजो माग ( एटले १ हाथ ने ८ अङ्गुल ) होय छे ।। १२२ ॥ अने जघन्य अवगा १. ५०) धनु० नो २ भाग ( ५००४ -३ -२०००-३३३, धनुष्य. ) . २ २ साथमा २ भाग ( २४ ----१. हाथ-१ हा.-८ अं. ) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ॥ सिद्धावगाहना-मरुदेषावगाहनासमाधानविचारः ।। हना आठ अङ्गुल सहित एक हाथनी (पटले १ हाथ-८ अनुल) होय . तथा ए जय० अने उत्कृ० बेनी बच्चेनी मध्यम अवगाहना अनेकप्रकारनी होय छे. ॥ १२३ ।। सिद्धतिमा जे १६ अंगुल सहित चार हाबनी ( ४ हाय-१६ अङ्गु. W) मध्यम अवगाहना गणाय , ते सर्व मध्यम अवगाहनाओना उपलक्षणवाळी जाणवी, ॥ १२४ ॥ पूर्वभवमा जीवनी जे अवगाहना होय तेनो श्रीनो भाग न्यून सिद्धपरमात्मानी अवगाहना होय. ॥ १२५ ॥ पूर्वभवर्मा (मोक्षेजनार) जीवनी उत्कृष्ट अनगाहना ५०० धनुष्य, मध्यम अवगाहना अनेकमकारनी ( ५०० थी न्यून भने ४८ अङ्गलयी अधिक ), अने जघन्य अवगाहना २ दापनी होय छे ॥१२६नया तीर्थकरोनी अपेक्षाए जघन्य अवगाहना ७ हाय प्र. पाण होय,ते सर्वनो श्रीजो भाग न्यून करवाथी से ते अवगाहनाओ सिद्धपरमास्मानी थाय ।। १२७ ।। ए अभिप्रायथोज उववाइ उपांगमां कहां के के"मोक्षे जता जीयो हे भगवन् ! केदली उंचाई होते छते मोक्षे जा. प? जवाय-हे गौतम ! जघन्यथी ७ हाथना अने उत्कृष्टथी ५०० धनुष्य उचाईमां [जीवो ] मोक्षे जाय." प्रम-जो ए प्रमाणे छ सो नाभिरामाना जेटली सवा पांचसो पनुष्प (५२५ धनु. ) उचाइ वाळो श्रीऋषभदेवप्रभुनी माता मरुदेवा केवी रीते मोक्षे मर्या ? ॥ १२८ ॥ श्री आवश्यकनियुक्तिमां कंधु छ के-( कुलगरनी स्त्रीओनु) "संघयण-संस्थान-अने संचाइ निश्चय कुलगरो जेटली होय छे" ५ बचनयी ( ५२५ धनु० उषां मरुदेवा केम मोशे जाय ?) । उत्तर-" उत्तम संस्थानवाळी स्त्रीयो ते काब्ने योग्य संस्थानवाळा पु. रुषो करतां कंइक न्यून प्रमाणवाळी होय . ए प्रमाणे ते मरदेवा मामानी अबगाहना ५०० धनु० प्रमाणज हती. ॥ १२९ ॥ अथवा हस्तिना स्कन्ध उपर पेठेल होवाथी कंइक संकोचायली कायाबाळां एवा महदेवा माना ५०० धनुष्पा उचां इतां माटे कोइपण विरोध नपी." , १३० ।। ए अभिप्राय भाष्यकर्ता ३ जे पक मध्यम अषगाइनानुं नाम लेवाथी पीजी सर्व मध्यम अवगाहनाओ अध्याहारथी प्रहण थाय माटं अहिं जिनेन्द्रसिधोनी जे ४ हा०-१६ अंगुल अघ० अवगाहमा ते सवं जीवोनी अपेक्षाण मध्यम अवगाहना होवायी पर्नु ज उपलक्षण करेल छे. जैम चूला उपर रांधषा मूकेला घोडाभी संपेलो. माथी पक चोखानो वाणी दायी जोषाथी तमाम वाणाओनी दीलाश ममजी शकाय छ तेनु नाम उपलमण कहेपाय छ, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापनम्रता । लोकमकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ५१) (११७, नो कयो अने संग्रहणीवृत्तिनो अभिप्राय तो आ प्रमाणे छ के -" आगमा जे ५०० धनुष्य उत्कृष्ट प्रमाण का छे, ने बहुलनाए जाणवं, अन्यथा ए प्रमाण धमुख्यपृथवत्व अधिक पण होय अने ते अधिक प्रमाण ५२५ धनुष्यरूप जाणवू" सिद्धप्राभृतमां पण कइयु छेके-"जघन्य अवगाहना २ हायनी अने उत्कृष्ट अवगाहना धनुण्यपृथक्त्व अधिक ५०० धनुष्य पण जाणवी,"सिद्धपाभूतनीवृत्तिमां"पृथक्त्वशब्द अहिं बहुत्ववाचक छे, अने ते बहुत्व (अश्किता) अहिं २५ रूप जाणवी" ए प्रमाणे कधं छे. (आमिद्ध्यमानजीवपूर्वावस्था विचार ॥) आघसंहनना एव, सिद्ध्यन्ति न पुनः परे । संस्थानानां त्वनियम-स्तेषु षट्स्वपि नितिः ॥१३१. पूर्वकोटवायुरुस्कपति,सिद्धयेनाधिकजीविनः (तः) जघन्यान्नववर्षायुः, सिद्धयन्न न्यूनजीविनः [तः] ॥१३२॥ द्वात्रिंशदंता एकाद्या-श्चेत्सिद्धयति निरंतरम् । तदाष्टसमयान याव-नवमे खंतर ध्रुवं ॥ १३३ ॥ अष्टचत्वारिंशदंता-- स्त्रयस्त्रिंशन्मुखा यदि । सिद्धयन्ति समयान् सप्त, ध्रुवमन्तरमष्टमे ॥ १३४|| एकोनपञ्चाशदायाः, षष्टयन्ता यदि देहिनः । सिद्भयन्ति समयान् षड वे, सप्तमे त्वन्तरं भवेत् ॥ १३५ ।। एकषष्टिप्रभृतयो, याचहासप्ततिप्रमाः। सिद्धयन्ति समयान पंच, षष्ठे त्ववश्यमन्तरम् ॥१३६।। त्रिसप्ततिप्रभृतय-श्चतुरशीतिसीमकाः । चतुरः समयान् यावत्, सिद्धयन्त्यप्रेतनेतरम् ॥ १३७॥ पंचाशीत्याद्याःक्षणांस्त्रीन्,यान्त्याषण्णवतिं शिवम् क्षणी सप्तनवत्याद्या, द्वौ च घ्याव्यशतावधि ॥१३८॥ त्रयाधिकशतायाश्चे-द्यावदष्टोत्तरं शतं । सिद्धयन्ति चेकसमय, द्वितीयेऽवश्यमन्तरं ॥ १३९ ॥ जघन्यमन्तरं स्वेक-समयं परमं पुनः । षण्मासानास्ति सिद्धानां, च्यवनं शाश्वता हि ते ॥ १४०॥ सर्वस्तोकाः क्लीवसिद्धा-स्तेभ्यः संख्यगुणाधिकाः । स्त्रीसिद्धाः पुनरेभ्यः पुं--सिद्धाः संख्यगुणाधिकाः ॥ १४१ ॥ सर्वस्तोका दक्षिणस्या-मुदीच्यां च मिथः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) ॥ सिद्धयमानीवपूरस्था-सिद्धाभबिधारः ॥ समाः । प्राच्या संख्यगुणाः पश्चि-मायां विशेषतोऽधिकाः ।।१४२॥ पुनः प्रथमसंघयण ( पञऋषभनाराच ) बाळा ज सिद्धिपद पामे छे. पण पीना( पांच संघ. पोळा ) नहि. अने संस्थाननो नियम नथी कारण के छए संस्थानमां मोक्ष होय छे. ।। १३१ ॥ बळी उत्कृ. पूर्वकोडि आयुष्याला मोक्ष पामे के पण एयी अधिक आयुष्यकाळाओ नहि. अने . जघन्पधी ९ वर्षना आयुध्यबाळा मोक्ष पामे छे. पण पथी अल्प आयुष्यवाला नहि ॥१३२॥ ॥ कइ संख्याए केटला समय सुधी मोक्षे जाय ? ते कहे . ॥ ? थी ३२ मुधीनी संख्यावाळा जीवो जो पोक्षे जाय तो निरन्तर (लगोलग ) आठ समप सुधी पोक्षे जाय त्यारवाद नवमे समये निश्चयथी अन्तर पड़े ( अर्थात् कोइ मोक्षे न जाय ) ॥ १३३ ॥ ३३ थी ४८ सुधीना मोक्षे जाय तो निरन्तर ७ सपय सुधी जाय अने आठमे समये निथय अन्नर पढे || १३४ ॥ ४९ थी ६० सुधीनी संख्यावाला जीवो जो मोक्षे जाय नो निरन्तर ३ समय मुधी जाय अने सासमे समये अन्तर पहे ॥ १३५ ॥ पुनः ६१ थी ७२ सुधीना पांच समय सूवी मोक्षे जाय अने छठे समये अवष्य अन्नर पड़े ॥ १७६ ॥ ७३ थी ८४ सुधीना चार सय सुधी मोक्षे जाग अने पांचमे समये अन्तर पडे ॥ १३७ ॥ ८५ यी ९६ सधीना ३ समय मुधी मोक्षे जाय, ९७ थी १०२ सुधीना के समय मोक्षे जाप ॥ १३८ ॥ अने १०३ यी १०८ सुधीना समय मोक्षे माय अने पीजे समये अवश्य अन्तर पडे. ॥ १३९ ।। १ भीस्थामांगसूत्रवृत्तिमादिमां श्रीअभयदेवमूरि आदि आचार्य भगवती यतीसा अडयाला, मठ्ठी बायत्तरी य, वोद्भवा । चुलमोह छुण, दुरदियमत्सरसयंच ॥१॥ प प्रमाणे श्री जिमभद्रगणिक्षमाश्रमण भगवम्तनी गाथा लखी सेभी टीका करतां उपरनो विचार दाधी घिशपमा नीचे प्रमाणे भाष अणावे छ, “वीजा आचार्यों आ गाधानो अर्थ पम पण करे छे के. जो आठ लमय सुधी निरन्तर सिद्धिप्रवाह चालु रहे मो पहेले समये १ थी ३२, पीजे लमये १ थी ४८, पीजे १ थी ६०, चौथे १ भी ७२, पधिमे १ थी ८४, छट्टे १ थी ९६, मातमे १ थी १०२, अंने आठमे ममये १ थी १०८ सुधी जीयो मोक्ष जाय अने नवमे समय अन्तर पडे, आ ज प्रमाणे जो निरन्तर सात समय सिद्धि प्रवाह चाले तो पहले समये १ थी ५८, बीजे १थी ६०.प्रोजे १थी ७२, चोथे १ थी ८४, पांच में १ थी ९६, छठे १ थी १०२ अने सानमे ममये १ यो १०८ सिद्ध संख्या जाणत्री, आज गतिधी निरन्तर छ ममय Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकमकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा०५१) (१९९) सिद्धिमा । यावत् ६. सुधी थी शमआत करवी, पांच समयमा १ यापन पी. बारसम्पादो , म समयमा १ यावत् ९६ थी, बे समयमा १ यात्रत १०२ पी शराप्त करबी अने एक समयमा १ यावत् १०८ जीयो मोक्षे जाय पछी निश्चये अन्तर (विरह) प?" विशेष स्वरूप मिकासुप श्री स्थानांग सूत्रवृत्तिथी जोड़ ले, बळी श्री जिनभावगणि क्षमाश्रमण भगवासी रथेली श्रीवृहन्म प्रहणिनी श्रीमलयगिरि आचार्य भगवन्ते । व. नावेली वृत्तिमा उपरोक गाथानी टीकामा परही विशेष छे के " जी आठ समय सुधी निरन्तर सिद्धि होय तो प्रथम समये १ थी ३२ सुधीनी कोर पण अनियत संख्याये सिद्धि धाप, घोजे यायत, माठमे समरे पण तेज प्रमाणे १ थी ३२ सुधीनी कोरपण अनियत संग्यायेमिदिपद पामे, अने नवमै समये अन्तर पटे,तेमज जो सास समय सुधी सिद्धि प्रवाह चालु रहे सो प्रथम समये ३३ थी ४८ अथवा १ थी ४८ सुधोनी काइपण अनियत संख्याये सिद्धि पर पामे, तेज प्रमाणे बीजें यावत् सातमे समये पण ३३ थी ४८ अथवा १ थी ५८ सुधीनी कोइपण अनियत संख्याये मोक्षे जाय अने आठमें समये अवश्य अन्त. र पदे. तेम विचारवं, ( अहीं सात समयनी निरन्तर सिद्धि होय न्यारे सात पैकी कोरपण पक समये तत्समयमयख जणावेली ३३ थी ४८ पैकीनी संख्या मोक्ष जधी जाइए अन्यथा आट समय भने सात समयनो भेद न रहे सेम संमत्रे छ, के प्रमाणे आगळ पण विचारवं) आज शैलीयी छ समय निरन्तरमां ४९ थी ६० अथवा १ थी ६०, पांच लमयमा ६५ थी ७२ अथवा १ थी ७२, चार समयमा ७३ थी ८४ अथवा १ थी ५४, Uण समयमा ८५ थी ९६ अश्या १ थी ९६, बे समयमा ९७ थी २०२ अथवा थी १०२, अने पक समयमां १०३ थी १०८ अथवा १ थी १०८ जीबी सिद्धि पद पामे, पछी अवश्य अन्तर पडे, बळी केटलाक मीचे विलो विचारमंभष पण बनी शके नम अणाधे छे. " माठ समय निरन्तर सिद्धि प्रघाड चाललो होय म्यारे अर्याप्त प्रथम समये १ जीव मोक्षे गयो, श्रीजे समये १ जीष मोक्ष गयो, श्रीजे समये पण ३, चौथे समये पण यायत आठमा समप सुधी १-१ मोक्षे आ शके त्यारवान नवमे समये अन्तर पडे, प प्रमाणे पहेले समये २, बीज समये २ यावत् आठमा समय सुधी थे वे ( २-२) जीत्रीनो मोक्ष चालु रहे ने नवमे समये कोइ पण जीव मोक्ष न जाय. प रीते पण प्रणनी-चार चारनी थावत् ३२-३२ सुधीनी संख्यावाळा जीयो आठ आठ समय सुधी मोक्ष जा शके अने ९ मे समये अवश्य विरद्ध पहे अर्थात् कोरपण मोके न जाय, आ ज शलीये सात समयसिधि आदिमा ३३ विगैरेथी ४८ विगेरे सुधी अथवा १ विगैरेथी ४८ विगेरे सुधीनी संख्या लैंधी, तस्य श्रीकेलि महाराज जाणे. ( प्रन्योक्त निरन्तर सिद्धि संख्यायन्त्र.) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) ॥ निरुपमसिद्धजीवमुखविचारः ॥ सिद्धगतिर्नु अघ० अन्वर १ समय अने ३० असर ६ मास सुधीर्नु छे. वळी सिद्धपरमात्माने च्यवन (सिद्धिगतिमाथी पुनः संसारमा आगमन )मो छे ज नहिं कारणके तेभो शाश्वत ( सादि अनन्त ) स्थिनिवाळा है. ॥ १४० ॥ (आ प्रमाणे निरन्तरसिद्धसमय संख्या तथा अन्तर-विरह कलो) सर्वथी अल्प नपुं० लिंगे सिद्ध छे, तेथी संख्यातगुण सीलिंगे सिद्ध के, यो पण संरूपातगुणा पुरुषलिंगे सिद्ध के ॥१४॥ अथवा बीजी रीने-सषयी अल्प दक्षिण अने उत्तर दिशामा ययेला सिद्ध छे, अने ते परस्पर तुल्य छे. नेयी संख्यातगुणा पूर्वदिशामां बयेला सिद्ध छे. अने तेथी विशेषाधिक [संपूर्ण बमणा नहिं ] पचिपदिशामां थयेला सिद्ध के. ॥१४२।। ( अल्पबहुत्व कई.) ॥ सिद्धपरमात्माना अनंतसुखनुं वर्णन ।। न तत्सुखं मनुष्याणां, देवानामपि नैव तत् । यत्सुखं सि. जीवानां, प्राप्तानां पदमव्ययम् ॥१४३॥ कालिकानुत्तरान्सनिर्जराणां त्रिकालजम् । भुक्तं भोग्यं भुज्यमान -मनन्तं नाम य सुखम् ॥ १४४ ॥ पिंडीकृतं तदेकत्रा-ऽनन्तर्वर्गश्च वर्गितम् । शिवसौख्यस्य समता, समते न कदाचन ॥१४५॥ सर्वाद्धा. पिडितः सिद्ध--सुखराशिविकल्पतः। अनन्सवर्गभक्तोऽपि, न मा१ थी ३२-८ ममय ७३ भी ८४-४ समय ३३ थी ४:- समय १५ पी १६-३ समय ४९ थी ६०-६ समय २७ थी १०२-२ समय ६१. थी ७२-५ समय १०३ थी १०४-१ समय १ अर्थात् कोइक पखत एवो अबसर आवे छे के कालमा वैचित्र्यधी मेम पक इन्द्र च्यच्या वाद बीजो इन्द्र उत्पन्न पचामा उत्कृष्ट अन्तर मासन परे छे. तेम छ मास सुधी (मा जगतमायो) कोरपण जीव मोक्षे जतो गधी. २ दक्षिणमा भरत अने उत्तरमा पेरावत सर्वशी न्यून मागा (पक एक खंड २२६ योजन अने ६ कला प्रमाण) कोषाथी, ते विशाओमां थोडा कीवो मोक्ष ज्ञाय, अने पूर्वमा पूर्वमहाविदेह क्षेत्र चौसठ खंड प्रमाण तथा सोळ विजयपालु भरतथी संख्यातगुण मोटुं क्षेत्र होबाथी संख्यासगुण अने पूर्वमहाधिदेही पश्चिम महाविदेउनी अमीन ऊ'डाइमा १ हजार योजन दाळ ऊतरती गयेली होवाथी तेपी विशेषाधिक. (बमणु म थाय त्यां सुधी विशेषाधिक कहेवाय' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकनकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ५१) (१२१) याद भुवनत्रये ॥१४६॥ वर्गविभागावं ।। स्युः षोडश चतुर्भक्ता - श्वस्वारो धर्गभागतः । दावेव परिशिष्येते, चत्वारोऽपि हिभा. जिताः ॥ १४७ । सुखस्य तस्य माधुर्य, कलयन्नपि केवली । वक्तुं शक्नोति नो जग्घ-गुडादेर्मकदेहिवत् ॥ १४८॥ यथेप्सिसान्नपानादि-भोजनानन्तरं पुमान् । तृप्तः सन्मन्यते सौख्यं, तृप्तास्ते सर्वदा तथा ॥ १४९ ॥ एवमापातमात्रेण,दर्यते तन्निदर्शनम् । वस्तुतस्तु तदाहादो-पमानं नास्ति विष्टपे ॥ १५० ।। श्रौपम्यस्याप्यविषय-स्ततः सिद्धसुखं खलु । यथा पुरसुखं जशे, म्लेच्छवानाममोचरः॥१९तथा पाहुः ॥ (औपपातिकादौ) __अर्थ-ते सुख मनुष्यने नथी अने ते सुख देवीने पण नथी के जे मुख मोक्षपदने पामेला सिद्ध परपात्याने छे! ॥ १४३ ॥ प्रणेकाळमां उत्पन्न बयेला अनुत्तरविमान सुधीना सर्व देवोनुं भोगवेलुं भौमत्रवान अने भोगवातुं ए प्रण काळ उस्पन ययेलं जे अनंन मुख छे ।।१४४॥ ते अनंत सुखने पक स्थाने एकटुं फरीने अनंन वर्ग बडे वर्गिन अनन्तीवार धर्म गुणाकार कर्यु होय सोपण मोक्षना सुखनी तुस्यता (बराबरी) कदीपण पापी शके नहि ! ॥१४५॥ अथवा प्रणे काळना एकठा करेला मोसमुखना राशिने कल्पनाथी अनंनवर्गथी भाग्या छतापण(एटले अननीपार चर्गमूळनो वर्गमूळ काढ्या छतां पण)पा प्रण भुवना (१४ राजमां) समाय नाहि. ॥ १४६ ।। वर्गनो भागाकार आप्रमाणे-१६ ने ४ बडे भागता वर्ग भागथी ४ आये, पुनः ए ४ ने पण २ बडे भागा वर्गभागधी देज बधे ॥१४७|| ते मुखनी मधुरताने केवली भगवान ज्ञानथी जाणता छत पण गोळ वगेरेने खा. धेला मुंगा माणसनी पेठे मुखे कहो शकवा समर्थ नधी ॥ १४८ ॥ जेम मन :च्छित अमपान भोजन कर्यावाद मपयेलो पुरुष संपूर्ण मुख माने छे सेप से सिद्धपरमात्माओ ( आत्मगुणत्र हे ) तृप्त यया छेना सर्वकाळ सुखीज के. ॥ ॥ १४९ ॥ एमाणे ते मुखसंबंधि आपात (देखाब) मात्र प्रान्त देखाडाय के, परन्तु वस्तुपणे ता ( परमार्थतः) पोशमुखनी उपपात्रण जगत पण नषी, ।। १५० ॥ए कारणधी निश्चे मोक्ष सुख उपपाने पण अगोचर के ( अर्थात मोक्ष मुखनी उपमा कोइ नथी)जेम नगरनुं सुख म्लेच्छ वचनने अगोचर पयु॥१५१॥ १५ प्रमाणे जेम १६ नो के पार बर्गभाग-वर्गमूळ काढता २ जपाव पायो तेम मोक्षसुत्रमा राशिनों अमंतवार वर्गभाग करतो Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) || सिद्धमुखनिरूपमनाविचारः ॥ " तेनुं दान भाषा – [ अर्थथी उयवाइय सूत्रादिमां कहां छे.] म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसतिस्म निराकुलः । अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टश्विन प्रवेशितः ॥ १५५ ॥ नासी नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निजं देश, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥ १५३ ॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात् । विशिष्ट भोगभूतीनां भाजनं जनपूजितः ।। १५४ ॥ तुङ्गप्रासादशृङ्गेषु रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनीवृन्दे--मुक्ते भोगसुखासी ॥ १५५ ॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्तों, मेघाडम्ब रनवरे । व मृदङ्गमधुरै गर्जितेः केकिनर्त्तनम् ॥ १५६ ॥ जातोत्कण्ठा दृढं जातो ऽरण्यवासगमं प्रति । विसर्जितश्च राज्ञापिप्राप्तो नमः ॥ १५७ ॥ पृच्छम्रपर यत्रासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम् ? । परं नगरवस्तूनामुपमाया अभाषतः ॥ १५८ ॥ न शश! कतमां तेषां गदितुं स कृतोद्यमः । एवमत्रोपमाभाचा द्रक्तुं शक्यं न तेरसुखम् ॥ १५९ ॥ (सिद्रसुखनिरौपम्य ) . अर्थ- कोइक म्लेच्छ (पापर - भील्लादि) मोटी अटवीमां सुखपूर्वक रहे थे, एक दिवसे दुष्ट (दुःशिक्षित ) वनडे मेराइने कोइक राजा ते भटवीमा भान्यो । आलोक काश प्रथमां तो मात्र मुक्ति सुखनी निरुपमता ज्ञापक वृष्टान्त ज ता. पण अन्यत्र उपरोक विचार जगावया पूर्वक साथे किंचिद्विशेष - गायों के से आ नीचे प्रमाणे आवश्यक मलयगिरीवृत्तिमाथी लख्यो छे. इय सिद्धाणे लोकलं. अणोवनं नत्थि तस्स ऑयम्मं । किवि घिसेसे णितो, सारिक्खमिणं सुह बीच्छं ।। १ ।। वैशुषोणामृदङ्गादिसमायुक्तेन हा रिणा । श्लाध्यस्मरकथा श्रद्ध--गीतेन स्तिमितः सदा ॥१॥ कुट्टिमाद विचिषा णि रूपाण्यनुश्सुकः । लोचनानन्ददा योनि की समस्त कानि हि ||२|| अम्लान गुरुकर्पूर- गन्धमाघ्राय निस्पृष्टः । नानारसमायुकं भुक्षाऽन्नमिव माया ||३|| पोन्बोदकं च तृमात्मा, स्वादयन् स्वादिमं शुभम् । मृदुत्लासमा कान - दिव्यपर्यङ्क मंस्थितः ||४|| सहसाम्भोद शब्द घुर्भयधनं भृशम् । इष्टभारत स्तनान्तेऽथचा नरः ||२|| सर्वेन्द्रियार्थसम्प्राच्या, सर्वाबाधनिवृत्तिजम् दयति यू प्रशान्येनान्तरात्मना ||६|| मुक्तात्मनस्ततोऽनतं. सुखमाहुर्मनषिणः । इति || इस सबका अनिता, अनु नियाणमुषगया सिं द्धा | सासयन्याबाई, चिड़ंति मुही सुई पत्ता ||१|| इत्यादि विचार आणवी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . TAT । लोकमकाओ द्वितीयः सर्गः ॥ (सा. ५१) . (१२३) १५२ ॥ म्लेच्छे आ रामाने देख्यो भने यथायोग्य सन्मान कयु, अने राजाने माग बतावी पोताना ( राजाना) देशा पहचाख्यो, जेथी राजा पण ते म्ले छने पोताना नगरमा लाग्यो, ॥ १५॥ राजाए पण आ मारो उपकारी के एम आणी असि गौरवयी श्रेष्ठ भोगादिक वैभवर्नु पाप को अने लोकोने पण सन्मान करवा योग्य ययो. ॥ १५४ ॥ इवे आ पामर उचा महेलनी अगासीओपां अने मनहर बाग बगीचामां सुंदर खीयो बढे परिवयों छनी अनेक प्रकारनां विषय सुख भोगवे छे. ॥ १५५ ॥ एक दिवस वर्षाऋतु आये छते आकाशमा मेघना आईबर अने मृदंग सरखी मधुर गर्जनाओ थवाथी मयूरना नाच पना जोइने पोताना अरण्यवास सरफ जवानी अति इद उत्कंठावाको थयो जेथी राजाए विसर्जन कर्यों छनो ते पामर ने नगरमाथी अरण्यमा आयो, ॥ १२३१५७|| इथे अरण्यमा रहेनारा तेना वीजा कुटुंबीभी पूछे छे के हे तात ! ते नगर के हतुं ? परन्तु नगरनी वस्तुओनी उपमाना अभावे नगरमांनी वस्तु सरखी वस्तुओना अभावे ॥ १५८ कडेवाने उत्कंठिन पो छनो पण ते ते मोने कोइपण वस्तु कही शक्यो नहि. ए प्रमाणे अहिंपण तेवी उपमाना अभावे सिद्ध परमात्मानु रुख कहे शक्य नथी. ॥ १५९ ॥ (सिद्धम्वरूप नि:स्पन्द) *सिद्धो बुखा गैताः पारं, परं पारं (परंपर) गता अपि । सर्वामनागतामद्धां, तिष्ठन्ति सुखलीलया ॥ १६० ॥ अरूपा थपि प्रातरूपप्रकृष्टा, धनंगाः स्वयं ये त्वनंगहोऽपि । अनंताक्षराश्वोज्झिताशेषवर्णाः, स्तुमस्तान् वचोऽगोचरान् सिद्धजीवान् ॥१६॥ इति सिद्धः॥ विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिष द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । • मिति य बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य पपरगयति ॥ प्रत्यादि भी उपवार सूत्रादिनी गाथा तथा " मिद्राणं खुदाणं, पारगयाण परंपग्गयाणं ॥" इत्यादि गठानुसारे 'परंपरगताः । प पाट समीचीन जणाय छ. कास्यत्वातिमद्वाः, २ केवलज्ञानेन विश्वायत्रोधात्, ३ भषार्णवपारगमनान, ४ पुण्यवीजप्सम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्रतिपस्युपाययुक्तत्वात् , ( औपातिकवृत्ति) नक्षरतिगत यत्तदक्षाशानं. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ( १२४) . ॥ सिद्धस्वरूपनिस्यन्द-सिद्धसंख्यायन्त्र ।। काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे, सों निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णो द्वितीयः सुखम् ॥१६२॥ ॥ इति लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः समाप्तः ॥ अर्थ-सर्वथा कृतकृत्य थाथी सिड, केवलज्ञाने संपूर्ण जगाने जाणवाथी पुख, संसार समुद्नो पार पामवादी पारगम, कुशलानुबन्धिकर्म-मम्यक्त्व-जानचारित्रनी अनुकम ( उत्तगेतर चहनी ) मानिना उपाये युक्त होराथी यांपर. गत अयचा अपुनर्भाषे संसार समुद्रना उन्कृष्ट छेडाने पामेला एवा सिद्धपरमात्या सम्पूर्णभविष्य ( शाश्वत-अनन्त ) कालसुधी सुखक्रीडा ( अन्यावानिजमान रमणता) ए रई छ ।।१६१॥ सिद्धपरमात्मा अरूपि (पौद्वलिकरूप सहित) प्राप्तरूप (पंहितो) मा उत्कृष्ट ( केवलमानस्वरूपवाळो । छे. अनदा ( काही नो द्रोह करनार छनां पोते अनङ्ग ( अशरीरी) जे. सर्व वर्ण (कृष्ण-गोलादी) थी रहिन छता अनन्त अक्षर (ज्ञान) पाळा छे ते अननगुण पूर्ण वचनने अगोचर सिद्ध जीवोनी अमे स्तुति करीप छोए । ५६१ 11 प्रमाणे मिट परमात्मान स्वरूप का ॥ १६५ मा श्लोकनो अर्थ प्रथम सर्गनी माफक जाणवो १६२ ॥ ॥ समयसिद्धिसंख्यायन्त्रम् ॥ नन्दनवनर्मा पंधक बनमा प्रस्तुत ग्रन्थानुसारे ] । दरेक कर्मभूमिमा (क्षेत्रथी.) प्रत्येक अकर्मभूमि ऊध्र्वलोफर्मा ४ ) (मंहरणयी) । अधोलोकमा २०-२२-४० सी लोकर्मा १०८ (अवगाहनाथी) २ । ५०० धनुध्यप्रमाणना समुद्रासिवायना मलाशयोमा ३ । २ इस्लप्रमाणना एक विजयमा १ आ श्लोक · विरोधाभास' अलङ्कारधाळो छ, से घिरोधनू निवारण उपर टोकार्थमा सणाच्या प्रमाणे धाय छे. "आभासत्ये विरोधस्य, विरोधामास च्यते ॥" अर्थात् विरोध जणातो होय पण ज्यां निवारण ( परिहारसमाधान) था शके त्या 'विरोधाभास अलङ्कार' कहेवाय रो. शेम, "विनापि तस्विहारेण, पक्षोमो तब हारिणी ॥ "(साहित्य प्रयोमा विशेष जोर ले समुद्रा ० मध्यमप्रमाणना Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐܝܕ ܂ १०८ ॥ श्रीलोकप्रकाशे विमीयः सर्गः ॥ (सा० ५१) (१२५. ) [कान्धी] शेष : भांगावाचा (लिंगथी) अरसपिणीना श्रीजे आरे १०८ अन्य साधुयेषवाळा . १-२-४-५-६ आरे १० । गृहस्थ वेषवाळा अवस० ना चोथे आरे १०८ जनमुनि वेषवाला अषसना पांचमे आरे । २० 1 [वेदवार ] अबसन्ना १-२-३-६ आरे १० | पुरुषलिंगवाळा [संक्रान्त वेदथी] । स्वीलिंग पुरुषथी पुरुष ययेला १७८ नपुंसकलिगे ॥ श्रीसिद्धप्राभृतोक्त सिद्धजीवाल्पत्रहुत्व विशेषविचारः ॥ ( वेदवार )-नपुंसकसिद्ध अल्प--१. तेथी स्त्री सिद्ध संपातगुण-२० ( सिद्धप्रामुमनी प्राचीन टीकाकारमते १०) तेथी पुरुष सिद्ध संख्यागुण १०८ ( निरन्तर समयबार)-आठ सपयमुधी थयेला सिन्न अल्प. तेथी सप्तमामयिक सिद्ध संख्यानगुण, तेथी छ सामयिक मिड संख्यानगुण, नेथी पंचसामयिक सिद्ध संख्यानगुण, तेथी चतु:सामयिक सिद्ध संख्यातगुण, तेथी त्रिसामयिक सिद्ध संग्ल्यातगुण-तेथी द्विसामयिक सिद्ध संग्ठ्यानगुण, (एक समयसिद्धि संख्यामार )-१५८ सिद्ध अल्प, तेथी १०७ मिद्ध.अनन्नगुण यावत् ५० सिद्ध अनन्तगुण. त्यारबाद ४९ सिद्ध असंग्यगुण तेथी ४८ सिद्ध असंख्यगुण यावद २५ सिद्ध असंख्यगुण, तेथी २४ सिख संख्यगुण, तेथी २३ सिद्ध संख्यगुण यावत् १ सिद्ध संख्यगुणा. (अनन्तरागतसिचुसंख्याद्वार)-मनुष्यस्वीथी आवेल अल्प,नेथी पमुष्पथी आवेल संख्यातगुण, तेथी नारकसिद्ध संख्यगुण, तेथी तिर्यची सिह संख्यगुण, तेथी तिर्यंचसिद्ध संख्यगुण, तेथी देवी सिख संख्यगुण, तेथी देवसिद्ध संख्यगुण. (इन्द्रियबार)-एकेन्द्रियागससिद्ध अल्प,तेथी पंचेन्द्रियागतसिद्ध संख्यातगुण. (कायद्वार )-वनस्पति सिद्ध अल्प, तेथी पृथ्वीकापसिद्ध संख्याण, तेथी अपकायसिद्ध संख्यगुण, तेथी प्रसकायसिद्ध संख्यगुण. . (अनन्तर गतिवार )-चतुर्थपृथ्वी सिद्ध अत्य, तेथी तनीय पृथ्वीसिद्ध न्यातगुण, तेथी दिनीयपृथ्वीसिड संख्यगुण, तेथी प्रत्येकवादरपर्याप्तवनस्पति व्यात गुण, तेथी चा० पर्या पृथ्वीकासिद्ध मंख्यानगुण. तेथी या पर्या. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) || सिद्धमभृतोद्वारविशेषविचारः ॥ अपायसिद्ध संख्यातगुण, तेथी भवनपति देवीसिद्ध संख्यातगुण, तेथी भवनपनिसिख संख्यानगुण, तेथो वाणन्यन्तरीसिद्ध संख्यातगुण, तेथी वाणव्यंतर सिद्ध संख्यातगुण, तेवी ज्योतिषदेवीसिद्ध संरूयामगुण, तेथी ज्योतिसिद्ध संख्यानगुण, तेथी पानुषीसिद्ध संख्यातगुण, तेथी मनुष्यसिद्ध संख्यातगुण, तेथी प्रथमनाकमिद्ध संख्यामगुण, तेथी निचोसिद्ध संख्यगुण, तेथी तियैचसिद्ध संख्यामगुण, तेथी अनुत्तरसिद्ध संख्यातगुण, तेथी अघः अधः यावत् सनत्कुमार सूत्री संख्यातगुण, संख्यातगुण, तेवी इशानदेवीसिद्ध संख्यामगुण, तेवी सौपमदेवी सिट संख्यातगुण, तेथी ईशान देवसिद्ध संख्यानगुण, तेथी सौधर्मदेवसिद्ध संख्यानगुण (पद्यपि देव करतां देवी संख्या वधारे होय छे. तो पण पुरुषपांथी आत्री माँक्षे जनार संख्या प्रणी होवाथी अल्याबहुत्व संभावित है. ) ( क्षेत्र विभागद्वार ) - जम्बूद्वीपमां भरत ऐरवतां सिद्ध या ते सर्वधी अल्प, तेथी महाविदेह सिद्ध संख्यातगुणा ॥ तथा संहरणनो अपेक्षाए चुल्लहिमबन्त अने शिखरी पर्वत उपर सिद्ध ते सर्वधी अला तथा पत्रक - हिरण्यवन्त क्षेत्रमित्र संख्यामा कामीगिरिसिद्ध संख्यामगुण, तेथी देवकुरुउत्तरकुरु सिद्ध संरूपानगुण, तेथी हरिवर्ष-यकसिद्ध विशेषाधिक तेथी निषधनिलवन्त सिद्ध संख्यानगुण, भरत ऐन सिद्ध संख्यानगुण, तेथी महाविदेह मि द्ध संख्यातगुण ॥ तथा घातकीखंडने विषे चुल्ल पित्रन्त-शिखरिसिद्ध सर्वथी अल्ल. तेथी महाहिमवन्त रुक्मिसिट संख्यातगुण, तेथो निषध-नीलवन्तसिद्ध संख्यातगुण, तेथी हिमवन्न- हिरण्यवन्तमिष्ट विशेषाधिक, तेथी देवकुरु-रकुरुसिद्ध संख्यानगुण, तेथी हरिवर्ष-म्यहमिद्ध विशेषाधिक, देवी भरत देवन सिद्ध संख्यानगुण, तेथी महाविदेह सिद्ध संख्यानगुण || मश पुष्करार्धद्वीपां चुल्लदिमवंत शिखरिसिद्ध सवैथी तेथी अल्प, महादिपर्यंत रुक्मिसिद्ध संख्यानगुण, तेवी निषेध नीलवंतसिद्ध संरूपातगुण, तेथी हिपर्वत हिरण्यवंत सिद्ध संख्यातगुण, तेथी देवकुरु - उत्तरकुरु सिद्ध संख्यातगुण, तेथी हरिवर्ष-रम्प सिद्ध विशेषाधिक, तेथी भरत अरक्त सिद्ध संख्यानगुण, तेथी महाविदेह सिद्ध संख्यातगुण. [अढीदोपनी समुदितविचारणाए अल्पबहुत्व] - - - -Blade - अथवा श्रेणिबद्ध अल्पबहुत्वनी अपेक्षाण जंबूद्वीपमा चुल्लहिमवंत-शिखरि सिद्ध सर्वथी अप, तेथी हिमवंत हिरण्यवंत सिद्ध संख्यातगुणा, तेथी पक्ष हिमवंत रुक्मी सिट संख्यातगुणा, तेथी देवकुल- उत्तरकुरु सिद्ध संख्या Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % ॥ लोकप्रकाचे बिनीयः सर्गः ॥ (मा. ५१) (१७) तेगी हरिवर्ष-रम्यक् सिख विशेषाधिक, तेथी निषध-नीलन सिद्ध संख्पानगुणा, तेषी धातकीखंडना चुल्लहिमत-शिखरिसिद्ध विशेषाधिक, तेथी धातकी महा हिपर्वत-स्क्मी सिर अने पुष्कराधना चुल्ल हिपवन-शिखरि सिद्ध ए चार संख्यासगुण है, परन्तु परस्पर तुल्प छे. तेथी घातकी खंडना निषध-नीलवंत सिद्ध अने पुस्कराधना महाहिमन-रुक्मि मिद्ध ए चारे संख्यातगुग, परन्तु परस्पर तुल्प, तेथी घातकी० हेमवंत-हिरण्यर्वन सिद्ध विशेषाधिक, तेथी पुष्कराधना निपर-नीलन मिद्ध संख्यातगुण, तेथी धातका देवकुरु-उत्तरकुरु मिद संख्यागुग, नेथी धान की हरिवर्ष-रम्यक सिद्ध विशेषाधिक, तेथी पुष्कराधना हिमवंत-हिरण्यवंत मिड संख्यामाण, तेथी पुराना उत्ताकु सिर संख्यातगुण, तेथी पुष्कगना इरिवर्परम्पक सिन्न विशेषाधिक, तेथी जंबूदोपना भरन-अरचत मिद्ध संख्यानगुण, वेषी धातकीना भरन--अरवत सिद्ध संख्यामगुण, तेथी पुष्कराधना भरत- अस्वन सिद्ध संख्यातगुण, तेथी जंबुद्धीपना महानिदेह सिद्ध संख्पातगुणा, तेथी धामको खंडना महाविदेह सिद्ध संख्यातगुणा, तेथी पुष्कराधना महाविदेह सिद्ध संख्यानगुणा. __ (काळथी अल्पयत्व)-अवसर्पिणीमां दुःषमदुःषम आरामां थयेला सिख सर्वधी अल्प, तेथी दुःपन आरामां ययेला संख्पानगुण, तेथी सुषप दुषम आरक सिद्ध असंख्यगुण, तेथी मुषमा आरक सिद्ध विशेषाधिक, तेयो सुषम सुपम आराना सिद्ध विशेषाधिक, तेथी दुःषम सुषम आराना सिड संख्यातगुण. [उत्स. पिंणीना ६ आरानुं अल्प बहुत्व पण ए प्रमाणे ज जाणवू.] [काळधी श्रेणिबद्ध अल्पयहुत्व-उत्सर्पिणी भवसर्पिणीना दुःपम दुःषम आरक सिड सर्वथी अल्प (परन्तु परस्पर तुल्य), तेथी उत्सर्षिणीना दुःषमारक सिव विशेषाधिक,तेथी असपिगीना दुःषमारक सिद्ध संख्यानगुण, तेथी उत्स० अवसाचा सुपम दुःषपारक मिड असंख्यगुण, तेथी उत्म० अवसाना मुपमारक सिद्ध. विशेषाधिक, तेथी उत्स० अवस०ना सुपपमुषमारक सिद्ध विशेषाधिक. ( संख्याहार)-अनेक सिद्ध घोडा एक सिद्ध संख्यानगुणा. (ज्ञानमार)-मतिश्रुत० ५, मतिश्रु० अव० १०८, मनिश्रुत० मनः०१० पतिथुन अव० मन: १०, सर्वांगे केवलज्ञान पामी सिद्ध थाय, (धारित्रद्वार) केवल ज्ञान पाम्या पूर्व सामायिकचारित्रवाळा १०८, सामा० • युक्त १०८, सामा• परि० १०, सा० ० ५० १०, सर्वभंगे सूक्ष्मसंपराय Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिद्धमाभृतोक्तद्वारविशेषविचारः ॥ TULA ( १२८ ) मने ययाख्यान पामी मोक्षे जाय, ( लिंग ) - गृह० ४, अन्य० १०, स्वलिं० २०८ ( उत्कृष्टद्वार - अतिपतित सम्यकस्व ४, संख्यातकाल प्रतिप स १०, असे० कालप्र० स० १०, अनंन० कालम सम्पवस्व ० १०८, ( निरन्तरकालवार ) - जे द्वारमां १०८ नी सिद्धि ते द्वारम ८ समय निरन्तर पण होय. ! जे द्वारा २०-१० नी सिद्धि ने द्वारमा ४ समय निरन्तर, जे द्वारमा दशथी ओछा सिद्ध होय ते द्वारयां २ समय निरन्तर वर्षपृथकत्व, घातकीखडमां ( क्षेत्रमा अन्तरद्वार अघी ) - जंबूद्वीप वर्षपृues, अने पुष्करार्धयां साधिकवर्ष. ( क्षेत्र अन्तरबार विभागथी ) - जंबूदीपनी महाविदेहां, धानकी० महाविदेहमां, अने पुष्कर महाविदेहयां एत्रणे महाविदेहां स्कृष्ट वर्षपृथक अन्तर है, अने भरन- असामान्यश्री संख्यान वर्ष (हजारो वर्षेनुं) अन्गर के. [काळविभागमां अन्तर ] - उत्स तथा अवस०मां जन्मधी १९ कोडा कोडि सागरोपम, अने संहरणयी साधिक १० कोटाकोडि सागरोपम । तथा उत्स० अने अवसमां एकान्त विभागथी जन्मनी अपेक्षाए तेमज संहरण अपेक्षा पण सेपूर्ण २० कोडा कोडिसागरोपम । नथा उत्सर्पिणी अने अवस० ना बन्ने दुःषमदुःषम आरा संबन्धि प्रत्येकमां जन्मअपेक्षा २० कोटाकोडी सागरोपम, अने कालपी किंचित् न्यून ८४००० वर्ष, अने संहरणश्री देशोन ४२००० वर्ष ए प्रमाणे वे दुःषम आराम अने शेष आराओमां पण अन्यधी काळी अने महरणी अनन्तरोक्त ने दुःषपदुःषम आरानी पेठे तुल्य अन्तर जाणवुं । वे उमपिंणी भने अवसर्पिणी ए वे काळने विषे ओवयी - सामान्यथी पिडितुं अन्तर विचारी तो १८ कोडाकोटि सागरोपम जेटलं उत्कृष्ट अन्तर के अने (मध्यम) १६ फोडा कोडि सागरोपमनुं अन्तर छे तेमज १४ कोडा कोडि सागरोपम अने १२ कोडाकोडि सागरोपमनुं अम्मर हे अने जघन्य अन्तर सर्वत्र १ समय है. [गनिद्वार] - सर्वगति ओम संख्पान हजारवर्षनु अन्तर ले, ते अनन्तरागतनी अपेक्षाए जावं, ते पण वैमानिकथी आवेला जीवनी अपेक्षाए सिद्धिनु अतर साविक १ वर्ष छे जघन्य अन्तर सर्वत्र १ समय ( उपदेश - निमित्त सिद्धादि विचार सिद्धप्राभृतथी जावो.) [वेदद्वार] - पुरुषश्री अनन्तरागत तथा पुरुषलिंगे मितुं अन्तर साधि Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ॥ मोमपमा नियः । (सा. ५१) (२२९) पर्ष अने स्त्री तथा नपुंसकधी अनन्तरागत तथा शेषमा सिर्नु अन्तर संग्व्यान हमार वर्ष छे. जघन्य अन्ना सर्वत्र १ समय छे. (तीर्थदार)-तीर्थकरसिद्धन अन्तर हजार पृषक्व पूर्ण तीर्थकरीसिद्धनु अनन्तकाळ,नो तीर्थंकरसिद्ध साधिक १ वर्ष, अने शेष (सीसिड आदिफनु) संग्ल्यास हजार वर्ष अन्नर छे. (लिङ्गमार)-स्वलिंगसिजन अन्तर साधिक ? वर्ग, तथा अन्य लिंगलिक अने गृहलिंगसिद्ध अन्तर संख्यात हजार वर्ष. (जघन्य अन्तर सर्वत्र १ समय ) __ (चारित्रहार)-प्रिपश्चा-कृत (सामायिक चा०-मुक्ष्म संपराय-अने ययाख्यात चारित्रनी पूर्वपारितवाला जीवोनी मिद्धिन ) अन्तर साधिक १ वर्ष, चतू. प्पश्चात्कृतनुं ( सा०-छैदो०-मृक्ष्म०-ययानी पूर्वपातिवाच्या जीवोनू ) अन्तर साधिक १८ कोडाकोडि सागरोषम, तेमज पंचपश्चात्कृतचारित्रवालानु अन्तर पण साधिक १८ कोडाकोडी सागरोपम छे. तथा सामायिकचारित्रीनु अन्तर साधिक १ वर्ष, ( जय० १ समय छे. ) (धुखार)-बुद्धचोधित पुरुष अन्तर साधिक १ वर्ष, बुद्धचोधिन स्त्रीन अन्तर संख्यात हजारवर्षमुं. प्रत्येकबुद्धनु संख्यात हजार वर्षन अने स्वयम्पुशनु हमारपूर्वपृथक्त्व अन्तर छ. (जघन्यअन्तर सर्वत्र १ समय.) । (ज्ञानबार)-दिनानीनु (मति-श्रुतज्ञानीनु) अन्तर पत्योपपनो असंख्यात. मो भाग ममिवन० अवधि० नु अन्तर साधिक चर्प, नार बानीनु मख्यात हजारवर्ष, मतिश्रुन-मनःपर्यापज्ञानीनु संख्यानहजार वर्ष. ( जयन्य अन्तर सर्वत्र १ समय ). (अवगाहनाबार)-उत्कृष्ट अवगाहनाकन्ननु, जघन्य अवगाहनावन्तनुं अने यवमध्य अवगाहनावन्ननु ( अर्थात बहुमध्यअवगाहनावन्तनु) अन्सर अणिनो असंरख्यानमो भाग (प्रायः असंख्यवर्ष ) अने (शेष ) अजपन्योत्कृष्ट अबगाहनाचन्तनु साधिक १ वर्ष अन्तर छे. (जघन्य अन्तर सर्वत्र ? समय ). (उत्कृष्टद्वार)-अपतित ( सम्यक्त्ववन्त )नु अन्तर सागरोपमनो असंख्यावमोभाग, संख्यातकालपतितर्नु संरूपातहजारवर्ष, असंख्यकालपतितन संख्याम हजारवर्ष, अनन्मकालपतिननु साविक १ वर्ष अन्तर छे (जघन्य अन्तर सर्वत्र समय), ग्न्त रादिद्वार)-एक वा अनेक नी सान्तर मिद्धिनु अन्नर तेमन एक वा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१३०) || सिद्धमाभृतोक्तबारविशेषविचारयन्त्रकाणि ॥ अनेकनी निरन्तर सिद्धिन अन्नर संख्यातहजार वर्ष छे. अघन्य अन्तर समय से.) (विशेष विचार सिम्पामृत टीका विगेरेमाथी जोइ लेवो) प्रत्येकवुद्ध ॥ उपरोक्त विचार, यन्प्रभास मामि देवीथी २० " किंचितिशेषयुक्त ॥ (तीद्वारे) [श्रीनन्दीमूत्रवृत्तिमाथी] सीकर गनिखारे युगपसिडि निरन्तरसि० | स्वयम्पुर १ २ . देवगनियो आवेला १०८ ८ समय अमीर्यकर १०८८" शेष गतिथी धावेला १० . " तीर्थकरी २ २" पहेलो त्रण पृथ्वीथी,,१०४ " । पंकपभाषी भाषेला ४ . २ [चारित्रहारे] " पृथ्वीकायथी मायेला सामा० सूक्ष्म० यथा " " अपुकायथी धावेला Y ख्यान चारित्री १०८ ८ " वनस्पतिमाथी , साया छद्रो० सूक्ष्प० मनुष्यगनिधी, २० यथा. चारित्री १०८ ८" मनुष्य पुरुषधी, १० | सामा परि सूक्ष्म मनुष्य स्वीथी , २० यथा० चारित्री पुरुष मिथैचथी,, | सामा०दो परिसूक्ष्म.१० ।" स्त्री तिर्थचयी ,, १० | यथा० चारिखी १० ४ " १० भुवनपळमाथी " " | (बुरखारे) प्रत्येकथी आषेला " प्रत्येक पुखपुरुष १० भुवनदेवीमांधी १० ४ प्रत्येकथी आवेला " बुद्धपुरुष पोधित पुरुष १०८ ८ ग्यन्तरदेवमांथी ,, १० , स्त्रीओ २० ४ व्यन्तरदेवीमांथी,, ५ , नपुंसफ १०४ ज्योतिष देवमांगी,,१० बुद्धस्त्री पोधित स्त्रीमो १. ४ ज्योतिष् वीमांथी,,२० बुद्धली बोधित ( सामान्य चैमानिक देवायो,, १०८ पुरुषादि) २० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- ॥ लोकपकाचे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा. ५१) (११) (ज्ञानद्वारे) । (अन्तरबारे) . मतिश्रुतलानी ५ । मारपणे एक जीव मतिश्रुतमन:पयवज्ञानी १० ४ | मान्तरपणे अनेक जीव मतिश्रुनावधिज्ञानी (निरन्तरमारे) चतुर्मानी १०८ पी३२ ।८ समय मुधी ७ समय सुधी ३३ थी ४८ (ए चारे भांगे केवळज्ञान पामी मोक्षे जाय) ६ समय सुधी (उस्कृष्टबारे) ५ समय मुधी ११पी ७२ अनन्सकाळयी सम्यक्त्व . ४ समय सुधी ७३ थी ८५ पनि १०८ ८ समय सधी ८५ थी ९६ संख्यासकाळधी , १० ४ । २ समय सुधी २७ थी १०२ असंख्यातकाळथी ,, १० ४ । १ समयमा निरन्तर पणानो अभाव होअपसित सम्यग्दृष्टि ४ २ । वाथी को नयी. ) स्वप्रतियोधिताकबरनपप्रदत्ताहिंसा-अनादिसंसिद्धश्रीजैनस. नाफश्रीशत्रुञ्जयादिनीर्थस्वायत्तीकरणस्फुरन्मान- जगद्गुरुरिरुदधारफमहाप्रभावतपागच्छाचार्यश्रीविजयहीरसूरीश्वरशिष्य - महोपाध्यायश्रीकीर्तिषिजयगणिविनेयावस-अनेकग्रन्थसदर्भलब्धयशोधवलोकृतदिङमण्डलमहोपाध्यायश्रीविनय. विजयगणिविरचितशास्त्रसन्दोहोपनिषद्भूत-निखिलतश्वकाशनप्रदीप-लोकप्रकाशग्रन्थप्रथम विभागद्रव्यलोकमकाशे यन्वचिपायलंकृतभाषानुवादविभूषितः । द्वितीयः सर्गः समाप्तः ॥ मर्मनिस्कर्ष । द्रव्यक्षेत्रकालभाव-लोकानां नाममात्रतः ।। विषय सूची | आख्याथ धर्माधान - मिद्वारग्यातिर्मितीपके ॥१॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555 ज ॥ अथ तृतीयः सर्गः॥ 9 जम 卐फ 555 द्वितीयकृतीपसर्ग योजना-बीना सर्गमा द्रव्य क्षेत्र, काल, भावलोकनो तथा द्रव्यना धर्मास्तिकायादि भेदोनो उद्देश तथा धर्मास्तिकायादिनो निर्देश करी जीवना निर्देशमा मिद्धजीवोर्नु विस्तारथी वर्णन कर्यु, हो पाश्रीजा सर्गमा ने जीवना बीजा भेदरूप संसारिनीबोनु स्वरूपवर्णन साइत्रीश द्वारोपी यतुं होवाथी ते ३७ द्वारोनुं ज विस्तारथी वर्णन कराय छ [ आज द्वारो श्रीमज्ञापनाजी ना पदोमा किंचिद्विशेषान्तर साथै विस्तारथी भगवान् श्री श्यामाचर्य महाराजे नथा रीकामां श्रीमलयागारमहारा निरूप फरेय .. ___ अथ संसारिजीवानां, स्वरूपं वर्णयाम्यहम् । द्वारः सप्तत्रिंशता ता--न्यमूनि स्युर्यथाक्रमम् ॥ १॥ १भेदाः २स्थानानि ३ पर्याप्तिः, संख्ये ४योनिकृपलाश्रिते। योनीनां ६संवृतत्त्रादि, स्थिती च ७भवटकाययोः ॥२॥ ९देहसंस्था१०नांग११मान-- १२समुद्घाता १३गता ४गती। १५अनन्तराप्तिः समये-१६सिद्धि लें१७३या १८दिगाहृतौ ॥ ३ ॥ १९संहननानि २०कषायाः, २१ संज्ञे२२न्द्रियसंज्ञि२३तास्तथा २४वेदाः। २५दृष्टिरिदनं २७दर्शन --मुप२८योगा२९हार३०गुण३१योगाः ॥ ४ ॥ ३२मानं लघ३३ रूपबहुता, सैवान्या दिग३४पेक्षया । ३५ अन्तरं ३६भवसंवेधो, ३७महापबहुतापि च ॥ ५॥ अर्थ---हवे ३७ बारवडे संसारी जीवोनु स्वरूप हुँ वर्ण छ, ते ३७ शरो अनुक्रमे आ प्रमाणे छ ॥१॥१ भेद-( फया जीवना केटला भेद ?) २ स्थान-( ते 'जीवो क्या क्या होय छे १) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे उनीयः सर्गः ॥ (मा० ५१) ३ पर्याप्ति-(फया जीवने केटली पनि) ४ योनिसंख्या-(कया.जीवना केटला उत्पत्ति स्थान के ?) ५ कुलसंख्या-(कया जीवना केटलां कुल छे?) ६ संकृतादियोनि-(संवृत-विन-ने संकृतविचत तथा सचित्त-अचित्त-ने मिश्र, तथा कुर्मोन्नता, शंखावत-ने वंशीपत्रा र त्रण प्रण प्रकारनी योनिमांची कया जीवने कर योनि ?) ७ भवस्थिति-(कया जीवनु केटलु आयुष्य ?) ८ कायस्थिति-( यो जीव स्वकायमा केटको काळ रहे ! अर्थात् तेनी ते कायपणे लागलागर ( निरन्तर ) केटलीरार उत्पन्न पाय ?) ९ देह-(कया जीवने केटला शरीर ?) १० संस्थान-(कया जीवना शरीरनो आकार केवा छक्षण बाळो होप १) ११ अंगमान-( कया जीवन शरीर केटल मो? होय १) १२ समुद्घात ( कया जीवने फेटकी समुद्घात होय ?) १. गति ( यो जीव कइ गनिर्मा उपजे ते गनि,) १४ आगति-( कयो जीव कई का गनिर्माथी आवे ?) १५ अनन्तरासि-( विवक्षित भवमांधी नीकली मनुष्यभवमा उत्पन्न थयेला जीवने सम्यक्त्वादि कयो लाभ पाप्न थइ शके १) १० समयसिद्धि-( कया भवमाथी निकली पनुष्यगतिमा भाषेळा जीप एक समयमा केटला मोक्षे आय ? ) १७लेल्या ( कया जीवने केटली लेश्या ?) १८दिगाहार ( कयो जीव कइ कह दिशीमांधी आव्यो थाहार ग्रहण करे!) १९संघयण (कया जीवने फयु कयु संघयण होय ?) २०कषाय ( कया जीवने केटला कषाय ?) २१संज्ञा (आहारादि संबानी कया जीवने केटली संझा ?) २२इन्द्रिय ( फया जीवने केटली इन्द्रिय ?) ४३संशित (दीर्घकालिक्यादि ३ संझामांनी कया जीवने केटली सहा !) २४वेद (फया जीवने केटला घेद ?) २५दृष्टि ( सम्यगृदृष्टयादि ३ दृष्टिमांथी कया जीवने केटली दृष्टि ?) २६ज्ञान ( आठ ज्ञानपाथी कया जीवने केटलां मान ?) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) || संसारिजीवोना २७ दारोनुं संक्षिप्तवर्णन || * दर्शन ( चक्षु आदि ४ दर्शनमांथी कथा जीवने कथं दर्शन १ ) १८उपयोग ( १२ उपयोगमांना कया जीवने केटला उपयोग १ ) २९ आहार (भोजाहारादि : आहारक ३० गुणस्थान ( कया जीवने केटल गुणस्थान ? ) , ३१ योग का जीवने १५ योगमांना केटला योग होय ? ) जीव ) १श्मान (कया जीवनी केटली संख्या छे ! ) ३३ लघु अल्पबहुत्व (पोतपोतानी जातियां कया जीव ओछा अने कपा जीवो बधारे के ? ) ३४ दिशि अल्पबहुत्व ( कइ दिशामा रहेला जीवोथी कई दिवाकाळा जीवो ओछा अथवा अधिक होय ? ) १५ अन्तर ( कयो जीवकेटला काळ सूत्री ने जीवपणे न उपजे ? अथवा ते भव केला काळी कोण जोन उपजे नहि ते चवे ( परे) पण नहि ? ) ३६भवसंघ (केटला आयुष्यवाळी कयो जीव कथा भवमां एकान्तरे वा अनन्तरे केटलीवर उत्पन्न घाय १ ) ३७ महास्पबहुता (सर्व जीव भेदोमां अस्पबहुत्व १ ॥ २धी ५ ॥ ( नाम मात्र बतावेल ३७ द्वारोनुं विस्तार वर्णन ) भेदा इह प्रकाराः स्यु-- जीवानां स्वस्वजातिषु । समुद्द्वातनिजस्थानी- पपातैः स्थानकं त्रिधा ॥ ६ ॥ पर्याप्ता व्यपदिश्यन्ते, याभिः पर्याप्तयस्तु ताः । पर्याप्ताऽपर्याप्तभे दा-दत एव हिधांगिनः ॥ ७ ॥ पर्याप्तयः स्वयोग्या यैः, सकलाः साधिताः सुखम् । पर्याप्तनामकर्मानुभावात्पर्या प्तकास्तु ते ॥ ८ ॥ द्विधामी लब्धिकरण- भेदात्तत्रादिमस्तु ये । समाप्य स्वाईपर्याप्ती - म्रियन्ते नान्यथा ध्रुवं ॥ ९ ॥ करणानि शराराक्षा--दीनि निर्व्वर्त्तितानि (क्ष-संज्ञानि विहितानि ) यैः । ते स्युःकरणपर्याप्ताः, करणानां समर्थनात् ॥ १० ॥ अपर्याप्ता द्विधा प्रोक्ता, लब्ध्या च करणेन च । द्वयोर्विशेषं शृणुत, भाषितं गणधा J Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 705989 || श्री लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः || (सा० ५१) ( १३५ ) रिभिः ॥ ११ ॥ असमाप्य स्वपर्याप्तो स्त्रियन्ते येऽल्पजीविताः । लब्ध्या ते स्युरपर्याप्ता यथा निःस्वमनोरथाः ॥ १२ ॥ निव्वैर्त्ति तानि नाथापि, प्राणिभिः करणानि यैः । वेहाक्षादी (ख्या) नि करणापर्याप्तास्ते प्रकीर्त्तिताः ॥ १३ ॥ मियन्तेऽल्पायुषो लब्ध्य-- पर्याता इह यऽगिनः । तेऽपि भूत्वैव करण--पर्याप्ता नान्यथा पुनः ||१४ 1 अर्थ:- (भेदस्थानद्वार) जीवोना पोतपोतानी जानिने विषे जैत्रकार ने अहि भेद कहेवाय छे. तथा समुदयात स्वस्थान अने उपाए ऋण प्रकारे व्याप्त करेले क्षेत्र ते स्थान कहेवाय छे. ( विस्तारस्वरूप आगळ आवनार होवाथी अ संक्षेपधी है ! ॥ ६॥ (३ पर्याप्त द्वार) जेना पडे जीवो "पर्याप्त" कहेवाय ले ते पर्यासिओ हे, अनेए कारणथी जीवो पर्याप्त अने अपर्याप्त एम वे प्रकारना है. ॥ ७ ॥ त्यो जे tate पर्याप्त नाम कर्मना उदवडे स्वयोग्य पर्याप्तियो सुखपूर्वक सर्व संपूर्ण करी होय ते पर्याप्ता काग ॥८॥ बळी आपर्याप्ता जीनो लब्धि अने करणना भेदयी वे प्रकारमा छे. त्यां जे प्रथम भेदवाना लब्धिपर्याप्ता जीवो छे ते निश्रय स्वयोग्यप जियो समाप्त करीनेज परण पाने के परन्तु समाप्त कर्या विना मरण पावता नथी. ||२|| अने जे जीवोष शरीर भने इन्द्रियो वगैरे करणो रचेला ले नेओ करणोने (शरीर इन्द्रियादिने ) समाप्त करवाथी ( रचवाथी ) करणपर्याप्ता कद्देवाय ले. ॥१०॥ पुनः अपर्याप्ता जीव पण अने करणना भेदवडे वे प्रकारना का छे, ते मां जे तफावत श्रीगणधर महाराजे को छे ते सांभळो ! || ११|| निर्धन पुरुषोना मनोरथ प्रेम सफळ याय नहि तेम अल्प आयुष्यवाळा जे जीवो स्वयोग्य १-२ जेम बादर अग्नि जीषोनुं ॥ द्वीप प्रमाण स्वस्थान क्षेत्र अने क्यांग्यांथी आधीने बादर अग्नि पणे उत्पन्न याय त्यांथो मांडीने उत्पत्तिस्थान पर्येनुं उपपात क्षेत्र. ३ अहिं प्रश्ननो अवकाश के स्वयोग्य पर्याप्तियों पूर्ण महि वामां अने पूर्ण थयाम आयुध्यनी अल्पता तथा अधिकता ज हेतुरुप थशे तो पछी अपर्याप्त नाम कर्ममा उदयधडे स्वयोग्य पर्याप्तियो पूर्ण न थाथ, अने पर्याप्त नाम कर्मना उदयचडे पूर्ण थाय पम कद्देवानुं शुं प्रयोजन ? ( अर्थात् पर्याहियो पूर्ण यवामां अने नहिं यथामां पर्याप्त अपर्याप्त नाम कर्म नहि पण आयुष्यनी अधिकता अने अल्पताज हेतु रूप छे. ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६ ) . . ॥ पर्यानिधारविशेषनर्णनम् || पर्याप्निया संपूर्ण कर्या दिनान मरण पामे ते जीरो लब्धिवडे अपर्याप्ता अर्थात .. लधिअपर्याप्ता कहेवाय . ॥१॥ अने जे पाणीओर देह अने इन्द्रियादि करणो (स्वयोग्यपर्यानियो) हजी सुधी रच्या नथी तें जीने करणेअपर्यासा कहेला २. ! १३ ॥ अहिजे अस आयुष्यवाळा लधि अपर्याप्ता जीवी (स्खयोग्य पर्याप्ता पूर्ण कर्या विना ) मरण पामे हे ने भो पण करणपर्याप्तिा यह नेज मरण पामे छे. ॥ १४ ॥ (पर्याप्तिस्वरूप--भेदविशेषवर्णनम् ) याहाराविपुद्गलाना-मादानपरिणामयोः । जन्तोः पर्यातिनामोत्था, शक्तिः पर्यातिरत्र सा ॥ १५ ॥ पुद्गलोपचयादेव, भवेत्ता सा च षविधा । आहाराङ्केन्द्रियश्वासोच्छवासभाषामनोऽभिधाः ॥ १६ ॥ तत्रषाहारपर्याप्ति-ययादाय निजोचितं । पृथक् खलरसत्वेना--हारं परिणति नयेत् ॥ १७ ।। वैक्रियाहारकौदारि-काङ्गयोग्यं यथोचितम् । रसीभूतं तमाहारं, यया शक्त्या पुनर्भवी ।। १८ ॥ रसामृङ्मांसमेदोऽस्थि-मज्जशुक्रादिधातुर्ता । नयेयथासंभवं सा, देहपर्याप्तिरुच्यते ॥ १९॥ युग्म ॥धातुवेन परिणता-दाहारादिद्रियोचितात् । श्रादाय पुद्गलास्तानि, यथास्वं प्रविधाय च ॥ २० ॥ ईष्टे तहिषयज्ञप्तौ, यया शक्त्या शरीरवान् । पर्याप्तिः सेन्द्रियाह्वाना, दार्शता सर्वदाशभिः ॥२१॥ इति सर-आयुष्य अधिक होते छत पण जो शरीर पर्याप्यावि मामकर्म न होय तो शरीरादि रचनालो व्यापारज न प्री माटे शरीगदिकनी रचमामां आयुष्य हेतु रूप नथी पण तस्यायोग्यपर्याप्ति हेतु रूप छ. जम वृक्षने घामां जळ हेतु रूप होय पण पत्रादिकमी रचनामां नहिं. १ गाथामां कहेला "आदि शवडे इन्द्रियोना भेदो अथवा आहार पर्याप्ति प्रहण करवी, कारण के चालु प्रन्थमा आहार-शरीर ने इन्द्रिय ए ऋण पर्याप्तियो पूर्ण करनार 'करण पर्याप्त कषाय एम फोटुं छे. २-३ प्रसिद्धअथे अथवा विशेष विचारथी स्वयोग्य पोलियो पूर्ण नति करमार जीव 'करण अपर्याप्त. अने स्वयोग्य पर्याणितयो जेणे पूर्ण करी लीधी ते 'करणा पर्याप्त कहेवाय छे. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे छिनीयः सर्गः ।। (सा० ५५) (१३७ ) संग्रहणीवृत्त्यभिप्रायः (सा०५२)। प्रज्ञापनाजीवाभिगमप्रवचनसारोद्धारवृत्त्यादिषु तु-यया धातुतया परिणमितमाहारमिंद्रियतया परिणमयति, सेन्द्रियपर्याप्तिरित्येतावदेव दृश्यते, इति ज्ञेयं ( सा०५३-५४-५५) ॥ ययोच्वासार्हमादाय,दलं परिणमय्य च। तत्तयालंब्य मुञ्चेत्सोच्छवासपर्याप्तिरुच्यते ॥ २२ ॥ ननु देहोच्छवासनाम- कर्मभ्यामेव सिध्यतः । देहोच्छवासौ किमेताभ्यां, पर्याप्तिभ्यां प्रयोजनम् ।। ।। २३ ॥ अत्रोच्यते पुद्गलानां, गृहीतानामिहात्मना । साध्या परिणतिर्देह-तया तन्नामकर्मणा ॥ २४ ॥ आरब्धाङ्गसमाप्तिस्तु, तत्पर्याप्त्या प्रसाध्यते । एवं भेदः साध्यभेदा-देहपर्याप्तिकर्मणोः ॥ २५ ॥ एवमुच्छ्वासलब्धिः स्या-साध्या तन्नामकर्मणः । साध्यमुच्छ्वासपर्याप्ते-स्तस्या व्यापारण पुनः ॥ २६ ॥ सतीमप्युच्वासलब्धि-मुच्छ्वासनामकर्मजा । व्यापारयितुमीशः स्या-तत्पर्याप्त्येव नान्यथा ॥ २७ ॥ सतीमपि शरक्षेप--शक्ति नेव भटोऽपि हि । विना चापादानशक्ति, सफलोकतमीश्वरः ॥ २८ ॥ भाषाहै दलमादाय, गीस्त्वं नीत्वावलम्ब्य च । यया शक्या त्यजेत्प्राणी, भाषापर्याप्तिरित्यसौ ॥ २९ ।। दलं लावा मनोयोग्य, तत्तां नीत्वावलम्ब्य च । यया मननशक्तः स्या-न्मनःपयाप्सिरत्र सा ॥ ३० ।। __ अर्थ-(पर्याप्तिनो अर्थ )-आहागदि पुद्गलने ग्रहण करपा अने जप परिणाम पमावानी पर्याप्त नामकर्मना उदययी उत्पन्न भयेही जीवनी खे अक्ति ते अहिं पर्याप्ति कहेनाप छ, ॥ १५ ॥ बळी ते पर्याप्ति पुद्गलोना उपचय ( समूह ) पीज थाय के, अने ते आहार-शरीर -इन्द्रिय-वासोच्छवास-भाषा-अने मन ए नामे' ६ मकारनी के. ॥१६॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.......... -- ...-- - - ॥ पर्याप्तिहारविशेषनर्णनम् ॥ त्यां जे शक्तिबहे पोताने उचित आहार प्राण फरी खल रस पणे अलग परिणाम पमाडे ते शक्तिर्नु नाम आ आहार पर्याप्ति कहेवाय. ।। १७ ।। पुनः जीव वैकिप-आहारक-अने औदारिक देखने योग्य रसरूप थपेला आहारने वे शक्तिरडे रस-कषिर-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा अने वीर्य प सात धातुपणे पथायोग्य परिणाम पमाडे ने शक्तिन नाम देह पाप्ति कहेवाय. ॥ १८--१९ ॥ तथा धातुपणे परिणमेला आधारमाथी जे पुद्गलो इन्द्रियपणे परिणवाने योग्य पोय तेषां पुद्रको ग्रहण करीने अने यथायोग्य इन्द्रियपणे परिगमायीने ते इन्द्रियना विषय माना जीव जे शक्तिरडे समर्थ पाय ते शक्तिने सोझोए इन्द्रियपर्याप्ति ए नामवाळी कही , ए संग्रहणी वृत्तिनो अभियाय कयो । पनवणा-जीवाभिगम-अने प्रवचन मारोदारनी पृत्ति विगेरेमा लो-"जे शक्तिवडे धातुपणे परिणमेला आहारने इन्द्रियपणे परिणमावे से इन्द्रिय पर्याप्ति" एटलज कहेलं जणाय छे. जे शक्तिवहे श्वासो. १ औदारिक देहयाको औदारिक योग्य अने किय पर आहारक देह. वाळो जीव वैफिय षा माहारक योग्य २ प्रथम ममये आहारन ग्रहण तंजस कार्मण काययोगबरे होय है. माटे भाचारमी प्राणशियामां आहार पर्यादित अवान्तर हेतु रूप छ, परम् कार्मण-वा मिय--वा औदारिकादि कापयोगषटे गृहीत आहारने शरीर बनी शके सेषी पोग्यताधाको करबो प आधार पर्याप्तिर्नु मुरुप कार्य के. ३ अहं बाल रसमो सामान्य अर्थ "गृहीत आहारमाथी शगेर बनी शकवा जेपी शनिवाळा आदारने शरीर बनी शके तेवो करतो, अने शरीर नहिं धमी शके पषा अयोग्य आहारने तेथी अलग करी देषी " एमी करतो, अथी प अर्थ पणे शरीरली आहार पर्याप्तिमा घटतो आये छे, अन्यथा म्धूल पष्टिपल रसनो अर्थ मळ अन रस विचारीप तो औदारिक देह मित्राय वैक्रिय अन्ने आहारक देह संधि आहार पर्यादितमा लागु पडी शके नहि. ४ औदारिक देह स्वषामा जेम ६ पोस्नियो करी पडे हे तेम मूक बैंक्रिया उत्तर किय-अने आहारक देह रखवामां पण छप पर्याप्तियों करवी परे माटे "प्रणे देने योग्य" स्यादि कहेलं छे. ५५ मात धातु मात्र औदारिक देह धारीनेज होय छे, परन्तु पौयं पातु मूल वैकिपशरीरने पण होय . अने आहारक शरीर प सात धातु रहित छे, माटे ५ त्रणे देहनी शरीरपर्याप्तिमां साधारण अर्थ पने के . जे शकिषः जीव आहारारा प्रहण करेल पुगको, स्वस्थयोग्य शरीर रचे ते शनि शरीरपर्याप्ति कवाय". Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ५५) ( १३९ ) वास योग्य पुत्रको पहण करी बने वासोच्छ्रासपणे परिणमात्री, तेज शक्तिवडे ते पुलो अलैचीने मूके ते श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिकहेवाय ॥२२॥ प्रश्न- देव नामकर्म भने उच्छूवास नाम कर्मवडेज देह भने छुवानी उत्पत्ति सिद्ध याय के ( थशे ?) तो आ देह पर्याप्त अने उच्छवास पर्याप्तिवडे शुं प्रयोजन ले ? ॥२३॥ उत्तर - अहिं जीवनडे ग्रहण करायलां पुगकोनुं देह पणे जे परिणम ते शरीर नाम कर्मवढे साध्य के ||२४|| अने प्रारंभ करेला अंगनी जे समाप्ति ते शरीरपर्याप्तिवडे थाय छे. ए प्रमाणे साध्य ( कार्य ) ना भेदथी शरीर नामकर्म अने पर्याप्त नामकर्मनो भेद छे, ॥२५॥ ए रीने जीवनी वासोच्छ्वास लग्धि श्वासोच्छ्रास नामकर्मवडे साध्य छे, अने ते श्वासोच्छवास लब्धिनो ( संबंधि ) जे व्यापार करबो ते उच्छवास पर्याप्तिथी साध्य है. ॥२६॥ कारण के उच्छवास नामकर्षथी उत्पन्न वेलीच्छ्रवास लांच्ध होते छते पण ते लधिनो उपयोग करवाने ( व्यावृत करवाने ) जीव उच्छवास पर्याप्तिवंडेज समर्प थाय छे, परन्तु बीजी रीते नहि ॥ २७ ॥ जेमके बाण फेंकवानी विद्यमान शतिने पण ( शक्ति होते पण ) धनुष्य ग्रहण करवानी शक्ति विना सुभट ( बाण प्रक्षेप, शक्तिने ) सफळ करवा समर्थ नथी. ||२८|| तथा जीव जे शक्तिवडे भाषायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी, भाषापणे परिणमात्री भने अवलंबीने जे शक्तिवडे बिस ने आ भाषा पर्याप्त कहेवाय. ॥ २९ ॥ तथा जीव जे शक्तिवडे म नोयोग्य पुनलो ग्रहण करी मनपणे परिणमात्री अने अवलंबीने (जेशक्तिवंडे ) चितवन व्यापार करवामां समर्थ थाय ते अहिं मनः पर्याप्तिकहेली छे. ||३०|| २ फाळ भारपानी क्रिया पहेला जेम शरीरनों कईक संकोच प्रयत्न करी फाळ मराय छे, तेम श्वासोच्छ्वासादि पुद्गलोने पण प्रथम तथाविध ( अवलम्वनरूप ) प्रयत्न करी ले प्रयत्नथी उत्पन्न थयेली त्रिमर्जुन शक्तिबड़े विसर्जन कराय छे, ते बिसर्जन थवामां कारणरूप जे प्रथम अवलंबन कहेवाय. प्रयत्न से १ शरीरनाम कर्मचटे पुगली शरीररूपं परिणमे, शरीरपर्याप्तिनाम कर्मबडे 'शरीर रखवानी शक्ति प्राप्त थाय अने शरोरपयलि बढे जीव शरीर रचनानी क्रियामां प्रवृत्त थाय. सिं शङ्का " शरीरपर्याप्त पटलेलीने शरीर परिणामी श प अर्थ हो तो शहर पर्याप्त अन्तर्मुहर्ते पुण थयाथी शरीर ग्वा " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) ।। पर्याप्तारविशेपवर्णनम् ॥ म्रियन्ते येऽव्यपर्याप्ताः पर्याप्तित्रयमादिमम् । पूर्णीकृत्यैव न पुन -- रन्यथा सम्भवेन्मृतिः ॥ ३१ ॥ तथाहि ॥ पर्याप्तित्रययुक्तोऽन्त --र्मुहूर्तेनायुरग्रिमं । बद्ध्वा ततोऽन्तर्मुहूर्त्त -मबाधां तस्य जीवति 11 नी शक्ति पण अन्तर्मुहूर्त बाद प्राप्त धाय छतां शरीर रचनानो प्रारंभ (उपक्षणी पर्याप्तियोको प्रारंभ) तो प्रथम समधी शद थाय छे, अर्थात् प्रथमादिसमयगृहीत पुद्गलो ( प्रथम समयश्री भगना उपान्त्यसमय सुधी गृ डीत पुद्गलो ) शरीर पणे परिणमतां जाय छे तो शरीर रथवानी शक्ति प्राय (शरीर पर्याप्ति) या पडेल ते पुद्गलो शरीररूप केभी रीते परिणमे ? उत्तर- हे जिज्ञासु ! शरीरनामकर्मोदयमा कार्यरूप शरीर रचनानो प्रा. रंभ शो ( शरीरनामकर्मनो उदय भवना प्रथम समयेज होवाथी ) भवना प्रधम समयश्री या चुक्यों के, परन्तु तं शरीर ज्यां सुधी स्वकार्य (काययोग) करवाने असमर्थ छे, त्यां सुधी शरीरनी संपूर्ण रचना यह न कहेवाय, परम्सु अन्तर्मुहर्ते ज्यारे ते पुद्गलोपश्चयथी वृद्धि पामेलुं शरीर स्वकार्य करवा समर्थ थाय त्यारे शरीर संपूर्ण "कहानी दोषार्थी अन्तर्मुहूर्त बाद शरीरपर्याप्ति ( शरीर रचवानी शक्ति ) समाप्त पाय एम काम कोई विरोध नथी. "" 86 33 तथा उच्छवास नामकर्मबडे जीवने उड़वास लब्धि एटले पुगलो ने उपवास पणे परिणमाषी श्वासोच्छ्वास र मूकी शके पवी योग्यता प्राप्त थाय छे। अने ते योग्यतारूप लब्धि उच्छ्रयास लेषा मुकवामा व्यापार बिना सफल थाय नहि, अने ने उच्छवास लेषा मूकषानो व्यापार ते तथाविधशक्ति बिना पहले श्वासोच्छ्रयास पर्याप्ति विना होइ शके नहि, अने ते श्वा सोनामपतिरूप शक्ति श्वासोच्छवासपर्यादित नामकर्म विनाश महिमाटे सवाल पर्याप्तिनामकर्मगडे यामास पर्याप्ति पूर्ण थाय जेथी उच्छ्वास लेवानी शक्ति उत्पन्न घाय, अने ते शक्ति बाछो जांब उच्छवास नामक मंदिया प्रभावे श्वासोच्छ्रवास योग्य पुगी लइ शो षास पणे परिणमात्रे अबलंबे बने विम एम (प्रवासोच्छ्रासपणे ) परिणमाश्रादि क्रिया करवानी में शक्ति ते पर्याप्त कषाय, अने ए परि मनादि कियामां ने उच्छ्रासन नियतपणुं करनार ते उच्छ्वास नामकर्म आण जेथी उच्छ्वास पर्याप्त उच्छ्रयामपर्यादित नामकर्म उच्षाभ नामकर्म = अने उच्छ्रवास इत्यादि सबै भेदनी स्पष्ट रीतं भिन्नता समजी शकाय छ, १ कोइपण जीव आयुष्य बांध्या बाद कमीमां कभी अन्तर्मुहूर्त व्यतीत मेज मरण मे छे, परन्तु आयुष्य बांध्या बाद तुर्तज (अनन्तरादि समये ) मरण पासो नथी, अने र अन्तर्मुहूर्त्त "अबाधा काळ" पत्रा नामधी ओळखाय छे. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकपकाशे तनीयः सर्गः ॥ (सा. ५६) (१४१) ॥ ३२ ॥ ततो निबद्धायुर्योग्यां, याति तां गतिमन्यथा। श्रवद्धायुरनापूर्ण-तदाबानो बजेकनर : ३१ दुशोच. मज्ञापना. तौ॥ यस्मादागामिभवायुर्ववध्वा नियन्ते सर्वदेहिनो नाऽबया, तच्च शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति, नाऽपर्याप्साना (सा०५६)।समयेभ्यो नवभ्यः स्या-प्रभृत्यन्तमुहर्तकम् । समयोनमुहूर्तात-मसंख्यातविधं गतः।।३४॥ततः सूक्ष्मक्षमादीनामन्तर्मुहर्तजीविनाम्। अन्तर्मुहर्तानेकत्व-मिदं सङ्गतिमङ्गति ॥३५॥ युग्मम् ॥ उत्पत्तिक्षण एवैताः, स्वा स्वा युगपदात्मना। आरभ्यन्ते संविधातुं, समाप्यन्ते त्वनुक्रमात् ॥ ३६ ॥ तद्यथा-आदावाहारपर्याप्ति-स्ततः शरीरसंज्ञिता । तत इन्द्रियपर्याप्ति--रेवं सर्ग अपि कमात् ॥ ३७ ॥ तत्रैकाहारपर्याप्तिः, समाप्येतादिमे क्षणे । शेषा असंख्यसमय-प्रमाणान्तर्मुहर्ततः ॥ ३८॥ अनुक्रमोऽय विज्ञेय यौवारिकशरीरिणाम् । वैक्रियाहारकवतां, ज्ञातव्योऽयं पुनः क्रमः ॥ ३९ ॥ एका शरीरपर्याप्ति-र्जायतेऽन्तर्मुहूर्ततः । एकैकक्षणवृद्धयातः, समाप्यन्ते पराः पुनः ॥४०॥ निष्पत्तिकालः सर्वासां, पुनरान्तर्मुहर्तिकः। श्रारम्भसमयायान्ति, निष्टा छन्तर्मुहर्ततः ॥ ४१ ॥ आहारपर्याप्तिस्त्वत्रापि प्राग्वत्।।मनोवचाकायबला-त्यक्षाणि पञ्च जीवितम् । श्वासश्चेति दश प्राणा, द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यते ॥ ४२ ॥ इतिपर्याप्तिस्वरूपम्-- ___ अर्थ--जे जीवो अपर्याप्ता ( लधि अपर्याप्ना) छतां ज मरण पामे छे. तेओ पण प्रयमनी वण (आहार-शरीर-इन्द्रिय) पर्याप्तिी पूर्ण करीनेज मरण पामे के, परन्तु अन्यथा (त्रण पर्याप्तिी बांध्या शिवाय) मरण संभवे नहि ॥३१॥ ते जेमके -त्रण पर्यानिये 'युक्त जीव अन्तर्मुहूर्त आवमा भवनुं आयुष्य गांधीने १. सन्द्रियपर्यापित बांधी इन्द्रियो पूर्ण था होय मंज जीव आयुग बांध Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) ॥ पर्याप्तिद्वारविशेषविचारस्वरूपम् ॥ स्पारपछी अन्तमुहर्त प्रमाण आयुष्यना अराधाकात सधी जीने के. ॥ ३२ ।। त्यारवाद (अवाधाकाल पूर्ण यया पछी) बांधेला आयुष्यने उचित ने गनिमां जीव जाय छे, अन्यथा (प्रण पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या शिवाय) जे जीवे आयुष्य चाँयु न. थी, तथा (अगर प्रण पर्याप्तिओ करी आयुष्य बांध्यु होय तो पण)जेणे तेने अपाषकाल पूर्ण कर्यों नथी ते जीव क्या ( कइ गनिमां) जाय ! ॥ ३३ ॥ श्री प्रज्ञापनासूत्रनी वृत्तिा पण तेमज फधुले के-"जे कारणधी सचे प्राणीमो परमवर्नु आयुष्य चांधीने ज मरण पामे , परन्तु बांध्या विना मरण न पामे, अने ते पण शरीर अने इन्द्रिय पर्याप्ति वडे पर्याप्ना थयेल जीवोने - (आयु) बंधाय छे, पण एथे पर्याप्तिो बड़े अपर्याप्त (अपूर्ण) रहेल जीगेने नहि " जे कारणे १ समययी मांडीने ? समय न्यून मुहूर्त सुधीनां असंरूप प्रकारनां अन्तर्मुहूचों छे. ॥ ३४ ॥ ते कारण माटे अन्न महर्च आयुष्यवाळा सहपृथ्वीकाप वगेरे जीवोना (आयुष्यना) भिन्न भिन्न प्रकारनां अन्नमुंहन होय नो तं युक्त रे. [अर्थात् एक अन्त महतं आयुष्यवाळा पण अनेक जीवोनुं आयुष्य परस्पर परखें होतुं नयी.] ॥ ३५ ॥ वळी पान्मा उत्पत्ति समयेज पोम पोमाने योग्य ते प. यातियो एक साथेन (सपकाळे ज ) करवा पांडे के ( प्रारम्भे के 1, परन्तु अनुक्रमे समाप्त थाय छे. ।। ३६ ॥ ते आ प्रमाणे-मयम ज आहारपर्यास्ति, तदनतर शरीरपर्याप्ति, तदनन्तर इन्द्रियपर्याप्सि ए प्रमाणे श्वासोच्छ्वास-भाषा-अने मन ए सब पाप्तियो अनुक्रमे संपूर्ण पाय छे. ।। ३७ ॥ त्या एक आहारपर्याप्ति प्रथम समये समाप्त याय छे. अने शेष ५ पप्लियो असंख्य समय प्रमाणे अन्न महर्ने अनुक्रमे संपूर्ण थाय छे. ॥ ३८ ॥ वळी समाप्तिनो ए अनुक्रम ( काळ ), औदारिक शरीरबाला जीवोनी अपेक्षाए जाणवो अने वैक्रिय मथा आहारक शरीस्वाळा जीवोनी पर्याप्तिओनी ममाप्तिनो अनुकम [काळ] आममाणे छ. ।।३५॥ एक शरीरपर्याप्सि अन्तर्मुहत्ते संपूर्ण पाप के, अने शेप ५ पर्यापानी अधिकारी य है, आयु यन्धने म्टायक अध्यवसायो पण त्यारेज आवे है, २ कर्म बांध्या पछी उश्यमांन आवे त्यां सुधीनो चलो काल ते अबाधाकाल कहेषाय , १ अर्थात् प्रथम समयगृहीत पुतलोना अबलम्बन य? जीषने गृहोनाहार ने ब्रलरम गणे परिणमाववामी शक्ति संपूर्ण प्राप्त धाय छ, अने शेष हालियो देश प्राप्त थाप है. नतर से ते शमि प्रायोग्य पदगलोनी समूह जेम जेम भेगी यतो जाय तेम तेम ते ते शक्ति अनुक्रमे प्रगर ( संपूण स्वकार्यममर्थ ) यती जाय प हेतुधी सर्व पर्याप्तिमा प्रारंभ समकाल, - अने समाप्ति अनुक्रमे कोहली छे. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लोकप्रकाशे इतीयः सगः ॥ (सा० ५७) (१४३; प्तियो एकेक समयनी 'वृद्धिए संपूर्ण थाय छे. ॥ ४० ॥ पुनः एत्रणे शरीरवान्न जीवोने सर्व पर्याप्तियोनो समुदित काळ अन्नमुंहतंज छे. कारणके प्रारम्भ समयथी एक अन्तर्मुहत (ते पर्याप्नियो) सपाल थाय है. ॥४१॥ अहिं पण आहारपनिनी समाप्निकाळ नो पूर्ववच ? समयमात्रनो ज छे. वळी आ पर्याप्तिद्वारमा ज मन-वचन-काय ए ३ वळ-५ इन्द्रियो-आयुष्य अने श्वासोच्छवास ए१. पाणो छे,ते पाणभेद पण आ दारमांज कडेवाशे.॥४॥ इति पर्याप्तिस्वरूपम् ।। तजसकामणवन्तो, युज्यन्ते यत्र जन्तवः स्कन्धैः । औदारिकादिकादियोग्यः, स्थानं तयोनिरित्याहुः ॥ ४३ ॥ तथा च ॥ व्यक्तितोऽसंख्यभेदास्ताः, संख्यारे नैव यद्यपि । तथापि समवर्णादि--जातिभिर्गणनां गताः ॥४४॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्ती-केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयो,जाति अधिकृत्य एकैव योनिर्गण्यते (सा० ५७)। लक्षाश्चतुरशीतिश्च, सामान्येन भवन्ति ताः। विशेषातु यथास्थानं, वक्ष्यन्ते स्वामिभावतः ॥४५॥ किञ्च--संवृता विवृता चैव, योनिर्विघृतसंवृता। दिव्यशय्यादिवत्रा द्यावृता तत्र संवृता ॥ ४६ ॥ तथा विस्पष्टमनुष--लक्ष्यमाणापि संवृता। विवृता तु स्पष्टमुप-- लक्ष्या जलाशयादिवत् ॥ ४७॥ उक्तोभयस्वभावा तु, योनिर्विवृतसंवृता । बहिर्दृश्याऽदृश्यमध्या, नारीगर्भाशयादिवत् ॥ १८ ॥ तृतीययोनिजाः स्तोका-स्ततो द्वितीययोनयः। असंख्यघ्नास्ततोऽनन्त-गुणिताः स्युरयोनयः ॥ १९ ॥ तेभ्योऽप्यनन्तरणिताः, - .. . . - -.. -. - १ देषोने भाषा अने मन:पर्यापित पक ममयमा ( समकाळे) पूर्ण पाय'छे. मेथी देवोने पांच पर्याप्ति होय एम स्पष्ट कहेवाप छ. २ प्राणहार पर्याप्तिवारमा अन्तर्गत कोल होवाची पर्याप्तिमारमा पर्यानि अने माण प धम्ने द्वार जीवभेदोमां उतरी. इति भावः ॥ . पर्याप्त संवधि घणोज विस्तार मवताविस्तराधमां कोलो डोषाथी म्याथी जो देवो. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) ॥ योनिद्वार-स्वरूपमेदादिविचारः ॥ ख्याताः प्रथमयोनयः । एवं शीतसचित्तादि--स्वप्यल्पबहुतोहताम ।। ५०॥ शीता चोष्णा च शीतोष्णा, तत्स्पर्शान्वयात्रिधा । सचित्ताऽचित्तमिति, भेदतोऽपि त्रिधा भवेत् ।। ५१ । जीवनदेशैरन्योऽन्या-नुगमेनोररीकृता । जोरदेहादिः सचित्ता, शुष्ककाष्ठादिवत्परा ॥५२॥ अत एवाङ्गिभिः सूक्ष्म--स्त्रैलोक्ये निचितेऽपि हि । न तत्प्रवेशैर्योनीना-मचित्तानां सचित्तता ॥५३॥ सचित्ताचित्तरूपा तु, मिश्रा योनिः प्रकीत्तिता। नृतिरश्वां यथा योनी, शुकशोणितपुद्गलाः ॥ ५४ || आत्मसाहिहिता ये स्यु-स्ते सचिताः परेऽन्यथा । सचित्ताऽचित्तरोगे त-धोनेमिश्रत्वमाहितम् ।। ॥ ५५ ॥ योषितां किल नाभेरधस्ताच्छिराद्वयं पुष्पमालाकक्ष्यकाकारमस्ति, तस्याधस्तादधोमुखसंस्थितकोशाकारा योनिः, तस्थाश्च बहिचूतकलिकाकृतो मांसमचर्यों जायन्ते, ताः किलासूक्स्यन्दित्वात् ऋतौ स्त्रान्ति, तत्र केचिदमृजो लवाः कोशाकारकां योनिमनुप्रविश्य सन्तिष्ठन्ते, पश्चाच्लुकसंमिश्रांस्तानाहारयन् जीवस्तत्रोत्पद्यते, तत्र ये योन्यात्मसात्कृतास्ते सचित्ताः कदाचिन्मिश्रा इति । ये तु न स्वरूपतामापादितास्तेऽचित्ताः । अपरे वर्षयन्ति-अमृक सचेतनं शुक्रमचेतनमिति । अन्ये ब्रुवतेशुक्रशोणितमचित्तं योनिप्रदेशाः सचित्ता इत्यतो मिति तु तस्वार्थवृत्तौ द्वितीयेऽध्याये (सा० ५८)॥ (चतुर्थयोनिहारविचारः) ___ अर्थ-तेजस अने कार्मण शरीर युक्त जीवो औदारिकादि पुद्गलस्कायोवडे (साथे) जे स्थाने जोहाय ते स्थाननु नाम योनि कहलाय.॥४॥ बळी यक्तिमेद ने योनियो असंख्य प्रकारनी के तेथी मोके आरलो संख्यावाळी छे पम कोवाने १कस प्रकारमा वर्णवाळी जुदी जुदी असंख्य योनियो से व्यक्तिभद. शेमके एक सरखा रंगशाळा १०० घटा ते व्यक्तिभेद १०० गणाय. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ थु) ॥ लोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा०५८) (१४५) योग्य नथी तोपण सरखावर्ण विगैरेनी जातिवडे ते गणत्रीमा आवी शके छे.॥४४॥ श्रीमज्ञापनावृत्तिमा पण एमन कहेल के के-" मात्र अमुक अकारना ( जुदा जुदा एकज ) वर्णादिवाळी योनियो स्वस्थाने व्यक्तिभेदे करीने असंख्य छे तो पण ते असंख्य योनियो जातिभेदबड़े एकज योनि गणाय छे. ॥ ४५ ॥ सामान्य पणे ते योनियो ८४ लाख छे, अने विशेषथी तो जे स्थाने योनियोना स्वामि गणवामा आवशे. त्यां ( कया जीवनी कैटली योनि छ ? ने कईबाना स्थाने ) कहवाशे. ।। ४६ ॥ वली संघृता-विवृता अने वियतसंवता ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी योनियो छे, तेमां दिव्यशय्यादिनी पट वखादि बड़े जे आवन (कायेल ) होय ते संवृतायोनि ॥ ४७ ।। नथा अस्पष्ट पणे ओळखाती एवी पण योनि संवृता ज कहबाय अने सरोवरादि जळाशय विगेरेनी माफक जे योनि स्पष्ट रीते ओळवाय छे. ते वियतागोनि ! ४८ ।। अने स्त्रीना गर्भाशयादिनी माफक बहारथी ( उदरद्धि देखाती होवायी) दृश्य, अने अंदरयी (गर्भस्थान नहि देखा होवाथी) अदृश्य ए प्रमाणे पूर्वोक्त बन्ने स्वभाववाली जे योनि ते विकृतसंवृतायोनि कहेवाय ॥ ४९ ।। ए त्रण योनि सम्बन्धि अल्पबहुत्व आ प्रमाणे छ त्रीनी योनिवाला ( विठून संत्रतयोनिवाळा ) जीवो ( गर्भजनरादि ) सवयी अल्प छ, नेथो बीजी विनयोनिवाळा जीयो ( देव नारकादि) असंख्य गुणा छे, तेथी अनन्तगुणा योनि रहित जीवो (सिद्ध परमात्माओ) छे, ॥५०॥ ने तेथी पण अनन्तगुण संतयोनिबाळा जीवो (साधारण वनस्पत्यादि ) के. ए प्रमाणे शीत अने सचिनादि योनियोमा पण अल्पबहुस्व विचारवं. ॥५॥ ते शीतादि योनियोर्नु स्वरूप आ प्रमाणे-ते ते { शीतादि ) स्पर्शयुक्त एवी शीत-उष्ण अने शीतोष्ण ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी पण योनि छे. तथा सचित्त अचित्त अने मित्र ए भेदथी पण त्रण प्रकारनी योनि छे. ॥ ५२ ॥ त्यां जीवप्रदेशोए परस्पर भवेश करवा पणा बढे अङ्गीकार करेल ( एटले जेमां जीरप्रदेशो १. जुदीजुदी असंख्ययोनियो पण एक सरखा प्रदिनी अपेक्षाए पकज योनि गणाय प जाति भेवजेमके सरखा रंगघाळा संकढी घहा पण जातिभेदे पकज जातिना गणाय. २ तेज घर्णादिकने आश्रय. ३ सरखो वर्ण गन्ध-रस-पश भने संस्थान याळा अनेक उत्पत्ति स्थान पण ( जातिभेद वडे ) १ योनि गणाय इति भावः ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) । योनिद्वारतद्भेदविशेषवर्णनम् ॥ (खार व्याप्त थयेला होय तेवां जीवतां जे शरीर विगेरे ते सचित्तायोनि तथा शुष्क (सुका) काष्ट विगेरे सरखी अजीव ते अवित्तायोनि कत्राय ॥ ५३ ॥ ए हेतुथीज सूक्ष्म प्राणीओकडे त्रणे लोक भरेला होते छते पण ते क्ष्मजीवोना आममदेशीवडे अचिचयोनियोने सचित्तपणुं प्राप्त यतुं नथी. ॥ ६४ ॥ अने कंक सचित्त अनेक अचित्त एवी जे योनि ते मिश्रयोनि कहली छे, मनुष्य अने तिचोनी योनियां जे वीर्य अने रुधिरना ( जेटला ) दुगलो आत्ममदेशोसाथै एकरूपता धाम्या होय ( अर्थात् जेमां आत्मप्रदेशो व्याप्त थया होय ) तेटला मुगलो सचित्त अने वीजा पुद्गलो (वीर्य- रुधिरना ) अचित्त छे, ए प्रमाणे सचित अनं अचित्तना योगयी ते योनिने मिश्रणुं कहे . ॥ ५५ ॥ "स्त्रीयोने निश्चय नाभियो नीचे पुष्पमाळानी जनोइने आकार मे शिराओ ( नसो ) छे तेनी नीचे नीचामुखे रहेली कमलडोडाना आकारवाळी 'योनि छे, अने ते योनिधी बहार आंवानी कळो (मञ्जरी) सरखी मांसनी मञ्जरीयो थाय छे. ते मांसनी मारीयो ऋधिर झरखाना स्वभाववाळी होवाथी (लगभग) दरमा रुधिर झरे छे (जेने अटकाव - अडचण - ओपटी इत्यादि कहे . ) ते झरना रुधिरना hear अंश कमलडोडाना आकारवाळी योनिमा प्रवेश करीने रहे थे, त्यास्वाद (संभोगथी ) वीर्य मिश्र थयेला ते रुधिरना अंशनो आहार करतो जीव ते योनियां उत्पन्न थाय छे. त्यां योनिए जे वीदेशों आत्मसात् [ पोताना रूपजीवप्रदेश व्याप्त ] कर्या होय ते वीर्यमदेशो सचित्त अने कदाचित् मिश्र होय छे, अनं जे वीर्यप्रदेश योनिरूपने (योनिगत आत्मप्रदेश व्याप्तपणाने ) नपाम्या होय ते वीर्यपदेशो अचित्त होय हे -वळी बीजा आचार्यों एम कछे के" रुधिर सचित्त के अने वीर्य अचित्त है." अने केटलाएक एम कहे छे के "वीर्य अने रुधिर अचित्त छे, अने योनिना प्रदेशी सचित्त ले ए हेतुथी मिश्रयोनि कहेवाय के" इति तवार्थे वीजा अध्यायना ३३ मा सूत्रनी वृत्तिमां छे. योनिस्त्रिधा मनुष्याणां शंखावर्तादिभेदतः । यस्यां शंखख इवावर्त्तः, शंखावर्त्ता तु तत्र सा ॥ ५६ ॥ कूर्मोन्तता भवे २ योनि अभ्यन्तर अने या एम के प्रकारनी है तेमां आ चालतुं स्वरूप अभ्यन्तर योनिनुं छे, के जे यांनि खोना गर्भाशय रूप छे, प अभ्यन्तर योनिमांज जीवनी उत्पत्ति होय हे अने आगळ कडेवाली शंखार्त्तादि दवाळी योनि के जे वालिङ्ग आकाररूप हे ने ब्राह्मयोनि जाणवी. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ थु) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ६१) (१४७ ) योनिः, कूर्मपृष्टमिवोन्नता । वंशीपत्रा तु संयुक्त-वंशीपत्रद्वयाकुतिः ॥५७॥ स्त्रीरत्नस्य भवेच्छंखा-बर्ता सा गर्भवर्जिता। व्युत्कामन्ति तत्र गर्भा,निष्पयन्ते न ते यतः ॥ ५८ ॥ अतिप्रबलकामाग्ने-विलीयन्ते हि ते यथा । कुरुमत्या करस्पृष्टो--ऽप्यद्रवल्लोहपुत्रकः॥५९॥तथा च प्रज्ञापनायां-"संखावत्ताणं जोणी इस्थिरयणस्स।"(सा०५९) (शंखावर्ता योनिःस्त्रीरत्नस्य) अहंञ्चक्रिविष्णुबल-देवाम्बानां द्वितीयका तृतीया पुनरन्यासां,स्त्रीणां योनिःप्रकीतिता ||६०॥ इदं च योनीनां त्रिधा विध्यं स्थानाइत्तृतीयस्थाने (सा० ६८माचारङ्गत शुभाशुदेश योनीनामनेकत्वमेवं गाथाभिः प्रदर्शितम्॥सी यादीजोणीयो, चउरासीती असयसहस्सेहिं । असुहाओ य सुहाओ, तत्थ सुहाओ इमा जाण ॥६१॥ अस्संखाउमणुस्सा,राईसरसंखमादिआऊणं । तित्थयरनामगोय, सबसुहं होइ नायव्वं ४६२॥ तत्थवि य जाइसंपन्नयाइ, लेसाओ होति असुहायो । देवेसु किब्बिसाई, सेसाओ हाँति उ सुहायो ॥ ६३ ॥ पंचेंदियतिरिएसु, हयगयरयणा हवंति उ सु.. हाओ । सेसाओ असुहाओ, सुहबन्नेगिंदियादीया ।। ६४ ॥ दे. विदचक्कवहि-तणाई मोत्तुं च तित्थयरभावं ॥अणगारभावियावि य, सेसामो अणंतसो पत्ता॥६५॥(सा० ६१) [शीतादियोनयः चतु-रशीतिश्च शतसहनेः। अशुभाश्च शुभाः तत्र, शुभा इमा जानीहि ॥ असंख्यायुषो मनुष्या,राजेश्वराः संख्यायायुषः [शक. खादयः]तीर्थकरनामगोत्रं.सर्व शुभं भवति ज्ञातव्यमतित्रापि च जातिसंपन्न-तादेः शेषा भवन्ति अशुभाः।देवेषु किल्बिषादेः, शेषा भवन्ति शुभाः ॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु, हयगजरत्ना भवन्ति तु शु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) ॥ योनिद्वारेयोनिमेदनिरूपणम् ॥ भाः 1 शेषा अशुभाः, शुभवर्णैकेन्द्रियादयः ॥ देवेन्द्रचक्रवर्ति- 1 स्वादि मुक्त्वा च तीर्थकरभावं । अनगारभाविततामपि शेषाः (भावाः) अनन्तशः प्राप्ताः ॥ ] इति योनिस्वरूपम ।। उपर कहेला योनिमा मेदो सर्व जीवो आश्रयि कन्या अने हवे जे भेदमात्र मनुष्यने आश्रयिज होय ले ते को छे. मनुष्योनी योनि शंखावादिभेदथी ३ प्रकारनी है, मां जे योनिमा शंख सरखो आवर्त ( ऑटो--भमरो ) होय ते अहि शंग्वावर्सयोनि फहवाय ।। ५६ ॥ तथा जे योनि काचबानी पीठ सरखी उन्नत-उंचा भागवाळी होय ते कूर्मोमतायोनि कहेवाय छे, अने जे योनि वासनां जोडायला ये पत्र सरखा आकास्वाळी होय ते वंशीपत्रायोनि कहेवाय छे. ॥५७ ॥ तेमा चक्रवर्तीना श्री रत्नने ( मुख्य पटराणीने ) गर्भोत्पत्ति रहिन एवी शंखावर्तयोनि होय छे, कारण के ते योनिवाळी स्वीना गर्भमां जीवो गर्भपणे आवीने उत्पन्न धाय छे. परन्तु नेओ जन्मता (जीवता ) नथी ।। ५८ ॥ जेथी अति प्रथल कामाग्निवहे से जीवो उत्पन्न थनां न विनाश पामी जाय छे. जेम कुरुमतिना हाथथी स्पर्श करायलो लोहपुत्रक ( लोखण्डनु पूतळ) पण गळी गयोः ॥ ५ ॥ ___ श्री प्रज्ञापनासूत्रमा कर्जा के के-"शंखावयोनि स्त्रीरन्नने होय" अरिहन्त-चक्रवर्ति-वासुदेव अने बळदेव ए चारनीज पानाओनी बीजी कोन्नसायोनि होय, अने बीजी सामान्य स्त्रीयोनी जीजी बंशीपत्रायोनि होय छे. ॥ ६० ॥ आ योनियोना प्रण मेद त्रण प्रकारे ( एरले सर्व मली ९ प्रकार ) १ अलवत्त चयतिनी मुख्य स्त्री (स्री रत्न) कुरुमतिप लोपण्डना पुत. काने हाथ बडे स्पर्शतां ते समर्छ रसमय थइ गयु. शंका-जो लोदान न स्त्रीरत्नना स्पर्शवडे गटी जाय तो नेधी स्त्री सुवर्णादिकां आभूषण केथी रीते पहेगी शके ? उतर-- अति कामानुर युक्त थइ विषय इछा पूर्वक स्पर्श करमाथी लोहपुत्र(पूतळगली गयो पम जाणयु, जेधी आमूषणाविक हेग्थामा तथा वीजा जीव अजीबना स्पर्शमां करपणा अडचण थाय नहिं २ कुम्भुम्नताप जोणीप तिनिहा उत्तमपुरिसा गभ्भ यक्कमति जहा-अरहन्ता--थक्कषट्टी-पळदेवा बासुदेवा ( इति ठाणांगतृतीय स्थाने ) ३ शीपत्रावि णे भेद बालयोनिमा जाणषा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-५ में) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ६१) (१४९ , श्रीठाणांगजी मृत्रना बीजा ठाणामा कह्या छे,अने आचारांग सत्रनी - चिमांशुभाशुभभेदे करीने योनियोना अनेक प्रकार गाथाशे बडे दर्शायेला ॥३॥ ते आ प्रमाणे-श्री आचारांगपत्तिमां-"शीनादि भेदवाळी योनियो ८४ लाख हैत शुभ अन अभएमबमकारनी छे, त्यां शुभयोनियो आ (आगळ कहे. चाय के ते) जाणवी. असंख्य आयुष्याला मनुष्य-तथा संख्यानाआयुष्यवाळा [ वा शंस्वादिचक्रवर्ति- अने वासुदेव विगेरेनी नथा तीर्थंकर नाम कर्मवाला नीर्थकर भगवाननी योनियो सर्व शुभ होय एम जाणवू ॥ ३२ ॥ नेमां पण उत्तम जाति कुळवाला पुरुषोने उत्पन्न थरानी योनियो पर्व शुभ जाणवी, भने शेषयोनियो अशुभ होय छे, तथा देवोमा किल्विपिया बगेरै [ फिल्विपियापरमात्रामी-विगैरे ] देवोनी अशुभयोनि अने शेष सर्व देवोनी शुभयोनि जाणवी ।। ६६ ।। तया पञ्चन्द्रिय सियचोमां चक्रवर्तिना अश्व-रत्नइस्तिरत्न विगेरै उत्तमजानिमा तियनो गुभयोनिवाला, अने शेष सिर्यची अशुभयो निवाला छे, तथा एकेन्द्रियादि जीवोमां शुभ वर्ण-गन्ध-रस अने स्पर्शवाला जीवो शुभयोनिचाला अने अशुभवर्णादिवाला एकेन्द्रियादि अशुभयोनिवाळा गणाय . ॥६४|| देवेन्द्रपणानी-चक्रवर्तिपणानी-नीर्थंकरपणानी अने भावितात्मा अणगारपणानी ( मोक्षाभिमुखी उत्तम मुनिपणानी ) योनि वर्जीने (पटले देशैन्द्रादिकपणानी उत्पत्ति वर्जीने ) शेष योनियो ( उत्पत्तिम्थानो) अनन्नी वखन प्राप्न थयां . [कारणके देवेन्द्रादिपणुं जीवने संमाग्मांप्रायः एक वरवतज पाप्न थाय छे. ] ।। ६५ ॥ इति योनिस्वरूपम् ॥ कुलानि योनिप्रभवा-न्याहुस्तानि वहन्यपि । भवन्ति योनावेकस्या, नानाजातीयवेहिनाम् ॥६६॥ कृमिवृश्चिककीटादि-नानाक्षुद्रागिनां यथा । एकगोमयपिण्डान्तः, कुलानि स्युरनेकशः ॥६७॥ कोटयेका सप्तनवति-लक्षाः सार्धा भवन्ति हि । सामान्यात्कुलकोटानां, विशेषो वक्ष्यतेऽग्रतः ॥ ६८॥ इति योनिकुलस्वरूपम्, तत्संवृतत्वादि च ॥ (अथ पञ्चमं कुलद्वारम् ) १ प्राकृतना संग्वमादि शब्दमो शंकादि अर्थ ठाए तो प्रघोष प्रमाणे शंग्न आयती चोत्रीशीमा थनार चयत्ति छे ते लेघा, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५०) ॥ कुछ खारेकुलकोटिसंख्यानिरूपणम् ।। (बार . अर्थ-हये कुलनु स्वरूप कहेवाय छेत्यां जेनी उत्पत्ति योनिमां थाय ने कु: ल कहेवाय, ते अनेक प्रकारना प्राणीओनां एकज योनिमां प्रणां कुछ उत्पन्न थाय छे, ॥ ६६ ।। जेम एकज छाणना पिंहनी अंदर कमी-वौंछी-कीडा वगेरे अनेक प्रकारना क्षुद्र (तुच्छ ) प्राणीयोना अनेक कुळ होय छे. नेम एकज योनि मां अनेक कुळ जाणवां. ॥ ६७ ॥ त्या सामान्य पणे ? क्रोड ९७|| लाख कुन कोटि ले, अने विशेपथी आगळ ( जीवभेदमा ) कहेवाशे. ए प्रमाणे योनि- कुल अने मतादियोनिना भेद- स्वरूप का. ॥६६॥ इति कुलकोडिस्वरूपम् ॥ भत्रस्थितिस्तहवासु-विनिय तय कीर्तितम् । सोपक्रम स्यात्तत्राद्यं, द्वितीयं निरुपक्रमम ॥६९।। कालेन बहुना वेद्य-मप्यायुर्यत्तु भुज्यते । अल्पेनाध्यवसानाये--रागमोक्तैरुपक्रमैः ॥ ७० ॥ आयुः सोपक्रमं तत्स्या--दन्यता कम तादृशम् । यद्धन्धसमये वद्धं, श्लथं शक्यापवर्तनम् ॥७॥ युग्मम ॥ दत्ताग्निरेकतो रज्जु-यथा दीघाकृता क्रमात् । दह्यते संपिण्डिता तु, सा झटित्येकहेलया ॥ ७२ ॥ यत्पुनर्बन्धसमये, बद्धं गाढनिकाचनात् । क्रमवेयफलं तद्धि, न शक्यमपवर्तितुम् ॥ ७३ ॥ क्षीयतेऽध्यवसानाये-यैः स्त्रोत्थैः स्वस्य जीवितम् । परैश्च विषशस्त्राद्य-स्ते स्युः सर्वेऽप्युपक्रमाः ॥ ७४ ॥ यदाहुः ॥ अज्झवसाण निमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए ।फासे आणपाण, सत्तविहं झिज्जए आउं ॥७५॥ (सा०६२)(अध्यवसाने निमित्ते, आहारे वेदनायर्या पराघाते स्पर्श आनप्राणे सप्तविध क्षीयते आयुः।)त्रिधा तत्राध्यवसानं, रागस्नेहभयोद्भवम् । व्यापादयन्ति रागाद्या, अप्यत्यन्त. विकल्पिताः ॥ ७६ ॥ यथा प्रपापालिकाया, युवानमनुरागतः । १ एकज प्रकारनी योनिमां जुदाजुदा प्रकारमा उपजता जीपान ओट. खयानु लाधन ते कुल कहेत्राय छे, -- - - - .. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) ॥ श्रीलोकमकाशे तनीयः सर्गः ॥ (मा० ५३) (१५१) पश्यन्त्याः क्षीणमायुर्य-कामस्यान्या दशा मृतिः ॥७७॥ यतः।। चिंतेइ ददठुमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरे दाहे । भसचरोहण मुच्छा, उम्माय न याणई मरणं ॥७८॥(सा०६३) (चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति, दीर्घ निःश्वसिति तथा ज्वरः दाहः । भक्तारोचनं मूर्छा, उन्मादः न जानाति मरणम् ॥) कस्याश्चित्सार्थवा. ह्याश्च, विदेशादागते प्रिये । मित्रः स्नेहपरीक्षार्थ, विपन्ने कथितेऽथ सा ॥ ७९ ॥ सार्थवाही विपन्नैव , सार्थवाहोऽपि तां मृ. ताम् । श्रुत्वा तत्सङ्गमायेव, तूर्ण स्नेहायपद्यत ॥८०॥ भयाद्यथा वासुदेव दर्शनासमियो विजः । हत्वा गजसुकुमारं, नगरीमाविशन्मृतः ॥ ८१ ॥ निमित्ताद्विषशस्त्रादे राहाराबहुतोऽल्पतः । स्निग्धतश्चाऽस्निग्धतश्च, विकृतादहितावहात् ॥ ८२ ॥ शूलादेवेदनायाश्च, गर्ताप्रपतनादिकात् । पराघातास्पर्शतश्च, स्वग्विषादिसमुद्भवात् ॥८३॥ श्वासोच्छ्वासाच्च विकृत--त्वेनास्यन्तं प्रसर्पतः। निरुद्धाहा म्रियेतांगी,तस्मादेते उपकमाः॥८॥स्युः केषांचिद्यदप्येते--ऽनुपक्रमायुषामपि । स्कन्दकाचार्यशिष्याणा-मिव यन्त्रनिपीलना।।८५॥ तथापि कष्टदास्तेषां न त्वायुःक्षयहेतवः । सोपक्रमायुष इव, भासन्ते सेऽपि ते ताः ॥८६॥ अथ प्रकृतम् ॥ षष्ठं भवस्थिति द्वारम् ॥ भवस्थिति एटले ने भवनुं आयुष्य, अने ते ( आयुष्य ) प्रथम मोपक्रम अने पीजू निरुपक्रम एम चे प्रकारनु कहाँले , ।। ३९ ॥ त्यां घणा काळ सुधी भोगचा योग्य आयुष्य आगममां कहेला अध्यवसायादि उपक्रमो [घटवाना निमित्तो] बड़े अल्पकाळमां भोगवाय ते सोपक्रम आयुष्प करवाय, अथवा सेवा प्रकार- बायनिमित्तीचडे अल्पकाळमां भोगवात आयुष्य शिवाय चीजु ज्ञानावरणीयादि कर्म पण जे बन्ध समये शिथिल ( नरम ) रांधलं होय. अने अपवर्तना था शके तेवं होय नो ते सोपक्रम कडेवाय. 11७०,७१॥ जेम एक बाजुथी सळ . गाली दोरीने लांची करी होय तो अनुक्रमे (घणे काळे) वळी रहे, अने ते दो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.. (१५२) ॥ भवस्थितिद्वार-उपक्रमस्वरूपनिरूपणम ॥ [द्वार । रीने एफठी करी होय वो अतिशीघ्र पी जाय ॥ ७२ ॥ तेम वळी जे कर्म ( आयुष्य ) बांधती घेळाए अनि गाढ निकाचनाथी ( तीन परिणामयी ) बां. ध्यु होय तो ने कर्म निश्च अनुक्रमे भोगववा योग्य फळचाल होय छे, अर्थात ने कर्मठे फळ अनुक्रमे घणे काळे भोगव पह छ, पण अपवत्ति शकातुं ( अल्पकरी शकातुं ) नयी ते नि:पक्रम कवाय छे. ॥ ७३ | अने जे पोनानाथी उत्पन्न थयेला अध्यवसायादि अथवा परथी उत्पन्न भयेला विष शस्त्रादिव पानानु सामुक अप का अध्यवसायादि सब उपक्रम कवाय छे, ॥ ७४ ।। कयु छ के-अध्यवसाय-निमित्त-आहार-वेदना- पराघात-स्पर्श- अने श्वासोच्छ्वास-ए ७ प्रकारे आयुष्य क्षय पामेछ. || ७५ || ( बृहसंग्रहणी)। त्यो राग-स्नेह-अने भय ए रणथी उत्पन्न थयेलो होवायी अध्यबसाय ( ए रागादि ) ३ प्रकारनो छे. कारण के-- अत्यन्त करेला रागादि पण मृत्यु पमा छे. ।। ७६ ।। जेम कोइक युवान परबपर पाणी पीवाने आध्यो ते अति रूपवान होत्राथी पाणी पानारी तेना पर मोहित थइ, अने पाणी पीधा बाद ते युधान चालतो थयो त्यारे अत्यन्त रागयी पाछलने पाछळ देख्या करनी ते स्त्रीनी नजरथी ते युवान दूर थतांज ते पाणी पानारी स्त्री मरण पामी. कारणक कामनी छल्ली [दशमी] दशा मरणज छ।।७७||ते कामनी १० दशाभो आ प्रमा. णे- चिंता करे-२ देखाने इच्छे-३ लांबा निसासा नारख-४ ताव[ज्वर] आये ५ शरीर बळचा मांड-६ भोजन उपर अचि थाय-७ मूर्छा आवे-८ उन्माद थाय-९ बेशुद्ध धाय-१० मरण पामे ।। ७८ ॥ ए रागर्नु हान्त का. अने स्नेहथी आयुगक्षयनु दृष्टान्न आ प्रमाणे-कोइक सार्थवाहनी स्त्रीनो पनि परदेशथी आध्ये छते मित्रोए ते स्त्रीना स्नेहनी परीक्षा करवाने माटे सार्यवाह मरण पाम्यो' एम कहवाथी सार्थवाही पण तुर्तज मरण पामी,अने ते स्त्रीने मरण पामेली सांभठीने तेने स्नेहथी मकवाने माटे ज जाण होय नहीं तेम ते सार्थवाह पण शीघ्र मरण पाम्यो. ।। ७९-८० ।। हवे भयन उदाहरण आ प्रमाण-श्रीकृष्णवासुदेवना वेगाइ सोपील ब्राह्मणे दीक्षा लीधेला पोताना जमाइ अने कृष्णना पुत्र गजसकुमारने (मारी पुचीने रखडती करी पवा क्रोध वडे)मारी नाखीने नगरमा प्रवेश करना न सामेथी वासुदेव कृष्णने आवता देवी भयथी परण पाम्पो ॥८॥ ए प्रमाणे भय दृष्टान्त कबी.ए अणे पकारना मरण अध्यवसाय उपक्रमबडे फां, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ मुं] ॥श्रीलोकपकाशे तनीयः सर्गः ॥ (सा० ५३) (१५३) - झेर अने हथीयार विगेरे निमित्तथी परण पाच निमितापाम, बी आई र करवायी अल्प आहार करवायी, घणो स्निग्ध (चीकणो) न पची शके तेवो भारे (सत्यवाळी) अने कक्ष (लूखो सारविनानो), विकारवाळो, बने अहितकर ( अपथ्य ) आहार करवायी जे मरण याप ने आहार बडे मरण कवाय ॥ ८२ ॥ शुळ विगेरेनी पीडाथी मरण याय ते वेदना पडे, मया खाडा-कूवामां पडवाथी-(पर्वतादि उपरथी संपापान करवापी ), जळमां इश्वाथी, फांसी खाचाथी इत्यादिक रीते जे मरण याय से पराघात उपक्रम वडे जाणधु. नधा सदिफना करडवायी, (अथवा विषकन्यादिना स्पर्शथी) मरण पाय ते स्पर्श उपक्रम वडे जाणवू ।। ८३ ॥ तथा शरीरमां कोइफ विकार यता घणा ग्वासोच्छ्वास चालवायी, अथवा वासो. पछ्वास एकदम रोफवापी जीव मरण पामे ते श्वासोच्छ्वास उपक्रम वडे जाणवू, माटे ५ साते उपक्रम जाणवा ।। ८४ ॥ वळी अनुपक्रम आयुष्यबाळा . ओने पण केटलाएकने ए उपक्रमो लागे छ, जेम स्पंदकाचार्यना [चरमशरीरी] शिष्योने यंश्मा पीलावं ययं ।। ८५ ॥ (तेसी निरूपक्रमी आयुष्यवंतने ए उपक्रमो लागे छ,) तो पण तेओने ते उपक्रमो आयुष्य तय यवामां कारणरूप नयी, परन्तु मात्र कष्ट आपनारा छे, ए प्रमाणे ते निरूपक्रमायुष्यवन जीवो पण सोपकम आयुध्यवाळा जीवोनी माफक मरण पामता देखाय छ || 451; १ केटलाएक कहै छे के आयुष्यनो आधार श्वासामधास उपर छे. पटले अमुक जीव आ भषमां आटला श्वामीच्छ्वास पूर्या कर्या बाद मरण पामी शके, अने अधुरा राणा होय तो मरण वव्रत जलवीथी श्वासोच्छ्वास ला पूर्ण करे, पम तेओन कहेयु सर्वथा अयोग्य छे, कारण के पूर्षभषमा मायुस्य. कम बांधती घखते जेटलो आयुष्यनां पुद्गलो उपार्जन कया है सेटलां अव. श्य भोगषषां पद्धे है, परन्तु ते अखले श्वासोच्छवासन निर्माण कर पण करेल मधी. पळी से कडोषींना आयुष्यवाळा अन्तर्मुसमात्रमा मरण पामे तो से जीवो श्वासोच्छवास केम पूरी शके ? इत्यादि अनेक विरोध दोबाथी श्वासोच्छवासमै आधारे आयुष्यनो नियम सर्वथा मथी, परन्तु आयुष्य त्रुट वामां उपर काली गैत प्रमाणे श्वासोच्छ्वास मिमिसमूत था शके 9. श्रा संबंधमा घणी विचार नवनाथविस्तरार्थमा करेली है, ज्यांधी जोवं. प्रावस्तीमगरीमा जिसशत्रनामें राजा हता, धारणी पट्टराणी, स्कन्दक पुत्र अने पुरन्दरयशा पुषी हता,स्कन्दककुमार श्रीमुनिसुव्रतस्वामिना उपदेशी तवमानसाथे प्रावधर्म पाभ्यो हतोपुरन्दरयशाने कुम्भकार कटकनगरना बंर. क राजा लाथे परपात्री ती, दंडकराजामा पालक नामे पुरोहित हतो,पकमत Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मनस्थितिद्वार-उपकमस्वरूप निरूपणम ॥ द्वार पाळकने श्रावस्तीमा जितशत्रुराजानी सभामां मोकल्यो, घातांना प्रसंगमा पा. लके जैनमुमिओनी निन्दा सया मास्तिकमतनी स्थापना करया मांडी, स्कन्द कामारे पादमा हराधी निरुत्तर कों, मानभ्रष्ट थयो पण कुमारर्नु कांइ करवा समर्ध न होबाथी कोषसहित कुंमकारकटकमा गयो, पकदा श्रीमुनिसुअतस्वामिजी श्रावस्तिमां पधार्या,स्कन्दपकुमारे देशना साभली वैराग्यथी पांचमो राजकुमारो साथ दीक्षा गोधी, सकल सिद्धान्तनी सार पाम्या, उग्रविहा. गे थया, पांचसो शिष्योना आचार्य थया. पकदिवम श्रीनिमुन्नतस्वामिपासे आज्ञा मागी के- आपनी आRI होयतो दंडक राजा नथा पुरन्दरयशाने प्रतिबोधवा कुंभकारकटक तरफ विचार करता इच्छा राख्छु, प्रभुये फरमा. व्यु के सममे स्यां प्राणान्त उपसर्ग पर, स्कन्दकाचार्य पूछ\ र भाराधक थाश के नहि?' प्रभुए कहयुं 'तमारा शिवाय सर्व आराधक थशे' स्कन्दकाघायें कहयुमारी साहाय्यथी धीजा आराधक पणे ती पण हुं सर्व पाम्यो पप्रमाणे कदी प्रभुषम्दना करी ते तरफ विहार कर्यो, तमना आवधाना नायर सांभली पाठके पूर्वरथी सेमना उतरवामा उचानमा अनेक प्रकारला शस्त्री दटाच्या,शिष्यपरिचारसमेत आचार्य स्वां समषक्षामगरजनप्साहित दंडकराजा चांदी देशमा सांभळी आनम्वित थर पाछा गया, पालक पकांतमां राजाने कडधु आ आचार्य पाखंडी छे, मुनि नथी,आधारभ्र छ, सहस्रयांधी लहयाओमी साथे तमा राज्य संघाने आल्या. राजाने खातरो थवापाटे कार्यने घाने साधुभोने श्रीशास्थाने मोकळी पोतेज दाटेला शस्त्रो राजाने याताया, रा. जाप गुन्हेगार समजी शिक्षा करवा पालकने जसोप्या अने 'मने योग्य कागे तेम शिक्षा करजे' तेम हुकम आपी स्वस्थाने गया, पूर्वारी बंधी पापामा पालक तार्नु वैर. पाळषामो समय आणी माणस पीलवान यंध लावी एक एक अभिने यंत्रमा नाम्खा लाग्यो, स्कन्दफाचाय दरेकनिने निर्यामणर करा. वी, समाधि पमाडी, आलोयणा करावी जेथी दरेकमुनिओ थेत्रमा पीलाता छतों पण शुक ध्यान अग्निमां कम इन्धनने वाळी अपकथणिमां आरूढ थर अ. स्तक केटा मृतिपद पाम्या, आप्रमाणे से दुष्टपालके चारसा नवाणु मुनिओने यंत्रमा पोल्या अने स्कन्दकाचार्य निर्यामणा कगषी मुकिपदे पहचादशा, पटे वाकी रहेला पक लघु शिष्यने यंत्रमा नागषा तैयारी करता पालकने स्फ, ग्दकाचा प्रथम मने पोल पछी आ लघु मुनिने यंत्रमा नांसजे,प प्रमाण कमीछतां पण प्रथम शिष्यनेज जलदीयो यत्रमा नाल्यो, धेय राखी आचार्यभोप ते. ने पण निर्यामणा कराधी ते मोक्षपर पाम्यो, अही आचार्यश्रीन धर्य न रहे. पाथी अरे! आ दुरान्मानी केषी दुष्टता छे. तेम विचारनां कोग्निथी 'हे दुरारमन ई तारो षधकरनार थइश' तेम नियाj कर्यु, पापी पालके तैमने पण यंत्रमां पीक्या, मियाणामां संयमचिराधनाथी काल करी अग्निकुमारनिकायमा उ. पन्न भया, रुधिरची खरडायेक स्कन्दकाचार्यको ओघो हायनी प्रान्तिय गीध. पक्षिये लीधो परस्पर पक्षियो हडतां से ओधी स्कन्दकाचार्यनी हेन पुरंदर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७) ॥ लोकमकाशे तृतीपः सर्गः ॥ (सा. ६६) (१५५) सोपक्रमायुषः केऽप्य-नुपक्रमायुषः परे । इति स्युडिविधा जीवा-स्तत्र सोपक्रमायुषः ॥८७॥ तृतीये नवमे सप्त-विंशे भागे निजायुषः । बध्नन्ति परजन्मायु-रन्त्ये वाऽन्तर्मुहुर्त्तके ॥ ८८ ॥ यदाहुः श्यामाचार्याः॥ 'सिय तिभागे, सिय तिभागतिभागे, सिय तिभागतिभागतिभागे इति' । (स्थात् [कदाचित् त्रिभागे, स्यात्रिभागत्रिभागे, स्यात्रिभागत्रिभागत्रिभागे इति ) [सा० ६४ ] केचित्तु सप्तविंशाद-प्यय विकल्पयन्ति वै । विभागकल्पनां याव-दन्त्यमन्तर्मुहुर्तकम् ॥ ८९॥ असंख्यायुइँतिर्यञ्च-- श्वरमाङ्गाश्च नारकाः । सुराः शलाकापुमांसोऽ-नुपक्रमायुषः स्मृताः ॥ ९० ॥ अपरे वर्षयन्ति " तीर्थकरौपपातिकानां नोपक्रमतो मृत्युः, *शेषाणामुभयथा" इति तत्त्वार्थवृत्ती,(सा०६५) कर्मप्रकृतिवृत्तावपि 'अद्धाजोगुकोस' इति गाथाव्याख्याने भोगभूमिजेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु च त्रिपल्योपमस्थितिषत्पन्नः पश्चादाशु सर्वाल्पजीवितमन्तर्मुहत्तं विहाय शेषमायुनिपल्योपमस्थितिकमपवर्त्तत्ययन्तर्मुहत्तानमिति (सा०६६) । सुरनैरयिकासंख्य-जीवितियङ्मनुष्यकाः । बन्नन्ति षण्मासशेषा-युषोऽध्यभवयशाना आंगणामां पडगो, :पुरन्दरयशाये स्कन्दकाचार्यनो ओयो ओलख्यो, तथा लोकांना मुखथी मधी अधिकार पण मांभळयो, राजाने ठपको आप्यो. वैराग्यपासिन पुरन्दरयशाने शासनवीप मुनिसुव्रतस्यामोपास मूकी, त्यां संयम नदा आत्मसाधना करी, अग्निकुमारमा उत्पन्न थयेल स्कन्दकाचार्यमा जीवे पालकसहित बंडकराजामी तमाम देश पाळी भस्म कर्यो, जे हाल सुधी लोकप्रतिदिमा 'दंडकारण्य ना नामथी ओळखाय छे. अहीं ५०० शिष्योनु नि:पक्रमी आयुष्याचाळा छा पण मोपक्रमी भाययवतनी माफक यंत्रपोलम थयुं. ५ यंत्रपीलन. शिष्योने मात्र कष्टदायी थयु पण आयुःक्षयमा कारणरूप थयु नथी, कारणके आयुष्यनो ते अग्रतंज अम्त आदी रमो हतो. * शंषाणां घरमदेवोत्तम पुरुषाम बड़येयवर्षायुपाम्' इत्यधिक त-प्रती ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) ॥ भवस्थितिधारे आयुर्वन्धकालविचारः ।। (बार जीवितम् ॥९१॥ मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासावशेषे जघन्यतश्चान्तर्मुहर्तशेषे नारकाः परभवायुर्वघ्नन्तीति भग. शत० १४ उ० १। (सा०६७) निजायुषस्तृतीयेऽशे, शेषेऽनुपकमायुषः। नियमादन्यजन्मायु-निवघ्नन्ति परे पुनः ॥९२॥ यावत्यायुष्यवशिष्टे, परजन्मायुरय॑ते । कालस्तावानबाधाख्य-स्ततः परमुदेति तत् ॥ ९३ ॥ इति भवस्थिति: ७ । ___ अर्थ-इये चालु अधिकार कईवाय छ-केटलाएक सोपक्रप आयुष्यवाळा,अने केटलाएक निरुपक्रम आयुप्यवाळा, ए प्रमाणे जीवो वे प्रकारना छे. त्यां सोपक्रमायुष्यबाळा जीवो पोनाना आयुष्यनो इजो-मो-अने २७मो भाग 'शेष रहये परभानुं आयुष्य वांधे थे. अथवा छेवटk अन्तमुहूत्त शेष राय परभवायु वांधे 2.।।८७-८८॥श्रीमज्ञापना उपांगना कर्ता श्रीश्यामाचार्य महाराजे का छ के-"कदाच श्रीजे भाग, कदाच ९ मे भाग,अथवा कदाच २७ मे भागे परमवायु बांधे," बळी केटलाएक आचार्य तो २७थी पण आगळ यावत् अन्न मुहूर्त सुशी *विभाग कल्पना करे .॥८९॥ असंख्य वना आयुष्यवाळा (युगलिक) मनुष्य अने तिर्यंच-चरमशरीरी ( सद्भत्र मोक्षगामी )-नारकजीबो-देवो-१३ शलाका पुरुषो-ए सर्व अनुपक्रम आयुष्यकाळा कईला छे. ॥२०॥वळी बीजाओ कहे छे के "नीर्थकर अने औपपातिकने (देव नारकने) उपक्रमथी मृत्यु थतुं नथी,शेष जीवोनु बन्ने प्रकारे मरण थाय के " ए प्रमाणे तत्यार्थ वृत्तिमा कामु छ, तथा कर्मभकृतिमा पण 'अखाजोगुक्कोसं"ए गाथानी रोकापा कपुंछ के "कोहक १ चालु पंचमां तथा श्री पन्नषणाजीना पाठमा 'श्रीजे-नयम अने २७मे भागे" पम कायुं छे तोपण चीजो भाग शेष रहशे अने नघमो तथा २७ मो भाग शेष रहो' पवो अर्थ कर्या छ मेज घाबर , कारण के त्रीने भागे आयुष्य धांधे तो ९९ वर्षना भायुष्यबाको ३३ मे वर्षे आयुष्य घांधे, अने "श्रीजो भाग शेष रह " प अर्थ घड़े ६६ मा वर्षमा अंते आयुष्य बांधे. ए प्रमाणे मोटो सफाषत पडी जाय छे, अंने सर्व शास्त्रीने ६६ मे वर्षे आयुध्यमो बंध इष्ट होषाथी आ अर्थ मात्र मूळ अक्षरोने अनुसारे महिं पण षस्तुस्थितिने अनुसारे लरचे लो छे. २, ३-९--२७-८१-२४३-७२९ इत्यादि जे रकम अनुक्रमे पण प्रण गुणी होय ते रकमकप भागमो कल्पमा “ त्रिभाग करना" कवाय, Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.) . लोकनकाशे तृतीयः सर्गः॥ (सा. ६७) (१५७') जीव अकर्मभूमि मल्योपतः आयुयान दिया था मनुप्यनेविगे (युगलिकपणे) उत्पन थयो होय त्यारकाद शीघ अन्नहर्त जेटलुं सर्व जघन्य आयुष्य वर्जीने पाकीना अन्तम न्यून ३ पल्पोपप आयुष्यनी 'अपपतना करे" पुनः देव-मारक-अने असंख्य दर्पना आयुष्यवाळा युगलिक मनुष्यो तथा तियचो स्वायुष्य छ पास शेप र छते परभवनं आयुष्य बांधे के. वळी मतांतरे " उत्कृष्टधी ६ मास शेष रह्ये अने जघन्यथी अन्तर्मुहर्न शेष र नारफजीवो परभवनुं आयुष्य बांधे छे" प प्रमाणे भगवतिजीमा १४ मा शतकना पहेला उशामा कहरे . पुनः निरुपक्रमी आयुष्यवाला जीरो पोनाना पायुन्यनो श्रीजो भाग बाकी रहे त्यारेज निश्चयथी परभवतुं आयुष्य बांधे छे. ५ प्रमाणे पीजा केटलाक आचार्यों कहे . ( आ पनथी "६ मास शेष"नो नियम न रो). सथा जेटलं आयुष्य बाकी रा परभक्नुं आयुष्य वंशय तेटलो अबाधा काळ कवाय, ने अबाधाकाळ व्यतीत थया बाद ज ते आयुष्य उदयमां आवी शके के ॥ ९३ ॥ इति 'भवस्थिति स्वरूपम् ॥ १ अहिंशका पाय के आयुष्य जो निकाचित(निरूपकमी)होय तो अपवर्तना (अरुपता) कम पाय ? अने जो अपवर्समा थाय तो ले निकाचित कम करेवाय ? ५ संबंधमां समजवान पज छ के आयुष्यना निकाधि योग्य अध्यषतायो प्रत्येक स्थितिमा अनुकमें असंख्य असंख्य गुणा छे, माटे निकाचित आयुष्य पण सर्व पक सरलु महिं पण असंख्य तारतम्यता वाटु छजेमा कोहक निकाधित आयुष्य अपना साक्ष्य पण हाय, ने कोरक निका. चितकर्म तपादिके करीने पण अपवर्शना साध्य न होय, न्यादि विशेषता अनेक प्रकारे छे. आयुश्यना संबंधे तन्वार्थसूत्रमा जदी रोते मेद दविला छे ने आ प्रमाणे-आयुष्यना बे भेद छे तेमा पहेलं 'अपवर्तनीय' अने' पोमु 'अनपअसमीय' आयुष्य, तेमां अपवसनीय आयुष्य 'मोपक्रम' ए पका प्रकारर्नु छ, भने अनपवर्तनीय आयुध्य 'सोपक्रमी' भने "निवपक्रमी' पम के प्रकारनुं के तेनी स्थापना-- आयुष्य .. . अपवसनीय " ' अनपत्तनीय तोपक्रमी सोपकमी निरूषकमी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कायस्थितिहार शरोरदारवर्णनम् ।। . (बार) कायस्थितिस्तु पृथिवी-कायिकादिशरीरिणाम् । तत्रैव कायेऽवस्थानं, विपयोत्पद्य चासकृत् ॥ ९ ॥ इति कास्थितिस्वरूपं ८॥ औदारिकं वैक्रियं च, देहमाहारकं तथा 1 तेजसं कार्मर्ण चेति, देहाः पञ्चोदिता जिनः ॥ ९५ ॥ उदारैः पुद्गलैतिं, जि. नदेहायपेक्षया । उदारं सर्वतस्तुङ-मिति चौदारिकं भवेत्॥९६।। क्रिया विशिष्टा नाना वा, विक्रिया तत्र सम्भवम् । स्वाभाविक लब्धिज. च, द्विविधं वैक्रियं भवेत् ॥ ९७ ॥ यत्तदेकमने वा, दीर्घ हस्वं महालवु । भवेद् दृश्यमदृश्यं वा, भूचरं वापि खेच. रम् ॥ ९८ ॥ आकाशस्फटिकस्वच्छं, श्रुतकेवलिना कृतम् । अनुत्तरामरेभ्योऽपि, कान्तमाहारकं भवेत् ॥ ९९ ॥ श्रुतावगाहातामर्षों-अध्यायद्धिः करोत्यदः । मनोज्ञानी चारणो वो-स्पन्नाहारकलब्धिकः ।। १०० ॥ तेजसं चोष्णतान्लिाईं, तेजोलेश्यादिसाधनम् । कार्मणानुगमाहार-परिपाकसमर्थकम् ॥१०१।। स्मात्तपोविशेषोत्थ-सब्धियुक्तस्य भूस्पृशः। तेजोलेश्यानिर्गम: स्या-दुस्पन्ने हि प्रपोजने ॥१०२॥ तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ-"सवस्स उम्हसिद्धं, रसाइआहारपागजणगं च । तेअगलद्धिनिमित्तं च तेअगं होइ नायवं ॥.०३॥" (सर्वस्योष्मसिद्धं, रसायाहारपाक पताषा सूत्रमा कला आयुश्यना भेदो बडे पणो स्पट योध थाय हे जेमो विस्तार श्री तत्वार्थभी वृत्ति नथा नघताय विस्तार्थथी जाणवो. पुनः जे अकाळ मृत्यु शाय छ ते "काळ आयुष्य' जाणवु. कारण के प्रदेश आयूष्य' (द्रव्यायुस्यो संपूर्ण भोगल्या घिना क्षय थायज्ञ महिं अने मे अपूर्ण आयुष्ये मरण पाम छ. ते नो आयुध्यनो स्थिति अपूर्ण ये होय छे. माटे अकालमृत्यु 'काळ भायुष्यने भंग' जाणवू. विशेष विस्तार नयत पविस्तराधी जाणवी, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - . - . - - . - - - . - - - ... ... मुं) ॥लोकप्रकाशे वतीयः सर्गः ॥ (सा० ७०) (१५९) F जनकं च ॥ तेजसलब्धिनिमित्तं च, तेजसं भवति ज्ञातव्यं) [सा०६८] स्मादेव भवत्येव, शीतलेश्याविनिर्गमः। स्या तां च रोषतोषाभ्यां, निग्रहानुग्रहावितः ॥ १०४ ॥ तथोक्तं-तस्वार्थवृत्तौ ॥“यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति तदा परं प्रति दाहाय विसृजति रोषविषाध्मातो गोशालादिवत् प्रसन्नस्तु शीततेजसाऽनुगलाती"ति (सा०६९)। क्षीरनीरवदन्योऽन्यं, श्लिष्टा जीवप्रदेशकः । कर्मप्रदेशा येऽनन्ताः, कार्मणं स्यात्तदा- . स्मकम् ॥ १०५ ॥ सर्वेषामपि देहाना हेतुभूतमिदं भवेत् । भवान्तरगती जीव-सहायं च सतेजसम् ॥ १०६ ॥ नन्वेताभ्यां शरीराभ्यां, सहात्माऽऽयाति याति चेत् । प्रविशन्निरयन्वाऽपि, कृतोऽसौ तर्हि नेक्ष्यते? ॥ १०७ ॥ अत्रोच्यते ॥ न चक्षुर्गोचरः सूक्ष्म-तया तैजसकार्मणे । ततो नोत्पद्यमानोऽपि, नियमाणोऽप्यसौ स्फुटः ॥१०८॥तथोक्तं ॥“अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन्वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणावपि " ॥१०९।। (सा०७०) स्वरूपमेवं पञ्चाना, देहानां प्रतिपादितम् । कारणादिकृतस्तेषां, विशेषान् दर्शयाम्यथ ।। ११० ॥ अर्थ-७ में कायस्थिति द्वारम् ॥ पृथ्वीकायादि जोवो जे काया वाररार मरण पापी त्यांज पुनः उत्पन्न थाय ए प्रकारे एकज कायमां जेटलो फाळ अवस्थान (रहे।) थाप तेरलो काळ ते जीवनी स्वकायस्थिति काय ॥१४॥ ॥ ८ मं शरीरबारम् ॥ हवे आठमुं शरीरवार कहेवाय छे-श्री जिनेवरोए औदारिक-वैकिय आहारक-तंजस अने कार्मण ए प्रमाणे ५ शरीर कडेला ॥१५॥ स्यां जिनेश्वरादि (जिनेश्वर-केवलि-गणधर-चक्रवर्ति-वासु. देव-बदेष इत्यादि) महापुरुषोनी अपेक्षाए उदार पटले सर्वमा प्रधान एवँ जे शरीर ते औदारिक शरीर,उदार-पटले उत्तम परलोवढे बनेल होय ॥१६॥ तथा वि-विशिष्ट ( श्रेष्ठ ) अथवा अनेक प्रकारनी जे क्रिया-रचना ते विधि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) | शरीरद्वारे तदर्थत्वादि निरूपणम् ॥ (द्वार ', था, अने मां उत्पन्न थयेलं जे शरीर ते वैक्रिय शरीर कहेवाय ( ए व्युत्पश्यर्थं को). ते चैमि शरीर स्वाभाविक अने लब्धिप्रत्ययिक एम वे मकारनुं छे. ||२७|| कारण के प वैक्रिय शरीर एक थाय ले, अनेक थाप के, दीर्घ (लांबु) पाय के अने हुंकुं पाय छे, म्हो थाय छे अने नानुं थाय छे, दृश्य थाय छे अने अवश्य थाय छे तेमज जमीनपर बालनार थाय छे, अने आकाशमा उडनार थाय छे। ९८ || (ए ममाणे विविध प्रकारनी क्रियावाल वैक्रिय शरीर के ; नया आकाश भने स्फटिकरत्न सरखं निर्मळ, केवळी (१४ पूर्ववर) मुनिष करलं, बने अनुत्तर विमानवासी देवोना शरीरनी कान्ति करत पण अत्यंत मनोहर कांबा आहारक शरीर होय हे ॥ ९२९ ॥लशान (१४ पूर्वना ज्ञान ) वडे प्राप्त roat आधि विगेरे लब्धिवाळा, मेनः पर्यवज्ञानी, जंघाचारण अथवा त्रिया. चारणमुनि के जेओने आहारकलब्धि उत्पन्न थयेली होय ते मुनि आहारक श रीर रचे है ॥ १०० ॥ तथा उष्णताना चिन्हबा, तेजोलेश्या अने शीतलेश्या मूकवायां मुलकारणरूप, कार्मण देहनी सावेज रहेनारुं अने आहार पचानवाम समर्थ एवं तेजस शरीर होय छे। १०१ । तपादिकवडे उत्पन्न थयेली तेजोब्धियुक्त जोबने कोइक प्रयोजन पचे छते ए तेजस देहमांची तेजोलेश्यानुं निर्गमन (निफळ ) थाय छे।। १०२ । श्रीजीवाभिगमसूत्रमी वृत्तिमां आ प्रमाणे धुं के के" सर्वने उष्णता लिंगबाळू, रसादि आहाग्ने परिपक्व करनार, अने तेजोलेश्यारूप aftधनुं कारण तेजस शरीर के एम जाणवु 11 703 || प प्रमाणे शीतलेश्यानुं निर्गमन पण आ तैजस शरीरथीज होय छे, ए हेतुथी रोष बड़े परनो निग्रह ( उपघात ) अने संतुष्ट थवाथी अनुग्रह, [टपकार] आ तेजस शरीरयोज थाय छे ॥ १०४ ॥ तवार्थवृत्तिमां पण तेमज कछे के" ज्यारे उत्तरगुण प्रत्यधिक (संपादिकना निमित्त बडे ) लब्धि उत्पन्न थाय छे, त्यारे बीजा जीव उपर दाह करवाने ( तैजसदेह ) मोकले छे जेम क्रोध बडे घमघमेल गोशाळानी पेठे, अने मन भयो होय तो शीत तेजस वहे (शांतता उपजाववादिक) अनुग्रह ( उपकार ) तथा जे अनंत कर्मप्रदेशो साथै दूधमा रहेला जळकी माफक परस्पर जोडाह 23 करे के " ॥ १०८ ॥ १ मनः पर्यषज्ञानीय पूछेला उत्तरों आपना केवलिं भगवान, द्रव्यमननी प्रयोग करे छे एवं सिद्धान्तवचन होवाथी आहारक शरीर बिना पण संदेहनिवृति यह शके . लोपण तीर्थकर ऋद्धिदर्शनादि हेतुने करने करवामां दोषापति गथी. चारणमुनिना संबंधमां सूक्ष्मबुद्धियो विचार. •! Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------ --.. - -.. ७) ॥ लोकप्रकाशे तृमीयः सर्गः ॥ (सा. ७०) (१६) रणा छ ने कप्रदेशात्मक ( १५८ कर्मना प्रदेशोनी जे पिंह ने ज) कार्मणश रीर कवाय ले. ।। २०६ ॥ आ कार्मण शरीर सर्वशरीरनी (पाचे शरीरनी) उत्पतिमा मूळ कारण रूप के, पळो बीजा भवमा जतां जीवने तेजसहित स. हाय करनार छे. अर्थात् 'जीवन परभवमा लइ जनार फार्मण शरीर छे, ने ने सदाकाळ नैजसशरीर सहिन न होय छे, पण एकल कदी होत नथी. ॥ १७ ॥ मन- आत्मा जो ए बने शारीर महिन पर आयो हो मृत शरीरमांधी निकल. तो, अने उम्पत्तिस्थानमा प्रवेश करतो आ जीव वा माटे देखानो नथी ? ॥ १०८॥ उत्तर-- तैजम अने कार्मण शरीर अनिमुक्ष्म होवायी चक्षुगोचर घड शकता नधी अने ते कारणथीज उत्पन्न थनो वा मरण पामनो आ आत्मा पण प्रत्यक्ष देखाशो नथी. ॥१०९|| अन्य शास्त्रकर्ताओर पण कयु छ के-एकभवथी बीजा भवां जना ना अंतरालपांवां ) आन्या माग्ना कारणभून शारीरवालो छां पण सूक्ष्मपणाने लइने निकलना अथवा प्रवेश करतो देखामो नयी, ए गैने नहि देखावा छतां पण आत्यानो अभाव न जाणवो. ॥ ११० ॥ संजातं पुद्गलैः स्थलै-देहमौदारिकं भवेत् । सूक्ष्मपुद्गलजातानि, सतोऽन्यानि यथोत्तरम् ॥ १११ ॥ इति कारणकृतो विशेषः ।। यथोत्तर प्रदेशैः स्यु-रसंख्येयगुणानि च। आतृतीयं ततो-- ऽनन्तगुणे तेजसकार्मणे ।। ११२ ।। इति प्रदेशसंख्याकृतो विशेषः।। आद्यं तिर्यग्मनुष्याणां, देवनारकयोः परम्। केषाञ्चिलब्धिमहायुसंज्ञितियगनृणामपि॥ ११३॥ आहारकं सलब्धीनां, स्थाञ्चतुर्दशपूर्विणाम् । सर्वसंसारिजीवाना, धूवे तैजसकामणे ॥ ११४ ।। तत्त्वाधभाष्ये तूक्तं-“एके वाचार्या नयादापेक्ष व्याचक्षते-कामणमेवैकमनादिसंवन्ध, तनैकेन जीवस्याऽनादिः संबन्धो भवतीति, तेजसं तु लण्यपेक्षं भवति, सा च तैजसलब्धिन सर्वस्यकस्यचिदेव भवति, एतट्टीकालेशोऽपि-एवमेकीयमतेन प्रत्याख्यातमेव तैजसमनादिसंबन्धतया, सर्वस्य चेति, या पुनरभ्यवहृताहारं प्रति पाचनशक्तिः विनाऽपि लब्ध्या सा तु कार्मणस्यैव भविष्यति, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) ॥ शरीरद्वारे कारणकृतादिभेदविचारः ॥ कमणत्वात् कार्मणं हीदं शरीरमनेकशक्तिगर्भत्वादनुकरोति विश्वकर्मणः, तदेव हि तथासमासादितपरिणति उपदिश्यते यदि तैजसशरीरतया ततो न कश्चिद्दोष इति । (सा० ७९ ) अत्र भूयान् विस्तरोऽस्ति स तु तत्त्वार्थवृत्तेरवसेय इति ॥ " अर्थ - प्रमाणे पांचे शरीरनुं स्वरूप करूं, अने हवे ते शरीरीना कारणादिकून (कारण वर्ग विशेष परस्पर सफावत ) ते दर्शांछ. ५ शरीरमां कारणादिवडे धयेलो भेद (ङार ० का ० ) + १ कारणभेदः - औदारिक शरीर स्थूल (बादर) लोबडे रा अने ते शिवायनां बीजां वैक्रियादिशरीर अनुक्रमे (वै० - आहा० अधिकाधिक सूक्ष्मपुगलनां बनेलां के ( अर्थात् आहा, अने आहाथी तेजस, अने तै०धी कार्मेण गोनुं बनेलुं छे. अहिं कारणमां शरीर जे पुद्गलो जाण ) || ११|| कारणकृत तफावत को २ प्रदेशसंख्याकृत भेद- श्रीजा शरीरसुधीर्ना शरीर अनुक्रमे पदेशोषडे असंख्यगुण छे तेथी तैजसने फार्मेण अनंतगुण के ||११२|| एप्रमाणे मदेशोनी संख्याथी बनेको तफावत आणतो. औदा थी बैं० ० था अधिक अधिक सूक्ष्मबनेल के तेलो ३ स्वामिकृतभेद - पहेलु औदारिक शरीर सर्वतिच अने सर्वमनुष्यने दोष के अने चैकशरीर देव तथा नारकने तथा केटलाक ० लब्धिवंत वायु (बादर पर्यायवायुकाय ) संहितिर्येच अने संज्ञिमनुष्योने पण होय . ॥११३॥ बळी ( आमशपध्यादिक तथा आहा० ) लब्धिवंत केलाएक चौद पूधर सुनिराजने आहारक शरीर होय छे, अने तेजस तथा कार्मण शरीर सर्वसंसारी जीवोने ( मोक्षे जता सुधी ) सर्वकाळ निधी होय छे, ॥ ११४ ॥ तत्वार्थभाष्यम तो कहां के के—केटलाएक आचार्य नयवादनी असाप कठे छे के एक फार्मणशरीरज जीवनी साथै अनादि काळथी संबंधवा छे, माटे अनादि संबंध जीवने एक फार्मेण शरीरनी साथेज छे, अने तेजस शरीर तो १ भावार्थ आ प्रमाणे- औदारिक अल्पपुदगलोनुं बने छे, थी - किय असंख्यगुणद्गलोनुं, तेथी आहारक असंख्यगुण पुद्गलोनुं, संथी तैजस अनन्तगुण पुष्गलो, भने तेथी कार्मण शरीर अनन्तगुण पुदुगलानुं बने है. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.. -:- .:-- - "७ ) ॥ लोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ७१) (१६३) ''लम्धिनी अपेक्षाबाटुले,अने ते तैजसलधि तो सर्वने नहि पण कोइकने ज होय छै"ए भाप्यनी टीकार्मा जे फा छ ते पण किंचित दीवाय छे ते प्रमाणे"ए ममाणे फेटलाएक आचार्यने प्रते तेजम शरीर अनादिसंबंधपणे होवानो अने सर्व जीवने होचानो निषेध कर्यो,बळी ग्रहण करेला आहारनी (देजस)लब्धि. । विना पण जे पाचनशक्नि ते सो कर्मन उरुणपणु होवाथी ।कर्म उष्ण होवाची) कार्मण शरीरनीज होइ शके, निश्चयथी आ कार्पणशरीर अनेक (विचित्र) शक्तिवाळु होवाची सर्व कार्य करी शके छ. तेवा प्रकारना माप्त थयेल ( पाचनशक्तिना) परिणामवाळ चे कामण शरीर तेनेज जो तेजस शरीर कहीये तो कोइ भाननो दोप नयी " आ संबंधमो घणो विस्तार के ने नच्यात्तिथी जाणवो. ॥१५॥ युगपञ्चैकजीवस्य, दयं त्रयं चतुष्टयम् । स्याईहानां न तु पश्च, नाप्येकं भववर्तिनः ॥ ११५॥ क्रियस्याहारकस्या-सत्वादेकस्य चेकदा । न पञ्च स्युः सदा सत्त्वा-दन्त्ययोन कमप्यदः ॥ ११६ ॥ स्थादेकमपि पूर्वोक्त-मतान्तव्यपेक्षया । भवान्तरं गच्छतस्तन्मते स्याकामणं परम् ॥ ११७ ॥ इति स्वामिकृतो विशेषः ॥ आधस्य तिर्यगुत्कृष्टा, गतिरारुचकाचलम् । जलाचारणनिम्रन्थानाश्रित्य कलयन्तु ताम् ॥ ११८ ॥ यानन्दीश्वरमाश्रित्य, वि. धाचारणखेचरान् ।ऊर्च चापण्डकवन,सञयापेक्षया भवेत्।।११९॥ विषयो वैक्रियास्यासंख्येया द्वीपवार्धयः । महाविदेहा विषयो, ज्ञेय आहारकस्य च ॥ १२० ॥ लोकः सर्वोऽपि विषय-स्तुर्यप चमयोर्भवेत् । भवाद्भवान्तरं येन, गच्छतामनुगे इमे ॥१२१|| इति विषयकृतो भेदः । [स्वामिकृत भेद बतावे ] अर्थ-एक जीवने समकाळे चे त्रण अथवा चार शरीर होष, परन्तु पांच शरीर अथवा एक शरीर कोइपण जीवने न होय, REF कारण एक जीवने पकीपरखने बैंक्रिय अने आहारक ए के शरीर न होबाथी पांच शरीर एकी काळे न होय तेमन अन्त्यनां वे शरीर (नैजम अने कार्यण ) मदा काळ होवाथी प एक शरीर पण होतुं नथी. ॥ ११७ ।। बली पृोंक (नवार्थभाग्यमां कहेला ) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) ॥ शरोरवारे स्वामिविषयकृतभेदविचारः || (द्वार मतान्तरनी अपेक्षाए एक जीवने एक शरीर पण होय, कारणके तेओने मते परभवम जता जीवने मार्गमा केवळ अगर बीजुं (तैजस-फार्मेण ए बेनी अपेक्षाए बीजु अने सर्व शरीरनी अपेक्षाएं पांच) कार्मेण शरीर होय. ॥११७॥ ए स्वामि सम्बन्धि तफावत को. ४ विषयकृत भेद - पहला मौदारिक शरीरनी उत्कृष्टगत रुचक प बस (के जे १३ मा रुचक द्वीपमा छे) सुधी ले, अने ते गति नवाचारण मुनिनी अपेक्षाएं जाणो. ॥। ११८ ।। तथा विद्याचरण मुनि अने विद्याधरोनी अ. पेक्षा ८ मा नंदीश्वर श्रीसुधी जाणवी, ए निर्यग्गतिनो विषय कहो, अने ऊदुर्ध्वगति ते प्रणेनी अपेक्षाए (मेरु पर्वतना शिखर उपर रहेला ) पांडुकवन सुचीनी है. ।। ११९ ।। वैक्रिये शरीरनो (वियरा ) गतिविषय असंख्य दीपसमुद्र मुवीनो छे, अने आहारक शरीरनो निर्यग्गमिविषय महा विदेह सुधी छे. ||१२०|| तथा चोथा भने पाँचमा शरीरनो ( कानो ऊर्ध्वास्तिर्यग ) गति विषय सर्व लोक (१४ राज ) प्रमाण है, कारणके एक भत्रधी वीजा मनांजना जीवोने आ वे शरीर सावेज जनारी होय . ॥ १२१|| विषयकृतभेद को. धर्माधर्मार्जनं सौख्य-दुःखानुभव एव च । केवलज्ञान मुक्षादिप्राप्तिरायप्रयोजनम् ॥ १२२ ॥ एकानेकत्व सूक्ष्मत्व-स्थूलस्वादि नभोगतिः । संघसाहाय्यमित्यादि, वैक्रियस्य प्रयोजनम् ॥ ९२३ ॥ सूक्ष्मार्थसंशयच्छेदो, जिनेन्द्रद्भिविलोकन १ जंघाना बळथी गगनमा गति करवामी लब्धिवाळा मुनि ते जंघा चारण मुनिं कषाय, विशिष्ट तपना आराधनथी मुनिने आ लब्धि थाय छे, २ विधामा (तपालना) यो गगनयां गति करवानी शक्तियाळा मुमि विद्याचरण मुनि कषाय. ३ १० शरीरनो ऊधोगति विषय उपसिनो अपेक्षा अनुत्तरणी सातमी पृथ्वी सुधी अने गममागमनक्रियाने आद्यपि ४ थी पृथ्विथी अच्युलसुधी ( देयोनी अपेक्षा ) जाणो. ४ आहारको ऊर्ध्वगसिविषय तथा अधोगति विषय जो के बताव्यो मधी तो पण लगभग केटापक योजन मंभवे ते पण कर्ण अपेक्षाए अथवा कुत्री विजय के जे समभूतलाधी लगभग एक हजार योजन उंडी छे त्यां रहेला तीर्थफर पांसे जत्रा आयामां उधोगति विषयविचारको अने कहेलो तिर्यग्विषय भरत पेरवतक्षेत्रनो अपेक्षा छे. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) 41 ७ मुं) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७२ ) म । ज्ञेयमाहारकस्यापि प्रयोजनमनेकधा ॥ १२४ ॥ यदाहुःतिरथयररिद्धिदंसण- सुहुमपयत्थावगाहहेउं वा । संसयवोच्छेयरथं, गम जियपायमूलंमि ॥१२५॥ (तीर्थंकरद्धिदर्शन सूक्ष्मपदार्थावगाहतो | संशयव्युच्छेदार्थे गमनं जिनपादमूले ) [सा०७२] शापानुग्रहयोः शक्तिर्मुक्तिपाकः प्रयोजनम् । तेजसस्य, कार्मणस्य, पुनरन्यभवे गतिः ॥ १२६॥ इति प्रयोजनकुतो विशेषः ॥ उत्कर्षतः सातिरेकसहरूख योजन प्रमम् । औदारिकं, वैक्रियं साधिके कलक्षयोजनम्॥१२७॥आहारकं हस्तमानं, लोकाकाशमिते उभे । समुद्घा ते केवलिनः स्यातां तेजसकार्मणे ॥ १२८|| श्रवगाढं प्रदेशेषु, स्वल्पेष्वाहारकं किल । ततः संख्गुणस्यौदारिकं स्मृतम् ॥ १२९ ॥ ततोऽपि संख्यगुणितदेशस्थं गुरु वैक्रियम् । समुद्रघातेऽर्हतोऽन्ये द्वे, सर्वलोकावगाहके ॥ १३०॥ दीर्घे मृत्युसमुद्याते, तूत्पत्ति स्थानकावधि । अन्यदा तु यथास्थानं, स्वस्व देहावगाहिनी ।। १३१ ॥ अर्थ - ५ प्रयोजनकृत भेद:---धर्म अने अधर्म उपार्जन करना. सूख अने दुःख भोग तथा केवलज्ञान अने मोक्ष वगेरेनी जे प्राप्ति तेमां आ प्रथम औदारिक शरीर कारणरूप हे ॥ १२३ ॥ तथा एक धबु, अनेक यवु, सूक्ष्म थत्रु', बादर थत्रु गगनमार्गमा गति करवी अने सबने सहाय करवी इत्यादि कार्यो वैक्रियशरीर कारणरूप है ॥ १२४ ॥ तथा शास्त्रना सूक्ष्म अर्थनो संदेह भागवाम, जिनेश्वरनी (समवसरणादि देवकृत) ऋद्धि देखवामां इत्यादि अनेक कार्यमा आहारकरीर कारणरूप छे ।। १२४|| कछे के तीर्थंकरनी ऋद्धि देखवराने सक्ष्मपदार्थनो बोध करवाने, अथवा सूक्ष्म अर्धनो संशय छेदवा ने अर्थे श्री जिनेश्वरन। चरणकमळमां आहारकशरीरर्नु गमन होय छे." ।। १२५ ।। श्राप आपना अने वरदान देवरानी शक्ति, तथा भोजनने पचाबनुं ए मुख्य फल तेजस शरीरनुं छे, अने परभये गति करवी ए मुख्यफल कार्मग शरीग्नुं छे. || १२६ || ए प्रयोजनसम्बन्धि तफावत को. ' , ६ अवगाहनात भेद-- औदारिक शरीरनी उंचाई १००० योज EL ! Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) ॥ शरीरद्वारे प्रयोजनावगाहनाकृत मेदविचारः ॥ (द्वार मंथी फंइफ अधिक होय छ, क्रियशरीरनी उचाइ एक लाख (१५०००० ) योजनधी कइक अधिक होय हे, ॥ १२७ ॥ आहारकशरीरनी उंचाइ ! हाथ प्रमाण होय छे, अने सैंजस तथा कार्मण पचे शरीरभी अवगाहना केवलीभगवान्ने सम्यान समये संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण होय छे. ॥१२८॥ इवे चीनी गीते फयु शरीर केटला आकाशमदेशमा अवगाह करी शके ( समाइ सके) ते कहे छे- आहारक शरीर सर्वथी भर आकाशमदेशर्मा रही शके, तेथी संख्यानगुण आकाशप्रदेशमा उत्कृष्ट औदारिक शरीर समाय एप कहेलुछे ॥१२९।। तेथी पण संख्यात गुण आकाशप्रदेशमा उत्कृष्ट चैक्रियशरीर रही शके, अने केवलि समद्घानमा छेल्लां चे शरीर (तका० ) संपूर्ण लोकाकाशमां ( पटले जवैथी असंख्य गुण मदेशमा ) अक्माष्ट करी रहे ले. ॥ १३० ।। पुन: ए नेजस कार्मणनी अवगाहना उत्कृष्ट मृत्युसमुद्घान बखते पटले मरण पामीने घणे दुर क्षेत्रमा उपनमा उत्पत्तिस्थानसुधी दीर्घश्रेणिए १४ राज सुधी होप छ, अने मरण समुद्घान सिवायना पखनमा ए चे शरीरनी अव . गाहना स्वस्वभवधारणीय (औदा० वै०) देह जेटली पथासंभव होय छ, ॥१३॥ मरणान्तसमुद्घातं, गतानां देहिनां भवेत्। यावत्येकेन्द्रियादीना, १ प्रमाणांगुलपडे १... योजन उंहा समुद्रादिनळाशयोमा यो उत्से. धांगुलषडे १००० योजन उंडा होय तेथे स्वामे कम विगेरे उगेली वनपति जळथी जेटली उपर आवीने रहे लेट ली अधिकता माणवी. अमे औजार मी डाकृ० इंचार पण त्या अ कमळधिगेरेनी जाणवी. २ मनुष्य अने देष प याने उत्तरशक्रिय रखे तो शीषभागे सरखा आथे, परन्तु देवभूमिथी चार अंगुल उंचा बोचाधी देषना करता मनुष्पन डा. ग्वै. अंगुल अधिक होय छ, पज अधिकता, ३ उत्पत्तिकाल शिवारा WTO मी अघ भने अरकृषर वामें अपगाबमा । दाथ प्रमाण है कारणके १ हाथ अटला आकाशमान रही शके हैं. ५ कारणके १००० योजन जेटला आकाशमा भौदा रहे छे अने से ! - . थथी १.० योजन सख्यात गुणाज छ. (बधीशमाह गुणा छै)। ६ कारण १००० योजमथी १००००० योजन संख्यात गुणा(सोगुणा)छे; मा अवगाहमामीमां पस्तुतः अषगाहलाना क्षेत्रफलमा भाबेला आकाशमदेशोनी संरुपानु अपचहत्व छ तोपण उंचाहनु अपबहुस्प मळत आयपाको उचाने अनुमारे क्षेत्रफळगत आकाशदेशनु अपय हुन्थ सममान्युं छे. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भु] || लोकप्रकाशे वतीयः सर्गः ॥ (सा० ७२) (१६७ ) तेजसस्यावगाहना ॥ १३२ ॥ प्रत्रीमि तां जिनप्रोक्तस्वरूपां सोपपत्तिकम् । भाव्यैवं कार्मणस्यापि सोभयोः साहचर्यतः ॥ १३३ ॥ युग्मम् ॥ स्वस्वदेहमिता व्यासस्थौल्याभ्यां सर्वदेहिनाम् । मरणान्तसमुद्घाते, स्यात्तैजसावगाहना ॥ १३४ ॥ आयामतो विशिष्येत तत्रैकेन्द्रियदेहिनाम् । अगुलासंख्येयभागप्रमाणा सा जघन्यतः ॥ १३५ ॥ उत्कर्षतश्च लोकान्तालोकान्तं यावदाहिता । एकेन्द्रियाणां जीवानामेवमुत्पत्तिसंभवात् ॥ १३६ ॥ सामान्यतोऽपि जीवानां विभाव्यैतदपेक्षया । लोकान्तावधि लोकान्तात्तेजसस्यावगाहना ॥१३७॥अङ्गुला संख्यभागेन, प्रमिताऽथ जघन्यतः। निर्दिष्टा विकलाक्षाणां तेजसस्यावगाहना ॥ १३८ ॥ तिर्यग्लोकाच लोकान्तावधि तेषां गरीयसी । संभवो विकलाक्षाणां यत्तिर्यग्लोक एव हि ॥ १३९ ॥ श्रधोलोकेऽधोलोकग्रामेषु दीर्घिकादिषु । ऊर्ध्वं च पाण्डकवनवर्त्तिवा पीहदादिषु ॥ १४० ॥ संभवो विकलाक्षाणां यद्यप्यस्ति तथापि हि । सूत्रे स्वस्थानमाश्रित्य, तिर्यग्लोको निरूपितः ॥ १४१ ॥ तत उक्ताऽतिरिक्ताऽपि विकलानां भवत्यसौ । अधोग्रामात्पाण्डकाच्च, लोकामान्ता गरीयसी ॥ १४२ ॥ || हवे मरण समुदात वखते सर्व जीवोने तै० काव्नी अवगाहना || अर्थ:- परंतमुद्याने प्राप्त थयेला एकेन्द्रियादि जीवोनी नजमनी जेटली अवगाहना होय || १३२ ।। ते श्री जिनेश्वरे का स्वरूपने अनुसारे उपपति पूर्वक (युक्तिपुरःसर ) कहुँ छु अने ते बन्ने शरीरनुं गाथे रहेवा पणु डोबाधी कार्मणनी पण ते प्रमाणेज अवगाहना जाणवी ॥ १३३ ॥ मरण समुद " १ जोवने मरण पासवाने अन्तर्मुहूर्त्त बेटी का बाकी रहे मरण स्थानची उत्पत्ति स्थान सुधी जोन प्रथम पोताना आत्माने लंबा है, भने पुनः सङ्कोच पामी मूळ मां आयी जाय से, में किया मरणममुदघा कडेवाय छे के मेनू स्वरूप आळ विस्तारथी समुयातारण आवश Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) ॥एकेन्द्रियादीनां मरणान्नसमुन्याते संजसकामणावगाहविचारः।। [दार पार वरखने तैजस शरीरनी. अवगाहना होळाइमां अने जाडाइमां मो सर्व प्राणी. अोने पोन पोनाना भवधारणीय शरीर जेटली न छे, १३.४ ॥२परन्तु दीर्घनामांमैबाइमा सफावन के ने ा प्रमाणे- ( परण ममुद्घासमां ) पकेन्द्रिय जीवोने नेजसनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलना असंन्यासमा भाग प्रमाणनी छे. ॥१३॥ अने उत्कृष्थी लोकना पछेहाथी बीजा छेडा सुधी (१४ राज प्रमाण ) लांची कहेली से,कारणके एकेन्द्रियजीवोनी उत्पत्ति ए प्रमाणेज (पटले सानपी पृथ्वीपां रहेको सूक्ष्म प्रथ्वि कायादि जीव मरण पामीने ऊर्ध्व लोकने अन्ते सू० पृथ्व्यादिपणे संपले ते अनुसारे) के ॥१३६।। (ए हेतुथी प्रथम ज)सर्व जीवोनी मामान्य. पणे रौनसनी अवगाहना लोकना एक दाथी बीजा हासुधी(कमी)ले ने पण आ पकेन्द्रिय जीगेनी महाए ज पागली. ग्य; विकलेन्द्रियोनी ते ०नीभाय अगाहना अंगुलना असंख्यानपा भागप्रमाणनी दर्शाती के. ।। १३८ ।। अने तेश्रोनी उत्कृष्ट अवगाहना तिर्यग्लोफयी लोकना छेडामृधीनो छ कारण विकलेन्द्रियोनी उत्पसि मात्र तिर्यग्लोकमांज छे, ॥१३९॥ जो के अधोलोकमां पण अधोंग्रामने निणे वावदीओ विगेरेमा, अने ऊर्ध्वलोक पांडुकरानमा रहेली बार तथा द्रहो विगेरेयां ॥ १० ॥ विकलेन्द्रिय जीवोनी उम्पत्ति छ पग्न्नु मित्रांना स्वस्थाननी अपेक्षाए ( पटले विशेषमः उत्पत्तिस्थान निर्यग्लोक न छे माटे ) तेोर्नु उत्पत्तिस्थान निलोकन कईल छे. ॥ १४१ ॥ अने ५ कारणथी (अधोग्राम भने पडिकवनमा गण उत्पत्ति होवाथी ) तेश्रोनी उन्कृष्ट अवगाहना अधोग्रामथी अने पांडुकवनधी लोकना छेडा मुधी पण गणी शकाय ।। १४२ ॥ सातिरेकं योजनानां, सहस्रं स्याजघन्यतः। नारकाणां तेजप्ताव मूळवेशमाथी मारमा ज्यारे बहार निकली उत्पत्ति स्थान सुधी छया. प, ते बनतं भात्मप्रदेशोनी मणि मुळदे जेटली ज पडोकी भने नारी होय छे. २ मे पर्यननी तलाटीथी : ममभूतलाश्वोयी ] पधिममहाविदोनो १६ विजयामी मूमि कंडक काक मीची उतरती गा र तेथी पनिममहाधि शनी की ये विजय मेहनी तलेटीनी सपाटीशी १०० जोजन नीमा प्रदे. शमा भाषेली , अने तोमोलोकनी मर्यादा नीचे ९ . जोजन सुधी छ, माटे गये विजयनी भूमि अधोग्राम तरीके गणाय छे. ३ कपर्वत १ लास्त्र याजम उंचो दोषाथी लेना शिखर पर आबेलु पाहुकचन पण ऊर्यलोकमा , गणाय. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७२) (१०) गाहना साऽथ भाव्यते ॥१४३॥ सन्ति पातालकलशाश्वत्वारोऽ. ब्धौ चतुर्दिशम् 1 अधो लक्ष योजनानामवगाढा इह क्षिती ॥१४४ ॥ सहस्रयोजनस्थल कुडयास्तेषां च निश्चिते । अधस्तन तृतीयांशे, वायुर्ववर्ति केवलम् ॥ १४५ ॥ मध्यमे च तृतीयांशे, मिश्रितो सलिलानिलौ । तथोपरितने भागे, तृतीये केवलं ज. लम् ॥१४६॥ ततश्च ॥ सीमन्तकादिनरकवर्ती कश्चन नारकः । पातालकलशासनो, मरणान्तसमुद्भतः ॥ १४७ ॥ कुडयं पातालकुम्भाना. विभियोत्पद्यते यतः । मत्स्यत्वेन तृतीयांशे, मध्यम चरमेऽपि वा ॥ १४८ ॥ तस्मादर्वाक तु नैवास्ति, तिर्यग्मनु जसंभवः । उत्पत्ति रकाणां च, न तियगमनुजो विना॥१३९।। उत्कर्षतस्त्वधो यावत्सप्तमी नरकावनीम् । नारकाणामेतदन्तं. स्वस्थानस्थितिसंभवात् ॥ १५० ॥ तिर्यकस्वयम्भूरमणसमुद्रावधि सा भवेत्। नारकाणां तत्र मत्स्यादित्वेनोत्पत्तिसंभवात् ॥१५१ ऊर्ध्वं च पण्डकवनस्थायितोयाश्रयावधि । अत ऊर्व तु कुत्रापि, नृतिर्यक्संभवोऽस्ति न ॥ १५२ ॥ पञ्चेन्द्रियतिरश्वा च, जघन्या परमाऽपि च । विकलेन्द्रियवज्ञेया, तेजसस्यावगाहना ॥१५३।। अमुलासंख्येयभागमात्रा नृणां जघन्यतः । उत्कर्षतश्च नृक्षेत्राल्लोकान्तावधि कीर्तिता ॥ १५४ ॥ (नारकाणा नैजसावगाहना) ___ अर्थ-नारकजीवोनी जस अवमाइना जघन्यथी एक हमार { १०००) पोजनधी कडक अधिक छ. ते केवी रीते ! ने दीवाय ॐ ॥ १३ ॥ लवण समुद्रमा चार दिशाप नीचे आ (रत्नप्रभा) पृथ्वीपा । लाख योजन उहा दटायला चार पानाळकळश के. ॥१४४ ॥ अने तेओनी पक हमार (१०००) १. फरशमा भाकारना पृथ्वीमा शाश्वत भाग पोलाण)छ, अने त पाना l रदैलो गोवाथी एनु नाम पाला कलश , Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) || नारक निर्यत्रमनुष्याणां मरणान्तरसमुपातेऽवगाहविचार) (हार योजन जाडी ठीकरी के ते कळशोना निषय करेला नीचेना श्रीजा भागमां एक वायु, १२ गमां जळ अने वायु चे मिश्रित छे, तथा उपरना जीजा भागमा एक जळ छे, ॥१४६॥ अने तेथी सीमन्नकादि areramani रहेलो कोइक नारकी जीव पावालकलशनी नजीक रहीने मरणसमुद्घातने प्राप्त थयो छतो ॥ १४७ ॥ पाताळकळशनी ठीकरी भेदौने मध्यना अथवा उपरना जीजीभागमां महषपणे उत्पन्न यायछे।। १४८ ॥ कारणके मध्यतीपांशी अ (नीचे) मनुष्य अथवा निर्येच पंचेन्द्रिय होना नथी अने नारकजीवनी उत्पत्ति मनुष्य के तिचविना वीजा को जीवपणे होती नथी ( माटे नारकी ज०० अवगाहना नीचे किंचित् अधिक १००० योजन प्रमाण है.) ॥ १४९ ॥ तथा नीचे नारकली उत्कृष्ट तेजस अवगाहना ( तिर्यग लोकधी ) ७ मी नमनमापृथ्वी सुधीनी छे, कारणके नारकी जीवोने लेल्लापां ऐल्लुं पोतानुं स्थान प सातमी पृथ्वी ज है, ॥ १५० ॥ तथा नारकजीवनी तिर्यक् तैजस अवगाहना स्व भूरमणसमुद्री छे, कारणके नारकजीवो स्यां मत्स्यादिपणे उत्पन थाय छे. ॥ १५६ ॥ तथा नारक जीवोनी ऊर्ध्व तैजस अवगाहना पांडुनम रहे जलाशय सुधी, अने त्यांधी आगळ तो काइपण स्थाने मनुष्य अने नियंचपनेन्द्रियनी उत्पत्ति क्रेम नहि, ए प्रमाणे नारकजीयोनी अध अने कि तैजस अवगाहना जन्यधी अने उत्कृष्टथी कही ॥ १५२ ॥ तिर्यगमनुष्यावगाहना पंचेन्द्रियचिनी जघन्य अने स्कृष्ट तेजस अवगाहना विकलेन्द्रियवन जारी. ।। १५३ ।। तथा मैनुप्योनी जघः तेजसमवगाहना अंगुलना असंख्यातमाभागजेटली भने उत्कृष्ट मनुष्यलोकथी लोकना छेडासुधीनी कहेली . ॥१५४॥ भवनव्यन्तरज्योतिष्काय द्विस्वर्गना किनाम् । अङ्गुलासंख्येयभागमाना ज्ञेया जघन्यतः ॥ १५५ ॥ ममत्वाभिनिविष्टानां स्व१. फळशमी १ लाख योजनमो उडाइना ३ भाग करतां दक भाग ३३३३३ योजन प्रमाण धाय तेटला भागमां २ सा नारकना सर्व मकी ४९ प्रतरमा ४९ इन्द्रक (मुख्य) नरकापाम खे, मानो की सीमन्तक मरकाषास पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीमां हेला प्रत रनी है. मरकाबास पटले अनेक नारीओने उपजवान एक विभाग ३ मनुष्य जे स्थाने मरण पामे तेज स्थाने अन्यसीषपणे उत्पन्न थतां जप तथा लोकमे छेडे एकेश्यिपणे उत्पन्न यस उत्कृ० अ० धाय. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकाणां जघन्य तैजसावगाहनाविषये २ नरक प्रस्नर्द पाताल कलश चित्रम् नरक प्रस्त टं लक्षण समुद्र ना मध्यम १. आपातालकला एक लाख योजन जमीनमां डंडो तेव्बा धारे दिशामा ४ पाताल, कलशा के. पाताल कळाली डीफरी एक हजार योजन जाडी छे. ३ नीचेना पीना भागमा केवल बासु छे | मध्य तृतीयांशसां बाबुजल मिश्र i ५ उपरना तृतीयांशमां केवल जलधे ६ पाताल कलशनीयासे रहेलो जारकी जीव 3 पालाल कलश मध्येना मध्य तृतीयांशमां भीनजी समीप मां उत्पन्न अबेल मत्स्य, तेथीजरीने उपरमा नृतीयांश यां पण उत्पन्न ईशके त्यांपण नेटलीज अवगाहनां धाय आनन्द प्रो. प्रेम-भावनगर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७मो लोकमफाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७२) (१७१) रस्नाभरणादिषु । पृथिव्यादितया तेषां, तत्रैवोत्पत्तिसंभवात् ॥ १५६ ॥ उत्कर्षतस्त्वधः शैलानरकक्ष्मातलावधि । गसानां तत्र केयाञ्चित्तेषां मरणसंभवात् ॥ १५७ ॥ तिर्यक्स्वयम्भूरमणापरांतवेदिकावधि । ऊर्व तथेषत्प्रारभारापृथिव्यूर्वतलावधि ॥ १५८ ॥ एतावदन्तं पृथिवीकायत्वेन समुद्भवात् । ततः परं च पृथिवीकायादीनामसंभवात् ॥ १५९ ॥ सनस्कुमारकल्पादिदेवानां स्याजघन्यतः । अगुलासंख्येयभागमाना सैवं विभाव्यते ॥१६०॥ देवाः सनत्कुमाराया, उत्पद्यन्ते स्वभावतः । गर्भजेषु नृतियक्षु, ध्रुवं नैकेन्द्रियादिषु॥१६१ ॥ यदा सनत्कुमारादिसुधाभुग्मंदरादिषु । दीर्घिकादौ जलक्रीडां, कुर्वाणः स्वायुषः क्षयात् ॥ १६२ ।। उत्पद्यते मत्स्यतया, स्वात्यासन्नप्रदेशके । तदा जघन्या स्यादस्य, यवं सम्भवत्यसौ ॥ १६३ ।। पूर्वसंबन्धिनी नारीमुपभुक्तांमहीस्पृशा। कश्चित्सनत्कुमारादिदेवः प्रेमवशीकृतः ॥ १६४ ॥ तदवाच्यप्रदेशे स्वमवाच्यांशं विनिक्षिपन । परिष्वज्य मृतस्तस्या, एव गर्भे समुद्भवेत् ॥ १६५॥ उरकर्षतस्वधो यावत्पातालकलशाश्रितम् । मध्यमीय तृतीयांश, तत्र मत्स्यादिसंभवात् ॥ १६६ ॥ तिर्यक् स्वयम्भूरमणपर्यन्तावधि सा भवेत् । श्रच्युतस्वर्गपर्यन्तमूर्च सा चेति भाव्यते ॥ १६७ ॥ कश्चिदच्युतनाकस्थसुहृदेवस्य निश्रया । देवः सनत्कुमारादिर्गत. स्तत्र म्रियेत यत् ॥१६८|| सहस्रारान्तदेवानां, भावनीयाऽनया दिशा । कनिष्ठा च गरिष्टा च, तैजसस्यावगाहना ॥१६९ ॥ श्या. नतायच्युतान्ताना, देवानां स्याज्जघन्यतः । अङ्गुलासंख्येयभागपरिमाणाऽवगाहना ॥१७०।। उत्पश्चन्ते नरेष्वेव. देवा नन्वानतादयः। नराश्च नृक्षेत्र एष, तदियं घटते कथम ? ।। १७१ ॥यत्रो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) ॥ देवानां मरणान्यसमुद्घाते तेजसकार्मणावगाहविचारः ॥ (द्वार = = = I च्यते ॥ उपयुक्तां मनुष्येण मानुषों पूर्ववलभाम् । उपलभ्यावधिज्ञानात्प्रेमपाशनियन्त्रितः ॥ १७२ ॥ इहाऽऽगस्याऽऽसन्नमृत्युतया बुद्धिविपर्ययात् । मलिनत्वाच्च कामानां वैचित्र्यात्कर्ममर्मणाम् ॥ १७३ ॥ गाढानुरागादालिङ्गय, तदवाच्यप्रदेश के । परिक्षिप्य निजावाच्यं, म्रियते स्वायुषः क्षयात् ॥ ९७४ ॥ गर्भेऽस्या एव मृत्वाऽयं, यद्युत्पयेत निर्जरः । यानतादिक्रतुभुजस्तदेयमुपपद्यते ॥१७५॥तिभिर्विशेषकं वातादिकतुओं, मनोविषय सेविनाम् । कायेनास्पृशां देवीमपि क्षीणमनोभुत्राम् ॥ १७६ ॥ मनुष्यखि - यमाश्रित्य यद्येवं स्याद्विडम्बना । तर्हि को नाम दुर्वा, कन्दर्प जेतुमीश्वरः ? ॥ ९७७ ॥ श्रधो यावदधोप्रामास्तिर्यगू नृक्षेत्रमेव च । ततः परं मनुष्याणामुत्पत्तिस्थित्य संभवात् ॥ १७८ ॥ ऊर्ध्व मच्युतनाकान्तं गतानां मित्रनिश्रया । आनतादिऋतुभुजामच्युते मृत्युसम्भवात् ॥ १७९ ॥ ऊर्ध्वमच्युतजानां तु, स्वविमानशिरोऽवधि | स्वैरं तत्र गतानां यत्, केषाञ्चित्संभवेन्मृतिः ॥ १८० ॥ मैवेयकानुत्तरस्थसुराणां साऽवगाहना । यावद्विद्याधरश्रेणीमास्वस्थानाजघन्यतः ॥ ९८९ ॥ खेचरश्रेणिपरतो, मनुष्याणामसंभवात्। वेयकादिदेवानामप्यत्रागत्यसंभवात् ॥ १८२॥ अधो यावदधोग्रामानूर्ध्व च स्वाश्रयावधि । तिर्यक् पुनर्नरक्षेत्रपर्यन्तं सा प्रकीर्त्तिता ||१८३ ॥ यावन्नन्दीश्वरं खेटाः, सस्त्रीका यान्ति यद्यपि । संभोगमपि कुर्वन्ति, तत्र कामेषुनिर्जिताः ॥ १८४ ॥ परं नोत्पद्यते गर्भे, नरो नृक्षेत्रतो बहिः । तत उत्कर्ष तस्तिर्यग नृक्षेत्रावधि सोदिता ॥ ९८५ ॥ इत्यर्थतः प्रज्ञापनेकविंशतितमपदे || (सा०७३ ) । इति प्रमाणावगाहकुतो विशेषः । 3 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कोकाशे टीका वर्ग (क) ( १७३ ) अर्थ - भवनपति व्यंतर - ज्योतिषी - सौधर्म- बने ईशान देवलोकना देवोनी जवते. अवगाहना अंगुलना असंख्यासमा भागनी जाणवी ।। १५५ ।। तेनी भावना भा प्रमाणे - पोतानां रत्न भने आभरणादिकने विषे ( अथवा रत्ननां आभूषणो विगेरेमा ) ममत्वभावचडे बंधायेळा एवा ए देवोनी उत्पत्ति त्यांन ( एटले रेननां आभूषणोपांज ) पृथ्वीकायादिपणे यवाथी जय० अवगाहना अंगखासंख्यतम भाग होय ॥ १५६ ॥ अने उत्कृष्टथी अधोलोकमा ३ जी सैलानामनी नरक पृथ्वीना सळीया सुधी (अव०) त्यां गयेला (परमाधामी विगेरे ) देवोपांना केटलाक देवोनुं त्यां मरण थवाथी होय छे. ।। १५७आवळी सिग्ळोकमां ए देवोनी उत्कृष्ट ० अवगाहना छेल्ला स्वयंभूरमण समुदना अन्त्य ठेहानी (घनोद धिविगेरेण वलयनी नजीकमी अथवा अलोकना किनाराथी १२ योजन अर्वाक् अंदर रहेली) पेविकाधी, अने ऊर्ध्वलोकमां ईषमाभारा (सिद्धशिला) पृथ्वीना उपरना तळीया सुधीनी होय छे, ॥ १५८॥ कारण के एटलेमृधी ए देवो पृथ्वीकायपणे उत्पन्न थायले, अने त्यांथी आगळ (वा० ) पृथ्वीकायादि जीवोनो अभाव छे, || १५९ ॥ श्रीजा सनत्कुमारकल्पादि देवलोकना (३ जाथी ८ मा कल्प सुधीना ) देखोनी जघ० तै० अवगाहना अंगुलना असंख्पातमा भागप्रमाणनी होय . १६० ते आ प्रमाणे जाणवी के सनत्कुमारादि देवो स्वभावथीज निश्चय गर्भजतिर्येच अने गर्भज मनुष्यमां उत्पन्न याय है, परन्तु एकेन्द्रियादि जीवोमां उत्पन्न था। नथी || १६१ | मेरुपसादिना वाव विगेरे प्रकाशयोमां जलक्रीडा करता सनत्कुमारा दिदेवो पोताना आयुष्यनो क्षय वायी ।। १३२ ॥ ज्यारे अति नजीक प्रदेशमां म रस्यादिपणे उत्पन्न याय त्यारे ए देवोनी जघन्य अवगाहना (अंगुर असं० भाग) होय के अथवा बीजीरीते ए जघ० अवगाहना आ प्रमाणे होय छे। १६३|| के सनत् 8) ९ ए आभरणो पण जो परेलां अथथा बीजी को रीते शरीरने स्प से करो रहेलां होय ने त्यां उपजे सो जघ अवगाहना संभव | अन्यथा अं गुलो संख्यातमो भाग अवगाहना होय. २ मतान्तरे देषोनुं अधोगमन ४ थी अंजणापृथ्वी सुधो पण क्रे. ३ त्यांची आगळ पृथ्वीकायादि जीवो से. परन्तु ते सूक्ष्म छे अने देवो मात्र बादरपृथ्व्यादिमां ज उत्पन्न थाय छे, माटे चादर पृथ्व्यादिनां अभाव जाणवो पण सर्वनो नहि. ४ प्रथमनी रीत गर्भज तिर्यचमां उत्पन्न थाय ते वखती दर्शात्री अने इसे मनुष्यमां उत्पन्न थतां जघ० अवगाहना केषी रीते होय ते दर्शाया माटे अथवा कहले. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) ॥ देवानांमरणान्नसमुदातेतैमसफर्मणावगादविचारः॥ (बार वीरादिदेवनी पूर्वभवनी संवधवाळी स्त्रीने प्रथम कोई मनुष्ये भोगवी होय अने स्यारवाद प्रेमने वश थयेलो एषो कोई सनत्कृपारादि देव ते ॥ १६४ ॥ स्त्रीनी पासे आची नेना अवाच्यस्थानमा ( तेनी योनिमां ) पोनाना अबाच्य स्थानने (लिंगने ) नाखतो छतो अने आलिंगन करीने रणो छनो ( तेवीन स्थितिमां) मरण पामी ने स्वीनाज गर्भमां उत्पन्न थानोपण जप. आगमाना मा. लनाअसंख्पानपा भाग जेटली होय. ॥ १६५ ॥ तथा ए सनत्कुमारादि देखोनी उन्का अरगाहना ( स्वस्थानधी) अधोलोकर्मा पाताल कळशनी अंदर मध्यमतृतीयांश भाग सुधीनी छे, कारणके मत्स्यादि गर्भज जीनी त्यांमुधीज होय छे, ॥ १६६ ॥ तथा सिछी तैनस अवगाहना स्वयंभूरमण समुदना छेडा सुधीनी छ, अने ऊर्च ते० अवगाहना १ मा अच्युतदेवलोक सुधीनी छे. तेनी भावना आ प्रमाणे ॥ १३७॥ कोइक अच्युन देवळोकमां रहनारा देवनी सहायरडे त्यां गयेलो सनत्कुमारादिदेव जो त्यांज मरण पामे वो मनत्कुमारादिनी उतै अवगाहना तेटली पर शके. ॥१६८॥ पन पद्धनिए आठमा सासार देवलोक सुधीना देवोनी मघ० -मध्य-ने बन्कु. तेजस अवगाहमा विचारवी. ॥१६९|| आनतथी अत्युतकल्पसषीय देवलोकना देवोनी जघ० ते अवगाहना अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाणनी छे॥१७०॥पन्न:-भानहादि देवो मात्र मनुष्योमांज उत्पन्न पाय छ, भने मनुष्यो सो मनुष्यक्षेत्रमाज होय छे तो ए देवोनी जय ते अव. अंगुलना. असं० भाग प्रमाणनी केप होय ? ॥ १७१ । जवाष-ए देवोनी पूर्वभवनी अतिप्रेमवाळीतीने मपम कोइ पमुष्ये भोगवी होग अने ते वास अवविहानथी जाणीने प्रपना पाशवडे बंशप को ने देव मृत्यु नजीक अ लु होवाथी बुद्धिनो फेरफार थां, विषयइच्छाना मलिनपणाथी, अने कर्मनी गति विचित्र होचायी अहिं आवीने ते स्त्रीने गादप्रमथी आलिंगन करीने वेना अाध्यमदेशमा पोताना अनान्य अवयवने प्रक्षेपीने पोताना आयुष्यनो क्षय यवाथी मरण पामे,अने परण • पापीने ते देव जो तेणीनाज गर्भमां उत्पन्न शाय नो आननादि देवोनी जघते. अवगाहना अंगुलनाप्रसं०भाग प्रमाणनी पाप्त थाय के ॥ १७५ ॥ मन मात्रधीज - ५ देवना वेकिय पायी गीति यती नथी माटे “ प्रथम कोई मनुध्ये भोगो होय " एम काय छे. ३ " ग्यारवाद" पटले २४ घडीनी अंदर कारणके २४ थी धया वाद बीमा गर्भाशयमा गई बोय जीषोम्पलिमे भयोग्य पा आप छे. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___] || लोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७३) (१७५ ) (मांगनाओ साये ) विषय सेवा करनारा, अने पोनानी कायाबडे मनोहर क्षेत्रांगनाभोने पण सर्व नहि करनारा अने क्षीण धयेली विषयेच्छाकाळा पचा आनतादि देवोनी पण मनुष्य स्त्रीयोने आश्रयि जो आवा प्रकारनी विटंबना के लो अो! महाद। पाम के दुःखे करीने निवारण करी शकाय तेषा कामदेवने जीतवा माटे जगनमां कोण समर्थ छ ? ॥ २७७ ॥ वली ए आनतादिदेवोनी अ. धोलोकमां उत्कृष्ट से अवगाहना अधोग्राम सुधी, अने तिर्यग्लोकमां मनुष्यक्षेत्र सुधीज छे, कारण के त्यांची आगळ मनुष्यउत्पत्तिनो असंभव छे. तथा ऊर्चलोकमां मिश्नी सहायथी अच्युनदेवलोकसुधी गयेला आनतादि देवोनी ने अवगाहना त्यां मरण पापवाथी अच्युतकल्प सुघीनीज गणाय छे. ॥ १०९. ॥ अने अच्युन देवोनी ऊर्वत अरगाहना पोमाना विमानना शिखर सुधी होय छे. कार• णके पोतानी इच्छाए त्यां गयेला पवा केटलाएक देवोनु त्यांज मरण संभव . नव वेयक अने अनुत्तर देवोनी जघनं अवगाहना पोताना स्थानथी मांडीने ( वनाढयपर्वतपर ) विद्याधरनी श्रेणी सधी दीर्घ होय है, ॥ १८ ॥ कारणके विद्याधरनीणिथी आगळ (ऊर्ध्व दिशाए।मनुष्योनीवस्ती नधी,अने अवेगकादिदेवो पण अहिं मनुष्यलोकमा आवमा नयी, माटे जघन्यथी पणनै अव तेटलीन होय. तथा ए देवोनी अधोलोकमां ऊस्कृत अवगाहमा अधोग्राम सुधी भने उतै अब० पोताना आश्रयस्थान सुधी (विमानमा ज्यां उत्पम येल के स्यांज होय छे. अने तीच्छी त० अवगाहना पुनः मनुष्यक्षेत्रमुधीनीज कहली छे. १८३ बळी जोके विद्याधरो पोतानी स्त्री सहित नंदीश्वरजीप सुधी जाय छ, अने कामना पाणवडे जीतायला ( पटले कामातुर धया छता) त्यांज स्त्रीसंगप पण करे छ, ॥ १८४ ॥ परन्तु मनुष्यक्षेत्रनी चहार कोइपण मनुष्प गर्भमा उत्पम थनो नथी माटे ए वोनी नीझै उत्कृष्ट अवगाहना मनुष्यक्षेत्र सुधीज कही छे.१८५ १ प्रवेयकमा उत्पन्न थयेला देवो पोताना विमानमांज अने पोतानी शय्यामा रया छत्तांग मरण पामता होषापी प्रथेयकदेवांनी ऊर्य भषमादमा समधान सुधी कही, अने अमुत्तर देवो तो पीतामी शरयामां सता छतां किं. चित् मात्र धालता चालता पण नथी माटे तेओनी पण ऊर्व तर अवगाहना स्वामय स्थान सुधोज छ, २ अर्थात् २॥ द्वोपनी यहार विषाधरी भीमंगम करे पण गर्भ रहे महिं अगादिमियति. --- . - - - ... Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) ॥शरोरद्वारे स्वामिविषयकृतभेदविचारः ॥ (छार ए प्रमाणे श्रीपनवणानना २१मा पदमां भावार्य , प प्रमाणे प्रमाण भने । अवगाहना सम्बन्धि ५ शरीरनो भेद कह्यो. स्थितिरौदारिकस्यान्तर्मुहर्त स्याजघन्यतः। उत्कृष्टा त्रीणि पल्यानि, सा तु युग्मिव्यपेक्षया ॥ १८६ ।। दश वर्षसहस्त्राणि, जघन्या जन्मवैक्रिये । त्रयस्त्रिंशत्सागराणि, स्थितिरुत्कर्षतः पुनः ॥ १८७ ॥ वैक्रियस्य कृतस्यापि, जघन्याऽऽन्तर्मुहर्तिको । ज्येष्ठा तु जीवाभिगमे, गदिता गाथयाऽनया ।। १८८ ॥ " अंतमुहुत्तं नरएसु होइ चत्तारि तिरिय मणुएसु । देवेसु यद्धमासो, उकोस विउठवणाकालो ॥ १८२ ॥ अन्तर्मुहत्तै नरकेषु भवति, चत्वारि तिर्यङमनुजेषु । देवेष्त्रधमासः उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः॥] (सा० ७४) पञ्चमाणे तु वायूनां, संज्ञितिर्यगनृणामपि । ज्येष्ठाऽप्येकान्तर्मुहर्ता,प्रोक्ता वैकुर्विकस्थितिः ॥ १९०॥(सा०७५) श्रीसूत्रकृताले तु-"वेयालिए नाम महम्भि(हाभियावे, एगायप पछतमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्प्ता उ (स्लाण) मुहत्तयाणं ॥ १९१॥ [वैकियो नाम महाभिताप एका. यतः पर्वतोऽन्तरिक्षे । हन्यन्ते तत्र बहुरकर्माणः परं सहस्राणां मुहर्तानाम्] (सा० ७६) नामेति संभावने, संभाव्यते एतन्नरकेषु यथाऽन्तरिक्षे 'महाभितापे' महादुःश्वे, एकशिलाघटितो दीर्घ, वेयालिएत्ति वैक्रियः परमाधार्मिकनिष्पादितः पर्वतः, तत्र (तमो. रूपस्वान्नारकाणामतो) हस्तस्पर्शिकया समारुहन्तो नारका बहुक्ररकर्माणो 'हन्यन्ते' पीडयन्ते, सहलसंग्ख्यानां 'परं' मुहर्तानां प्रकृष्टं [सहनशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात] प्रभूतं कालं हन्यन्ते, । इत्यर्थः " अत्र परमाधार्मिकदेवविकुर्वितस्य(त) (तजातदुःखस्य) पर्वतस्य अधमासाधिकाऽपि स्थितिरुक्तति ज्ञेयं, तत्त्वं तु जिनो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - :'. ९) ॥ श्रीलोकप्रकाशे हनीयः सर्गः ॥ (सा. ६) (१७७ ) जानोते । अन्तर्मुहत्तै द्वेधाऽपि, स्थितिराहारकस्य च । अनादिके प्रवाण, सर्वतेजसकार्मणे ||१९२।। सावसाने तु भव्यानां, सिद्धवे तवभावतः।अभव्यानां निरन्ते च,पाना मुक्तिवर्मनि १९३।। ॥इति स्थितिकृतो विशेषः ।। अर्थ,-७ स्थितिकृतभेदः -औदारिकशरीपनी जयस्थिनि भन्न महत्तनी छे. अने उत्कृष्टस्थिति । परयोषपनी के ते युगलिकनियंत्र अने युगलिकमनुष्यनी अपेक्षाए जाणवी, ।। १८६ ।। जन्मवै क्रियनी (भवधारणीयक्रियनी) जघ० स्थि० १०००० वर्षप्रमाण अने उत्कृष्ट ३३ सागरोपम छे, ।।१८७|प्रया कृत्रिम बैंक्रियनी पण जब स्थि० अन्तमुंहत छे अने उत्कृष्ट स्थिति नो श्री जी. वाभिगमसूत्रमा आ (नीचे लवेली) गायावडे कहीं छ॥१८॥"नारकजीव. ने विषे अन्तर्मु०-तिथेच अने मनुष्यमा ४ मृहत-अने देवोषां उत्तरविकुर्वननो काळ उत्कृष्ट अर्धमाम छ" ।। १८९॥ श्रीभगवतीजीमा नो वायुकायने-सद्धि निर्यचने-अने संमिमनुष्यने पण उत्तरक्रियनी उन्कस्थिनि अन्न मुं० कही छे, ॥१९७।। श्रीसूप्रकृतांग (वीजाअग) मां नो-(मूळगाथा)-''महासंतापकारी,भाकाशमा रहेलो एक (सरखो) दीए वैक्रिय पर्वत घणो उंगे , त्यां घणा क्रूरकर्मवाळा नारकजीवो हजारो मुहर्त प्रमाण प्रणाकाल सुधी हणाय छ, १९१" “ गाथामां “ नाम " शन्द संभावना अर्थमां के. एटल के एप संभावना थाय छे के नरकने विषेप आकाशमां (देखानी होय नेवो उचो)महाभितापे महादुःख आपनारो एक-एक शिलाशी रचायलो अने दीर्घ. वेयालिए एटले बैंक्रिय अर्थात परमावामीओए पनावेलो पर्चन छे त्यां नरक स्थानोन अंधकार स्वरूप हवाथी हाथ टेकाची टेकावीने उपर चढ़ना घणा क्रूरकर्मधामा नारकजीवो ह. जारो मुहूर्तोंथी आगळ परं-उत्कृष्ट अर्थात् सहस्र शब्द उपलक्षण होवाथी धणा काळसूधी हणाय है-पीदाय हे. टोकैकदेशार्थः । अहि परमाधर्मी देव चिकुला पर्वतनी अर्धमासथी अधिक स्थिति पण कही एम जाणवू. एमां नम शृं के ते श्री Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) ॥ शरीरद्वारे स्थिति - अल्पबहुत्व मेदविचारः 11 (द्वार सर्व जाणे. (ए रीते वैकियशरीरनी स्थिति कही.) आहारक शरीरनी जघन्य अ ने उत्कृष्ट बने प्रकारनी स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त मात्र छे, अने सर्वजीबोना सैंजसका शरीरनी स्थिति बाई करी अनादि छे । १९२ ।। तथा भव्यजीको ज्यारे मोक्षे जाय त्यारे ते बन्नेनो त्यां अभाव होवाथी सान्स ( अन्य सहित ) छे, अने मोक्ष मार्गे जवामी पांगळा एवा अभव्य जीवोने ते वने शरीर ( अन्त नहि यनार होवाथी ) अनन्त है ।। १२३ ।। ए प्रमाणे स्थिति संबंधि तफावत को आहारकं सर्वतोऽल्पं, यत्कदाचिद्भवेदिदम् । भवेद्यदि तदाऽप्येतदेकं द्वे वा जघन्यतः ॥ १९४ ॥ सहस्त्राणि नवोत्कर्षादसत्तास्य जघन्यतः । एकं समयमुत्कृष्टा, पण्मासावधि विष्टपे ॥ १९५ ॥ उक्तं च – “आहारगाई लोगे, छम्मासा जा न होंतिऽवि कयाइ उक्कोसेण नियमा, एवं समयं जहन्ने ॥ १९६॥" - [ आहारकाणि लोके षण्मासान्यावन्न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कर्षेण नियमादेकं समयं जघन्येन ] ( सा० ७७ ) श्राहारकादसंख्येयगुणानि वैक्रियाणि च । तत्स्वामिनामसंख्यत्वान्नारकाङ्गिसुपर्वणाम् ॥ ९७ ॥ श्रप्यौदारिकदेहाः स्युस्तदसंख्येययुणाधिकाः । आनन्त्येऽपि तदीशानामसंख्या एव सेयतः ॥ १९८ ॥ प्रत्यङ्गं प्राणिनो यत्स्युः, साधारणवनस्पतौ । अनन्तास्तानि चाख्यान्येवाङ्गानि भवन्ति हि ॥ १९९ ॥ तेभ्योऽनन्तगुणास्तुल्या, मिथस्तैजसका मणाः । यत्प्रत्येकमिमे स्थातां, हे देहे सर्वदेहिनाम् ॥ २००॥ इत्यल्पबहुत्वकृतो विशेषः ॥ एकजीवापेक्षया १ प्रेम दोनुं पाणी पकस्थळे कायम नहि रहेतां जूनुं पाणी जायछे अने नये पाणी भावे छे त प्रवाह रूप ते पाणी कायम रहे छे, तेम प्रतिसमय विशीण स्वभावमा तैजसकामेण शरीर पण प्रवाह बढे अनादि, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ( १७९ ) [84] || लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७८ ) स्याज्ज्येष्ठ मौदारिकान्तरम् । अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः || २०१|| तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ " उत्कर्षतस्त्रयस्त्रि 'शत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि तानि चैवं कश्चिच्चारिश्री वैक्रियशरीरं कृत्वाऽन्तर्मुहूर्त्त जीवित्वा स्थितिक्षयादविग्रहेणानुत्तरसुरेषु जायत इति । सा ०७८) वैक्रियस्यान्तरं कार्यस्थितिकालो वनस्पतेः । अर्धश्च पुद्गलपरावर्त्त आहारकान्नरम्॥ २०२ ॥ लघु चायस्य समयोऽन्तर्मुहूर्त्त तदन्ययोः । न संभवत्यन्तरं च, देहयोरुक्तशेषयोः ॥ २०३ ॥ इत्यन्तरकृतो विशेषः ॥ इति देहस्वरूपम् ९ ॥ (हवे आठमा अल्पबहुत्वकृतभेद बतावे छे.) अर्थ-८ अल्पबहुत्व (संख्या) कृतभेदः -- आहारकशरीर सर्वश्री अल्प (- ओछी संख्यामां ) होय छे. कारण ते काइक वखते ज होय छे, अने जो होय तोषण जघन्यथी एक अथवा वेज होय ॥ १९४ ॥ अने उत्कृष्टथी ९००० होय. बळी जगतमां ए शरीरनी अससा (अभाव) जघन्यथी १ समय अने उत्कृष्टधी ६ माससुधी होय ॥ १२५ ॥ कां के के-" कोइकवस्त्रत लोकपां (जगत्मां) आहारशरीर उत्कृष्टषी ६ मासमुधी निययी होतुं नयी अने जघन्ययी एकज समय न होय " (अर्थात् जगत्मां अप्रूफ वखते कोइए आहारक शरीर रच्यूँ होय) ने ते अन्तर्मुहूर्तां विलय पाम्युं होय त्यारबाद एक समपने अन्तरे अथवा तो ६ मास पछी कोइने कोई मुनि आहारक शरीर रचे परन्तु बघु विलंब न थाय ) ॥ १९६ ॥ तथा आहारक शरीरथी वैकिय शहर असंख्य गुणां के, कारण ते वै शरीरना स्वामीओ ( एटले वै०शरीरवाळा ) देव अने नारकriat rite के ॥ १९७ ।। वही औदारिक शरीर ते वै थी पण असंख्य गुण अधिक छे, जोके तेना स्वाभिओ ( औ० श०वाळा ) अनंत के तोपण शरीर तो असंख्यातज के ॥ १९८ ॥ जेथी साशरण वनस्पतिमां दरेक १ अस्य किल संवाद पाठस्य वैक्रियशरीरिण उत्कृष्टकास्त्युपपतिप्रतिपाद नमस्ता प्रतिपादितत्वाद विग्रहेणेतिपदस्य सार्थक्यम || Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) ।शरीरलारेऽस्वर- कुलो भेदविचारः || शरीरमा अनन्त २ जीयो के, माटे ते औ०भरीरो असंख्यान न पाय छे ॥१९९॥ . ते बो००यी सैजस अने कार्मिण शरीर अनंतशुणां, परन्तु परस्पर तुल्य छे ( एटले भेटका ते शरीर के तेटलाज का शरीर पण थे, ) कारणके सर्व संसारि पाणीओने ए बे शरीर होय ज़ छे, ॥ २० ॥ ए प्रमाणे अल्पयाहुत्व संबंधि तफावत दर्शाध्यो. ९ अन्तरकृतभेदः- एक जीवनी अपेक्षाए औदा शरीरनु उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत अधिक ३३ सागरोपम २. श्री जीवाभिगमवृत्तिमा काछे के--" उस्कृष्टयी अन्तर्मुहूर्चाधिक ३३ सागरोपम ते आ प्रपाणे जाणवू के कोइक चारित्री जीव (मुनि) वैभारीर करीने अन्तर्मु० मुधी जीवीने आशुअपनो क्षय थवाथी ऋजुगतिए (सीधीगमिए) अनुत्तर देवमा उत्पन्न थायरते आश्रयी भाणबु)” ॥ वैक्रियशरीस्तुं अन्तर ( एक जीवनी अपेक्षाए ) वनस्पतिना कापस्थितिकाळ जेरल छे, अने आहारक देहन उत्कृष्ट अन्तर अर्धपद्दल --- - - - १ पक जीये अमुक शरीर छोडया बाद तेज शरीर केटल काटे प्राप्त पाय ? ते अन्तर कहेवाय, २ जोवाभिगम्वृत्तिमा कियशरीरको उत्कृष्टकाय स्थितिमी युक्ति पतापचा माटेना आ पाठमां अधिग्रहण प पर आपेल छ, तेथी मा पाठमां भ. विप्रगति शामारे कही ? विगेरे. कोर प्रकारनी शंफानो अवकाश नधी अमे तेथील वक्र गसिए अता जोके पकथी अधिक समय लागे छ, अने तेटला समय औदा० मा उ. अन्सारमा बधै तो विशेष उ. अन्तर प्राप्त याय परन्तु सेटला समय सध्या ना अन्तर्मु० ना अनेक मेष होवाची अ. म्त मुहूर्तमा बाध आपत्तो नपो, ३ अमुक जौष पनस्पतिमा जाने त्यां मरण पामीने पुनः वनस्पतिमा पारंवार उपजे तो एक मायलिकामा असंख्यासमा भागमा जेटला समय पाय तेटला पुद्गलपरावर्ती सुधी वारंवार बनस्पतियां जन्म मरण कर्या करे माटे तेटलो काळ वनस्पतिमा रहेका जीष ५ पैनु उ० अन्तर प्राप्त पाय, ५ आहारा शरीर चौदपूर्षधर चारिधीमुनिने ज होय अने चारित्रनुं उ० अन्तर अर्ध पु. परा० छे माटे आला. नुं अन्तर पण ते टाटु ज होय. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९सो ॥ लोकभकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (मा० ७८) (१८) परावर्स (-अनसकाळ) प्रमाण छ ॥ २२ ॥ संधा औदा शरीरनु जयन्य अतर १ समय, अने औदारिकथी वीजा वै० अने आहा. शरीरनु अघन्यअन्तर . अन्तमूहर्त , अने तैजसकामण मो सर्व जीपने सदाकाळ होगायो ए पन्नेर्नु अन्तर संभवतुं नथी. ॥२०३ ।। इति शरीरमारस्वरूपं नवमम् ।। --- - . १ "औवारिकसरीरिणोऽस्तरं जघन्यत एक सम्पः स च हिमामपिक्यामधाम्सरालगती भाषनीयः तत्र प्रयमे ममये कामणशरीरोपेतत्वात्" इति श्री जीवाभिगमवृत्तौ अर्यात कोर औदारिकशरीरवाळो मनुष्यादि मरण पामे सेने बे समयनी षियगतिमां प्रथम समये कामणशरीरयुक्त पणु होघाथी ते एक प्रथमनी समय जघन्यथो अन्तर विचार. अथवा उपर कहेल उत्कृट अन्तरनी युक्तिनी जेम कोर वैक्रियल विधाळो मनुष्य क्रियशरीरमो प्रारंभ की बी. जेश समये मरण पामी अधिग्रहगतिय मनुष्यादि पणे तत्पन्न काम मोपण एक समयनु अघन्य अन्तरघटी शके हे विगेरे बहुश्रुतगीतार्थ पासेधी समजवू. २ बळी . अश्या आहा शरीर प्रथम ग्च्यु. होय ते विलय पाम्या गाव कमीमा कमी अन्तर्मु. काळ धीम्या बाद ज बोजु घे० था बाहा. रची शकाय माटे जघन्य अन्तर अन्तरर्मुहूर्त कार्य छ, पळो व शरीर,माटेतो ते विलय पाम्या बाद अन्तर्मुसे मरण पानी देवादिगणे उपजे मो पण अन्तर्मु अस्तर होय. जो के अहीं 4 क्रियशरीरना सम्बन्धमा पूर्व बनावल औदारिकामा उत्कृष्ट अन्तरनी युक्तिनी जेग अभिय शरीर बनाषी बे समयनी विमागतिए इत्पन्न थाय अगर ये छोटी औशमा १ समय रही अविमाहे उत्पन्न याय तो पक समयनु पण जय अगार संभवी शके रछे पण ते उत्तर वै० अने मूल के पम मेनी अपेक्षाये थयु, पण जीवाभिगमाहिमा अन्तर्मु. पता. व्यं छ तेषी तेषी रोते उपअनार क्वचितज होय अथवा ते' बम्मे मूल . नो अपेक्षाये होय तेम संभये छ, कारण नारकीर्नु ता देवनानु जघन्य अन्तर अन्तमु बताठ्यु छ ते मूल वैनी अपेक्षा अने उत्तर व अपेक्षा उपर बतायो रीत प्रभाणे, अगर पीजी रोते पण यथा संभव घटाड आही धकेष्टि भगवान जाणे, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शरीरधारेतजमापगाहनायन्त्रकम् || (द्वार ॥ मरणसमुद्घातमा जीवोनो तेजसावगाहनानु यन्त्र ॥ एकेन्द्रियनी- जघन्यो अंगुलनो असंलयातमो भाग उ०यी लोकान्तथी लोकान्त विकलेन्द्रियनी अने | जयश्री अंगुलनो असंख्यातमो भाग, उन्धी नी लोकपंचे नियंचनी ।थी लोकान्त ( साधिक ७ रज्जु ) जघन्यी साधिक १००० योजन (पातालकळशना दळपयाण जनपी अधः पगी पृष्धी पर्पल, लिपा स्वयंभूरमण) | समुद्रान्तपर्यन्त, अने ऊर्ध्व-पंकवन सुधी. नारकनी मनुष्यनी-' जघन्थी अंगुलासंख्येपभाग. उत्कृस्थी नरक्षेत्रयी लोकान्तपर्यंत भुवन व्यन्न ज्यो० जघन्यी अंगुलासंख्येय भाग. बस्कृल्थी अधः श्रीजी नरक सुधी, सौधर्म ईशान . । निर्यक् स्वयंभूरमणसमुद्रान्त सुधी, अने उध्वं सिद्धशिला सुधी. देवोनी - सनतकुमारथी जघ-थी-अंगुलासंख्येय भार. उत्कृन्थी अधः पातालकलचना सहस्त्रार सुपीना | मध्यम तृतीयांश सुषी, विर्यक्ष स्वयंभूरमण समुद्रान्त मृषी देवोनी । अने ऊर्य अच्युत स्वर्ग पर्यन्त. आनतथी अच्युन । जघन्यी अंगुलासंख्येयभाग. उत्कृ०धी अधः अधोग्राम पर्यसुधीना देवोनी ।न्त विक नरक्षेत्र सुघी, अमे ऊर्ध्व अच्युतस्वर्ग पर्यन्त. पैवेपक अने .. जघन्थी स्वस्थानथी विद्याधरनी श्रेणि सुधी, अधः अधो अनुचरनी । ग्राम पन्त, ऊर्च स्वस्थान पर्यन्त, अने तिर्यक् नरक्षेत्रपयन्स १त्रीजी नरकमां गयेला केटलाक देषताओनु स्यांज मरण पयापी स्यां सुधी भी अवगाहना संभषे छे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) (सा० ७९) || लोकमकाशे तीयः सर्गः ॥ (Ro शरीरनां नान औदारिक वैद्रिय चाहारक तंजस कार्मण कारण कृत विशेष (पुल परिणाम स्थूल पुदुगल श्री वलु लुं ० थी सू० दुगको बने लुं आदा० थी खु० पुद्गलो बडे चमेल ॥ पांच शरीरमां कारणकृतविशेषादि ११ द्वारयन्त्रकम् || ( ५ द्वारो ) तेज थी सृ० पुतलोबडे वनेल प्रदेश संख्या० ( एक स्कंधम); ल देखने स औथी सूक्ष्म ओग्यो असंख्य नारकने, कंटलायक बा० ए पुदुग अमव्यवी अनंत गुण सिद्धधी अनंतमे भागे गुण ये श्री अनं रूप गुण आहारथी अनंत गुण स्वामिः ३ तथी अने सगुण सर्व तिच अने सर्व मनुष्यने र्या वायु, गर्भजनियच, ग० जरने. कोइक प्रवद्र ਖਤਰ सर्व संसारी जोधोने " ग ति ४ ‍ य उर्ध्व पंडुकवन सुधी तिर्यक्र - १३ मारुवकद्वीपमा रुवक पर्वत सुधी असंख्यङ्कोप समुद्र महाविदेह सुधी स्टोकना एक छेड़ाथी बीजा छेड सुधी ( परभव जत ) प्रयोजन . धर्माधिमंत्पित्ति मोक्ष प्राप्ति इत्यादि एकानेकत्वादि नभोगल्यांवि संघल दि मार्थ संशय छेद. जिनेन्द्र ऋ द्विदर्शन इत्याि श्राप वरदान भोजननो पश्चाष इत्यादि अन्यभयमां गति, विगेरे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कारो) (६ द्वारो। शरीरमां | अषगाहना केटला आकाश नाम ६ | प्रदेशमा ७ स्थिति ८ अमण्यस्व | अन्तर अनेक | 30 अम्तर (देड संख्या) | जीव आअयि(पकजीवाणि वधी असं - साधिक औदारिक । योजन भाहाथी संरूपानगुण प्रदेशो जघ० -भातमुहूर्त उत्कृष्ठ -३ पल्योगम अन्तर न | अन्तर्मु. म. धिक ३३ सागर ख्यगुण होय ॥ शरीरद्वारे ? निद्राग्यन्त्रकम ॥ साधिक अन्तर न ओबात थी | जय .-10000 वर्ष) मून क्रिय उ० ३३ माग प्रदेशो | अघ. - अन्नमु । उत्तर ० उ: - मास असंख्य योजन आवक्षिकाना असंख्याता भाग जेटली | पुद्गलपरावत || माहारक । र हाथ असंख्य आकाश! जय - अन्तर्मु. प्रदेशोमा उ. अन्त ० ९००, जघ-समय| | पुदगल ( शाचित् .उ.- ६ मास | परावत संपूर्ण लोका-वधी असंख्य भव्यने-अनादि साम्स तंजा । काश गुण आकाश प्रदेशमा । अभव्यने-मनादि अगस्त । अनंत । अन्तर न होय । अन्तर नयी (828) ते तुल्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७५) (१८५ ) सदसल्लक्षणोपेतप्रतीकसन्निवेशजम् ।शुभाशुभाकाररूपं,षोढा संस्थानमङ्गिनाम्॥२०४॥ समचतुरस्त्रं न्यग्रोधसादिवामनककुजहुण्डानि । संस्थानान्यले स्युः, प्राकर्मविपाकतोऽसुमताम्॥२०५॥ तत्र चायं चतुरलं, संस्थानं सर्वतः शुभम् । न्यग्रोधमू नाभेः सत् ,सादि नाभेरधः शुभम् ॥२०६॥ इदं साचीति केऽप्याहुः, साचीति शाल्मलीतरुः । भूले स्याद् वृत्तपुष्टोऽसौ, न च शाखासु तादृशः॥२०७॥तथोक्तं पञ्चसंग्रहवृत्तौ-" अपरे तु साचोति पटन्ति, तत्र साचीति प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचीति," एवं च न्यग्रोधसाचिनो. रन्वितार्थता भवतीति ज्ञेयं (सा०७९) । मौलिग्रीवापाणिपादे, कमनीयं च वामनम् । लक्षितं लक्षणैर्दुष्टैः, शेषेववयवेषु च ॥२०दरम्यं शेषप्रतीकेषु,कुजं संस्थानमिप्यते । दुष्टं किंतु शिरोगीवापाणिपादे भवेदिदम् ॥२०९॥हुण्डं तु सर्वतो दुष्ट,केचिदामनकुब्जयोः । विपर्यासमामनन्ति,लक्षणे कृतलक्षणाः ॥२१०।। इति संस्थानस्वरूपं १० ॥ अङ्गमानं तु तुङ्गत्वमानमङ्गस्य देहिनाम् । स्थूलतापृथुताय तु, ज्ञेयमौचित्यतः स्वयम् ॥२११ ॥ इत्यनमानस्वरूपम् ११ ।। ( वशमुं संस्थानहार स्वरूप कहे हे.) अर्थ-शुम अने अशुभ लक्षणवाळा अवयवोनी रचनाधी थयेटु शुभ अने अशुभ थाकारवालं एबुं जीवोन सस्थान (अवयवोनी गोठवण ) ६ प्रकारचें छे. ॥२०४॥ ते आ प्रमाणे-१ समचतुरस्त्र-२ न्यग्रोधपरिमंडल-३ सादि (वा सायो)-४वामनकुन्ज ने वटु हुंडक ए ६प्रकारनी अचयवनी रचना पूर्व क. मना उदययी जीवोने शरीरमा होय छे.॥२०५||तेमां हेलु समचतुरस्र संस्थान जे अंग सर्व बाजुथी शुभ(उत्तमलक्षणवाळुहोय ते 'हेल्लं समचतुरस्त्र संस्थान, २ जुं नामियी उपरनुं अंग शुभ होय ते न्यग्रोध संस्थान, ३ जु नाभिथी नीचेन अंग शुभ होय ते सादि संस्थान,२०६॥ केटलाक मा सादि संस्थानने साची Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६ १ || संस्थानद्वारे समचतुरस्रादि संस्थान विचारः ॥ संस्थान पण कहे है त्यो साची एश्ले शाल्मलीवृक्ष के जे मूळमां गोळाकार अने पुष्ट होय छे; पण शाखानो भाग तेवा प्रकारनो होतो नथी ॥ २०७ ॥ पञ्चमवृत्तिमांकयुं छे के - "बीजा आचार्यों साची ए प्रमाणे पण कहे छे, त्यां सिद्धांतकारी "साची "शाह कहे छे, माटे साची (शामली) सरखु जे संस्थान ते साची कद्देवाय अने प प्रमाणे न्यग्रोध अने माची नामोनु अपणु (पोताना नाम सरखा अर्थनाळापर्णु) ले एम जाणवुं " मस्तक - ग्रीवा (खोक ) - हाथ-भने पम ए अवयवो शुभ लक्षण युक्त होय ते ४ थुं वामन संस्थान काय, की ए संस्थान बाकीना अवयवोमां दुष्टलक्षणयुक्त होय छे. ।। २०८ ।। तथा मस्तक-ग्रीवा-हाथ अने पर ए चार अवयवो दुष्टलक्षणवाला होय अने वाकीना अवयवो मनोहर होय ते ५ कुब्ज संस्थान कहेनाय छे. ॥ २०९ ॥ वळी जे अंग सर्व अवयवो वडे दुर्लक्षणा होय ते ६ हुंडक संस्थान कहेवाय. पुनः लक्षणशास्त्रमां कृतलक्षण (एटले अतिनिपुण ) एवा केटएक भाचार्थी बामन अने कुब्ज ए वे संस्थानने विपर्यासणे ( अर्थथी ) माने . || २१० ॥ इति संस्थानद्वारम् दशमम् १० ॥ ॥ ११ श्रगमानद्वारम् || अंगमानद्वार एटले माणीओना शरीरनी पंचाइतुं प्रमाण जाणवुं तथा जाडाइ अने होकाइ ने यथायोग्य पोतेज जाणी लेवी, ( अर्थात् उंचाई अने लम्बाइ नो आगळ जीवभेदमां कहेवाशे पण जावाइ जने डोळाइ नहि कहेवाय. अथवा लम्बाइने अनुसारै यथोचित स्वयं जाणी लेवी. ए तात्पर्य है. ) २११॥ इति अनुमानद्वारम् एकादशम् ११ ॥ समित्येकीभाव योगाद्वेदनादिभिरात्मनः । उत्प्राबल्येन कर्माशघातो यः स तथोच्यते ॥ २१२ ॥ यतः ॥ समुद्घातगतो जीवः, प्रसह्य कर्मपुद्गलान् । कालान्तरानुभवानपि क्षपयति द्रुतम् ॥२९३॥ तच्चैवं ॥ कालान्तरवेद्यानय- माकृष्योदीरणेन कर्माशान् । उदयावलिकायां च प्रवेश्य परिभुज्य शातयति ॥२१४|| ते चैवं ॥ वेदोत्थः कषायोत्थो, मारणान्तिकवैक्रियौ । आहारकस्तैजसच, १ विपर्यास पटले वामनतो अर्थ कुजम भने कुनो अर्थ मनमां जाणयो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ७) (१८७), छग्रस्थानां पदप्यमी ॥२१५॥ स्यात्केवलिसमुदयातः, सप्तमः सर्ववेदिनाम् । अष्टसामयिकश्चाय-मान्तमहर्तिकाः परे ॥२१६ ।। तथाहि|करालितो वेदनाभिरास्मा स्वीयप्रदेशकान् । विक्षिप्यानन्तकर्माणुवेष्टितान् देहतो बहिः॥२१७॥ यापुर्यालायन्तराणि, मुखादिशुषिराणि च । विस्तारायामतः क्षेत्रं, व्याप्य देहप्रमा णकम् ॥२१८|| तिष्ठेदन्तर्मुहत्तै च, तत्र चान्तर्मुहर्तके। असातवेदनीयांशान्; शातयरयेष भूरिशः ॥२१९॥ इति वेदनातमुदधातः।। समाकुलः कषायेन, जीवः स्वीयप्रदेशकैः । मुखादिरन्धाण्यापूर्य, तान् विक्षिप्य च पूर्ववत् ॥२२० ॥ विस्तारायामतः क्षेत्रं, व्याप्य देहप्रमाणकम् । कषायमोहनीयाख्यकर्माशान् शातयेद्रबहुन २२१ शातयश्चापरान् भूरीन, सभादत्ते स्वहेतुभिः । ज्ञेयं सर्वत्र नेवं चेदस्मान्मुक्तिः प्रसज्यते ।। २२२ ॥ कषायस्य समुधातश्चतुर्दाऽयं प्रकीर्तितः। क्रोधमानमायालोभेहेंतुभिः परमार्थतः||२२३॥ इति कषायसमुदघातः ॥ (हवे समुद्घातद्वारविचार कहे बे.) अर्थ-वेदनादि साथे आत्माना सम्-पटले एकीभाषता ( एकरूप पणुं वा मन्मयपणारूप,संबन्धथी उत् एटले प्रचलपणे कर्मपुद्गलोनो जे घात(एटले विनाश)ते ममुद्धात कहेवाय ।।२१२॥ कारणके समुद्घातने प्राप्त ययेलो जीव धणे काळे भोगववा योग्य कर्मपुगलोने पण वळात्कारे शीव खपाये (मोगये) के ॥२१३शाते आ प्रमाणे- आ जीव घणेकाळे भोगवचा योग्य कर्मपुद्गलोने उदीरणा करणवडे आकर्षी उदयावलिकामा प्रवेश करात्री भोगवीने निर्जरा के. ॥२१४|| (समुन्घात(ना भेदो)आ प्रमाणे-१ वेदनायी उत्पन्न थयेल-२ फषायथी उत्पन्न ययेळ३ मारणांतिकसमु०-४ बैंक्रियसमु०-५ आहारफ ममुख-अने ६ तैजस समु० ए ६ ए समु० उपस्थने होय छे, ॥ २१५ ॥ अने सातमो केवलिसमुद्घान सर्वाने होंय ले. तेमां था सातमो समु. आठ समयप्रमाण, अने बीजा छ सम अन्समुं० प्रमाणना छे, ॥ २१६ ॥ हवे ते साते समुद्रातर्नु स्वरूप Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) ॥ रामु यातद्वारे देव मागास विचारः ।। (शार आ प्रमाणे-अत्यन्त वेदनावडे व्याकुळ येलो भात्मा अनन्त कर्म परमाणुओक्डे वीसावळा पोताना जीवप्रदेशो शरीस्थी महार फेंकीने खभा विगेरेनां बहारना ) अन्तर अने मुखादिकना ( अंदरना भागनां ) पोलाण (जीवमदेशोंबडे) पूरीने विस्तार अने लम्बाइ (अपवा उचाइ) बडे शरीर जेटला क्षेत्रमा व्याप्न पहने, एक अन्नहर्स सुधी ( ए स्पिनियां ) रहे ते अन्तर्मुहूर्त जेटला काळपां आ आत्मा अशातावेदनीयना घणा कर्मपुद्गलोने निर्जरे ।।२१७-२१८-२१९|| ए प्रमाणे १ लो वेदना समुद्घात कह्यो. (कषायसमुद्घात स्वरूप) कषायबडे व्याकुळ ययेलो मात्मा पोताना आत्मपदेशोने पूर्ववत् बहार फेंकीने मुख विगैरेनो पोलाण भाग परीने ॥२२०॥ विस्तार अने अम्बाइ रडे देह जेटका क्षेत्रमा व्यापम यइने घणो कपायमोहनीयकमना प्रदेशो खपावे || २२१ ।। अने ते खपावतो तो पुनः पोताना हेतुबडे ( करायरूप हेतुनडे ) बीजा घणा कपायमोहनीय कर्मप्रदेशोने ग्रहणकरे से कषापसमुधात कहवाय. आ प्रमाणे फर्मप्रदेशोनुं ग्रहण सर्व (पयोचित ) समयानोमां जाण. जो ए ममाणे वीजा फर्मप्रदेशोने ग्रहण न करे तो ए समुद्घातथी मोक्षनीज प्राप्ति थाय माटे सर्वत्र कर्मपदेशोतुं ग्रहणपणु जाणवु. ।। २२२ ॥ वळी वास्तरिक रीते कोष-मान-भाषा-अने लोभसा तुओबडे आ पायममुद्यात पार प्रकारनो फहेलो के. ॥ २२३ ।। ए ममाणे धीमा कषापसमु नुं स्वरूप फयु । अन्तर्मुहूत्तशेषायुमरणान्तकरालितः । मुखादिरन्ध्राण्यापूर्य, शरीरी स्वप्रदेशकः ॥ २२४ ॥ स्वाङ्गाविष्कम्भवाहल्यं, स्वशरीरातिरेकतः । जघन्यतोऽगुलासंख्येयांशमुस्कर्षतः पुनः ॥२२५||असंख्ययोजनान्येकदिश्युत्पत्तिस्थलावधि।आयामताऽभिव्याप्यान्तमुहर्तास्रियते ततः ॥२२६।। मरणान्तसमुद्घातं, गतो जीवश्च शासयेताआयुषः पुद्गलान् भूरीनादत्ते च नवान्न तान२२७ अत्राय विशेषःकश्चिजीव एकेनेव मारणान्तिकसमुद्घातेन नरकाविषत्पयते, तत्राहारं करोति, शरीरं च बनाति, कश्चित्तु समुदघातानिवृत्त्य स्वशरीरमागस्य पुनःसमुद्घासं कृत्वा तत्रोपद्यते,अ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ८०) ( १८०) यमर्थो भगवतीषष्ठशतकषष्ठोदेशके नरकादिष्वनुत्तरान्तेषु सर्वस्थानेषु भावितोऽस्तीति जेसं (मा०८०)॥ इति मारणान्तिकः समुद्घातः॥ वैकुर्विकसमुवातं. प्राप्तो वैक्रियशक्तिमान् । कर्मावृतानामात्मीयप्रदेशानां तनोवहिः॥२२८॥निसृज्य दण्डं विष्कम्भवाहल्याभ्यां तनुप्रमम् ।आयामतस्तु संख्यातयोजनप्रमितं ततः२२९ वैक्रियाङ्गाभिधनामकर्माशान् पूर्वमर्जितान् । शातयन् वैक्रियाङ्गाहन्,ि स्कन्धाँल्लात्वा करोति तत् ॥२३०॥त्रिभिर्विशेषकम्॥इति वैक्रियसमुद्घातः ॥ समुद्धतस्तेजसेन, तेजोलेश्याख्यशक्तिमान् । कर्मावृतात्मप्रदेशराशे वैक्रियवदबहिः ॥२३१॥ देहविस्तारवाहल्यं, संख्येययोजनायतम् । निस्सृज्य दण्ड प्रारबद्धान् , शातयेत्तेजसाणुकान् ॥२३२॥ युग्मम् || अन्यानादाय तयोग्यान् , तेजोलेश्यां विमुञ्चति । तैजसोऽयं समुद्घातः, प्रज्ञप्तस्तत्वपारगैः।।२३३ ॥ इति तेजससमुदघातः ॥ चतुर्दशानां पूर्वाणां, धर्ताऽऽहारकलधिमान् । जिनर्खिदर्शनादीनां, मध्ये केनापि हेतुना ॥ २३॥ आहारकसमुवातं, कुर्वन्नात्मप्रदेशकः । दण्ड स्वाइपृथुस्थल, संख्येययोजनायतम् ।। २३५ ॥ निस्सृज्य पुद्गलानाहारकनाम्नः पुरातनान् विकीर्यादाय तद्योग्यान् , देहमाहारक सृजेत्॥२३६।। त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इत्याहारकसमुदघातः ॥ अर्थ-अन्तर्मुहत्त जेटलं आयुष्य ज्यारे वाकी रहे त्यारे मरणान्सबडे व्याकुळ यये लो आत्मा पोताना प्रदेशोषढे मुखादिकना पोलाण भाग पूरी ॥२२४॥ पोता. ना शरीरना विस्तार भेटलो स्थूळ ( जाहाइलाको) थाय. अने लंबाइमा जघ० थी अंगुबनी असंख्यातमो भाग ॥२२५|| अने उत्कृष्टी एका दिशामा (-समणिए) उत्पत्ति स्थान सुधी असंख्ययोजन प्रमाण व्याप्त थाने स्पारवाद अन्तमहर्स मरण पामे ते मरणान्तसमुद्धात कडेवाप || २२६ ॥ मरणान्त समुद्घारने प्राप्त थयेलो जोव आयुष्यकर्मना पणा पुनलोने शीघ रखपाचे. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९.) ॥ समुधातबारे मारणापैकि आहा०मा०विचारः ।। (हार पण ( आयुष्यना ) नवा पुनलोने ग्रहण न करे. ॥ २७ ॥ यहिं विशेष ए छे के-" कोइक दीन कम रकममा का गरमादिक उत्पन थाप, स्यां (भवधारणीय पुगकोनो)आहार करे अने शरीर पांधे, अने कोइक जीवना (प्रथम रचेली ) समुद्घालथी निवृत्त थइ पोताना ( प्रथमना मूळ ) शरीरमा आवीने फरी वीजीवार समुद्यात करी त्यां उत्पन्न थाय " ए भावार्थ भगवतीमा ६ हा शतकना ६ छा उद्देशामा नरफयी अनुत्तरसुधीनां सर्व स्थाने कहेलो के एम जाणवूए प्रमाणे मरणसमु० न स्वरूप का ॥ बैकिप समुद्घासने प्राप्त धयको वैक्रियलब्धिवाळो जीव कर्मचडे वाटायला पोताना जीवप्रदेशोने शरीरथी बहार काठी होळाइ अने जाडाइमा शरीरतल्प अने लगाइमा संख्यान योजन जेटलो यइने ते समुद्घानधी प्रथम उपार्जन करेला बैंक्रिय नामकर्मना प्रदेशोने खपावतो छनो नवा वै. शरीरयोग्य पदलस्कंधोने ग्रहण करी ते वैक्रियशरीर रचे ले. ॥ २८-९-३० ।। एरीने बैकियसमुयात जाणवो. (तैजस समुद्घालविचार कहे छे) सैनमसमुद्घातने भाप्त थयेलो तेजोलेश्या नामनी लम्धिवाळो जीय कर्मरडे वीटायला आत्मपदेशना समूहनो बैंक्रिय माफक देनी होळाइ अने जाडाइ जेटली अने संख्यातयोजन दीर्घ (आत्मपदेशनो) देह बहार काढी पूर्व बांधेका तेजसना. १ मरण भने मरण ल मुदघात बे भिन्न छ कारणके कोर मीच मरणसमुधातपूर्षक मरण पमे छ, अने कोइजीब मरणसमुद्घात कर्या विना मरण पामे छ. अने एक भषमा पधुम वधु वे मरणसमुदधात याप छे. ज्यारे बे मरणममुद्धान पाय छे, स्यारे जीद बोझी समुवघातमां मरण पामे छ अने हेली समुद्घाम मरण पहेलो अन्तर्मुद्रत शंधे थाय छे, अने पारे एका मरणसमुदघान करे प्यारे अन्तर्मु शेषे समुवघात करे अने त्याग्बाद तेज समुदघानमा पतनों समु. नु अन्तर्मुः पूर्ण थये मरण पामे.-अथवा जीवन मरण १-२-३-१ समय सुधी होय छ, भने मरणसमु. अनर्मु. प्रमाण छ मरण ते आयु:प्राणमो थियोन (य) अने ते क्षय करवा माटेनी प्रयत्न ते मरण समुद्यान इत्यादि मेदोशी पवनं भिन्न छ, २ क्रिय-अने वै० समु० ए ये पण भिन्न छ, कारण से वै0 समुनो का अन्तमु. प्रमाण अने घनो काळ देचोने ॥ मास जेटलो छ, पतु उत्सरबक्रिय करतां हेला पै० समु० अवश्य करो पढे अर्याल ३० समु० बढे उत्तरवै० देह. मी रचना हो शकेले, तथा घर समु० संख्यातपोजम होपरी ते उत्तरवैक्रिय साधिकलाखयोजन थापले अपेक्षा जाणवू अम्पथा - मां मास्ममवेशनी दीर्घमेणि मसरूपयोजन पण होय छे ३ तेजो केश्या १६ देशबाळवा समर्थ छैने देश क्षेत्र संन्यासयोजन प्रमाण थाय. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) ॥ लोकप्रकाशे तृतीय सर्गः ॥ (मा० ८१) (१०१) मकर्मना अणुओने निर्जरे अने चीजा नेजसयोग्य परमाणुओने ग्रहण करी तेस्रो लेश्या मूके तेने तस्वनो पार पामेला श्री सर्वोए तैजससमुद्घात कडेलो के. ॥ २३१-३२-३३|| प प्रमाणे तजससमुद्घासन स्वरूप का.॥ चौद पूर्वना जानने धारण करनार का आहारक लषपाळा पनि जिनेश्वरनी ऋद्धि देखवादि हेतमांना कोइपण हेतुवडे ॥ २३४।। आहारकसमुद्घात करता छता पोताना आत्मप्रदेशोबडे पोताना शरीरप्रपाण विस्तृम अने स्थूल तथा संख्यानयोजन प्रमाण दीर्घ ॥ २३५ ।। दंड बनावीने पूर्व उपार्जन करेला आहारकनाम कमना पुद्गलोने निर्जरी आहारकदेह प्रायोग्य नवा पुद्गलो प्रहण करी आहारफशरीर रचे ते आहारकसमुद्घात कचाय।। २३६ ॥ ए प्रमाणे आहारकसमुद्घातन स्वरूप कधु. यस्यायुषोऽतिरिक्तानि,कर्माणि सर्वधेदिनः । वेद्याख्यनामगो. त्राणि, समुद्रघातं करोति सः॥ २३७ ॥ आन्तर्मुहर्तिकं पूर्वमावर्जीकरणं सृजेत् । अन्तर्मुहूर्तशेषायुः, समुद्रघातं ततो ब्रजेद ॥ २३८ ॥ आवर्जीकरण शस्तयोगव्यापारणं मतम् । इदं वचश्यं कर्तव्यं, सर्वेषां मुक्तिगामिनाम् ॥ २३९ ॥ आत्मप्रदेशेलकान्तस्पृशमूर्ध्वमधोऽपि च । कुर्यादायक्षणे दण्डं, स्वदेहस्थूलविस्तृतम् ॥ २४० ॥ द्वितीये समये तस्य, कुर्यात्पूर्वापरायतम् । कपाटं पाटवोपेतः, समयेऽथ तृतीयके ॥ २४१ ॥ ततो विस्तार्य प्रदेशानुदीचीदक्षिणायतम् । मन्थानं कुरुते तुयें, ततोऽन्तराणि पूरयेत् ॥ २४२ ॥ स्वप्रदेशेस्तदा सर्वान्, लोकाकाशप्रदेशकान् । स व्याप्नोति समा ह्येते, लोकाकाशैकजीवयोः ॥ २४३ ॥ संह. रेत्पञ्चमे चासौ, समयेऽन्तरपूरणम् । षष्ठे संहृत्य भन्थान, संहरेसप्तमेऽररिम् ॥ २४४ ॥ संहरेदष्टमे दण्ड, शरीरस्थस्ततो २ भरत अषषा ऐरषतक्षेत्रयी पुष्कलावतोषिज्ञप. ५० हजार जोजनधी अधिक दूर माटे आधारकबीरमे त्यां मोकलता मंग्यातपोजन दीर्घ देह घाय Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) ॥ समुद्घातद्वारे केवलिसमुद्घानविचारः ॥ (दार भवेत् । अन्तर्मुहर्त जीवित्वा, योगरोधाग्छिवं ब्रजेत् ॥ २४५॥ यदाहुः ॥“यस्य पुनः केवलिनः, कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् । स समुद्घातं भगवानुपगच्छति तस्समीकर्तुम् ॥ २४६ ।। दण्ड प्रथमे समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्धानमथ तृतीये, विश्वव्यापी चतुर्थे तु ॥ २४७ ॥ संहरति पञ्चमे स्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं, संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ २४८ ॥ औदारिकप्रयोक्ता, प्रधमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मित्रोदारिकयोक्ता,सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ २४९ ॥ कार्मणशरीरयोक्ता, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन्, भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २५० ॥” (सा०८१) । अर्थ-जे केवळी भगवानना घेदनीय-नाम-अंने गोत्रकर्म भायुष्यनी स्थितिथी अधिक दीर्घ स्थिनिवाळा होय ते केवली(स्थिति सरखी करवाने) समु. त्यात करे .॥२३७॥ परंतु ते समुद्घात करना पहेलां अन्नमुहर्त काळपमाणर्नु आवर्जीकरण करे छे अने त्यारपछी अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्यवाळा केवलि समुद्घानने पामे के. ॥ २३८ । आवर्जीकरण परले प्रशस्त (शुभ) गोगनो व्यापार (प्रवृत्ति) पवो अर्थ मानेलो , वळी आ आवर्जीकरण तो सब मोक्षगामीभोवोने अवश्य करवु ओइए ॥१९॥ (हवे केवलिसमुद्घासन स्वरूप कई छे-) प्रयमसमये ऊर्य अने अधोदिशाए लोकना छेडाने सश तेवो दीर्घ अने पोनाना शरीर प्रमाण होको भन्ने जाटो एवो आत्मप्रदेशोनो दंड (दंडनो आकार) रचे १ आषर्जनमाजः-आत्मानं प्रति मोक्षस्याभिमुखीकरणं आमनो मोक्षं प्रन्यु. पयोजनं इति नापार्थः ( अर्थ-भारमाने मोक्ष मरमुख इग्बो अर्थात आत्माने मोक्ष तरफ जोडवो ते भाषर्ज अने सासवधिकिया तं भाघ जनकरण कदे वाय, प तात्पर्य छे. ) पळी पना आजिकरण-आषजनकरण-भावजितकरण-आयोजिकाकारण- अमे आवश्यककरण ५ पर्यायनामो छे. लेनी व्युत्पन्यर्थ श्री प्रज्ञापमाना छत्रीशमा पदमांथो जाणयो, अहिं करणमो अर्थ " शुभमनषचनकाययोगनी व्या पारषिशेष " जाणवो. 'आयोज्य करणार्थ, योगमन्न्यासवान्भवेन" मा प्रमाणे योगप्टिममुख्धयादिमां कडेल योगसन्यास पटले शलेशीकरण सर्व केलि. ओने करधार्नु बौधायो आवर्जीकरण पण सई केहिभगव-तो अवश्य करे है. २ आ दंशसमयची पदेला जे पायोपमासम्येयभाग प्रमाण पण कर्मनो स्थिति Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --:--- :: ----- .. १२ मुं) ॥धीलोकप्रकाशे तनीयः सर्गः ॥ (सा० ८१) (१९३) ... :::::-::.:- - :---- (करे.)॥२४॥षीजे समये ते दंडने लोकना पूर्व अने पक्षिम छेडाने स्पर्श त्यांधी दंडना आत्ममदेशोमांयी कपाटकमाडनो आकार बनाये, सदनंतर - पटुतायुक्त (निपुण ) एवा केचलिभगवान् बीजे समये ॥२४१।। कपाटमांथी आस्मप्रदेशोने उत्तरदक्षिण लोकना छेडासुधी विस्तारीने मथान ( रवैयानो आकार. ). रचे. तदनंतर चोथे साये मन्थानना आंतरा ( चार आंतरा) पूरे ॥२४२॥ ते बखते ( चोथे समये) ते केवळी भगवान् पाताना सर्व आत्ममदेशोर'लोकाफाशना सर्व प्रदेशोने व्याप्त करे छै ( अर्थात सर्वलोकमां व्यापी रहे थे..) कारणके लोकाकाशना अने एक जीवना र प्रदेशो परस्पर तुल्य संख्यावाला के. ॥२४॥ पुनः पांचमे समये केवली भगवान् पूरेला आंतरा संहरे, छठे समये मंथान संहरे. सातमे समये कपार संहरे,॥२४॥अने आटो समये दंड संहरे वे दंड संहरवायी केवली शरीरस्थ(पोताना शरीरनी अवगाहनामां व्याप्त)याय, अने स्यारवाद अन्नमहत्तं जेटलो काळ जीवीने त्रणे योगनो निरोध (रोकाण) करीने मोक्षे जाय ॥ २४५ ॥ कथं छे. के प्रिशमरतो)-" वळी जे केवलिने आयुष्यथी अधिक फर्म बाकी होय तो ते सरखां करवाने माटे केवली भगवान् समुद्घात करे छे. ॥ २४६ ॥ त्यो प्रथम समये दंड. बीजे समये कपाट, श्रीजे समये पंथान, अने चोथे समये सर्वलोफ घ्यापी थाय छे, ॥ २४७ ॥ वळी पांचमे समये आसरायो, छठे समये मंथान, सानमे समये कपाट अने त्यारवाद आठमेसमये दंड संहरे छे. ॥२४८॥ अहि हेला अने आठमा समयमां केवली औदाछे तमा असंख्य भाग करपा तेमाथी मा २ समये असंख्य भाग घात करी पक भाग वाको राखे पुनः दंडसमयथी पूर्वलमये ३ कर्मनी में रस हतो तेना अनंत भाग करवा तेमांयी २५ अशुभप्रकृतिना अनुभागना अनंल भाग करी अनंस भागनो धात करी १ भनम्तमो भाग घाको राखे अने (३९ शुभप्रकृतिना ) अनंतभागनी अशुभपरप्रकृतिमा संकमरूपे घात करी एक भाग घाकी राग्वे,ए समुदयातनुं माहात्म्य छे, पुनः कपाटादि समयोमा पण बाकीराखेला एकेक भागना असंख्य अने अनन्त माग करी घाम करी पकेकमाम थाको राखे र प्रमाणे प्रति (१-५) समयमा स्थितिकडक तथा अनुभागफंडकमो घात दंडसंहार समय सुधी प्रयतं तदनंतर कपाटसंहार रूप छट्ठा समयथी मयाम मंद पडवाथी अन्तर्मुहत काळे पकककडकनो घात थाय, पण छट्ट समये आखा कंडकनो छात म थाय पप्रमाणे छट्ठासमयथी मांडीने सयोगिपणाना घरमसमयसुधी प्रत्येक अम्त. मुद्रा पफेक स्थिति अने अनुभागडकनो घात करता १४मा गुणस्थानना काळप्रमाण चारे कर्म स्पितिवडे सरखों पर जाय, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) ॥ समुद्भावद्वारे केवलिसमुद्यात विचारः ॥ (वार रिककाय योगी मानेला छे. सातमे आउने अने बीजे समये औदारिकमिश्र योगी ॥ २४९ ॥ अने चोथे पांचमे तथा श्रीजे समये कार्मणकाययोगी होय छे, आत्रणे समयमा केवली निश्रय अनाहारी होय छे. " ॥ २५० ॥ किञ्च ॥ समुद्घातानिवृत्त्यासों, त्रिधा योगान् युनक्त्यपि । सत्यासत्यामृषाभिख्यौ, योगौ मानसवाचिकौ ॥ २५९ ॥ पृष्टेषु मनसाऽर्थेषु तत्रानुत्तरनाकिभिः । दातुं तदुत्तरं चेतोयोगयुग्मं युनति सः ॥ २५२ ॥ तथा मनुष्यादिना च पृष्टोऽपृष्टोऽपि स प्रभुः । प्रयोजन विशेषेण, युनक्त्येतौ च वाचिकौ ॥ २५३ ॥ काययोग प्रयुञ्जानो, गमनागमनादिषु । चेष्टते पीठपट्टायमर्पयेत्प्रातिहा रिकम् ॥ २५४ ॥ एवं च- कैश्विदित्युच्यते यन्तु, शेषष० मासजीवितः । जिनः कुर्यात्समुद्घातं, तदस दासति ॥ २५९ ॥ प्रात्रिहारिक पीठादेरादानमपि संभवेत् । श्रुते तु केवलं प्रोक्तं, तत्प्रत्यर्पणमेव हि ॥ २५६ ॥ इत्यादि || अधिकं प्रज्ञापनान्तिमपदवृत्तितोऽवसेयं (सा०८२ ) ॥ ततश्च । पर्याप्तसंज्ञिपञ्चाक्ष-मनोयोगाज्जघन्यतः । असंख्यगुणहीनं तं निरुन्धानः क्षणे क्षणे ॥ २५७॥ असंख्येयैः क्षणैरेवं साकल्येन रुणद्धि तम् । ततः पर्याप्तकाक्षवचोयोगाजघन्यतः ॥ २५८॥ असंख्यगुणहीनं तं निरुन्धानः क्षणे क्षणे । एवं क्षणरसंख्येयैः, साकल्येन रुणद्धि सः ।। २५९ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ ततः पर्याप्तसूक्ष्मस्य, काययोगाज्जघन्यतः असंख्यगुणहोनं तं निरुन्धानः क्षणे क्षणे ॥ २६० ॥ संख्यैः समयैरेव, साक ल्येन रुणद्धि सः । योगान् रुन्धंश्च स ध्यायेत्, शुक्लध्यानं तृतीयकम् ॥ २६९॥ युग्मम् ॥ ( समुद्घात पछोनुं केवलिनु कर्तव्य ) अर्थ :- बळी समुद्घातथी निवृत्त धड़ने ते केवली भगवान् प्रणे योग व्यापृत करे छे ( अर्थात् श्रणे योगमां जोडाय छे.) तेषां मनः अने Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] ॥ लोकप्रकाशे कृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८२) (१९५ ) बचन संबंधि सत्य अने असत्यामृषा नामना बघे योगो || २५१ ॥ स्पां अनुसर देवोए पनवढे पूछेला प्रश्नोना उत्तर आपवाने मत्य अने व्यवहार (असत्यामपा) मनोयोग प्रवषि है, ॥२५२||तथा मनुष्यादिवडे (मनु. देवगतियेच वडे) पूछायला अथवा नहिं पूछायला पण कारणविशेष ते प्रसु ए सत्य अने व्यवहार बचनयोग प्रववि छ।२५३॥ अने गमन आगमन करवा वगेरेमो काययोगने प्रवर्तावता ते भगवान पीठ(वाजोठ)-पार वगेरे वापरता योग्य (पथम लीधेल)वस्तुओ(गृहस्थोने पाछी सोंपे छे,॥२५४॥ प्रमाणे छते केटलाएक एम कई के के -जेनुं आयूष्य ६ मास जेटलु बाकी रघु होय ते केवली समुद्घान फरे पण (तेम नहि होवाथी) ने असत्य है, जो ए प्रमाणेज होय मो वापरवा योग्य बानोठ वगेरे चीमोनू पुनः ग्रहण करवातुं पण संभवे छठां सिखांतपां तो मात्र ते चीजो पाछी सोपी देवानुज जणाधु ॥२५२-५॥ इत्यादि. आषेक विस्तार श्रीमज्ञापना (३६मा पदनी) वृत्तिथी जाणवो. हवे समयानथी नि: वृत्त या प्रत्यर्पणीय वस्तुओ पाछी सोप्यावाद. प्रतिममय पर्याप्त संझिपश्चन्द्रिय ना जघन्य मनोयोगथी असंग्ठ्यगुणहीन मनोयोगने समये समये धनां (रोकना) पवा भगवान॥२५७॥ते प्रमाणे असंख्यसमयमा ते मनोपोगने सर्वथा रुंधे छे, तदनंतर पर्याप्त बीन्द्रियना जघ० वचनयोगथी ॥ २५८ ॥ असंख्य गुणहीन पचनयोगनो पतिसमय निरोध करना ए प्रमाणे असंख्य समयोमां वचनयोगनो सर्वथा रोध करे ॥२५९॥ तदनंतर पर्याप्तसूक्ष्म एकेन्द्रियना जघ. काययोगपी असंख्य गुणहीन काययोगने प्रतिसमय रोकतां ॥२६०॥ प प्रमाणे असंख्य सम. योमा भगवान् सर्वथा काययोगने रुंधे है.ए प्रमाणे प्रणे योगनो निरोष करता भगवान् (निरोधकिया वखने ) रोजु ( सूक्ष्मक्रिया प्रतिपानी नापर्नु) शुक्लध्यान ध्यावे छे. ॥ २६१ ॥ एतेन स उपायेन, सर्वयोगनिरोधतः । अयोगतां समासाद्य, शैलेशी प्रतिपद्यते ॥ २६२ ।। पञ्चानां हस्ववर्णानामुच्चारप्रमिता च ताम् । प्राप्तः शैलेशनिष्कम्पः, स्वीकृतोत्कृष्टसंवरः ॥ २६ ॥ शुक्लध्यानं चतुर्थं च, ध्यायन युगपदासा । वेद्यायुर्नामगोत्रा १ प्रथम समये जेटलो (-प. सं. पंचे थी असं० गु० होन ) निरोध कों नेटलोज बीमे समये रोध करे तेटलोज पीने समय ५ प्रमाणे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) समुद्घातद्वारे केवलिसमुद्घान विचारः ॥ . (बार णि, क्षपयित्वा स सिद्ध्यति ॥ २६४ ॥ अगत्वाऽपि समुद्घातमनन्ता निवृता जिनाः । अवाप्यापि समुद्घातमनन्ता निता जिनाः ।। २६५ ॥ अत्रायं विशेषः।ायः षण्मासाधिकायुष्को, लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ॥ १ ॥ इति गुणस्थानमारोहे (सा० ८३)। छम्मासाऊ सेसे उप्पण्णं जेसि केवलं नाणं । ते नियमा समुघाइय;सेला समुघाय भइयवा ॥ २ ॥ (षण्मासायुःशेपे उत्पन्नं येषां केवलं ज्ञानम् ॥ते नियमात्समुदधात्य(निवृताः)शेषाः समुद्घाते भक्तव्याः) इत्यस्य वृत्ती,(सा०८४) इति केवलिसमुद्घातः । श्राद्याः पञ्च समुद्घाताः, सर्वेषामपि देहिनाम। अनुभृता अनन्ताः स्युर्यधास्वं सर्वजातिषु ॥ २६६ ॥ भाविनस्तु न सन्त्येव, केषाञ्चिल्लयुकर्मणाम् । केषाश्चित्त्वनिनामेकठ्यादयः स्युरनेकशः ॥ २६७ ॥ यावद्गण्या अगण्या वा, स्युः केषाश्चिवनन्तकाः। यथास्वं सर्वजातिरवे, विज्ञेया बहुकर्मणाम् ॥ २६८ ॥ नवरं ॥ सूक्ष्मादिनिगोदैस्तु, निगोदे त्रय एव ते । अनुभूता अनन्ताः स्यु विनस्ते तु सर्ववत् || २६९ ॥ आहारका नरान्येषां, केषाश्चिन्नृभवे त्रयः । अतीताः स्युर्भाविनस्तु, ते चत्वारो न चाधिका ॥२७० संभवेयुश्च चत्वारोऽनुभूता नृभवे नृणाम् ।भविष्यन्तोऽपि विज्ञेयास्तावन्तो नृभवे नृणाम् ॥ २७१ ।। चत्वारोऽपि व्यतीतास्तु, नान्येषां नृन् विना यतः। आहारकं तुर्यवार, कृत्वा सिध्यति तद्भवे ॥ २७२ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ-" इह यश्चतुर्थवेलमाहारकं करोति स नियमात्तद्भव एव मुक्तिमासादयति, न गत्यन्तरमिति"(सा०८५)। सप्तमस्तु न कस्यापि, स्यादतीतो नरं विना । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) ॥ लोकप्रकाशे तृतीय सर्गः ॥ (मा. ८५ ) (१९७) भाव्यप्येकोऽन्यजन्तूनां,केषाश्चिन्तृत्व एव सः॥२७३॥समुद्घातोतीर्ण जिनं, प्रतीत्येको निषेवितः । मनुष्यस्थ मनुष्यत्वेऽनागतोऽप्येक एव सः ॥ २७४ ॥ असवेधाधितश्चायो, मोहनोयाधितः परः । अन्तर्मुहर्त शेषायुःसंश्रितः स्यात्तृतीयकः ॥ २७५ ॥ तुर्यपञ्चमःषष्ठाश्च, नामकर्मसमाश्रिताः । नामगोत्रवेद्यकर्मसंश्रितः सप्तमो भवेत् ॥ २७६ ।। इति जीवसमुद्घाताः। योऽप्यचित्तमहास्कन्धसमुद्घातोऽस्त्यजीवजः। अष्टसामयिकः सोऽपि, ज्ञेयः सप्तभवरसदा२७७पुद्गलानां परीणामा-द्विश्रसोत्यात्स जायते अष्टभिः समयैर्जातसमाप्तो जिनसरकवत्।।२७८॥इति समुदघाताः । १२ । ___ अर्थः-ए उपाय बडे ( ध्यानवडे ) सर्वयोगनो निरोध यवाथी ते भगवान अयोगीपणु. पामीने शैलेशी अवस्था अंगीकार करे . ।। २६२ ।' पांच हस्व. वर्ण (अउ ऋल)ना उपचार काळ जेटली ते शलेशी दशाने पामेलाने शैलेश (शैल-पनोमा ईश-श्रेष्ठ नायक जे मेरू पर्वत ते )नी पेठे निबल ययेला अने उत्कृष्ट संवरने ( सर्वथा कर्मग्रहणरहित पणाने ) अंगीकार करेला एवा भगवान् १ योगगिरांधन प्रमाण तो चालू प्रकरणमांज का परन्तु योगनिरोधनो अनुकम कमो नथी ते अनुकम आ प्रमाणे-प्रथमवादरकाययोगनी सहायडे अम्त मांयाघर पधनयोग रंधे ग्यारवाद अन्तर्मुहर्न स्थिर थाने पादरकाययोगनी लहायची अमाइतमा थापर मनयोगने अंधे न्यारवाद भन्नामु. स्थिर रहीने बाकाययोयनी सजायधी उपचास नि:श्वामने रंधे, मदनंतर. अम्तम. स्थिर थाने ( पटले कंपण नहिं करीने ) मुभमकाययोगनी सहाययो बादर काययोगने रुंधे ( अहिं मतान्तरे या कायथळथी पा. काययोग रंधे " पम का छे) तदनंतर अंतर्मु० स्थिर रहीने १० काययोगनी सहायथी स. पवन योग रंधे, तदनंतर अाम स्थिर रहीने स.काययोगनी महायथी खु. मनोयोग संधै तदनंसर अन्तर्मुः स्थिर रहीने स. काययोगनी सहाययो स० काययोग संधे (भति सू० कियातिपाति ध्यान अने जीप प्रदेशावगाहनामंकोच थाय अर्थात :- बाकी रहे) प सू० काययोग रंधन कर्याचाद अयोगी कंवली (-शैलेशी अवस्था पाळा) थाय. मग सर्वत्र क्रियाकाळ अन्तर्मु. जाणतो. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) ॥ संस्थानबारे समचतुरसादिसंस्थान विचारः।। ॥ २६३ ॥ चोथा (म्युच्छिमक्रिया अप्रतिपाती नामना) शुक्लध्यानने भ्याचना घेदनीय-आयु नाम-अने गोत्र ए चार कर्मने समकाळे शीघ्र खपावीने भगवान् सिद्धि पद पामे छे ॥ २६४ ॥ वळी जिनसमधात कर्या विना पण अनंत केवली मोक्षे गया,अने समुद्घात करीने पण अनंत केवली मोक्षे गया है.॥२५॥ अहि विश्वेष ए ले के-“६ मासयी अधिक आयुष्य चाळो जे जीव केवळयान पामे ते समुदघान करे अने वीजा केवळीसाधान करे अथवा न पण करे" ॥१॥ ए रीते गुणस्थानकमारोहमा कयुं छे, अने एनी वृत्तिमा कयु के "६ मास माया मासी गरे गोने केवलमान उत्पम ययुं होय ओ निश्रयथी समुद्घात करेज, अने शेष जीवोने मयातनी भजना ( करे अथवा न पण करे एम) जाणवी॥शाए प्रपाणे केवलिसमुद्घातर्नु स्वरूप का. ॥ कया जोवो कइ समुद्घात केटलोवार करे ? ते कहे ठे ।। प्रथमना पांच ( आहा. जिनसमु. विना ) समुद्घान यथायोग्यपणे सर्व जीवोए अनंनवार अनुभवेला छे. ॥ २६६ ॥ अने आगामी ( भविष्य ) काळपां केरठाएक अल्पकर्मी जीचोने ते समुद्घातो थवाना नयी अने केटलाएक जीवोने एक वे इत्यादि अनेकवार यावत् संख्यान अने असंख्यातबार अने केटलाकोने अनन्तवार थवाना छे पहुकर्मी भीवीने तो यथायोग्यपणे सर्व जातियोमा (भवोमां) अनंतवार समुद्घान धनारा के एम जाणवू ॥२६७-६८।। परन्तु विशेष एछ के-भूक्ष्म निगोद जीवोए निगोदने विषे (ये० ० अने प०, ए प्रण ससधातज भूतकाळे अनन्तीवार अनुभच्या छे, अने भविष्य काळम उपर कडा मजव) सर्व जीवत् जाणवू, ॥२६९॥ तथा मनुष्य सिवाय वीजा केटलाएक जीबोने मनुष्य भवमा ३ वार आहारकसमुद्घात भूतकाळमां व्यतीत यश अने (जे ओए कोइकाल पूर्व आहा०स० करेल नयी नेओने) भविष्यमा चारंवार कराना होय छे पण अधिक नहिं ॥ २७० | बळी मनुष्योए मनुष्य भवमा अनुभषेला आहाउसम. चारबार होय छे, अने ( न करी होय तेवा ) मनुष्योंने मनुष्य भवमा भविष्य काळे पण तेटलीज बखत ( चार. १ अर्थात् सर्व जीवानी पेठे एक पं यावत् अनंतबार अनुभषधामा छ. २ में मनुष्ये धणधार करी लीधा तेने एकवार अने मेओप आहा०ममु. कोज नयी तेवा बीमा मनुष्य सिंधायमा जोषोने ४ बार करवाना होय छे. कारणके भाखा भवचक्रमा आधा समु० ५ वारम थाय छे, . Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ८५) (१९९ ) वार) अनुभववाना जाणवा. ॥ २७१ ॥ मनुष्य शिवायना बीजाजीबोने चारे समयात व्यतीत ययेला न होय, कारणके जीव चोपीवार आहारक करीने तेज भवां मोक्ष पामे छे ॥ २७२ || श्री पनवणाजीनी वृत्तिमा का छे के-" अहिजे जीव चोथीवार आधारक करे ते जीव तेज भवमा मोक्ष पामे, परन्तु बीजो भव न करे " सातमो फेवलिसमुन्धात मनुष्य विना कोई जीपने व्यवीत पयेलो न होय, बने ते पीजा जीवोने भावी जिनसमुद्घात पण पफन होय अने वेपण मनुष्यपणामांज केटलाएक जीवने (भाषी) जिनसमुद्घात होय २७३ समयावधी निहत थयेला केवळ भागनने आश्रपि मनुष्यने एक जिनसमुत्घात पतीस थयेलो गणाय, अने (जेणे केवसिसमुद्यात करी नथी तेषा)मनुष्यने मनुष्यपणामां भावी जिनसमुद्घात पण एकज होप ॥ २७४ ।। । कयो समुद्घात कया कर्मने अंगे होय ? ते कहे . ।। पहेलो वेदनासमुद्घात अशासादनीय कर्मना उदयपी, बीजो कषायसमुद्घात कषायमोहनीय कर्मना उदयथी, पीजो मरणसमुद्घान अन्तर्मुहशेप आयुष्य कर्मना उदययी, ॥२७५|| चोपो पचियो भने छट्टो समुद्घात ते ते नामकर्मना उदयथी अने सातपो केवलिसमुद्घान नाम गोत्र अने वेदनीय कर्मने आश्रित जाणमो. ॥२७६॥ ए प्रमाणे जीवसमुद्यातनं स्वरूप कह्यु,तथा अजीवथी उत्प. मथयेलो जे अचित्त महास्वरूप समृद्घात के ते पण केवलिसमधातनी पेठे पाठ समयनो माणयो । २७७ ॥ ए अजीवसमुद्यात पुद्रलोना विश्रसा परिगामधी (स्वभावतः ) उत्पन थाय के अने केवलिसमुपासक्त आव समयमा समाप्त थाय के ॥ २७८ ॥ इति समुद्घातबारम् ॥१२॥ - - १ प्रथमा सर्वत्र भाभित शब्द छ, परन्तु विशेषता दर्शापवाने अर्थमा ६ ठेकाणे उदय अने अहिं उत्यना अमाधे आभीत शब्द आपेल छै. २ पुनलमी २६ प्रकारनी (कर्मप्र०मते) बर्गणाओमा २६ मी अधिसमहाकंध नामनी वर्गणा छ तेमांना १ स्कंधमां विषप्ता परिणाम प्रथम समये लोकान्स स्पर्शी र थाय, श्री समये कपाट, बीजे साये मेथाम, चौथे समये अम्तर प्ररण, पांच समये अन्तर संघरण, छठे समये मेथान सहरण, सातमे समये कपाट संहरण मे माठमे समये दंड संहरण था स्वभावस्थ पाय है. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) 2009099009597000902036.69 ------ - - - adao Celed 66660geogodeegsdecheegdg ORAT . . आ समुद्घातविचारमा विशेष जिज्ञासुनोने अति उपयोगी होवाथी तथा केवलिसमुद्घातस्वरूपमा विशेष अजवाळु पाडनार होवाथी आ साथे टिप्पणी तरीके तपागच्छाधिपति शासनसम्राट् सूरिचक्रचक्रवर्तिजगद्गुरुसर्वतन्त्रस्वतन्त्रभद्दारक आचार्य महाराजाधिराज श्रीमान् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज साहेबजीना पट्टालङ्कार सिद्धान्तवाचस्पति न्यायविशारद आचार्य महाराज श्रीमान् विजयोदयसूरीश्वरजीना पट्टालङ्कार सिद्धान्तमार्तण्ड न्यायवाचस्पति शास्त्रविशारद कविरत्न आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिजोए बनावेल समुदघाततत्त्व नामनो प्राचीन महापुरुषना वचनोना संवाद साथे अनेक विषयो शङ्का- समाधानोथी भरपूर ग्रंथ लोकोपकारार्थ दाखल कयों . HARI 104 HD just ना TRY Lili RAP Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 || ईम् नमः ॥ ॥ श्रीसपलब्धिसम्पन्न-श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ सर्पतन्त्रस्वतन्त्र-मरिचकचक्रवत्ति-भासनसम्राट्-तपागच्छाधिपनि-जगद्गुरु भवारकाचार्यश्रीमबिजयनेमिमूरिभगवद्भयो नमः ॥ सर्वतवस्ववन्म-मरिचकचक्रवति-शासनसम्राट्-तपागच्छाधिपति-जगद्गुरु-मटारकाचार्यश्रीमद्विजगनेमिसूरिभगवत्पटाखकार मिरान्तवाचस्पति-पायविशारदा. चार्यश्रीमविजयोदयसूरिपधरश्रीविजयनन्दनमृरिचिरचितम् । ॥ समुद्घाततत्त्वम् ॥ वैतादथे नमिना तथा यिनमिना भक्त्या समाराधितं, शक्रेन्द्रष्णगमस्तिनागपतिभिः स्वीये विमानेऽचितम् । श्रीकृष्णेन जरानिवारणकृते स्नात्रेण सम्पूजितं, श्रीशङ्खेश्वरपाश्चनापमनघं स्तोमीष्टसंसिद्धये ॥ १ ॥ कीतिर्यस्याऽस्खलितमवनौ दीप्यते सर्वदिक्षु पीयूषाम्भोनिधिलहरिका भारती सार्वभाषा। धीसाम्राज्य परिचितसमस्वान्यशास्त्रमपञ्च, सोऽस्तु प्रौढपकरमहिमा नेमिसरिमुंदे ना ॥२॥ सुरेभंगवतस्तस्य पादसेवानुभावतः । तत्वं जैनसमुघात-सम्बन्धि किमपि वे ॥ ३ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) । समुदधानबारटिप्पणे विजयनर दनगिविरचितं ममुराततत्यम ।। (बार अथ जनसमुदघानम्वरूपं निरूप्यते- अथ को नाम ममुद्धानः ! न चाध गमीदशी समुदघातमामान्यविषयकज्ञानविषयकेच्छारूपा जिज्ञासायुक्ता " अथ जनसमुद्घातस्वरूपं निरूप्यते " इत्यनेना केवलिसमुद्घातस्यैव निरूपणीगता प्रतिक्षानन्धेन तद्विशेषविषयकजिज्ञासाया पौचिन्यातू, जनसमुदयातपदम्य केलि. ममुद्धातार्थकस्य सु "जाणममुग्धायगईए" इत्यत्र महाभाष्ये सुप्रसिद्धमेति पाच्यम, ममुरातत्यामकसाधारणधर्मस्य पूर्वमशानिरूपणासाधारणधर्मज्ञानं षिना च विशेषे जिज्ञासानुदयात्, तमाशाचप्रकार छां प्रति तद्धर्मप्रकारकमानम्य कारणत्वात्, किचान प्राधान्येन फवालिसमुदघातम्यैव वश्यमाणस्वेऽपि मामान्यतः मर्वस्यापि समुपातम्य निरूपयिष्यमाणतया "जनसमुदघात" इत्यस्य व जिनस्येमे जैनाः स्वप्रतिपाद्यत्वसम्बन्धेन जिनसम्धम्धिन इत्यर्थ कन्वेन स. मुदघातत्यायच्छिम्यच निरूपणीयतया प्रतिक्षातम्येन मन्द्रावलिछमतिपयकजिहामाया एवाचिस्यात् न चास्यारम्भस्य धयर्थ्यशताऽपि.सत्स्याप्यनेकेषु समुदघात. म्वरूपप्रतिपादकेषु धन्थेषु मत्तोऽप्यतिमन्वधीधुद्धिवंशधार्थ गुरुकुलवासपभावतः किञ्चिामविशेमस्वरूपस्य मस्य प्रतिपादनादिति, अघोच्यने, मम- पकोभावेन उन-प्राबल्येन, हननं पेदनीयाधिकर्मप्रदेशानां निर्जरणं घातः, सम- एकीभावभाएनस्य अन्तोः उत्-प्रायव्येन,घातः समुदघात इति याषत, यक्षा मै मम्पम. उत-पायम्येन, कर्मणो. हनन घालः प्रलयो यस्मिन प्रयामविशेषेऽसी समुद्रातः, यहा भ-मामसत्येन, उत-प्राचल्येन, हननम् आत्मप्रदेशानां वहिनिःमारणं ममुद्यान इति हिनंक हिंसागत्योः । इनि धातुपाठाबनधातो_तनिःसारणोभयार्थकत्वम्याप्यविरोधात निःसारणस्यापि गतिविशेषरूपन्नादिनि । अत्र केन मद्दकीमाघगमनं जीवस्येति चेदुच्यने, यवान्मा वेदनाविममुद्धानगतस्तवा घेदनापनुभवझानपरिणतो भति नान्यज्ञानपरिणत इति पदमाघनुभवानेन सहकधापत्ति - वस्यागन्तव्या, प्राबल्येन धातः कथं तर्हि ?. अत्रोच्यते यम्माद वेदनाविसमुद घानपरिणतो अन्तुडून घेदनीयादिकर्मप्रदेशान. काला नरानुभषयोग्यानुशोरणाकाणेनाकृष्योदये प्रक्षियानुभृय व निर्धारयति; आन्मपदेशः सह मंश्लिष्टान् शानयतीति भावः . . पुत्रधकयकम्ममाणं न शिजग " इति वचनादिति त. स्याम्यस्थायां प्राबल्येन धान उच्यते इति समुदुधात इति स्थितम । स च धनीयादिभेदेन सप्तधा भिद्यते तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुत्घातो रमारणान्तिकसमुवातो ३वक्रियसमुद्धातस्तैजससमुदधात आहारकममुद्धातः ६क पकिममुद्धातधेति । समाधाः षट् समुदघानाः छानस्थिका उच्यन्ते तेशमन्यत. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२मुं। ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा०८५) (२०३) मस्य छस्थत्व नियतन्धान, नहिं घदि बिना धूमम्येव तेषामन्यतमम्यापि छा. स्थमा विना सदासः, गतिमान तस्दा मेलिन पर । ननु छमस्थभावं बिना अयोगिकेवलिभ्यपि मारणान्तिकसमुद्घातस्य प्रज्ञापनायां पश्चदश पग्द्रिगपदे पथमाइशके अषणात् कुतस्तदन्यतमस्य छमस्वस्थ नियतत्वं शहापनाषचनं चेदम-" अणगारस्स णं भने ? भारियप्पणो मारणतियममुग्धारणं समोहयस्स जे चरमा पिज्जरा पोग्गला, सुहमा गं ते पागला पण्णता ममणा. उसो "? इति, "अणगारस्सणं भंते ! इत्यादि, न विद्यतेऽगारं गृहं द्रव्यतो भा. बतच यस्यामावनगारः संयतस्नतम्नस्थ. णमिति पायालयारे, भदन्त ! भावियप्पणो ' इति भाषितो बामित आत्मा शानदर्शनचाविस्तरोधिशेषच येन म मावितामा नस्य मारणान्तिकममुदवातेन समयदतम्य ये चरमाः शलेशीकालान्यसमयभाचिनो मिर्जरापुदगला अपगतकर्मभावा: परमाण: 'मुहमा से पोग्गला' इति, णमिति निधये 'निपातानामनेकार्थत्वात' निश्चितमेतत्, सश्माः धनुरिरिद्रयपथमनिकान्तास्ते पुद्गलाः प्राप्ता भगवनिः हे श्रमण आयुस्मन, ? गौतम कृतं भगवतः सम्बोधन तत्" इति वृत्तिरिति चेद, न, ममुघानमात्रस्य मकरणवीर्यायसनायोगिनचाकरणधीर्यस्यैव साधेन तभ्य समुदघातमावस्या भाषात्, ‘मारणान्तिकसमुद्धातेन' इस्यस्य च मरणान्ते मरणावरमसमये भयो मारणान्तिकः स धामो समुदघातस्तेनेति ग्यत्वरया अयोगिचरमसमयमाधिना प्राबल्येन कर्मणां घातेम तद्धतुमा प्रयन्नविशेषेण वेत्यर्थक यस्ष विनमणीयस्वात् । नैव मिति चेत्, ताहि स्नातकनिप्रन्थस्य केवलिसमुदधातमात्रप्रतिपादनधिरोषस्य दुरूपरिजरवमेव,मारणाग्निकसमुद्रातस्यापि तस्य प्रतिपादनापसे, केवहिसमुपधातमात्रप्रतिपादनच--" आहारपण महिता समाप छपि णो णिय:म्मि । केलि असमुग्घाओ इको चिय होइ हायम्मि ॥"आहारपणत्ति आहारकेण समुदघासेन सहिताः सकषामे कषायकुशीले पद्धपि समुदघाता भवन्ति निर्मधे 'नो' मैव समुदघासाः, असमुखतरेव निन्थभाषपान । स्नातके पक पर केलिस मुद्धातो भवती' ति सवृत्तिरिति । तथा च निर्विरोधमेव सिद्ध छानस्थिकग्वव्याप्यत्वं षण्णां समुदघातानामस्यनमस्पेति, अथात्र घेदनासमुद्धातोऽसत्यकर्माभयः, कषायममुरातः कायारूपवारि मोहमीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुदघातः अन्तर्मुहर्सशेषायुकर्माश्रयः, बर्षि. कतैझमाहारकसमुदधाता यथाक्रम क्रियशरीरनेजसशीराहारकशरीरनामकर्मा अयाः, केवलिममुधात सामघशुभाशुभनामोश्चनीचर्गावकर्माश्रय इति । आह Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : (२०४ ) || समुदघातद्वार टिप्पणे विजयनन्दनरिविरचितं समुद्घाततत्वम् । (द्वार भवतु नाम वेदनादयः समुद्घातास्तत्तत्कर्माश्रयाः भवतु च यत्रिम मुद्धातीऽपि नामगांवकर्माश्रय पथ परं वेदनीयमश्रियत्वं तत्र कथं प्रागशेष समुदूधशब्दार्थप्रतिपादनाबल रे " प्रावल्येन घातः कथमित्याक्षेपस्य परिवारे मेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयां ग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदयै प्रक्षिप्य । नुभूय च निर्जरयतीति प्राबल्येन घात सच्यते " इत्यनेन समुद्रवातमात्रस्योदोरणकर हेतुकत्वप्रतिपादनात्, मेदनीयोदोरणायाः प्रमत्तगुणस्थानक पत्र व्यवच्छिनतया केलिन तदभाषा | असर के दिनों वंदनीयस्यांदीरणायाः तंतुक स्य कंपलसमुदघातस्य कयं सदसद्वेधकमश्रियन्थे भवेत् नामगोत्रकर्माश्रयस् तु स्यादेष संयोग चिरमलभयं यावत् तयोरुदीरणायाः प्रतिपादितत्वादिति चेतू न, प्राबल्येन श्रातः कथमित्याक्षेपपरिहारे उदीरणा करणेन । कृष्येत्यादिनीकीराणायास्तनुताप्रतिपादनेऽपि नहि प्रावत्येन घातस्योदोरणाकरण येन समुद्घातस्वापि तत्तत्कर्मादोरणाव्याप्यत्पलाभेन वेदनीयोदीरणायाश्च केश लिन्यभावेन तत्समुद्घातस्य वेदनीयाश्रयत्वं विरुध्येत कथं न मात्रल्येन पात स्योदरणाकरणनियतत्वमिति चेत अयोगिगुणस्थानकचरमसमये प्राबल्येन कर्मणां घातसद्भावेऽपि उदीरणाकरणाभावात् " अजोगी अणुदोरगो भयं " इति वचनात् । अयोगिनि कयनोदीरणाकरणमिति चेत् भगवतोऽयोगिनो यांग परिणामरूपलेयातीतत्वात् देश्यीयरूपत्याच्च करणमात्रस्य नवे प्रयोगिनि लक्रमोऽपि न स्यात् तस्यापि करणविशेषत्वात् अस्ति चासो, लेण्यातील स्वाध्ययोगिकेषलिनां भगवतो द्वित्ररमसमये विसप्ततिप्रकृतीनां स्तियुकस इकमेण सङ्गमस्य "कर्म प्रकृत्याद" निरूपितत्वात् "अनुप्राप्तायाः प्रकृतेः कं यकदलिकं सजातीयप्रकृतादप्राप्तायां समानकाय स्थिती मक्रमयति स इक्कमय्य वानुभवति यथा मनुजगतानुदयप्राप्तायां शेषं गतिश्रयम, पकेन्द्रियजाती शेर्पा जातिचतुश्यमित्यादि यथा वा क्षपणकाले सदन क्रोधादीनां शेपोभूता आवलिकाः मनमानादो एप स्किमङ्गमः उक्तञ्च - "अनुदीर्णमुद्रीणन्तिस्तुल्यकाल प्रतिक्षणम् ॥ दक्षिकं समं याति येन सस्तियुको मतः ||१||" इति एष पत्र व प्रदेशानुभवी गीयते" इति तथा च कथं न विशेष इति सुन, यथोक्तरूपस्य स्तियुकस्य कथञ्चित्साधम्र्येण सड़क्रम देशाच्य मलैश्यवीर्य विशेषरूपमकरणविशेषरूपस्याभावात् स्तिषुकमा क्रमेण मकान्तस्य दलिकस्य सर्वया पतद्रग्रहप्रकृतिरूपतया परिणामाभावात् परिणमते च सकमकरणविशेषेण सङ्कान्तं दळिक सर्वथा पतप्रकृतिरूपतयेति । स्ति Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - --- - - १२) ॥ लोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ८५) (२०५) बुकमा लकमस्यापि यदि मडक्रामकरण विशेषरूपम्य स्यात्तदा विध्यातमहाक्रमादिव. दस्यापि सहनामकरणचतुर्थभेदप्रदेशसक्रमालक्षणघटकत्वं स्यात न चैतदस्ति तथाहि-"विझाउवलण अहापयत्तगुणमध्यसकमेहि अण ॥ जे ने अण्णापगई पपससंकामण पयमिति" "अधुना प्रदेशसड़क्रममाह, नालक्षणमादापौष्यतेविध्यासमहकमा उलनासक्रमो यथाप्रवृत्तसडकमी गुणसहनामा सर्वसद्कमश्च, पत्तः पञ्चभिः महक्रमः कर्मएरमागून यन्नयत्यन्य प्रकृति तस्वरूपेण व्यवस्थापयति प्रदेशप्तकमणमेतदुष्यत इति गाथार्थ " इनि नवृत्तिः, किश्च मित्रुकमकमम्य सझमकरण विशेषरूपन्वं श्रीमद्भिन्यायविशारद म्यायाचार्यरयुक्तं कर्मप्रकृतिवृत्तौ " इहान्योऽपि पाठः नियुकतक्रमोऽमित, परं न न समकरणविशेष आक्षिप्यते" इति । श्रीपश्चस इमामूलटीकायामपि मितवुकस कमलक्षणगाथापातनिकायाम्-"यद्यपि नार्य सझमकरणे सम्बध्यते" न्युन । तथा ष स्तियुकामकमस्य सलेम्यवीर्यरूपकरण विशेषरूपत्याभावात् तत्सद्भावेऽप्ययोगिनि निराधाधमेव निर्विरोधन्यमित्यलम् । नन्वेयम् अयोगिनि प्राबल्येन कर्मणां घा. मतदाऽष्टमाम मुद्घानापत्तिरिति चेत,न, आत्मप्रदेशानां शरीरावहिनिःसारणं विशिष्टप्रयत्नेन, ततुकस्यत्र प्राबल्यन घातस्य समुद्घातस्यधिवक्षणात्, इम्यच नावारणाकरणनियतत्वं समुदवातस्य किन्तु विशिष्ट प्रयत्नपूर्वकामप्रवे शनिःसारणनियतस्त्रम्, अस्ति च ममापि समुदघाने आन्मप्रदशानां विशिष्टप्रयत्नेन शरीराबहिनिःसारणम्, अस्ति च तदेतुका प्रावल्पेन कर्मणां धातोऽपि तत्र तत्र समुयाने तत्तत्कर्मणाम्, प, केवलिनो वैदनीयोदीरणाया अभावेऽपि के बलिसमुदघाते उदीरणाप्रयोज्यस्य प्राधल्येन बदनीयघातस्याभावेऽपि विशि. टपयननिमित्तकात्मप्रदेशहिनिःसारणहेनुकस्य तस्यावाधिनत्वेन केलिम मुवातस्य सदसवचाश्रयत्वप्रतिपादनमपि भएपन्नमेष, तथा च मुष्टचौकम् "कंवलिस मुदधातः सदसबंधशुभाशुभनामोचनीचर्गोत्रकर्माश्रयः" इति ॥ उदोरशाकरणेनाकृष्येत्यादिना यदुदीरणायाः प्राबल्येन धाते प्रयोजकन्यं ज्ञाप्यते तनुवीरणायाः मढ़ाषस्तथ विशेषतः प्रयोजकल्यं स्वात्मप्रदशमहिनिःसारणतइकृतोदीरणाया पवेत्यभिप्रेत्य, नसु नत्तदुदीरणानियतत्वं तत्र तत्र समुदधाते. स्तीत्यभिप्रेत्य, अन्यथा " उदयाचलिआवेषो, जत्तेणोदीरणं अपत्तस्स । कल्य पुलामा छाई जदौरगो तहसहाबाओं" उदयालिअन्ति' अमानस्य उदयाघलिकानुपगतस्य कर्मणो यत्नेनोदयात्रलिकायां क्षेप उदीरणम्, तत्र पुलाकः प. प्रणां प्रकृतीनामायुर्वेदनीयषानामुपीरकः 'तथास्वाभाव्यात पण्णामेषोदीर Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H चाल (२०६) || समुद्वार टिप्पणे विजयनन्दनसूरिविरचितं समुद्याततश्यम् ॥ (द्वार जास्वामान्यात, आयुर्वेदनीयप्रकृती स्वयं नदीरयति तथाविधाध्यवसायामाकिन्तु पूर्व ते उदय पुलाकतां गच्छति पत्रमुत्तरत्रापि यो याः कृमीनोंदीरयति, स ताः पूर्वमुदीर्य चकुशादितां प्राप्नोतीति यम्” इति श्री गुनियेतद्वृत्तौ व विनिश्चितः पुलाकस्यायुर्वेद नीथोवोरणाप्रतिषेधः, "समुग्धायणाई, पुत्र बेयणकमायमरणे ते, पंच यउससेवीणं वेड विषयतेअगदि मह " ॥ " समुग्धायति सं- सामस्येत उत्प्राबल्येन हननम् आरमप्रदशानां वहिर्निःसारणं समुद्यानो वेदनादिः सप्तविधः समुद्घाताः वेदनाकत्रायमरणाख्यास्त्रयः पुत्रा भवन्ति पुलाकस्य मरणाभावेऽपि समुद्घाता. न्निवृत्तस्य कषायकुशीलत्वादिपरिणामे सति मरणभावान्मारणान्तिकसमुधाताविरोधात वकुश से विनोः श्रकुशप्रति सेवा कुशीलयो में क्रिय तेज समुद्घाताभ्यां सह ते त्रयो मिलिताः पञ्च समुद्राता भवन्ति" इति तत्र निरूपितः पुलाकस्य वेदनामारणा शिंक समुद्रात विधिः इत्येवंरूपौ विधिप्रतिषेधों परस्परं दुरुपरमेव बिरोधं प्राप्नुवन्तों कः सम्भवयेदिति ॥ अथ पूर्व प्रधानतया स्वल्पकालीनतयाऽऽभवमेकवारमेव भावितया च केशलिलचात पत्र निरूप्यते, केबलिनः समुद्यातः केवलसमुद्रातः, तत्करणकालात् पूर्वमेव भगवान केवली अन्तर्मुहूर्तमुदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपमा बर्जी करणं करोति, अम्बेवंरूपस्यावर्जीकरणस्य पूर्वमपि सत्यमेव पूर्वमत्युदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापारस्य सत्वादिति वाच्यम, पूर्वशरणात आवर्जीकरणभावित्र्या उदीरणायाः शुभयोगव्यापारविशेषेण विशिष्टत्वात अत एव च तोर्थकरनामकर्मणोऽनुभागोदर णायाः आवज करणादसा प्र तिपादितम, आवर्जीकरणेऽनुभागोंदीरणाथा बहुस्वत्य कर्मप्रकृतौ-जाणाजीकरणं तिस्थगरस्स" इति आयोजिकाकरणं नाम केवलिसमुद्घातावग्भवति तन आ मर्यादा केबळिष्टया योजनमतिशुभयोगानामायोजिका, तस्याः क रणमायोजिकाकरणं, सायनाचाप्यारभ्यते तावत्तीयकर के निस्तीर्थकर मानो जघन्यानुभागोदीरणा आयोजिकाकरणे त्वनुभागोशेरणा बद्धी प्रवर्तत इत्यत्रग्रहणमिति तद्वृत्तिः । एवं जवन्यप्रदं शोषीरकोऽपि तस्य आयोजिका करणारमात्प्रागेव तीर्थकर केषली प्रतिपादितः । अस्ति च मयोगिनः केष हिनोऽपि विशुद्धितारतम्यदेवः शुभयोगव्यापार विशेषता न च तस्य विशुद्धितारत म्यासिद्धिः अनपगत मोहस्य निरन्तरोत्कृष्टसं यमस्थानधारासम्भवेन यमस्थानतारतम्या विशु विभारतम्यसाऽपि सयोगिनोऽस्प संगमस्थानस्यैकरूपत्यन 2 -x Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८५) (२२७) तत्तारतम्याभावादिति वाध्यम, उत्कृष्टसजातीयस्थानप्रवाइजन्यस्य विशुद्धिसारसम्यस्याभावेऽपि शुभयोगव्यापार विशेषाधीनस्य तस्याव्याहतस्वस्वाभ्युपगमभीयत्वात सयोग्यवस्थायां सदा विशुद्धेरेकरूपत्वे तु स्वचरमसमये पक्ष सोगिमः सर्वषिशुद्धपत्र म स्यात, न स्याच सतिसयोगिनभरमसमय पच नरगत्यादीमा विषस्टिमकृतीमामुत्कृष्टप्रदेशोदारणा, तम्प विशुद्धेः सर्वकरूपत्वेन घरमसमय स्य सर्वदेव सर्वविशुखत्यसायात, सर्घष तस्यामषस्थायां तस्या आपत्तः, मर्वविशु स्येव स्वस्योतीरणाधिकारिणस्तत्सत्कर्मण उत्कृष्टप्रदेशोतीग्णास्नामिस्वात्" प्र. तिपादिता चोत्कृष्टप्रदेशोहीरणा तासां प्रकृतीनां सयोगिनश्चरमसमय पर " यदुक्तमू-“जोगंतुधीरमाण जोगते सुरगाणपाणणं । णियगने केलिणो सवधिसुखो य सम्वासि" इति, योगी सयोगिकेवली अन्ते चरमसमये उदीरको यासांना योग्यतोदीरकास्तामा नरगतिपय स्त्रियजान्यौदारिकसप्तकलेजलसप्तकसम्मामघटकाचर्सहननवर्णादिविंशत्यगुरुलपघातपराघातविहायोगतितिकत्रसचमुस्कस्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगादेययशःकोतिनिर्माणतीर्थकरांचगौशाणां द्विष्टप्रकनीनां सयोगिकेषली घरमममये उत्कृष्ट प्रदेशोदीपकः 1 तथा स्वर निकाणापानयोनिजकान्ते स्पस्वनिरोपकाले केवलिन उत्कृष्टा प्रदेशोदीपणा | स. कर्मणामुत्कृष्ट प्रदेशोदोरणायां परिभाषेयम्, यः स्पस्योदोरणाधिकारी स त. तस्कर्मणः स्वषिशुश उत्कृष्टप्रदेशोदीरणा स्वामी ज्ञानव्यः, आयुर्व्यतिरेकेण घान्यत्र सर्वत्रापि गुपितकशिशः तेन दानान्तरायादिपञ्चकस्याप्युत्कृष्टा प्रवे. शौकीरणा गुणितकांश क्षीणकपाये ममयाधिकालिकाशेषस्थ प्रष्टव्या"इतित वृत्तिरिति, तथा च सपोगिनोऽपि विशुदितारतम्यस्य सदसोः शुभयोगव्यापार विशेषताणच मिद्वौ शुभयोगव्यापार विशेषादायीकरणाधिन्यामुदीरणायां पूर्वोदीरणालो विशिष्टताया निर्विरोधव सिद्धिरिति । न विशुद्धिनारतम्ये योगिनोऽयोगिवदबर्द्धमानपरिणामप्रसङ्गः न घासाविषस्तस्य जयन्यतोऽन्तर्मुकतं यावदुरकृष्टतो देशानपूर्वकोटिं याषदवस्थितपरिणामस्यैच तत्र तत्र प्रतिपादनादिति वाच्यम्। तत्र प्रयत्नविशेपकप सहकारिवविषयमयुक्तस्य परिणाम उत्तरोत्तरोतकृष्टफलधारोपधानरूपस्य प्रवर्धमानन्यस्य शलेश्यामे वेष्यमाणावस्य"गुरुत्तरवषिनिशक्तो' प्रतिपादनादिति । अथार्जीकर १ योग्यम्तोदीरकाणां योग्यश्ते, स्वरहिकानप्राणानां निजकान्ते, केवलिनः सर्धविशुद्धच सर्वासा ॥ १ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८)[समुदयातबाटिप्पणे विजयनन्दनसरिविरचितं समुदघालतस्वम (नार णमिति कः शब्दायः इति बेदुस्पते-आषर्जनमावजः, आत्मानं प्रति मोक्षस्याभिमुखीकरणमात्मनो मोक्ष प्रति उपयोजन मिति तात्पर्यार्थ:, अयषा आयज्यतेऽ. भिमुखीक्रियते मोक्षोऽननेस्याषर्जः, शुभमनोवाक्षायव्यापार विशेषा, उक्त" आवतणमुषोगों' बावारी पा सदस्थभाइर" तवृत्ती तु * तयं समुदघातकरणार्थमादो कवकिन उपयोगी प्रयाऽधुनेदं कर्म पम् । इत्येवंप, उदयावलिकायां कॉमप्रक्षेपहपो व्यापारी वाऽऽपर्जनमित्युच्यते " इति ॥ तत उभयत्रापि अतस्य तस्य करणमिति विषक्षायां विप्रत्यये आवर्जीकरणमिति ॥ केचिद् आवर्जितकरणमित्याहुः, तथार्य शब्दार्यः , आवजिती नामाभिमुखीकृतः तया व लोके वक्तारः • आपजिलोऽयं मया सम्मुखीकृत इत्यर्थः, तनम तथाभब्यत्वेनावनितस्य मोक्षगमने प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणमुदीरणापलिकामां कर्मप्रक्षेपणरूपं शुभयोगव्यापारणमावर्जितकरणम्, अन्ये भायोजिकाकरणमिलि पति तत्र शब्दार्थस्तूमतपूर्व पत्र | अपरे त्यापश्यककरणमिति पठन्ति , तत्रायमर्थः आवश्यकेनावश्यभावेन करणमावश्यककरणे, तथाहि-समुद्धात केषित्कुर्वरित विश्व में पुषिति तुः स्वे:गि लिमः कुर्वन्तीति । नम्वेष किममस्मि वापरपों सयेषां फेवलिनामावीकरणकर्तव्यसानियमः नतु सर्वपक्षसाधारण: सफेवलिनामावजीकरणकत्तभ्यतानियमा किन्तु केवसिसमुधातवदनियम पर फैचिदार्जीकरणं कुर्वन्ति केचिश्च न कुर्वन्तीति इति घेत , न, केषिरित्याविपक्षाणां शब्दभेदेन भैदेऽपि अर्थभरेन भेराभायात, म चासित अर्थभेदेन भेदेऽपि विशित् प्रमाणम्, न च ॥ तं गंतुमणो पुष्वं आपलीकरणमा पम् - " इह सोऽपि केवली केवलिसमुरघात गच्छन मथमत आधी करणं करोति' इत्यादिवाक्यैः, यः केहसमुपातं गन्तुमनाः तस्यैवाषजीकरणकत्तव्यतानियमो लभ्यते न तु सर्पकवळिसाधारणः तस्कर्सव्यतानियम इति वाच्यम्, साशवाक्यानां नाशनियमपरर प्रमाणाभावात्, प्रत्युत नन्दाजी करणं सर्कऽपि केवली करोति पर्व यस्य केपलिनः केवलि. समुश्चातोऽपि कर्सच्चस्तस्य किं पूर्वमायोजिकाकरण मुत फलिसमुवृधात इत्पाशङ्कायामाधी करणस्य फेषनिसमुदघातात् पूर्वमेव कर्तव्यनि नियमप्रदर्शनपरत्वस्य ताशवाक्यामां कल्पनीयत्वादिति ॥ एवं "लोकप्रकाश"ऽपि कपमप मनाभिस्यैव सामान्यतः आयजी करणं शस्त-योगपापारणं मतम् । वन्यवश्यं कर्तव्यं, सर्वेषां मुकिगामिनाम् " ति प्रतिपादितम् । तथा च सर्व पष केवल्यापीकरण सु करोत्येवेस्यत्र न कल्पचितिनिपत्तिरिति । कि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ।। (साः ८५) (२०९) वाषर्जी करणं यघि सय कंपल्टिसाधारणकर्त्तव्यताम् न स्यात्तदा सधवलिमाधारणसत्ताकस्य योगसन्न्यासयोगस्य आयोज्यकरणानन्तर्यप्रतिपादने न स्थान , आयोज्यकरणश्निाभाविनि योगसन्न्यास तदानन्तर्यामापात, प्रतिपावित चायो. ज्यकरणान्तर्य योगसन्यासयोगस्य, यदुक्तं योगदृष्टिसमुच्चये-"आयोज्यकरणापूर्व, द्वितीय इति तद्विधः" इति आयोज्यकरणं कैचलाभोगेनाचिन्त्यघीयतया भवोपनाहिकर्माणि तथा व्यवस्थाप्य राक्षपणज्यापार वचस्याफलं, नल अवं मितीयो योगमन्न्यासमशितः, इति भनिदोऽभिवति, शैलश्यषस्थायां कायादियोगानां सन्न्यासेनायोगाख्यस्य सथमन्पामलक्षणस्य मोसमस्य योगस्य प्राप्ने रिति । नवृत्तिरिति । न चंदमायोज्यकरणमुकापावर्जी करणाजिनमेवेति पाध्यम्, ताद शमन्तव्यतायां मानाभावात शब्दर्भदेऽप्यभिवस्योक्नवाञ्चेति सम्क्षेपः ।। इदश्चावी करणमान्तर्मुहृत्तिकम, तथा बाहुः श्रीमन्तः प्रज्ञापनाकारभगवन्तः-" कासमइए णं भंते! आउज्जोकरण पन्नत? गोयमा असंखेदजसमइप अंतोमुहुत्तिप आउज्जीकरण पन्नत " इति ॥ भाषर्जी करणानन्तरं चाव्यषधानेन केवलिसमु. यातमारभते स चारसामयिकः, उक्त च प्रशापनायाम - "काममाप णं भंते ! केवलिममुग्धाप पण्णत्त ? गोयमा । अदुसमाप पसते, ते जहा-पढमें समप एंडं करेइ, बीए समाप कबाड करे, ताप समप मंयं करेह, चइत्ये समप लोग पूरेइ, पंचमे समा लोय पडिसाहरा, छहुँ समये मथं पडिसाहरा. मतमप समय कथाड पडिसाहस, अट्ठमै समए दंड पहिलाहर, इंई पहिसाहरेसा ती पच्छा सरीरत्थे भवा" इति । नन्धयं कृतकृत्योऽपि कंवली किमिति समुद्धातं करोतीति घेत, किमयं हेतुपनः प्रयोजनमश्नो श्रा, माधः क्षायिकत्वादेव तद्रीयस्य दण्डादिरूपतयास्मप्रदेशानां व्यवस्थापनस्य च स्वदेमुविशिष्टकाययोगादिलामाधीनस्वात् । द्वितीये पुन: ममधिकचेदनीपनामगोधाणां क्षपणेनायुषा स४ समीकरणमेष प्रयोजनम | विरलीकृताम्रशाटिकादिशातेन प्रयत्नविशेषण क्षिप्रं समधिकत कर्मशीपोपपत्तेः, यदाह ... भगवान श्रीमत्रयाहस्वामी “ नाऊग धेयणिजं अइबहुयं आउयं च थोषाग । गंण समुग्घायं सवेट कम्मं भिरषसेल" ॥ १॥ प्रज्ञापनायामप्युक्त-"कम्हा ज भते । केवली समुग्घायं गच्छा ! गोयमा ! केध लिम्स चत्तारि कम्मंसा अग्नीणा अवश्या अणिजिम्ना भवन्ति, सं जहा यणिज्जे भाउए नामे गोप, सध्यबाहुए से वेयणिज्जे कम्मै इषा, सम्पयोये से भाउयकम्मे दृषा, विसमें ममं करेइ बँध ठिहिं, विसमे समीकरणपा. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) ||समुदधातद्वारटिप्पणे विजयमन्दगरिविरचित समुघानतरवम् ।। (बार ५ यहिं ठिइंहि य, एवं खलु केवली समुग्धाय गच्छा'" ।' अदिता । . इति "भक्षीणा" इत्यत्र हेतु:-कर्मणां हि यो नियमतः प्रदेशको विपाकनो धा भवति, "सध्यं च पपसतया भुज्जइ कम्ममणुभाषतो भायं " इति चयनात्, ते च चत्वारः कर्माशा अपि अविता अतोऽनोणाः "अनिर्जीर्णा स्यनेन निरक्तमेष पर्यायेणा व्यापटे, सामस्त्येनारमप्रदेशेभ्योऽपरिशादिताः इति तदर्थः 'धणे हि त्ति' घध्यते भवचारकाद्रिनिगच्छन प्रतिवध्यते यैस्ते बन्धनाः अथवा अध्यन्त आत्मप्रदेशः सह लोळीभावेन सस्टिाः क्रियन्ते योगशाचे ते बन्धनाः, उभयत्रापि कर्मपरमाणन:, स्थितयो पेदनाकालाः, शेष सुगमम || उक्त-आयुषि समान्यमाने, शेषाणां कर्मणां यदि ममाप्तिः । न स्यात् स्थितियैषम्यात, गति स ततः समुदघातम् ॥१॥" स्थित्या थ बन्धनेन च, समीकियार्थ हि कर्मणां तेषाम । अन्तमुहर्त शेपे नदायुषि समुज्जिघांसति सः ॥ २ ॥ न वैषं तस्य भगवतः कृतकृत्यत्यं पाइन्येते ति वाच्यम्, एकान्ततः कृतकृत्यत्वामिद्धेः, समुद्घातादिनायुगेऽधिकानां वेदनोयादिकर्मणां क्षपणीपस्वान्, न चैतदनिश्म, धर्मदेशनादिनवोदीणतीर्थकरनामकर्मणः क्षपणीतयाsप्येकामतः कृतकृत्यत्मासिद्धेरिस्टत्वान् । यदुक्तं भगधना भास्यकृता-"गंण कयत्यो. जेगोदिनं जिणिदनाम से । तदवंसफार तसा य, खषणोषाओयमेष जो" ति । रागद्वेपराहित्य लक्षणस्य तु कृतकृत्यस्परूप तत्र भगति निराबाध वाचेनि | न चैवमपि सति प्रयोजने तविच्छापेक्षयष प्रवृत्त्या भवितव्यम, स्वपटमाधनताज्ञानाधोनचिकी बिना प्रवृत्तमम्भवात. सत्याऽयेच्छायां कुतो बीतमोहत्य नाम तस्य भगवत इति चेत्, भघनशीलायां प्रवृत्तौ तदिच्छापेक्ष त्वमेष, नत्यन्यत्रापि. न च भषम्यपि नदिच्छामपेक्षत पष, अप्रमतप्रवृत्तस्तदनपेक्षत्वान, am सामायिकस्यधोचितप्रवृत्तिहेतुत्वात् । न चापमत्तानां प्रवृत्तिरेत्र नास्तीति साम्प्रतम् योगदुरप्रणिधानरूपधमावस्यागेऽपि नस्तत्सुप्रणिधानात्यागात्, सर्वथा योगनिरोधस्य शैलेश्यषस्थामाधित्वात् । किम्चेकछाजन्यतावच्छेदकस्य वै. जात्यस्य केवलिप्रयानेऽभाषाग्न सच्छापेनयम, अत पत्र यिनच्छा सुपुप्त्याचवस्थायां श्वासप्रश्वासमन्तानाधनुकूलो जीवनगोनिप्रयत्नाऽपि, तथा चेच्छां बिनेष केवलहानाभोगेन कंवलिसमधातादी प्रवृत्तिरित्यन्यत्र विस्तारः । ____ ननु गृहीतमेतत् सर्व परं प्रभूतस्थिसिकस्य वेदनोपादेरायुषा सह समीकरणार्थ समुहातमारभते इति यदुक्तं तत्र कुतो न कृतमाशाविदोषप्रसा: Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मं.) (२११) तथाहि प्रभूतकालोपभोग्यम्य वेदनीयादेरारत एवापगमसम्भवात् कृतनाशः वेदनीयादिवच्च कृतस्यापि कर्मक्षयस्य पुनर्नाशसम्भवान्मोक्षेऽप्यनाश्वासप्रसङ्गः, तदसत् कृमनाशाविशेषाप्रसङ्गात् तथाहि इह यथा प्रतिविषस सेतिकाप रिभोगेन वर्णशतोपभोग्यस्य कल्पितस्याहारस्य भस्मकव्याधिना तत्सामर्थ्यात स्तोकविषनिःशेषतः परिभोगान्न कृतनाशोपगमः तथा कर्मणोऽपि वेदनीयादः तथाविधशुभाध्यवसायानुवन्धादुपक्रमेण साकल्यती भोगान कृतनाशपोष प्रसङ्गः द्विविधो हि कर्म्मणोऽनुभवः प्रदेशती विपाकतश्च तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मानुभूयते न तदस्ति किञ्चित् कर्म यत्प्रदेशतोऽन्यननुभूतं सत् क्षयमु पयाति ततः कथं मनाशदोषोपपत्तिः ? विपाकतस्तु किंचिमनुभूयते किञ्चिन्न. अन्यथा मोक्षाभावप्रसङ्गात् तथाहि यदि विपाकानुभूतित पत्र सर्व कर्म क्षयणोयमिति नियमः सीसख्यातेषु भवेषु तथाविधविचित्राध्यवसाय विशेषर्यनरकगत्यादिकं कर्मपिार्जितं तस्य नैकस्मिन् मनुष्यादावेव भवेऽनुभवः स्त्ररूषभवनिबन्धनत्वात् तथाविधत्रिय कानुभवस्य क्रमेण च स्वस्थभवानुगमनेन वेदने नारकादिभयेषु चारित्राभावेन प्रभूततरकर्ममन्नानोपचयात् तस्यापि स्वस्वभवानुगमनेनानुभवीपगमात् कृतो मोक्षः ?, तस्मात् सबै कर्म विपाकती भाज्यं प्रदेशतो ब्रम्यमनुभवनीयम् एवश्च न कश्चिदोषः रतो हि तस्य कर्मणोऽध्यवसायविशेषेण हन्यते एवं भस्मकजनितजादरानलोद भूतस्पर्श एव भुज्यमानरस इष अत ए न प्रसन्नचन्द्रादीनां सप्तमनस्कयोग्यामात वेदनीय प्रदेशानुभवेऽपि तथाविधदुःखप्रसङ्गः । श्रीप्रज्ञप्तावप्युक्तं प्रथमशनकचतुर्थदशकं तत्य णं जं से परसम्म ले सिमा " इति णं तं प्रणुभागकम्मं तं अथेगा वेष्ण अत्थेमाअं णो वेग्स तथा च न कभिद्दोषः । नन्वेवमपि दीर्घकालभोग्यतया तदनीयादिकं कर्मोपचितम, अथ च परिणामविशेषामुपक्रमेणागर्द तदनुभवति ततः कथं न कृतनाशशेषापत्तिः । तदभ्यसम्यकू मन्धकाले तथाविधाध्यवसायवशादादावुपक्रमयोग्यम्य तेन बन्धनात अपि च जिवननप्रामाण्यापि घेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यः यदाह भाष्यकृत - "उदयकवयख ओमोसमा य जंच कम्मुणो भणिया । दग्याइपंचगं पर जुत्तमुत्रकामणमओ षि ।। १ ।। न चै मोक्षोपक्रम हेतुः कश्चिदस्ति येन तत्रानरश्वास प्रसङ्गः नसो यदुक्तं वेदनीयादिषच्च कृतस्पापि कर्मक्षयस्येत्यादि न तत्सम्य गुपपन्नमिति स्थितम् ननु यदा वेदनीयादिकमतिप्रभूतं सर्वलोकं चायुस्तता मधिकमयादि समुदघातार्थं समृद्धात मारभतां वेदनीयादेः सोपक्रमत्वात् | लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (०८५ ) -- Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) ।। समुदघातहारटिप्पणे विजयनन्दनमुरिनिरथितं समुद्याततल्यम ॥ (द्वार यवा स्वधिकमायुः सवस्तीकं च गीतादिकं या तावात ! मान्माण समधिकस्य समुदघाताय समुदयातः कल्पते घरमशरीरिणामायुषो निरुपक्रम स्वात् । “चरममरोरा य निरुवामा' इति पचनात तयुक्तम, पविषमाचस्प क दाचनाप्यभायात, तथाहि-सर्दच यदनीयायमायुषः सकाशादधिकस्थितिकं भति, न तु कदाचिदपि पदनीयादेशयः। अथैवविधो नियमः कुतो लभ्यते ? उच्यते, परिणामस्वाभाव्यात. तथाहि-मूत पघात्मनः परिणामी येनास्यायु: वेदनीयादेः मम भत्ति न्यून षा, न तु कदाचनाप्यधिक, पथनम्यवायुषः बल्वध्रुषवन्धः, लथाहि-शानायरणादीनि कर्माणि आयुर्व नि सप्तापि सदेव घध्य न्ते, आयुम्तु प्रतिनियन पत्र काल स्वभवधिभागाविशेषरूपे, लव चवविधचियनियमे न म्घभाषावृतेऽपरः कभिदस्ति हेरेमिहाणि स्वभावविशेष एष नियामको व्रष्ट श्यः, आह च भाष्य कृन् - " असमठिण नियमो, को पीवं मा. उयं न संसति । परिणामसहावाओ, अधुपबंधी धि तम्सेत्र ||२॥" अथ संघऽपि केवलिन; समुद्घातं गमछन्ति नवेति चेत्, उच्यते, यस्य फेवलिन आयुषा सह यंदनीपनामगोत्राणि समस्थितिकानि भवन्ति स हिन.. कषलिसमुद्घातं करोति, यस्य चायुषः समधिकं वेदनीयावि, स करोमि। उक्तश्च भगवद्भिः श्रोमार्यश्यामपादः "सव्य धिणे भंते ! केवली समुग्याय गच्छति ? गोयमा ! नो इष्टुं सम्म, "जस्साउपण तुल्लाई, बैधणेहिं ठि हि य । भषोषग्गाहिकम्माई, समुग्घायं से न गच्छा ॥१॥ इति, म प्रकृतसमुदः घात पक्ष तानि भपयित्वा सिद्धिसौधमध्यास्त इति भावः । उक्तश्च-जस्म उ तु. ललं गवइ य कम्मचउकं सभाषओं जो य । मो अझयममुग्धाओं मिजाइ जु गर्थ खर्वऊण ॥ १ ॥" इति । न नायं कि कादाथिको भाष उत बाहुल्यभाव त्याशङ्कथम, अनन्ता प्रकृतसमुदुधाता पथ मुक्ति गा:, उस्तश्च - "अगंतणं समुम्यायं, अणंसा कंवली जिणा । जरमरणचिप्पमुक्का मिचि बरगई गया ॥२॥ अत्रायं विशेषो गुणस्थानकमारोहे-"यः षण्मासाधिकायुको, लभते केवलोद्रमम । करोस्यमी समुदघात-मन्ये कुर्वन्ति वा न वा ॥इति ' छम्मामाऊसेसे, उप्पण्णं जेमि केवलं नाणं । से नियमा ममुग्घाइय सेसा समुग्धाय पायवा" पति तवृत्तौ इति । आघश्यकौँ त्वेषम्-"येऽन्तमुहर्तमादिं कृत्वोत्कर्षण आ- ' मासेभ्यः षड्भ्यः आयुषोऽवशिष्टंभ्या अभ्यन्तराषिभूतिकेवलशानपर्यायास्ते निय. मारसमुद्घातं कुर्वन्ति । ये तु षहमास य उपरिष्टाक्षाविर्भूतकेत्र इशानाः शेषास्ले समुधाताव्यापाः ते समुधातं न कुर्वन्तीत्यर्थ:, अथवा अपमयः. शेषा; Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९) ॥ लोकनकाशे तृतीयः ममः ॥ (सा० ८41 (२१३) समुदयातं प्रति भाज्याः, कस्माद्यस्मात पण्मासिकाशिद आयुषि आविर्भूनकेवलहानपर्यायेभ्यः केवलिभ्यः सकाशात् पाइभ्यो मासभ्य उपरि ये भमयोत्तरवृवचा. ऽवशिष्टे आयुषि शेषे आविर्भूतज्ञानाः केवलिनस्ते शेषाः ममुखातं प्रति भाग्थाः केचित् समुदुघातं कुर्वन्ति केचिनति । अतः केचित समुदघात कृत्वा केचिदकृयत्र समयाप्नुवन्ति सिद्धिम् । अयथा येषां बहु संघमस्ति आयुमाल्पमतिटते, ते नियमात्ममुनानं कुर्वन्ति नेसो" इति । अवेदं योध्यं-मषामेष केवलिना येदनीयादिकर्म त्रयस्य आयुरकादधिष स्थिनिर्भधति, श्रत पत्र च केपरिसामाम्यमाश्रित्य मयोग्यषस्थाचरमसमय थावस्थितिघातप्रतिपादनमपि । यदुक्तं कर्मप्रकृतिवृत्ती, प्रदेशसत्तारूपर्धकाधिकारे-शलेशीमलाकानां मनुजगत्या. वीनां प्रकृतीनां सत्तास्पर्धकमाणप्रमहगे "तथा मयोगिकेवलिचरमममये चरम स्थितिघातस्य पश्चरमा प्रक्षेपस्तन भारभ्य पचानुपूया स्वस्वमालकृष्टप्रदेशमकर्मम्धानान्तमपि सकलस्वस्वस्थिनिगतमेकं स्पर्शक द्रष्टव्यमिति " ॥ परं यस्य वेधलिनों मग आयुश्यायधेिकाऽपि दीपालिकामयाय स्थितिः, आषर्जी करणादिनव समुदधानं विमा सयोग्यवस्थाचरमसमयेऽयोग्यवस्थाममा. नोकतुं शक्या, नस्य न केमिसमुदघातस्प कर्त्तव्यता ॥ यस्य तु केवलिनो भगयतो मेदनीयादिकमंत्रयम्य स्थितियुष्का समधिकतराऽपि भवति, आवर्मी. करणादिमाशेण च न समानीक शक्ष्या, तस्य तु भवति समुद्घातस्य कत. व्यता । भवति च समुदधात करणेनायुरुकात समधिकतराया अपि वेदनीयावि. कर्मत्रयस्य स्थिने: समीकत्त शक्यतेति ॥ पचं सर्वेषामपि कैपलिनां-आयुषा सह वेदनीयादिकर्मत्रयस्य स्थित: समीकरणमपि सयोग्यवस्थायाधरमसम्य एष भवति । न पुनः समुदघासकर्तुः समुदधानकरणानम्तरममय एष इत्यपि योध्यम् ।। अत एव च सयोग्यवस्थायाधरमेऽन्तमहतं घेदनीयादिकर्म त्रयस्थ स्थितेग्योम्ययस्थपा सह समीकरण हेतुतया सर्वापवर्तनाप्रतिपावनमपि सन. चलते ॥ यदुवं प्रज्ञापनावृत्तौ-“कायपोगनिरोधकालान्तरे घरमेऽस्तमुहर्स वेद. नीयादित्रयम्य प्रत्येकं स्थितिः' मापबत्तनया अपवस्य-अयोग्यवस्थासमाना क्रियते " इति ॥ एवं कर्मप्रकृतिटीकायामप्युक्तं -" तस्मिच चरमसमये मर्या. पयपि कर्माण्ययोग्यवस्थासमस्थितिकानि जातानि ॥ येषां च कर्मणामयोग्यवस्था यामुश्थामावस्तेषां स्थिति स्वरूपं प्रतीत्य ममयोनां विधत्ते || सामान्यतः सत्ताकाल प्रतीन्यायोग्यास्थासमानामिति " ॥ अथ फेवलिसमुदघानं कुर्चन से.धली प्रथमतमये बाहल्यतः स्वशरीरममा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) ॥ समुद्धातदारटिपणे विजयनन्दनमुरिविरचितं समुद्घाततश्वम ॥ (द्वार णमूमनश्च लोकानपर्यन्तमा मप्रदेशानां संघानदण्डं वृण्सम्थानीयं शानाभो. गतः करोति, विनीयसमये तमंत्र दण्डं पूर्धापरदिगनयम मारणा पार्श्वतो लोकाम्तमा गामिय तारा बारीति सोपता कपाट दक्षिणोत्तरविग्यप्रसारणान्मन्यानमिव मन्यानं करोति, लोकान्तमापिणमध ! पर्थ च लोकस्य प्रायो बहुपूरितं, मन्थान्तराण्यपृरितानि भवन्ति. अनु_णिगमनात् । चतुर्थसमये ता. भ्यपि मन्यान्तराणि सह लोकनिकुटैः पूरयति । ततश्च सकालो लोकः परितो भवतीति । तदनन्तरं च पश्च मे समगे यथोक्नकमारप्रतिलोमं मन्यान्तराणि संह. रति जीवप्रदेशान सरकान् मोचयति, षष्ठे समये मन्यानमुपसंहरति धनसरसोचनात्, सप्तमसमये कपाटमुगसंहति दण्डात्ममि मङ्कोचात्, अश्मे समये दाई ममुपहत्य शरीरस्य एष भवति । म तत् स्यमनीषिकाधिम्भिनं यदाहुदाः -'' उन अहो य लोगत-गामिगं सो मदेहविक्वंभ | पदममम. मि इंड, करेप विइयम्मि उ कशाई ।। १ ।। तयसमयभिम मंथं, पउत्थर लोगपूरणं कुणइ । पडिलोमं मंहरण. काई तो होइ देहत्थो ।। २ ॥' वायकपरोऽप्यार - दण्डं प्रथम समये, कपाटमय चौतरे तथा माये । मन्धानमय तृतीये, कोकध्यारो चतुर्थे तु ॥ १ ॥ संघरति पभमे त्व-तराणि मन्याममण पु. नः पठे । सप्तमकेतु कपाट, संहरसि ततोऽष्टमे दण्डम ॥ २ ॥ इति ॥ ___ अथ कम्नावद्धतुरष पद जीवप्रदेशलयातरूपदण्डस्य शरीरविष्कम्भवाह ल्योपेतत्पमेय न तु तन्यूनानिरिकयिस्कम्भमाहरूपोपतस्य भिति, मध मारणान्तिकाविसमुद्धानेषु स्वशरीर विष्कम्भवाहल्यान्यूनानतिरिकाविष्कम्भवाहस्य. सत्यमेव द्विनिःसार्यमाणानामात्मप्रदशानामिति अत्रापि ममुद्धातत्यमाधम्यो त स्वदंतुन्यविष्कम्भयास्यकत्यमेवात्मप्रदेशवहस्पति याच्यम् , तो वाधेऽवढेऽन्यमाम्यारिक, पूढेऽभ्यदपि याश्यताम " इति मारणासिकसमुद्घानादिबपि बाहिनिस्सार्यमाणानामारमप्रदेशानां स्वंदहसुल्यविष्कम्भवाइल्यकत्वं नि. हेतुकमेवेति चेत् , म, जीवस्यानुश्रेणिगमनस्वभावत्वात् कैलिममुदाप्त रहा. दौ म्वदेशप्रमाणविष्कम्भवाहत्यकाप्रय सहैतुकापात. याचस्मां बाकाशघेण्यामशवगाढा जीवस्तापप्रमाणां आणि ममुकाया यदात्मनो गमनं तदनुगिगमनम् । अनुश्रेणिगमननियमादव छ भन्मान्तरसङ्कान्तावपि जीषम्य नथेष गमनम्। यदुक्त श्रीमति तथा यम " अनुश्रेणि गतिः ॥ २ २७ ।' एसद्वृतिः -- " श्रेणिमाकाशप्रदशपतिः स्वशरीरावगाहप्रमाणा प्रर्दशाधामूली: क्षेत्र परमाणधोऽत्यातक्षमा नरन्तर्यभामः सा बामहाख्येयप्रदेशाजी Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार १२ ) || लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ ( मा० ८५) (२१५) गतिविवक्षायाम्, अन्यत्र मोतिकाहारलतेव एकेकाकाशप्रदेशरचना तिस्त्ररूपापि याद्रा परमोध्यायस्यामेव व्यवस्थानात् ह्यणुकादेस्तामत्यामधिकायां नेत्येव मनन्तप्रदेशिकस्कन्धपर्यंषानं पुदुगलद्रव्यमुपयुज्य षाध्यम । तत्रानुप्रेणीति श्रेणिमनु अनुधैणि श्रेण्यामनुसारिणी गतिरिति यावदनुगङ्गं वाराणसी यथा । गमनं गतिर्देशान्तरप्राप्तिः सा चाकाशश्रेण्यभेदवर्त्तिनी स्वयमेत्र समासादितगतिपरिणते जन्नोति तु सकललोकव्यापिधर्मद्रव्यापेक्षा प्रादुरहित, भवान्तरसङ्क्रान्त्यभिमुखां जीयो मन्दकियायत्वात् कर्मणो यानैवाकाशप्रदेशान शरीरवियोगं करोति सानेवाभिन्दन देशान्तरं गच्छत्यूर्ध्व मधस्तिर्यग्वा चिश्रेणिमन्यभावाद धर्मास्तिकायाभावाच्च परतो लोकपर्यन्ते पक्ष व्यतिष्ठते, लोकनिटोपपातक्षेत्र वशात्र भवान्तरप्राप्ताववश्यमेव धर्माज्जीवों कां गतिं प्रतिपचने, गलानामपि परप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभात्रिको गतिरनुणिभवति य थाणोः प्रायात् लोकान्तात् प्रतीयं लोकपर्यन्तमेकेन समयेश प्राप्तिरिति प्रवचनोपदेशः परमयोगापेक्षा त्यन्यथापि गतिरस्तीति ॥ तया च सर्वत्रापि समुद्राप्रमाणविष्कम्भवाहस्यक तंत्र वहिनि सार्यमाणानामात्मप्रदेशानामिति सिद्धम् ॥ इत्यश्च द्वितीयममये दण्डस्य पूर्णापर दिग्यप्रसारणात्कपाटीकरणे कपारस्यापि पार्श्वतः लोकान्तगामित्वेऽपि वाहयं दण्डवाल्यान्यूनानतिरिकमंत्र एवं कपाटीकरणमपि भखण्डादेव दण्डात् न तु शरीरावच्छिन्नादेव दण्डात् अन्यथा नुथे णिगमन नियम विरोधात् एतेन द्वितीयसमये शरीरावच्छिन्नदण्डादेव कपाटीकरणम, तृतीयसमये शरीरो परित नंदेशा दण्डात् कपाटीकरणम्, चतुर्थसमये शरीराचस्तन देशाव दण्डान्कपाटीकरणम. एवं कपाटीकरणे समग्रत्रयं तथैव च कपाटमंदरणेऽपि त्रयम् प च दण्डादिकरणसंहरणयोरपि ममयाधिकयमंत्र तो न ? तथा कुतः केषाितस्याष्टमाम विकत्थमेष समयाधिकस्याप्युक्त विकल्पप्रसङ्गादित्यपि निरस्तम्, उक्तस्वरूपानुश्रेणिगमन नियमभङ्गप्रसङ्गात्, तथा चानुश्रेणिगमननियमांत्र ऊधोलोकान्तगामिनी दण्डस्य देकम्भवात्यतुल्य विष्कम्भवादयकत्वं न तु स्वदेहविष्कम्भवादयो दिप्रमाणविष्कम्भवाहस्यकत्व येन दण्डकरणे समयाधिक्यप्रसङ्गः स्यात्, पत्रं द्वितीयये दण्डस्य कपाटीकरणमपि पूर्वीकनियमादखण्डादेष दण्डान्नतु दण्डखण्डादिति तथापि न समयाधिक्यमनङ्गः पयं तृतीयसमये कपाटम्य मन्थानीकरणमपि उक्त नियमात् समस्तादेव कपाटात् न तु शरीरावच्छि मया · ' Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 (२१६) || समुद्घातशरटिप्पणे विजयनन्दनसूरिविरचितं समुदयातलस्यम् || शार टैकदेशादित्यत्रापि ममयाधिक्यप्रसङ्गो दुरापास्त पत्र तथा चाष्टसामयिक केवलिसमुदघातम्य दुनिरोधमेवेति । नन्वयम ऊर्ध्वाधोलोकान्तगामिनी दण्डस्याखण्डस्यैष पूर्वापरदिग्यमसारणात्कपाटीकरणे कपाटस्मधः पृथपरयोश्च लोकान्तगामित्वं दण्डबाडल्य प्रमाणवाद्दल्यं वास्तु परं तावृशस्याखण्डस्यैष कपाटम्य दक्षिणोत्तरविन्द्रय प्रसारणात् मन्यानोकरणे तु तृतीय एवं समये लोकः पूरितो भवति किं चतुर्थ समयेऽस्तरपूरणेन, इत्थञ्च केवलिसमुदुघातस्य पसामयिकत्वमेव प्राप्तमिति अष्टसामयिकत्ववचनविरोधः स्यादिति कपाटल्य मन्थानीकरणं नाखण्डस्यैव कपाटस्य किन्तु स्वदेहप्रमाणबाहल्यखण्डदण्डावच्छिन्नरूपा एकपादमध्यभागादेत्र फपाटस्य मन्थानीकरणमस्तु । पयं पूर्वापरायत को लोकमामी कपाटः, द्वितीयों दक्षिणोत्तरायती लोकगी पाशकपाटयात्मकमेव मन्थानम, एवञ्च तृतीये समयेऽन्तराण्यप्युद्धरसीति चतुर्थममये तत्पुर भवति, पत्रमेव चाष्टाविकत्ववचनमपि सर्वा सिद्धं निर्वहतीति तु न, एवं हि तृतीयसमये लोकस्य बहुपूरितं न स्यात् अल्पतमस्यैष लोकस्य पूरितत्वात् न स्यादेवेति चेत न, "तृतीयसमये तदेव कपाटे दक्षिणांतर दिग्ब्रयप्रसारणान्मन्यमदृशं मन्यानं करोति लोकान्तप्रापिण मैच, एचञ्च लोकस्य प्रायो बहुपूरितं भवतीति तत्र तत्रोक्तेविरोधात् कि मधिकरणकाले स्नातकस्य लोकस्यासन्ख्ये भागेषु स्वव्याप्यभः प्रदे शसंयोगरूपावगाहना न स्यात् प्रतिपादिता व स्नातकस्यावगाहना श रीरस्थतादृशायां दण्डकपाटकरणदशायाञ्च लोकम्यासख्येये भागे, मथि करणकाले लोकस्यासहख्येयेषु भागेषु लोकपूरणदशायाञ्च सर्वत्र लोक, यदुक्तम्- गुरुतच्च विनिधये " ण्हायरस असंखितं असंखभागेसु लोप घा इति । स्नातकस्यावगाहना लोकव्यामइख्येयभागे शरीरस्थतादशा दण्डकपाटकरणदशायाम् असङ्ख्येपेषु भागेषु वा मत्रिकरणकाले यहां कस्य व्याप्ततया स्तोकस्य वाव्याप्ततयोक्कत्याल्लोकस्थाम रूयेयेषु भागेषु वृत्तिसम्भवात् 'लोके चा' सर्वत्र लोकपूरणदशायामिति तद्वृत्तिः ॥ " श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तावप्युक्तं पचविंशतितमशन के षष्टोदेशक- "सिणार णं पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेज्जभाग हुज्जा असंखेज्जभाग हुज्जा णां संखेजजेसु भागसु हुआ। असंखेज्जेतु भागे हुज्जा मध्यकोष वा दोना" इति । "खिणापणमित्यादि, असंखेज्जर मार्ग होज्जसि' शरीरस्थों दण्डकपाटकरणकाले च लोकास कख्येयभागवृत्ति:, के टिशरीरादीनां तावन्मात्रस्यात्, असंखेज्जेसु भागे होज्जचि म " Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २१मुं। || लोकप्रकारे तृतीयः सर्गः ।। (सा०८५) (२१७) थिकरणकाले बहोलीकम्य व्याप्तश्वन स्तोकस्य चाय्याप्ततयोक्तावासलोकपास ख्येयेषु भागे, स्नानको धनते, लोकापरणे च सर्वत्रोके वर्तते " इति न ववृत्तिः ॥ तवाभिप्रायेण हि मन्धानकरणकाले स्नातकस्य लोकस्यामहल्येय. भागद्वयमानं पश्चाषमाइना स्यान, मत्यसकारये येषु भागेषु कपारयात्मकत्वस्यप मन्यानस्योक्तस्त्रादिति दुपरिहर पवाव घिमोधः स्याम् | तथा पोमधः पूर्वापरयोश्च टोकान्तगामिनाऽखण्डस्यव कपाटस्य तृनीयतमये मन्थानीकरणम.. भवत्येव चर्व मनात कम्य मथिकरणफाले प्रतिपादिता लोकस्यासहस्येयेयु भा. गेवगाहना, जीपशानामनुगि स मागमात्रस्यैत्र नादानीमतिमत्वादिति दुरापास्त पधार विरोधः । नन्ये वमति मयिकरणकाले पव कथम्न सोऽपि लोकः परितो भति, कथञ्च दानीमतराण्यप्युद्धरतीति चन, स्यादेव मधिकरणकालेऽपि समस्तलोकापूरणं यदि केवळी झोकमध्य पत्र स्थितः समुदधात कुर्यात्, परं नवं भवति, मेरुमध्य एष लोकमध्यस्थात, तत्र च प्रायः समुदघातकत्तः कैवलिनोऽसम्भवात, अन्यत्र व समुद्घात कुर्षतः केपलिन उद्रग्नत्यवान्तगणि मधिकरणकाले, उकाऊचैतदेवाक्षेपरिहागाभ्यां जीचममामवृत्तौ ।परमकारुणिकः श्रीमलधारित मचन्द्रमूरिभगम्पार्व:-: मनु लोकमध्यस्थिती यदा केपाली समुवानं करोति, लदा तृतीयेऽपि समये लोकः पूर्यन पत्र. कि चतुर्थसमयेऽन्तरपूरण नेति, नैतदेवम, शोकस्य मध्यं हि मेरुमध्य पध सम्भवति तत्र च प्रायः ममुदधानकत्तुः केवलिनोऽभाष एव, अन्यत्र च ममुन्दनातं कृतस्तस्य तृतीयमान रापयुद्धरस्येवेति परिभाषनीयमिति"। अथ लोकमध्यस्थितस्य समुदघातकर्तुं केलिनस्तृतीयसमये लोकापूरणम, अन्यप्रमियतम्य च तस्य तृतीयलमयेऽस्तरोद्धरणं यथा अति तथा किपिरिभाव्यते- तथाहि यदा लोकमध्य स्थितः केवली ममुषघात कुर्यात्नवा प्रथमतमय अवसधोलोकातगामी चण्डः, द्वितीयममय तम्यघाखण्डम्य पाटीकरणं, तन्त्र निर्यग्टोके कपाटम्य धिमतर: रज्जुप्रमाणः स्यात. नतः कमेणा वृद्धशा ब्रह्मलोके पथग्ज प्रगणनतः क्रमेण हान्या अर्थ लोकान्ने रज्जुप्रमाण!, पचमधः कमैण वृनया अधोलोकान्ते मातरज्जुममाणः स्यात, नत्र लोकस्य तथेत्र विस्तृतन्यान, तृतीयसमये च तस्याबण्डम्यत्र कपाटम्य दक्षिणोतरविलयपसारणान्मयानीकरण भवति, तत्र मन्यामस्य तियग्लोकमध्ये पर्वापरयोनिस्तारः कपा रवत् रज्जुप्रमाणः नत्र कपाटम्य रउजुपमाणावात अनुश्रंणिगमन नियमाञ्च, ततः दक्षिणोत्तरभेदेन विधाविभक्तम्य निर्यलोकस्य दक्षिणभागे उभयपावती Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) ॥ समुद्घातबारटिप्पणे विजयनन्दनमूरिविरचितं ममुदयातनाबम ॥ (बार लोकस्य क्रमेण होयमानत्वेन पूर्वापरयोमन्थामविस्तरस्यापि दीयमानत्य यात्रत् लोकान्तम, पंष तिग्लोकस्योत्तरभागेऽपि उभयपावतो लोकस्य यण दीय. मानत्वात् मन्थानविस्तरस्यापि दीयमानत्वं चोध्यम, यथा लक्षयोजनप्रमाणम्य स्यास्याकारस्य जम्बूद्वीपस्य मध्यभाग पब लक्षपोजन ममाणी विस्तारस्ततः ६. क्षिणोत्तरभेदेन तस्य विधा विभजने दक्षिणाभागे निपधहरिबर्षादीन प्रति भ. रमोद मावतू पूर्णपो: कोपी नाम न पितारी जम्वृद्धीपत्य, अन्यथा गोलाकारत्यस्य व व्याघातात, एवं उत्तरभागऽपि नी रचतरम्पकादीन प्रति पर.. यसक्षेत्रं यावत् जम्बृद्धीपविस्तारस्य क्रमेण होयमानत्वमेव, अत एव च क्रमण निपधनीलवत हरिचर्षरम्यकादीनां जीवायाः क्रमेण अल्पाल्पतरादिप्रमाणभाष इति। 'पषं अमलीकमध्ये मन्यानस्य पञ्चरज्भुप्रमाणो विस्तारस्तत्र कपाटविस्तारस्य पञ्चरक्जुप्रमाणम्पादेव ततो दक्षिणोत्तरभेदेन द्विधा तस्य विभजने दक्षिणभाग कमेण हीयमानत्यमेव पूर्वापरयोर्मन्यानविस्तारस्य यापल्लोकान्नम. पवमुत्तर भागेऽपि तस्य मस्थान विस्तरः क्रमेण लोकान्त याद टीयमान पर बोध्या, पषमूवलोकान्त मध्यभागे रखजुप्रमाणां विस्तारः मन्यानस्य, नमी दक्षिणभाग उत्तरभागे च पूर्वापरयोः कमेण हीयमान पत्र, पश्चमधोलोकान्तेऽपि मध्यभागे मानरज्जुममाणो मन्थान विस्तरः, ततो दक्षिणभाग उत्तराम च पूर्वापरयोः कमेण पूर्वयद्धीयमान पथ पाधल्लोकान्तम, एवमन्यबापि लोकभागे बोराम, यत्र यत्र लोकस्य पूर्वापरयोर्याधान विस्तरः, तत्र तत्र मध्यभाग मस्थानस्यापि तापानेव विस्तरः, तत्र तत्र कपाटस्यागि तावन्मात्रविस्तारत्वात, ततः पूर्ववत् दक्षिणभाग उसरभागे च पृपिरयोः कमेण हीयमान पत्र विस्तारः यादरलोकान्तमिति । एवञ्च लोकमध्यस्थितस्य ममुद्धानकर्तुः केवलिनः तृतीय एष समये मर्यस्यापि लोकप्त्यात्मप्रदेशरापूरणं भवत्येय, नी. अरस्त्येव चागतराणि, पर ताशस्य केलिन: प्रायोऽसम्भत्र पवेति । अय यो न लोकमध्यस्थितः किन्न्वन्यत्र स्थित पय समुदघातं करोति. विदेहथिज वादिषु भरतैरषतादिषु बा, नस्य केवलिनी भगवतः द्वितीयसमये दण्डष्य कपाटीकरणे कपाटस्य पूर्वापरयाधिस्तरः तियग्लोकनमलोकादिषु न पृर्थोक्तर अनुपधरावाविप्रमाणः, लोकमध्यस्थिताय नाविस्तरस्योपपन्नत्यातू, किन्तु पूक्तिप्रमाणान्न्यून पश्च भवति तत्र घिदेहविजयादिपु समुदघातकरणे किञ्चि म्यूनो भषति, भरतरवतादिषु च समुदयास करणे न्यूनतमो भवति, सन्त्र तत्र लोकस्य स्थास्याकारस्य दीनहीनतरादिभाषेध विस्तृनत्यान, यथा जम्बूद्वीपम्य Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - १२मुं) || लोकप्रकाश भृतीयः मग. ॥ (सा० ८५) (२१) मध्यभागे लक्षयोजनप्रमाण पत्र विस्तार: नती विजयादिपु किचिन्यून एष विस्तारः, भरतग्यताविपु व न्यूनतम एव विस्तारः । मथ नृतीयसमये रूपा. टस्य मन्यानोकरणे नियंग्लोफानमलोकादियु कपाटस्य यावान. विम्तरः किश्चिन्यूशन्यूनतमग्जपचरज्ज्चादिप्रमाणः, मन्यानस्यापि कपाटमूल नावानेच पूर्वा पग्योविम्तमः, सप्तःपरं दक्षिणभाग उत्तरभाग स यथासम्भवमुभयणत: समो था हीयमानो घा विस्तरः न त्यधिकः, आत्मप्रशानामनुश्रेणिगमननियमात कपाटविस्तारावधिघिस्तारस्य मन्याने कुत्राप्यसम्भवाल न भरतक्षेत्रे मभु घातकरण मन्धानस्य घिस्तरी दक्षिणभाग पूर्वापग्योहायमान व याथल्लो. कान्तम, उत्तरभागे तु आयातभागात मम एव नतः पर श्च द्वीपमान पवेति योध्यम्, पधमन्यत्रापि यथासम्भव भावनीयम, इथञ्चान्य समुद्घानं कुर्वतः केलिनो भगयतः तिर्यग्लोकब्रह्मलोकादिपु मध्यभागे लोकस्य याथान विस्तार तावत्प्रमाणाहिस्तागद यावन्मात्रया कपाटविस्तारस्य न्यूनम्यूनत्तरादिभाषा, मन्यानविस्तरस्यापि नाबन्मात्रया पूर्वापस्योन्य नन्यूनतरादिभात्री भवति जीवप्रथा मामनुश्रेणिगमननियमाल, तथा च तियालोकादिषु सर्वत्र पूर्वादिषु विच जीवन देशरपूरितान्याकाशान्तणि तिष्ठन्त्येवेति चतुधसमय तत्पुरणं भवतीति तृतीयसमये न मोऽपि लोकः पूर्यते किम्वन्तगाण्युद्धमत्येवेति परिभावितमिनि । इत्थश्चाष्टमामयिकायमपि कंवलिसमुदधातस्य निर्विरोध निर्वाहिसमेति ॥ अशेदं बोध्यम्, लोकस्य मध्य मेरुमध्य पव सम्भवतीनि गचुनम तदुव्यवहारापेक्षया बोध्यम्, यदुक्तं लोकनालिफायाम् घम्माइ लोकमज्म', जोयण अम्सम्बकोढीहि" इति धर्मागां रत्नप्रभायामसहयातयोजनको भिलीकमध्य म्यान्नधयिकमतेन, परं श्यावहारिक्रमतेन रुकन्दमध्ये ऽष्टप्रद शिकरुचकाल्लोकमध्यं स्यादिति तवृत्तिरिति॥ एवं स्नातकस्य लोपस्यासकरूये येषु भागवायषगाइनायाः प्रतिपादितत्वेन"ननु प्रथमममये शरीरस्यानामान्मप्रदेशानां पूर्वापदिग्दयप्रसारणात् पूर्धापग्योलीका म्तगामितया शरीरप्रमाणोच्चावयाल्यतः कपाटीकरण,तो द्वितीयसमये तस्य क. पाटस्योवमधोलोकान्तगामितया विम्नारणाननम्तृतीयसमये दक्षिणोत्तरविद्वयन मारणान मन्यानीकरण,ततोऽन्तरपूरणमघया क्रमेण कपाटीकरण,मन्थामीकरणे त अधिोलोकान्तगामिनया बिस्तारण सताउम्तरपूरणमित्येक्रमेणेत्र कयन्न समु. दघातप्रक्रिया " इत्यपि परास्तम्, आम्मप्रवेशानामनुअणिगमन मियमेन तथा प्रक्रियायां लोकस्यालकल्ये येषु भागेषु स्नासकावगाहनाया असम्भवादित्यधिक स्वयमेष परिभायनीयमिति नत्वमध मषन कवलालोकशालिना भगवन्त प Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D. (२२०) । समुद्धातहरदियो विजयनगदनमारिधिचितं समुश्चाततम्यम् ।। (हार घ विदन्तीति दिक । पनेनाचिन्तमहास्कन्धसमुद्घातोऽपि घ्यायातः, तस्यापि दण्डपाटमन्थानान्तरपूरणप्रतिलोमतत्सहरणलक्षणाष्टसमयप्रमाणतया केवलिसमुदधाततुल्यकालन्यादिति । अत्र आवश्यकणिगत किञ्चिनम्वरूप लिख्यते तथाहि-'अथ ये समुद्घात कुर्वन्ति तेषां को विधि. ? इति प्रप्रने तदा विष्करणार्थमाचश्म- ते दण्डादिक्रमेण कुर्वन्ति, तत्र प्रथमममय औदारिककाययोगशा गण्डक फर्वन्ति, अथ बाट प्रति कोऽयः, दण्डक इव दण्डका क उपमार्थः, यथा मूलमध्यागमूर्धाध:समप्रदेशः परिवृत्त यो दण्डकस्तया समुदघातकरणवशान्तिर्गतानामात्मप्रदंशानां दण्डकसम्यान नारथानाद दण्डकस्वसिद्रिः । अथ दण्डकरणे को विधिः? इति प्रश्ने महे. इह व्यावहारिकनय यशाध असल्येया जीवप्रवेशाः ने मयऽपि बुद्धचा अमरुयैयाः भागाः कृताः पत्र प्रथमसमये दण्डककारकाणाममङ्गल्ये या भागाः मिर्गकन्ति, असहरूयेयों भागोऽवनिष्टते । नतस्ततः असहरण्ययेविप्रदेशभागः स्वशरीरा निर्गत दण्हकमभिनिवर्तयन्त: अष्टौ जीवमध्यप्रदेशाम माम्ममिकपरस्पराधियोगिनो रु. नकमस्थितान. चकबैयपटलयोफभयो गनायवस्थाथिषु रुचम स्थिरलोक मध्यप्रतिष्ठाटाकाशप्रदेशेषु संस्थाप्य चतुर्दश रज्ज्यायनं दण्डकं कुर्वन्तीति । ततो द्वितीयसमये कपाटकं कुर्वन्ति, तम्समये पत्र चौदापिकमिश्रकाययोगो भवति, अथ कपाट कमिति कोऽधः, कपाटकमित्र कपाटर्फ क उपमार्यः, यथोभयोः प्रात्यदिशयोगितर्य विस्तीर्णमपागुवदिशयोहस्थमुभवोंधादिशयोमच्छित कपाटमिति जगति शम्द्यते नथा समुदधातकरणचशानिर्गताना माम्मप्रदेशानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरासु विच कपाटसंस्थाने नाव स्थानाकपाटकात सिद्धिः, अच कपाटकरणे को विधिः? इति प्रप्रने अमहेन्ततः प्रथमममय निर्गता मप्रदेशभकाशात् योऽमययभागोऽवशिष्टोऽवनिष्ठते इत्युक्तं स युद्धशा पुनरसहनायेयान भागान कृतम्नतो द्वितीयसमये कपारकारकाणामसहाव्येया भागा निष्कामन्ति, असख्येयभागोऽवति मटते तैरसकरुये यर्भागनिगतः कपाटकं कुर्वन्ति । तत्र ये मिर्गतास्ते प्रथमसमय निगतात्मप्रदेशमकाशासङ्ख्येय गुणहीनाः, अस. सख्येयभाग इत्यर्थः । अथ तृतीय समये प्रनरकं कुर्वन्ति, तत्मामयिकश्च कार्म. काययोगो भयति । अथ प्रतरमिति कोऽर्थः!, प्रारमिन प्रत(क)क उपमानार्यः पथा धननिचितिनिन्ति प्रचिताषयवम्वितः परिवृत्तस्थालकः स्फलक वा लोके प्रारमित्युच्यते, नथाकाशमपि परस्परशभसर्गविच्छेदपरिवृत्तपर्षायेणाय. स्थित प्रारमिति सिद्धम | अथ नृतीयसमये प्रतापूरकाणां को विधि इति Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार १२) ॥ लोप.प्रकाशे मृतीयः मर्गः ॥ (मा० ८५) (२२१) प्रग्ने प्रति महे, ततो द्वितीयममये निर्गतात्मप्रदेशसकाशात् योऽमककयेयभा. गोऽतिष्टते इन्युक्तम्, अलावणि बुद्धचा पुनरसङख्येया भागाः कृताः, तत. स्मृतीयसमये प्रतरकारकाणापस येयभागा निझामन्ति, असायेयभागोऽवति. टते, तरस-येय गिर्मिर्गतरेतः प्रतरं पूरयन्ति, तत्र ये निशान्तास्ते द्वितीयमभये निष्फ्रान्तान्मप्रदेशसकाशावसादयेयगुणहीनाम्लततर्थममये कार्मणकाय. योगस्थान एक आकाशनदेशान्निकुटमाधानसंस्थितान लोकव्यपदेशभाजोऽपरिनान. पूरयन्तीति लोकपरकाः, तथा तेषां को विधिः इति प्रश्नेऽभिदध्महे, ततस्तृतीयममयमिगतात्मप्रदेशमकाशात योऽस बारव्येयभागोऽवतिष्ठत इत्युक्तम. अमावपि बुद्धया पुनरप्यसहख्येया भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये लोकपूर. काणाममळ्यया भागा निश्कामन्ति, अमरूल्येयभागोऽयनिष्टते, ततस्तरमा ख्येयभागनिकमान्तरेतकनिकुटकान पूरयन्ति, तत्र ये निशान्तास्ने तृतीयसमय निष्क्रान्तामप्रवेशमकाशावमाश्येयगुणहीनाः, यभाधुमाउसहास्येयभागोअतिष्टोऽमौ स्वशारीरावगायाकाशममाण; " इति || अथ दण्डादिसमयेषु किं कि क्रियत ? इति, न दुच्यने नत्र दण्डसमयान् प्राक या पल्यापमामहलयेयभागमात्रा घेदनीयनाम गोत्राणां स्थितिरासीत् त. स्पा बुद्भया असहारूपेयभागाः प्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्डं कुर्वन् असख्येयान, भागान हस्ति. पकोऽसहरू यो भागोऽवसिष्ठते, या प्राक्कम त्रयस्यापि रममात्याग्यमन्ना भागाः क्रियन्ते, ततस्तस्मिन दण्डसमये असामवेदनीय १ प्रथमवर्ज मस्यान ६ मंहननपञ्चका ११ प्रशस्तवर्णादिचतुष्टयो १५ पघाना १६ प्रशस्तविबायोगति १७ दुःघर.१.दुर्भगाएस्थिरा२पर्याप्त काररशुभारसनादेया२३ यशःकी त्ति २४ नोचैनहपापा २५ पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान भागान हन्ति पकोड़मतसमी भागोऽशिष्यते. तस्मिन्नेव च समये सातवेदनीय १ देवगामि २ मनुज्य गति ३ देषानुपूर्वी ५ मनुष्यानुपर्धी ५ पञ्चेन्द्रियमाति ६ शरीरपञ्चको ११ पाङ्गय १५ प्रथम स्थान १५ संहनन १६ प्रशस्तवणांदिषतृष्टया २० गुरुः लघु २१ पराधानी २२ श्वास २३ प्रशस्तविहायोगति २४ अस २५ वापर २६ पर्याप्त २७ प्रत्येकारनपो २९ पोन ३० स्थिर ३१ शुभ ३२ सुभग ३३ सु. स्वरा ३५ देय ३५ यश कीति ३६ निर्माण ३७ तीर्थकरी ३८ चाँत्ररूपाणा ३९ मेकोमचन्धारिंशतः प्रकृतीमामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनोपहायते, समुदयानमावात्म्यमेतत् . यदा प्रशस्तपतीनामपि रसपानादिकम, अपशस्त प्रकृतीनां च बन्धाभाषेऽपि पतदग्रहनुल्पना चेन्यापि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) || समुद्यतद्वार टिप्पणे विजयनन्दनमूरिविरचितं समुपातलस्यम् । (शर तत्वात् मन्यत्रैकोनचत्वारिंशति शुभप्रकृतिषु मध्ये आतपाद्यतयोर्य हवंयस्य त योरनिवृत्तिकरणगुणस्थान पक्ष क्षीणत्वात् कर्मप्रस्थादौ नरकगतितिर्यग्गतिनरकापूर्वी तिर्यगानुपूज्यनिरिन्द्रियजातिस्थावरात पोद्योत सूक्ष्मसाधारणानां नामकर्मणी प्रकृतीनां क्षयस्य नथमगुणस्थान पत्र प्रतिपादितत्रातपोद्योतयांगृहीतत्वाच्चेति चेत अत्र नत्रमगुणस्थानके तयो । कामप्रन्थिकाभिप्रायेण श्रयेऽपि अन्येषामभिप्रायेण तयोस्ताक्षीणत्वम् आत पोथोसब जिताना मैथ त्रयोदशप्रकृतीनां नामकर्मणस्तदभिप्रायेण तथ श्रीतंत्रात् । यतुकं -" अटु कसायाणं संखेज्जहभागी सबैमाणो गो भवति ताहे ग्रामस तं कम्मरम माओ तैरल पडीओ ख जहा निरयगइनामं निरयाशुपुबीनामं पर्मिवियजाइना बेन्द्रियजाइनाम दारिदियजाइमामं निरिगहना तिरिक्खजोणियाणुपुरुषी इंद्रियज्ञाहना नाम अप्पसत्यविद्दायोगइनामं थाबरनामे सुहुमनाम साधारणनामं अपज्जत्ते 2 इति । तथा वान्याभिप्रायेणातपोद्योतयां नेघम गुणस्थान के श्रीणन्येनात्रान्यत्र च पञ्चसङ्ग्रष्टकर्मप्रकृतिवृष्यादौ तदूग्रहणस्यान्याभिप्रायकत्वं बोध्यम् न तु फार्मयन्थिकाभिप्रायिकत्वं तथा च न वैयर्थ्याशङ्का, पत्रं पञ्चविंशता शुभप्रकृ तिष्वपि यदप्रशस्त विहायोगन्य पर्याप्तयोर्यहणं तस्य तु कार्मग्रन्थिकाभिप्रायकत्र बोध्यम्, नान्याभिप्रायकस्त्रमभ्याभिशयेण तु नयोर्नयम गुणस्थानक पत्र क्षपय प्राकू प्रतिपादित्वादित्यस्माकं प्रतिभाति, अथ तस्याद्धरितस्य स्थितेरम रूयेभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य पुनर्यथाक्रमममकूरुयेया अनमनाच भागाः क्रियते ततो द्वितीये पावसमये स्थिते रयान भागानन्ति पीडयशि suते. अनुभागस्य चानन्तान भागान हन्ति एक मुञ्चति, अत्राप्यप्रशस्त प्रकृत्यतुभागमध्यप्रवेशनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघाती भ्यः पुनरयेतत्समयेऽशि ट्रस्य स्थितेरसख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्तसमभागस्य पुनर्बुद्धया यथाक्रममसख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते मनस्तृतीयसमये स्थिर सख्येयान् भागान् हन्ति, एकं मुञ्चति, अनुभागम्य श्रामन्तान भागान हन्ति. एकमनन्तभागं मुञ्चति अत्रापि प्रशस्त प्रकृत्यनुभागद्यातीऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्ये प्रवेशनेनावसेयः, ततः पुनरपि तृतीयसमयाय शिष्टस्य स्थिनेग्स इयेय भागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य बुद्धद्या यथाक्रमममा अनन्नाच भागाः क्रियन्ते ततु ममये स्थितेरसङ्ख्यान भागान हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याध्यनस्तान भागन इन्श्येकोऽवशिष्यते प्रशस्त प्रकृत्यनुभागघातश्च पूर्वश्रवसेय पत्रं च स्थिति " Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) १२.मुं.) || लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८५.) घातादि कुर्वश्वतु समये स्वप्रदेशापूरितसमस्त लोकस्य भगवतः केवलिंगो eraturesमंत्रयस्थितिरायुषः सख्येयगुणा जाता अनुभागस्त्ययनरत गुणः चतुर्थसमयायशिवस्य च स्थितेरस रुयेयभागस्यानुभागस्य चानन्तमभागम्य भूयोऽपि युधा यथाक्रमं सख्येया अनन्नास भागाः क्रियन्ते ततोऽवकाशान्तरसंहारसमये स्थितेः सख्येयभागान हन्ति एकं सख्येयभागं शे श्रीकरोति, अनुभागस्यानन्तान भागान हन्ति र मुञ्चति पत्रमेतेषु पश्चसु द usttaajy प्रत्येक सामयिकं कण्डकमुकीर्ण समये समये स्थितिकण्डकानुभागवण्डघातनातू, अतः परं षष्टममयादारभ्य स्थितिक्रण्डकमनुभाग कण्डकं चान्स इन कालेन विनाशयति प्रयत्नमन्दीभावात् षष्ठादिषु च सम susकस्य प्रतिसमय से कशकलं तावदुन्किरति यावदन्तर्मुइयरमसमये ल कलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्ण भवति एवमान्तमसिंहानि स्थितिकण्डकाम्यनुभागकण्डकानि च घातयन् ताथवेदितव्यः यावत् सयोग्य वस्यावर मलमयः, सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभाग कण्डकाम्यसङ्ख्ये वान्यवगन्तव्यानीति । नन्यस्मिन समुद्घाते क्रियमाणे किं मनोवाक्कायरूपाः सर्वे योगा व्याप्रियन्त उतान्यथा ? इति चेत्, अन्यदेष, तथाहि तत्र मनोषाग्योगयो व्यापार पत्र प्रयोजनाभावात् । याह- धर्मसारमूलटीकायां भगवान श्रीवनिभद्रसूरिः – "मनोषचसी तदा न व्यापारयति प्रयोजनाभावात् काययोगस्य तु औदारिककाययोगस्यौदारिक मिश्रकाययोगस्य या कार्मणका प्रयोगस्य या व्यापारी, नान्यस्य लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्यासम्भवात् सत्र प्रथमाष्टमममययोरौदा रिक कार्यप्राधान्यादौदारिककाययोग एष, द्वितीयपष्ठमतमकेषु पुनः कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वादौवारिक मिश्र पत्र, तृतीयतुमेषु तु केवलमेव कार्मणशरीरं व्यापारभामिति कार्मणकाययोगः | याहु:- श्रीमदार्य श्यामपादाः श्रीप्रज्ञापनायां विंशत्तमे समुद्रातपमे - ''से र्ण भेते | ता समुग्धायगते किं मणजोगं जुंजति वहजोगं जुजति कायजोगं जुंजति ? गो० : मो मणोगं जुजति, नो पहजोगं जुंजति, कायजोगं जुंजनि. कायजोगणं भंते 1 जुंजमाणे कि ओरालियकायजोगं जुअति, ओरालियमीसा सरीरकायां किं वेव्वियसरीरकायजोगं, वेषियमी सासरीर काय गं कि आहारसरकार, आहार गमीमामरीरकार, किं कम्मसरीरका० ? गाँ ? ओरालियर काय जांगंपि जुंजति, ओरालियमीमासीरकाय जोगंधि मुंज मो उचियसरीरका तो येउव्यमीमान्नो आहारणमरीरका० नो आहारगमीमा } " " Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D (२२.४) || समुदमातबारदिपणे धिजयनन्दनसुरिविरचितं समुद्घातलायम |(सार स. कम्मगमरीरकायजोगपि जुति, पर ममममप ओगलियकायलोग जुंजा, विश्यछटुसत्तमेसु समपसु ओरालियमोसमीरकाययोग जुंजइ, नायचइस्थपंचमेसु ममपस कम्मगलरीरकाय जोग झुंजा" इति । भाष्यकारोऽप्या'न किर समुग्घायगी, मणथजोगपीयर्ण कृणा | ओगलियज्ञोग पुण, जुजइ पढमढमे ममप || १ ।। उभयन्धारागओ, तम्मीसं धीग्रसत्तमप । तिघउत्थपञ्चमेसु कम्मग तु तम्मन चिट्ठाओ " ॥ २ ॥ इनि, इयञ्च मृतीय चतुर्थपञ्चमेषु समयेषु केवलम्य कार्मणकाययोगस्य सत्येनानाहारकत्वमपि बोध्यम् । अनाहारफभावाधिनाभाविस्वान कामणकाययोगम्य, न चाहारकत्वेऽप्यु-पतिपथमसमये कामण काययोगमरवन व्यभिचार इति वाच्यम् , केवलकार्मणकाययोगस्य तवानीप्यभावात् , औदारिकादिमिश्रयैव कार्मणस्प तदानीं मन्यात औदारिकादिशरोरनाम कर्मोदयाधीन-धामाहारकाम. स्य तत्तभरीपनाममंदियाधीनन्याच्च नत्तत्काययोगस्य अस पत्र च " जीगा अकम्मगाहारगे तु " इत्यनेनाहार के कार्मणवाश्चतुर्दशयोगाः प्रतिपादिताः सङ्गच्छन्ते इत्याधिकं तु अस्मत्कृतपरशीतिप्रकाशावत्रसमिति, मनु सयोगिनः औदारिक शरीरनामदियोऽयव "HTRA स्वस्य सर्वदेव सरवात् कर्थ केयलिसमुदयाते समयनोऽनाहारकत्यं नम्येति चैत् ,न, केलिसमुदघानतृतीयचतुर्थपञ्चमसमग्रेभ्योऽन्यत्रैव मंत्रयोदारिकशरीर नामकर्मादयसश्चात , तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेपु स्यौदारिकशमीरनामकदिया भाषात् , सध फेलिनो नामकर्मणो विशत्येकत्रिशतिरूपोदयस्थान द्वयभ्यय प्रतिपादितस्यात् , तत्र मनुस्यगप्तिः पश्चेन्द्रियजातिम यादरे पर्याप्त सुभ गमादेयं यश कीतिरित्यता अट घोयिनीभिादशभिः सह विंशति , पण चातीर्थकृतः केवलिनः केलिसमुदघातगलस्य तृतीयचतुर्थपञ्चममा काभशकाययोग धर्ममानस्यायसेया, मेथ शिलिस्तीर्थकरनामकसहितकविशतिः, पा ष नीर्थकृतः केवलिनस्तत्रैवेति. ता य युक्तमधोक समुदघाप्तारतम्य कंवलिम स्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेवनाहारफत्वं नादानी मौवारिकशरीरमाममंदिया भाषादिति || मनु पुद्गलादान मेकाहारस्ताव केन्टिनः समुदयातगतस्य तृतीयादि समयेषु औदारिकादिपुद्गलानादानेऽपि फर्मपुद्गलादाममन्यष जम्प योग, तुकस्य योगवतां सर्वदेव सद्भावादिति नृतीयादिलमयेम्वपि केष लिन आहा. रकत्वमेधेति चत, न, औदारिकवशियाहारकशरीरपोषक पुदगलीपावानभ्यंध प्रवचनापनिवेदिभिरा हारत्वेन परिभाषिन्धात. अन्यथा विग्रहगताचप्य नाहा. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८५) (२२५) रकत्षाभाषप्रसङ्गात . कर्मपुद्गलावानस्पाप्याहारस्पेऽयोगिसिद्धावस्थयोरेवानाहारकत्वापत्तेः, तया व कर्मपुदगलादानसरखेऽपि सदानीमोवारिकरविपुदगला. दानाभावादनाहारकत्वं निरायाधमेति । अथ किमाधार विशेषमाश्रित्याशानाहारकन्यमाख्यायते?, उताहारसामान्य?, नत्र नाघः पक्षः सबंजीवानां सर्वदामाहारकम्पप्रमगात, पकस्याहारविशेषस्य सदभावेऽपि अन्यस्याहारविशेषस्याभावान् नाहि-औदारिकशरीरिणः, औदारिकशरीरपोषफौदारिकपुद्गलादानरूपाहारसम्वेऽपि वकियाहारकशरीरपोषकप्रक्रियाहारपुदगलादानरूपाहावशेषामाय ए. घ, पवं क्रियशरीरिणः क्रियशरीरपोपवेशियपुद्गलादानरूपाहारमत्वेऽपि औदारिकादिषुद्गलादानरूपाहारविशेषाभाष एव, पषमाहारकशरीरिण आहारक. शरीरपोधकाधारकपुद्गलादानरूपाहारमरचेऽपि औदारिकादिपुद्गलादानरूपाहारविशेषाभाष एवेति, तत्तदाहारलवेऽपि तसदाचारधिशेषाभावापेक्षमनाहारकर स्थादेष सदंर सर्वजीषानामिति, नापि द्वितीयः, नथाहि-यलिसमुद धाते तृतीयादिममयेषु औदारिकशरीरनामको दयाभावादनाहारकायं यस्मागुम तग्न स्यात् आहारमामान्यमाश्रित्य यदनाहारकाय तस्य केवलौदारिकशगैरनामको दयाभाषासाध्यस्थात, औदारिकशरीरनामकर्मी दयाभावेऽपि मियादा. रकशरीरिणी बैंक्रियाहारकशरीरपोषकक्रियाहारकपुदगलादानसावेनाहार करवादिति चेत् , न, अभिमायापरिज्ञानात् , अयं सत्राभिप्रायः, आहारसामान्यमाश्रित्यैवामाहारकायमत्र विवक्षित, ताहारसामान्य प्रति यथान्यौदारिकर्व किया. हारकाम्यतमशरीरनामफर्मादयत्वेन हेतुनेति तदन्यतमशरीरनामदयाभाव स्यैषाहारसामान्याभावरूपामाहारकन्धमाधमत्वमिति मदन्यतमशरीरनामदिया. भाषस्यत्र अनाहारकन्वं प्रति हेतृतयोपन्यसनीयम , तथापि यक्रियशरीरनामकर्मोदयस्याहारकशरीरनामकर्मादयस्य च प्रथमत पत्र व्यक्छिन्नावन केवलिनि तवभाषोऽस्त्ये घेति केलिगि नदुदय निबन्धनाहारशङ्का नास्त्येष, औदारिकशरीरनामकादयस्य च सयोगिचरमसमयं यावत् सद्भावेन कलि समुदशाते तृतीयादिममयेध्यपि तत्मायन कामनाहारकन्यं तंत्रन्यौदारिफशरीरमामकर्मोक्यमिघम्धनाहारकरवशङ्कायां तत्रौदारिकशरीरनामक दयाभावस्यथानाहारकर्ष प्रति हेतृतयोपन्यसनीयत्वमिति तयय भागुपन्यस्तमिति न क थिहोम इति ॥ पचमोजःप्रमृत्याहारकम पक्ष्यापि महारनिषेध पचानाहार कत्थं बोध्यमिति, ननु गृहीतमेतत् परं यत्प्राक् क्रियशरीरिणी घफियपुगसा. दानमाहारमत्वेऽपि औदारिकादिपुदगलादानरूपाहाराभाव पब, पबमाहारक Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) || समुपधातबारतियणे विजयनन्दनवगिविरचितं समुदधातास्वम् ॥ (द्वार शरीरिण आहारकपुदगलादामरूपाहारलऽपि औदारिकादिपुन गलादामरूपाहा. रामात्र पवेति, प्रथमपूर्वपक्षे प्रतिपादितं तक घटामियत्ति, क्रियाकधम तो तिर्यक्रमनुष्याणां वक्रियावस्थायां वक्रियशरीरनामकमाव यसवेन प्रक्रियपु. दंगलादानरूपाहारमदभात्रवत् औदारिकशरीरनामकर्मोदयम्णापि तदानी स. एवेन औदारिकपुद्गलादामरूपाचारस्यापि ममाषात् न च चैकियावस्थायामी. दारिकशरीरनाम कमायो नासत्येवेति वाच्यम, देवनार काणापौधारिकवरीरमामकाँदयामावेsपि यिमनुष्याणां न कियाथायामपि औबारिक शरीरसदभावेनौवारिकशगीरनामकोदयस्य सस्वादिति एवं, चतुर्दशपूर्वषिदामाहारकशरीरावस्थायामगि औदारिकशरीरस्य मद्भावेनौवारिकशरीरनामकदिय. सवमाधारकशरीरनामकवियेगाहारकपुद्गलाद मरूपाहारसद्भावदोदारिकपुर गलादानरूशद्वारस्यापि सद्भावादिति मंत्. न, कियाहारकारीगमम्थायामी वारिकशरीरनामको च्याभाषादेवीवारिकपुद्गादानझपाहाराभावात, यथासम्भ क्रियाहारकशरीरनामकर्मेधययोरेव च नदानी सम्बन धकियाहारकपुद्गलादामरूपाहारसदापात पाक धपक्षोतार्थस्य नुपपन्नत्याल, नक्षानीमौदारिकश. रीरसत्वस्यौदा ग्कशरीरनाम की दयसत्तामाधकत्वाभाषालय, अयोगिनो भगधन औवारिकशरीरमावेऽपि भौवारिकशारीरनामको वयाभावात, अन्यथा तस्याप्याहारकरवापते.. किश्च औदारिकशीवादिनामकर्मणां परावर्तमानप्रकृतिनया परिभाषितषेम परस्परमेकम्योदयं विनिवार्य बाम्यस्थोपय प्रवृत्तिः, तया च क्रियस्था हारकस्य षा करण काले औदारिकशरीग्नामको दयं विनिषार्थव क्रियशरीरना. मकर्मण माहारकशीरनामकर्मणो बोश्य प्रवृत्ति: मत पत्र चौदारिकशगैरनाप्रकर्म ण उदय नियनोधोरणापि वैश्यिशरीरिण आहारशरीरिणश्च प्रमुव्यय प्रतिपादिता कर्मप्रकृत्यादी, नथाहि- " आहारगणरतिरिया भरीरदुगधेयणे पमुसणं । ओगलाप मदुषंगाप समाजियाओ "ति, तवृत्तिम." आहारका औजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतमाहारग्राहिणी ये नग मनुध्यास्तियञ्चन 'ओरालापत्ति ' औदारिकशरीरनाम्न उपलक्षणादर्शदारिकपन्धनचतुष्टयम्योदारिकरड्यातनस्य चोदीरकाः, किमविशेषेण मर्वेऽपि, नेस्याह-शरीरतिकमाहा. रकंकियलक्षणं तर दकान त स्थान परित्यज्य ते पौवारिकशरीरनामकर्मोदय एय न वर्तम् इति सुनगं न तदुवीरका इति स्पज्यन्ते । तथा पषमुसप्रकारेण 'दुवंगाएसि ' नदङ्गोपाङ्गनाम्न औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नम्न पोरफा ज्ञातव्याः, कषलं ते सजीवा एषन स्थाषरा अपि, तेषां तदुश्याभावात् । उका '' आहा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा०८५) (२२७) री उसरतणु भरतिरि महीयप पमुतणं । उदीरति उराले, है चैष तमा उवंग सं॥५॥ अाहारांन्याहार शरिणः, उतरतणुति घक्रियशरीरिणों देवान्नारकॉध नरतिरधोऽपि तदकान प्रमुध्येति पूर्थि । " इति । ततः समु. दुधातारप्रतिनिवृत्तो मनोवाक्काययोगप्रयमपि पापारयति, यतः स भगवान भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रषेदनीयेचचिन्त्यमाहात्म्यममुघातषशतः प्रभूतमा. युषा मा समीपूतन्त्रप्यन्त मुहर्तभाविपरमपदो यदाऽनुसरोपपातिशादिना देवेन ममसा पृच्छयते तर्हि व्याकरणाप मनःपुद्गलान गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, नमपि सत्यममस्यामृषारूपं था, मनुष्यादिना पृष्टः मनपृष्टी या कार्यवशाद् गृहीत्वा भागपुद्गलान वाग्योग, समपि सत्यमसत्यामृषारूप वा । न शेषान वाहमनोयोगान क्षीणरागद्वेषरपात ! काययोर्ग चागममादिचेष्टासु, तथाहि भगवान कार्यवशतः कृतधित् स्थामात् विवक्षित स्थाने तथाविधत्तम्पातिमसपाकुलां भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुरुल धन प्रलधर्म वा कुर्यात, तत्र मइजात् पादषिक्षेपान्मगागधिकतरः पादविक्षेप उल्लङ्घन म पवातिषि. करः प्रलनधनं यदि वा प्रानिहारिक पीठफलकशय्यामस्मारकं पस्मादानीतं भस्म समर्पयेत् । अव बोध्यम् अज्ञापनायां भगवता आयश्यामंन । प्रनिहारि कपीठफलकादीनां प्रत्यर्पणमेषोक्त, ततोऽषसोयने नियमावन्समुहविशेषायुक एषाकिरणादिकमारभते न प्रभूतापशेषायुष्कः, अन्यथा प्रहणस्यापि सम्भवात्तदप्युपादीयेत । पतेन पदाहुरेके-जघन्यतोऽग्गहने शेषे ममुदुघातमारभते उत्कर्षतः षट्सु मासे गु. शेविति तदपाहत द्रष्टव्यम, पदसु मासेषु कदाचिदपारतराले वर्षाकामसम्भवात तनिमित्त पोटफलकालोनामादानमप्युपपधेत, न च तत सूत्रसम्मत मिति सम्परूपणभुस्सुधमबलेयम, पतञ्चोत्सवं आवश्यकऽघि समुनधानानम्तरमव्यवधामेन शलश्यभिधानात, तरसत्रं स " इण्डकपाडे मयतरे व संदारणासरीगधे । भाना. जोगनिरोहे सेलमी सिग्मणा घेष ॥ १ ॥" यदि पुनरुन्कर्गत: पानासारामपाम्तराल भवेत् । ततस्तवप्यभिधीयेत, न चोक्तं तस्मादेव भयुक्तमेमदिति, मथा चाह माध्यकार:-"कम्मलयाप समओ भिन्नमुहप्तावसेसओ कालो । अग्ने जहन्नमेयं छम्मासुकोसमिच्छति ॥ १ ॥ ततोगतरसे लेमोधयण भी अं च पाहिहारीणं । एचप्पणमेव सुप हारा गहणपि होम्जाति ॥ २॥ ' अत्र कमलघुतानिमितं समुद्घातस्य समयः अवसरी भिनमुषिशेषकालः, शेष सुगमम, तदेषमम्त मह कालं यथायोग योग त्रयव्यापारभाक केवली भन्या न. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) । समुद्यातमाटिप्पणं विजयनन्दमसारविरचितं ममुमानतत्वम द्वार तोऽन्ततम योग निरुधामस्तृप्तीयं शुक्लध्यानभेदं परिसमापयति, योगनिरोधस्वरूप व कस्तषप्रकाशे" अस्माभिः प्रपचितमिति नेह प्रतभ्यते । तषि काययोगनिरोधकालान्तरे वरमेऽन्तर्मुहले वेदनीयाविषयस्य प्रत्येक स्थितिः सर्षापवर्तनया अपवायोग्यवस्थासमामा क्रियते गुणणिकमविरचिनप्रदेशा, तद्यथा प्रयस्थिती लोकाः प्रदेशाः, द्वितीयस्यां स्थिती ततोऽसल्येयगुणाः, तृमीयस्यां ततोऽप्यसङ्गल्येय गुणाः, पवं तावाच्यं यावच्चरमा स्थितिः, एताः प्रथमतमयगृहीतलिकनिर्वतिताः गुणश्रेणयः, एवं प्रतिममगगृहीतलिकनिर्वतिताः कर्मयस्य प्रत्येकमसयेया द्रष्टव्याः, अन्तर्मुहत्तं समयानाममण्यातत्वात् आयुषस्तु स्थितियथावधावतिष्ठते मा च गुणथंणि कमविपरीतक्रम दलिकरचना योध्येति । ततः स्वात्मनेष काययोगमचियश्रीयंप्रभाषा नि. रुध्य समुच्छिम्नक्रियाऽभिवृसिसंझं चतुर्थशुक्लध्यानभेदं ध्यायतीत्यलम् । अथ वेदनादिसमुदूधातानां फिस्स्विरूपं लिख्यते-तत्र वेदनया-असद. नीयजमिनया पीडया हेतुभूतया समुद्धातो वैपनाममुपातः, वेदनाऽऽकुलितो घाकुलीभूतो जीवः स्त्रप्रदेशाननम्नानन्तकर्मस्कन्धष्टितान शरीगद् बहिरणि प्रक्षिपति, तंभ प्रदेशजठरमुखबाहादिशुषिराणि कर्णस्कन्धाधनगलानि चापू यामतो विस्तारतम शरीरमा क्षेत्रमभिव्याप्यान्समुहस यातिष्ठनि, तस्मिमास्तमहसे प्रभूतासात घेवनीयकर्मयुद्गलशातं करोति, तसः समुदुघाताग्मि. श्य स्वरूपम्यो भवति ॥ कषायैः-क्रोधादिभिभूतः समुद्धातः कषायसमुदघाता, तीनकषायोदयाकुलितो हि प्राणी स्वप्रवेशानमन्मानन्सफर्मस्कन्वयेष्टितान बहिः प्रक्षिपनि, तेश्च भवेशैदरास्यकण्ठादिशुषिराणि कस्कन्धाधन्तरालानि च पूरयित्वा आयामविस्तराभ्यां दहमा क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्त यात्तिष्ठति, सत्र चान्तमुहले ममूतकषायमोहनीयकरपुदगलशानं विदधाति, समुदवानाप्रिवृस्य स्वरूपस्थो जायत इति ॥ मरणमेष प्राणिनामस्तकारित्वावरतो मरणास्त। तत्र भषो मारणालिका म चासो समुद्धात मारणान्तिकमा मुद्याता, मरणममयेऽन्तर्मुतिशेष स्थायुषि केंचिवसमतोऽमु कुर्वन्तीति मारणास्तिक उच्यते अयं चैन्य प्रष्टव्यस्तद्यथा-कशिजीयोऽन्तर्मुहर्त शेषे स्वायुषि स्त्रशरीरविरकम्मवाहरूयाग्वितमायामतनु जघन्यतोऽगुलामहमयेयभागमा उत्कृष्ट नमसड़ख्येयानि योजनानि शरीराबहिः स्त्रप्रदेशदण्ड मिमृजति, निमृश्य च यत्र स्थानेऽभेतनभये समुत्पत्स्यते तप स्थाने ते स्वदेशदण्डं प्रक्षिपति, नचात्पसिस्थान ऋजुगस्या पकेनैव समयेन प्रदेशदण्डः प्राप्नोति, विष हगन्या तृन्कृ RO Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२मुं) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८५) ( २२५.) तु समये प्राप्नोति । तथाहि - या जीवस्य मरणस्थानादतन भत्रीपत्तिस्थानं समश्रेण्यां प्राञ्जलमेव भवति तदा प्रदेशदण्डः पकेनैव समयेन तवामोति ऋजुगतिश्चयमुच्यते । यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं किक्षिहु भवति यथेशान कोणोपरिभागाचाग्नेयकोणाधस्तनभागः, तदा प्रथमम मये ईशान कोणोपरिभागादाग्नेय कोणोपरिभागं गत्वा तदधस्तन भागलक्षणस्योत्पत्तिस्थानस्य समथेणि प्रतिपद्यते, लोषपुद्गलाना मनुथेगिम नाप्रथम समय पोलिस्थानाप्राप्तेः ततो द्वितीयसमये कश्रेण्यन्तरारम्भरूपं विग्रहं वि धाय तदुत्पत्तिस्थानं जीवप्रदेशदण्डः प्राप्नोति मिश्रहगतिरुच्यते, पकेन यॠण्यन्तरारम्भरूपेण विग्रहेणोपलक्षिता गतिर्विग्रहगतिरिति कृत्वा । यदा पुनर्भरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं चक्रतुरं भवति यथा तस्मादे ये शानकोणोपरिभागाने कोणाधस्तनप्रदेशः सदा प्रथमसमये प्रदेशदण्डो वायव्यकोणोग रिभागं गच्छति, ततो द्वितीयसमये विग्रहेण नकेल कोणापरिभागमागच्छति तृतीयसमये विप्रदेय नवस्तन भागस्वरूपमुत्पत्तिस्थान मषाप्नोति । इयश्व विग्रहश्योपता त्रिसमया विग्रहगतिरुध्यते न बैते त्रयः समया अन प्रकारेण सम्भवन्तीति प्रतिपश्यम किन्तुक्तानुसारेण सुधियाऽन्यथापि भावनीयाः उपलक्षणमात्रस्यास्य पर्व पूर्वमुत्तरत्रापि योध्यम एवं सनाच्या वद्दिषिदिव्यवस्थितस्य मतो यस्य निगांदादेरधोलोकालोके उत्पादो नाडा चह्निरेव दिशि भावी, तस्य प्रदेशदण्डोऽवश्यमैफेन समयेन विदिशो दिशमागच्छति द्वितीयेन नाहीं विशति तृतीयेनोलक अति, चतुर्थेन लोकनाडीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति यश्च विविग्र हा चतुःसमया विग्रहगतिरुच्यते इति ॥ अयमपि मारणान्तिकसमुद्घानीमौसिक पत्र, तस्मिवान्तर्मुहुर्ते प्रभूतायुः कर्म पुद्गलशातं करोति । वैक्रियश रामकर्मविषयः समुदघातो क्रियसमुद्घातः, अथवा वैक्रियशरीरकरणकालविषयः समुदघानां वैश्रियममुदुघातः, अयमपि वेत्थं प्रतिपसव्यः यथा मैक्रियशनरीरलब्धिमान जीवो क्रियकरणकाले विश्वम्भाभ्यां शरी प्रमाणं आयामस्तु जघन्यतोऽगुलसंख्येपभागमाश्रम उत्कृष्टतः पुनःलड़येयानि योजनानि शरीरादिः स्वप्रदेशषण्डं निसृङ्गति, निसृज्य च यथास्थूलान कियशरीरनामकर्म पुद्गलान प्रागषद्धान् शातयति यत उक्तम् यलमुचाप समोहगह समोहजित्ता संखेजाई जोयणाई दण्डं नि. मिरद्द २ हा अाधारे पुग्गले परिसाउँछ । मि. अयमपि च समुद्रातील Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०)। ममुवघानद्वारटिप्पणे विजयनन्दनसरिविरबित समुयानतरवम् ।। (द्वार मौतिक पष, ततः परं वैफियतमात्या स्वरूपस्थत्वादिति, पत्रं तेजोषिषयः समुचानस्तेजससमुद्घानः, नत्र तेजःशब्देन तेजमशरोरमभिधीयते, तरकारणभूतं घोपचारातजसशरीरनामकर्मात्युच्यते, अयमपीत्थं भावनोयः- यथा ते. जोनिमर्गलधिमान कुमः साध्यादि: सप्ताष्टी पदाम्यषष्वक्य विष्कम्भवाह ल्याभ्यां शरीरमानम, मायामनस्तु जघन्यनोऽगुलमरूयेयभागमुस्कृष्टतः पुनः सख्येयानि योजनाम्पनन्ततेजसशरीरस्कन्धष्टिनामां जीवपदशानां दई शारीराद बहिः प्रक्षिपति, तत: कधिषिषयीकृत मनुष्यादि निर्दछति, पषोऽपि समुद्घातोऽन्त हत्तप्रमाण पत्र, तर चातहत प्रभूतांस्तैजःशरीरनामकर्मपुदगान् शातयति, ततोऽन्त हत्तीत समुदघातानिवृश्य स्वरूपस्थी भवति । पञ्चसापहम् नदीकायां तु.." तेजाले श्यासमुद्घातोऽपश्यं कषायसमुद्घातपूर्वको या कायाग्निः प्रथम अठरे, सम्भषांस नः स धजवान मुखेन मिर्गसईस्ते बोलेश्योध्यते " इति विशेषः इति । आहारकशरीरनामकर्मविषयः समुद्र घातः आहारकसमुचान अयमपि यक्रियसमुदघातवदेव भावनोयः, तथाविआहारकशरोरलब्धिमान् चतुर्दशपूर्व विद् आहारकशरीरकरणकाल विष्कम्भ. बाहल्याभ्यां शरीरमानम, आयामतमनु जघन्यतोऽङ्गुलमण्येयभागमुस्कृष्तस्तु संख्येयानि योजनामि शरीरादतिः स्त्रप्रदेशदण्ड निमृजति, निमृज्य च य. थास्थूवान प्रभूनानाहारशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रागप्रदान शातयति. अय. मात्यन्त नेमानः, अम्तमुहर्ताकच समुद्घातानिवर्तत होत, अदं दोश्यम छक्रियाहारकशरीरकरणाथै निर्गता जोधप्रदेशास्तचोग्यान पुगळान, गृहोरषा तछरीरं निपावयन्ति तस्य पद पर्याप्तयो युगपत्प्रारभ्यरते, ततः शरीरपर्यातिमन्तमुहर्तन मियादयग्ति, शेषाः सामयिक्यः । औदारिकस्य सु प्रथम। मामयिकी शेषा मान्नमत्तिकाः इति । पर्याप्तिस्वरूप 'षडशीतिमाशे" प्र. पवितमिति नेह प्रतम्यते ॥ अधात्र केवलिसमुदुघातः केवलिमनुजामामेश भवति, नाम्येषां, छाअघि कास्तु सर्वचामपि छग्रस्थानां भवन्ति, तत्र केषां कति भवन्तीति नायिकादिवण्डककमेण निरूप्यते, सत्र नैरयिकाणामाचारवाणे यदनादिसमुवधाताः, तषां तेजोलध्याहारकलमध्यमावतस्तैजससमुन्धाताहारकसमुदघातामम्भवात्, असुरकुमारावीनां सर्वेषामपि देषानामाचारकसमुदधातवाः शेषाः पक्ष समुघाताः तेषां लेनोलब्धिसम्मयेन तजससमुद्घातस्यापि सम्भवात, यस्स्वाहारकसमुपातः स तेषां न सम्भवति, पर्दशपूर्वाधिगमाभावतो भषप्रत्ययाच्च Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु १२) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (मा0 ८५) तेषामाहारकलमध्यभावात् । वायुकायवकन्द्रियश्किलेन्द्रियाणामाया वेदनाकघाबमरणलक्षणायः समुदघामाम्लेषां वैक्रियाहारकतेजोलमध्यभायतस्तत्समुद्घातासम्भवात् । वायुकायिकानां पूर्व प्रयो यक्रियममुद्घातमहिताश्चत्वारः समुशताः नेषां यादरपर्याप्तानां चैक्रियल विधासम्भवतो विकिय समुदघास्यापि मम्भवात । प्रवचनसारांद्वारे तु एकेन्द्रियाणां तेजमसमुदयातोऽपि प्रतिपादितः, यमुक्त हैकत्रिंशवधिकद्विशततमे बारे " एगिदीणं कैलिआहारगजिया इमे पंच । पंचाथि अवउच्चा बिगलासन्नीण चत्तारि " इति पगंदीत्यादि. एकेन्द्रियाणां पृथिव्यावीनां केथलिकाहारसमुद्रातजिता मे आपा पा समुद्याता भ. वन्ति, पश्चापि चने चकियजिताभधारः ममुराता धिकले न्द्रियाणामसंक्षिपश्ने स्त्रियाणां च भवन्ति, इयच गाथा प्रकापनापञ्चसंग्रहजीयममामादिशामाम्नरेः सह विलंवति, तेष्वेकेन्द्रियाणां तजसममुदधातम्य प्रतिषिद्धया"दिमि सदघृती । पञ्चेन्द्रियनियंग्योंनिकानामाहारकसमुदघातयाः शेषा: पञ्च छाप. मिथका: समुद्घाताः यस्याहारकममुदघानः म संषां न मम्भवति, चतुर्दशपूर्वा. . धिंगमाभावतस्तेमामाहारकलब्ध्यसम्मयात, मनुष्याणां पडपि, मनुष्येषु मयभा. बसम्भवाल इमि सक्षेपः ॥ विस्तगर्थिभिस्तु प्रशासनादयो पिलोकनीयाः । तदेवं निरूपितं मनरत स्वतन्त्र-शासनसनाट्-सूरिचक्रवत्ति जगद्गुरु तपागच्छाधिराज-भट्टारकापायश्रीमद्विजयनेमिनरिभगवासाम्राज्ये तत्पट्टालकामिदान्तवाचस्पतिन्यायधिशारः ५ श्रीमद्विजयोरयसूरीश्वरपभृता विजयनगदमरिणा आगमोपपत्तियुत स्वघुश्यामदं किञ्चित् समुद्घातस्त्ररूपं. तावं त्वत्र सर्वत्र फैलालोकशालिनी भगयन्त पर्व विदरतीति । सुधाधारामारनिखिलभुवनानां प्रशमयन समम्तास्तापारनिशममलोऽन्तर्वहिरपि । अचिन्त्यैश्वर्योऽयं विवुधगणसम्पूजिततनुः स्थितः कोऽपि पौडो जयति जलदः स्तम्भनपुरे ॥ १॥ यदीयचरणाम्युजं वियुधभृङ्गमंसेविनं श्रितं सकदापि प्रणाशयनि पापगशि मनाम | पदेन जिनशामनोन्ननिनिवद्धचेनास्तपाधिपः म 'जगली गुरुजयनि नेमिनरीश्वरः॥२॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२) । समुद्रातद्वारदिपणे विजयनन्दनसरिविरचितं समुदघालताधम् !! (हार सिद्धान्ताश्च नयाः कणादकपिलव्यासाक्षपादोद्भवा भार सोनपिनी यारगा येनाखिला दिनाः । तत्तभव्ययहार्थशास्त्ररचनासंप्राप्तसद्गौरवः सोऽयं श्रीगुरुनेमिसरिभगवान् भट्टारको नः श्रिये ॥ ३ ॥ तस्य पट्टधरः पूज्यः सिद्धान्तशिरोमणिः । विजयोदयमरीशस्तस्य पटभृता खलु ॥ ४ ॥ समां श्रीमनां नेमिमरीश्वगणां. पदाम्भोरुहाणां मुसेवानुभावात् । मया नन्दनारख्याभूना मरिणेदं, ममुरातनत्वं भ्यरूपोह किश्चिन् ॥५॥ किञ्चिद् गुरूपदेयोन किश्चित् सिद्धान्तसागरात् । किञ्चिनर्कण सिद्धान्ता- विरुद्धनात्र दर्शितम् ॥ ६॥ घुद्धेन्धिं चञ्चला चित्तवृत्तिः, सिद्धान्नार्थग्रन्थयों ज्ञानिगम्याः । भ्रान्त्या मोक्तं यच्च किश्चित्प्रमादात् शोर्य सनिः मार्थये नम्रचित्तः ॥ ७ ॥ वेदायाङ्कन्दुमानेऽब्दे स्तम्भतीर्थ महापुरे । पञ्चम्यां ज्येष्ठ शुक्लस्य गुरौ पूर्णीकृतं भुभे ॥ ८ ॥ विनिर्माय मयेदं यत् सुपुण्यं समुपार्जितम् । भद्र भवतु तेनात्र भव्यलोकस्य सर्वदा ॥॥ इति श्री महावीरप्रभुशासनोद्धरणधुरीणयथावस्थिततत्यप्रणयनप्रवीणविशुदधीमाम्राज्यविद्वन्दवन्यपवित्रचरणयुगलकलिकालात्महिताद्वितीयमाधन श्रीशत्रुञ्जयरेवनसम्मेतशिखरप्रभृन्यनेकमहापवित्रतीर्थसंरक्षणेकपरायण ग्रथिनानेकमव्यसत्वोपफारक तश्चमभान्यायप्रभापतिमामाडानेकान्तनाचमीमांसान्यायसिन्धुसप्तभंग्युपनिषबृहल्लघुपरमलहेमप्रभायनेऋग्रन्थ श्रीभगवत्याधनेकयोगाइहनरिमन्त्रसमाराधनपूर्वक प्राप्तमृरिपदसर्वतन्त्रस्वतन्त्रशासनसम्रा-मूरिचक्रचक्रवति-जगद्गुरु-तपागच्छाधिपति-संविग्नशाखीय भट्टारफाचार्यश्रीमधिजयनेमिसुरिभगवत्पट्टालङ्कारसिद्धान्तवाच पति-न्यायविशारदाचार्यश्रीमद्विजपोदयसूरीश्वर__ पछ्याश्रीविजयनन्दनसरिविरचिनः ॥ समुदघाततत्त्वनामा ग्रन्थः ॥ -Ratop Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। समुद्घातयन्त्रकम् ॥(७ प्रतिद्वारी) (२) केदलीचार समुद्रघातनाम i स्वामि माम ! काळ । व्याप्त क्षेत्र । कोण कर्माभित? आकार | फळ प्राप्ति -- -- वेदना समु० पंदनाधी अनि व्याकुळ पयेला अम्तमुहर्त स्वदह प्रमाण । सब जीवोने अशाला । देह वेदनीय दंडाकार वेदनीयकमनी सर्वभवमा अतिनिजरा | अनन्तवार लोकप्रकाशे तृनीयः सर्गः ॥ (सा. ८५) करायथो अति कषायमोहनीय । कवायना समु०. व्याकुळ ययेला फषायकमी आननिर्जा अतिबंध । स जीवने अयोगिविना प्रायः सर्व मरण सम | मरण ममु. जीघाने . उत्पसिक्षेत्र । पयन्त दीर्घ पायुष्य दंड,कोणी, आयुष्यक-नी मने एक भषमा हळ, . अतिशीन. २ बार गोमूत्रिका निजंग । (अन्तर्मु. अति शेष) ' * पत्रमा केटलोपक विषय प्रस्तुत प्रन्यमां नहिं कढेलो पण लख्यो छे, गतिमाहाकार, एक वफातिमा कोणीआकार, विक्रमतिमांडळ आकार तथा धिवक अने चतुर्वक्रगतिमां गोमत्रिकामाकार, (२३३) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।" समुद्घातयन्त्रकम् ॥ (७ प्रतिद्धारो) (२३४) उत्तर क्रिय वैक्रिय समु. .. पैकियकर्मनी | निरा, अने; मयंभत्रमा दीर्घ ! धं० वर्गणानु ! ममतगार | भन्तमहत संख्येय योजन| क्रियशरीर नामकर्म रचनारने दण्डाकार ग्रहण. तेजोलेश्या जस समु! मुकनार (अनारक) जीवाने तेजसशरीर नामको ते फर्मनी निर्जरा अने ते वर्गणानु अहण ॥ समुद्यातद्वारयन्त्रकम् ।। माहारक समु० हश्विवन्त १५ पूर्वधरने महाधिदेछ । माहारकशरीर पर्यन्त मामकर्म आहार कर्मनी निर्जरा सर्वभवसां. मने आदा० । बार भने एक वर्गणानु ग्रहण. मका नाम-गोत्र-वेदसयोमी संपूर्ण : माम-गोत्र- दट,कपाट, नीयनी स्थिति सर्घषमा केहि समु० ! कंबलीये ८ समय । कोकाकाश मेदनीय मंधान, मायुध्य जेटली एकवार, बोकाकार. याप, । कलिसमुरघात कोण करे ? ते बिचारमा पेज १९.८मा मा 'छम्मासाऊसस' ए गाभानो सामान्य अर्थ लाम्चो छ ते गुणस्थानकमारोहना मर्या पण उतारी शवाय अने तेनो चिशेपा आव० वृष्णि अनुसारे आ प्रमाणे ई. अन्तमहतघी मांडी छ मास सुपीनुं आयुष्य बाकी होय तेभाने केवलद्धान थयु के ने • निश्चयी समुद्घात करंज. भने सभी उपरतुं मायुष्य वाही होन ते समु. भी बाच एटले न करे मम्बा भाज्य एरले करे या न फरे इनि विशेषः । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५) ॥ लोकप्रकाशे हतीयः सर्गः ॥ (सा० ८५) (२१५) विवक्षितभवादन्यभवे गमनयोग्यता । या भवेदेहिनां साऽत्र, गतिर्गतं च कथ्यते ।। २७९ ॥ इति गतिस्वरूपं १३ ॥ विव. क्षिते भवेऽन्येभ्यो, भवेभ्यो या च देहिनाम् । उत्पत्ती योग्यता साऽत्रागतिरित्युपदर्शिता ॥२८० ॥ एकसामयिकी संख्या, मृत्यूत्पत्त्योस्तथाऽन्तरम् । द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यन्ते, तद्द्वाराणि पृथइ न तत् ॥२८१ ॥ इत्यागतिस्वरूपं १४ । विवक्षितभवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भये यत्सम्यक्त्वाद्यश्नुतेऽङ्गी,सानन्तराप्तिरुच्यते॥२८२॥ इत्यनन्तरावाप्तिस्वरूपं १५। बहाना नृतादिशामों, सावन्तोऽधिकृसाजिनः । सिद्धपन्त्येकक्षणे सैक-समये सिद्धिरुष्यते ॥ २८३ ॥ इत्येकसमयसिद्धिस्वरूपम् १६ ।। अर्थ- गतिबारम्-विधक्षित अमुक भवमाथी जीवने वीजा भवमा जवानी ने योग्यता से गति अथवा गत कवाय . ॥२७९॥ इतिगतिहारम् ॥ १४ आगतिहारम-बीजा भयोमांधी जीयोने विवक्षित असक भवर्मा आवयानी (उत्पम पचानी) जे योग्यता ने आगति कहेली छे ।। २८० ।। तथा एक समयमां कया जीवो केटला उपजे अने मरे तेनी संख्या अने ते भषमा केटका काजमुधी कोइपण जीव पजे नहि तेम मरण पण पामे नहि ते अममरण अन्तर अथवा विरह पण या बारमांज फहेवाशे माटे मारो जुदा पाडया नथी. इति आगतिवारम् ॥ २८१ ॥ १५ अनंतराप्तिद्वारम्-विवक्षित (अमुक) भरमाथी परण पामी अनन्तर चता भवमा उत्पन थइने जीव जे सम्यकत्वादि लाभ त्यां पामे ते अनं. तराप्ति कवाय. ॥२८॥ इति अनंतराप्तिबारम् ॥ १६ एकसमयसिद्धिद्वारम्-मनुष्यपणुं विगेरे सामग्री पामीने अधिकृत (अमुक गनियाळा) जीवोमांना जेटला जीवो एक समयमा पोक्षे जाय ते कहेवू ते एकसमयसिद्धि कोवाप के. ॥२८॥ इति एकसमयसिद्धिद्वारम् ॥ कृष्णादिद्रव्यसाथिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिक१ अमुक पृथ्वीकाय पिगेरेमांथी का कह गति आदिमां जाय में गति २ अमुक पृथ्वीकायविगेरेमां कोण कोण जीयो भागे से आगति कहेवाय, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) ॥ लेयास्वरूप, मनविचारनिश्श्रयः ॥ .. (हार स्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥२८४॥ द्रव्याण्येतानि योगान्तगतानीति विचिन्त्यनाम् । सयोगत्वेन लेश्यानामन्वयव्यतिरे. कतः ॥२८५॥ यावत्कषायसदभावस्तावत्तेषामपि स्फुटम् । अमून्युपबृंहकाणि, स्युः साहाय्यककृत्तया॥२८६॥ दृष्टं योगान्तगतेषु, द्रव्येषु च परेप्वपि । उपवृहणसामथ्य, कषायोदयगोचरम् २८७ यथा योगान्सर्गतस्य, पित्तद्रव्यस्य लक्ष्यते । क्रोधोदयोद्दीपकरवं, स्थायच्चण्डोऽतिपित्तकः ॥२८८॥ द्रव्येषु षाह्येष्वप्येवं, कर्मणामु. दयादिषु । सामथ्य दृश्यते तरिक, न योगान्तगतेषु सत् ? २८९ सुरादध्यादिकं ज्ञानदर्शनावरणोदयोतत्क्षयोपशमे हेतुभवेब्राह्मीवचादिकम्॥२९०॥एवं च॥ कषायोद्दीपकत्वेऽपि,लेझ्यानांन तदा मता । तथावे ह्यकषायाणां, बेश्याऽभावः प्रसज्यते ॥ २९१॥ . लेश्याः स्युः कमनिस्यन्द इति यत्कश्चिदच्यते । तदप्यसारं निस्यन्दो, यदि तत्कस्य कर्मणः ? ॥ २९२ ॥ चेयथायोगमष्टानामप्यसौ कर्मणामिति । तच्चतुष्कर्मणामताः; प्रसज्यन्तेऽप्ययोगिनाम् ॥२९३॥ न यद्ययोगिनामेता, घातिकमक्षयान्मताः । तत एव तदा न स्युर्योगिकेवलिनामपि ॥२९॥ ननु चायोगस्य परि. णामत्वे. लेश्यानां हेतुता भवेत् । प्रदेशवन्धं प्रत्येव, न पुनः कर्मणां स्थितौ ॥ २९५ ॥ 'जोगा पयडिपएस, ठिइअणुभागं कसा. यओ कृणई' इति वचनात्, [योगात्प्रकृतिप्रदेशं स्थित्यनुभागं कषायतः करोति (सा० ८६)॥ अत्रोच्यते ॥ न कर्मस्थितिहेतुत्वं, लेश्यानां कोऽपि मन्यते । कपाया एव निर्दिष्टा,यत्कर्मस्थितिहेतवः॥२९६॥ लेश्याः पुनः कषायान्तर्गतास्तत्पुष्टिकृत्तया । तत्स्वरूर तत्र प्रदेशबन्धो योगानदनुभवन कषायवशाम् । स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेझ्याधिशेषेण ॥ १ ॥ (प्रशमरतो) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७) ॥ लोकप्रभारी स्मृतीय सः ॥ (स! ४७ (२६७) पा एवं सत्योऽनुभागं प्रति हेतवः ॥ २९७ ॥ एतेन यत्क्वचिक्लेश्यानामनुभागहेतुत्वमुच्यते, शिवशर्माचार्यकृतशतकग्रन्थे च कषायाणामनुभागहेतत्त्वमुक्त तदभयमप्युपपन्न, कषायोदयोपबहिकाणां लेश्यानामपि उपचारनयेन कषायस्वरूपत्वादिस्याद्यधिक प्रज्ञापनालेश्यापदवृत्तितोऽवसेयम 1 (सा० ८७) ___ अयं-१७ लेश्याबारम-कृष्णादि द्रव्यना संबंधधी ! स्फटिका जेम कृष्णवादि देवाय से नेमा प्रकारे कृष्णादि लेश्या व्यथी । म्फटिक सरखो आन्मानो जे परिणाम ने परिणामपां लेल्या शब्द प्रयत के ( अर्थात ने परिणाम " लेश्या " पका नामी ओळखाय छे. ) ॥२८४ ए कृष्णादि लेश्याहव्यो मयोगपणानी साथे लेश्यानो अन्वयध्यनिरेक संबंध होची योगान्तगन ले पम जाण ॥ २८५ ॥ ज्यांसुधी (१०गुणसूत्री) कषायनो उदय के न्यांमधी ने कषायोने मगरीने आ लग्याद्रष्यो महाय करनार होवाथी पायोने उपकार करना है. ॥ २८६ ॥ बळी योगान्नगन (देशमा परिणमेला) बीजा न्योमा (-वीला पदार्थोमां, पित्तादिकमां ) कषायने प्रमट करवा संबंधि उपकार करवान सामय प्रत्यक्ष छ २८७ जेपके योगाननगन पित्तदन्यमा क्रोधनो उदय करवामा उद्दीपकपणु(-विशेषजाज्वल्पमान करवानो स्वभाव ) प्रगट जणाय छे जेथी अतिपिस प्रकृनियाको १ स्फटिक गन्नमा जेना गनो पोगे उतारोप नेत्रा गवाई स्फटिक रग्न देवाय नेम आन्मामा जेया प्रकारनां लेश्यालय उदय या प्रकारमो आन्मपरिणाम शाय र तात्पर्य छ. हि स्फटिकसबधि शम्त देष अने मारक जीवानो अपेक्षा अन्यथा नियच मनकब ने वानसरसो लेश्यापरिणाम होय छे. २. "यम्मन्ये नसायमन्ययः" "यभावे सदभायो व्यतिरेक:' कारण होते छते कार्य छोय, ते कारणनी माथे कार्य नो अन्यय सम्बन्ध कटेयाय, कारणमा अभावे कार्यनी पण अभाष थाय छे ते व्यतिरेक सम्बन्ध पटल ही मयोगपण तेरमागुण टाणा सधी लेश्या होय (ने अग्मयअनेमयोगपणाना अभाषे चौरमे गुणस्थाने तथा निमपणामा लेश्यानी अभाव रे ते व्यतिरेकालम्बन्ध.. ३ मन वचन कायाना योगरूपे परिणाम पामेल इष्प ते योगामार्गत वष्य कहेवाग ( विशेष विस्तार इलंगध्ययनथी जाणयो.) ४ चान पिन अने कफ पत्रण काययोग परिणत होषाथी योगारतर्गतद्रव्य कहेवाय. परन्तु ए योगान्तर्गत बाब अव्य छे. ममे लेश्या पुनको योगा तिगत अभ्यन्तर द्रव्य गणाय. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बार (२३८) ॥ लेश्यास्वरूप मनविचारनिश्चयः ॥ जीव महामोधी होय छे. ॥ २८८ ॥ ए प्रमाणे जो चाय पदार्थोमा पण कर्मनो - उदयादिरूप (पायोदय सामर्थ्य) देखाय छे तो योगान्तर्गत (लेश्या) द्रन्पोमां ते सामर्थ्य केम न देखाय ? ॥ २४९ ।। झानावरणकमनी चदय करवामां मदिरा पगेरे, अने दर्शनावरण कंपनी उदय करवामां दहिं बगैरे, सधा पानापरणमो क्षयोपशम प्रगट करवामां वाली वनस्पति वगेरे. अने दर्शनावरणनो क्षयोपशम प. गर करवामां बज विगेरे जेम कारणरूप मे.तेम कषायने उद्दीपन करवामा लेश्यान्य कारणरूप के. ॥ २९० ॥ अने ए प्रमाणे लेश्याओयी फषापर्नु नहीपकपणुं हो ते छते पण लेश्याओगें नहपपणुं (कपाथात्मकना) यतुं नधी अने जो तेमन याप सो अकपायी (११-१२-१३ मा गुण वाला) जीवोने लेश्यानो अभाव याय ॥ २९१ । लेपा ए कनिःस्यद (कर्मनो विकारमाच) छे एम केटलाएफ कहे ते पण असार छे. कारणके जो कर्मनिस्पंद छ तो ते कया कनो निःस्यद छे ! ।।२९२ ॥ जो कहो के ए नि:स्यद यथापोग्य आहे कर्मनो छे, तो चार कमवाळा अयोगी भगवानने पण ते लेश्याओनो सद्भाव होय. ॥ २९३ ॥ बळी जो कहो के घानीफर्मनी क्षय यायी अयोगीने ते लेश्याभो मानेली नथी तो ते घाती कर्मना क्षपयीन सयोगि केलीओने पण लेश्याभो न होय. २९४ ( मा रत्तरोनुं समापान रहेवा दह बादीए पुनः प्रश्न कर्यों के) प्रश्न-श्याओ योगपरिणामी होते छते ते सेश्याओ कमना प्रदेशबंधांज कारणभूत होय, परन्तु कर्मनी स्थितिमां कारणरूप न होय ॥ २९५ ॥ कथुके के-" प्रकृनिबंध अने प्रदेशबंध योगथी करे के, अने स्थितिबंध तथा अनुभागबंध कषायपी फरे है." वचनथी. ( लेश्या प्रदेशबंधमां कारण भूत होप.) उत्तर-लेश्याओने कमेनी स्थितिमा कारणभून कोइपण मानतुं नयी कारणके कर्मनी स्पिनि बांधवामा नो कषायोज कारणरूप कहेला छे. ॥ २९६ ।। परन्तु कषायमा अन्तर्गतपणे रहली वेश्याओ से कषायोने पुष्ट करनारी होवाथी कपाय स्वरूपवाळी घइ छती अनुभाग प्रत्ये कारणभून गणी अकाफ. ( परन्तु स्थितिधर्मा लेश्याओ कारणिक न गणाय.)॥२९७॥ए कारणथी कोइफ ठेकाणे लेश्या- । मोने अनुभागबंधा कारणभूत कही है, अने श्रीशिवशौमार्यकृत शतक . १ अर्थात् मदिरा पोसाथी ज्ञान मन्द थाय छ. अमै वा वाघाची निद्रा अधिक आवे छे तथा बानी बनस्पति खाधापी बुद्धि-शाम बधे छ, भने बज खाचाथी उन ओछी थाय छे. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] ॥ोकपकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८७) (२३९) ग्रन्थमां कषायोने अनुभागबंधा हेतुरूप कमा ले. माटे र पन्ने वात सत्य यइ, कारणके कपायना उदया उपकार करनारी लेश्याओ पण व्यवहार नपथी कपाप सरूपन कवाय इत्यादि अधिक विस्तार प्रज्ञापनासूत्रर्मा लेश्यापदनी वृसिपी जाणवो. ॥ [ लेख्याभेदो तथा विशेष वर्णन ] सा च षोढा कृष्णनीलकापोतसंज्ञितास्तथा। तेजोलेश्या पनसेश्या, शुक्ललेश्येति नामतः ॥ २९८ ॥ खलनालनजीमूतभ्रमनमरसनिभा । कोकिलाकलभीकल्पा, कृष्णश्या स्ववर्णतः ॥ २९९ ॥ पिच्छतः शुकचाषाणां, केकिकापोतकण्ठतः । नीलाजवनतो नीला, नीललेश्या स्ववर्णतः ॥ ३०० ॥ जैत्रा खदि. रसाराणामतसीपुष्पसोदरा । कापोतक्षेश्या वर्षेन, वृन्ताककुसुमौजित् ॥ ३०१ ॥ पद्मरागनवादित्यसन्ध्यागुलार्धतोऽधिका । तेजोलेश्या स्ववर्णेन, विद्युमाकुरजिस्परी ।। ३०६ ॥ सुपर्णपू. थिकास्वर्णकर्णिकारोघचम्पकान् । पराभवन्सी वर्षेन, पपलेश्या प्रकीर्शिता ॥ ३०३ ॥ गोक्षीरदपिडिण्डोरपिण्डावधिकमाण्डरा । वर्णतः शरदभ्राणां, शुक्ललेश्याऽभिभाविनी ॥३०॥ किराततिक्तत्रपुषीकटुतुम्बीफलानि च । वचः फलानि निम्बानां, कृष्णलेश्या रसर्जयेत् ॥ ३०५ ॥ पिप्पलीशृङ्गाबेराणि, मरीचानि च राजिकाम् । हस्तिपिपलिका जेतुं, नीललेश्या रसैः प्रभुः ॥ ३०६ ॥ आमानि मातुलिङ्गानि, कपित्थबदराणि च । फणसामलकानीटे, रसैजेतुं तृतीयिका ॥ ३०७ ॥ वर्षगन्धरसापापक्वाम्रादिसमुद्भवान् । रसानधिकमाधुर्या, तुर्याऽधिकुरुते रसेः ॥ ३०८ ॥ द्राक्षाखर्जरमाध्वीकवारुणीनामनेकधा । चन्द्रप्रभादिसीधूनां, जयिनी पञ्चमी रसः ||३०९॥ शर्करागुडमरस्यण्डीखण्डाखण्डादिकानि च । माधुर्यधुर्यवस्तूनि, शुक्ला विजयते Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) ॥ लेज्यादारे लेश्यावर्णादिविघारः ।। द्विार रसेः ॥ ३१॥ आयास्तिस्त्रोऽतिदुर्गन्धा, अप्रशस्ता मलोमसाः । स्पर्शतः शौतरक्षाश्च, संक्लिष्टा दुर्गतिप्रदाः ॥३११|| अन्त्यास्तिस्त्रोऽतिसौगन्ध्याः, प्रशस्ता अतिनिर्मलाः । स्निग्धोष्णाः स्पर्शगुणतोऽसंक्लिष्टाः सुगतिप्रदाः ॥३१२॥ (लेश्याना वर्णावि) अर्थ-ते लेश्याओ कृष्ण-माल-कापात-तेजा-पद्म-अन-शुक्ल ए नाम के भकारनी के ।। २९८॥ तेमां कृष्णलश्या पोनाना वगयी गाढाना पड्डानी मळी काजळ-मेघ-अने ममता एवा भमरा सरखी तथा कायल अने हायणी सरली अनि काळी छ, ॥२९९।। तथा नोललेश्या पोताना वर्णवहे पोपट अने चास पक्षीना पीछांथी मयूर अने कबूतरना कंठया अने नीलकमळना वनथी पण अधिक नील रंगनी ॥३०० ॥ तथा कापातलझ्या पोताना वर्णवर खरसारने जीतनारी (एटले खेरसारथी अधिक) अनसी (शाण) ना मुष्प सरखी अने गण (रिंगणा) ना पुष्प समाने जीतनारी छ. ( अर्थात् एयी पण अधिक काबरा रेमनी . ) तथा तेजोलच्या पाताना वर्णबडे लास माणिकरत्न-प्रभातनो जगतो सूर्य-संध्या-मने चोठाना अभागधी (चणागना अधं भाग लाल ने अध माग काळो होप के मारे अर्ध भागथी) पण अधिक लाल अने परवानांना अंक रने पण जीतनारी होय छे. ॥ ३० ॥ तथा पालेश्या पोसाना वर्गवडे पानी जाइन पुष्प अने पीळी करेगनो पुष्प सम्ा तथा चंपाना फुकन पराभव पमाहमारी कहली छे. ॥ ३०३ ॥ शुक्ललेझ्या पोवाना वर्णवर्ड गायनु दूध-दहि-ने समाफीणधी पण अधिक उज्वलनथा शरदऋतुनां वादळांन (आकाशमा घाळा गाः भा देखाय के तेने) पण जोतनारा ले. ॥३०४॥ तथा कृष्णलश्या पाताना रसबडे करीयातु-कहवा तुरीया-(अथवा काकडी) कहा तुंबडं अन लॉबढानी छाल तथा कींचोळीयोने पण जीतनारी २.३०५तथा नाललेया पानाना रसवड पापर आदु. मरी राइ-अने मोटी पीपरने पण मातवा समर्थ छ. ॥ ३०६ ॥ चया बीनाकापोतलेल्या पोताना रसवडे काचां बीमारां-काचां कविठ (काठां)-काचा घोर-काचां फणस-अने काचां आमळीने पण जात नारा छ. ।। ३०७ । सया १वेश्यानां पुद्गलो ते ट्रव्यलेश्या अने त लश्यानां पुरलायी प्रवर्ततो में परिणाम ते भाव लश्या, माटे अईि में वर्णादिक कवाय छ से द्रव्यल. स्थाना जाणवा. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ 8) ॥श्रीलोकनकाशे तृमीयः सर्गः ॥ (सा० ८८) (२४१) अधिक मधुर एवी चोषी तेजालेश्या पोताना रसपडे उत्तमवर्ण गंषरसने पाय थयेक पाईं आम्रफळ (केरी वगैरेषी उत्पन्न ययेला रसोमा अधिकारीपणु करे के (अधिकता धारण करे छे.) ॥ ३०८ ॥ तथा पांचमी पनलेश्या द्राक्ष-खमूर-चैत्र मासनी मदिरा-तथा चंद्रमभादि अनेक प्रकारनी मदिराना रसने जीतनारी के. ॥ ३०९ ॥ तथा शुक्ललेश्या पोताना रसरडे साकर-गोळ-शेकडी-खांड बगेरे मधुरतामां मुख्य मुख्य चीजोने जीवनारी है.।।३१०॥प्रयमनी त्रण लेण्याओ अत्यं. स दुर्गंधवाळी अशुभ अने मलिन छे, सथा स्पर्शयी शीत ऋक्ष, (तेमज पुणधी) संक्लिष्ट भने दुर्गति आपनारी छे ।। ३११ ॥ अन्त्यनी त्रण लेश्याओ अति मुगंधवाळी प्रशस्त अने अत्यंत निळ , तथा स्पर्श गुणथी स्निग्ध-उष्ण, देषभ (फलथी) संक्लेश रहित अने सद्गति मापनारी छे. ।। ३१२ ।। परस्परमिमाः प्राप्य, यान्ति तद्रपतामपि । वैडर्यरक्तपटयोऐये तत्र निदर्शने ॥३१३॥ तत्रापि ॥ देवनारकलेश्यासु, वैडूर्यस्य निदर्शनम् । तिर्यग्मनुजलेश्यासु, रक्तवस्त्रनिदर्शनम्॥३१॥ तथाहि ॥ देवनारकपोलेश्या, आभवान्तमवस्थिताः । नानाकृति यान्ति किंतु, द्रव्यान्तरोपधानतः॥३१५॥ न तु सर्वात्मना स्वीयं, स्वरूपं संत्यजन्ति ताः । सद्वैडूर्यमणिर्यहनानासूत्रप्रयोगतः ॥३१६॥जपापुष्पादिसान्निध्याद्यथा वाऽऽर्दशमण्डलम् ।। नानावर्णान् दधपि, स्वरूपं नोज्झति स्वकम् ॥ ३१७ ॥ अत एव भावपरावृत्त्या ना. रकनाकिनोः । भवन्ति लेश्याः षडपि, तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥१८॥ "सुरनारयाण ताओ,दबलेसा अवट्ठिया भणिया। भावपरावत्तीए, पुण एसुं हुंति छल्लेसा ॥ ३१९॥" [सुरनारकाणां ता द्रव्य लेश्या अवस्थिता भणिताः । भावपरावृत्या पुनरेतेषु भवन्ति षड् लेश्याः ॥सा०८८॥] दुष्टलेश्यावतां नारकाणामप्यत एव च । सम्यक्त्वलाभो घटते, तेजोलेश्यादिसंभवी ॥ ३२०॥ यदाहुः।। "सम्मत्तस्स य तिसु, उवरिमासु पडिवजमाणओ होई । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) ॥ लेश्याहार लण्यापरिणामधान्तविचारः ॥ (बार पुवपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए॥१॥” (सम्यक्त्वस्य च तिसृषु उपरितनीषु प्रतिपद्यमानको भवति ॥पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां तु लश्थायां ||१||) (सा०८९)तथैव तेजोलेश्याढथे, घटते संगमामरे । बीहोमहर्गकर्ता, कृष्णागादिसंगपि ॥३२१॥ स्वरूपस्यागतः सर्वात्मना तिर्यग्मनुष्ययोः । लेश्यास्तद्रपता यान्ति, रागक्षिप्तपटादिवत् ।। ३२९ ।। अत एवोत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहर्तमवस्थिताः । तिर्यग्नृणां परावर्त, यान्ति लेझ्यास्ततः परम् ॥ ३२३॥ (श्याओना परिणामादि विचार) अर्थ-आ लेण्याओ परस्पर एक बीजानो संसर्ग पामीने तद्रूपपणाने पामे छे, त्यां वेडयमणि अने राता वखनु ए ये टांत जाणवां ॥ ३१३ ॥ तेषां प्रथम वैडूर्यमणिर्नु दृष्टान्त देश अने नारफनी लेश्यामां तथा राना बस्ननु दृष्टांत तिर्यच अने मनुप्यनो लेश्याम जाणवू, ।। ३१४ ॥ ते आ प्रमाणे देव नारकनी लेश्या आखा भवसृषी एकज प्रकारना कायम रहे छे तोपण बीजा दूपमा संवैधयी अनेक प्रकारना आकारन पामे छे. ।। ३१५ ॥ परन्तु ते लश्याओ सर्वधा पोता. में स्वरूप त्याग करतीनधी,जेम उत्तम वडूयमणि अनेक रंगवाळा दोराना संबंधी पोतानो रंग ( लीलो रंग) बदलनो नथी, ।। ३१६ ॥ अथवा जासुदना (अतिलाल ) पुष्प वगरना संबंधयी (साम धरवाथी) आरीसो अनेक प्रकारना रंगने धारण करतो छनो पण पोतार्नु ( श्वन ) स्वरूप त्याग करनो नथी ॥ ३१७ ॥ [तेम अन्यद्व्यना संबंधथी पण ] देव नारकनी लेश्याओ पोता स्वरूप छोस्ती १ कृष्णलेश्या नीललंश्यादि ५ लश्याना समाथी नीशादि ५ लश्यारूप था जाय. प रीते नीलादि सब लेश्याओ परस्पर संसर्गथी चवला जाय छ, २ स्त्र अने नारकनी लेश्याना सम्बन्धमा श्वतषणमा स्फटिक रत्ननु दृष्टान्त पण आये २. परन्तु अहि लीला रङ्गबाळा बर्य मणिनु अष्टात पण पकज भावार्थ याचक छ. . ३ अर्थात् में दय अथवा नारकने जन्मथी * लश्या छे तेज लेश्या आना भयमुधी व्यापणे-पुनलपणे कायम रहे छ. परन्तु परिणामथो भाषरूपे पवलाय छे माटे द्रव्यलेश्या एक होय ! अने भाव परावृतिपय पण केश्यामओ होय छ भने ८ भाष परावृत्तिए मूलद्रव्यले न्यानो आकार काक बदलाव से पण संबंध अभ्य वेश्यारूप था जती नथी, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८९) (२४३ ) नथी. ए कारणथीज भावरानिए नारक अने देवने छ ए लेउयाभो होय है, ॥३१॥पूर्वाचार्योग कार्यु के के-"देव अने नारकने ने द्रव्य लेश्याओ अवस्थित कही थे, परन्तु भावपराष्टत्तिथी नो देव नारकर्मा पण छ ए लेश्याओ होय छे" (बृहत्संग्रहणी.) ए कारणधीज दुष्ट लेख्यावाळा नारकीओने पण नेजोलेश्यादि शुभ लेश्याथी उत्पन्न बनारो सम्यक्त्वनो लाभ घटी शके 2.॥३१।। काले के उपरनी प्रण(नेजो लेश्यादि लेश्याओमां सम्यक्त्वनो लाभ पनिषद्यमानपणे(उम्पन्न थनी वस्वते होय,अने परिपसरणाशीजन्य थया गछी)तो'सम्यक्त्व लाभ) छमांनी कोरपण लेश्याए होय ॥३२॥ अने ए कारणथीज नेजोलेश्यावाळा संगप देवमां कृष्णलेश्याविर अभूम लेख्या) यी धना भीवीरभगवानने उपसर्ग कस्वापणुं संभषे छे. (अर्थात् शुभ लण्याचालो देव पण अशुभलक्ष्याने उनिन कार्य कर के.) ३२१ तथा सर्वथा स्वरूपनो त्याग करवायी नियंच अने मनुष्यनी लेश्याओ रंगर्मा बोळेला वखनी माफक नापणुं पामी जाय छे, १३२२॥ एकारणथी तियेचमनुष्यनी लेश्याओ अन्नमहर्न मात्र अवस्थिम रहे के भने स्यारवाद लेश्या परावृत्त थइ जाय छे (सक्या बदलाइ जाय छे.. ॥ ३३ ॥ बहुधाऽऽसा परिणामस्त्रिधा वा नवधा भवेत् । सप्तविंशतिधा चैकाशीतिधा त्रिगुणस्तथा ॥ ३२४ ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतत्रिविधो भवेत् । प्रत्येकमेषां स्वस्थानतारतम्यविचिन्तया ३२५ भवेन्नवविधस्तेषामपि भेदविवक्षया। सप्तविंशतिधा मुख्योऽप्येवं भेदैस्त्रिभित्रिभिः॥३२६॥तथाहुः प्रज्ञापनायां॥ कण्हलेसा णं भंते कतिविहं परिणाम परिणमति?, गोयमा!, तिविहं वा, णवविहं वा, सत्तावीसतिविहं वा, एकासीतिविह बा, तेवालदुसयविहं वा, १ सम्यकत्वनी उत्पमि सेजो वगरे शुभ लेश्यामां होय , माटे प्रतिपक्ष मानपणे ( अङ्गीकार करवा पणे ) उपरनी ३ लेश्या होय. २ प्रथम मम्यक्त्व उत्पन्न थावाद मम्यक्त्व जे घधारे काळ रहे ते पधुकाळमा रहेलु सम्यक्त्व पूर्ण प्रतिपन्नभावे कहेयाय, ३ तात्पर्य पजके सम्यकाध उत्पन्न धना पण शुभ लेश्याज होय अने । उत्पन्न थयाधार (टको रखेला सम्यक्त्यमा) छ मांनी कोरपण लेश्या होय, Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) ॥ लेश्याद्वारे लश्यापरिणामभेदविचारः || पहुंचा, बहुविहं वा परिणाम परिणमति" ॥ (कृष्णलेश्या भ- ' दन्त कतिविधं परिणमति ,गौतम ! त्रिविधं वा; नवविध वा, सप्तविंशतिविधं वा; एकाशीतिविधं वा, त्रिचत्वारिंशदधिकद्धिशतविधं वा, बहुं वा बहुषिधं वा परिणामं परिणमति) सा०९०] __ अर्थ-यणु करीने आ लेश्याओनो परिणाम त्रण मकार-९प्रकारे-२७मकारे-८१ प्रकारे नया ८१थी पण प्रणे गुणो पटले २४३ प्रकारे इत्यादि घणा प्रकारनोहे. ॥ ३२४ ।। त्या जघन्प-मध्यम- अने उन्कृष्ट ए भेदयी ३ मकारनो परिणाम जे. ५३ प्रकारनो परिणाम प्रम्पेक लेश्याओमा स्वस्थाननी (पोमारामां) तारतम्यता (तफावत) ना विचारथी माणवो, ।। ३२५ ॥ वली ए मुख्य । परिणामना पण प्रत्येकना ज.-म०-ने उ० मेदनी विवक्षाए ९ प्रकारनो परिणाम थाय ए प्रमाणे अण प्रण मेदवडे २७ प्रकार वगेरे अनेक प्रकारनो परिणाम जाणवो ॥ ३२६ ॥ श्री पन्नाषणाजीमां कस्ले के लामा : हरवला गरिमा परिणमे ? उसर- गौतम ! अण प्रकारे-नव प्रकार-सत्ताषीस प्रकारे पक्याश्री प्रकारे-पसेनालीस प्रकारे-घणे प्रकारे-अथवा पणा घणा प्रकारना परि- .. गामे परिणमे 2. (लेश्यामां मरण क्यारे थाय ?) १ परिणाम परमे स्यभाश्च २. स्थापमा मा प्रमाणे कृष्णरे श्याना वृशान्तथी फष्णलेश्या ३ भेद अन्य मध्यम उत्कृष्ट ९ मे म० उ० ज०म० उ० भ० म. उ. २७ मेष में. 3. | न. म0 उ. |. म. उ०म० म.उ. | ज०म० ज० म. उ० म० म० उ० . मा उ० ज० म.उ. ज. पप्रमाणे आगलमे आगळ प्रण ऋण भेव अमन्त पसत पारवा. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] ॥ लोकप्रकाश कृतीयः सर्गः ॥ (सा० ९०) (२४५) सेश्यापरिणामस्याऽऽदिमान्त्ययो गिनां मृतिः क्षणयोः । अन्तर्मुहर्तकेऽन्त्ये, शेषे वाऽऽये गते सा स्यात् |३२७॥ आर्या ॥ तत्राप्यन्तर्मु हर्नेऽन्त्ये, शेषे नारकनाकिनः । नियन्ते नरतिर्यवश्वायेऽतीत इति स्थितिः ॥ ३२८ ।। कृष्णायाः स्थितिरुस्कृष्टा, प्रयस्त्रिंशत्पयोधयः। प्राच्याग्रघभवसंबन्ध्यन्समुहूर्तहयाधिका ॥३२९।। पल्यासंख्येयभागाढया, नीलायाः सा दशाब्धयः । पल्यासंख्यांशसंयुक्ताः, कापोत्यास्तु त्रयोऽब्धयः ॥ ३३० ॥ प्रा. च्यायभवसत्कान्तर्मुहर्तद्वयमेतयोः । पल्यासंख्यांश एवान्तर्भूतं नेत्युच्यते पृथक् ॥ ३३९ ॥ एवं तेजस्यामपि भाव्यं ॥ तेजस्या द्वौ पयोराशी, पल्यासंख्यलवाधिकौ। यन्तर्मुहर्ताभ्यधिकाः, , पनाया दश वाधयः ॥३३२।। ट्यन्तमुहर्ताः शुक्लायात्रयस्त्रिंशस्पयोधयः । अन्तर्मुहत्तै सर्वासां, जघन्यतः स्थितिभवेत् ॥३३३।। आयात्र सप्तममहीगरिष्ठस्थित्यपेक्षया । धूमप्रभायप्रतरोत्कृष्टायुश्चिन्तया परा ।। ३३४ ॥ शैलाशप्रतरे ज्येष्ठमपेक्ष्यायुस्तृतीयिका । तुर्या घशानदेवानामुस्कृष्टस्थित्यपेक्षया ॥३३५।। पञ्चमी ब्रह्मलोकस्य, गरिष्ठायुरपेक्षया । षष्ठी चानुत्तरसुरपरमायुरपेक्षया ॥ ३३६ ॥ अत्र यद्यपि पङ्कप्रभाशैलायप्रस्तटयोः पूर्वेतादधिकापि स्थितिरस्ति परं प्रस्तुतलेश्यावतामियमेवोत्कृष्टा स्थितिरिति ज्ञेयं यत्तु प्रज्ञापनोत्तराध्ययनसूत्रादौ कृष्णादीनामन्तर्मुहर्ताभ्यधिकत्वमुच्यते तत्प्राच्याप्रघभवसत्कान्तमुहूयोरे. कस्मिन्नन्तर्मुहर्ने समावेशात, इत्थं चैतद् अन्तमुहर्तस्यासंख्यातभेदत्वादुपपयते इत्यादि प्रज्ञापनावृत्तौ । (सा० ९१) इति सामान्यतो लेश्यास्थितिः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - (२४६) ॥ लेण्याद्वारे लेश्यास्थितिविचारः ॥ लश्या परिणामना आदिक्षणमां अने अन्त्य क्षणमां प्राणीयोनु मरण यk नयी परन्तु छेलालु अन्तमुहर्त वाकी रह्य छने, अने हेलं अन्तमहत व्यतीत थये छतेज परण थाय छे. १३२७॥ तेमां पण देव अने नास्कन मरण लेठयापरिणामनु लेखलु अन्त महत बाकी रहे त्यारे, अने मनुष्य तथा तियेचन मरण लेश्यापरिणा. मनुं प्रथम अन्नमा व्यसीन घइ जाय त्यारे याय. एज मर्यादा छे. ॥ ३२८ ।। अर्थ-उत्कृष्स्थिति कृष्णलण्यानी पूर्वना अने आगळना भव सं. पंधि (२) अन्तर्मुहुन अधिक ३३ सागरोपप छ ॥ ३२९ ॥ नीलले० नी उ० स्थिति पल्योपपना असंख्यानमाभाग सहिन १० सागरोपम. कापोतले. नी ३० स्थिति पल्योपमना असंख्य भामयुक्न ३ सामगेएम ॥ ३३० ॥ ए बेनी स्थितिमा पूर्वभव अने आगळना भवधिना अन्त हत्ते पल्यो ना असंख्या. भागमा ( असंख्यातना असंख्यभेदो होवाथी) अनर्गत छ माटे जूदा कut नयी. ।। ३३१॥ ए प्रमाणे नैनस लेख्यामां पण विचारवं. तेजसलेश्यानी ३० स्थि: पल्यो ना अ०भागयुक्म के सागरोपमछे गमले नी उ० स्थि० वे अन्न मुं अधिक १० मागरोपम छ. ॥ ३३२ ॥ अने शुक्ल ल० नी ७० स्पिबे - . अन्नर्मु. अधिक ३३ सामरोपम छे. तथा सर्व लढ्या मोनी जघ. स्थिति अन्नमें मात्र के एमां मधम लथ्यानी उ. स्थित मानमी पृथ्वीना (नपानमामभाना) नारक जीवोनी उ० स्थिती अपेक्षाए छे. बीनी लेण्यानी उ० स्थि छट्टी धूम प्रभा पृथ्वीना प्रथम प्रनरवर्ति नारक जीवोनी उ० स्थि० नी अपेक्षाए छ. पीजी लेग्यानी उ० स्थिति त्रीजी शला पृथ्वीना प्रथम प्रतरनी उ० स्थि० नो अपेक्षाए के. चोथी लेश्यानी स्थि० इशान कल्पवनि देवोनी उ० स्थि. नी अपेक्षाए के, पांचमी लेश्यानी स्थिः ब्रह्म देवलोकना उ० आयुष्यनी अपे. क्षाए, अने छट्ठी लेश्यानी उ• स्थि० अनुत्तर विमानवासी देवोना उ० आयुपनी अपेक्षाए है. ॥ ३३३ थो ३३६ ॥ "अहिं जो के धूमप्रभा अने शैलप्रमाना प्रथम प्रनरनी ३० स्थिति पूर्वे कह. ली (पल्यो ना असं० भाग सहिम चे अने त्रण सागरोपम ) स्थिनिधी अधिक पण के परन्तु प्रस्तुत ( विवक्षिन नील अने कापोन , च्यावाला नारकी मोनी १-२ प ये गाथामा बीजी गाथानी भाषार्थ प्रथम गाथाना भाषार्थना कारणरूपे पण जाणवी, अर्थात् तमा पण " प वाक्यने बदले "कारणक" पम पांचपाथो पण पधु सुगम पडशे. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ) || लोकप्रकाशे तृतीय सर्गः || (सा० ९१ ) (२४७) एटलीज उ० स्थिति होय छे एम जाणवको जे पनवणाजी अने उत्तराध्ययन सूत्र वगेरेमां कृष्णादि श्याओमी अन्तहीनी अधिकता कही छे, ते पूर्वभव अने आगळना भव संबंधि वे अन्तर्मुहूर्त मलीने पण एकन अन्तर्मुहूर्त समावेश तो होवाथी तेम कशुं छे. अने अन्तर्मु० ना असंख्यात भेद होवाथी ए समावेश करवी घटी शके छे, इत्यादि प्रज्ञापना वृत्तिमां कहां छे. ए प्रमाणे श्याओनी सामान्यपणे स्थिति कही. अने इसे जीवभेदे विशेषतः दर्शवाय के. स्थितिं वक्ष्येऽथ लेश्यानां नारकस्वर्गिणोर्नृणाम् । तिरश्चां च जघन्येनोत्कर्षेण च यथागमम् ॥ ३३५ ॥ दश वर्ष - सहस्राणि कापोत्याः स्यालघुः स्थितिः । उत्कृष्टा त्रीण्यतराणि, पल्यासंख्यलवस्तथा ॥ ३३६ ॥ जघन्या तत्र धर्माप्रस्तटापेक्षया भवेत् । उत्कृष्टा च तृतीयाथप्रस्तटापेक्षयोदिता ॥ ३३७ ॥ नौटाया लघुरषेोत्कृष्टा च दश वार्धयः । पल्यासंख्येयभागाढया, कृष्णायाः स्यादसौ लघुः ॥ ३३८ ॥ स्थितिर्जघन्या नीलायाः, शैलाद्यप्रस्तटे भवेत् । रिष्टाद्यप्रस्तटे त्वस्या, ज्येष्ठा कुष्णास्थितिर्लघुः ॥ ३३९ ॥ कृष्णायाः पुनरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः । इयं माघवतीवर्त्ति ज्येष्टायुष्कव्यपेक्षया ॥ ३४० ॥ इत्थं नारकलेश्यानां, स्थितिः प्रकटिता मया । अथ निर्जरलेश्यानां, स्थितिं वक्ष्ये यथाश्रुतम् || ३४१ || दश वर्षसहस्राणि कृष्णायाः स्यालघुः स्थितिः । एतस्याः पुनरुत्कृष्टा पल्या संख्यांश संमिता ॥ ३४२॥ इयमेवेकसमयाधिका नीलास्थितिर्लघुः । पल्या संख्येयभागश्च, नीलोत्कृष्टस्थितिर्भवेत् || ३४३ ॥ पल्या संख्येयभागोऽयं, पूर्वोक्तासंख्यभागतः । वृहत्तरो भवेदेवं ज्ञेयमग्रेऽपि धीधनेः ।। ३४४ ॥ या नीलायाः स्थितिज्र्ज्येष्ठा, समयाभ्यधिका च सा । कापोत्या लघुरस्याः स्यात्, पल्यासंख्यलवो गुरुः ॥ ३४५ ।। " Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) ॥ लेश्याद्वारे नारकदेवसम्बन्धिलंग्यास्थिनिविचारः॥ हार शेत्यानां निस्तामाला, स्थितिऽदर्शि सा भवेत् । भवनेशव्यः । न्तरेषु, नान्येषु तदसंभवात् ।। ३४६ ॥ एवं वक्ष्यमाणतेजोलेश्या. या अप्यसौ स्थितिः । भवनव्यन्तरज्योतिरायकल्पद्यावधि३४७ पायाश्च स्थितिब्रह्मावधीशानादनन्तरम् । लान्तकात्परतः शुक्ललेश्याया भाव्यतामिति ॥ ३४८ ।। अर्थ-हवे सिवान्नमां कशा प्रमाणे नारक-देव-मनुष्प अने नियोनी लेश्यानी जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति कही.॥३३५॥ (नारक संबंधि लेझ्यास्थिति ब. तावे छे) त्या कापोत लेश्यानी जय स्थिति १० हजार वर्ष (दश हजार वर्ष) अने उ० स्थि. पण सागरोपम अने परपीना असं भाग अधिक के ॥३२॥ तेमा जय० स्थिति हेली घर्मा ( रत्नप्रभा ) पृश्चिना प्रथममतरनी अपेक्षाए के, अने उस्थि. त्रीनी शैला (वालुकाप्रभा) पृथ्विना मयपप्रसारनी अपेक्षाए कही के. ॥ ३३७ ॥ नील लेश्यानी जघस्थि० तेटलीज (१० हजार वर्प) छे, अने सत्कृष्ट पत्योपपासंख्यभागयुक्त १० सागरोपम छे. पुनः कृष्णलेश्यानी जघ० स्थिति पण पन (परयो० अ०भाग युका १० सागरो) के. ॥ ३३८ ॥ नील लेझ्यानो जघस्थि० शैलाना प्रथम प्रतरपां ले. अने पांचमी रिष्टापृथ्वीना मपम मतरमा नील लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिनि छ, अने तेन ( नीळनी स्थिळ जेटली) कृष्णलेझ्यानी नघ० स्थिति छे, अने कृष्णलेश्यानी उ० स्थिति । सागरोपम के, ते सातमी माघवनी (तमतम्प्रभा) मां रहेला नारक जीवोना उस्कE भायुष्यनी अपेक्षाए छ. ए प्रमाणे नोरफ जीवोनी लेश्यानी स्थिति में प्रगट १ नारक जोधोनी छेश्यास्थिति अर्थमा पांचवाथी पांचक वर्गमे गुचत्रण परतेम दोषापी अहिं स्पष्ट दशवाय छ, जघ. स्थिर उत्कृष्ट स्थिः । १० हजार घर्ष. Jलाधिक ३ सागर कापोत ली. पृ० मा १ ला प्रतरमा) । (३ जीना १ ला प्रतरे) | साधिक १० सागर । (३ जीना १ ला प्रतरे ) । (५ मी ना १ ला प्रतरे) का । साधिक १० सागर । । ३३ सागर कृष्ण (५ मो मा १ ला प्रतरे ) (७ मी पृथ्वीमा ) ७पृथ्वीयोमा एज अनुक्रमे ३ ले पाओज ळे, अहिं साधिक एटले "ए. स्पोपमा असंख्य भाग सहित " अर्थ जाणषो. मोह । १. हा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मुं) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ९१) (२४९) करी अने हो सिद्धान्तने अनुसारे देवोनी लेझ्यानी स्थिति कहीश. देवसंबंधि लेश्याओनी स्थिति-कृष्णलेश्यानी घ० स्थि०१० हजार वर्ष, अने एनी(कृलेनी न उन्कृष्टस्थिति पल्योपपना असं० भाग जेटली के. ॥३४२।। एक समय अधिक एज [ कुछ नी उ० पल्यो० असं० भाग ] नोल लेश्यानी जघन्य स्थिति छे. अने नील लेझ्यानी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमनो असंग्न्यातमो भाग छे. परन्तु आ पल्यो० नो असं०भाग प्रथम कहेला पल्यो० ना असं० भागधी घणो मोटो छे, ए प्रमाणे आगळ पण बुद्धिमान पुरुषोए जाणी लेवु. ३४४नीललेइयानी जे उ०स्थिति ते १ समय अधिक करी छती कापोतलेश्यानी जघ० स्थिति थाय, अने कापोननी उ०स्थिनि पल्यो० नो असं भाग ले. ॥३४५॥ पत्रण लेश्याओनी जे स्थिति दर्शावी ते भवनपति अने व्यंतर देवमां होयछे परन्तु वीजा देवोमां ते संश्याओनो अभाव होचाधी ते स्थिति पण नथी.॥३४६॥ । प प्रमाणे आगळ कहेवाती तेजोलेश्यानी पण ते स्थिति भवनपनि व्यन्तरज्योतिष अने मधमना चे कल्प ( सौधर्म-ईशान ) सुधी जाणवी. ॥ ३४७ ॥ पद्मलेल्यानी स्थिति इशानकल्पथी आगळ ( सनत्कुमारधी ) ब्रह्मदेवलोक सुधी, अने शुक्ललेश्यानी स्थिति लांतकथी आगळ ( एटले लांतकथी सर्वार्थ सुधी) जाणवी. ॥ ३४८ ॥ (तेजो ले. विगेरे प्रणनी देवोने आश्रयी स्थिति कहे छे.) अथ प्रकृत॥ दश वर्षसहस्राणि, तेजोलेश्यालघुस्थितिः। भवनेशव्यन्तराणां, प्रज्ञप्ता ज्ञानभानुभिः ॥३४९॥ उत्कृष्टा भवनेशानां, साधिक सागरोपमम् । व्यन्तराणां समुत्कृष्टा, पल्योपममुदीरिता ॥ ३५० ॥ स्यात्पल्यस्याष्टमो भागो, ज्योतिषां सा लघीयसी । उत्कृष्टा वर्षलक्षणाधिकं पल्योपमं भवेत्॥३५१॥ सा लघुवैमानिकानामेकं पल्योपमं मता । उत्कृष्टा द्वौ पयोराशी, पल्यासंख्यलवाधिकौ ॥ ३५२ ॥ समयाभ्यधिकैङ्गव, पप्रायाः स्याल्लघुः स्थितिः। उत्कृष्टा पुनरेतस्याः, स्थितिर्दश पयोधयः ॥ ३५३ ॥ इयमेव च शुक्लायाः, स्थितिध्वी क्षणाधिका । उस्कृष्टा पुनरेतस्यास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ ३५४ ॥ इत्थं नारकदेवानां, लेश्यास्थितिरुदीरिता। अथ तिर्यग्मनुष्याणां, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) ॥ लेनगाधारे नारफदेवसम्बन्धिलेश्यास्थिनिविचारः॥ (धार लेश्यास्थितिरुदीयते ।। ३५५ ॥ या या लेश्या येषु येषु, नृषु तिर्यक्षु वक्ष्यते । आन्तर्मुहर्तिकी सा सा, शुक्ललेश्यां विना नृषु ॥ ३५६ ॥ शुक्ल लेझ्यास्थितिर्नृणां, जघन्याऽऽन्तमुहूर्तिकी । उत्कृष्टा नववर्षाना, पूर्वकोटी प्रकीर्तिता ॥३५७॥ यद्यप्य वर्षवयाः,कश्चिदीक्षामवाप्नुयात् । तथापि ताहग्वयसः, पर्याय वार्षिकं विना ॥ ३५८ ॥ नोदेति केवलज्ञान-मतो युक्तमुदीरिता। पूर्वकोटी नवादोना, शुक्लेश्यागुरुस्थितिः ॥ ३५९ ॥ युग्मम् ॥ इत्युत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिप्रज्ञापनावृत्त्यभिप्रायः ।(सा. ९२-९३) तथैव संग्रहण्यामप्युक्तं-'चरमा नराण पुण नववासूपा पुवकोडीवि' इति(चरमा नराणां पुनर्नववर्षाना पूर्वकोटयपि) (सा० ९२) संग्रहणीवृत्तौ प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ च नराणां पुनश्चरमा शुक्लालेश्या उत्कर्षतः किञ्चिन्न्यूननववर्षानपूर्वको. टिप्रमाणापि, इयं च पूर्वकोटेरूच संयमावाप्तेरभावात्पूर्वकोस्थायुषः किश्चित्समधिकवर्षाष्टकादृर्ध्वमुत्पादितकेवलज्ञानस्य केवलिनोऽत्रसेया इत्युक्तं, (सा०९५-९६)अत्र च पूर्वकोटया नववर्षानत्वं किञ्चिन्यूननववर्षानत्वं किश्चित्समधिकाप्टवर्षोनत्व मिति त्रयं मिथो यथा न विरुध्यते तथा बहुश्रुतेभ्यो भावनीयं । प्रत्येकं सर्वश्यानामनन्ता वर्गणाः स्मृताः ॥ प्रत्येकं निखिला लेश्यास्तथाऽनन्तप्रदेशिकाः ॥३६०॥ असंख्यातप्रदेशावगाढाःसवा उदाहृताः। स्थानान्यध्यवसायस्य, तासां संख्यातिगानि च ।। ३६१ ॥ क्षेत्रतस्तान्यसंख्येयलोकानांशलमानि वे । का. लतोऽसंख्येयकालचक्रक्षणमितानि च ॥ ३६२ ॥ यदुक्तं ॥"अ. संखेजाण उस्सप्पिणीण ओसप्पिणीण जे समया । सेखाईया Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . [१७] ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ९७) (२०१) लोगा, लेस्साएं हुंति ठाणाई ॥ १ ॥" [असंख्येयानामुत्सर्पिणीनामवसर्पिणीनां च ये समयाः । संध्यातील लोकाः, लेश्यानां भवन्ति स्थानानि) (सा० ९७) ___ अर्थ-हवे चालु विषए कहेवाय छे-ने गोलेश्यानी जयन्य स्थिति १० हजार वपनी ज्ञानवडे सूर्यसमान श्रीसर्वज्ञभगवन्तोए भवनति अनेव्यन्तरोने कही छे. ॥ ३४२ ॥ अने ( तेनो लेखनी) जस्थिति भवनपनिने १ सागरोपपी कंडक अधिक ( पस्यो० असं०माग अधिक ), अने ध्यन्नरोने ? पल्यो प्रमाण कही छे. ॥ ३५० ॥ पुनः ज्योतिषी देवीने ते ( तेनोलेनी)नी जघन्यस्थिमि प. स्योपमनो आठपो भाग अने उ० स्थि. १ लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम प्रमाण है.।। ३५१ ॥पुनः तेजोलेनी ज. स्थि० वैमानिक देवोने ? पल्योपमनी में अने उ० स्थि० पल्यो नो असं० भाग अधिक वे सागरोपम छे ॥ ३५२ ॥ बळी समय अधिक तेज स्थिति (समयाधिक पल्यो० अ० भागयुक्त चे सागरोपम ) पालेश्यानी जयन्य स्थिति छे, अने एनी उ. स्थि० १० सागरो० प्रमाण के. ।। ३५३ ।। पुनः एज स्थिनि समय अधिक करी छती ( समयाधिक १० सागर ] शुक्ललेश्यानी जप० स्थि० थाय, अने एनी उ. स्थि० ३३मागरोपम प्रमाण छे ।। ३५४ ॥ ए प्रमाणे नारक अने देवसंबंधि लेश्याओनी स्थिति कहीने हवे नियंच तथा मनुप्य सम्बन्धि लेण्याओनी स्थिति कहवाग है. ॥ ३५५|| ॥सियच अने मनुष्य संबंधी लेगाओनी स्थिति ॥ जे जे लेझ्या जे जे मनुष्य अथवा निर्यचां कहेवाशे ते मनुष्य सम्बन्धि शु. कललेश्या विनानी सर्व लेश्याभो (मनु. ५ अने तिर्य०६) अन्नम प्रमाणनी (अघ उत्कृषी ) जाणवी.॥३५६ ॥ अने मनुष्य संबंधि शुक्न लेश्यानी जघ० स्थि० अन्नk० अने उ० स्थिति ९ वपैन्यून पूर्वक्रोडवर्षनी कहेली छे. ॥ ३५॥ जो के आठवर्षनी वय ( उमर ) वाळो कोइक जीव दीक्षा अङ्गीकार करछे, नोपण नेटली क्यवाळाने १ वर्षनो पर्याय ( दीक्षाकाळ ) थया विना केवळज्ञान उत्पन्न थतु नथी, माटे शुक्ल लेश्यानी ३० स्थिति ९ वर्पत्यून पूर्वक्रोड वर्षनी १ देख अने नारक संबंधि लेण्याभोनी स्थिति विशेषतः तेभोना आयुष्यनी स्थितिने भभुसारे छे. अपवाद मात्र के अन्तर्मु अधिक अने धृमप्रभा तथा शलापृषी संबंधी अपधाव प्रथम कमो छे. २ अर्थात ७०५५२९९.९९९९९९९९९९९९९१ वर्मनी. उत्कृट केवटपर्यायनो अपेक्षाप: Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) || लेश्याद्वारे शुक्ललेल्या स्थितिर्गणाविचार || [द्वार कड़ी से युक्त है. ॥ ३५८ ॥ ए उत्तराध्ययन सूचनी वृत्ति अने पद्मवणा हसिनो अभिमाय को. एज रीते संग्रहणीमां पण कछे के "मनुष्योने वली शुक्ल लेश्यानी स्थिति ९ वर्षेन्यून पूर्वकोडवर्षेनी छे." संग्रहणीनी वृत्ति अने प्रवचनसा शेवारनी वृत्तियां तो " किञ्चित न्यून ९ वर्षन्यूनपूर्व क्रोड वर्षनो पण छे, का रण पूर्वक्रोडी उपरनी वयवाळाने चारित्रनो अप्रासि होवाथी पूर्वकोड वर्षना आयुष्यवाळा अने कंक अधिक आवर्ष बाद उत्पन्न थयेल केवलज्ञानवाला केव श्रीभगवान ने आस्थिति जानवी" एम कल छे. अहं पूर्व कोडवर्षमा ९ वर्षनी न्यून. (१) किंचित् न्यून ९ वर्षनी न्यूनता (२) अने किञ्चित् अधिक ८ वर्षनी न्यू नता ( ३ ) ऋणे कथन जेम परस्पर विरुद्ध न धाय तेम बहुश्रुतो विचारां. ३५९ सर्व श्यामांनी प्रत्येकनी अनन्त अनन्नवर्गेणाओ कहीछे तथा सर्वेले पाओ प्रत्येक अनन्त अनन्त प्रदेशवाली छे ।। ३६० || अने सर्व लेश्याओमांनी दरेक असंख्य असंख्य ( आकाश ) प्रदेशना अवगाहवाळी के. बळी ते दरेक लेश्या - ओन अध्यवसाय स्थानो असंख्य असंख्य छे ।। ३६१ ॥ अध्यव० स्थानो) क्षेत्री असंख्यात लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण अने काळची असंख्य कालचक्रना समय प्रमाण छे. ।। ३६२ ॥ ऋछे के असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी ना जेटला समय अने असंख्यात कोकाकाश(ना जेटला प्रदेशो ) तेटलां लेश्यानां - के- अशुमलेल्यानां भावले पारूप अध्य १ अहिं दरेक लेयाना असंख्य असंख्य लोकाकाशना प्रदेशप्रमाण असंरूप अध्यवसाय स्थानां जाणत्रां त्यां श्री पत्रवणाजीम का संक्लेशरूप अने शुभन्यानां विशुद्धिरूप स्थानों के ए वापस्थानोनां कारणभूत जे कृष्णादि द्रव्यसमूह तेपण स्थान कहेवाय. पज श्यानां स्थानो अहिं ग्रहणकरवां ते प्रत्येक लेश्यानां असंख्य छे. तेमां पण प्रत्येक श्यामां मे प्रकारनां स्थान छे. जघन्य अने उत्कृष्ट भने मै मध्यमस्थानो छे मी अवश्य नजीकनों मध्यमस्थानो जघन्यमां गणषां अने उत्कृष्ट पांसेना मध्यमस्थानो उत्कृष्टम गणधरं जेथो चेज प्रकारतां स्थान याय में जेवी एक लेल्याना जघन्यमां अने उत्कृष्टमां पण परिणाम गुण भे दयी असंख्य स्थान आबे इत्यादिवर्णन त्यांथोज जाणवु हमे पलेयान्यना निमित्तथी जीवांना जे जे परिणामस्यभाव उत्पन्न थाय छे, ते था कर्मप्रयम टोकामांथी प्राकृत गाथाओना अर्थ रूपे त्राय है. ६ लेश्याना स्वभाव - (१ कृष्णलेावाको जोब - बैरवढे निर्दय, अतिक्रोधी, दुष्ट मुखषाको, तीक्ष्ण, कठोर, आत्मघमंथी विमुख भने तत्काल करनारो होय . वधू Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D १७) | लोकरकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. ९७) (२५ ) । ( अध्यव०) स्थान छे !! ॥ अभिप्रायो यादृशः स्यात्, सतीवेतासु देहिनाम् । स मया समयोक्ताभ्यो, दृष्टान्ताभ्यां प्रदर्यते ॥३६३॥ योरपि दृष्टा न्तयोः स्थापनायथा या परिकाः , पुरुणा पण यहादानीम् । प्राप्ताः समन्तादेक्षन्त, भक्ष्यं दिक्षु बुभुक्षिताः ॥ ३६४ ॥ जम्बृवृक्षं क्वचित्तत्र, ददृशुः फलभङ्गुरम् । आयन्तमिवाध्वन्यान्, मरुञ्चपलपल्लवैः ॥ ३६५ ॥ एकस्तत्राह वृक्षोऽयं, मूलादुन्मूल्यते ततः। सुखासीनाः फलास्वाद,कुर्मः श्रमविवर्जिताः ॥ ३६६ ॥ अन्यः प्राह किमेतावान्, पात्यते प्रौढपादपः ?। शाखा महत्यश्छिद्यन्ते, सन्ति तासु फलानि यत् ॥ ३६७ ॥ तृतीयोऽथावदत् शाखा, भविष्यन्ति कदेशः ? । प्रशाखा एवं पात्यन्ते, यत एताः फलेभताः ॥ ३६८ ॥ उवाच वाचं तुयोऽथ, तिष्ठन्वेता वराकिकाः । यथेच्छं गुच्छसन्दोहं, छिद्मो येषु फलोद्गमः ॥ ३६९ ॥ न नः प्रयोजनं गुच्छेः, फलैः किंतु प्रयोजनम् । तान्येव भुवि कीर्यन्ते, पञ्चमः प्रोचिवानिति ३७० षष्ठेन शिष्टमतिना, समादिष्टमिदं ततः । पतितानि फलान्य(२) नील लक्ष्यायाळो जी-माया, दममा कुशळ, लांचोयो. चपल चित्तवाको. भतिविषयी ने मृषा चादी होय छे. (३) का लश्यायाळो जीव-मून आरंभमग्न सबकायेगा पाप नवि गणनारो हामि वृद्धि नहि गणनारी भने कोधी होयरहे, (४) तेजो लेत्याचाळो जीव -- दक्ष कर्मने रोकनारो, सरळ, दानी, शीलयुक्त धर्मबुद्धिवाळो अन अक्रोधी होयछे. (५) पनालयावाळी जीव- प्राणीपर अनुकंपाषाळो, स्थिर, सर्वजीवने दाम आपनारी, अति कुशल बुद्धिवाळी अने बुद्धिमान होयछ. (६) शुक्ललेल्याधाळो जोष - धर्म बुद्धिवाळी, सर्व कार्यमा पापर करनारो, आरंभमा अरुविधाळी, अने भपक्षपाती बोय?. पमा गुणनी दीनाधिका बुद्धिथो पिचारथी, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) ॥ लेश्याद्वारे लेश्यापरिणामदृष्टान्नविचारः ॥ (हार मो, मा भूत्पातनपातकम् ॥ ३७१ ॥ भाव्याः षषणामप्यमीषा, र सेश्याः कृष्णादिकाः क्रमात् । दर्यतेऽन्योऽपि दृष्टान्तो, दृष्टः श्रीश्रुतसागरे । ३७२ ॥ (लेश्यास्वरूपोपदर्शक दृष्टान्तो) __ अर्थ:- ले ओना भिन्न भिन्न परिणाममुं दृष्टान्त-ए लेश्याभो होने छने जीवोने जेवा मकानो अभिपाय (परिणाम) थाय ते ९ मिडान्नपां कहेला बे इष्टामोबडे कई ई. ते आ प्रमाणे ॥ ३३३ ।। मार्गयी भूला पडेला ६ पुरुषो कोइक महा अटवीमा आची चल्या. त्यां भूख्या थया छनां चारे बाजु दिशाभो तरफ भोजन देखवा लाग्या ॥ २४ ॥ त्यां तेओए कोइक स्थाने फळना भारबडे नमी गयेलुं भने वायुथी चपळ धयेला पादव वडे जाणे वटेमा ओने चोलावतुं होय पq एक जांबुन वृक्ष देख्यु ! ॥ ३६५ ॥ तेश्रोमांना एक जणे कयु के आ वृक्षने मूलमांधी उरवेडी नांग्खीये के जेथी मुख पूर्वक बेटा छना ज थाक रहिन फळन भोजन करोगे ।। ३६६ ॥ स्पारे बीमार कहां के आटलं मोटुं वृक्ष शा पाटे पाडी नाखीये ! मोटो मोटी शाखामोन छेदीये कारणके फलो ते शा. खाभोमांज छे, ॥ ३६७ ॥ त्यारे श्रीनाए कयु के फरी आत्री शाखाभो पारे उगशे ? पाटे प्रशाखाओ ( नानी हाळीओ) पाहीये, कारणके ए प्रशाखामोन फळोबडे भरेली छे. ॥ ३६८ ।। हवे चोथाए बचन के आ बीचारी शाखाओ भले रही, पण जेमां फलोनी उत्पत्ति के पवा गुरुछाभोनो समूदन इच्छापूर्वक मोदीये ॥ ३६९ ॥ पारे पांचमांए ए प्रमाणे कला के आपणने गुच्छाओ साधे कंइपण प्रयोजन नथी, परन्तु फळनी माथे प्रयोजन के तो ने फलोनेज भूपी उपर पाडीर ॥ ३७० ॥ त्यारे श्रेष्ठ पनिवाला एरा छटा पुझो भा प्रमाणे शीखा. पण आपी (कायु) के (भूमिपर) पडेला फळोज खाइ, जेथी फळ पारवान पाप न लागे. ।।३७१॥ प ६ए पुरुषोने अनुक्रमे कृष्णादि लेश्याओ जाणत्री. पुन: श्रीसिद्धान्तरूपी समुद्रमा देखेलं पीजुं पण दृष्टान्त दर्शावाप छ.।। ३७२।। केचन ग्रामघाताय, चौराः ऋरपराक्रमाः । कामन्तो मार्गमन्योन्यं, विचारमिति चकिरे ॥ ३७३ ॥ एकस्तत्राह दुष्टात्मा, यः कश्चिद् दृष्टिमेति नः । हन्तव्यः सोऽद्य सर्वोऽपि, द्विपदा वा चतुष्पदः ।। ७४ ॥ अन्यः प्राह चतुष्पाद्भिरपराद्धं न किश्चन । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -..- -.-.-. १७ मु) ॥ लोकमका वतीय सर्गः ॥ (मा. ९७) (२५५) मनुष्या एव हन्तव्या, विरोधो यैः सहात्मनाम् ॥ ३७५ ॥ तृतीयः प्राह न स्त्रीणां, हत्या कार्याऽतिनिन्दिता । पुरुषा एव हन्तव्या, यतस्ते करचेतसः ॥ ३७६ ॥ निरायुधैर्वराकैस्तैहतैः कि नः प्रयोजनम् ? | घात्याः सशस्त्रा एवेति, तुर्यश्चातुर्यवान् जगौ ॥19॥ सवालोरपि कारवाईतः किं नः फलं भवेत् ? । सायुधो युध्यते यः स, वध्य इत्याह पञ्चमः ॥ ३७८ ॥ परद्रव्यापहरणमेकं पापमिदं महत् । प्राणापहरणं चान्यच्चेत्कुर्मस्तर्हि का गतिः ? ॥ ३७९ ॥ धनमेव तदादेयं, मारणीयो न कश्चन । षष्ठः स्पष्टमभाषिष्ट, प्राग्वदत्रापि भावना ॥ ३८० ।। सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्या, जीवास्तेभ्यो यथोत्तरम् । पदमलेश्यास्तेजोलेश्याः, असंख्येयगुणाः कमात् ॥ ३८१ ॥ अनन्तनास्ततोऽवेश्याः, कापोत्यादयास्ततस्तथा । तेभ्यो नीलकृष्णलेश्याः, क्रमाद्विशेषतोऽधिकाः ॥ ३८२ ॥ इति लेश्यास्वरूपम् ।।१७॥ अर्थ-क्रूर पराक्रमबाला एवा केलाएक चोर कोइक गायनो घात करवाने माटे मार्ग जतां परस्पर ए प्रमाणे विचारवा लाग्या || ३७४ ॥ त्या दृष्ट आत्मावाला एक चोरे कम्थु के जे कोइ आपणी नजरमां (देख्यामां ) आये ते माणस होय के पशु होय नो पण ते सर्वने भाजे हणवा. ॥३७४ । त्यारे बीना चोरे कयु के पशुओए आपणो काइपण अपराध कर्मों नथी भाटे जेओनी साथे आपणने विराध के तेवा ( सर्व ) मनुष्योनेज इणवा. ।। ३७५ ॥ स्यारे बोजा चोरे फg अनि निन्दनीय एवी लीयोनी हत्या न करची, परन्तु पुरुषोनेज हणवा, कारण के ते पुरुषोज मूरचित्तवाला छे. ॥ ३७६ ॥ त्यारे चतगइवाळा चोथा चोरे कयु के विचारा शख रहित पुरुषोने वणवा आपणने भुं प्रयोमन छे, ! माटे शस्त्र बाळा पुरुषोनेन इणवा. || ३७७ ।। स्यारे पांचमा चोरे का के-शस्त्रवाळो १ चोरोने निकळयानो उदंश गाम मंटषानो छे पण तेमां गामनी घात कर्या बिना नूंटी शकाय नदि माटे भर्हि " गाममो घात करवाने " पम उशषधन जणाव्यु छ. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६) ॥ लेश्याद्वारे लेश्यापरिणामभेदविचारः ॥ (द्वार मां पण नासी जता पुरुषने इणवायी आपणने Y फल धवानु छ ? माटे शस्त्र वालो पण जे पुरुष आपणी साये युद्ध करे तेने ज हणयो. ॥ ३७८ ॥ त्यारे छटा चोरे स्पष्ट कयु के एक तो पारका धनमालने छूटवो ए पाप छ भने पीजु पण परनो माण लेवारूप त्रो मोटुं पाप करीए तो आपणी शी गनि थाय ? ॥ ३७९ ।। माटे नेनु धनज लेवा योग्य छ, परन्तु कोइपण भारवा योग्य नथी. महि पण पूर्ववत् ६ चोरो अनुक्रमे ५ हावाला जागा ।। ३८. 11 लेश्यानुं अल्पमहत्व-शुक्ललेश्याबाळा जीवो सर्वथी अल्प के ते अनुक्रमे पा. लेण्याळा असंख्यगुणा छ नेधी ते मो लेश्यावाळा अारख्यगुणा . ।। ३८१ ।। थी कॉपोमलेश्यावाला अनन्तगुणा . तेथी अनुक्रमे नीललेश्यावामा विशेषाधिक छे, अने तेथी पण कृष्णलेश्यावाळा विशेषाधिक छे, ए रीते लम्यान स्वरूप स्कायु. ॥ ३८२ ॥ इति लेश्यांद्वारम् ।। १ कारण शुक्लले श्या लांतकथी मांडीने उपरमा देयोमा भने फेटलापक मनुष्यादिकने छ. माटे. २ ते मोयो ३-४-५-कल्पना वो असरूप गुण दोषाधी ३ से थी ज्योतिषी बगेरे असंख्य गुण होषापी ४ संथी पकेन्द्रियो भनेत गुण होचायी, ५. ५ मधि धणी विस्तार भोपन्नषणाजीमां के हांथी उपयोगि पि. षयमा संक्षिप्त भाषा उपकाराथ लख्यो छे, ते आ प्रमाणे कृष्णादि सर्व लेश्याओ पोतानायो अन्य लेश्यानव्यना संबंधयो ते तेजोले. श्याना वर्ण गंध-रस-स्पर्श-अने स्वभावरूपे परिणमी जाय छे, जेम कृष्णलेश्याना परिणामपाको जोध परभया उत्पन्न थषा मादे नील लेश्यानां - व्य प्रहणकरे स्यारे प्रथमनी कृष्णलेश्या प्राणकोली नील लेश्याना संसर्गथी बरलाइने नी ठले श्या थइ जाय. प प्रमाणे सर्व लेश्यामोनी परावृत्ति जाणधी प मनुष्यतिथंच संबंधि लेल्या ओ माटे जाणवू. अने देवनारकना संबंधमां सर्वथा बदलाइ नहि जतां कारक आकारमान बदलाय छ पटले कृष्ण लेश्या. पाळा नारकीजीयनो नोर लेश्या योग्य परिणाम ( कंदक शुभ भाष) पता नोल लेश्या व्रख्यना ग्रहणथी कृष्ण लेश्याना घर्ण गंध रस स्पर्श ने स्वभाव बदलाता नथी, परन्नु कहक विशुद्ध याय छे. पुनः लश्याने योग निमित्त कहेल छे. एदले लेगमां योग मूळ कारण छे. तेथी ज्यांसुधी योगनो सदभाव होय . त्यांसुधोज लेण्यानो संभाष होय छे. अने योमने अभावे लेशमी पण अभाव छे. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७) || लोकपकाशे तृमीयः सर्गः ॥ (सा. २७) (२२७ ) नथा लश्या प पुदलनव्य अवश्य छे. परन्तु पुनलमी गणादिली प्राण वगणाओमांथी दत्यानां पुद्गलो का वर्गणाधाळा छ ? ने संबंधि सर्वथा स्पष्ट स्सु लामो लखित जणानो नथी, मात्र पनघणाजी घगरे मवस्याने "योगाम्नगत द्रष्य" एटलाज अक्षरोनी प्याख्या उपलब्ध थाय छे. परश्नु "अमुक वर्गणा' पम स्पष्ट नथो. अने ए संबंधमां उसराभ्ययनजोनी पाहअटीकामां कांक विशेषता ३. ते ग्यांची जाणथु. नया दिगंयर आम्नायना अकलंकवरचित तत्वाधराजघातिकमां कंदयानां ६ बार नीचे प्रमाणे दर्शायां छ १ निदेश-( कृष्णादि ६ लेश्यानां नाम दर्शाया छे. ) २ श्रण-( प्रथम दविल छ ने अनुमारे ) ३ परिणाम-संख्यात लोकाकाशना प्रदेशप्रमाण अमरूपगुणा कायोदयस्थाना के जघन्य उन्धर अने मध्यम अंशधाळी २ तेश्रो आत्मानी परिणाम संक्लेशनी हानिए प्रवर्तनां कृष्ण नील अने कारोत प ३ अशुभले. स्याओ परिणम छ. तथा जघन्य मध्यम अने उत्कृष्ट अाघाळा स्थानीमा विशुद्धिनी वृद्धिए तेजः पन अने शुक्ल ए ३ शुभ लश्याओ परिणमे . नया उत्कृष्ट मध्यम अने जघन्य अंशोमां विशुद्धिनी हानिर प्रण शुभलेल्या परिणम हो, अने जघन्य मध्यम उत्कट अशोमा संक्लेशनो वृदिए ३ अशुभश्याओं परिणम छ अहिं दरेक लेश्या असरूय टोकाकाशना प्रदेश जेटला अध्यक्ष स्थान चाळी है. १ संक्रम-कृष्णलेश्याबडे मंक्लिश्यमान जीव ( संकले शवृद्धिए ) बोजी लेश्या न पामे, कारणके कृष्णले श्याज पदस्थानातित संक्रमघडे तळे. भाषार्थ प छ के कृष्णलेश्या प्रथम अध्यवस्थान सघट सक्लेशवाछु छे अने त्यारपछीना आगळनां अध्यायानो षस्थानातित (हानि) ना अनुक्रमे छे. तेत्रो जरीते नील-कापोत खैश्यानां अध्यस्थानो पण पदस्थान पतित हानिना अनुकर्म छ, तदनन्तर तेजॉलेश्यानां अभ्य स्थानों पदस्थामपतिम विशुखिनो दिवाळी छ. तेबीजगते पत्र अने शुक्ललेश्यानां स्थानो पण घटस्थान पतित विशुद्धिनी वृद्धिप छ, ५ प्रमाणे बरेक लेश्या पोलपोतानामा पदस्थानपतित छे. तेथी कृष्णले श्याना अन्त्यस्थानथी संकलशमां बधनी बधता जीष कृष्णालेश्यानु प्रथम Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लेण्याद्वार टिप्पनकम् ॥ . [द्वार स्थान पामे स्यारवाद संक्लेशदिवाळी बीजी को लेझ्या नहि होपायी कृ. गलेश्यामाज अटकी माने पुन: हानिमा पसे ते,षखते घटस्थानपतित हानिय वर्तता ज्यारे कृष्णलना अनन्यस्थानरूप सकल शयी पण होनसक्लेश आयनां सुनंज नौलले मा उत्कृष्ट संक्लेश स्थानपर आवे. प प्रमाणे कृष्ण लेश्यानी मंगलेशघृद्धिमा तना जीवने म्यस्थानसेक्रम होय पण परस्थानमंकम न होय अने मं. क्लेशहानिमा वर्तना जोबने स्वधानसंक्रम अने परस्थान कम यन्न होय, पुनः एज पद्धतिए शुक्रलेख्यामा विशुद्धिमी वृद्धिप. पर्नना जोरने परस्थान भक्रम न होय पण स्वस्थान संकम एकत्र होय (कारण के आगळ बीजी अधिक विशुद्ध लेण्यानो अभाव छ ) अने शुक्लले श्यामां विशुदिनी हानिए वतना जीषने स्वस्थानक्रम तो होय परग्सु पचलण्याना उस्कृष्ट स्थानने पामयारूप परस्थानमंकम पण होग, अने ए प्रमाणे मध्यनी चार लेण्याप्रोमा बृद्धिए अने हानिए वर्तनां स्वस्थान अने परम्यान बन्ने मझम होय. हि बस्यामतिनमां अनंतभागद द्विमा सर्व जीवनमाण अनंत पj, जाणवू अमंख्य भाग. पृद्धिमा असंख्यलोकनां प्रदेशरूप असंख्यगणु, संख्येयभागवृद्धिमा उत्कृष्ट म. ख्यातर्नु संख्यातपणु, जाणवं, प रोते अनन्त गुणादिमां पण जाणवु. ५ कर्म-(अंबुफळ भक्षक- दृष्टान्त दशविल छे.) ६ लक्षण -- (का लेण्याब जोबना स्वभाव केवा होग ७ ते पण स्फुर नोटमां दशचिल). गति-लश्याना २६ अंशमा ८ अंश आयुष्याबंधने योग्य छ, कारण के माल अपकर्षरूप मध्यमपरिणामबड़े आयुष्यबन्ध होय छ ( अधि २६ अंश की रीते ? ने विगवगम्नायथी जाणवा.) अने शेष १८ अंशवडे पकगति नामकर्मज अंधाय छे. त्या उत्कृष्ट शुक्ललोण्या परिणामकाळा जोधों काळ करीने सर्वार्थसिद्ध मां जाय, जय शुक्ल सोश्यावामा शुक्र-महाशुफ-शतार-ने माहस्रार कल्पमा जाय, मध्यम शुक्ल होण्याला आनतथी चार अनुत्तर सुची उ पजे. उत्कृष्ट पअसलेल्याबाळा सहचारमा. जय पवाले वाळा मनन् माहेन्द्र यां, मयमपालेच्याळा ब्रह्माथी शतार देलांना कल्प सुधी, उत्कृष्ट ने जोलण्यावा ळा सनत्कुमार मे माहेम्बकल्पमा अन्य चकनामना इंद्रश्मिामधी निकळती विमानपंक्तिमा, जघ० सेजोलेगाषाळा मोधर्म अने ईशाननी प्रथम प्रक विमानथी निकळतो श्रेणीमा, मध्यम तेजो लावाला वंद्रनाममा बन्नकषिमान Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] ॥ लोकमकाशे वतीयः सर्गः ॥ (सा० ९७) (२५९) मी श्रणिथी बलभद्रमामता विकनी भणि सुधी, उत्कृष्ट कृष्ण लंण्याचाळा मातमी पृथ्यो मां, जघः कृष्णाले वाळा पांचमी पृथ्वी नीचे तमिल नामना इन्त्रकनर कावासमां, मध्यम कृलेल्याळा हिम नामना इन्द्रकथो महारोग्घनामना इन्द्रक नाकाबासमुधी, उनील बाळा पांचमी पृथ्मीमां मध्य विफमां, जमनील लथाळा वालुकामा तम नामना इन्द्रकमां, मध्यम नो दल वाळा बालकामा प्रस्तनामना इन्द्रकथी सपनाममा इन्द्रकसुधी उ• कापोत लंयाळा वालुकाप्रभामां संप्रज्वलित नरकावासमां. जघ० काणे लं) पाळा रत्नप्रभामां सीमंतक रन्ध्रक मुधी, अने मध्य का लंग बाळा रौत्रकथी संज्यलित इन्द्र क सुधी उम्पन्न थाय छ. म जाति दी जुया परिवारज्योतिष पृथ्वी काय अपकाय अने वनस्पनि काय मा. मध्यम कृष्णादि ३ मोण्याबढे अग्निकायअन घायुमा उप'ने पमा देश नारको पानानी लोण्या सहित तिगत अन मनुष्यमां जाय छ ८ स्वामिल -१२ पृथ्वीमा कापोत, ३ जीमां नील-कापोन, ४ धी नील, 4 मीमां नील-कृष्ण-६इटीमां कृष्ण, ७ मीमां परमरुण, भयनपतिभ्यंतर ज्यालिपीमां कृष्णादि ४ अपंचेन्द्रियों संक्लिष्ट कृष्णादि ३ लेश्यावाळा, अ0 पंचे० तिर्यंच संक्लिट ५ लक्ष्याशाला, संक्षिएच० तिर्य-मनुष्यने अने १ थो ४ मधी गुणस्थानवालाने ६ लेश्या, ५ ६-७ गुणा बाळाने ३ शुभलेश्या, ८ थी १३ सुधीमा शुक्लन्टेश्या, अयोगि लेश्या रहित, १-२ क. रूपमा तेजो, ३ ४ मां तेजीने पा. ५-६-७ ८ रूपमा पश्न, ९ १० ११-१२ मां पड़ने शुक्ल, आननादिथी सर्वाधंसुधी शुक्ल ( अहि दिर्गयर संप्रदाये १६ कल्प ने प्रवताम्बर संप्रदाये १२ कल्प देयलोक जाणवा. ) ९ माधन - द्रव्यलत्या नामकर्मादयनिमित्तरूप, अने भावलल्याकषायना उदय-अयोपशम उपशम ने क्षययी ; १० संख्या - प्रधमनी ३ लण्याश्री द्रव्यप्रमाणथी अनंतानंत छे, कालप्रमाणी अनंतानंन काल सकना समयमाण है. क्षेत्रको अनंतानं लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण, सेजोलल्या व्यथी साधिक ज्योतिषी यो जेटली छे (क्षेत्र प्रमाश काळ प्रमाग तेजो पगेनु दाव्यु नथी ), पा लश्या. प्रव्यप्रमाणधी संज्ञिपंचे। नियन संख्यालम मागे अने शुक्लत्या जयप्रमाणधी पत्योपमना असंख्यानमा भाग मेटली, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लेण्याद्वारटिकनकम ॥ (द्वार - २१ क्षेत्र - कृष्णादि प्रणमांनी रेक ला स्वस्थान-समुदवान अने उप. पानबहे सर्व लोकाकाशमां व छ, तेजो ने पण पत्रणबहे लोकना असंख्यानमाभागमा. शुक्लले त्या स्वस्थान अने उपपातवडे लोकना असंरूपातमा भागमा ममुदवातघडे लोकना असंख्यानमाभागमों तथा सयलोकमां वन छ. १२ म्पर्शन-कृष्णादि ३ लक्ष्याओ स्वस्थान समुदघात-अने उपपातबडे सर्व लोकने स्पर्श छ, तेजोलेल्या स्वस्थानबढे लोकतो अमं: भाग अश्या दे. ऋण ८१२ लोक समुदघानय ८१४ शा २१४ लोक अने उपपानवडे देशृणा अध अधिक १४ लोक म्पश छ पनश्या स्वस्थान अने समुद्धानबहे दे. वपूण ८५ लोक अने उपपानबढे ५:१४ श्लोक पर्श छे. शुक्कलेश्या स्वस्थान अमे उपपातबहे वेशण ६:१४ लोक भने समुदघात रहे दशग ६:१४, लोक असंरस्यभाग-अथवा सयलोक स्पर्श के. १३ काल-कृणादि ३ लेझ्यानो दरेकनी अघ काळ अम्तमु ० अने उत्कृ० अनुक्रमे साधिक ३३ सागर साधिक १७ मा ने साधिक ७ सागर छ. नजमादि ३ नो जघकाळ अन्तर्मु० अने उ. काळ अनुक्रमे साधिक २ सागर-साधिक १८ साक-अने साधिक ३३ सागर छे. १४ अन्तर-कृष्णादि ३ लेश्या दरेकर्नु जवः अन्तर अन्न, अने उन्कृत असंख्य पुनरूपरावत्त, १५ भाष-छप लेश्या औदायिक भावनी छे, कारणके (द्रव्यलक्या ) शरीरनामोदय थी अने ( भावलेश्या ) मोहनीयना उदयकप छे माटे. १६ अल्पबहुश्त्र-शुक्लले श्या अलप, तेथी पद्म असंख्यगुण, तेथी नेजोलेश्या असंख्यगुण, सेथी अलश्या अनगुण, तेथी कापीत अनंतगुण, तेथी नील अने तेथी कृष्ण विशेष विशेष अधिक छ, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लेश्यान्त्रम् ॥ लश्या पर्ण गंध | रस feঘমি | मपर्श कृष्णलो. | कृष्णवर्ण | दुरभिगंध । कटु कहो) | शीत रस | | वे अन्तमहाधिक ३३ मागसेपम (सनमनारकने) अन्न मुहूर्त नीदले० | नोलवर्ण | तिकतर तीखी पल्यामसयभागाधिक 10 मगर. (पांच मापृथ्वीना म्हेन्ला प्रतरमा। कापोलले. कबुतर सरखो ॥ लोकप्रकाशे तृतीय सर्गः ॥ (सा. १७) पायेलातरी ३ सागर (श्रीजो पृथ्वीना हेला प्रतरमा तेजोले रक्तवर्ण सुरभिगंध मिट लिग्ध-उष्ण. पल्यामंझयेयभागाधिक २ मागर (ईशान देयने) पनको पीतवर्ण मिटतर थे अन्तर्मुअधिक १. मागर. (महलोकना देवने) शुक्लको प्रवेतवर्ण मिश्तम ये अन्नामुं• अधिक ३३ सागर (अनुत्तर देवन। (२६१) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या कृष्णले = नोलले ० कपोती० तेजाले० पछले शुक् ॥ देव - मनुष्य - तिर्यंचगतिमां लेश्यास्थिति || स्थिति ( देवयानी जब ० - १०००० वर्ष उ०- पल्पोपमासंख्येयभाग. 1. जघः – समयाधिक पत्यासंख्येयभागः ( वृद्दत् ज० – समयाधिक नीलो उरकृष्ट, उ०- पत्या संख्येय भाग ( दृष्टत्तर ) -1 जघ० - २०००० वर्ष उ०- पल्या भागाधिक सागर जघ० - समयाधिक उ०- १० सागरोपम " जघ० - समयाधिक १० लागरोपम उ०- ३३ सागरोपम कये स्थाने ? भवन रति अने व्यन्तरम 27 " इशान स्वर्गमा सनत्कुमारमां ब्रह्मकल्पमा लोकवर्गमां अनुतरमां मनुष्य अने तियंचनी होश्या स्थिति अन्त मुद्दत्तं, " निर्वाचमां - अन्तर्मुः मनु ' मा ९वर्षो नपूर्वकोऽव (२६२) || लेoाबारे गारकदेव सम्बन्धिलेश्या स्थिति विचार || (द्वार Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मुं) (२६३ ) -.- ॥ श्रीलोकपकाशे पनीया सर्गः ॥ (सा० ९८) ॥ नारकनी लेयास्थितियन्त्रम् ॥ :- --- लेधया । चिनि কান মাগি की। नीलली. | जघ-- पत्यासंख्येयभागा- | जय० -- पांचमी पृथ्वीना हिल धिक १० मागर प्रतामा उ० : ३३ मागगंपस उ-सातमी पृथ्वीरा जध. - पल्यामंध्येयभा जध..- श्रीजी पृथ्वीना हेला प्रसमां गाधिक ३ मागर उ.--पांचमी पृथ्यांना हेला उत्कृष्ट- १०, प्रतरमा ज०-१०००० घर जघ. .. हेली पृथ्वीना प्वंस्टा प्रतामा उन्कृष्ट-पल्यासंख्येय - | उ, श्रीजी पृथ्वीना हल्ला भागाधिक ३ सागर | प्रारमा हापातलो निर्याघातं प्रतीत्य स्यादा-हारः षदिगुद्भवः । व्याघाते त्वेष जीवानां, त्रिचतुष्पञ्चदिग्भवः ॥ ८३ ॥ अलोकवियताssहार-द्रव्याणां स्खलनं हि यत् । स व्याघातस्तदभावो, निाघातमिहोच्यते।८४॥ भावना वेवं ॥ सर्वाधस्तादधोलोक-निष्कुटस्याग्निकोणके।स्थितो भवेद्यदैकाक्षस्तदाऽसौ त्रिदिगुद्भवः।।५।। पूर्वस्यां च दक्षिणस्यामधस्तादिति दिक्त्रये । संस्थितत्वादलोकस्य, ततो नाहारसंभवः ॥ ८६ ॥ अपरस्या उत्तरस्या ऊर्ध्वतश्चेति दिक्त्रयात् । पुद्गलानाहरत्येवं, मूक्ष्माः पश्चानिलोऽनणुः ॥ ८७॥ ( दिशाहारद्वारस्वरूपम् ) तथोक-"इह लोकचरमान्ते बादरपृथिवोकायिकाकायिकतेजोवनस्पतयो न सन्ति, सूक्ष्मास्तु पञ्चापि सन्ति, बादरा वायुकायिकाश्चति पर्याप्तापर्याप्तकभेदेन द्वादशस्थानान्यनुसतव्यानीति भगवती श०३४३० वृत्ती। [सा०९८] अर्थ-निर्याघात आहारने माअपि आहार छ दिशियी उत्पन्न थयेलो आलो Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशाहारद्वारस्वरूपम् ।। (द्वार दोष थे, अने पाया होहो गमा कम चार-अने पांच दिशियो उत्पन्न थयेलो होय छे. ।। ३८३ ॥ अहिं अलोकाकामावडे आहारद्रव्यनी जे स्खलना ( अटकाव ) ते व्यापानवानी, अने तेनो जे अभाव ( पटले अलोकना अभाव सर्व दिशियी आहारर्नु आगमन धाय ) ते अईि निधिान आहार कोवाय के. ॥ ३८ ॥ अहि नात्पर्य आ प्रमाणे छ के-सर्वथा नीचे अधोलोकमा निकुरैना अग्निखूणामा जो एकेन्दिप जोर रहयो होय तो ने जीवने रणदिशिथी आवेलो आहार होय, 11 ३८५ ॥ अने पूर्व दिशा-दक्षिणदिशा-अने नीचे पत्रण दिशाए अलोक रहेलो होशथी न्यांथी आहारको संभव ( आगमन ) नयी ॥ ३८६ ॥ माटे पश्चिम उत्तर अने उध्य र त्रण दिशामांथी मूक्ष्मपृथ्वीकायादि पांच जीवो अने बादर वायुकाय जीवो पगलोने प्रहणकरे छ । ३८७ ।। ___ का केके -अहिंलोकने छेलो छेडे बादस्पृथ्वी-बादर अपकाय-पा० तनम्काय-अनेत्रा० वनस्पति नथी अने मूक्ष्म सो पांचे जीवो , तेमज बादरवायुकाय पण छे माटे ( ए ६ ने ) पर्याप्ता अने अपर्याप्त गणना १२ जीवस्थानो (लोकने छेडे ) जाण" ए प्रमाणे भगना ३४ मा शनकना ? ला . उशानी वृत्तिमा कयु छे. हयोर्दिशोस्तथेकस्या अलोकव्याहतो बुधैः । चतुष्पञ्चदि. गुत्पन्नोऽप्येषामेव विभाव्यताम् ॥ ८८ ॥ तथाहि ॥ सधिस्तादधोलोक, एव चेत्पश्चिमां दिशम् । स्थितोऽनुस्त्यकाक्षः स्यात्माच्यां न व्याहतिस्तदा ॥ ३८९ ॥ अधस्तनी दक्षिणा च, द्वे एव व्याहते इति । दिग्भ्योऽन्याभ्यश्चतसृभ्यः पुद्गलानाहरत्यसी ॥ ३९० ॥ द्वितीयादिप्रतरेषु, यदो पश्चिमी दिशम् ॥ स्थितोऽनुसृत्यकाक्षः स्यान्न १ अलीकाकाशमा पुद्गलनो अमात्र दोघाथी २ तीक्ष्णसालाप्रमरग्यो निकुट-लोकमा छेडा (लोकनो भित्तो ) ३ अहि क्षेषलोकमां कहेवाशे तेधो क्षशिशा आणधी. ४ आ अग्मिणान अम दृष्टांत आपल छे ते बीजा प्रणाओं माटे पण यथायोग्य प्रणविशोनो आहार जाणो. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... .चित्र नंवर ५ . : . आहार व्याघान चित्रम् ॥ .... । .... वायव्य उत्तर इशार " F नैरुत्य ..... दक्षिण आ अधोलोकना चिनमा दरेक लीटी एकेक मनररुप २. अग्निरखूणामा रहेलो छेल्लो वर्तुल त अग्नि - णामां (मेल प्रनरे रहेलो) निष्कुट वर्ती जीव छे.' न्यांची पसीने रहेलो वेला प्रतरनो बीजो यर्नुल ने पश्चिम दिशाने अनुसरीने रहेलो जीवछ.. अने उपान्त्यप्रनरमा रहेलो वर्नुल पण जीवछे. तिओने अनुक्रमे अधः पूर्व अन दक्षिण दिशानो व्याधान, . अधः अने दक्षिण दिशानी तथा दक्षिण नो व्याघात छे. आनन्द प्रो. प्रेस-भावनगर, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] ॥ लोकपकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ९४) (२६५) व्याहतिरधोऽपि तत् ॥ ३९१ ॥ व्याहता दक्षिणेवैका, ततः पचदिगागतान् । पुद्गलानाहरत्येष, एवं सर्वत्र भावना ॥३९२।। द्रव्यतश्च स आहारः, स्यादनन्तप्रदेशकः । संख्यासंख्यप्रदेशी हि, नाल्मग्रहणगोचरः ॥ ३९३ ॥ असंख्याघ्रप्रदेशाना, क्षेत्रतः सोऽवगाहकः । जघन्यमध्यमोत्कृष्ट-स्थितिकः कालतः पुनः ॥ ३१४ ॥ भावतः पञ्चधा वर्ण-रसेगन्धैर्द्विधाऽष्टधा । स्पर्शरेकगुणस्वादि-भेदैः पुनरनेकधा । ३९५ ॥ किञ्च ॥ अनन्तरावगाढानि, स्वगोचरगतानि च । द्रव्याण्यभ्यवहार्याण्यणूनि वा कादराणि वा ॥ ३९६ ॥ आहरन्ति वर्णगन्ध-रसस्पर्शान्पुरातनान् । विनाश्यान्यांस्तथोत्पाधापूर्वान् जीवाः स्वभावतः ।। ३९७ ॥ इत्याहारदिक्प्रसङ्गात् किश्चिदाहारस्वरूपम् १८॥ अर्थ-मथा रे दिशियी अने एक दिशियी अलोकनो व्याघात होते छते बुरिमानोप एज ( अयवा १२) जीवोने (अनुक्रमे) चार भने पांच दिशिधी आने आहार जाणवो. ॥३८९ ते आ प्रमाणे सर्वथा नोचे अधोलोकमांज एकेन्द्रिय जीव जो पश्चिमदिशाने अनुसरीने ( अर्थात पश्चिम दिशामा ) रह्यो होय तो ते जीवने पूर्वदिशामांथी आहारनो व्यायात हामो नयी ॥ ३०० ।। परन्तु नीचेनी अने दक्षिण ए वे दिशानोज (दिशाना आहारनो) व्याघात होय छे माटे ए एकेन्द्रिय नीच चीजी चार दिशायोाथी आवेळा आहारपुद्गलोने आहरे के (ग्रहण करे छ). ॥ ३९ ॥ तथा पीजी त्रीजादि प्रतरमा ज्यारे अध्य-पचिदिशाने अनुसरीने एकेन्द्रिय जीव रह्यो होय न्यारे तेने अधो दिशानो पण व्याघात न होय ।। ३९२ ॥ परन्तु एक दक्षिण दिशानोज व्यापाव होय, तेयो ते एकेन्द्रिय पांच दिशामाथी आचेला पुनकोने ग्रहण करे छे, ए प्रमाणे सर्व ठे. १ पधिम तरफ खसतो रहेवायो पूर्व दिशा काक अनाकान्त छ माटे, २ दक्षिणमा बलोक छे माटे ३ सर्वाधस्सनप्रप्तरथी उपरना माकाश प्रारमा ४ मातमी नरकना सर्षयी नोचना प्रतरथी उपस्ला मसरनी पश्चिम दिशामा ५ केवळ दक्षिण दिशामांज अलोक आपवायो Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) || दिगाशरणारे द्रव्यादित आहारस्वरूप वर्णनम || काणे एज पति विचारत्री ॥ ३५३ ॥ ॥ प्रसंगतःआहारनां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-ने भाव ॥ ते आहार द्रव्यधी अनंत प्रदेशी छे, कारणके संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेशी पुलो आत्माने ग्रहण विषयवाळ (प्रहण यनां ) नथी || ३९४ || ते आहारपुळना स्कन्ध क्षेत्री असंख्य आकाश प्रदेशमां अवगाह करनारा है, अने काळी जन्य-मध्यम-अने उत्कृष्ट स्थितिवाळा हे ॥ ३९६ ॥ भावधी वर्ष अने रसवडे पांच fe areas, ias चे प्रकारनो-परीवडे आठ प्रकारनो अने एक गुण द्विगुणइत्यादि (वर्णादि) व अनेक प्रकारों के ॥ ३९६ ॥ वळी पोनानायने प्राप्त श्रयेला अने ( आत्माए अवगाहन करेला आकाश प्रदेशोथो) बीना (आकाश) मदेशोमा नहि अगाहेछ ( पण आत्म प्रदेशोमांज अवगाली ) एव आहार करना योग्य सूक्ष्मं अथवा बादर पृ द्रव्योने तेषां रहेका पूर्वना वर्ण गन्ध र अने पर्शनो विनाश करीने तथा बीजा अपूर्व नवा (वर्णादिक) - उत्पन्न करीने जीवो स्वभावधी ( ते द्रव्यो ) ग्रहण कर ले, ए प्रमाणे आहारनी दिशा कहेवाना प्रसंगे ते आहारनुं पण कडक स्वरूप क ॥ ३९७ ॥ || इति दिगाहारवारम् || हत्रे संघयणद्वार ओगणीशमं कड़े के. अस्थिसंवन्धरूपाणि तत्र संहननानि तु । पोढा खलु विभिद्यन्ते, दाढर्यादितारतम्यतः ॥ ३९८ ॥ तथाहुः ।। "वजरिसहनारायं, पढमं बीयं च रिसनारायं । नारायमद्रनाराय कीलिया तहय बेव ॥ १ ॥ [ सा०९९] (वजर्षभनाराचं प्रथमं द्वितीयं च ऋषभनाराचं । नाराचमर्धनाराचं कीलिका तथा च दस्पृष्टम् (सेवा) कीलिका वज्रमृषभः, पट्टोऽस्थिardes | स्नोर्कटबन्धो यः स नाराच इति स्मृतः 1 (जार १-२ जघन्यथी १ समय अने उत्कृश्या असंख्य काळ सुधी आहारपणे रहेनारा ( तदनंतर आहारपणाने अयोग्य थाय छे. ) If 3 पोताना विषय " पटले आहारपणाने B आत्मप्रदेशयो भिन्नमदेशामाही द्रव्य आत्मा ग्रहण न करे माटे. ५-६ म केन्द्रियां सुक्ष्म आहार ग्रहण करे छे अने यावर पकेन्द्रियादि सर्वजीष सूक्ष्म अर्ने बादर पुरूष आहार ग्रहण करे छे अहीं सूक्ष्मते मांदानी अपेक्षाये न्हाना दुगो जात्रा सर्व अनं राइनी जेम ' Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ मु) || लोकप्रकाशे तृतीय सर्गः ॥ (सा० १०० ) (२६७) ॥ ३९९ ॥ ततश्च ॥ बद्धे मर्कटबन्धेन, सन्धौ सन्धौ यदस्थिनी । अस्थमा च पट्टाकृतिना, भवतः परिवेष्टिते ।। ४०० ॥ तदस्थिश्रयमावि, स्थितेनास्थ्ना दृढीकृतम् । कोलिकाकृतिना व वर्षभनाराचकं हि तत् ॥ ४०१ ॥ युग्मम् | अन्यदृषभनाराचं, कीलिकरहितं च तत् । केचित्तु वज्रनाराचं, पट्टोज्झिममिदं जगुः ॥ ४०२ ॥ स्थ्नोर्मर्कटबन्धेन, केवलेन दृढीकृतम् । याहुः संहननं पूज्या, नाराचाख्यं तृतीयकम् ॥१०३॥ बद्धं मर्कटबन्धेन, यद्भवेदेकपार्श्वतः । अन्यतः कीलिकानद्धमर्धनाराचकं हि तत् ॥ ॥ ४०२ ॥ तत्कीलिकाख्यं यत्रास्थ्नां केवलं कीलिकायलम् । अस्नां पर्यन्तसंबन्धरूपं सेवार्त्तमुच्यते ॥ २०५ ॥ सेवयाऽभ्यङ्गाथया वा, ऋतं व्याप्तं ततस्तथा । बेदः खण्डेर्मिथः स्पृष्टं, वेदस्पृष्टमोऽथवा ॥ ४०६ ॥ यद्यपि स्युरनस्थी नामेतान्यस्थ्यात्मकानि न । तद्गतः शक्तिविशेषस्तथाप्येषुपचर्यते ॥२०७॥ एकेन्द्रियाणां सेवा, तमपेक्ष्येव कथ्यते । जीवाभिगमानुसृतैः, कैश्विश्चायं सुधाभुजाम् ॥ ४०८ ॥ संग्रहणीकारेस्तु-छ गभ तिरिनराणं, समुच्छिषणिदिविगल बेव । सुरनेरइया एगिंदि - या य सव्वे असंघयणा || १ | (षड् गर्भजतिदैग्नराणां सम्मूर्छिमपचेन्द्रियत्रिकलानां सेवार्तम् । सुरनैरयिका एकेन्द्रियाश्च सर्वेऽसंहननाः ||) इत्युक्तम् । (सा० १००) इति संहननानि १९ ॥ अर्थ - १९ संघयणद्वारम् - हाडकानां संवन्ध रूप संघयेणो के निश्चय - तादिकना तफावती ६ प्रकारना भेदवाळा हे ||११८ || छेके वज्र ऋषभनाराच - बीजुं ऋषभनाराच त्रीजुं नाराच बोधुं अर्धनाराच-पांच की. Ch - १ersarai संधिस्थाने आवेला से छेड़ा से संबंधयों रहेला छे ते संबंधने मंश्रयण कडेवामां आवे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ------ -- --- -- - (२६८) ॥ संहननस्वरूपनिरूपणम ॥ (मार लिका अने छट्टु छेवठु सेवा-छेदस्पृष्ट)" वन एटले खीली ऋषभ एटले बे हाडकांने वीसाइ रहेलो पाटो अने हाडकांनो जे पटबंध ते नाराष एम कहेलले ॥ ३९९ ।। अने तेथी दरेक सांधामां जे चे हाडका (ना छेदा मर्कटबंधवहे बंधायला होय, अने पाटा सरखी आकनोवाला हाहकारहे विटापला होय, ॥ ४०. अने ते पण हाहकाने भेदीने रहेली खोलीनी आकृतिबाला हाडकावडे अतिहट ययेल होय तेज बज्रऋषभनाराचसंहनन कहेवाय. ॥ ४०१॥ वीजें जे ऋषभनाराचसंहनन ने खीली रहिन पूर्वोक्तंपकारर्नु छ, केरलाएक भा. चार्य नो ए अनासं० ने (बदले) पाटा रहिन वज्रनाराच कहे थे. ॥४०॥ जे संघयण फक्त वे हाडकांना पटवषयज दृढ थयेल छे तने श्रीपूज्यभगवन पूर्राचार्यों (अथवा सर्वज्ञो) त्रीजु नाराच नामर्नु संघयण कहे छे, ॥४०॥ जे संघयण एक बाजुधी मबंधवडे बंश्चागल होय अने वीजी बाजुए खीलोबडे जडेलु होय ते अर्धनाराच कवाय, || ४०४ ।। जे संघयणा हाटकाने मात्र खोलीचेंज बळ होय ने कीलिका नामर्नु संघयण,अने जे हाडकांना छेदाना संबंध मानवालं होय ते सेवार्स संघयण कहेवाय छे. ॥ ४०५ (पमा व्युत्पत्यर्थ आ पमाणे के के-) अभ्यंगादिक (-तैलादिवडे चोल-मसळवु-दावq इन्यादिक) मेवा वडे ऋन एटके व्याप्त (-रकी रहेना5) होय छे माद सेवात कडेवाय छे. अथवा छेद २ मर्कट पटले वांदरीन बर्नु पोतानो माने (धांदरीने) जेबो रोते बळगी रदै छे तेषीरीते हाहकांना बे छेदा परस्पर आंटी भारीने पळमेला होय सेषा बंध पटले हाडना मबंधने मकटयंध ले. ३ वे हाइकांमकटवन्धयाळा अने पाटो एणने भेदीने खोली रहेलाअहि स्वीलो प्रथम उपरना हाडपट्टने भेवीने तेनी नीचे हेला मर्कटवन्धवाळा हाहकाने पछी तेमी नीचे रहेला बीजा हाडकाने, अने पछी सब थी भीवेना हाइपट्टने भेदीने रहेली होय छे। होचाथी भेद चार तथा खोली साथे हाहवार थाय छे. ४ बर्ष भनाराचमां कहेला प्रकाग्नु ५ योजी याजुप परले प्रथम संघयणमा ज स्थाने मध्य भाग नीलो हनीन्यांज ६ अर्थात व हाडकानां च छेडामा पक छडो बोभणवाळो होय समां बीजा हाडकामो छेडो स्हेज उतरेलो होय छे. प रोते वे छडाना परस्पर स्पर्श संघवषालु. ( मेम उखलमां मुशल रहेल होय तेम आ सेषात संघसोय छे । अने उपरनां पांचे संधयणोमा हाडकानां बे छ डा यक बीजापर पदीने रहेला होय छे. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र ११ थी १६ वज्रर्षभनाराच संहलर विव बैठ तरफ हाटकाना ऐसा ओनो मर्केटबंध येलो . मर्कट बंधनी उपर लगायेंलो हाडकानो पाटी. 2 ३ मर्कटबंध तथा पटराने चीथीने बी जी बाजुनीक केली, ऋषभ नाराच संहनन : हाकानी खीली. चित्र २ LG आ संहननमा उपरनी स्पीली नथी. नाराच संहनन चित्र ३. आ संहननमा पाटी तथा पीली बडे नथी अर्ध नाराच संहनन चित्र ४ आ संहननमा एकलाजु मर्कटबंध अने बीजी बाजु हाडकानो छेड़ो पी ली थी जो ईलो छे. किलिका संहनन चित्र ५ आ संहननमां एकतरफनी हाडका नी खोभनमा बीजा हाडका नो खीली थी मजबूत करे लो छे. सेवा संहनन चित्र ६ आ संहनन मां मात्र हाडकानो छोडो खोमण मां अडकाळेलो छे. आनन्द प्री. प्रेस - भावनगर, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) लोकप्रकाशे तृतीयः सः ।। (सा. १०१) (२६५ ) एटले हाहकांना खंड सेवडे परस्पर स्पृष्ट एटले स्पर्शयलं होय छे माटे छेदस्पृष्ट पण काप छे. ।। ४०६ . वळी जो के हारकारूप मा संघयण हाडका चि. नाना जीवोने न होय नोपण ते मंघयणमा रहेली जे शाक्ति ते तेओमा होचाथी ते जीवोमा संघयण होवानो उपचार ( आरोप) कराय हैं. ॥ ४०७ ॥ एज अपेक्षाए श्रीजीवाभिगमजी ने अनुसरेला (ने अनुमारे ) केटलाएक आचार्यो एकेन्द्रियोने षक्ति (पट) सयप, मो देयोने हेटु बचऋषभनाराच संघयण कहे छ. ॥ ४०८ ।। संग्रहणोकारे तो-“ गतियेच अने ग. मनुष्योने छ, समु. पंचे-अने निकलेन्द्रियने छेवटुं संघ. हाय छे. अने देवनानारकी नया एकेन्द्रियजीवोस संघपणरहित होय छे' परीते कहलं . ॥ १ ॥ इति संघपणमारम् १९ ॥ [ हवे बीसमुं कषायद्वार कहे छे.] कषं संसारकान्तारमयन्ते यान्ति यैर्जनाः । ते कषायाः क्रोधमानमायालोमा इति श्रुताः ॥ ४०९ ॥ क्रोधोऽप्रीत्यात्मको मानोऽन्येास्त्रोत्कर्षलक्षणः । मायाऽन्यवञ्च. नारूपा, लोभस्तृष्णाभिगृध्नुता ॥ ४१० ॥ चत्वारोऽन्तर्भवन्त्येते, उभयोढेषरागयोः। आदिमौ हौं भवेद् द्वेषो, रागः स्यादन्तिमौ च तो ॥ ४११ ॥ स्वपक्षपातरूपत्वान्मानोऽपि राग एव यत् । ततस्त्रयात्मको रागो, द्वेषः क्रोधस्तु केवलम् ॥ ४१२ ॥ चत्वारोऽपि चतुभेदाः,स्युस्तेऽनन्तानुबन्धिनः। अप्रत्याख्यानकाः प्रत्याख्यानाः संज्वलना इति ।। ४१३ ॥ एतल्लक्षणानि च श्रीहेमचन्द्रसूरिभिरित्थमूचिरे।।"पक्ष संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्षे, जन्मानन्तानुबन्धिकः ॥४१॥ वीतरागयतिश्राद्धसम्यग्दृष्टित्वघातकाः। ते देवत्वमनुष्यत्वतिर्यक्वनरकप्रदाः॥४१५||"[सा०१०१]प्रज्ञापनावृत्तौ च "अनन्तान्यनुबध्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये । तेनानन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधायेषु नियोजिता॥४१६॥एषां 'संयोजना' इति द्वितीयमपि नाम ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पायबारे अनन्तानमन गादिश्व गवर्णनम् ॥ (बार संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसंख्यैर्भवेः कषायास्ते । संयोजनताऽ. नन्तानुबन्धिता वाऽप्यतस्तेषाम् ॥ ४१७॥" (सा०१०२) नाल्पमप्युल्लसेदेषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥ ४१८॥ सर्वसावविरतिः, प्रत्याख्यानमिहोदितम् । तदावरणतः संज्ञा, सा तृतीयेषु योजिता ॥ ४१९ ।। संज्वलयन्ति यति यत्,संविग्नं सर्वपापविरतमपि। तस्मात्संज्वलना इ-त्यप्रशमकरा निरुच्यन्ते ॥ ४२० ॥ अन्यत्राप्युक्तं-"शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, संज्वलन्ति यतो मुहुः । ततः संज्वलनाह्वानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥ ४२१ ॥" (सा० १०३) अर्थ-२०९ कषायवार-कषं एटले समानरूपी पनने जीवो जेनावडे भयंते पटले पामे छे. ते 'कषाय क्रोध-मान-माया-ने कोष एम पार पकारना छे. ॥ ४०० ।। तेमा अमीतिरूप कोष, अत्यनी हा अने पोतानी अंटना दर्शाबचाना लक्षणचाळ मान, बीनाने ठगवारूप माया, अने तष्णा अथवा कोल्प. तारूप लोभ कडेवाय छे. ॥ ४० ॥ ए चारे कपाप राग अनेद्वेष ए माँ अन्तर्गत याय. तेमा रहेका रे ( कोध ने मान ) द्वेषरूप छ, अने बीजाचे कषाय ( माया ने लोभ ) रागरूप ... ॥ ४११ ॥ पळी [ विचारणामेदे ] तो पोताना पक्षपातरूप होवाथी मान पण गगज छे. अने तेथी राग अण कमायरूप के, अने देष ते केवळ क्रोधरूपप्र . ॥ ४१२ ।। ए चारे काय अनन्नानुबन्धि-अप्रत्यारूपानी-प्रस्यान्यानी-अने संज्वलन एम चार चार प्रकारना छे. ॥४१३॥ ए अनन्नानुबनध्यादिचारनां सक्षण श्रीहेम चन्द्राचार्य भगवन्ते आ प्रमाणे कांदे के-१ पखवादीयानी स्थितियाळो संज्जलन, ४ मामनी स्थितिवाळो प्रत्याख्यानी, १ वर्ष प्रयास्थितिवाको अप्रत्याख्यानी, अने आखा भव मुधी रहेबावालो अनन्तानुवन्धि कषाय छे. ॥ ४१४ ॥ वली ए चारे (संज्वलनादि ) पाय अनुक्रमे वीतरागपणु-सर्व निरलिपणुंन्देशविरतिपणुं १ अथवा कप-समारनो माय-लाम जेनायडे होय ते कवाय कवाय, १हु श्रेष्ठ अमे मार ते सारं इत्यादि पक्षपात रूप Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ) ॥ श्रीलोकमकाशे तनीयः सर्गः ॥ (सा० १०३) (२७१) अने सम्यक्त्वने यात करनारा छे, तथा ( अनुक्रमे ) देवपणु-मनुप्यपणुनिर्यञ्चपणु-भने नरकगति आपनारा के. ॥४५॥ वळी प्रज्ञापनावृत्तिमा कयु के के-जेनाथी-जे कारणयी प्रणे जगत्मां जीवो अनन्त संसारनो अनुगन्ध करे है, ने कारणयी " अनन्तानुबन्धि" प नाम दरेफ (क्रोधादि) साये जोडेलुं छे. ॥४१६ ।। वली एन “ सयोजना " एव॒ धीजु पण नाम के. जे कपाय मनुष्यने (नीबोने) अनन्त संख्यावाळा (एटले अनन्त ) भवानी माये संयोजयति-जोडे छे, माटे ते कषायोने संयोजना अथवा अनन्तानुबन्धि पणु' कहेल्छे ।। ४१७ ॥ वळी जे कषायांना उदयपी जीवोने आ संसार. मां अल्प प्रत्याख्यान ( त्यागवृत्ति) पण उदयमा आवतुं नथो ने कारणथी ए कपायोमा 'अप्रन्याख्यानी" ए बीजु नाम जोडेल ।। ४१८॥ तथा अहिजे मय सावधनो [ अशुभयोगनो) स्पाग तेने “मत्याख्यान ५ फहेळ छे, ते प्रत्याख्यानने आवस्वाथी ते कपायोमा प्रत्याख्यानावरण पत्रीजु नाम पण जोडेलु छे. ॥ ५१९ ।। वळी जे संविज्ञ ( संसारथी विरक्त एका ) अने सर्व पाप रहित एवा नि महात्माने पण कंडक जाज्वल्पमान करे ले, ते कारणथी अशान्ति करनार एचा ने कषायो संज्वलन कहेपाय छे. ॥ ४२० ॥ बीजे ठेकाणे पण का छे के-जे कारणयी शब्दादि ( शन्द-वर्ण-गन्ध-रस-ने पशरूप ) विषयो पामीने (माप्त धनां) वारंवार ( कषाय ) उद्दीपन (प्रगट } थाय के ते कारणर्थी चोचा कषायोनु मज्वलन एवु नाम फहवाय छे. ॥४२॥ स्युः प्रत्येकं चतुर्भेदा, भेदाः संज्वलनादयः । एवं षोडशधेकैकश्चतुःषष्टिविधा इति ।। ४२२ ॥ यथा कदाचिच्छिष्टोऽपि, क्रोधादेर्याति दुष्टताम् । एवं संज्वलनोऽप्येति, क्वाप्यनन्तानुबन्धिताम् ॥ ४२३ ॥ एवं सर्वेष्वपि भाव्यम् ॥ तत एवोपपद्यतानतानुबन्धिभाविनी । कृष्णादेर्दुर्गतिनं, क्षीणानन्तानुबन्धिनः संसारविरक्त अने सर्वथा पारिधमार्गमा उद्यमशाळा पन्ना मुनि महात्मा मे पण अट (अनु) माममी पामोन करक रागभाष, अने अनिष्ट सामग्री परे करक असचिभाष पाय छे ते संपलनकायना उरथयाज, २ (म०संक्रोध-२ संप्रत्याक्रोध ३ सं०अप्र०कोध- स० अनंताक्रोध इत्यादि रोते १६ ने चार गुणषाथी ६५ भदो जाणधा. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२) ॥ कायद्वारे कषायस्थित्यादिम्वरूपनिरूपणम ॥ [द्वार - -- -- - ------ -- ॥ ४२४ ॥ एवं चा वर्षावस्थायिमानस्य,श्रीबाहुबलिनो मुनेः। । कैवल्यहेतुश्चारित्रं, ज्ञेयं संज्वलनोचितम् ॥ ४२५ ॥ कर्मग्रन्धकारैश्च सदृष्टान्ता एवमेते जगदिरे । जलरेणुपुढविपन्वयराईसरिसो चउबिहो कोहो । तिणिसलयाकहहियसेलत्थंभोवमो माणो ॥ ४२६ ॥ मायावलेहिगोमुत्तिमिढसिंगघणवंसिमुलसमा । लोहो हलिइखंजणकदमकिमिरागसारिच्छो॥४७॥सा०१०४[जलरेणु पृथ्वीपर्वतराजीसदृशश्चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थिकशैलस्तम्भोपमो मानः ॥ मायावलेखिकागोमत्रिकार्मिद शृङ्गधनवंशमूलसमा।लोभो हरिद्रखम्जनकर्दमकृमिरागसरक्षः।] ___ अर्थ-चळी ए प्रत्येक(१६)कपायना संज्यलन वगैरे चार चार भेद छे. ए प्र. पाणे एकेक (क्रोधादि) कषाय १६-१६ प्रकारको यत्राथी कषायना सर्व भेद ६४ श्या. ॥ ४२२ ॥ जेम कोई वखत उत्तम महात्मा पुरुषो पण कोषादिकरी पुष्ट. मा धारण करे के, तेम संज्वलन कषाय पण कोइक वखन अनन्तानुवन्धि पणुं पामे छे. ( पटके अनन्ता सरखो उन यह जाय छे, पण पस्तुनः ते संज्वल - नज.)। ए प्रमाणे सर्वे कषायोमा विचारवं ।। ४२३ ॥ अने र कारणथी न क्षप पामेला अनन्तानुबन्धि पायवाला या कृष्णादिकने पण निश्थ मनन्तानुबन्धि कषायथी माप्त थनारी दुर्गनि थइ, ॥ ४२४ ॥ बळी एगीने जेमने एक वर्षे मुधी मान कषाय रहेलो छ तेवा श्रीयाहवलि मुनिने केवलहानना कार. १ अर्थात् नरकमा उत्पन्न थता जीवने अनंतानुबंधिनो उदय होय के, छता जे ने क्षायिकसभ्यत्व होपाथो अनंतानुम्वधिमा सय थये लो के पषा कृष्णवासुदेव धीजी नरफे गया ते केम बनी शके ? सेन समाधान एज के कृष्णवासुदेषने अप्रत्यारुपानीकषाय इतो, परन्तु अन्नपखते नरके जता पत्र स०काय उग्ररूप धारण करवायी अनानुवंधि सरगलो थयो तो, जेथो श्रीज्ञो नरके गया, तेथी कोड विरोध नथी, पळो भेशिक राजा पण भा. यिक सम्यकस्वी छतां हेली नरकमां पण पज गीते गया, २ श्रीऋषभ देखना पुत्र बाहुबलीजो पोताना भाइ भरतनकति माथे युद्ध करना भरतने मारवा माटे मुठी उपाहतांज वैगम्यभात्र आयी जबाथो तेज उपाहेली Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मु) ॥ लोकप्रकादो तृतीयसर्गः ॥ (सा. १०४) (२७३) णरूप जे चारित्र हतुं ते संज्वलन कशायने उचिन ज हत. ॥ ४२५ ।। बळी श्री कर्मग्रन्थकारोए दृष्टान्नपूर्वक ए पायोने आ प्रमाणे काणाले.-चार प्रकारनो क्रोध अनुक्रमे जलनी रेखा-रेनीनी रेखा-पृथ्वीनी रेखा अने पर्वतमी रेखा सरखो (अनुक्रमे) छे. अने (चार प्रकारनुमान (अनुक्रमे) नेनरनी सौटो काटनो स्तम्यहाइकानो स्तम्भ-अने पत्थरना स्तम्भ सरखं छे. ।।४२३॥ [चार प्रकारनी) माया नांमनी कोल समान-गोमूत्र ममान--मंदाना (धेराना) शिंग समान अने वां सना मूळ सरखी ले. (चार पफाग्नो लोभ) हळदर-गाडानो कोट (काजळ) मुत्रीथी केशनी लोच करी मुनि अया. ते हेला गोसाधीनहाना वीजा ९५ भाइओए ऋषभदेव पिला पालें दीक्षा लीधेली हमी. तथी नाना भारीने पैदना फेम फर ! पथा मानथी १ वर्षमुधी ते पनमांज वाहुबलि मुनि उत्कृष्ट चारित्र भाषथी कायोमर्गमा रया, परन्तु माननो अंश रही अयाथी केबल भान पामी शक्या नोंह, स्यारवाद प्रषभदेव भगवाने बे माध्यो ओन (यनोने) उपदेश देया मोकळी, ते साधीओए हे धंधु हाथी उपरथी उमगे" त्या वि उपवेश आपबाथी बाहुबलि मुनिने " हुँ मान द्वाधीपर बदेलो छु . स्यादि चोध आयतां पोताना नाना भाराने बना करचा मागे पग उपादसांज केवलशान उत्पन थयु. अहिं पक वर्षमुधी बाहुबलि मुनिने मंज्वलन कपायज इतो, पन्धर दिषसनी स्थितियाळी ते काय कंहक अधिकमायाली होवाथी अप्रत्याख्यानी सरखो थयो तो जेधी १ वर्षसुधी ते रही शक्यो, १ जेम जालनी रेखा बगेरे प्रषा रेखाभो अनुक्रमे शीघ्र अने घणा घणा काळे मळे छ नेम संचलनादि ३ कोधघाळाओनो फोध अनुक्रमे शीघ्र घणा घणा काळे शारत धाय. अने पतनी रेखा (फाट) प्रेम कोरपण काळे कोरपण जु. पाये मळे नहिं तेम अनंता शोध पण कोड रीसे उपशमे नहि। पनापय रे. २ जेम नेतानी सोंटी वगेरे प्रण शीत्र अने अधिकाधिक कशथी बळी शक नेम संज्वलनादि मानवाळो स्टेलाइथी तथा अधिकाधिक कष्टे मान छोडी शके अने पत्थरनो स्तंभ जेम कोरोते पळी शके, नहिं सेम अनंता. मामधाळो नीष कोई रीते मम्रता धारण करे नहि. ३ जेम बांसनी छोलनी पता रहे सीधो थाय, आने वीजी व धकता अधिक अधिक उपाये टळे अने पांसमा मूळनी वक्रता को रीते टळे नादि तम संचलनादि माया संयंधि पकता पण जाणवी. ४ जेम हलदरनी रंग समां उतरी जाय वीजा ये रंग घणा घणा काटे उसरे भने कृमिरंग कोई गैने उत्तरेश मा नेम संचलनादि लोभ पण जाणतो. एमां कोधने फाटनो उपमा, मानने अक्कातानी, मायाने पक्रनाना. अने महोभने रंगनी उपम आपी छ, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) पायद्वारे प्रकारान्तरतः कषायभेदनिरूपणम् ।। (द्वार नगरनी खाळनो कादव- अने कृमी (करमजी) रग सरखो छ. ॥ ४२७ ।। तथा प्रज्ञापनायां प्रज्ञप्ताः,स्वान्योभयप्रतिष्ठिताः। अप्रतिष्ठितकाश्चैवं, चत्वारोऽपि चतुर्विधाः ॥१२८॥ तथाहि।।स्वदुश्चेष्टिततः कश्चित्, प्रत्यपायमवेक्ष्य यत् । कुर्यादात्मोपरि क्रोधं. स एव स्त्र. प्रतिष्ठितः ॥ ४२९ ॥ उदीरयेद्यदा क्रोध, परः सतर्जनादिभिः । तदा तद्विषयः क्रोधो, भवेदन्यप्रतिष्ठितः ॥ २३० ॥ एतच्च नैगमनयदर्शनं चिन्त्यतां यतः । स तद्विषयतामात्रात्, मन्यते तत्प्र. तिष्ठिनम् ।। ४३१ ॥ यश्चात्मपरयोस्ताहगपराधकृतो भवेत् । क्रोधः परस्मिन् स्वस्मिश्च, स स्यादुभयसंश्रितः ॥ ४३२ ।। विना पराक्रोशनादि, विना च स्वकुचेष्टितम । निरालम्बन एवं स्यात्, केवलं क्रोधमोहतः ॥ ४३३ ।। स चाप्रतिष्ठितः क्रोधो, दृश्यतेऽयं च कस्यचित् । क्रोधमोहोदयात्क्रोधः कर्हिचित्कारणं विना ॥ ४३४ ॥ अत एवो पूर्वमहर्षिभिः॥सापेक्षाणि च नि. रपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम्॥४३५॥ इत्याद्यर्थतःप्रज्ञातृ० पदे।(१०५)एवमन्येऽपि त्रयः कषाया भाच्या इति । चतुर्भिः कारणरेते, प्रायः प्रादुभवन्ति च । क्षेत्र वास्तु शरीरं च प्रतीत्योपधिमङ्गिनाम् ॥ ४३६ ॥ सर्वस्तोका निष्कपाया, मानिनोऽनन्तकास्ततः । कु द्धमायाविलुब्धाश्च, स्युर्विशेषाधिकाः क्रमात् ॥ ४३७ ॥ एकेन्द्रियाणां चत्वारोऽप्यनाभोगाद्भवन्त्यमी। श्रदर्शितबहिर्देहविकारा अस्फुटात्मकाः ॥ ४३८ ।। सवदा सहचारित्वात्, कषायाऽज्य. भिचारिणः । नोकपाया नव प्रोक्ता, नवनीयक्रमाम्बुजैः ।।४३९॥ तदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ "कषायसहवर्तित्वात्, कपायप्रेरणादपि । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मुं) ॥ श्रीकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १०६) ( २७५ ) हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता॥४४०|| (सा०१०६) हासो खयरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एष व । पुंखीक्लोवाभिधा वेदाः, नोकषाया अमी मताः ॥ ४४१ ॥ इति कषायः २० ॥ अर्थ - तथा श्रीप्रज्ञापना सूत्रमां ए चारे कषायोने स्वप्रतिष्ठित - अन्य प्रतिमोक्ष-उभयमतिद्धित अतितिए प्रमाणे चार चार प्रकारना का छे. ॥। ४२८ ॥ ते आ प्रमाणे पोतेज करेला दुष्ट कार्यथी आवी पडे कष्ट जोड़ कोइक पुरुष जे पोताना उपरज क्रोधवाको थाय ते स्वप्रतिष्ठितक्रोध कहेवाय. || ४२९ ॥ ज्यारे बीजो कोइ पुरुष ताडना तर्जनादि वडे आपणो कोष उदारे ( प्रगट करे ) त्यारे वीजा पुरुष उपर थयेलो आपणो क्रोध अन्यप्रतिष्ठितक्रोध कद्देवाय ।। ४३० ।। ए बात नैगमनयने अनुसारे जाणवी, कारणके तेनैगमनच तेना (निमित्त) संबंध मात्रयीज तत्पतिष्ठित माने छे.।।४३१ ।। बळी जे कोघ पोताना अने परना बन्नेना तेवा मकारना अपराधधी ययेको होय ते पोताना उपर अने परना उपरनो क्रोध उभयप्रतिष्ठित क्रोध कहेवाय छे. ॥ ४३१ ॥ अने पोते दुष्टतकर्या विना तेमज बोजाए संतजनादि कर्या विनाज आलंबन विनानो (निमित्त दिनानो) जे कोच फक्त क्रोधमोहनीयोदयना उदयधीज थाय ते अप्रतिष्ठित कोध कहेवाय, ए क्रोध कोकने क्रोधमोहना उदययीकोइपण कारण विना उत्पन्न थलो देखाय के ॥ ४३३ ॥ तेथीज पूर्वाचार्योए कधुं छे के कर्मो उदय आपली रखते (-कर्मनो उदय ) सापेक्ष (निमित्त पामीने) अने निरपेक्ष (isपण निमित्त प्राप्त थया विना ) होय छे, जेम सोपक्रमी आयुष्य सापेक्ष अने freeकमी आयुष्य निरपेक्ष कहेल छे. ते ॥ ४३४ ॥ इत्यादि अर्थ श्री प्रज्ञापना सूत्रना त्रीजा पदमां है. ए प्रमाणे बीजा त्रण कषायो पण ( चार चार प्रकारना ) जाणा ॥ ४३५॥ जीवोने ए चारे कषाय प्रायः चार कारणची प्रगट थाय छे. -१ भूमिना कारणथी - २ गृहादिकना कारणथी--३ शरीरना कारणथी-- अने ५ उपधि (घन धान्य वस्त्रादि) ना कारणथी. ॥ ४३६ ॥ ए चार कषाथमां सर्वथी अस अकपायी (सिड) जीवो छे, तेथी अनंत गुणमानपायी. तेथी विशेषाधिक कोच कषायी, तेथी विशेषाधिक माया कषायी, अने तेथी पण विशेषाधिक लोभ कषायी जीवो अनुक्रमे छे. ॥ ४३७ ॥ एकेन्द्रियजीवोने ए चारे कषाय बहारथी शरीरनो विकार दर्शाव्या विना अप्रगटरूपे = Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) ॥ संसाबारे संज्ञामेदाः संज्ञास्वरूपनिरूपणं च ॥ द्वार अव्यक्त (प्रगट क्रोधादि उपयोग रहित) होय .. ॥४३८॥हमेशां (कषायनी सापेज रहेनारा होवायी कपाययी अव्यभिचारी (वहि साथे धूमनी माफक व्याप्त थइ रहेनारा) एवा (हास्यादि) नबने स्तुति करवा योग्य के चरण कमळ जेपना एका श्री जिनेवरोए नोकषाय कमा २.१४३९॥श्रीप्रज्ञापनावृत्तिमां कार्य के के-कषायनी साधे रहेनारा होवाधी,भने कषायोने प्रेरणा करनारा होबाथी हास्यादि ने नोकषाय कायपणुं कहेल के. ॥ ४४० ॥ हास्य-रति-अरप्ति-भय जुगुप्सा-अने शोक तथा पुरुष-स्त्री--अने नपुंसक नामना ३ वेद ए सर्व [२] नोकषाय कहेला के|| ४४१ ॥ इति कपाय मारम् २०॥ __ संज्ञा स्याद् ज्ञानरूपेका, द्वितीयाऽनुभवात्मिका । तत्राद्या पञ्चधा ज्ञानमन्या च स्यात्स्यरूपतः ॥ ४१२ असातवेदनीयादिकोदयसमुद्भवा । थाहापादिपरीणामभेदात्सा च चतुर्विधा ॥ ४४३ ॥ तथाः।।"चत्तारिसण्णाश्रो पण्णत्ताथो, तंजहा--आहारसण्णा, भयसपणा मेहुणसण्णा परिग्गहसणा"इति स्थानाड्रे (चतस्त्रः संज्ञाः प्रज्ञप्ताः,तद्यथा-शाहारसंज्ञा भयसझा मैथुनसंजा परिग्रहसंज्ञा इति) (सा०१०७)थाहारे योऽभिलाषः स्याजन्तोः क्षुद्देदनीयतः । आहारसंज्ञा सा ज्ञेया, शेषाः स्युमोहनीयजाः ॥ ४४४ ॥ भयसंज्ञा भयं त्रासरूपं यदनुभूयते । मेथुनेच्छात्मिका वेदोदयजा मैथुनाभिधा ॥४४५॥ स्यात्परिग्रहसंज्ञा च,लोभो. दयसमुद्भवा । अनाभोगाऽव्यक्तरूपा, एताश्चैकेन्द्रियाङ्गिनाम् ॥ ४४६ ॥ भगवतीसप्तमशतकाष्टमोदेशके तु॥ याहारभयपरिग्गहमेहुण तह कोह माण माया य । लोभो लोगो ओहो, सन्ना दस सबजीवाणं ।।४४७॥(सा० १०८) आहारसंज्ञा-भय--मैथुनानि तथा क्रोध-मान-मायाश्च । लोभो लोक ओघः संज्ञा दश सर्वजीवानाम् ॥]एताश्च वृक्षोपलक्षणेन सवैकेन्द्रियाणां साक्षादेवं दशिताः सधथा। रुक्खाण जलाहारो,संकोअणिया भएण संकुयइ। . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०-२१ मु) (२७७] ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १०८) ॥ १६ कषायनो यन्त्र । कोना सरनो कया गुणनो ला अनार | का गमिमा कषाय स्थिति (प्राय:) अनन्तानु कोध पतनी फाट | सम्यकाबनो नरकगनि यावजीब मान | पत्थरनो स्तम्भ माया | नकर बांसन मूळ _लोभ | कृमिज रंग अप्रत्या• कोष तलावनी भूमिनी फाट | देशनतनो तिर्यचति मान | बाडनो स्तम्भ ____ माया | मेदानु शींगडं 1. लोभ | कावषमो रङ्ग प्रत्या० कोष रेतीमा रेखा | सर्व विरतिनो | मनुष्यगति | ४ मास " मान | फाष्ट स्तम्म - - माया | गोम्न लोभ | गादानी मेंस सज्वलन कोष जळमा रेखा यथाख्यात चारित्रनो देवाति | १५ दिवस मान | नेतरनी लता माया सनी छोल , लोभ | बळदरनो रंग | Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) ॥ कपाययन्त्रकं एकेन्द्रियेषुसंधास्वरूपहष्टान्ताः॥ [द्वार ॥ प्रकारान्तरे प्रज्ञापनानुसारे कषायना १६ भेद यन्त्र ॥ शोध | स्वप्रतिष्ठित | अभ्यतिष्ठित उभयप्रतिष्ठित | अप्रतिष्ठित । ४ : मान माया लोम ------ ------ निअतंतुएहिं वेडइ, वल्ली रुक्खे परिग्गहेण ॥४४८॥इस्थिपरिरंभणेणं, कुरुवगतरुणो फलति मेहुणे । तह कोकनदस्त कंदे, हुंकारे मुअइ कोहणं ॥ ४४९ ॥ माणे झरइ रुअंति, छा. यइ वल्ली फलाई मायाए । लोभे बिल्लपलासा, खिवंति मूखे निहाणुवरिं॥४५॥रयणीए संकोओ,कमलाणं होइ लोगसन्नाए।योहे चइत्तु मग्गं,चडति रुक्खेसु वल्लीआ।।४५१।। (सा०१०९) (वृक्षाणां जलाहारः, संकोचनिका भयेन संकोचयति । निजतं तुभिर्वेष्टयति बल्लोवृक्षान्परिग्रहेण ॥ स्त्रीपरिरंभणेन कुरुबकतरवः फलन्ति मैथुनतः। तथा कोकनदस्य कन्दो हुंकारान्मुञ्चतिक्रोधेन॥ मानाज्झरति रुदन्ती छादयति वल्लो फलानि मायया । लोभाबिल्वपलाशाः क्षिपन्ति मूलानि निधानोपरि ॥ रजन्यां संकोचः कमलानां भवति लोकसंज्ञया। योघसंज्ञया त्यक्त्वा मार्ग चटन्ति क्षेषु वल्ल्यः ) अन्यैरपि वृक्षाणां मेधुनसंज्ञाऽभिधीयते, तथोक्तशृंगारतिलके ॥ सुभग ? कुरुबकस्त्वं नो किमालिङ्गनोस्कः, किमु मुखमदिरेच्नुः केसरो नो हृदिस्थः । त्वयि नियमतशोके युज्यते पाघातः, प्रियमिति परिहासात्पेशलं Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. १११) (२७.) काचिदूचे ॥ ४५२ ॥ ( सा० ११० ) तथा पारदोऽपि स्कारशृङ्गारया स्त्रियाऽवलाकितः कूपादुल्लसतीति लोके श्रूयते इति (सा०१११)। स्तोका मैथुनसंज्ञोपयुक्ता नरयिकाःक्रमात । संख्येय ना जन्धिपरिग्रहत्रासोपयुक्तकाः॥४५३॥ स्युः परिग्रहसंज्ञाढयास्तियश्चोऽल्पास्ततःक्रमात् । ते मेथुनभयाहारसंज्ञाः संन्यगुणाधिकाः ॥ ४५४ ॥ भयसंज्ञान्विताः स्तोका मनुष्याः स्युर्यथाक्रमम् । संख्येयध्ना भुक्तिपरिग्रहमैथुनसंज्ञकाः ॥ ४५५ ॥ आहारसंज्ञाः स्युः स्तोका, देवाः संख्यगुणाधिकाः। संत्रासमैथुनपरिग्रहसंज्ञा यथाक्रमम् ॥ ४५६ ।। अर्थ-संज्ञाहार २१ मुं. एक ज्ञानरूप अने यीजी अनुभवरूप ए प्रपाणे २ प्र. . कारनी संझा कहेली छे, तेमां हेली पांच ज्ञानात्मक ज्ञान संज्ञा छ अने यीजी स्वरूपथी अनुभव संज्ञा छे. ॥ ४४२ ।। त्या स्वरूप [ अनुभव ] संज्ञा अशातावेदनीयादि कर्मना उदयथी प्रगट थयेल आहारादिकनी अभिलापाना भेदयी चार प्रकारनी छे ।। ४४३ || का के-" चार संज्ञाओ कहेली , १ आहार संज्ञा-२ भय मज्ञा-३ मथुनसंज्ञा-ने ४ परिग्रहसंज्ञा " इति ठाणांगे. क्षुधा वेदनीयना उदयथी प्राणीने जे आडारनो अभिलाप पगट थाय ते आहारसंज्ञा जाणची, अने शेष ३ संज्ञा मोहनीय कर्मना उदययी प्रगट थयेली जाणवी. ॥ ४४४ ।। तेषां त्रासरूप जे भयनो अनुभव पाय छे ते भयसंज्ञा घेदना उदयथी प्रगट ययेशी विषयाभिलापरूप जे संज्ञा ते मथुनसज्ञा, ।।४४५ ॥ अने लोभना उदयथी प्रगट ययेली ( ममत्व रूप जे संज्ञा )ने परिग्रहसंज्ञा कडेवाय , एकेन्द्रिय जीवोने ए चारे संज्ञाओ अस्पष्ट भने अनुपयोगरूप प्रगर विचार पूर्वक नहि एवी] होय छे. ॥ ४४६ ॥ तथा भगवतीजीना ७ मा शतकना ८ मा उद्देशामां तो-"आहार-भय-परिग्रह-मैथुन तथा क्रो. ध-मान-माया-लोभ-लोक-अने ओघ ए १० संज्ञा सर्व जीवोने होय"एम कई छ. ॥४४७।। ए सर्व संज्ञाओ एकेन्द्रिय जीवोने साक्षात वृक्षमा[शान्तपूर्वक] Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --. - -- (२.८०) ॥ एकेन्द्रियेषु संसाष्टान्तनिरूपणम ॥ (द्वार उपलक्षणयी सर्व एकेन्द्रिय जीवोने आ प्रमाणे दर्शावी -" वृक्षोने जे जळनो आहार ते [वृक्षनी ] आहारसंज्ञा, लज्जालनु भयवहे संकोचाइ जयु ते भयसंज्ञा, पंडी पोताना तुडे (लमाबडे) वृक्षने जेवट के तं पारग्रहसंज्ञा मथा मैथुन संज्ञाथी कुरुबक नामनुं वृक्ष स्त्रीना आलिंगनबडे फलद्रूप थाय छे ते मेंयुनसंज्ञा, नथा कोफनद नामनो रानाकमलनो कंद को धवड(कोइ पांसे जापतो) १कारो कर छे ते क्रोधसंज्ञा,१४४५.॥मानवडे हट्नी नामनी वेलडी पाणीने झरे ते मानसंज्ञा, मायावद कही पोताना फळ द्वांकी राख के ते मायामंज़ा, छोभवडे बीलोन अने (धोळा) खाखरखें झाड पोतानां मूळ ( दाटेला ) निधान उपर फेला छे ते लोभसंज्ञा || १० || मने कमळना जे संकोच धाय छ ते लोकसंज्ञा, बने घेकीओ मार्ग छोडीने पण जन उपर मढे छ ते ओघ. संज्ञा कहेयाय के " ॥४५१ ।। अन्यदर्शनीभो पण वृक्षने मैथुनासंझा कहे के ने आ प्रमाणे-शृङ्गारतिलकमां का छे के " कोइक स्त्री पोताना पनिने मधु. र ध्वनिए मश्करीमां आ प्रमाणे कहवा लागी के-हे सुभग ? आलिंगन करनामा उत्कंठावाळा होबाथी) आप धैं कुरुबक (वृक्ष) सरखा नैथी ! मुख मदिरानी इच्छावाळी पना आप शुभारा हृदय उपर रहेला कसरत सरखा नधी ? खरेखर अशोक (वृक्ष) सरखा पवा तमने पादप्रहार (लात मारची ज योग्य है." ।। ४५२ ॥ " तथा अति शृङ्गारवाळी स्त्रोप देखेला पारा पण कूवामांधी उछछी बहार आवे छे" एम लोकोमा संभळाय छे. नारकजीवो मैथुनसंज्ञावाला-सर्वथी अल्प के तेथी आहार--परिग्रह-ने भय ज्ञावळा (नारक जीवा) अनुक्रम संख्यात गुणा छ, ।। ४५३ ।। तियेची परिग्रहसंज्ञावाळाअल्प के अने तेथी पैथुन १ वृक्षमा संज्ञाओ जणापतां योजा एकवियोमा पण संज्ञानु अस्तिन्य जणायु छ घृशमां साक्षात् अनुभषयी समजी शकाय छे, माटे वृक्ष दुष्टांत ली, छ. २ लाठु बनस्पतिने हाथनो स्पर्श करतां तेनां पारडा खोलेला हाय तो पण मीचाचामा छ माटे ३ रुदको बेलना रसथी सुषण बने छ ने लमांधी निरन्तर पाणीनां टपका हरे छे तेयी पमा मान संज्ञा प; के 'अहो जगतमा हुं सुषर्णसि. द्धि करनारी छतों पण अगतमा दरिन जनो दुःख भोगवे छ? पवा शो कथी निरं तर आंस टपकाधे मे" मान संज्ञा छ. अहि अलंकार नहिं पण मान सूचघेल. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१) || लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १११) ( २८१ ) . भय-ने आहार संज्ञायाया (निर्यच) अनुक्रमे संख्यात गुण अधिक ले । ४५४ १ मनुष्यो भय संज्ञावाळा अल्प छे, अने तेथी आहार - परिग्रह ने मैथुन संज्ञाकाळा अनुक्रमे संख्यात गुणा है. ॥४५६ || देवो आहार संक्षावाला अल्प छे, तेथी भय अने परिसंख्यात छे. ॥ ४५६ ॥ प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ तु एवं लिखितं, तथा मतिज्ञानावरकर्मक्षयोपशमात् शब्दार्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया श्रोपसंज्ञा, तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसंज्ञा, एवं चेदमापतितं - दर्शनोपयोग ओघसंज्ञा, ज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा, (सा०११२ ) एष स्थानाङ्गटीकाभिप्रायः, [सा०११३) आचाराङ्गटीकायां पुनरभिहितं, ओघ संज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लीवित्तानारोहणादिसंज्ञा, लोकसंज्ञा स्त्र च्छन्दघटितविकल्परूपा लोकोपचरिता, यथा, न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षा, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्यादिका इति (सा. ११४) । आचाराङ्गे तु, मोहधर्मसुखदुःखजुगुप्साशोकनाममिः । दश ताः षड्भिरेताभिः सह षोडश कुरुवक शुभ्र बीना आलिंगनथ फळ-पुरवा थाय. माटे केसर वृक्ष स्त्रीप करेला मदिरादिकता कोळाची पुष्पफळबाजुं चाय छे. २-४ मा से पवनो अर्थ बोजीरोते पण थाप हे ते आप्रमाणे हे मु भगनमे कुरुवक सरखां छतां आलिंगन करवाने उत्कंद्रित केम थमा नही तथा मारा हृदयमा रहेला गया केलर वृक्ष सरखा छतां सारा मुखप्रदि रानी इच्छा बाळा फेम नयी ? (परन्तु आ अर्थ मरकरीना रूपमा आवती नथो पण उपमाना रूप आये के मारे उपरनो अर्थ लखेटो है.) ५. अशोक वृक्ष बोनी लातथी प्रफुल्लित धाय हे मार्ट. ६ लोकोक्ति पत्री छ के. पारों कुषाधाय वार काढवा मारे अति शणगारवाळी मनोहर युवान स्त्री घोडापर बेसी कुबाना किनागपर रही कृषामा देखी मुखमांथी वालुं पान शु के तुतंज परागे बहार उन्होंने स्त्रीनी पाछळ दांडे, त्यां कांटे करो खेला खावामांदोडी पारी पडे से पछी पारो र लवाय अमे खो तो पान भुंकी तुर्तज घोडो दावी मूकं नाहितर पारी खोने क्यामांज पाहें आलोककल्पित माटे यथाथ कड़ी शकाय महिं. (आटप्पणी २८० जनी के तेन अङ्की अध्यवस्थित दीघाथी सुधारी चांचवा ) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) ॥ आचाराङ्गादिसंवादेन षोडशादिसंझानिरूपणम ॥ (हार वर्णिताः॥४५७॥(सा०११५) अथवा त्रिविधाः सज्ञाः,प्रथमा दीर्घ कालिंकी। द्वितीया सुशाहालमा, दृष्टिवादाविना पा ॥१५८॥ सुदीर्घमप्यतीतार्थ, स्मरत्यथ विचिन्तयेत् । कथं नु नाम कर्मव्यमित्यागामिनमाद्यया ॥ ४५९ ॥ तथा विचिन्त्येष्टानिष्टच्छा. पातपादिवस्तुषु । द्वितीयया स्वसौख्याथै, स्यात्प्रवृत्तिनिवृत्तिमान ॥ ४६० ॥ भवेत्सम्यग्दृशामेव, दृष्टिवादोपदेशिकी । एतामपेक्ष्य सर्वेऽपि, मिथ्यादृशो ह्यसंज्ञिनः ॥ ४६१ ॥ सुरनारकग त्यजीवानां दीर्घकालिको । संमूर्छिमान्तयक्षादिजीवानी हेतुवादिकी ॥ ४६२ ॥ छद्मस्थसम्यग्दृष्टीना, श्रुतज्ञानात्मिकाऽन्तिमा । मतिव्यापारनिर्मुक्ताः, संज्ञातीता जिनाः समे ॥ ४६३ ॥ इति संज्ञा २१ ॥ अर्थ-प्रवचनसारोशरवृत्तिमा तो ए प्रमाणे कखेल के-"नथा पनि ज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमथी शब्द अने अर्थ विषयक सामान्य बोध क्रिया रूप ओघसंज्ञा, अने तेना (शब्दार्थना) विशेषावबोधकिया रूप लोकमज्ञा के. अने ए प्रमाणे होवाथी तात्पर्य ए आयु के "दर्शनोपयोग ने ओघसंज्ञा ने शानोपयोग ते लोकसंज्ञा"ए ठाणांगटीकामो अभिप्राय हे.॥४५७। आचारांगजी नी टीकामां तो ए प्रमाणे कहिल्के -चल्मलीना समूहनी भिंतादि उपर (क्षउपर) चढवानी जे संशा ते ओघसंज्ञा, अने लोकोए उपचार करेली (लोकोए व्यवहारमा प्रवस्लिी ) पोतानी इच्छा प्रमाणे पडेला निर्णय करेला) विचारबाळी लोकसंज्ञा, जेम के समानरहितने मद्गनि न होय, धान (कूनरा) ते यक्ष छे, बामणो देव छे,कागला ते दादामो पूर्वज,छे, मयूरनी पांखना वायुनडे गर्भ रहे ! अक्षामियोये मानेला लौकिक शास्त्रमा प्रसिद्ध टूटे के अपुरम्भ गतिना स्ति. (स्वग)मोक्षो नैव च नेव व (अधीयाने सदगति छ न अने स्वर्ग सो नपोज मधी) तेथी सर्व प्रयत्न हे पण एक पुत्र तो उम्पन्न करपौत्र, २ पळी अज्ञामि लोको कई , के-सीत्र ज्यारे मरण पामे छे त्यारे यमराजाना मृत ते जीवने लेषा आवे छे तेने फाराज देखे हे एनधी ज्याने कूतम रूप छे त्यारे लोको कोकिनु मरण नजीक आव्यु एम लागे छे. .५ पळी मयूरना मांसुर्नु बिंदु मयूरो आरूपादे (चारवे, छे तेथो मयूरीने गार्भ रहे छै, इत्यादि अनेक कारनाओ लोकमसिन छ, . Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ म) । लोकप्रकारचे वृतीयसर्गः ॥ (सा. ११५) (२८३) के इत्यादिक कल्पनाओ कोकसंज्ञा है. तथा आचारांगमां तो मोह-धर्म सुखदुःस्व-जुगुप्सा अने शोक ए ६ संज्ञाश्री सहित पूर्वनी १० संक्षाओ मळी १६ संज्ञाओ वर्णषेली छ. ॥ ४५८ ॥ अथवा पहेली दीर्घकालिकी बीजी हेतुयाद नामनी अने त्रीजी दृष्टिवाद नामनी ए प्रण संज्ञाओ कहेली छे ॥४९ त्यां हेली संज्ञारहे अति दीर्घकाळनो व्यतीत थयेको (धणा काळ पहेलांचनेको) अथ (बनाव) स्मरण करे अने हो कम कर ? ए प्रमाणे भविष्य काळनो विचार करे (ते दीर्घकालिकी संज्ञा काय.) । ४६०॥ तया ने बीजी संभावडे छाया अने आतप वगेरे वस्तुओमा इष्ट अने अनिष्टपणानो क्रमे करीने विचार करी पोताना मुखने पाटे (तेमा) प्रवृत्ति अथवा नित्तिवालो थाय (ने हेतुवाद सं. शा). ॥४६१।। तथा दृष्टिवादोपदेशिको संज्ञा मम्यग्दृष्टि जीवोनेज होय छे, तेथी ए (दृष्टिवाद) संज्ञानी अपेक्षाए तो सर्वे मिथ्याष्टियो असंझिन छ । देव - नारक अने गर्भन जीवोने दीर्घकालिकी संज्ञा, बीन्द्रियादियी सम्मृच्छिप पंत्रे. न्दिय मुधोना सर्व जीवोने हेतुवादिकी संज्ञा, ॥ ४६२ ॥ छनस्थ सम्पदृष्टि जी. बोने छेल्ली श्रुतज्ञानरूप दृष्टिबाद संज्ञा होय छे, अने मनिशानना व्यापार रहित एचा सर्व अरिहंत केवळी भगवान संज्ञारहित होय छे. ४६३ इतिसंज्ञाबारम् ॥ ॥ संज्ञाचतुष्क यन्त्रं ॥ संक्षा | कया कर्मना उध्यथी करगतिमा अधिक मादार संज्ञा अशातायेदनीय तिगतिमा . भय संझा मय मोहनीय मरक गतिमा मैथुन संज्ञा वेद मोहनीय मनुष्य गतिमां परिग्रह संज्ञा लोभ मोहनीय देव गतिमा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८४) ॥ संघाबारे संज्ञाविचारपन्धकम् ॥ (द्वार गतिमा संज्ञानुं अल्पबहुरव. नरक गतिमा .. ' ' मनुष्य गनिमां मैथुन संहावाम- अाप ।।. भयसंशाबाळा-- भाहार , - तेथी संझयेयगुण. आहार , -तेधो संख्येय गुण परिग्रह तेथी संख्येय गुण, परिग्रह । -तेशी नख्येयगुण भय ....... - लथी संख्येयगुण, मैथुन , --तेथी संख्येयगुण .:: तिर्यच गतिमा देव गतिमा परिह संशावाव्या- अल्प आहार संहाघाळा-अल्प मैथुन , -मेथी संख्येयगुण भय -तेथी संख्येय गुण भंथ , ....थी. मसाटोगगुर . पात .. ... . -तेथी संख्येयगुण आहार -तेथी संख्येय गुण | परिग्रह ,. -तेथी संख्येय गुण . . .:. दीर्घकालिक्यादि संज्ञा १ हेतुषादोपदेशिकी संज्ञा-पर्याप्तबोन्द्रियी अमंशिपचेन्द्रिय सुधोना सर्व जीवोने पर्याप्तावस्थामां) २ दीर्घ कालिकी सना-सर्थ देष परक अने गर्भजने (पर्याप्ता अषस्थामां) । ३"प्टिवायोपदेशिकी-छनस्थ सम्यगपूष्टि जीवाने इदुः स्यात्परमैश्वर्ये,धातोरस्य प्रयोगतः। इन्दनात्परमेश्वर्यादिन्द्र श्रात्माऽभिधीयते ॥४६४॥ तस्य लिङ्गं तेन सृष्टमितीन्द्रियमुवीर्यते । श्रोत्रादि पञ्चधा तच्च, तथा वाच भाष्यकृत् ॥४६५।। इन्दो जीवो सबोवलद्धिभोगपरमेसरत्तणओ। सोत्ताइभेयमिदियमिह तल्लिंगाइभावाओ ॥ ४६६ ॥ (इन्द्रो जीवः सर्वोपलब्धिभोगपरमेश्वस्त्वतः ॥ श्रोत्रादिभेदमिन्द्रियमिह तल्लिङ्गादिभावात् ( सा० ११६ ) श्रोत्राक्षिघ्राणरसनस्पर्शनानीति पञ्चधा । तान्यकैक विभेदं तद् द्रव्यभावविभेदतः ॥४६७ ॥ तत्र निवृत्तिरूपं स्यात्तथोपकरणात्मकम । द्रव्येन्द्रियमिति द्वेधा, तत्र नितिराकृतिः ॥ १६८ ॥ साऽपि बाह्या तरङ्गा च, बाह्या. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. मु ॥कोकमकाशे तृतीयः सर्गः ।। (सा० ११७) (२८५] तु स्फुटमीक्ष्यते । प्रतिजाति पृथग्रपा, आंत्रपर्पटिकाविका ॥ ४६९ ॥ नानात्वानोपदेष्टुं सा, शक्या नियतरूपतः । नानाकृतीनीन्द्रियाणि, यतो वाजिनरादिषु ॥ ४७० ॥ धभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः,समाना सर्वजातिषु । उक्त संस्थाननयत्यमेनामेवाधिकृ. त्य च ॥४७१॥ तथाहि ॥श्रोत्रं कदम्बपुष्पाभमांसेकगोलकात्मकम् । मसूरधान्यतुल्या स्याच्चक्षुषोऽन्तर्गताकृतिः ॥ ४७२ ॥ थतिमुक्तकपुष्पाभ, घ्राणं च काहलाकृति । जिह्वा क्षुरप्राकारा स्थात्, स्पर्शनं विविधाकृति ।। ४७३ ॥ स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तौ; बा ह्याभ्यन्तरयोर्न भित् । तथैव प्रतिपत्तव्यमुक्तत्वात्पूर्वसूरिभिः । ॥ ४७४ ।। बाह्यनिवृत्तीन्द्रियस्य, खड्डेनोपमितस्य या। धारोपमान्तर्निवृत्तिरत्यच्छपुद्गलात्मिका ॥ ४७५ ॥ तस्याः शक्तिविशेषो यः स्वीयस्थीयार्थबोधकः । उक्तं तदेवोपकरणेन्द्रियं तीर्थपार्थिवैः ॥४७६॥ युग्मम् । तदुक्तं प्रज्ञापनावृत्ती, उपकरणं--खङ्गस्थानीयाया बाह्यनिर्वृत्तेर्या खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निवृत्तिस्तस्याः शक्तिविशेष इति ।(सा०११७] आचारांगवृत्तौ तु,निर्वर्त्यत इति निवृत्तिः, केन निर्वय॑ते?, कर्मणा; तत्रोत्सेधागुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां या वृत्तिरभ्यन्तरा निवृत्तिस्तेष्वेवात्मप्रदेशेग्विन्द्रियव्यपदेशभाग यः प्रतिनियतसंस्थानोनिर्माणनाम्ना पुनलविषाकिना वर्द्धकीसंस्थानीयेनारचितः 'कर्णशष्कुल्यादिविशेषः, अङ्गोपाङ्गनाम्ना तु निष्पादित इति बाह्यनिवृत्तिः, तस्या एव निवृत्तढिरूपाया येनोपकारः क्रियते तदपकरण, तच्चेन्द्रियकार्य, सत्यामपि निवृत्तावनुपहतायामपि मसूराद्या Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) ॥ इन्द्रियहारे इन्द्रियस्वरूपं तभेदादिनिरूपणं च ॥ हार कृतिरूपायां निवृत्तौ तस्योपघातान्न पश्यति तदपि निवृत्तिवद् द्विधेति (सा० ११८)। एवं च प्रज्ञापनावृत्त्यभिप्रायेण स्वच्छत्तरपुगलास्मिका श्रभ्यन्तरनिवृत्तिः, प्रथमावृत्त्यभिप्रायेण तु शुद्धास्मप्रदेशरूपा अभ्यन्तरनिधृत्तिरिति ध्येयम् । इदमान्तरनिर्वृत्तेनैनू(तू)पकरणेन्द्रियम् । अर्थान्तरं शक्तिशक्तिमतो दात्कथञ्चन ॥४७७॥ कथञ्चिद्भेदश्च । तस्यामान्तरनिर्वृत्ती, सत्यामपि पराहते । द्रव्यादिनोपकरणेन्द्रियेऽर्थाज्ञानदर्शनात् ॥ ४७८ ॥ इतिद्रव्ये न्द्रियम् । ___ अर्थ--२२ इन्द्रियहारम् , हदू धातु परम ऐश्वर्यना अर्थनो वाचक छे, माटे इदु धातनामयोगथी इंदनात्-परमैश्वर्यपणु ( उत्कृष्ट ठकुराइपणुं ) होवाथी इंद्र एटले आत्मा कडेवाय छे. ॥४४॥ ते इन्द्रनं (आत्मा) किंग [चिन] अथ. षा ते इन्द्रे सरजेलुं चनाघेलं मारे इन्द्रिय एम कवाय छे, ने इन्द्रिय श्रोत्र (फान) विगेरे पांच पफारनी छ, श्री (विशेषावश्यक भाष्यकर्ताए कह्यु के॥६५॥सर्व मात्मलब्धियोना भोगरूप परमैश्वर्यपणु होवाथी आत्माज इन्द्र कहेवाय छे. माटे अहिं ने एर्नु लिंग इत्यादि भावथी श्रोत्र वगेरे भेदवाळी इन्द्रिय कहेवाय छे. ॥४६६। त्यां श्रोत्र(कान)-चक्षु-प्राण(नाक) रसन (जिह्वा) ने स्पर्शन (त्वचेन्द्रिय)-ए रीते ५ प्रकारनी इन्द्रियो छे ने पण दरेक द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रिय ए मेदयी वे घे प्रकारनी छे ।। ४६७ ।। ॥ द्रव्येन्द्रियर्नु स्वरूप. ॥ त्या निति रूप भने उपकरण रूप ए प्रमाणे द्रव्येन्द्रिय वे पकारनी के तेर्मा निईत्ति एटले आकृति एवो अर्थ थाय छे ॥ ४६८ ॥ वळी ते निवृत्ति पण पाय अने अभ्यन्तर (एम बे पकारनी के) तेमा दरेक जातना जीवोने जे जुदा जुदा आकारनी कर्ण परिका :फान पापडी) वमेरे प्रत्यक्ष देखाय के ने पानि ति || ४६२ ।। ते (का०नि० ) जुदा जुदा प्रकारनी होवाधी अमुक . आफारवाळी के एम कही काय तेम नथी, कारण के घोडा अने मनुष्यादिने [दरेक मातना जीवोने) ते इन्द्रियो जुदा जुदा आकारवाली [मत्यक्ष देखाय). ॥ ४७० ॥ अने अभ्यन्तर निवृत्ति (-इन्द्रियोनो अंतरंग आकार) तो दरेक . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) २२ मुं) || श्रीकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ११८) जातिना जीवोai एक सरखो छे, माटे एनी (अभ्यानिनी) अपेक्षा इन्द्रि योना आकारनुं नियतपणुं [एटले अमुक इन्द्रियनो अमुक आकार के एम] कहे . ॥ ४७१ ॥ ते आ प्रमाणे श्रोत्रेन्द्रिय कदंब [वृक्ष विशेष ] पुष्प सरखा आ कारवाळा मांसना गोळा रूप [जेवी] छे, चक्षु इन्द्रियनी अंतरंग आकृति मसूर नामना धान्पना दाणा सरखी [अथवा चंद्र सरखी गोळ] छे. ॥ ४७२ ॥ घ्राण इन्द्रिय अभिमुक्तक पुष्प सरखी अथवा काइल नामना [ पडघम ] वाना आकार सरखी छे, जिह्वेन्द्रिय खुरपा (अखा) ना आकारवाळी छे, अने स्पर्शेन्द्रिय जुदी जुदी जानना आकारवाळी . ॥ २७३ ॥ स्पर्शेन्द्रियमां बाह्यनिर्वृत्ति अने अभ्यन्तर निर्वृत्तिनो भेद नैथी एम पूर्वाचार्यो हेतु होवाथी तेमज स्त्रीकाबुं ॥। ४७४ खड्ग सरखी बाह्य निरृत्तीन्द्रियनी धार सरखी अतिनिर्मळ - द्र रूप जे अभ्यन्तर निर्ऋति ॥ ४७५ ॥ तेनी जे पोतपोताना विषयनो बोध करावनारी शक्ति ते (शक्ति) नेज श्री श्रीर्थंकरोध उपकरणेन्द्रिय कही के. ॥ ४७६ ॥ युग्मम् – आवे लोकोनो अर्थ सं . श्री ज्ञापनावृत्तिमां प्रमाणेज कहेतुं के के- "खगना स्थानवाळी ( खड्गनी उपपात्राळी ) बाह्यनितिनी खड्गधारा सरखी (धारानी उपमावाळी) अत्यन्त स्वच्छ पूछना समूहरूप जे अभ्यन्तर निर्वृत्ति तेनो जे शक्तिविशेष ते उपकरण कहेवाय. " अने श्री आधारांवृत्तिम तो निर्वर्त्यते - रचाय ते निवृत्ति. कोनावढे रचाय ? [उत्तर - ] कर्मत्र. त्यां उ त्सेचांगुना असंख्याता भागप्रमाण शुद्ध आत्मप्रदेशोनी प्रतिनियत (नियमित) चक्षु आदि इन्द्रियोनः आकारे रहेली (गोडवायली) जे वृत्ति-रचना ते अभ्य न्तरनिर्वृत्ति एज (इन्द्रियने आकारे गोडवायला) आत्ममदेशोमां इन्द्रिय व्यपदेशने भजनारो [इन्द्रिय नामने धारण करनारी] नियमित आकारवाळी सुतार सरखा grafterst fनिर्माणनामकर्मे रचेलो अने अंगोपांगनामकडे निष्पन्न थयेलो जे कष्कुली वगेरे आकार विशेष ते साध्यनिवृत्ति कहेवाय अने ए बले प्रकारी निर्वृत्तिनो जेना बड़े उपकार कराय [ अर्थात् वन्नेने उपकार कर १ जैम कर्णेन्द्रियादिकती पटकादि वा आकृति के माद्रिय नी बाह्य आकृति नहिं होवाथी प स्पर्धेन्द्रियमां वाद्यनिर्वृ अने अभ्य०नि० पत्रा मे भेद नथी ン अभ्यन्तर उपकरणेन्द्रिय विषयग्रोधक (परन्तु बापक) नदि. G Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) || इन्द्रियद्वारे इम्पेन्द्रियस्वरूपमेदादिनिरूपणं ॥ [द्वार = नार ] ते उपकरणेन्द्रिय कहेवाय अने ते इन्द्रियना कार्यरूप है. पुनः निती न्द्रिय होते छते पण एटले मसूरांदे आकृतिरूप (अभ्य०) निति नहि हणाये छते पण तेना (उपकरणेना) उपघातथी (चक्षु वगेरे ) देखी शके नहिं ते उपकरण इन्द्रिय पण निर्वृत्तिनी पेठे वे प्रकारनी " ए प्रमाणे प्रज्ञापना वृत्तिना अभिप्रायथी अति स्वच्छ पुद्गलरूप अभ्यन्तर निवृत्ति के अने आचारांगट - सिना अभिप्रायी तो शुद्ध आत्मप्रदेशरूप अभ्यं० नि०ले. एम जानुं. वळी आ उपकरणेन्द्रिय शक्ति भने शक्तिमानना कथंचिद) भेदधी कोइपण रोते अंतरंग निईतिथी जुंदोज पदार्थ है. [गाथामां नतु अने ननु बन्ने पाठ प्रत्यन्स रोमां देवाता होवाथी नतु शब्दनो नथी प प्रमाणे अर्थ करतां ए गाथानो बीजी रीते अर्थ थाय ते नीचे स्फुटनोटमां दर्शवेल के.) ॥४७७|| वळी तेथ बच्चे कथंचित् भेद आ प्रमाणे छे के ते अभ्य० निर्वृत्ति होते छते पण द्रव्यादिक निमिषधी उपकरणेन्द्रिय हणाये छते इन्द्रियम पदार्थज्ञान पतुं देखातु नथी ( माटे अभ्य० नि०धी अभ्य० उप सर्वथा जुदी नहि पण कथंचित् जुदी छे.) ॥ ४६८ ॥ ए प्रमाणे द्रव्येन्द्रियनुं स्वरूप कबुं. १ मां इन्द्रियाकारे गोठवायला शुद्ध आत्मप्रदेशांनी विषय जाणवा रूप शक्ति ते अभ्यः उप०, अने इन्द्रियाकारे गोडपायेला इब्रियना पुजल स मूहमां विषय ग्रहण करवानी में शक्ति ते उप कटेवाय. प भावारांग तिनो भावार्थ हो, २ अभ्य०डप० अने बाद्य उप० प वनां उपधातथी ३ शुद्ध पडले तदावरणीय कर्मक्षयोपशम सहित मत्तविषयग्रहण करवा समर्थ. चालु प्रकरणने अनुसारे अभ्य० निर्वृ • नो शक्तिरूप अभ्य ५ कारण के अभ्य०नि० मे पुत्रल पदार्थ रूप है. अने अभ्य उप० ते इन्द्रिय पुत्रोनो शक्ति रूप छे. करणे ६ "वक्री कोइक अपेक्षा शक्ति अने शक्तिमाननो भेद न होवाथी आ उपकअभ्य० मि यो भिश्वय मुझे पदार्थ नथी" र 'नतु' पदधी अर्थ को ७ जैम कर्णेन्द्रियमां घणा-मोटा अवाज रूप शब्द पुनलोधी हेर मारे छे, नाकमां श्लेष्माद्रि प्रभ्य अधिक थषाथी गन्धग्राहकता अवराई जाय छे. इत्यादि होते द्रव्यादिनिमित्त जाणवु घणे ठेक्काणे सामान्ययी उपकरणेन्द्रिय अभ्यन्तर उपश्नी सा यंकता वारंवार कही छे परन्तु बामण्डपकनी सायंकता स्पष्ट ते दर्शा नथी ते संक्षेप आ प्रमाणे छे के बाल निवृति जे चक्षुगोबर यती (प्रगट Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ) | लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० (१९) ॥। २९ इन्द्रियोना भेद ॥ १ निरृति स्पर्श प्रिय. २ बाशोपकरण द्रव्य स्पर्शेत्रिय ३ अभ्यन्तरोपकरण द्रव्य रूपशैन्द्रिय ४ लधि स्पर्शेन्द्रिय ५. उपयोग स्पन्द्रिय १ ६ पनि प्राि ६ उपयोग घ्राणेन्द्रिय. १ बाह्यनिर्वृति वष्य वक्षुरिन्द्रिय अभ्यन्तर निर्वृति ब्रव्य चक्षुरिन्द्रिय ३ वाशोषकरण प्रय चक्षुरिन्द्रिय ર્ ४ अभ्यन्तरोपकरण] द्रव्य चक्षुरिन्द्रिय ५. लब्धि परिय उपयोग चक्षुरिप्रिय. या निर्वृति द्रव्य रसनेन्द्रिय २. अभ्यन्तर निर्वृति ब्रध्य रसनेन्ट्रि ३ घाचीपकरण प्रभ्य रसनेन्द्रिय 8 अभ्यस्त प्रकरण प्रव्य रसनेन्द्रिय ५ लब्धि रसनेन्द्रिय ६ उपयोग रसनेन्द्रिय, १ याचनिवृत्ति द्रश्य घ्राणेन्द्रिय २ अभ्यन्तर निवृति द्रव्य घ्राणेन्द्रिय ५ बाह्योपकरण द्रव्य त्राणेन्द्रिय ४ अभ्यन्तरोपकरण द्रव्य धाणेविय २९ ६ १ ( २८९ ) या निवृत्तिरूप लिय अभ्यन्तर निवृति द्रव्य मोत्रेन्द्रिय ३ बाह्योपकरण ग्रव्य श्रोत्रे द्रिय ४ अभ्यन्तरोपकरण वध्य श्रोत्रिय ५ लब्धि द्रिय ६ उपयोग नेत्रिय २ द्विधाभावेन्द्रियमपि लब्धितश्चोपयोगतः । यथाश्रुतमथो वच्मि, स्वरूपमुभयोरपि ॥ ४७९ ॥ जन्तोः श्रोत्रादिविषयस्ततदावरणस्य यः । स्यात्क्षयोपशमो लब्धिरूपं भावेन्द्रियं हि त त् ॥ ४८० ॥ स्त्रस्वलब्ध्यनुसारेण, विषयेषु य आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं भवेद्भावेन्द्रियं च तत् ॥ ४८१ ॥ उपयोगेन्द्रयं येकमेकदा नाधिकं भवेत् । एकदा ग्रुपयोगः स्यादेक एवयदङ्गिनाम् ॥ ४८२ ॥ तथाहि ॥ इन्द्रियेणेह येनैव मनः संयुज्य रीने खास जिह्वावि ते पोतानामा रहेकी अभ्यन्तर जिये न्द्रयादिकने आधार वानरूप उपकार करे छे, अने चक्षुनी पांपण बगेरे वाद्यनिवृत्ति से अन्दर रहेको अभ्यचक्षु इन्द्रियने आधार भने रक्षण रूप उपकार करे छे इत्यादि शेष प्रयोमां पण जाणवु. ची आचारांग वृसिने अनुसारे विचार करतो तो यन्मे उपकरणे स्त्रियनी सार्थकता स्पष्ट मालूम पडे हे पण अहिं लु प्रकरण प्रज्ञापना वृत्तिनं अनुसरतु होवाथी वाचजपः नी सार्थकता स्पष्ट जीते बहुश्रुतयी समजत्रा योग्य है. ( दिगंबर आम्नायमां भाचारांग लिया अभिप्रायने अनुसरतुं स्वरूप मानेलु छे) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९०) ॥ इन्द्रियहारे भाषेन्द्रियनिरूपणं ।। तेऽङ्गिनः। तदेवक स्वविषयग्रहणाय प्रवर्तते ॥ ४८३ ॥ सशब्दा सुरभि मृडी, खादतो दोघशष्कुलीम् । पञ्चानामुपयोगानां. योगपद्यस्य यो भ्रमः ॥ ४८४ ॥ स चेन्द्रियषु सर्वेषु, मनसः शोघ्रयोगतः । संभवेद्यगपत्पत्रशतवेधाभिमानवत् ॥४८५।। युग्मम् । अन्यथा तूपयोगौ हौ, युगपनाहतोऽपि चेत् । छद्मस्थानां पञ्च तर्हि, संभवेयुः कथं सह ? ॥ ४८६ ॥ तदुक्तं प्रथमावृत्ती --आरमा सहेति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति, यस्मिन्मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥ १ ॥ [सा० ११९ ] अर्थ--भाव इन्द्रियन स्वरूप -लन्धि अने उपयोग ना मेदशी भाषेन्द्रिय वे मकारनी छे, इथे ते वन्न स्वरूप श्री सिद्धान्त ने अनुसारे कई छ. ॥४७९।। जीवने कर्णानिक इन्द्रियना] विषयवाको तेने (इन्द्रियना) आचरणनो जे भयोपशम ते निचे लब्धि रूप भावेन्द्रिय . ।। ४८० ॥ अने पोतपोतानी लब्धि ने (-क्षयोपशमने) अनुसारे ते ते विषयोमा आत्मानो जे शानप्रवृत्ति साध्यापार से उपयोग भावेन्द्रिय कोवाप. ॥ ४८१ ॥ एक समयमा उपयोगेन्द्रिय पकज होय छे. कारण के जीवोने पक काळे एकज इन्दियमा उपयोग धते छे. ॥ ४८२ ॥ ते आ प्रमाणे-अहिं जे इन्दियनी साये पाणीर्नु मन जोदाय छे, तेन एक इन्द्रिय पोसानो विषय घहण करवाने पर है, ॥ ४८३ ॥ अने (कराड) शब्दवाळी, सुगंधिदार, अने कोमळ एवी दीर्घ शस्कूली (जले] खाता जेने पांचे इन्द्रियना उपयोगनो पक कालपणानो(सपकालनोभ्रम धाय ॥४८४|| ते समकाळे १०० पत्र पंधवाना अभिमाननी पेठे पांचे इन्द्रियोमा मनना शीच यो -.--- - - - १ अर्थात स्पर्शादि विषय जाणधानी जे क्षायोगशमिक शक्ति से लब्धीद्रिय अने विषयमानमा ने प्रवृत्ति ते उपयोगन्ध्रिय जेम उंघता कुंभकारमा घटादि करण लम्धिरूपे छ, अने घट धनापती वणते घटकरण उपयोग भावे के तात. २ महिं संशिपचेन्द्रियमी अपेक्षाए प बात जाणश्री, अन्यथा केन्द्रिय विकने भननो अभाव होवाथी मन साथै बौदा पातुं नमी. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } २२ मु) || लोकप्रकाशे तृतीयसर्गः ॥ (सा० १२० ) (२९१) - गर्यो (पूर्वी भ्रम) या के || ४८५ || अन्यधा समकाळे वे उपयोग अ. रिन सर्वझने पण होता नथी तो छद्मस्थाने पांचे उपयोग समकाळे केम संभये ? ।। ४८६ ॥ श्री आचारांगनी वृत्तिमां कथुं छे के आत्मा मननी साये जो era के मन इन्द्रियनी साथे जोडाय छे, भने इन्द्रिय पोताना विषय साथै जोदाय के ए रीते आ अनुक्रम छे. मननो एन शीघ्रयोग के माटे मनने अगम्य शुं ले ? अर्थात् मन सर्वत्र शीघ्र गति करी शके है. ) ए प्रमाणे मन ज्यां जाय आत्मा पण गयेलोज जाणो ॥ ४८७ ॥ किंच - एकाक्षादिव्यवहारो, भवेद् द्रव्येन्द्रियैः किल । अन्यथा बकुलः पञ्चाक्षः स्यात्पञ्चोपयोगतः ॥४८७॥ यदुक्तं - "पविदिओ उ बउलो नरो व सबोवलद्धिभावाच । तहवि न भइ पञ्चिदित्ति दविदियाऽभावा ।। ४८८ ।। " (पञ्चेन्द्रि यस्तु बकुलः नर इव सर्वोपलब्धिभावात् । तथापि न भव्यते प वेन्द्रिय इति द्रव्येन्द्रियाभावात् ॥ ) ( सा० १२० ) रणन्नूपुरशृङ्गारचारुलोलेक्षणामुखात् । निर्यत्सुगन्धिमदिरागण्डुषादेष पुष्यति ॥ ४८९ ॥ ततः पञ्चाप्युपयोगा भाव्या इति । अगुलासंख्येयभागबाहल्यानि जिनेश्वराः । ऊचुः पञ्चापीन्द्रियाणि, बाल्यं स्थूलता किल ॥ २९० ॥ नन्वङ्गुलासंख्यभागबहले स्पर्शनेन्द्रिये । खड्गादिधाते देहान्तर्वेदनानुभवः कथम ? ॥। ४९९ ।। अत्रोच्यते || त्वगिन्द्रियस्य विषयः, स्पर्शाः शीतादयो यथा । चक्षुषोरूपमेत्रं तु विषयो नास्य वेदना ॥ १ अर्थात् उपरा उपरो मूक्रेला १०० पत्राने समर्थ युवान तोरण भा लायी आरपार भेदी नाखे ते बखते तेने पो अभिमान होय के मे पको बखते १०० पांडां भेयां पण वस्तुतः विवारत एकेक प रूप असंख्य समय प्रमाण काळ व्यतीत थयेलो के छलांग ते त्रिए नजरमां महि भावमाथी समकाळे भेद्यानी भ्रान्ति थाय ते पांचे इन्द्र पो मां अनुकमे प्रोमो शीघ्रयोग लक्षमां नहिं आवषायों पकी वखते पांचे यो विषय भयो पषी भांति पाय Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इन्द्रियना २८ भेदनी स्थापना इन्द्रिय. (२९२) स्पानि रसनेन्द्रिय प्राणेन्द्रिय धोत्रेन्द्रिय भावस्पः इत्यरसने मावरसने व्यना. भाव दम्पचक्षुः भाक्चक्षु० को मारोते. उपकरण निवृत्ति उपकरण | निति उपक० निर्वृत्ति नवृति (अन्य) उपक उपक: ॥ इन्द्रियमारे द्रव्येन्द्रिययन्त्रकं ॥ भभ्या बाबम बाय काय. माय मभ्य- बान भन्यक बारा अभ्य० माधिस्प सपयोगस्प लब्धिरसते. उपयोगरसने लब्धिघा उपयोग घासाभरक्षु० उपयोग चक्षु. लम्पिोने. उपयोगाने : सन्द्रियमा व्यनिवृत्तिना वाह्य भने अभ्यन्तर एका वे भेद नमो. अथवा केवळ अभ्यन्तर मितिस्पोंन्द्रिय छे. पण पागनिथुतिस्पर्शेन्द्रिय नथी. ( मा यग्य पण व्रव्येपिनु छ. ) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९३ ) २२ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १२० ) ॥ ४९२ ॥ दुःखानुभवरूपा सा, तां स्वात्मानुवत्ययम् । सकले. नापि देहेन, ज्वरादिवेदनामिव ॥ ४९३ ॥ श्रथ शीतलपानीयपानेऽन्तर्वेद्यते कथम् ? । शीतस्पर्शोऽन्तरा कौतस्कृतं स्यात्स्पर्शमेन्द्रियम् ? || ४९४ || अत्रोच्यते ॥ सर्वत्राङ्गप्रदेशान्तर्वर्त्ति त्वगि: द्रियं किल । भवेदेवेति मन्तव्यं, पूर्वर्विसंप्रदायतः ॥ ४९५॥ यदाह प्रज्ञापन मूलटीकाकारः, "सर्वप्रदेश पर्यन्तवर्त्तित्वा ततोभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरि गिन्द्रियस्य भावादुपपद्यतेऽन्तरेऽपि शोतस्पर्शत्रेदनानुभव" इति । ततोऽन्तरेऽपि शुषिरपर्यन्तेऽस्ति त्वगिन्द्रियम् । अतः संवेद्यते शैत्यं, कर्णादिशुषिरेवित्र ।। ४९६ ॥ पृथुत्वमङ्गलासंख्य भागोऽतीन्द्रियवेदिभिः । श्रयाणामपि निर्दिष्टः, श्रवणधाणचक्षुषाम् ॥ ४९७ ॥ अङ्गुलानां पृथक्त्वं च पृथुत्वं रसनेन्द्रि ये । स्वस्वदेहप्रमाणं च भवति स्पर्शनेन्द्रियम् ।। ४९८ ।। स्वगिन्द्रियं विनाऽन्येषां चतुर्णी पृथुता भवेत् । आत्माङ्गुलेन सोत्सेधाङ्गुलेन स्पर्शनस्य तु ॥ ४९९ ॥ ननूत्सेधाङ्गुलेनैव, मितो देहो भवेत्ततः । मातुं तेनैव युज्यन्ते, तद्गतानीन्द्रियाण्यपि ॥ ॥ ५०० ॥ अस्माङ्गुलेन चत्वार्योत्लेधिकेनै कमिन्द्रियम । तानीत्थं मीयमानानि कथमौचित्यमिति ॥ ५०१ ॥ अत्रोच्यते ॥ जिहादीनां पृथुलत्वे, औत्सेधेनोररीकृते । त्रिगब्यूतनरादीनां न स्याद्विपयवेदिता ॥ ५०२ ॥ तथाहि ॥ श्रिगव्यूतादिमनुजाः, षगव्यूतादिकुञ्जराः । स्वस्त्र देहानुसारात्स्युर्विस्तीर्णरसनेन्द्रियाः ॥ ॥ ५०३ ॥ तेषामान्तरनिर्वृत्तिरूपं चेद्रसनेन्द्रियम् । उस्सेधाङ्गुपृथक्त्वमितं स्यादल्पकं हि तत् ॥ ५०४ ॥ न व्याप्नुयात्सर्वजिहां, ततोऽतिविदितोऽनया । सर्वारमना रसज्ञानव्यवहारो न Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) || इन्द्रद्वारे विशेषस्वरूपनिरूपणम् ॥ (द्वार सिद्धयति ।। ५०५ ।। गन्धादिव्यवहारोऽपि भावनीयो दिशोधनया । तत आत्माङ्गुलेनैत्र, पृथुत्वं रसनादिषु ॥ ५०६ ॥ अर्थ- वो एकेन्द्रिय-दीन्द्रिय इत्यादिक जे व्यवहार ते निश्रय द्रव्येन्द्रियोनी अपेक्षाएन होय छे. नतिर वकुल पांगे (इन्द्रिय योग्य) उपयोग होनाथी पंचेन्द्रिय कवा. कथं छेकेदली मनुष्यनी पेठे सर्व उल (विषग्राहकमा) होवाथी कुछ वृक्ष पंचेन्द्रिय के तोपण (पांच) द्रव्येन्द्रियना अभावधी पंचन्द्रियन कहेवाय ॥ ४८८ || (ते बकुल वृक्ष संबंधि पांच उपयोग आमागे - ) झना झांझरना शृङ्कारखळी मनोहर श्रीनानिपदिरौना कोळी आ (कुल) पुष्पवाया है. ।। ४५९ ॥ एरीरीने पांचे इन्द्रि य योग्य उपयोग (एकेन्द्रियां पण जाणवा || इन्द्रियोनी लंबाई-व्होळाइ-ने जाडग्इ-पांचे इन्द्रियोतुं भी जिनेश्वरोए अंगुलना अख्यानमा भाग जेटलं वाहक के, अहिं निश् चाहत्य एटले जाढाइ जाणवी ॥ ४९० ॥ प्रश्न- जो स्पर्शेन्द्रिय अंगुचना असंख्यानमा भाग जेटलीज जादी होय तो खड्गादिकना मानो देहनी अंदर पीडानो अनुभव केम था ? ।। ४९१ ॥ उसर — जेम चक्षुनो विषय रूप के नेम स्पर्शेन्द्रियनो विषय श्री उष्णादि स्पर्श छे, परन्तु वेदनानो अनुभव वो ते स्पर्चेन्द्रियतो विषय तो ॥ ४९२ ॥ अने ते वेदना तो दुःखना अनुभवरूप पाटे ते वेदनाने तो आ आत्मा ज्व रादि (बुखारादि नी पेठे सर्व देवडे अनुभवे ॥ ४९३ ।। 1 प्रश्नः - ( जो एम छे तो ) शीतल पाणी पीत्राश्री (देवनी) अन्दर (शीनहाशंनो ) अनुभव के थाय छे ! कारणके ( अन्दरना भाग ) स्पर्शेन्द्रिय बिना श्रोत स्पर्स केप लागे ? ।। ४९४ ।। उत्तर (- आ स्पर्शेन्द्रिय निवें देहना सर्व प्रदेशमां (सर्वत्र व्यापी पहेली छे. प प्रमाणे पूर्वीचायना संप्रदायथी मानवा योग्य के ।। ४९५ ।। जे कारणमी १ छोत्रन्द्रियनी विषय जणाना माटे ए विशेषण छे. २. चक्षु इन्द्रियो विषय जणाथमा माने ए विशेष छ ३ घ्राणं द्रियनो विषय जणावया मारे विशेषण छे ४ रसनेयिनी विषय जगाया माटे विशेषण छ २ रुपयो विषय अणावया माठे व विशेषण छे ܙ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) ॥ लोकपकाशे हतीयः सर्गः ॥ (सा० १२०) (१९५] श्री प्रज्ञापनाना मुलटीकाकारे पण काळे के " (अंगना) सर्च प्रदेशने अं. न्ते व्यापी रहेछी छ, माटे अन्दरयो (-मध्य भागा) पोकळ अने उपरथी स्पे. शन्द्रियनो सद्भाव होवायो (देहनी) अंदर पण शीत स्पर्शनी वेदनानो भनुभव थाय . ॥ ४९६ ॥ "ए हेतुथी मध्य भागमा (बचमां) शून्य अने पर्यन्ते स्पान्द्रिय छे माटे जेम कान वगेरेना पोलाणमां शीतलता अनुभवाय ले तेम देहनी अंदरना भागर्मा (पोलाणोमां) पण शीतलनादिक अनुभवाय छे. ॥ ४९७ ॥ श्रोत्र-घ्राण-अने चक्षु ए त्रणे इन्द्रियोनी पृथुना (होनाइ) इन्द्रियने अगोचर पदार्थोंने जाणनारा श्री सर्वशोए अंगुलमा असंख्यातमा भाग जेटली कही छ, ।। ४९८ ॥ रसनेन्द्रियनी पृथुता अंगुलपृथक्त्व'-बधुमां वधु ९ अंगुल) पमाण , अने म्यानेन्दिय पोलणेतानी मागा पमाण के ।। ५२९ ।। एमां स्पर्शेन्द्रिय सिवाय बीमी चार इन्द्रियोनी पृथुना आत्मांगुलवडे अने स्पर्शन्द्रियनी पृथुना उत्सेधांगुलवडे जाणवी. ।। ५०० ।। मनः--देहर्नु माप जरघांगुल बढेज होय छे माटे ते देहमा रहेली इन्द्रियो . पण उत्सेधांगुशवडे मापवीज योग्य छे. ॥ ५०१ ।। नो पार इन्द्रियो आत्मागुल वढे भने एक इन्द्रिय उत्सेधांगुलबहे ए प्रमाणे (विषमपणे) मपावी ते इन्द्रियोनी (मापणी) कम उषित कहेवाय ? उत्तर-जिहादि ४ नी होलाइ उत्सेवांगुलबरे स्वीकारनां ३ माउना मनुष्य. वगेरेने विषय जाणपणु न होय ॥ ५०२ ॥ ते आ प्रमाणे-३ गाउ बगेरेनी अवगाहनावाळ्प्रनुष्यो, अने ६ गाउ आदि पमाणवाना हस्तिो पोतपोताना देहने अनुसारे विस्तृत जिलाघाळा होय छे, ॥ ५०३ ॥ तेभोनी जो अभ्पन्नर निर्वृत्तिरूप रसनेन्द्रिय उत्से गुलना मापवडे अङ्गुल पृथक्व प्रमाण होय तो ते ५ मन्ते पटले देशमी उपरमा भने भन्दाना पहना रे २ चामहोमी अन्दरना अभय प्रतारमा ३ भा स्पर्शन्द्रिय देहना उपला भागमा भने देनो अन्दरमा भागमा पवी रीतं व्यापेष्ठी छे के जो प इन्द्रियना प्रतरने एक बाजुथी उखेडवा मांसोए तो उपरना भागनी भने बन्दरना भागनो सर्व शास्त्री उजडो आधे-अ. एचा जेम चांदीनु पुनलु बमाधी ते ने बॅटरीयो सैयार करेला सोनाना रसमां बोळसाथी जेवू सोनान गोलोट देहनी भगवरना भने पहारमा भागमां था नाप तेम पुनलाने पदावला तोनाना गीढ़ीर सरखी स्पशन्द्रिय शरीरनी प. बार भने भदरना भागा उपर उपरयो (अंगुलना असंख्यातमा भागनी नागपी) बागी गयेकी छे. प तात्पर्यशी उपरनो भाव विचारषो. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) ॥ इन्द्रियहारे नविषपपमाणानिनिरूपणं ॥ पणौन नानी थइ जाय. ॥ ५०४ ॥ अने तेथी ते ( अभ्यनानि सर्व निहाए फेशाय नहि, अने तेथी ए निहेन्द्रियकरे सर्वत्र अनिमि एवो जाननो म्यपहार सिद्ध न थाप ( अर्थात रसज्ञान न याय.) ||५०५|| पळी परीते गन्धादिकनो (गन्ध-रूप-ने शम्दनो व्यवहार पण सिद्ध न थाय पम ) विचारवो. माटे जि. हादिकमा आत्मांगुलवडे ज प्होळा माप जाणव॑ ।। ५०६ ।। जघन्यतोऽक्षिवर्जाण्यालासंख्येयभागतः । गृह्णन्ति वि. षयं चक्षुस्त्वगुलमाभागतः ॥५०७।। अयं भावः ।। प्राप्याविच्छेदकत्वात्, श्रवणादीनि जानते । अगुलासङ्ख्ययभागादपि शच्चादिमागतम् ॥ ५०८ ॥ चतुर्णामत एवैषां, व्यञ्जनाधग्रहो भवेत् । दृष्टान्तानव्यमृत्पात्रशयितोद्बोधनात्मकात् ॥५०९ यथा शरावकं नव्यं, नवेकेनोदबिन्दुना । क्लियते किंतु भूयोभिः, पतद्धिमतैनिरन्तरम् ॥ ५१० ॥ एवं सुप्तोऽपि नैकेन, शब्देन प्रतिबुध्यते । किंतु तैः पञ्चषैः कर्णे, शब्दद्रव्ये ते सति ॥ ५११ ।। एवं व्यञ्जनावमहभावना नन्दीसूमे । चक्षुस्वप्राप्य कारिस्वादपलसख्यभागतः । अर्थ जघन्याद गृहाति, ततोऽप्यक्तिरं नतु ।। ५१२ ॥ तत एवातिपार्श्वस्थं, नैवाचनमलादिकम् । चक्षुः परिच्छिनत्तीति, प्रतीतं सर्वदेहिनाम् ।। ५१३ ।। तथा।।श्रुति वशयोजन्याः, शृणोति शब्दमागतम् । रूपं पश्यति चक्षुः साधिकयोजनलक्षतः ॥ ५१४ ॥ थागतं नवयोजन्याः शेषाणि श्रोणि गृह्णते । गन्धं रसमथ स्पर्शमुत्कृष्टो विषयो - यम् ॥ ५१५ ॥ ननु च प्राप्यकारीणि, श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि चेत् । परतोऽप्यागतान शब्दादीन् गृहन्ति कथं न तत् ? ॥५१६॥ द्वादशयोजनादियों, नियमः सोऽपि निष्फलः । गृह्णाति प्राप्तसंवन्धं, सर्वमित्येव यौक्तिकम् ॥ ५१७ ॥ अत्रोच्यते।।शब्दादीनां Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० १२० | (२७) पुद्गला ये, परतः स्युः समागताः । तथामन्वपरीणामास्ते जायन्ते स्वभावतः ॥ ५९८ ॥ यथा स्वविषयं ज्ञानं, नोत्पादयितुमाशते । स्वभावान्नास्ति शक्तिश्वेन्द्रियाणामपि तदग्रहे ॥ ५१९ ॥ ततो विषयनियमो युक्तोऽयं दर्शितः श्रुते । प्राप्यकारित्वे चतुर्णामिन्द्रियाणां वियतेऽति हि॥२०॥ किख ॥ नास्ति शक्तिश्चक्षुषोऽपि विषयात्परतः स्थितम् । परिच्छेत्तुं द्रव्यजातं, युक्तस्तस्याप्यसौ ततः ॥ ५२१ ॥ अर्थ-- इन्द्रियानुं विषयक्षेत्र-चक्षु शिवायनी चार इन्द्रियो जघन्यथी अनुना असंख्यामा भाग जेटका (दूर) क्षेत्रयो पोतानो विषय ग्रहण करे छे अने चक्षु अङ्गुछना संख्याता भाग दूर क्षेत्रथी विषय ग्रहण करे के ।। ५०७ ।। तात्पर्य ए छे के श्रोत्रादि इन्द्रियो प्राप्त ( स्पृष्ट ) पदार्थने जाणनार होवाथी अङ्गुलना असंख्यानमा भागथी आवेला शब्दादिकने पण जाणे हे ॥ २०८ ॥ ए हेतुथीज ए चार इन्द्रियोनी नवीन माटीनुं भाजन अने मुतेलाने जगावारूपान्नयी ( ते ४ नोज ) व्यञ्जनावग्रह होय. ते आ प्रमाणे - जैम ननुं शरावलं ( माटीनुं नानुं कुंडु वाकोडीड ) पाणीना एक बिंदु वडे भिजातु नथी, पण वारंवार पडतां घणा बिंदुओ बडे भींजाय हे ॥६१०॥ तेमज सुतेको पुरुष पण एक शब्द बड़े जागतो नथी, परन्तु चार पांच बार करेला शब्दो बड़े बोलावतां तेना कान शब्द द्रव्यवडे भये छतेज जागे है || ११ || ए प्रमाणे व्यञ्जनानां दृष्टान्तो श्री नन्दीसूत्रों के. वळी चक्षुइन्द्रिय अमाध्यकारी होवाथी जघन्यथो अंगुलमा संख्यातमा भाग दूर क्षेत्री पोतानो विषय ग्रहण करेछे, परन्तु तेथी पण नजीकक्र्ती क्षेत्र रहे ग्रहण करें नहि ||५|२|| ए कारणथीज अतिनजीकमां रहे काजल अने मेल ( पोगरा वगैरे ) वगेरे चक्षु जाणी शकती नथी ए बात स माणीने प्रसिद्ध - प्रत्यक्ष है ॥५१३॥ तया श्रोत्रेन्द्रिय (उत्कृष्टतः ) १२ योजनश्री आवेलो शब्द सांभळे छे. अनेक अधिक एक लाख योजन दूरथी पदानुं वर्णादि रूप देखी शके || २१४ || अने शेष ३ इन्द्रियो बारेमांधारे योजन १ पोताने स्पशैला विषयने नर्दि जाणनारी पण दूर रहेला विषयने जाणनारी से स्त्रिय ते अमाप्यकारी (चक्षु ने मन छे. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९.८) रन्नियादार भाष्यगरिल्लागायफारित्वविचारः॥ द्विार दूरधी आणेला गैध -रस- अने स्पर्शने ( अनुक्रमे ) ग्रहण करी पाकेछ । ए उत्कृष्ट विषय कहो. ॥५१५ ॥ प्रश्ना-श्रोत्रादि ४ इन्द्रियो जो माध्यफारी के तो आगळ्थी आवेला शब्दादिक विषयोने पण कम ग्रहण न करे ? ॥५१६॥ अने तेथी १२ योजन इत्यादि जे नियम के ते पण निष्फळ छे, कारण प्राप्त ययेला सर्व विषयोने ग्रहण करे एज वात युक्तिवाळी छे. ॥१७॥ उत्तरः-जे शब्दादिकना पुढूलो आगळथी आवेला होय ने स्वभावथी ज एवा मंद परिणामवाळा यह जागळे के।।५१८॥जेथी पोताना विषयनु शान उत्पन्न करावया समर्थ यता नथी, तेमज दूर रहेला विषयने ग्रहण करवामां इन्द्रियोनी शक्ति पण स्वभावधीज नथी. ॥५१॥ ते कारणथी चार इन्द्रियोने प्राप्यकारीपणु होते छने पण सिद्धान्तमा दर्शाषेलो ते विषयनियम युक्तिवाळोज छे।।५२०।। वळी म्वविषयक्षेत्रथी दर रहेला द्रव्यसमाने जाणवामां ( ग्रहण करवामां अमाप्यकारी ) चक्षुनी पण शक्ति नथी. तेथी ए चक्षुनो पण ( कहेलो ) विषय नियम योग्यज छ । ५२१॥ जिह्वाघ्राणस्पर्शनानि, त्रीण्यप्येतानि गृह्णते । बद्धस्पृष्ट द्रव्यजातं, स्पृष्टमेव परं श्रुतिः॥५२२॥ यदुक्तं-"पुढें सुणइ सहं, रूवं पुण पासई अपुटें तु। गन्धं रसं च फासंच,बद्धपुढें वियागरे।।५२३।।"(सा०१२१)(स्पृष्ट शृणोति शब्द,रूप पुनः पश्यत्यस्पृष्टं तु । गन्धं रस च स्पर्श च बद्धस्पृष्ट व्यागृणीया(कुर्या)त्) बद्धं तत्रात्मप्रदशेरात्मोकृतमिहोच्यते । स्पृष्टमालिङ्गितमात्रं, ज्ञयं वपुषि रेणुवत् ।।५२४॥ "वद्धमप्पीकयं पएसहि, पुटे रणुं व तगुंमि (सा० १२२) ( बद्धमात्मीकृतं प्रदेशैः, स्पृष्टं रेगुवत्तनौ) " इति वचनात् ॥ समेऽपि प्राप्यकारिले, चतुर्णामपि नन्वयम् । को विशेषः स्पृष्टवद्धस्पृष्टार्थग्रहणात्मकः ? ॥ ५२५ ॥ अत्रोच्यते ॥ स्पर्शगन्धरसद्रव्योघानां शब्दध्यपेक्षथा । अल्पत्वाहादरत्वाच्चाभावुकत्वाच्च सत्वरम् ॥ ५२६ ।। स्पर्शनम्राणजिह्वानां, मन्दशक्तितयाऽपि च । बद्धस्पृष्टं वस्तुजातं, गृह्णन्त्येतानि निश्चितम् ॥ ५२७ ॥ स्पर्शादिद्रव्यसंघा Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः । [सा० १२० (२९९.) तापेक्षया शब्दसंहतिः । बह्वी सूक्ष्माऽऽसनशब्दयोग्यद्रव्या. भिवासिका ।। ५२८ ॥ तन्निवृत्तीन्द्रियस्थान्तर्गत्वापकरणेन्द्रियम् । स्पृष्ट्वाऽपि सद्यः कुरुतेऽभिव्यक्तिं सा स्वगोचराम् ॥५२॥ अन्येन्द्रियापेक्षया च, श्रवणं पटुशक्निकम् । ततः स्पृष्टानेव शब्दान्, गृह्णातीत्युचितं जगुः ॥ ५३० ॥ श्रुतेर्यत्प्राप्यकारित्वे, चौद्धोक स्पर्शदृषणम् | चण्डालशब्दश्रवणादिष्वयौक्तिकमेव तत् ॥५३१॥ स्पृश्यास्पृश्यविचारो हि, स्याल्लोकव्यवहारतः । नेन्द्रियाणां च विषयेष्वसौ कस्याप्यसौ मतः ॥ ५३२ ॥ स्पृष्टा ग्राहकत्वं यत्, परैरक्षणोऽपि कथ्यते । तदयुक्तं तथात्वे हि, दाहः स्याद्वयवेक्षणात् ॥ ५३३ ॥ तथा ॥ काचपात्राद्यन्तरस्थं, दूरादेवेक्ष्यते जलम् । तद्भित्त्वान्तःप्रवेशे तु, जलश्रावः प्र. सज्यते ॥ ५३४ ॥ इत्याद्यधिक रत्नाकरावतारिकादिभ्योऽवसेयम, (सा० १२३) विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते ॥ यच्च सिद्धान्ते 'चकलुप्फासं हव्वमागच्छई' (सा० १२४) ( चक्षुःस्पशै शीघमागच्छति) इति श्रूयते, तत्र स्पर्शशब्देन इन्द्रियार्थसन्निकर्ष उच्यते, तथाहुः ॥ 'सूरिए चक्खुल्फास हव्वमागच्छइ' (सूर्यश्चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति) इत्येतजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रतीकतौ-"अत्र च स्पर्शशब्द इन्द्रियार्थसन्निकर्षपरश्चक्षुपोऽप्राप्यका रित्वेन तदसंभवादि"ति (सा० १२५) ।। ॥ इन्द्रियग्राध विषयानुं स्वरूप ॥ अर्थ-जिव्हा-प्राण-अने स्पर्शन एत्रणे इन्द्रियो पद्धस्पृष्ट द्रव्यसमृहने ग्रहण करछे, परन्तु श्रोत्रेन्द्रिय तो मात्र स्पृष्ट द्रव्पनेज ग्रहण करे छ, ॥३२२॥ (विशेषा भाष्यमा] फर्छ ? के-स्पृष्ट थयेला शब्दने सांभळे छे,अने रूपने अस्पृष्ट छतुं देखे छे, तथा गंध-रस-अने स्पर्शने बदस्पष्ट (पणे) ग्रहण करे" एम का छे " ॥५:३। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {30] ॥ इन्द्रियहार प्राप्यकाग्विापाध्यकारित्वविचारः ॥ द्वार अहीं बद्ध एटले आत्मप्रदेशोए आत्मरूप करेल (एकीभाषे करल) कवाय अने शरीर उपर लागेली रजनी माफक आलिंगिन मात्र [ वळगेल ] होय ने म्पृष्ट कहेवाय ।।५२४॥ " वद्ध एटले आत्मपदेशोप आत्मीकृत अने स्पृष्ट एटले शरीर पर लागेली रजनी माफक प्रमाणे ( विशेषा मां ) कहेले होवाथी ( पूर्वोक्त अर्थ युक्त छे.) मश्नः- चारे इन्द्रियोर्नु पाप्यकारीपणुं सरखं छतां पण स्पृष्टबद्ध अने स्पृष्टविपयने ग्रहण करवा रूप ने नारन देगा ५२५ ॥ उनरः- शब्द द्रव्यनी अपेक्षाए स्पर्श-गंध-अने रसना द्रव्यनो समूह अति अल्प-चादर अने शीघ्र अवासक [वीजा पुद्गलोने ते परिणामे नहि परिणमावनार] वाळ होवाथी भने पनि प्राण-नथा जिला पण ( ग्रहण करवामां) मंदशक्तिवाळी होवाथी ए त्रणे इन्द्रियो निश्चय पद्धस्पृष्ठ द्रव्यसमृहनेन ग्रहण करे छे. ॥ ५२६ ॥ अने स्पर्शादिद्रव्यसमृटनी अपेक्षार शन्दनो समूह घणो-मूक्ष्म-अने नजीक रहेला (पोनाने स्पर्शला) शब्दयोग्य द्रव्यने शन्दपणे परिणमावनार ले ॥ ५२७ ॥ तेथीते (द्रव्यसमूह ते अभ्य०) निर्वत्ति श्रीन्द्रियमां जइने अने [अभ्य०] उपकरणेन्द्रियने स्पर्शीने पोताना विषयवाळी अभिव्यक्ति (स्वविषयिकबोध) तुर्नज कर छे ॥ ५२८ ।। ___वळी वीजी इन्द्रियांनी अपेक्षाए श्रोत्रन्द्रिय पटुःशक्ति (शीघशक्ति) चाळी छ, नेथी स्पृष्ट शब्दद्रव्यने ग्रहण करें एम जे काय ते उचित छे. ॥ ५२९ । पात्रन्द्रिपर्नु पाप्यकारीपणुं मान्ये छते चंडालनो शब्द सांभळगादिकने विश बौद्धोनु कहे जे मार्शदूषण ने युक्तिरहिन छ । कारणके स्पृश्यास्पृश्यनो विचार लोकव्यवहा १ आकाशमां रहेल बीजा द्रव्यममृहने पोताना स्त्ररूपे नहिं परिणमायनार ने अघामक. २ योद्रो एम माने केंद्र के अन्यज वर्णने जम देहमी स्पर्श थपाथी अमहायान गणाय छे तेम तेना बोलेला शम्दादिक स्पर्श थतां पण आपण अ. भडा छोए जेथी धोत्रन्द्रिय शब्दश्यने स्पर्श कर्यापिना एटले अमाप्यकारिपणे श्रवण करे छ, घटी ते बायतमा एक युक्तिपण तेओ को छ के जे चानुगिन्यथी पदार्थ देखयाथों दिग्देशन नियतपY जणाय ? नंबुज श. सांभाळतां श्रोत्रेन्द्रियथी पण जणाय छ, माटे श्रीन्द्रिय चक्षुनी माफक अ. प्राप्यकारी छे विगैरे. परन्तु प वान अनुचित छ. कारण स्पृश्यास्पृश्य व्यहा. र लोकव्ययधारने अनुमरतो , शब्दमां कारण पण ने मान्या नथी तथा दिदेशमियतपणु गन्ध संघतां घाणेन्द्रियमां पण इंणाय छे. माटे युधिपण व्यभिचारबोपग्रस्त छ, इति तात्पर्य, Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १२६ ) [ ३०१ ] रथी (देवने अडवामां तथा कवचित छाया विगेरेमां ही है, परन्तु ए व्यवहार इन्द्रियोना विषयमा कोइए पण मानेको नयी ॥ ५३० ॥ बळी नैयायिक विगेरे चक्षुने पण जे स्पृष्टविपयनुं ग्रहण करवापं ( प्राप्यकारोपणु ) कहे छे ते अयुक्त के, कारण के जो तेम होय तो अग्निने देवाधी ( चक्षुमां ) दाह उत्पन्न याय ॥ ५३१ ॥ तथा काच वगेरेना वासना आंतरे रहेन्द्र [काच वगेरेना पडदें रहे ] जळ दूरयी देखाय , त्यां ( चक्षुनां किरण ) जो ते पडदाने भेदीने अंदर प्रवेश करतां होय तो ते ( भेदायला ना. समांथी ) जळ झरी जवानो (निकवानो) प्रसंग आये ।। ५३२ ॥ इत्यादि अविकवृत्तान्त रत्नाकरावतारिकादिकधी नाग, न्तु विश्वाला पहि तेनो विस्तार करना नथी. बळी सिद्धान्तमा जे "चक्षुना स्पर्शने शीघ्र पामे "एवो पाठ संभळाय छे त्यां" स्पर्श" शब्दवडे (अडकवं प अर्थ नहि पण ) इन्द्रियना विष नजीक [ इन्द्रियना विषयक्षेत्रमा रहेवापणं ] एवो अर्थ थाय छे. श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञसिनी वृत्तिमा क छे के "सूर्य चश्चना स्पर्शमां शीघ्र आवे" अहिं स्पर्श ए श द इन्द्रियना विषया नजीकपणा [ योग्यदेशमा रहेवापणा) रूप सम्बन्ध दर्शानारो छे. कारणके चक्षु अप्राप्यकारी होवाथी ते (संघहरूप) स्पर्शना असंभव है. ॥ मैया आत्माङ्गुलैरेव प्रागुक्तेन्द्रियगोचराः । प्रमाणागुलमाने स्युर्महीयांसोऽधुना हि ते ॥ ५३३ ।। उत्सेधा गुलमाने तु कथं भरतचक्रिणः । पुर्यादौ स्वाङ्गुलमितनवादशयोजने ॥ ५३४ ॥ एकत्र वादिता भम्भा, सर्वत्र श्रूयते जनैः । तस्मादात्माङ्गुलोन्मेया, विषया इति युक्तिमत् ॥ ३६ ॥ युग्मम् ।। आह || प्रमाणागुलजानेकलक्षयोजनसम्मिते । स्वर्वि माने कथं घण्टा, सर्वत्र श्रूयते सुरेः ? || ५३६ || त्रैधेरप्यङ्गुलैनष, विषय घटते श्रुतेः । द्वितीयोपाङ्गटीकायामस्योत्तरमवेक्ष्यतां ॥ ५३७ ॥ तथाहि । तस्यां मेघौघरसितगम्भीर मधुरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुस्वराभिधानायां घण्टायां त्रिस्ताडि नायां सत्यां यत्सूर्याभं विमानं तत्प्रासादनिष्कृटेषु ये आप " Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२) ॥ इन्द्रियबारे नविषयममाणनिरूपणम ॥ द्वार तिताः शब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घ. ण्टाप्रनिश्रुतिशतसहस्राणि-घण्टाप्रतिशब्दलक्षास्तैः संकुलमपि जातमभूत् , किमुक्तं भवति? घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्प्रतिघाततः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्दैः सकलमपि विमानमनेकयोजनलक्षमानमपि बधिरितमुपजायते इति, एतेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति, न परतः,ततः काममेकत्रताडिताया घण्टायां सर्वत्र तच्छब्दश्रुतिरुपजायते इति यदुच्यते तदपाकृतमवसेय, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपप्रतिशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासंभवात् [सा० १२६) । अपरं च ॥ इगवीसं खलु लक्खा , चउतीसंचेव तह सहस्साई। तह पंच सया भणिया, सत्तत्तीसा य अइरिता ॥१॥ २१३४५३७॥इति नयणविसयमाणं, पुक्रवरदीवड्ढवासिमणुआणं। पुट्वेण य अवरेण य, पिहं पिहं होइ नायव्वं ॥५३८॥ (सा. १२७) (एकविंशतिः खलु लक्षाः चतुर्विंशच्चेव तथा सहस्त्राणि । तथा पञ्च शतानि भणितानि सप्तत्रिंशञ्चातिरिक्तानि ॥२॥ इति नयनविषयमानं पुष्करद्वीपार्धवासिमनुजानाम् । पूर्वेण चापरेण च पृथक् २ भवति ज्ञातव्यम्।।)एवं च-स प्रागुतोऽक्षिविषयो, न विसंवदते कथम्। अत्रेतत्सूत्रतात्पर्य, व्याचचक्षे बुधैरिदम् ॥५३९॥ लक्षयोजनमानो दृविषयः परमस्तु यः । अभास्वरं पर्वतादि, वस्त्वपेक्ष्य स निश्चितः॥५४॥स्याद्भास्वरंतु सूर्यादि, वस्त्वपेक्ष्याधिकोऽपि सः।व्याख्यानतो विशेषार्थप्रतिपत्तिरिय किल ॥५४१॥ इदं विशेषावश्यकेऽर्थतः (सा०१२८)।। अर्थ-पूर्व कहेला इन्द्रियना विषयो ( विषपक्षेत्र ) आत्मांगुलघडे मापया, कार Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुं। ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १२०) (३०३) के प्रयाणांगुलवडे मापता आ काळमां घणाज मोटा [ घणा दूर ] यइ जाध ॥ ३३ ॥ अने उत्सेधांमुलबडे मापतां पोताना अङ्कलने अनुसारे ९ योजन होळी अने १२ योजन लांबी भरने चक्रवर्तिनी नगरी वगेरेमा ॥ ५३४ ॥ एक ठेकाणे वगाडेली भंभा ( युद्धनी तैयारी करवाने वगाहातुं वाजींत्र) लोकोथी सर्व ठेकाणे ( संपूर्ण नगरीमां) केयो रीते संभलाय ? तेथी इन्द्रियना विषयो आत्मगलरहे भाषपाल युकिरी: मागयी . ( .३५ ।। प्रश्न-प्रमाणांगुले करीने अनेक लाख योजन प्रमाणवाला देवक्मिानमा चागती घंटाने देवो विमानमा सर्व ठेकाणे केवी रीने सांभली शके ? । माटे श्रीबेन्द्रियनो विषय त्रण मकारमांना कोइपण अंगुलबडे घटी शकतो नथी । ०३६।। उत्सर-ए प्रश्ननो उत्तर वीजा उपाङ्गनी ( रायपसेणीय मृत्रनी ) टीकामां जुओ, तेमां आ प्रमाणे छ के-" मेघना समूहनी गर्जना सरखा गंभीर अने मधुर ध्वनिवाळी. एक योजनममाण मण्डलाकारवाळी ( १ पोजन प्रमाण व्यास लंबाइकाळी गोळ), ते सुस्वरा नामनी घंटाने त्रणववत वगाथे छते मर्याभ नामर्नु विमान पण. ते रिमानना पामादनिष्कुटोमा ( म्हेलनी भीनोमां ) जे शब्दवर्गणाना पुद्गलो अफळाया, ने पुद्गलोमांथी उछटेला चंदाना लाग्यो पनिध्वनिमओ ( पड्या) पटले घंटाना लाखो गमे मतिशब्दो ने (मनिध्वनिओ) चडे (ते विमान) व्याकुळ पण थइ गपुं. नापय गले के-धणा मोठा प्रयन्नथी - राने वमाडथे छने नेमायो जे शब्दयुगलो निकन्या ते शब्दपुद्गलोना पनिधानथी सर्व दिशा अने विदिशाओमा दिन्यप्रभाषयी उछळेला प्रतिध्वनिओवडे अनेक लाख गोजन प्रमाण- पण समस्त विमान व्हेरे थइ जाय छ आ वचनवडे में १२ योजनथी आवेलो शब्द श्रोवेन्द्रियग्राम्य होय अने आगळ्थी नहिं, तो एक ठेकाणे घंटा बगाचे छते सर्वविमानभा नेनो शब्द केवी रीने संभळाय ? एम जे कडेवाय ने दर कयू (तेनुं निराकरण कयु) जाण. कारणके दिन्य प्रमाणे विमानमां सर्वत्र नथामकारनी प्रतिध्वनि उछळतो हावाथी पूर्वे कहेला दोषनो सं १. कारण के भरतनो आमांगुल ते प्रमाणांगुल माटे भरतना अंगुलघडे मपायली नगरी प्रमाणांमुलव ९ अने १२ योजन प्रमाण जेटली घणी मोटी था जाय ( अंगुलप्रकरणमां दर्शाया प्रमाणे भरतना आन्मांगुलनो वि. कम्भ गणतां ३० योजः लांची ने रशा योज० उत्मेधांगुलने अनुमारे होळी अथवा २७० उत्सेध योजन क्षेत्रफळ पाळी यषाथी) अने एक काणं धगादेली भाना शक्य १२ उत्मेध योजन जेटले जवरची मंभळाा शक माटे. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३०४१ ॥ इन्द्रियद्वारे तदिपयप्रमाणस्वरूपनिरूपणं ॥ द्वार) भवज नथी. ॥५३॥ कळी "निश्चये २१ लाख ३४ हजार अने ५३७ अधिक (२१३४५३७ योजन)ए चक्षुना विपयर्नु प्रमाण पुष्करादबीपमा रहेनारा मनुष्योने पूर्वदिशाए अने पश्चिमदिशाए जूर्दु बर्दु शे(अर्यात् पूर्वमा २११४५३७ अने पशिमा पण २१३४५३७ यो० ) एम जाणवू. " ॥ ५३८ ॥ जो ए प्रमाणे मुत्रमा कहेलं छे तो पूर्व कईलो ते चाइन्द्रियनो (१ लाख यो० अधिक) विषय विसंवाद केम न पामे?(पूर्वापर विरोधी केम न कहेवाय?), अहिं पूर्व पंडितोए ए सूत्रनुं तात्पर्य आप्रमाण कढे छे के-चक्षुइन्द्रियनो उत्कृष्ट विषय लाख योजन प्रमाण छे ने अभास्वर एवी ( मकाश रहित ) पर्वतादि वस्तुओनी अपेक्षाए निश्चय करेलो छे. ॥ ५४० ॥ अने प्रकाशवाळा पवा सूर्य वगेरे पदार्थोनी अपेक्षाए तो तेथी अधिक पण जाणवो. ए खुलासो मूळ सूत्रमा नयी तोपण "व्याख्यानात् विशेषप्रतिपत्तिः " एटले व्याख्यानथी (टीका वगेरेयी) विशेष ( ) ज्ञान ( ) थाय छे ए न्यायने अनुसार जाणचो. ॥ ५४१ ॥ आ वर्णन श्री विशेषावदपकजीमां भावार्थरूपे करेलुं छे... अनन्ताणूद्भवान्येतानीन्द्रियाण्यखिलान्यपि । असङ्खयेयप्रदेशावगाढानि निखिलानि च ॥ ५४२॥ स्तोकावगाहा दृ. क् श्रोत्रघाणे सङ्ख्यगुणे क्रमात् । ततोऽसङ्घयगुणा जिह्वा, संड्यघ्नं स्पर्शनं ततः ॥ ५४३ ॥ स्तोकप्रदेश नयन, श्रोत्रं सङ्क्षयगुणाधिकम् । ततोऽसंख्यगुणं घ्राणं, जिह्वाऽसङ्ख्यगुणा ततः ॥ ५४४ ॥ ततोऽप्यसङ्ख-यगुणितप्रदेशं स्पर्शनेन्द्रियम् । इत्यल्प १ पुष्करार्धनी मर्यादा करनार (अथवा मनुष्यक्षेत्रनी मर्यादा करनार) मानुषोसर पर्वसना उत्सर किमाग उपर करतो सूर्य पुष्कगर्धमां हेला मनुष्याने २१३५५३७ योजनयी कंडक अधिक पर पूर्वदिशामां उदय पामता देखाय छे, अने पटल ज दूर पश्रिम दिशार्मा अस्त पामतो पण देखाय छे, मनुष्यक्षेत्रनो व्यास ४५ लाख जोजन छ तेनो धर्ग करी दश गुणी वर्ग मूळ काढतां से परिघ आवे ते प्रण दशांश ( 33 ) भाग २२३४५३७ जोजन अधिक याय. प २६ लाख इत्यादि प्रश्नोत्तररूप संषाद श्रीविशेषावश्यकजीमा छे. २“ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्भवति न हि मन्देहादलक्षण " व्याख्यामी (टीका विगेरेयी) विशेष (स्वरूप) झान थाय छ, सन्देहथी सूत्र असूत्र थतुं नथी, ( परिभाषा ) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) ॥ श्रीलोकपकाशे ननीयः गमः ।। [मा० १२५ (३०) बहुतेषां स्यादवगाहप्रदेशयोः ॥५४५|| तुर्योपाने तु । श्रोत्राक्षिनासिकं द्वे द्वे, जिद्वैका स्पर्शनं तथा। एवं द्रव्येन्द्रियाण्यष्टी, भानेन्द्रियाणि पश्चा ( सार) सर्वेषां सर्वजातित्वे, द्रव्यतो भावतोऽपि च । अतीतानीन्द्रियाणि स्युरनन्तान्येव देहिनाम्॥५४७॥विनाऽनादिनिगोदे (दि)भ्यो,ज्ञेयमेतत्तु कोविदेः । स्वजातादेव नेषां तु, तान्यतीतान्यनन्तशः ॥ ५४८ ॥ किञ्च ॥ येषामनन्तः कालोऽभन्निगतानां निगोदतः । तेषामपेक्षया ज्ञेयमेतत् श्रुतविशारदैः ॥ ५४२ ॥ एवमन्यत्रापि यथा सम्भवं भाव्यम् ॥ इन्द्रियोनी अवगाहना अने प्रदेशनी अल्पबहता ॥ अर्थ-प सर्वे इन्द्रियोअनन्त परमाणुओनी बनेली छे,अने ते सर्व इंद्रियो अमंग्व्य आकाशप्रदेशमाभवगाइना करीने(पोनान क्षेत्र रोकीने पहेली है. ॥५५२॥ नेमां चान्द्रियनी अवगाहना सर्वथी अल्प के. नेथी अनुक्रमे श्रोत्रन्द्रियनी संग्यगुणी, तेथी घाणेन्द्रियनी संग्व्यगुणी, तेथी जिवेन्द्रिगनी असंख्यगुणी अने तेथी स्पर्शने. न्द्रियनी संख्यातगुणी अवगाहना के ॥५.४३॥ चक्षु सर्वधी अल्प प्रदेशवाळी २. नेथी - - 5 अगुलमा अम० भाग प्रमाण मर्षथी नानी होषाथी. २ मंगळ्यातगुण ( अमंल्याकाशप्रदेश प्रमाण अंगुलना असंख्यातमा भागना अमस्यभेदो पहे छे. तेयो अगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छतां । घश्च करता मोटी होमायी, ३ तेधी पण मंण्यातगुण (अंगु नो अम० भाग) मांटी जाणवा. ४ अगु० ना अमे० भागथी अंगुलपृथक्त्र अमष्यगुण मोटु छे. मार्ट ५ अगु० पृयकाय थी साधिकहार अथवा साधिक लाख योजन मन्यात गुणा छ माटे. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०६) ॥ इन्द्रियद्वारे तदवगाह--प्रदेशाल्एबहुवनिरूपणम ॥ द्वार श्रोत्रेन्द्रिय संग्ख्यात गुणप्रदेशवाली. अने तेथी घाणन्द्रिय असंग्ख्यगुण प्रदेशवाली, तेथी रसनेन्द्रिय असंख्यगुण प्रदेशवालो, ॥२४४॥ अने नेथी पण स्पर्शन्द्रिय असंरठ्यगुणभदेशवाळी छे. ए प्रमाण इंद्रियोना अवमाइ भने प्रदेशनी अल्पबहता है. ।। ५४५ ॥ बळी चोथा उपांगमां (प्रज्ञापनासघ्रना इन्द्रिय पदमा) नो श्रोत्रचक्षु अने नासिका वे वे छे.जिह्वा अने स्पर्शन्द्रिय एकेक छ.ए प्रमाण द्रव्येन्द्रियो ८ अने भावेन्द्रियो पांच कहेली छे. ॥१४६॥ (कया जीवोने अतीत अने भाधि - केटली केटली इन्द्रियो होय ! ते कहे के ) सर्व जीवोंने सर्व (एकेन्द्रियादि) जातिमा द्रव्येन्द्रियो अने भावेन्द्रियो अनन्नी व्यतीत भयेली छे. ॥ ५४७ ॥ आ विचारणा अनादि निगादीया जीवो सिवायना जीवोने आश्रयि बुद्धिमानाये जाणवी, कारणके ते अनादिनिगोदीया जीवोने पोतानी [ निगोदीया स्वरूप ] जातीमांज अनन्ती द्रव्येन्द्रियो भने भावेन्द्रियो व्यतीत ययेली छे. ॥ ५४८ ॥ वळी में जीवने निमोररथी निगरियाने बानो काल थयो . तेओनी अपेक्षाए आ ( सर्व जातिमां अवन्ती इन्द्रियोनु व्यतीत थवा पणुं । श्रुतज्ञानां होंशीयार पुरुपोये जाणवु || ५४०. ।। आ प्रमाणे बीजे ठेकाणे पण यथासंभव [जेम जेम घटे तेम नेम ] विचारच्. - . ., अहिं प्रवेशोन अल्पवहुन्ध अवगाहनामें अनुमरीने छ, नो पण घाणे. न्द्रियना प्रदेशा असंख्य गुण कमा छत्तां अवगाहना संख्यात गुणीज मोटी पाय छ कारण घणा पुदगलोनो पण अल्प आकाशप्रदेशमा अवगाह स्थभाष होवार्थी नेम थवामां दोषापप्ति नथी. २ अनादि निगोंदीया जीवो त्यांची मोकळेलानथो मेथी बीजी जातिपणे नेओनी उत्पत्तिज ययेली नथी माटे ते रुपे नेमने इन्द्रियो थयेली नथी. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इन्द्रियोमा ९ द्वारनो यन्त्र ।। २२९ इन्दिशोना नाम जाडाइ प्रमाण | केटले दूर ! प्राप्यकारी के | केरले दूरी | पद्धष्ट । अवगाइनानु केटलाप्रदेशनी, व्यन्द्रियो विस्तार | । रहेलो विषय | अप्राप्यकारी भादेलो विषय स्पृष्ट के अस्पष्ट | अल्पबहुल बनली ८ | केटली ! प्रमाण २ | । ग्रहण करे. | विषय ग्रहे | | ७ प्रदेशमृताल्पा अंगुलनो स्पन्द्रिय असंख्यातमो स्वदेह प्रमाण अंगुल्मसंख्येय भाग । [बद्ध स्पृष्ट । विषय ] | प्राप्यकारी , ६ योभन । अस्मांगुलो)। घसस्पृष्ट | रसन० थी | रसन० थी संयगुण. | असन्यगृण. भाग मात्मामुल | पृथक्त्व ., । पृथक्त्व | रसनेन्द्रिय ! , ' . | .. | घ्राणेः। थी । घ्राण. दी। मसंन्थ्यगुण असंख्य ण । ॥भीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ।। (सा० १२९) ... प्राणेन्दिय । " अंगुलनी असंख्यातमो भाग , भ्रांची श्रांनी | संम्येयगुण | असंख्यमग चक्षुनिन्द्रिय साधिक १ लाख अंगुलसंख्येय अप्राप्यकारी योजन (भभास्व भाग वस्तु आश्रयि) भस्पृष्ट विषय) (आत्मांगुली) अगलासंख्येय भाग ५२ योजन | (स्पृष्ट विश्व) प्रारकारी ! (भात्मांगुली) | सर्वधी अल्पभनन्तरशी अवगाहना सबंधी साप वान्टी प्रर्दशा नायो । चक्षुधी संख्ययगुण | संख्येयगुण । [३०७] धात्रन्द्रिय .. " Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || इन्द्रियद्वारे आमुक्तिमा प्तेभवी न्द्रियविचारः ॥ [ द्वार एकादीनि सन्ति पञ्चान्तानि भावेन्द्रियाणि च । एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाणां स्युर्यथाक्रमम् ॥ ५५० ॥ भावीनि नैव केषाञ्चिन्ते मुक्तियायिनाम् । केषाञ्चित्पञ्च षट् सप्त, सङ्ख्यासङ्ख्यान्यनन्तशः ॥ ५५१ || सिध्यतां भाविनि भवे, नरनारकनाकिनाम् । पञ्चाक्षतिर्यक्पृव्यम्बुद्रूणां पञ्च जघन्यतः ।। ५५२।। पृथ्व्यादिजन्मान्तरितमुक्तीनां तु मनीषिभिः । षट्सप्तप्रमुखाण्येवं, भाव्यानि प्रोक्तदेहिनाम् ||५५३ ॥ सङ्ख्येयानि च तानि स्युः, सङ्ख्यातभवकारिणाम् । असङ्घयेयान्यनन्तान्यसङ्ख्येयानन्तजन्मनाम् ||५५४ ॥ रिष्टामघामाधवतीनारकाणां च युग्मिनाम् । नृणां तिरश्चां भावीनि, दश तानि जघन्यतः ॥ ५५५ ॥ पञ्चाक्षेभ्योऽन्यत्र नैषामुत्पत्तिर्नाप्यनन्तरे । भवे मुतिस्तत एषां दशोक्तानि जघन्यतः ।। ५५६ ॥ वाय्वग्निविकलाक्षाणां जघन्यतो भवन्ति षट् । क्ष्मादिजन्मान्तरितैषां मुक्तिर्नानन्तरं यतः ॥ ५५७ ॥ एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाणां स्युरनुक्रमात् । द्रव्येन्द्रियाणि सन्त्येकं, द्वे चत्वारि षडष्ट च । ५५८ । भविष्यन्ति न केषाञ्चित्केषाञ्चिदष्ट वा नव । दश पोडश केपाञ्चित्सङ्ख्यासङ्ख्यान्यनन्तशः ॥ ५५९ ॥ भावना प्राग्वत् ॥ , अर्थ - एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय-अने पंचेन्द्रिय जीवोने अनुक्रमे एक-वे-त्रण - चार -अने पांच भाषेन्द्रियो ( वर्तमानकाळमां ) छे. ॥ ६५० ॥ केटलाएक मुक्तिगामी जीवोने भावी इन्द्रिय एकपण वर्तनी नथी. अने बीजा केलाएक जीवोने कोइने पांच कोइने छ- सात-संख्यात - असंख्यात - अने अनन्त इन्द्रियो भविष्यमा धनार होय छे ।। ५५१ ।। आ ant raniज मोक्षे जनारा मनुष्य-नारक-देव-पंचे० तिर्यंच- पृथ्वी - अपू-अने वनस्पति जीवोने जघन्यथी ( भात्री) इन्द्रियो पांच छे, ॥ ५५२ ॥ बळी वचमां पृथ्व्यादिकमो एक भष करीने त्यारबाद मोक्षे जनाराओने भावी ६ इन्द्रियो [ ३०८] " A Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १२९ ) (३०९) } कहेली छे, ए प्रमाणे सात वगेरे इन्द्रियो पण पूर्वोक जीवोने (वचमां हीन्द्रियादिनो एक भत्र करी मोक्षे जनाराओनं) कही छे. तेबुद्धिमानोर विचारवी ॥५५३ ॥ तथा चचमां संख्याता भव करी मोक्षे जनाराओने संख्यात इन्द्रियो वचमां असंख्य भव करनारने असंख्य इन्द्रियो अने वचमां अनन्त भव करनारने अनन्त इन्द्रियो भविष्यमां थनारी कही छे ।। ५५४ ॥ रिष्टा मया - अनं माघवतीना नारकजी बोने- युगलिक मनुष्य-अन युगलिक तिर्यश्वोने जघन्यथो भावी इन्द्रियो १० कही छे. ॥ ५५५ ॥ कारण के ए जीवोनी उत्पत्ति पञ्चेन्द्रिय शिवाय वीजी जातिमां होती नथी, अने ए जीवोनो अनन्तर भवमां (आवता भवमां) मोक्ष थतो aft माटे ओने जघन्ययी पण भात्री इन्द्रियो १० कही के, ॥५५६ ॥ वायुअग्नि-भने विकलेन्द्रियोंने भावी इन्द्रियो जघन्ययो ६ छे. कारण ए जीवोने वचमां पृथ्व्यादि ( पृ० - अपन० नो) एक भव कर्याबिना मोक्ष छे नहिं ॥ ५५७ ॥ ( ए प्रमाणे भावी भाषइन्द्रियोनी संख्या कहींने ये भावी द्रव्येन्द्रियो केटली होय ते कहे . ) एके० - द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरि०-अने पञ्चे० जीवोने ( वर्तमान) द्रव्येन्द्रियो अनुक्रमे १-२-४ - ६ अने ८ होय छे. ॥ ५५८ ॥ पुमांना heorएक जीबीने भावि (काले ) द्रव्येन्द्रियो यवानी नयी, अने केटलाएकने ८ अथवा ९-१०-१६ थवानी छे अने केदलाएकने संख्यात- असंख्यात -अने अनन्त पण थवानी के ॥ ६६९ ॥ ए सम्बन्धी विचारणा पूर्वनीपेठे ( स्वबुद्धिए ) करवी. नारकस्य नारकले, भावतो द्रव्यतोऽपि च । तान्यतीतान्यनन्तानि सन्ति पञ्चाष्ट च स्फुटम् ॥ ५६० ॥ भविष्यन्ति १ आ पेरेग्राफमां विवक्षित जीवने मोक्षे जतां सुधीर्मा यच्चे को पण भव करवानी अपेक्षा भावी द्रव्येन्द्रियां कही. * कारण ५ त्रण नारकजीवो मनुष्यमा आश्रीमे तुर्त मोक्ष न जाय पण नरकमांथी नोकळी तिचपये अथवा मातमी नरक शिवायना पटले के पांचमी छठ्ठी नारकीना जीयो मनुष्यनो भव करी मनुष्यमा आधी मोक्षे आय. अने युगलिको युगलिकपणामांची अवश्य देव ज थाय ने त्यांची मनुयमां आधी मोक्षे जाय म प्रमाणे दरेकने से वे भव कर्या विना मोक्ष नथी माटे. २ मासिका से गणधानी होवाथी १ स्पर्शना, १ रसना २ श्रीप्रियने, चरिन्द्रियने २ नेत्र साथै ६ अने पंचेन्द्रियने २ ८ इन्द्रियो गणाय छे, घाण ए ४ कान साथै + Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८) ॥ इन्द्रिगमारे नासिमानागपुनकामीन्द्रियपियारद्वार न केपाश्चित्केषाञ्चित्पञ्च चाष्ट च ।ज्ञेयानि तान्येकवारं, नरकं । यारयतोऽङ्गिनः॥५६१|| सङ्ख्ययान्येतानि सङ्ख्यवार नरकयायिनः। असख्येमान्यप्यनन्तान्येवं भाव्यानि धीधनैः ॥५६२॥ अतिकान्तान्यनन्तानि, सुरत्वे नारकस्य च । वर्तमानानि नैव स्युर्भावीनि पुनरुक्तवत् ॥ ५६३ ॥ विजयादिविमानित्वे, यदि स्यु रकाङ्गिनाम् । नातीतानि भविष्यन्ति, पश्चाष्ट दश पोडश ॥ ५६४ ॥ एवं सर्वगतित्वेन, सर्वेषामपि देहिनाम् । भावनीयान्यतीतानि, सन्ति भावीनि च स्वयम् ॥ ५६५ ॥ नृत्वे नृणामतीतान्यनन्तान्यष्ट च पश्च च । सन्ति तद्भवमुक्तीनां, तानि भावीनि नैव च ॥ ५६६ ॥ अन्येषां तु मनुष्यत्वे, भावीनि पञ्च चाष्ट च । जघन्यतोऽपि स्युर्मुक्तिर्यन्न मानुष्यमन्तरा ॥ ५६७ ॥अनुत्तरामराणां च, स्वत्वे सन्त्यष्ट पञ्च च। यदि स्युभूतनावीनि, तावन्त्येव तदा खलु ॥ ५६८ ॥ विजयादिविमानेषु, द्विरुत्पन्नो ह्यनन्तरे। भवे वि(वै)मुक्तिमाप्नोति, ततो युनं यथोदितम् ॥ ५६९ ।। अन्यजातित्वे त्वनन्तान्यतीतान्यथ सन्ति न । भावीनि संख्यान्येवैषां, नृत्ववैमानिकत्त्रयोः ।। ५७० ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ-" इह विजयादिषु चतुर्पु गतो जीवो नियमात्तत उवृत्तो न जातुचिदपि नैरयिकादिषु पञ्चेन्द्रियतिर्यपर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च मध्ये समागमिष्यति. मनुष्येषु सौधर्मादिषु वा गमिष्यतीति (सा. १३०)॥सर्वार्थसिद्धदेवत्वे, सर्वार्थसिद्धनाकिनाम् । न स्युर्भूतभविष्यन्ति सन्ति पञ्चाष्ट च स्फुटम् ॥ ५७१ ॥ तेषामन्यगतित्वे चातीतानि स्युरनन्तशः। नैव सन्ति भविष्यन्ति, नृगतावष्ट .. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) २२ मुं ) पञ्च च ॥ ५७२ || (गतिआश्रयी भाव० इन्ये० नी त्रिकाल गोचर संख्या ) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १३० ----- -= अनारकजीवने नारकपणामां भावथो अंनं द्रव्यधी पण अनन्त इन्द्रियो व्यतीत थड़ गड़. अनं वर्तमानमां ( भावे० ) ५ तथा (द्रव्ये ० ) ८ मगर पणे छे. || ५६० || एमांना केटलाक नारकीओने भावी (दव्येन्द्रियो अथवा भावेन्द्रियो ) धवानी नथी, अनं केलाएकने पांच भने आठ इन्द्रियो थवानी छे, अन ते (५८ हथी ) एक ज बार नरकम ( जड़ मोक्षे ) जनाग़ नारकी भोनी अपेक्षाए जाणवी || ५६१ ।। तथा संख्याती बार नरकमां (उत्पन्न थड़ मोक्षे) जनारा नाकीओने संख्याती इन्द्रियो, अनं एज प्रमाणे असंख्यात तथा अनन्त इन्द्रियो पण बुद्धिमानो भावी काळमां श्रनारी विचारखी ।। ५६२ ।। तथा नारकजीवन देवपणामां (देवपणानी ) अनन्त इन्द्रियो व्यतीत यज्ञ गर, वर्तमानकाळमां नारकपणुं होवाथी देवपणानी इन्द्रिय एक पण नथी अने (देवपणानी) भावोइन्द्रियो तो पूर्व का प्रमाणे ( ५-८ अथवा संख्य असंख्य ने अनन्त ) जाणवी ॥५६३॥ तथा नारकीने विजयादि अनुत्तर विमानमां देवपणानी इन्द्रियनो जो विचार करीए तो तेवी एकपण इन्द्रिय व्यतीत थइ नथो पण भविष्यां [कच्चे ? भव करें तो) १--८ अथवा (बच्चे ये भव करे तो) १०- १६ इन्द्रियो ( अनुत्तर देवपणानी) श्रवानी है. ॥ २६४ ॥ ए प्रमाणे सर्व प्राणीओनी सर्व गतिपणे व्यतीत वर्तमान--अनं भाषी इन्द्रियो पोनानी मेळे विचारी ॥ ४६५ ।। तथा मनुष्याने मनु*यपणानी अनन्त इन्द्रियो व्यतीत थड़ गड़-वर्तमानकाळ अनं ८, अने एज भत्रमां मोक्षे जनार मनुष्योने भात्री इन्द्रिय एक पण नथी ज ॥ ५६६ ॥ मनुष्य शिवायना वीजा जीवोने मनुष्यपणा सम्बन्धि भावी इन्द्रियो जव० श्री ८ अने ८ छे, कारण तेओनी मुक्ति मनुष्यभव पाम्या विना ले ज नहि ॥ ३७ ॥ तथा अनुत्तर देवाने अनुत्तर देवपणा संबंधि इन्द्रियो वर्तमानकाळमां ५ अनं ८ले. अने जो व्यतीत थड़ होय अथवा भावीकायां धवानी होय तो पण निश्चय नेटलीज ( ५-८ ) छे. || ५६८ || कारणके विजयादि (चार) विमानमांचे वार उत्पन्न थयेलो जीव अनन्तर ( आता ) भवमां मोक्षन पामे छे, माटे एकहेली बात यथार्थ के. ॥ ५६९ ॥ तथा ( ए विजयादि देवोने) अन्यजातिपणा सम्बन्धि सुधीमां कया भव ? अथि हवं नारकी वगेरे जीवन मोक्षे असा सम्बन्धि केटली इन्द्रियों घर में अने थशे ? ते कहे नं. + Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) ॥ इन्द्रियद्वारे आमुक्तिमाप्ते ये भूनभावीन्द्रियविचारः॥ द्वार) (एकेन्द्रियादिपणानी) अनन्त इन्द्रियो व्यतीत थइ , वर्तमानकाळमां नथी, अने एओने भविप्यकाळमां मनुष्यषणानी अने वैमानिकपणानी प.चे सम्बन्धि संग्ख्यात (१-८ वा १५-२४) इन्द्रियोज थानी छे. ॥१७०॥ श्री प्रज्ञनापनयिनिमोकथु ले के-अहिं विजयादिचार विमानमां गयेलो जीव निश्चय त्यांधी निकाल्यो छनो नरकयी मांडीने पंचन्द्रियनिर्यश्च सुधीमां नया व्यन्तरना दंडकोमा अने ज्योतिषिमां पण आवशे नहि, परन्तु मनुष्यमां अने सौधर्मादिकां जई शक है. ॥ ५७ ॥ तथा सर्वार्थसिद्ध देवोने सर्वार्थसिद्धदेवपणा सम्बन्धि व्यतीत इन्द्रियो यह नथी, वर्तमानमा ५ ने ८ तो प्रगट ज है. अने ए देवीने अन्यगतिसम्बबन्धि अनन्त इन्द्रियो व्यतीत थइ छ, वर्तमानमां नथी, अने भविष्यमा मनुष्यगतिसम्बधि ५ ने ८ थवानी छे. ॥ ५७२ ॥ संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां यत्, स्मृत्यादिज्ञानसाधनम् । मनो नोइन्द्रियं तच्च, द्विविधं द्रव्यभावतः।। ५७३ ॥ तत्र च । मनःपर्याप्त्यभिधाननामकर्मोदयादिह । मनोयोग्यवर्गणानामादाय दलिकान्यलम् ।। ५७४ ॥ मनस्त्वेनापादितानि, जन्तुना द्रव्यमानसम् । जिनेरूचे तथा चाह, नन्यध्ययनचूर्णिकृत् ॥ ५७५॥ "मणपज्जत्तिनामकम्मोदयतो जोग्गे मणोदव्य घेत्तुं मणतेण प. रिणामिया दवा दवमणो भन्नई" ( सा० १३१ ) ( मनःपर्याप्तिनामकमोदयतो योग्यानि मनोद्रव्याणि गृहीत्वा मनस्त्वेन ! कारण के अनुत्तग्देवपणु प्राप्त थया याद सीध मरकादिमा जता नी पण बच्चे एक अथवा वैमानिक देव भवान्तरित के भन्न मनुष्यना करी मो. क्ष ज जाय छे. माद २ पांचमा शतककर्मग्रन्थमा उत्कृष्ट बन्धन प्रांतर बताव्यु छ त्यां वि. अयादिविमानथी च्यलाओने पधारे भयो पण देखाड्या हे तेमज तेनी टीकामां विजयादि यिमानामां बे बार गयो छतां पण संसारमा करलाक भयो करे छ मरकतिर्यग्गति योग्य कर्म पण बांधे है, आ प्रमाणे कल छे. मथा " विजया विमाणेहिय संम्बिाभवाओ होति योरखा ' आ गाथामा मेंख्याताभवी विजयादि घिमामथी च्यलाओने बताया छ. नधा "चतुर्विशतिभवान्नातिकामन्ति " एखो वृद्धवाद होवाथी उपर बताच्या करना वधारे इन्द्रियोनो पण मंभय थाय हे तत्त्वं पुनः केलिनो विवलि. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [?] ર૩. || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १३५) परिणामितानि द्रव्याणि द्रव्यमनो भण्यते ॥) इति । मनोद्रव्यावलम्बेन, मनःपरिणतिस्तु या ॥ जन्तोर्भाव मनस्तत्स्यात थोक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ ५७६ ॥ " जीवो पण मणपरिणाम किरियावंतो भावमणो किं भणियं होइ ? मणदव्वालम्बणो जीबस्स मणणवावारी भावमणो भन्नइ " ( सा० १३२ ) ( जीवः पुनर्मनः परिणामक्रियावान् भावमनः, किं भणितं भवति ? मनोद्रव्यालम्वनो जोवस्य मननव्यापारः भावमनो भण्यते ॥ ) इति नन्यध्ययनचूर्णौ ॥ अत एवं च ॥ द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्यादसंशियत् । विनापि भाववित्तं तु, द्रव्यतो जिनवद्भवेत् ।। ५७७ || तथोक्तं " भावमनो वि नापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः, " इति प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ ( सा० १३३ ) स्तोका मनस्विनोऽसङ्ख्यगुणाः श्रोत्रान्वितास्ततः । चक्षुर्माणरसज्ञादयाः स्युः क्रमेणाधिकाधि काः ॥ ५७८ || अनिन्द्रियाश्च निर्दिष्टा, एभ्योऽनन्तगुणाधिकाः । स्पर्शनेन्द्रियवन्तस्तु तेभ्योऽनन्तगुणाधिकाः ॥ ५७९ ॥ ॥ लोकेश्च ॥ चक्षुःश्रोत्रघाणरसनत्व ज्यनोवाक्पाणिपादपायूपस्थलक्षणान्येकादशेन्द्रियाणि सुश्रुतादौ उक्तानि (सा० १३४ ) नाममालायामपि 'बुद्धीन्द्रियं स्पर्शनादि, पाण्यादि तु क्रियेन्द्रियं' इत्यभिहितं (सा० १३५ ) ॥ इतीन्द्रियाणि २२ ॥ अर्थ- प्रसंगे नोइन्द्रिय (मन नुं स्वरूप कहे - संज्ञिपश्चेन्द्रियाने जे स्मृति विगेरे ज्ञानमां कारणभूत नोइन्द्रिय पटले मन है ॥ ५५३ ॥ ते द्रव्यश्री अने भावधी वे प्रकारछे, त्यां मनःपर्याप्त नामे नाम फर्मना उदययो अति मनोयोग्य वर्गणानां दलिकने सम्पूर्ण [ जोइए ते प्रमाणर्मा ] ग्रहण करी जीवे ( ने दलिने) मनपणे परिणामाव्यां होय ते जिनेश्वरी द्रव्यमत कशुं छे. श्रीनन्दि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) । इन्द्रियहारे नोइन्द्रियमनोनिरूपणं-इन्द्रियाल्पबहुचविचारश्च | [द्वार सूत्रनी चूणि कर्ताए पण तेमज का छे के ।। ५७४ ।। - मनःपर्याप्ति नामकर्मना उदययी मनोयोग्य दव्यने ग्रहण की मनपणे परिणमावेलां जे पुद्गल. द्रव्यो ते द्रव्यमन कहेवाय '' ।१७५ ॥ ए मनोद्रव्पना आलम्बनथी जीवनी जे चितवन परिणाम । चितवन ] ने भावमन छे. पूर्वाचार्योए पण नेमज कधु छ के- “ वली मन परिणामनी क्रियावाळो जे जीव ते भावमन, तात्पर्य ए ले के मनोद्रव्यना आलम्बन बाळा जीवनो जे मनोव्यापार ते भावमन कहेवाय के " ए प्रमाणे श्री नन्दिअध्ययननी चूर्णिमा कर्बु ले. ए हेतुथीज असशिजीवनी पेठे द्रव्यमनविना भावमन न होय, परन्तु सर्वानी पेठे भावमन विना द्रव्यमन तो होय. ॥ ५७६ ॥ श्रीप्रज्ञापनादत्तिमा कथु छ के" यावमन विना पण द्रव्यमन होय छे जेम भवस्थकेवली भगवान्ने " (हवे अल्पवहुत्व कहे छे )-मनवाळा जीवो सर्वथी थोडा छे, तेथी श्रोग्रेन्द्रियवाळा असंख्यगुणा ले, तेथी चक्षु-प्राण-अने रसनेन्द्रियवाळा जीवो अनुक्रमे विशेप विशेष अधिक है, ॥५७४il तेथी इन्द्रियरहित (सिद्ध) जीवो अनन्तगुणा छे, ॥५७५॥ अने तेथी पण स्पर्शनेन्द्रियशाळा (एकेन्द्रिय जीवो) अनन्तगुणा छ । ५७६।। अन्यदर्शनीओमां-चक्षु-श्रोत्र-प्राण--सना-स्पर्शेन्द्रिय-मन-वचन-हायपग-गुदा-लिंग ए ११ इन्द्रियो मुश्रुतादि ( वैद्यक) ग्रन्योमां कही छे, ॥१७८॥ अने नाममालामां पणस्पर्शनादि इन्द्रियोने बुद्धीन्द्रिय अने हाथ वगेरेने क्रियेन्द्रिय कही छे. (सांग्ल्यो पण पांच फर्मेन्द्रियो माने छे, अने वचनग्रहण बि. गेरे ना फळो मान्या छे पण ने अयुक्त के कारण नेम मानवायी हाथे 'ट्रेटो पगवडे ग्रहण करे छे. विगैरे फळमा विसंवाद विगेरे दोपो आवे छे, ) ॥७॥ [ ए प्रमाणे इन्द्रियोनु स्वरूप का ] इति इन्द्रियबारम् २२ ॥ संज्ञा येषां सन्ति ते स्युः, संज्ञिनोऽन्ये त्वसंजिनः ॥ संज्ञिनस्ते च पञ्चाक्षा, मनःपर्याप्तिशालिनः ॥ ५७९ ॥ ननु संमूर्छिमपञ्चाक्षान्तेष्वेकेन्द्रियादिषु । आहाराद्याः सन्ति संज्ञास्ततस्ते किं न संज्ञिनः ॥ ५८० ॥अत्रोच्यते ॥ओघरूपा दशाप्येतास्तीत्रमोहोदयेन च । अशोभना अव्यक्ताच, तन्नाभिः संज्ञिता मता ॥ ५८१ ॥ निद्राव्याप्तोऽसुमान् कण्ट्य Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१६) २३र्मु) ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १६६) नादि कुरुते यथा । मोहाच्छादितचैतन्यास्तथाऽऽहाराद्यमी अपि ।। ५८२ ।। ततश्च ॥ संज्ञासंबन्धमात्रेण, न संज्ञित्वमुरीकृतम् । नह्येकेनैव निष्केण, धनवानुच्यते जनैः ॥ ५८३ ॥ अतादृग्रूपयुक्तोऽपि रूपवान्नाभिधीयते । धनी किंतु बहुद्रव्ये, रूपवान् रम्यरूपतः ॥ ५८४ ॥ महत्या व्यक्तया कर्मक्षयोपशमजातया । संज्ञया शस्तयैवाङ्गी, लभते संज्ञितां तथा ।। ५८५ ॥ इदमर्थतो विशेषावश्यके [सा० १३६ ] ॥ ततश्च ॥ येषामाहारादिसंज्ञा, व्यक्तचैतन्यलक्षणाः । कर्मक्षयोपशमजाः, संज्ञिनस्तेऽपरेऽन्यथा ||५८६|| दीर्घकालिक्यादिका वा, संज्ञा येषां भवन्ति ते । संज्ञिनः स्युर्यथायोगमसंज्ञिनस्तदुज्झिताः ॥ ५८७ ॥ इति संज्ञि तादि २३ || *::* 2: ▸ अर्थ-२३मुं संजिबार जे जीवोने संज्ञा के वे जीवो संशि कहेवाय छे, अने ते शिवायना बीजा असंज्ञि जीवो कहेवाय अने ते संझिजीवो मनः पर्यावळा पंचेन्द्रिय जीवोज होय . ।। ५८० ॥ प्रश्न – एकेन्द्रियथी मांडीने सम्मूर्छिमपंचेन्द्रियधीना जीवांमां गण आहारादि संज्ञाओ छे, तो ते जीवो संशि केम नहिं ? उत्तर-ते दशे संज्ञाओ सामान्य स्वरूपवाळी अने ती मोहना उदय बड़े अशुभ भने अव्यक्त मारे ते (दश) संज्ञाओ बडे [ जीवो] संज्ञि मनाता नवी ९८१ || कारण के निद्रावडे घेरायलो जीव जेम वर्जनादि (खंजवाळवु नगरे) करे छे, तेम मोहथी अवरायला चैतन्यवाळी ते आहारादि १० संज्ञाओ पण ले ॥ ५८२ || अने तेथी संज्ञाना संबंध मात्रवडे संज्ञिपणुं अंगीकार कर्तुं नयी. कारणके एक सोनाम्हर बडे लोकोमां कोइ धनवान कहेवातो नयी ॥। २८३ ।। तथा तेत्रा प्रकारना उत्तम रूप विना (सामान्यरूपथी) कोड़ रूपवान् कहेवातो नथी, परन्तु घणा धनवर्ड धनवान् अने अतिमनोहर रूपवडेज रूपवान् कहेवाय ले ॥५८४ तेवीरीने कर्मना क्षयोपशमभी थयेली अतिव्यक्त (अगट) अने प्रशस्त संज्ञावडे जी वा मकारनं संज्ञिपणुं (संज्ञि एवो व्यपदेश) पाने के || ५८६ ॥ प भात्रार्थ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१६] . ॥ संहिसार-वेदद्वारनिरूपणम ॥ श्रीविशेषावमा हे,अने तेथी कर्मनाक्षयोपशमयी उत्पन्न थयेली प्रगट चैतन्यरूप आहारादिसंज्ञाओ जेओने छे ते संज्ञि अने बीजा अमंज्ञि कहेवाय छ, ॥५८६। अथवा जे जीवोने दीर्घकालिकी वगेरे संज्ञाओ होय है. ने जीवो यथायोगपणे (जेवी जेवी संझानो सम्बन्ध होय ते ने प्रमाणे) ते ते जीवो संझी कहेवाय अने ते संशारहित बीजा अर्मज्ञी कहेवाय, ए प्रमाणे संझिनु स्वरूप फयु ॥ ५८७ ॥ इति संशिवारम् २३ ॥ (भोवीशमुं वेदवार कहे छे.) वेदस्त्रिधा स्यात्पुंवेदः, स्त्रीवेदश्च तथा परः। क्लीबवेदश्च तेषां स्युलक्षणानि यथाक्रमम्॥५८८॥ पुंसां यतो योपिदिच्छा,स पुंवेदोऽभिधीयते । पुरुषेच्छा यतः स्त्रीणां, स स्त्रीवेद इति स्मृतः ॥ ५८९ ॥ यतो द्वयाभिलाषः स्यात्, क्लीबवेदः स उच्यते । तुणफम्फुमकद्रज्वलनोपमिता इमे॥५९०॥पुरुषादिलक्षणानि चैवं प्रज्ञापनावृत्तौ स्थानांगवृत्तौ (सा०१३७-१३८) च ॥ “योनिर्मूदुत्वमस्थैर्य,मुग्धता क्लीवता स्तनौ। पुंस्कामिति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीस्वे प्रचक्षते ॥५९१॥ मेहनं खरता दाढय, शौण्डीय श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥५९२।। स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधा प्राहुमोहानलसुदीपितम् ॥५९३॥ अभिलाषात्मकं देहाकारात्मकमथापरम् । नेपथ्यात्मकमेकैकमिति लिङ त्रिधा विदुः ।।५९.४।। पुमांसोऽल्पाः स्त्रियः संख्यगुणाः क्रमादनन्तकाः। अवेदाः क्लीबवेदाश्च, सवेदा अधिकास्ततः ॥ ५९५॥ (पुंस्त्वसंज्ञित्वयोः कायस्थितिरान्तर्मुहर्तिकी । लघ्वी गुर्वी चाब्धिशतपृथक्त्वं किञ्चनाधिकम् ॥१॥ स्त्रीत्वकायस्थितिः प्रज्ञापनायां समयो लघुः । १ शाम्रोमा "मशि" ए शब्दनो व्यबहार दीर्घकालिकी महापाळा जीयोनेज़ मानेलो है. तथा अपेक्षाये इटिवादोपदेशिकीमक्षाघाळा जोपोने पण क्वचित् स्थळे मानेलो. माटे ज्यां पा संक्षि शब्द आषे त्यां सर्वत्र दीर्घकालिकी संज्ञाषालाज जाणवा. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ) 11 श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० १३९ १ (370) उक्ताऽथास्यां गरीयस्यामादेशाः पञ्च दर्शिताः॥ २ ॥ चतुर्दशाष्टादश वा, शतं वाथ दशोत्तरम् । पूर्णे शतं वा पल्यानि, पल्यानां वा पृथक्त्वकम् ॥ ३ ॥ पूर्वकोटिपृथक्त्वाढ्याः, पञ्चाप्येते विकल्पकाः । पञ्चसंग्रहवृत्त्यादेयितेषां च विस्तृतिः ॥४॥ (सा० १३९) आथे द्वितीचे स्वर्गे द्विः, पूर्वकोट्यायुषः स्त्रियाः । सभर्तृकान्यदेवीत्वेनोत्पत्त्यैषां च भावना ॥ ५ ॥ इति वेदः २४ ॥ • अर्थ - २४मुं वेदवार--- ३ प्रकारनी छे, छेलो पुरुषवेद बीजो स्त्रीवेद अनेत्रीजो नपुंसकवेद, ए त्रणनां लक्षण अनुक्रमे आ प्रमाणे है ॥ ५८८ || जेनावडे पुरुषने स्त्रीनी इच्छा धाय ते पुरुषवेद कहवाय, अने जेनावडे स्त्रीयोने पुरुषनी इच्छा थाय ते जीवेद एम कहेल छे. ।। ५८९ ।। अने जेनावडे (स्त्री पुरुष ) बन्नेनो अभिलाप थाय ते नपुंसकवेद कहेत्राय छे, ए गे वेद (अनुक्रमे ) पासनी अप्रि- छाणानो अग्नि-अने नैगरना अग्निनी उपमावाळा [ सरखा ] . ॥५९८॥ पुरुषादिकना लक्षण श्रीप्रज्ञापनावृत्ति अने स्थानांगवृत्तियां आ प्रमाणे - योनि - कोमळता- अस्थिरता - भद्रकता (भोळापर्णु) - हरवापर्णु-चे स्तन अने पुरूपनी इच्छा ए ७ लक्षणो स्त्रीपणानां कडेवाय है ।। ५९१ ।। लिंग-कठोरता - धीरता शूरता-दादीसूख घीठाह- अने स्त्रीनी इच्छा ए ७ [ लक्षणो] पुरुषपणाना कवाय छे ॥ ५९२ ॥ तथा जे स्तन वगेरे (खीनां चिह्न) भने दाही वगैरे ( पुरुष पणानां चिह्न) नो सद्भाव अने अभावसहित होय तेवा मोहाशिवडे अ १. प्रेम घालनी अग्नि एकदम सळगी भडको ने तुर्त बुझाइ जाय तेम पुरुष श्रीमो संगम थतां तुर्त शमी जाय छे. २ जेम छाणानो अग्नि षणो काळ टकी रहे छे तेम श्रीवेद पुरुषो संगम थतां पण शीघ्र दळतो नथी परन्तु कायम रहे . ३ अभ नगरम लागेली अग्नि अत्यन्त जाम्वल्यमान अनं बुझाय महि वो होय छे तेम नपुंसकवेद अत्यंत तीव्र अभिलाषात्राको अने संगमथी पण शंसे नहिं पवो होय छे. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८) ॥ वेदवार वेदत्रयस्वरूपलक्षणालाबहुवादिनिरूपणम ॥ द्वार) त्यन्त प्रदीप्त थयेलाने पंडितो नपुंसक कई छे. ।। ५९३ ॥ तथा अभिलाषरूपदेहाकनिरूप-अने नेपथ्यरूप ए प्रमाणे एकेक वेद त्रण प्रण प्रकारनो जाणवो. ॥ ५९४ ॥ पुरुएवेदी सर्वधी अल्प छ, तेथी अनुक्रमे स्वीरेदी संख्यातगुणा छ, नेथी अवेदी [सिद्धादि] अनंतगुणा छ, नेथी नपुंसकवेदी (एकेन्द्रियादि) अनं- . तगुणा छे, अने मेथी सवेदी जीवो विशेषाधिक छे, ।। ५९५ ॥ १ अर्थात् पुश्यने केटलांक निम्ह पुरुषपणानां अने करलांक चित्र स्वीपणामां होय तो ते पुरुषन भक, नीने केटलांक चिन्ह खीपणानां अने कैरलांक चिन्ह पुरुषपणानां होय तो ते बौनपुंसक, अने जैने पुरुषचिन्ह अने श्रीचिन्ह पण न होय ते नपुंसकमात्र कहेवाय. । व्यवेद व्यलि. गनी अपेक्षाप कायो. पमा चिन्ह दित नपुंसक पकन्द्रियथो चमुगिन्द्रिय अने फैटलापक सम्मू०पंचेः पर्यंतना देहपर्याप्त जीवो दोय है. अने केटला. पक सम्मू०पंचे. जीयाने तो पुरुचिन्ह अने सोचिन्ह चतुर्थ कर्मग्रंथ तथा सप्तनिफाभाष्यमां कोल छे. २ पुरुष चिन्हबाळा पुरुषने पण अभिलाषनी अपेक्षाए धणे वेद डोप छ. मेम श्री चिन्हवाळी श्रीने अने अपुंसकने पण अभिलापनी पगवृत्तिए ऋण थंद होय छ. प घात श्री विशेषावश्यकजीमा भष्ट ने कही ऐ. परग्नु लोकव्यवहार लिंगनी अपेक्षापज़ प्रति छ । ३ नाटक वगेरेमा पुरुष छतां श्रीमो पंप पहेयों होयतो ते पुरुष नेपथ्यबी कवाय प रीते नेपथ्यपुरुप अने नेपथ्यनपुं० पण विधारवा. ४ पुनः बीजा प्रन्योमा कप छ के "लीनपणु क्याथी लिंग कहेवाय छ कारण के अतिप्रगट 'पुरुषलिंग रचना छनां पण कदाधित सीलिंग उदय आय छ परम्नु बहारथी म्पर उपलब्ध थतुं नथी, अथवा नपुसलिम उदय आषे छ. तथा श्रीने अतिप्रगट स्थलिंगरचना होते हुने पण कदाचित् पुरुषलिंग अथवा नपुंसकलिंगनो उदय होय छे. प. प्रमाण नपुंसकन पण स्वलिंग रचनाथी उत्तर काळमा थनार कदाचित् पुरुषलिंग अने सीलिंग होय है परन्नु कपिलबत् स्थलिंगरचनाथी भित्र देखाय नहिं' इति अक्षगर्थः ७ पळो नपुंसक १६ प्रकारे रहे ते आ प्रमाणे (१) पंडक स्वभाव श्रीसरखो अने आकार पुरुषनो होय में (अहिं स्रो नो स्वभाष ते मंदगतिए चालवू, आगळ चालतां शंकाधी पाछळ जोया करवु, शरीर शीतलने कोमळ, बोलतां हाथ उछाळवा, कंडे हाथ दइ थालवू. छातीपर पत्र न. होयतो हाथथी छाती ढांकषी, योलता बोलतां भकुदी . ढावधी. श्रीवत पाळता सेथा पाड्या, आभूषणो प्रिय लागे, स्नानादि गुप्त करे, पुरुषनी सभामा भय ने शंकाषाको थाय, बीना समुदायमा निःशक Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ) ॥ श्रीलका तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १३८ (३१९) अनें निर्भयपणे पर्ने श्रीमरी कामचेष्टा करे ए प्रमाणे खीनां लक्षणा होय तथा शरीरना वर्णावि स्त्री पुरुषथी विचित्र होय. पुरुषलिंग मोड होय. स्वर ओरखो होय, सूत्र करतो अवाज याय अने स्वरमा भव हो प ६ लक्षण पंडक नपुंसकनां छे. (२) श्रामिक - कोइ निमिधी विकारष पुरुषसित स्तब्ध यतां कामसंघम बिना रही न शके से. (३) क्लीब - एभा चार प्रकार छे, त्यां खोने नग्न देखी क्षोभ पाये ते दृष्टिक्लीय, १ खोना शब्द सांभळी क्षोभ पामे ते शब्दक्लब २ श्रीनो स्पर्श ओम पाते आलिंगनक्ली ३ बीना निमंत्रणथी श्रभ राम ने निमंत्रणक्लीत्र. ४ (४) कुंभी अनुं पुरुषचिन्ह अतिमोथी कुंभवत् स्तब्ध रहे तेमज वृषण पण स्तब्ध रहे ते अथवा प्रथान्तरे कुंभ भरखा मोटा स्वनवाळाने पण कुंभी वपुं० म. (५) ईर्ष्यालु श्रीजापुरुषे सेवेलो खोने जोड़ ईर्ष्या करे ते, कारणके पोतानामां शक्ति न होय तेथो श्रीसेवन करो शके नहि. (६) शकुनी - कलां कबूतर बगेरे पक्षीशी माफक एक दिवसमा अनेकुवार कवार खोसेवन करनार, (७) तत्कर्मसेवी - मैथुन सेवीने बेदमा उम्रपणाथी जीभथी चा निच कर्म करे नं. · (८) पाक्षिकापाक्षिक - शुदी पक्षमा अतिशय वेदना उदवाळी अनं पक्षमां अल्प वेदोदवाळी होय ते. (२) सौगंधिक — पोताना लिंगने वारंवार संघनार, (१०) आसक्त - ब्रीसेवन करो रचा याद पण श्रीने संवाज प्रकारे आलि मन की पी रहे ते. (प. मर्य १० प्रकारमा नपुंसक जीवो चारित्रने अयोग्य छे) (११) मतिक-गणीओनो रक्षा माहे राजाय लिंगछेद करो नाजर करेलों पुरुष (२) मिति-जन्मतां ज हाथमा मर्दनयाँ वृषण (अ) गाव्यां होय ते. ( यने ते करवायी नपुं०वेदनी उदय याय है) (१३) मंत्र-मंत्रथी जेनो पुरुषवेद नाश पासे नं. (Pa) औषध्युहन — औषधथी जेनो पु०द नाश पामे ते. (१५) शित- मुनिना आपथी जेनो पु०वेद नाश पामे ते. (१६) देश-देवना श्रापथी जेनो पु०वेदनाश पाये ते. ११ ची १६ सुधीमा ६ प्रकारमा मपु० जीवो चारित्र लेवाने योग्य गण्या है. प्रमाणे नपुंसक आकृतियाळा नपुंसकमा १६ भेद कचा. तथा एमांना प्रथमना १० भेद पुरुषाकृति नपुंसकता अने स्त्री आकृति नपुंसकना पण य थायोग्य जाणवा Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ येदवारं वेदकायस्थितिविचारः ।। वेदनी कायस्थिति-पुरुषवेदनी अने संज्ञिपणानी जघ० कायस्थिति अन्तर्मु० मात्र के, अने उत्कृष्ट शतपृथफुत्व (२.००) सागरोपमयी कंक अधिक छे, स्त्रीवेदनी कायस्थिति श्रीपनवणाजोमां जय० १ समय कही छे, अने पनी उत्कृष्ट कायस्थितिमा पांच आदेश [प्रकार] दर्शाच्या के । ते आ प्रमाणे-पूर्वकोहिपृथक्त्ववर्षाधिक १४-१८-१०-१०० अने पृथ० पल्यापम । पूर्व कोटि पृयक्त्व वर्प सहित ए पांचे विकल्प(स्त्रीवेदनी उ०कायस्थितिना) छे, ते सर्वनो विस्तार पंचसंग्रहनी वृत्ति वगेरेथी जाणवो. ।।टुंकामा एनो विचार आ प्रमाणे) पूर्वकोडवर्पना आयुष्यवाळी स्त्रीयोनी पहेला अने वीजाम्बर्गमां परिगृहीता अने अ १ अर्जाि मंक्षिपणानी कायस्थितिनो प्रमंग नथी नोपण तुल्य होबाथी प्रमग दर्शाषी छे. र कायस्थिति पटले तेनो तेज भाव अविछिन्नपणे चालु रहेको त अथवा मततका ३ अन्य वेदवाका जीयमाथी आधीने पुरुषषद पणे उत्पन्न याय या जघ० आयुष्य अन्तम भोगी काळ करीने अन्यषेत्रमा उत्पन्न थाय ना जथ० कायस्थिति अन्तर्मुः थाय पथी अधिककाळ पुरुषवेद पक जोबने रहेनो नथी पण अवश्य बवलाय छे. ५. कोक श्री उपशमणिमा अवयक धड़ उपलब्धी पडतां पुनः ९ मे गुणस्थाने १ ममय श्रीवेद अनुभवीने बीजे ममय काळ करी अवश्य देवपणे उत्पन्न थाय माटे. ६ प पांच आदेश श्री पन्नधणाजीमां आ प्रमाणे छे. (३)-कारक जीव मनुष्य श्रीपणु अथवा तिर्यंच खीपणु पूर्व कोष्ट वर्षना आयुष्यपुर्वक पांचवार पामीन मदनंतर शान फल्पमां ५५ पल्योपमना आयुष्ययाळी अपग्गृिहीता देवी पणे उत्पन्न था पुनः त्यांथो काळ करी पूर्व आयु० मनुष्य स्त्री अथवा निर्यची याय स्यांगो पुनः शान कल्पमा ५५. पन्यापम आयुण्यवाळी अग्गृि० देखी धाग त्यांयी फाळ करीने अवश्य बीजा वेदमांज उत्पन्न याय माटे. ६ पूर्षकोडर्ष अधिक ११० पम्योपम थाय. (२) केटलाएक एम कडे छे के पूर्वक्तिरीत उत्कृष्ट आयुष्ये मनु स्वीपणु पायवार प्राप्त थया बाद अपरिदेवी पणे उत्पन्न वाय महि,पण ये वार९पल्योन्ना आयुष्य. पाळी पग्गृि देवीपणेज शिानमां उत्पन्न था शक नो तेऑन मनं ६ पूर्वकोड वर्षाधिक ८ पछ्यापम थाय. (३)-केटलाएक पम कहे छ के-पूर्वक्ति रीते ईशानमां बे धार नहिं उत्पन थतां सौधर्म मांग ७पल्यो आयुष्यवाळी परिगृदेवीपणे उत्पन्न घाय. माटे Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९) । श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १३६३ (३२१) परिपूरिता देवीपणे उत्पत्तिनी अपेक्षा पांचे आदेश [विकल्प ] प्रकारनो विचार जाणवो. ॥ ५॥ जिनोक्तादविपर्यस्ता, सम्यग्दृष्टिनिगाने ! सम्यक्त्वशालिनां सा स्यात्तच्चैवं जायतेऽङ्गिनाम् ।। ५९६ ॥ चतुर्गतिकसंसारे, पर्यटन्ति शरीरिणः । वशीकृता विपाकेन, गुरुस्थितिककमणाम् ॥ ५९७ ॥ अथैतेषु कश्चिदगी, कर्माणि निखिलान्यपि । कुर्याद्यथाप्रवृत्ताख्यकरणेन स्वभावतः ।। ५९८ ॥ पल्यासंख्यलवोनैककोट्यब्धिस्थितिकानि वै । परिणामविशेषोऽत्र, करणं प्राणिनां मतम् ॥ ५९९ ।। युग्मम् । तत्रिधा तत्र चाद्यं स्याद्यथाप्रवृत्तनामकम् । अपूर्वकरणं नामाऽनिवृत्तिकरणं तथा ॥६०० वक्ष्यमाणग्रन्थिदेशावधि प्रथममीरितम् । द्वितीयं भिद्यमाने:स्मिन् , भिन्ने अन्यौ तृतीयकम् ॥६०१॥ त्रीण्यायमूनि भव्यानां, करणानि यथोचितम् । संभवन्त्येकमेवाद्यमभव्यानां तु संभवेत् ॥ ६०२ ॥ आधेन करणेनाङ्गी, करोति कर्मलाघवम् । धान्यपल्यगिरिसरिदृषदादिनिदर्शनेः ॥ ६.३॥ यथा धान्य ६ पूर्वकोड वर्षाधिक १४ पल्योपम थाय. [४] केटलापक एम कहे छ के-पूति रीते सौधर्ममां५०पल्यांना आयुषाळी अपरि०देवीपणे बेचार उत्पन्न याय माटे ६ पूर्वकोडवर्वाधिक १०२ पश्योपम थाय. (५)-केटलापक पम को छेकेन्गीपणे धानियचीपणे पृ०कीवर्ष ना ७ भव अनुभवीन आठमे भव कुमक्षेत्रमा ३ पल्यापममो स्थिति पणे युगलिक श्री था मरण पामीने सौधर्ममां जघस्थिए [१ पल्या आयुष्याळी] परिगृ० देवी पणे उत्पन्न था काळ करीने अवश्य अभ्ययेद पामे माटे ७ पूको वर्ष अधिक ४ पल्यापम थाय. (अर्थात पूर्वको पृथकावाधिक पृथक्श्व पल्पोएम था. य.) प पांच आदेशनो भावार्थ कमी. * नघुमकवंदनी कायस्थिति दर्शाषी नथी पण तेनी सूक्ष्मनिगावीया आदिनी अपेक्षाये अनादि अनन्त अथवा अनादि लात जाणधी. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) (द्वार ॥ सम्यग्दृष्टिद्वारे तदुत्पत्ति -- करणत्रयनिरूपणम || भूरि भूरि, कश्चिद गृहाति पल्यतः । क्षिपत्यत्राल्पमल्पं च कालेन कियताऽप्यथ ॥ ६०४ ॥ धान्यपल्यः सोऽल्पधान्यशेष एवावतिष्ठते । एवं बहूनि कर्माणि, जरयन्नसुमानपि ॥ ६०५ ॥ वध्नंवाल्पाल्पानि तानि कालेन कियताऽपि हि । स्यादल्पकर्मा - नाभोगात्मकाद्यकरणेन सः ॥ ६०६ ॥ यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनाभोगरूपकम् । भवत्यनाभोगतश्च कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ||६०७ || अत्रोच्यते ॥ यथा मिथो घर्षणेन, प्रावाणोऽद्विनदीगताः । स्युचित्राकृतयो ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः ॥ ८ ॥ तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनाभोगलक्षणात् । लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ॥ ६०९ ॥ रागद्वेषपरीणामरूपोऽस्ति ग्र थिरुत्कटः । दुर्भेदो दृढकाष्ठादिग्रन्थिवद्गाढचिक्कणः ॥ ६१० ॥ मिथ्यात्वं नोकषायाश्च कषायाश्चेति कीर्त्तितः । जिनेश्वतुर्दशविधोऽभ्यन्तरग्रन्थिरागमे ॥ ६११ ॥ } अर्थ- दृष्टिद्वारम् - जिनेश्वरे कहेला तत्रयां जे अविपर्यास [जे श्रीसर्वे भगबन्ने छे ते तेमज के एवी बुद्धि] ते सम्यग्दृष्टि कहेनाय, ए दृष्टि सम्यन्तवी जीवोने होय छे। अने ते सम्यत्तत्वनो उत्पति आ ममाणे छ. ॥ ५९६ ॥ घणी मोटी (७०को० को ०२ ० साग० विगेरे । स्थितिघाळा कर्मोंना फळवडे वश धयेला माणोओ बारगतिरूप संसारमा पर्यटन-भ्रमण करे छे. ॥ ५९७ ।। हवे ते पाणी ओमांधी कोइक प्राणी स्वभावथीज यथाप्रवृत्त नामना करण व सर्व कर्मोने [ आयुविना ७ कर्मने] पल्योपमना असंख्यातमा भागन्यन १ कोडाकोडि सागरोपमप्रमाण स्थितिवाळा करे. अहिं जीवनो परिणाम विशेष ते करण कहेल छ ॥ ५९८ ॥ ते करण ३ प्रकारां के तेमां हेलु यथाप्रवृत्त नामनुं, बीजुं अपूर्वकरण नामनुं १ कर्मअन्य कर्ता वगेरे यथा Home भी काय अन्तर्मु० कहे छे, अने विशेषावश्यक वगेरेम अनंतकाळ पण दशांक्यो छे. शेष करणनो काळ अन्तसुं० अ मतान्तर मात्र सम्यक्स्य संबधि यथा- प्र०क०माज संभवे ले. खीजां यथाप्र०करणोमां नहिं, Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १३९] (३२३) अने त्रीजुं अनियत्तिकरण नामे छे, ॥६००॥ आगळ कहवाशे वेवा स्वरूपवाळा ग्रंथिना स्थान मुधी (अर्चाक) पहेलुं करण वर्ने छे. ग्रंथीनो मेद यती वरखते चीजें भने ग्रंथी मेदाइ गया बाद श्रीजु फरण भवन के ॥६०१॥ भव्यजीवोने यथायोग्य ए त्रणे करण संभवे छे, अने अभध्यजीवोने तो एक हेलज करण संभवे छे. ॥ ६०२ ॥ जीव हेला करणवडे धान्यनो पल्प (साटो) अने पर्वतनी नदीना पथरा वगेरेना दृष्टान्त कर्मनी लघुता (भोछापणु) कर के. (ते दृष्टांनो आ प्रमाणे-) ॥६०३ ॥ जेम कोइक मनुष्य थान्पना कोठारमाथी घj घणु धान्य फाढतो जाय अने तैमा अल्प अल्प नाखतो जाय तो केटलेक काळे ते धान्यनो कोठार अल्प धान्य बाकी रहेलो ज थइ जाप छे. ते प्रमाणे जीव पण घणा कर्मनी निजरा करतो अने अल्प अल्प कर्म बांधतो केटलेक फाळे ते जीव यथाप्रवृत्त करणको निश्य मामता पर जायके ।। ५.४॥६०५ ॥६०६॥ प्रश्न-ययामवृत्तकरण तो अनाभोग (प्रगट उपयोग रहिन) रूप ले नो अनाभोगथी पाणीओने कर्मनो क्षय केवी रीते होय ? ॥६०६ ।। उत्तर-जेम पर्वतपरथी पडती नदीमा रहेका पथरा परस्पर घसावावढे ज्ञान रहित छतां पण स्वभावयीज विचित्र पकारनी आकृतियों वाला यह जाय छे, ॥ १०८ ॥ तेम अनाभोगरूप यथाप्रवृत्त करणथी पण जीवो अल्प कर्मवाळा याय छे. ते दरम्पानमां ॥६०९॥ काष्ठ वगैरेनी जवरी गांठ सरखी अति चौकण एवी उत्कृष्ट राग द्वेषना परिणामरूप ग्रंथी दुखे करीने मेदी शफाप एची (माप्त थाय छे) ॥ ६१० ॥ फर्य छ के "१ मिथ्यात्व-९ नो कषाय-अने ४ कषाय ए प्रमाणे श्रीजिनेश्वरोए आगममा १४ प्रकारनो अभ्यनार ग्रंथी कहेलो छे" ॥११॥ पूर्व कहेली (पत्यासंख्येयभागन्यून १ को० को० सा०) स्थिनिवाळो कर्मयुक्त केटलाएक जीवो ययामवृत्तकरणयी ग्रंथीनी नजीक आवे के (एटले ग्रंधीमेद फ्रियानी नजीक आवे छे) ॥ १२ ॥ प्रागुक्तरूपस्थितिककर्माणः केऽपि देहिनः । यथाप्रवृत्तकरणाद, ग्रन्थेरभ्यर्णमियूति ॥ ६१२ ॥ एतावञ्च प्राप्तपूर्वा, अभव्या अप्यनन्तशः । नत्वीशन्ते अन्थिमेनमेते भेक्षु कदापि हि ॥६१३ ॥ श्रुतसामायिकस्य स्याल्लाभ: केपाश्चिदत्र च । शेषाणां सामायिकानां, लाभस्त्वेषां न सम्भवेत् ॥ ६१४ ॥ तथोक्त-"तित्थंकराइपू, दहणऽपणेण वावि कजेणं । सुअ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२४ ] ॥ सम्यग्दृष्टिद्वारे ग्रन्ध्यासनस्थजीवत्रयस्वरूपनिरूपणम् ॥ [द्वार सामाइयलाभो होइ अभवस्स गठिमि " ॥ ६१५ ।। (सा० १३९) (तीर्थङ्करादिपूजां दृष्ट्वाऽन्येन वापि कार्येण । श्रुतसामायिक लाभा भवति अभव्यस्य ग्रन्थौ ।) अर्हदादिविभूतिमतिशयवतीं दृष्ट्वा धर्मादेवंविधः सत्कारो देवत्वराज्यादयो वा प्राप्यन्ते इत्येवमुत्पन्नबुद्धेर भव्यस्यापि प्रन्थिस्थानं प्रासस्य भृतिनिमित्तमिति शेषः, देवत्वनरेन्द्रत्वसौभाग्यबलादिलक्षणेनान्येन वा प्रयोजनेन सर्वथा निर्वाणश्रद्धानरहितस्याभव्यस्यापि कष्टानुष्ठानं किञ्चिदङ्गीकुर्वतोऽज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिकमात्रस्य लाभो भवेत्, तस्याप्येकादशाङ्गपाठानुज्ञानादिति विशेषावश्यकसूत्रवृत्तौ ॥ (सा०१४०) भव्या अपि वलन्तेऽत्रागत्य रागादिभिर्जि ताः । केचित्कर्माणि वनन्ति प्राग्वद्दीर्घस्थितीनि ते ॥ ६१६॥ केचित्तत्रैव तिष्ठन्ति तत्परीणामशालिनः । न स्थितीः कर्मणामेते, वर्द्धयन्त्यल्पयन्ति वा ॥ ६१७ ॥ चतुर्गतिभवा भव्याः, संज्ञिपर्याप्तपञ्चखाः । अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तान्तर्भाविमुक्तयः ॥ ६१८ ॥ तीत्रधारपर्शुकल्पाऽपूर्वाख्यकरणेन हि । आविष्कृत्य परं वीर्य, ग्रन्थि भिन्दन्ति केचन ॥ ६१९ ॥ यथा जनास्त्रयः केsपि, महापुरं यियासवः । प्राप्ताः क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरैर्भयङ्करं ||६२० || तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तस्करद्वयम् । तद् दृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीतः पलायितः ।। ६२१ ॥ गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्य तौ । भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी ।। ६२२ ॥ दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जना जीवा भatscar | पन्थाः कर्मस्थितिग्रन्थिदेशस्त्विह भयास्पदम् ॥ ॥ ६२३ ॥ रागद्वेषौ तस्करों द्वो, तद्भीतो वलितस्तु सः । ग्र Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९] ॥श्रीलोकनकाशे वतीयः सर्गः ॥ (सा. १४०) [३६] न्धि प्राण्यापि दुर्भावाद, यो ज्येष्ठस्थितिवन्धकः ॥ ६२४ ॥ चौररुद्धस्तु स शेयस्तादृगुरागादिबाधितः । ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव, न चापि वलते ततः ॥६२५ ॥ स स्वभीष्टपुरं प्राप्तो, योऽपूर्वकरणाद् द्रुतम् । रागषावपाकृत्य, सम्यग्दर्शनमाप्तवान् ॥ ६२६ ॥ अर्थ-चळी एटली स्थितिने प्रथम प्राप्त थयेला अभव्य जीवो पणअनंतीवार अंथी नजीक आवे छे, परन्तु तेओ एग्रंथीने भेदवा कदोपण समय यता नयी ॥१२॥ वळी अहिं मुधी आवेला ने कैटलाएक अभव्यजीवोने श्रुतसामायिकनो लाभ थाय छे, परन्तु शेष ३ सामाक्किनो लाभ तेओने संभवे नहि. ॥६१४॥ कयु के-तीर्थकरनी पूजा सत्कार देखीने अथवा बीजा कोई कारणथी पण ग्रंथिस्थाने आयेला अभव्य जीवने श्रुतसामायिक नो लाम थाप छ. ॥६१५|| टीकार्थ-अतिशयवाळी अरिहंतादिकनी ठकुराइ (वैभव) देखीने धर्मयी आवा प्रकारनो सत्कार-देवपणुं अने राज्य वगैरे प्राप्त थाय छे ए प्रमाणे उत्पम थयेली बुद्धिवाळा (अने तेथी) ग्रंथी म्थाने आयेला अभव्यजीदने (अहिं गाथामां ते उकुराइ पामवाने मारे? ए भाव अध्याहार छे) देवपणुं-चक्रवर्तिपणु-सौभाग्य-बल बगेरेना कारणथी अथवा वीजा कोइ कारणथी सर्वया मोक्षनी श्रद्धा रहित एवा फ्ण अभव्यने अज्ञानरूप कंडक कष्टवाळ अनुष्ठान करतां मात्र श्रुतसामायिकनो लाम थाय के, कारण के अभव्यने पण ११ अंग भणवानी अनुज्ञा छे." ए प्रमाणे श्री विशेषावश्यक मृत्रनी वृत्तिमां कर्तुं छे. वळी रागादिकवडे जीतायला भव्य जीशे पण अहिं मधी आवीने पाछा वळी जाय छे, अने केटलाएक भन्यो तो (पाछा वली जइने ) भयमनी माफक घणी मोटी स्थितिवाला कर्म पण बांधे थे ॥ ६१६ ॥ वळी तेवा प्रफारना (अवस्थित) परिणामवाळा केटलाएक भन्यो नो त्यांना त्यांज स्थिर रहे थे, अने नेओ कर्मनी स्थिनि वधारता पण नथी अने कमी पण फरता नथी, ।। ६१७ ॥ चारे गतिमां उत्पन्न थयेला संझिपर्याप्त पंचेन्द्रिय पवा अने अधपुनलपरावर्त कानी अंदर मोक्षे जनारा भन्यजीवो ।। ६१८।। तीक्ष्ण धारवाळा कुहाडा सरखा अ. पूर्वकरणबडे उत्कृष्ट वीर्य फोरवीने (पगट करीने ) केटलाएक ग्रंथिने भेदे छे. ॥ ६१९ ।। जेम कोई मोटा नगर तरफ जवानी इच्छावाळा त्रण पुरुषो अटवीमां Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) ॥ सम्यग्दृष्टिद्वारे अन्थिमेदामेदानिवृत्तिकरणनिरूपणम ॥ द्वार चोरवडे करीने भयंकर एवा काइ स्थानमां जइ पहाच्या ॥ ६२० ॥ ते स्थानेथी जलदी जललीथी पसार थतां तेओए बे चोर देख्या, ते चोर जोइने तेमांनो एक जण तो भय पाम्यो छतो शीघ्र पाछो वळीने नासी गयो, ।। ६२१ ॥ अने वीजा पुरुषने ने बने चोरोए पकडो लीधो, अने पराक्रमी एवो बीजो पुरुष लो ते पने चोरने गणकार्याविना (इरावीने) भयनु स्थानक उल्लंघी नगरमां पडोच्यो ।३२२॥ अहिं दृष्टान्तनी उपनय (सापयंता) विचारनां त्रण पुरुप ते संसारी जीवो, अम्बी ते संसार, पंय ते कर्मनी स्थिति, अने भयर्नु स्थान ते अंथिस्थान जाणावें ॥२३॥ तथा राग ने देष रूप ये चोर जाणवा, अने ने चोरथी भय पामीने पाछो कळेलो पुरुष ते ग्रंथिस्थान पामीने पण अशुभ अध्यवसाय प्रगट थवाथी जे उत्कृष्ट स्थितिवाळां कर्म षांधनार जीव ने जाणवो ॥ ६२४ ॥ अने नेवा प्रकारना रागादिक बडे वश थयेलो ते चोरे रोकेला पुरुष सरखो जाणवो, कारण के जे थिने भेदनी नयी तेम त्यांयी पाछो पण वळतो नथी ।। ६२५ ॥ बळी जे जीवो अपूर्व करण (रूप परिणाम) वडे शीघ्र रागद्वेष दूर करीने सम्यक्त्व पाम्यो से जीव इच्छित नगरे पहोचेला पुरुष सरखो जाणवो ॥ ३२६ ॥ दुःखे करीने जीतवा योग्य - 1 त्रुओने जीतीने सुभट जेम महा आनंद पाने तेम जीव पण ग्रंथि मेदीने औपर्शमिक सम्यक्त्व पामे है ॥ ६२७ ॥ सम्यक्त्वमौपशमिक, प्रन्थि भित्त्वाऽनतेऽसुभान् । महानन्दं भट इव, जितदुर्जयशात्रवः ||६२७॥ तच्चैवं ।। अथानिवृत्तिकरणेनातिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहतसंमितम् ॥ ६२८ ॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोहस्थितिविधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोवंगा ॥ ६२९ ॥ तत्राबायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्दलवेदनात् । अतोतायामथैतस्यां, स्थितावन्तर्मुहर्ततः ॥ ६३० ॥ प्राप्नोत्यन्तरकरणं, तस्याअक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौद्गलिकमानुयात् ६३१ ।। १ अहिं प्रथी भेवीने तुर्न उपशम सम्यक्त्व पामे तम नहिं पण ग्रंथी भेट कर्या पाद अभिवृत्तिकरण करे अने ते अनिवृत्ति करणमो पेटा काळ अन्तकरण अन्तर्मु० प्रमाण करे स्यारबाद श्रीपशमिक सम्यक्रस्व पामे प्रम जाणव. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ।। (सा. १४२] (३२७) 'यथा वनभयो दरलेधनः प्राध्याहणं स्थलम् । स्वयं विध्या यति तथा, मिथ्याखोगदवानलः ॥६३२ ॥ अवाप्यान्तरकरणं, क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदोपशमिकं नाम, सम्यक्त्वं लभतेऽसुमान् ॥ ३३ ॥ अत्रायमापशमिकसम्यक्त्वेन सहाप्नुयात् । देशतो विरतिं सर्वविरतिं वाऽपि कश्चन ॥ ६३४ ।। तथोक्तं शतकचूर्णी"-उवसमसम्मट्टिी अंतरकरणे ठिओ कोई देसविरइंपि लभइ, कोई पमत्तापमत्तभावंपि; सासायणो पुण किंपिन लभइत्ति” (सा०१४१) (उपशमसम्यग्दृष्टिरन्तरकरणे स्थितः कोऽपि देशविरतिमपि लभते।कोऽपि प्रमत्ताप्रमत्तभावमपि, सास्वादनः पुनः किमपि न लभते" इति) इति,अर्थतः कर्मप्र* कृतिवृत्तावपि(सा०१४२)। किंच॥ बयते त्यक्तसम्यक्त्वैरुत्कृष्टा. कर्मणां स्थितिः। भिन्नग्रन्थिभिरप्युनो, नानुभागस्तु तादृशः ॥ १ ॥ इदं कार्मग्रन्थिकमतं ॥ भवद्भिन्नग्रन्थिकस्य, मिथ्याहप्टेरपि स्फुटम् । सैद्धान्तिकमते ज्येष्ठः, स्थितिवन्धो न कर्मणाम् ॥२॥ अथ प्रकृतम् ॥ इदं चोपशमश्रेण्यामपि दर्शनसप्तके । उपशान्ते भवेच्छेणिपर्यन्तावधि देहिनाम् ॥६३४॥ तथा ॥ य. थौषधिविशेषेण, जनैर्मदनकोद्रवाः । त्रिधा क्रियन्ते शुद्धाधविशुद्धाशुद्धभेदतः ॥ ६३५ ॥ तथाऽनेनौपशमिकसम्यक्त्वेन पटीयसा । विशोध्य क्रियते त्रेधा, मिथ्यात्वमोहनीयकम् ॥ ६३६ ॥ तत्राशुन्द्धस्य पुञ्जस्योदये मिथ्यात्ववान् भवेत् । । पुनस्यार्थविशुद्धस्योदये भवति मिश्रहम् ॥ ६३७ ॥ उदये शुद्धपुञ्जस्य, क्षायोपशमिकं भवेत् । मिथ्यात्वस्थोदितस्यान्तादन्यस्योपशमाञ्च तत् ॥ ६३८ ॥ आरब्धक्षपकश्रेणेः, प्र. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८)। सम्यग्दृष्टिबारेक्षायिकादिनदनिरूपणमवान्तरमाक्षेपपरिहारादि चरिद्वार क्षीणे सप्तके भवेत् । क्षायिकं तद्भवसिद्धेस्त्रिचतुर्जन्मनोऽथवा ॥ ६३९ ॥ तत्त्वार्थभाष्ये चैतषां स्वरूपमेवमुक्तम्-क्षयादि निविधं सम्यग्दर्शन, तदावरणीयस्य कर्मणो दर्शनमोहस्य च क्षयादिभ्य इति, अस्य वृत्तिः-मत्याद्यावरणीयदर्शनमोहसप्तकक्षयादुपजातं क्षयसम्यग्दर्शनमभिधीयते, तेषामेवोपशमाज्जातमुपशमसम्यग्दर्शनमुच्यते,तेषामेव क्षयोपशमाभ्यां जातं क्षयोपशमसम्यग्दर्शनमभिदधति प्रवचनाभिज्ञा इति तत्त्वार्थप्रथमाध्याये (सा०१४३)। ननु च ॥ तत्वश्रद्धानजनक,क्षायोपशमिकं यदि। सम्यक्त्वस्य क्षायिकस्य, कथमावारकं तदा ? ॥ ६४० ।। यदि मिथ्यात्वजातीयतया तदपवारकम् । तदात्मधर्मः श्रद्धानं, कथमस्मात्प्रवर्तते ? ॥६४१॥ अत्रोच्यते ॥ यथा - लक्ष्णाभूकान्तःस्था, दीपादेयोतते द्युतिः । तस्मिन् दृरीकृते सर्वात्मना संजम्भतेऽधिकम् ॥ ६४२ ॥ यथा वा मलिन वस्त्र, भवत्यावारकं मणेः । निर्णिज्योज्ज्वलिते तस्मिन्, भाति काचन तत्प्रभा ॥ ६४३ ॥ मलाइ दरोकृते चास्मिन्, सा स्फुटा स्यात्स्वरूपतः । मिथ्यात्वपुद्गलेष्वेवं, रसापवर्तनादिभिः ॥ ६४४ ॥क्षायोपशमिकत्वं द्राक्, प्राप्तेषु प्रकटीभवेत् । आमधर्मात्मकं तत्वश्रद्धानं किञ्चिदस्फुटम् ६४५॥ क्षायोपशमिके क्षीणे, स्फुट सर्वात्मना भवेत् । आत्मस्वरूपं सम्यक्त्वं, तच्च क्षायिकमुच्यते ॥६४६॥ एवं च ॥ तत्त्वश्रद्धानजनकसम्यक्त्वपुलक्षये। कथं श्रद्धा भवेत्तत्त्वे, शडेपाऽपि निराकृता ६४७ तथाहुर्भाष्यकाराः-सो तस्स विसुद्धयरो, जायइ सम्मत्तपो. ग्गलक्खयओ। दिहिच सपहसुद्धब्भपडलविगमे मणूसस्स Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० १४४१ ||६४८|| ( स तस्य विशुद्धतरः जायते सम्यक्त्व पुगलक्षयतः । शुद्ध पदल विगमे मनुष्यस्य (मा०१४४) अर्थ-वे अतिनिर्मळ अध्यवसायवाळा अनिवृत्तिकरणवडे अन्तर्मुहूर्त्त प्रमानुं जीव अन्तर करण करे छे || ६२८ || ते अन्तरकरण कर्ये छते मिथ्यामोहनीयनी स्थितिना वे भाग थाय छे. तेमां अन्तरकरणथा नोने नी पहेली अने तेथी उपरेंडी वीजी स्थिति गणाय है. ॥ ६२८ ।। त्यां पहेली स्थिfaai मिथ्याrani दलिकनो उदय होवाथी जीव मिध्यादृष्टि गणाय, अने अन्तबाद में स्थिति व्यतीन थतां ॥ ६२९ ॥ अंतरकरण पाये छे ते (अंतरकरण) ना प्रथम समज जीव पौगलिक ( आत्मस्वरूप ) उपश्रम सम्यक् पामे छे|! ६३० || जेस कळी गयेला ईत्रणवाळो वननो दावाग्रि तृणरद्रित स्थळ पामीने आपोआप बुझाइ जाय, तेम मिध्यात्वरूप उम्र दावा ॥ ६३१ ॥ अंतरकरण पामीने पोतेज शीघ्र बुझाइ जाय छे ते वखते जीव औपशमिक नामनुं सम्यकत्व पाये है ।। ६३२ अहिं कोइक जीव औपशः सम्यक्त्व सॉथेज देशविरति अथवा कोइक जीव सविरति पण पाये ले. शतकबूर्णिमां के "औafe सम्यष्टि जीव कोइक अंतरकरणमा रह्यो छतो देशविरनि पाये के ने (३२९) १ आ अन्तरकरण किया रूप के कारण अहिं रम्रो छतो जीव वेदया योग्य अन्तर्मुथी उपरती अन्तर्मु० प्रमाण स्थितिमांथी प्रति समय वलि* उठाषीने उत्कीर्यमाण विभागधी नीचेता अन्तर्मु मां अने उपरनी सर्व स्थितिमांनाखतो जाय है. अन्तर पाडवानी क्रिया पण अन्तर्मु० सुधी नाले क्रे जेथी उनकीर्यमाण विभाग दलिक रहिन यह जवाथी प. विभागनुं नाम पण अन्तरकरणज ३ उपरनी अन्न न्यून अन्तःकोढा २ अन्तमा कोडी भागर प्रमाण ४ दलिक रहित खाली करेली विभाग पामे है. ५ औदferre क्षयोप मध्य पौलिक गणाच अने कर्मपुलना क्षय वा उपशमथी थयेनुं अपौद्र लिक गणाय, कारण के प पुकूलना उदय गहित है. ६ दलिकरहित खाली करेलो विभाग ग्रामीनं. ७ अहिं पश० सम्य० पामश्राना प्रथम समयेज देशविरति या सर्वपिरति पात्रो अर्थ न लेवो पण औपश० सम्य०मां वर्ततां का ममय देशत्रि वा सर्वविरति पामे एम जाणवुं अन्यथा गुणदोष आये. व्यतीत थया या स्थानमादितमां मांक Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) सम्यग्दृष्टिबारे क्षायिकादितभेद निरूपणम् ॥ (द्वार कोइक तो प्रमत्ताममत्त भाव पण पामे छे, परन्तु सास्वादनराळो कंइपण पामनो नथी." ए प्रमाणे भावार्थ कम्पनियन्धी अनिमां पण छे. वळी सम्यक्त्वने त्याग करेला पवा ग्रंथी भेदी जीरो कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे छे, पण तेवा प्रकारनो उन्कृष्ट अनुभाग बांधता नथी । ए कर्मग्रंथकारनी अभिप्राय फसओ,अने मैदान्तिकनो अभिप्राय तो ग्रंथि मेदी मिथ्याष्टिने प्रगट रीने कर्मोनी उत्कृष्ट स्थिति(पण) वैधाती नथी, हवे चालु विषय कहे छे-पा उपशमसम्यक्त्व उपसम श्रेणियां पण ७ दर्शनमोहनीय उपशान्त थये जीवोने श्रेणिना अन्त मुत्री ( ११ मा गुण० मुधी ) होय छ. ॥६३४ ॥ (ए प्रमाणे उप० सम्यक्त्वनु स्वरूप कहीने हवे वीजां सम्यक्त्वोर्नु स्वरूप कहे छ-) तथा लोको औषधिविशेपक्डे जेम मीणावाला कोद्रवा शुद्ध-अशुद्ध-अने अशुद्ध एवी रीने ३ प्रकारना कर छे ॥३५॥ नेम आ विशृद्ध एवा औपश० सम्य० बड़े मिथ्यात्वमोहनीय (नां दलिक) पण ३ प्रकारना थाय छे. ॥ ३३६ ॥ त्यां अशुद्ध पुंजना उदय वडे मिथ्यास्वी, अने अर्ध शुद्धपुंजना उदये जीव मिश्रदृष्टि थाय छ ॥ ६३७ ॥ तथा शुद्ध पुजना उदयधी क्षयोपशमसम्यक्त्व थाय छे. अने ते क्षयोप० सम्य० उदय आवेला मिथ्यात्वना क्षयथी भने नहि उदय आवेला मिथ्यात्वना उपशमथी थाय छ ।। ६३८ ॥ प्रारंभायली अपकश्रेणियी दर्शनसप्तक (४ अनंतानु० -३ दर्शनमोड०) क्षय यये छते ते भवमां मोक्षे जनार अथवा ३-४ भव करनार जीवोने क्षायिकसम्यक्त्व थाय छे. ६३२॥तत्वार्थभाष्यमा ए सम्यक्त्वानु स्वरूप आ प्रमाणे फहेल छ-"क्षायिकादि ऋण प्रकारर्नु सम्यकप रेट-पटले-तदावरणीय ( जे जे आवरण छ लेना ले पावरण ) कर्मना अने दर्शनमोहनी २ जेणे प्रन्यिभेद कर्या छ तवा मिथ्यात्वे आवेला जीवी पण प्रयिभेदी कहेषाय. अने पफवार प्रथि भेदाया बाद पुनः ग्रंथि भदवान होतु नथी एयो नियम छ. २ अबद्धायू जीय क्षायिक सम्यऋत्य पामे तो तेज भवमा मोक्ष जाय, यद्य. वैमानिकदेवायु अयवा नरकायुषाळा ओष क्षायिक मम्यकस्य पामे तो देषभव अथवा नरफभव करी पुनः मनुष्यमा आधी मोक्षे अतां चीजे भवे मोक्ष जाय, वली अद्धयुगलिक तिर्यघायु अथषा बर युगलिक मनुष्यायुवाको जीव क्षा. स0 पामे तो युगमाथी देव था पुनः मनुष्यमा आयी मक्षि जतां चौथे भरे मोझ जाय पुनः कृष्णादिकवत नरकमायो मनुष्य था पुनः देव था पूनः मनुष्य था मोक्षे जतां पांचमे भये पण मोक्षं जाय प. उपाध्यायजोनी टीकावाली कम्मपयडीमा छे. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.......- "-.-- २४९ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १४४ (३३१) यना अयादिकथी-टोकार्थः-मति आदि ज्ञानावरणना अने दर्शनमोडनीयनी ७ प्रकृतिना अययी थयेल ने क्षायिकसम्यक्त्व कोवाय, अने नेओनाज उपशमयी उत्पन्न ययेलं ने औपश० सम्य० कडेवाय, अने तेओना ज क्षयोपशमथी उत्पम ययेलं तेने सिद्धान्तना ज्ञाता क्षयोपशम सभ्य कहे' छे. प प्रमाणे तत्वार्थसूत्रना १ ला अध्यायमा छ ॥३४०॥ शंका-जो तच्चश्रद्धाने उत्सम करनार क्षयोपशमसम्यक्त्व छ तो ते [ क्षायोप० सम्प० ] क्षायिफमम्यक्त्वनु आवरण केवी रीते करे ? अथवा जो ते क्षायोप० सम्प०] मिथ्यात्वनी जानिनु (मिथ्यात्पथी उत्पन्न थयेल) होवाथी ते (क्षा० सम्य०) नु आवरण करनार ठे तो तेना (क्षयोप० सम्य०) थी आत्मधर्मरूप तत्त्वश्रद्धा केही रोते प्रगटे? ६४१ उत्तर--जेम बारीक ( पडवाळा ) अपरखनी [चीमनीमां] अन्दर रहेली दीवा वगैरेनी ज्योति-कान्ति प्रकाश करे छ, अने ते अबरख दूर कर्ये छते पोताना सतेजबडे अधिक प्रकाश करे छ, ।। ६४२॥ अथवा जेम मलिन वख मणिनु (रत्नना प्रकाशन सर्वथा) आवरण करनार होप छे, पण ते वस्ख पोइने उज्वल कर्ये छते ते रत्ननी कइक मभा प्रगट थाय के ॥ ६४३ ॥ अने बख मूळचीज दूर कर्ये छते ते मणिप्रभा पोताना संपूर्ण रूपथी प्रगट थाप छे, तेम रसापवर्तनादिवडे मिथ्यात्वपुद्गलो पण ॥ ६४४ ॥ आयोपमिकपणुं पाम्ये छते कंडक अपगटपणे आत्मधर्मरूप तत्वश्रद्धान शीघ्र प्रगट थाय छ ॥ ६४ ।। अने क्षायोपशमिकपणु क्षय पाम्ये छते आत्मस्वरूपबाई जे सम्यक्त्व सर्वरूपे (सर्व प्रकारे संपूर्ण) प्रगट थाय छे ते क्षायिकसभ्य कहेवाय छे ।। ६४६ ॥ अने ए प्रमाणे तत्त्वश्रद्धाने उत्पन्न करनार पुद्गलोनो क्षय थवाथी तस्वमा श्रदा केवीरीते थाय ते शंका पण दूर करी. ॥ ६४७ । भाष्यकार कयु छ के--पारीक अने शृद्ध अबरखना पडलोनो विनाश थतां मनुष्यनी दृष्टिनी माफक १. अहिं दशनमोहनीय कर्म माथे मतिज्ञानावरणादि कर्मना पण(सहकारी कारपाथी) उपशम-क्षयोपशम-ने क्षययी ते ते सम्यक्त्वनी प्राप्ति कही परन्तु मत्यादिआवरणनो तो क्षयोप० मात्रज होय छे. क्षायिक अने और० सम्यमां क्षय वा उपशम थची ते खुलामो तस्वार्य टीकायी जाणवी २ रसनी हानियो, ३ मिथ्यात्वनी प्रदेशोदय अने सभ्यः पुजनो रसोदय धतां दर्शनमोहनीयनो भयोप- भाव जाणवी. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) सम्पदृष्टिबारे क्षायिकादितभेदनिरूपणम् ॥ (द्वार सम्यक्त्वमोहनीयना पुद्गलना क्षययी जोपने ते ( सम्प० ) वधारे विशुद्ध थाय छ, ।। ६४८ ॥ इदं कर्मग्रन्थमत, सिद्धान्तस्य मते पुनः। अपूर्वकरणेनेव, मिथ्यात्वं कुरुते त्रिधा ।। ६१९ । सम्यक्त्वावारकरसं, क्षपयित्वा विशाधिताः । मिथ्यात्वपुद्गलास्ते स्युः, सम्यक्त्वमुपचारतः ॥ ६५० ।। अर्धशुद्धा अशुद्धाश्च, मिश्रमिथ्यात्वसंज्ञकाः । एवं कोद्रवदृष्टान्तात्, त्रिषु धुजषु सस्वपि ॥६५॥ थदाऽनिवृत्तिकरणात्, सम्यक्त्वमेव गच्छति मिश्रमिथ्यात्वपुजौ तु, तदा जीवोन गच्छति ।।६५२॥पुनः पतितसम्यक्त्वो,यदा सम्यक्त्वमश्नुते । तदाऽप्यपूर्वकरणेनेव पुजत्रय सृजन् ॥६५३॥ करणेनानिवृत्त्याख्येनेव प्राप्नोति पूर्ववत् । नन्वत्रापूर्वकरणे, प्राग्लब्धेऽन्वथता कथम् ॥६५४।। अत्रोच्यते।।अपूर्ववदपूर्व स्यात्, स्तोकवारोपलम्भतः।अपूर्वस्वव्यपदेशो,भवेल्लोकेऽपि दुर्लभे।६५५॥इदमर्थतो विशेषावश्यकवृत्तौ (सा०१४५)। सम्यग्दृष्टिव्यपदेशनिवन्धनमितीरीतम् सम्यक्त्वं त्रिविधं शुद्धश्रद्धारूपं मनीषिभिः॥६५६॥ यदिवेकद्वित्रिचतुःपञ्चभेदं भवेदिदम्। जिनोततत्त्वश्रद्धानरूपमेकविधं भवेत् ॥६५७ ॥ द्विधा नैसर्गिकं चौपदेशिकं चेति भेदतः। भवेनेश्चयिकं व्यावहारिक चेति वा द्विधा ॥ ६५८ ॥ द्रव्यतो भावतश्चेति,द्विधा वा परिकीर्तितम्। तत्र नैसर्गिक स्वाभाविकमन्यद् गुरोगिरा ॥६५९ ॥ यथा पधश्च्युतः कश्चिदुपदेशं विना भृमन् । मार्ग प्राप्नोति कश्चित्तु, मार्गविज्ञोपदेशतैः ॥६६० ॥ यथा वा कोद्रवाः केचित्, स्युः कालपरिपाकतः। स्वयं निर्मदनाः केचिदोमयादिप्रयत्नतः ॥ ६६१ ॥ कश्चिज्ज्वरो यथा दोषपरिपाकाद् ब्रजेत्स्वयम् । कश्चित्पुनर्भेषजादिप्रयत्नेनोपशा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ।। (सा. १४५) [३३] म्यति ।। ६६२ ॥ स्वभावादथवोपायाधथा शुद्धं भवेत्पयः । यथोज्ज्वलं स्याद्वस्त्रं वा स्वभावाद्यनतोऽपि च ॥ ६६३ ।। सम्यक्त्वमेवं केषाञ्चिदङ्गिनां स्यान्निसर्गतः। गुरुणामुपदेशेन, केषाश्चित्तु भवेविदम् ।। ६६४ ।। नैश्चयिकं सम्यक्त्वं, ज्ञानादिमयात्मशुद्धपरिणामः । स्याव्यावहारिकं तद्धेतुसमुत्थं च सम्यक्त्वम् ।। ६६५॥ आर्या । जिनवचनं तत्वमिति श्रदधतोऽकलयतश्च परमार्थम् । स यसो भापतस्तु परमार्थविज्ञस्य ६६६ आर्या । क्षायोपशमिकमुत पौद्गलिकतया द्रव्यतस्तदुपदिष्टम् । आत्मपरिणामरूपे च भावतः क्षायिकोपशमिके ते ॥६६७ ॥ गीतिः ॥ कारकरोचकदीपकभेदादेतनिधाऽथवा त्रिविधम् । * ख्यातं क्षायोपशमिकमुपशम क्षायिकं चेति ॥६६८॥ आर्या । जिनप्रणीताचारस्य, करणे कारकं भवेत् । रुचिमात्रकरं तस्य, रोचकं परिकीर्तितम् ॥ ६६९ ॥ स्वयं मिथ्यादृष्टिरपि, परस्य देशनादिभिः। यः सम्यक्त्वं दोपयति, सम्यक्त्वं तस्य दीपकम् ।। ६७० ॥ क्षायोपशमिकादीनां, स्वरूपं तूदितं पुरा । सास्वादनयुते तस्मिंस्त्रये तत्स्याच्चतुर्विधम् ॥ ६७१ ॥ वेदकेनान्विते तस्मिंश्चतुष्के पश्चधाऽपि तत् । सास्वादनं च स्यादीपशमिकं वमतोऽडिनः॥ ६७२ ॥ त्रयाणामुक्तपुंजानां, मध्ये प्रक्षीणयो. ईयोः । शुद्धस्य पुञ्जस्यान्त्याणुवेदने वेदकं भवेत् ।। ६७३ ॥ ए (औपशमिफसम्यक्त्व पामवाना स्वरूपवाळो) फर्मग्रंथनो अभिप्राय करो. अने सिद्धान्नने मते नो अपूर्वकरणवडे ज मिथ्यात्व ३ जातवें फरे. ॥ १४९॥ अहिं सम्यक्त्वने आवरण करनार रसने सपायी विशुद्ध करेला जे मिथ्यात्वनां शुगलो ते उपचारथी [व्यवहारथी] सम्यकस्य कहेवाय छ, ॥ ३५० ॥ अशुद्ध पुनलो ते मिश्रसम्यक्त्व नामना, अने अशुद्ध रहेलां पुरलो ते मिथ्यात्व नामनां Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३४] ॥ सम्यग्दृष्टिद्वारे एकदिश्यादिसम्यक्त्वभेद निरूपणम् || (द्वार कहेवाय छे. ए प्रमाणे कोद्रवना दृष्टान्तथी (जाण)हवेत्रणे पुंज विद्यमान छते पण ॥ ६५१ ॥ ज्यारे अनिवृत्तिफरणवडे जीव सम्यक्त्वने न पामे ने वखने जीवने मिथ्यात्व अथवा मिश्रपुंजनो उदय थतो नवी ।। ६५२ ।। वळो सम्यक्पथी पडेलो जीव पुनः ज्यारे सम्यक्त्व पामर्नु होय ते वखने पण अपूर्वकरणबडेन त्रण पुंज करतो ॥ ७९३ ॥ अनिवृत्तिकरण नामना करणवडेज पूर्वनी पेठे सम्यक्त्व पामे प्रश्न-अहिं प्रथम प्राप्त थया छतां पण बीजीवार पामेलं करण अपूर्वकरण केम कहेवाय ?मक अपूर्व एटले पूर्व प्राप्त नहि करेल ते अश्वकरण कहेवाय तो बीजीवार अर्थ प्रमाणे अपूर्वकरण न कहेवाय. ? ॥ ३५४॥ उत्तर-थोडीवार पामवाथी जे अपूर्व सरखं दोय ते अपूर्व कहेवाय. कारण के लोकमां पण दुर्लभ्य वस्तुमां अपूर्वपणानो व्यपदेश थाय छे ॥ ६५५ ।। ए प्रमाणे भावार्थ श्रीविशेषावश्यकनी वृत्तिमां कसो छ । ए प्रमाणे "सम्यग्दृष्टि" एवा व्यपदेशमां कारण रूप शुद्ध श्रद्धारूप सम्यक्त्वने बुद्धिमानाए ३ ३ प्रकारनु कहेलुं छे ।। ६५६॥ ____ अथवा एक-वे-त्रण-चार-ने पांच प्रकारर्नु पण सम्पन्न काले, त्यां। श्रीजिनेश्वरे कहेल नचनी श्रद्धारूप ने एक प्रकारच् सम्यक्त्त छे ।।६५७॥ नथा नैसर्गिक अने औपदेशक ए भेदयी वे प्रकारनु अथवा नैश्चयिक अने व्यावहारिक ए प्रमाणे पण चे प्रकार के. ॥ ६५८ ॥ अथवा द्रव्य अने भाव एम चे प्रकारनु सम्यक्त्व कमु के, त्यां जे स्वाभाविकरीने याय ते नैसगिंक अने गुरुना उपदेशादिवडे थाय ते औपदेशिक सम्यक्त्व कहेवाय ६५९ जेम रस्तेथी भूलो पडेलो कोइक बीजाए मार्ग देखाइधा विनाज भमनो भमतो मार्ग पामे तेवू नैस० अने कोइक कोइ भोमीभाना कडेवाथी मार्ग पामे नेवू औपदे० सम्यक जाण ॥ ६६० अथवा केटळाए कोद्रवा (धान्यविशेप) काळना परिपाकथी पोतेज मीणा विनाना थइ जाय, अने केटलाएक छाण वगैरना प्रयत्नधी मीणा रहित थाय तेम ॥ ६६१॥ अथवा कोइक ज्वर (नाव-चुम्वार) (पित्तादि) दोष पाकी जवायो स्वत: चाल्यो जाय, अने कोइक ज्वर वळी औपधादि प्रयत्न बड़े शान्त थाय तेम ॥ ६६२ ॥ अथवा कोइक जळ स्वभावधीज शुद्ध याय, अने कोइक जळ उपापथी भुद्ध थाय । अथवा कोइक वस्त्र स्वभावधीज उज्वल थाय अने कोइक प्रयत्नथी उज्वळ धाय ॥ नेम सम्यक्त्व पण केटलाएक जीवोने स्वभावथी अने केटलाएक जीवोने गुरुना उपदेशथी थाय के Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः । [सा० १४५० (३५) ॥ ६६४ ॥ तथा ज्ञानदर्शनादि गुणमय आत्मानो जे शुद्ध परिणाम ते मैंचयिकसम्यक्त्व, अने ते शुद्ध परिणामरूप) हेतुथी उत्पन्न थयेलं ते व्यावहारिक सम्यक्त्व कहेवायः ॥ ६६५ ॥ तथा परमार्थने नहिं जाणनार एवा पुरुषने पण "श्रीजिनेश्वर जे वचन छे तेज तत्व छे" एवा प्रकारनी श्रद्धा फरनारने द्रव्यमा म्प०, ने ते तखना जाणकारने भावसम्यक होय.॥६६६॥ अथवा जे क्षायोप० सम्य० तेज पौद्गलिक होवाधी द्रव्यसम्य०, कहेलुं छे, अने बोजा चे सम्यकन्व क्षाधिक अने औपशमिक आत्मानी परिणतिरूप होबाथी भावसम्य० कहेल . ।। ६६७ ॥ वळी आ सम्यक्त्व कारक-रोचक ने दीपक ए भेदथी त्रणपकारनु छे. अथवा क्षयोप०-उपशम-अने क्षायिक ए रीते पण सम्य० त्रण प्रकारनु छे॥६६८॥ जिनेश्वरे कहेला आचार अंगीकार करवाथी कारक थाय छे, अने ते आचारो उपर रुचिमात्र करनार(आदरनार नर्हि)ोने रोचक कहेलुं छे. ।। ६६९॥ पोते मिथ्या दृष्टि छतां देशनादिक (नी लब्धि) बडे जे जीव वीजा जीवने सम्यक्त्व मगर करे ते (मिथ्यावृष्टिने) दीपक सम्यः (दीवो जेम पोतानी पासे अधार ने बीजाने प्रकाश करे तेम] जाणयु. ॥ ६६९ ॥ प्रथम जे क्षायोप० वगैरे (त्रण)सम्यनु स्वरूप कायं ते त्रणमां सास्वादन सम्य० सहित करतां चार प्रकारर्नु सम्य० यायः ॥ ६७१ ॥ वळी ते चारमा वेदक सम्यक उमेरतां ५ प्रकारनु सम्प- पण थाय, त्या औपश० सम्यवमतां जीवने सास्वा० सम्य होय छे. ॥ ६७२ ॥ अने पूर्व कहेला त्रण पुंजमांधी चे पुंज क्षय थया बाद जीजा शुद्धपुंजना अन्त्य अणु (स्थितिखंड) येदतां उदय आवतां वेदक सम्यक्त्व होय छे ।। ६७३ ।। ( सम्यक्त्वनीस्थिति अने प्राप्ति) पट्पष्टिः साधिकाऽन्धीनां,क्षायोपशमिकस्थितिः । उत्कृष्टा सा जघन्या चान्तर्मुहर्तमिता मता ॥६७४ ॥ ज्येष्ठाऽन्या चौपशमिकस्थितिरान्तर्मुहर्तिको । क्षायिकस्य स्थितिः सादिरनन्ता वस्तुतः स्मृता॥ ६७५ ॥ साधिकाः स्युभवस्थवे, सा त्रयस्त्रिंशदब्धयः। उत्कर्षतो जघन्या च, सा स्यादान्तर्मुहर्तिकी ॥ ६७६ ॥सास्वादनस्यावल्यः षट्, ज्येष्ठा लघ्वीक्षणात्मिका । १. अर्थात क्षायि० मम्य: पामतां क्षयोप० भो छेल्लो समय से बेदकमा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३)। सम्यग्दृष्टियारे क्षायिकादिस्थिनि-संख्यागुणस्थाननियमविचारश्च द्वार एकः क्षणो वेदकस्योत्कर्षांजघन्यतोऽपि च ६७७ ॥ उत्कर्षादौपशमिक, सास्वादनं च पञ्चशः। वेदक क्षायिकं चैकवारं जीवस्य संभवेत् ।। ६७८ ॥ वारान् भवत्यसंख्येयान्, क्षायोपशमिकं पुनः । अथैतेषां गुणस्थाननियमः प्रतिपाद्यते ॥६७९ ।। सास्वादनं स्यात्सम्यक्त्वं, गुणस्थाने द्वितीयके । तुर्यादिषु चतुर्वेषु, क्षायोपशमिकं भवेत् ॥ ६८० ॥ अष्टासु तुर्यादिष्वीपशमिकं परिकीर्तितम् । तुर्यादिष्वेकादशसु, सम्यक्त्वं क्षायिकं भवेत् ॥६८१ ॥ तुर्यादिषु चतुर्वेषु, वेदकं कोर्तित जिनैः। गुणस्थानप्रकरणाद्विशेषः शेष उह्यताम् ।। ६८२ ।।। ___ अर्थ-क्षायोप० सम्यन्नी स्थिति साधिक ६६ सागरोपम छे ते उत्कृष्ट जाणवी, अने जघ• स्थि० अन्नमु. प्रमाणनी छ.। औपश० सम्य नी उन्क० अने जन ची स्थिति अन्तर्मु० प्रमाण के, अने वास्तविक रीते क्षायि० सम्यः नी सादि अंनत स्थिनि कही छे. ॥ ६७२ ॥ बळी संसारीपणामां क्षायिक मम्य-नी स्थिति उत्कृष्थी साधिक ३३ सागर, अने जपा स्थिति अन्तर्मुके.|| मास्वादन सम्यन्नी उपस्थि६ आवलिका, अने जय० १ समयनी छे, अने उत्कृ० अथवा अन्य यी पण घेदक मम्यनी? समय स्थिनि. ॥ ६७७ ॥ औपश० अने सास्वा० सम्य. जोत्र आग्वा संसारमां पांच वग्वन पामे, अने जीवने घेदक सम्प० अने क्षायिक सम्यः एकज वरवन होय. ॥६७८वळी झायोप० सम्य० असंख्याती वार पामे, हवे ए सम्यक्त्वना गुणस्थाननो नियम कहेवाय छे ।। ६७९ ।। प्रण चार अच्युते अथषा से चार विजयाविधतुरुक्रमा उत्पन्न यतां षचला मनु. भत्र सहित ६८ सागर थाय त्यारवास मिश्र धा मिध्या० पाम. २ सिद्धने आश्रयि. ३ मनु०मा क्षायिक मम्य प्राप्त करी विजयादि पांच विमानमा एकचार उत्पन्न था मनुष्यमां आवी मोक्ष जाय तो मनुष्य भवाधिक ३३ मागर याय, ४ क्षायिक सम्य० पामी तुर्तज अपकणि मांडी मोक्ष जना, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः। (सा० १४६) [३३७] मास्था० सम्य० चीजे गुणस्थाने, अने भायोप० सम्प• चोयाथी चार गुण स्थान मुधी होय (४-५-६-७ गुण मुधी होय.) ॥ ६८ ।। औपचामिक सम्य. चोथायी आठ (४थी११) गुण मुधी कहेल छे, अने क्षायिक सम्य० चोथायी अगीआर सुधी (अधी१४सुधी) कहलं छे. ॥६८१॥ अने श्री जिनेवाए वेदक सम्य० चौथायी चार मुधी (४थी ७ सुधी) कहलुछे, ए संबंधि शकी रहेलो अधिक विचार [आगळ आवता] गुणस्थानमकरणथी जाणवो. ॥ ६८ ॥ सम्पयं लभसे जीयो, पायल्या कर्मणा स्थितौ । क्षपितायां ततः पल्यपृथक्त्वप्रमितस्थितौ ॥६८३॥ लभेत देशविरति, क्षपितेषु ततोऽपि च । संख्येयेषु सागरेषु, चारित्रं लभतेऽसुमान् ॥६८४ । एवं चोपशमश्रेणिं, क्षपकणिमप्यथ । क्रमासंख्येयपाथोधिस्थितिहासादवाप्नुयात् ॥६८५॥ एतानभष्टसम्पत्योऽन्यान्यदेवनृजन्मसु । लभेतान्यतरश्रेणिवर्जान कोऽप्येकजन्मनि ॥६८६|| श्रेणिद्वयं चैकभवे सिद्धान्ताभिप्रायेण न स्यादेव, आहुच॥ संम्मत्तमि उ लद्धे, पलिअपुरत्तेण सावओ हुज्जा । च १ यावत्यां कर्मस्थितौ मम्पकावं लब्धं तन्मध्यान्पल्योपमपृथकावलक्षण स्थितिखण्डे अपिले भाषको देशविरती भवेत । ततोऽपि संख्यात सागरों. पमेषु क्षपितेपु चारित्रमवाप्नोति । ततोऽपि मख्यातेषु सागरोपमेघु क्षतिपूपजमश्रेणी प्रतिपद्यते । ततोऽपि मंख्यातेषु सागरीपमेयु क्षपितेपु अपकणिर्भयतीति ॥ १२२२ । एषमतिपमितमम्यकत्यस्य देवमनुष्यजन्मसु संसरण कुर्वनाऽन्योन्यमनुष्यभषे देशषिरस्यादिलाभो भवति । यदि था नीशभपरिणामवशात् अपितय हुकर्मस्थितेरेकस्मिन्नपि भवेऽन्यतरणिप्राण्येतानि मर्याण्य. पि भवन्ति । अणिवयं विकस्मिभषे सज्ञान्तिकाभियायेण न भवत्येव, किगायकवोपशमणिः , क्षपश्रेणिर्या भवतीति ।।१२२३॥ (इति यूयोर्गाथयोवृतिः) भावार्थ:-जेटली कर्मस्थिति रो छस मम्यक्त्व पाम्यो होय मांची पल्योपमपृथक्त्वस्थिति खण्ड खपाव्ये आषक ( देशविरतिधाळो) थाप. मांधी पण संख्याता सागरोपम खपाठये चारित्र (मविरति) पाम छ.. माथी पण संख्यातासागरोपम खपाव्ये उपशमश्रेणि पामे छ, तेमाथी पण मेंख्यातासागरोपमस्थिति खपाव्य क्षपकणि थाय छे. दंष मनुष्य जन्ममां पतिभ्रमण करता अप्रनिपतित ( नथी नाश पाम्यु) सम्यक्त्ववाळा जीवन बीजा बीजा ( वसचे प्राप्त थता । मनुष्यभषमा दशविरति विगेरेनो लाभ थाय Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३८) । सम्पद्विारे देशविरत्यादिप्राप्तिसामायिकचतुष्कविचारश्च ॥ (द्वार) रणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा हुंति ॥१॥ एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुअजम्मेसु । अमयरसेढिवज, एगभवेणं व (च)सबाई ॥२॥(सा०१४६)(सम्यक्त्वे तुलब्धे पल्यपृथक्वेन श्रावको भवेत्। चरणोपशमक्षयाणां सागरसंख्यान्तरा भवंति ॥१॥ एवमप्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु। अन्यतरश्रेणिवजे एकभवेन वा (च) सर्वाणि ॥ २ ॥) इति महाभाष्यसूत्रवृत्यादिषु । सम्यक्त्वं च श्रुतं चेति,देशतः सर्वतोऽपि च । विरती इति निदिष्टं, सामायिकचतुष्टयम् ॥१॥चारित्रस्याष्ट समयान, प्रतिपत्तिनिरन्तरम् । शेषत्रयस्य चावल्यसंख्येयांशमितान् क्षणान् ॥ २॥ उत्कर्षेण प्रतिपत्तिकाल एष निरन्तरः । जघन्यतो हो समयौ, चतुर्णामपि कीर्तितः ।। ३॥ हादशपञ्चदशाहोरात्रास्तृतीयचतुर्थयोः । आद्ययोः सप्त विरहो,ज्येष्टोऽन्यश्च क्षणत्रयम् ॥ ४॥ सम्यक्त्वं देशविरतिं, चाप्नोत्युत्कर्पतोऽसुमान् । क्षेत्रएल्योपमासंख्यभागक्षणमितान् भवान् ।। ५॥ चारित्र च भवानष्टी, श्रुतसामायिक पुनः । भवाननन्तान् सर्वाणि, भवमेकं जघन्यतः ॥ ६ ॥ आकर्षाणां खलु शतपृथक्त्वं सर्वसंवरे । स्या सहस्त्रपृथक्त्वं च, त्रयाणामेकजन्मनि ।। ७ ॥ नानाभवेषु चाकर्षा, असंख्येयाः सहलकाः । आयत्रये तुरीय च, स्यात्सहस्त्रपृथक्त्वकम् ॥ ८॥ यत्रयाणां प्रतिभवं, स्युः सहस्रपृथक्त्वम् । असंख्येया भवाश्चेति, युक्तास्तेऽमी यथोदिताः ॥९॥ चारि. छे, अथवा तीन शुभ परिणामना वशयी खपाषी छ घणी कर्मस्थिति जेणे पवा जीवने एका भवने विषे धेमाथी पक श्रेणि शिषायना आ सर्व (कलो-लामो) थाय छे, (मळे छै), कारण ये श्रेणि पक भवने विषे सेवान्तिकमा अभिप्राये थाय ज महि. परग्नु उपशमणि अथवा क्षपकमेणि (बैमाथी एक) पाय छ. का मार मामायिक स्वरूप प्रभंगयो कहेलं होषाथी को ! थी शह छ, Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १४७] (३३०) त्रे यत्प्रतिभवं, तेषां शतपृथक्त्वकम् । भवाश्चाष्टौ ततो युनं, तत्सहस्पृथक्त्वकम् ॥१०॥ आकर्षः प्रथमतया ग्रहणं मुक्तस्य वा ग्रहणमिति, इदमर्थत आवश्यकसूत्रवृत्त्यादिषु (सा०१४७) ( सम्यक्त्यादिथी देशविरत्यादि मासिमा परस्पर अन्तर. ) ___ अर्थ:-कर्मनी जेटली (पल्यासाय भार दूधक कोसी शामरोपम ) स्थिति बाकी रह्ये जीव सभ्यत्तव पामे तेमाथी पल्यापम पृथसपमाण स्थिति क्षय थतां जीव ॥ ६८३ ॥ देशविरति पामे, माथी पण संख्यात सागरोपम स्थिति क्षय घना जीव चारित्र पामे ।। ६.८४ । ए प्रमाणे नेमांथी पण पुनः संख्यान सागरोपम स्थिति घटता उपशमवेणि अने नेमाथी पुनः संख्यात सागरो० स्थिनि घटनां जीव क्षपकश्रेणि पामे ॥ ६८५ ॥ ने पण वीजा वीजा देव अने मनुष्यना भवोमां सम्यक्त्वथी पतित नहि ययेलो पलो कोइफ जीव तो एकज (मनुप्य) भवमा काइपण एक श्रेणि सिवायना ने सर्व (देशवि०-सर्ववि०- १ श्रेणि ए ऋणे ) भाव पामी शंके, ॥ ६८६ ।। कारण के सिद्धान्तने अभिमाये एक भवमां वे श्रणि म धाय का छे के-"सम्यवन्द पाम्याबाद पल्यो० पृथक्त्व फाळे (२ थी ९ पल्योपस्थिति साने फर्मनी खपाध्ये छते ) श्रावक याय अने संख्यात संख्यात सागरोपमनेअन्तरे चारिअ-उपश० श्रे० ने लपकश्रे० थाय. ए प्रमाणे देव अने मनुष्य जन्ममा सम्य. नहिं पनित यये छते ( कोइफ जीवने तो) अन्यतर [ कोइपण एक ] अणि रहित सर्वभाव एफज भवमां प्राप्त थाय. " ए प्रमाणे श्रीविशेषा० महाभाये सूत्र अने वृत्ति वगेरेमां कधु . ॥६८७१ चार सामायिकनुं स्वरूप || सम्यत्तव-श्रुत-देशविरति-अने-सर्वविरति ए चार प्रकारनां सामायिक १ भाषार्थ प हे के:-त्र मनुष्य जम्ममा भमतो अप्रनिपतित मम्यकमवाळो कारक जीव (मनुष्य भरमा) पूर्वनी मात कर्मनी स्थितिमांधी एल्याश्यक्त्व स्थिति खपावे तो तेज [मनुष्य] भवर्मा देशविरतिपर्ण तथा सेमाथी मख्यात मागरोपमनी स्थिति खपाध्ये सर्वविरतिपणुं तथा मिद्रान्तकारमते तेमांथी मख्यातसागरोपम स्थिति घटाइये उपशमणि अगर नेमांची संख्यातसागरोपम स्थिति घटाइये आपकणि पामे छे, कर्मप्रन्थकारमते जेणे उपशमणि करी होय पण जो तसषमुक्तिगामी जीव होय तो अपक. अणि पामी शक छ, ते विचार आगळ कडेवाशे. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सम्यष्टिद्वारे सम्यक्त्वसामायिकादीनामाकर्षविचारः मिथ्यादृष्टिमिप्रदृष्टिभिचार || कलां . ॥ १ ॥ तेमां चारित्रनी (सर्ववि० सामायिकनी) निरन्तर माप्तिकाळ ८ समयनो छे, अने शेष ३ सामायिकनो प्रतिपत्तिकाळ ( स्वीकार काळ ) आवलिकाना असंख्यातमा भाग जेटला समयनो छे || २ || ए निरंतर प्रतिपत्तिकाळ उत्कृष्टथी को, अने जघन्यथी तो चारे सामायिकनो प्रतिपत्तिकाळ वे समय प माणे कहेलो छे. ॥ ३॥ हेला सम्य० सामा० भो अने बीजा श्रु०सा०नी विरह (अन्तर) काळ ७ अहोरात्रिनो, अने त्रीजा तथा चोथा सामा०नो विरहकाळ अनुक्रमे १२ अने १५ दिवसा है. ए उत्कृ० विरह को अने जघ विरह (चानो) ३ * समय प्रमाण छे. ॥ ४ ॥ जीव सम्यक्त्व अने देशविरति उत्कृष्टथी क्षेत्र पल्योपमना असंख्यातमा भागना समयप्रमाण भव सुधी वारंवार प्राप्त करे छे ।। ५ ।। चारित्रने आठ भवसुधी प्राप्त करे छे, अने श्रुतसामायिक अनंतभव सुधी मात करे. पुनः जघन्यथी ए चारेने एकज भव प्राप्त करें. तथा सर्ववि० सामाfrnar se aa aतपृथक्त्व ( अनेक सेंकडोवार ) अने शेष ऋण सामा० ना आकर्ष हजार पृथक्त्व [अनेक हजारवार ] पुनः पुनः मासि एकभवमां होय. ॥ ६ ॥ बळी एमांना हेला त्रैणना अनेक भत्रमा आकर्ष असंख्य हजार थाय अने चोथा ( चारित्रसामा० ) ना ( अनेक भवर्मा) हजारपृथक्त्व आकर्ष होय ॥ ७ ॥ प्रयमना त्रण सामायिकना जो एकेकभवमां हजारपृथक्त्व आकर्ष कथा तो असंख्याता भवमां जे आ असंख्य हजार आकर्ष कला ते युक्त छे.॥८॥ वळी चारित्रना जो प्रत्येकभमां शतपृथक्त्व आकर्ष कशा तो आठ भवमां ते आकर्ष हजार पृथक्त्व थाय (३४०) (द्वार आ निरन्तरप्रतिपति अने बिरनो काळ एक जीवाश्रयि नहि पण अनेक जीवनी अपेक्षा जाणो. १. लगोलग भवमां नहिं पण आखा भवचक्रमां पटलाभव सम्यक्त्वादि पामे पम जाणवु. २ मे सम्यक्त्वादि गुणथी अध्यवसायनी मलिनता तो तेज सम्यक्त्वादि गुण पुनः प्राप्त करो अथवा सर्वथी प्रथम ते आकर्ष. पडच होय प्राप्त करणी * श्रुत सामा० भने सम्यक्त्वसामा० नो अघ० विरह आवश्यकवृत्तिमां १ समयतो को . ३ मत अने सम्य० सम्बद्धपणे जाणवु अम्यथा श्रुत सामा० ना आकर्ष अभव्यने नाना भवमां अनन्त होय, अथवा पत्रात भयाने आधयि जाणवी. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १४८ ] (३४१) ते पण युक्त ज . ॥९॥ अहिं आकर्ष एटले प्रथम ग्रहण अथवा मुकी दीघेलानुं जे ग्रहण करते, एवो भावार्थ आवश्यकवृत्ति वगेरेमां को है. ॥१०॥ मिथ्यादृष्टिर्विपर्यस्ता, जिनोक्ताद्वस्तुतस्त्वतः । सा स्यान्मिथ्यात्विनां तच्च, मिध्यात्वं पञ्चधा मतम् ॥ ६८८ ॥ आभिग्रहिकमार्थ स्यादनाभिग्रहिकं परम् । तृतीयं किल मिध्यात्वमुक्तमाभिनिवेशिकम् ॥ ६८९ ॥ तु सांशयिकाख्यं स्यादनाभोगिकमन्तिमम् । अभिग्रहेण निर्वृत्तं तत्राभिग्रहिकं स्मृतम् ॥ ६९० ॥ नानाकुदर्शनेष्वेकमस्मात्प्राणी कुदर्शनम् । इदमेव शुभं नान्यदित्येवं प्रतिपद्यते ।। ६९९ ॥ मन्यतेऽङ्गी दर्शनानि, यद्वशादखिलान्यपि । शुभानि माध्यस्थ्यहेतुरनाभिग्रहिकं हि तत् ॥ ६९२ ॥ यतो गोष्ठामा हिलादिवदात्मी• यकुदर्शने । भवत्यभिनिवेशस्तत्प्रोक्तमाभिनिवेशिकम् ॥ ६९३ ॥ यतो जिनप्रणितेषु, देशतः सर्वतोऽपि वा । पदार्थेषु संशयः स्यात्तत्सांशयिकमीरितम् ।। ६९४ ।। अनाभोगेन निर्वृत्तमनाभोगिकसंज्ञकम् । यत्स्यादेकेन्द्रियादीनां मिथ्यात्वं पञ्चमं तु तत् ॥ ६९५ ॥ यस्यां जिनोक्ततत्त्वेषु, न रागो नापि मत्सरः । सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञा सा मिश्रदृष्टिः प्रकीर्त्तिता ॥ ६९६ ॥ धान्येfore नरा नालिकेरद्वीपनिवासिनः । जिनोकेषु मिश्रदृशो, न द्विष्टा नापि रागिणः ||६९७॥ यदाहुः कर्मग्रन्थकाराः ॥ जिअ अजिअपुण्णपावासव संवरबंधमुक्खनिज्जरणा । जेणं सद्दहड़ तयं सम्मं खइगाइ बहुभेयं ॥ ६९८ || मीसा न रागदोसो, जिणधमे अंतमुहु जहा अन्ने । नालीअरदीवमणुणो, मिच्छं जिणधम्मविवरी ||६९९|| (सा० १४८ ) ( जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरवन्धमोक्ष निर्जरणानि । येन श्रद्दधाति तत् सम्यक्त्वं क्षायि - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- ..-- . . (३४२) _ ॥ मिथ्यात्वभेदपूर्वकतत्स्वरूपमिश्रष्टिविचारः ॥ (द्वार कादि बहुभेदम् ॥१॥ मिश्रादः न रागद्वेषौ जिनधर्मे अन्तर्मुह- . से यथाऽन्ने । नालिकेरद्वीपमनुजानां मिथ्यात्वं जिनधर्मविपरीतम्) ॥ ६९२ ॥ गुणस्थानकमारोहे वेवमुक्तम् ॥ " जारयन्तरसमुभूतिर्वडवाखरयोर्यथा । गुडदनोः समायोगे, रसभेदा. न्तरं यथा ॥ १॥ तथा धर्मद्वये श्रद्धा, जायते समबुद्धितः । मिश्रोऽसौ जायते तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः ।२।(सा०१४९.) सम्यग्मिथ्यादृशः स्तोकास्तेभ्योऽनन्तगुणाधिकाः। सम्यग्दृशस्ततो मिथ्यादृशोऽनन्तगुणाधिकाः॥७०० ॥ इति दृष्टिः २५॥ अर्थ-मिथ्यात्यनुं स्वरूप-श्री जिनेश्वर कहला वस्तुतवथी जे विपर्यासपणुं ( विपरीतपणु) ते मिथ्यावृष्टि कहेवाय, ने मिथ्याष्टिमि. थ्यावी जीवोने होप छे अने ते मिथ्यान्व ५ प्रकारर्नु मानेल छ । ६८८।। हेल्लं आभिग्राहक, बीर्जु अनभिग्रादिन. अने श्रीज मिथ्याव निश्चय आभिनिवेशिक कहेल छ ॥६८९॥ चोथु सांशयिक नामे अने छल्लं अनाभोगिक मिथ्यात्व छ. त्यां अभिग्रह ( एटले स्वीय स्वीकार ) थी उत्पन्न थयेलुं ते आभिन० मिथ्यात्व कईल. ॥ ६९० ॥ ए मिथ्यात्वथी जीव अनेक मकारनां कुदर्शनोमां आ एक दर्शनज श्रेष्ट छ पण वीजु नहिं; ए प्रमाणे माने छे, ॥ ६९१ ॥ तथा जेना कशधी जीव मध्यस्थपणाना कारणथी सर्व दशनों (धर्म) शुभ छ एम माने ते अनाभिग्रहिक मिथ्या० मानेल छे ।। ६९२ ।। नया जेनाथी गोष्ठामाहिल वगैरेनी पेठे पोनाना कुदर्शनमा (खोटा मन्तव्यमां) जे कदाग्रह थाय ते आभिनिवेशिक मिथ्या कडेवाय. ॥६९३ । तथा जेनाथी आ मिथ्यात्वना प्रकारान्तरे वीजा भेदोनो अन्तर्भावकरी संक्षेपयी पण मंदो अथवा विस्तारधी अनेक भेवो पण यनाल्या छ, “अभिगहियामण. भिगहिय मिच्छत अभिनियेतिय थैव । समाइयमणाभोगं, तिषिहं वा, अहघाणेगघि ” ॥ ३ ॥ अर्थ-आभिहिक ? अमाभिनहिक २ आभिनिवेशिक ३ लांशयिक । अनाभोगिक ५ र पांच प्रकारे मिथ्यान्व छ, अथवा प्रण भेदे छ, अथवा अनेक भेदे छे. प्रण भेव "तं मिच्छतं जममहहणं मबाण होइ भाषाणं । संसइयमभिग्गहिय अणभिग्गहियं च स तिथि " ॥ १ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९) ॥ श्रीलोकमकाशे सनीयः सर्गः ॥ (सा० १४९) (३४३) अर्थ-तस्य यार्थ स्वरूपा ) पदार्थोमी ज अश्रद्धा ने मिध्यास्थ कईवाय, ते १ मांशयिक. २ आभिनहिक, ३ अनाभिग्रहिक पम प्रण प्रकारनु छे, अनेक प्रकार-अनेक धर्मात्मकवस्तुमा बीमा धांना अपलाऐ करी एक धर्मविषयक अध्यवसा ते मिध्यास्त्र छे, अन ने अध्यवसायो अमय होधाथी मिथ्यात्वना पण टलाज भदो पडे छ. " आवाया वयणपहा तारया चेव एति नयवाया । जायदया नयवाया तायाया चव परसमया " ॥१॥ मिथ्यात्वनी प्राप्तिमा अनेक कारणी पैकी आ निम्र लिखित कारणां मुख्य छ. " माभेया पुच्चुग्गह लमग्गीप य अभिनिवेक्षण । मनमा बनु मिच्छन्न माइणमरंमणेणऽहवा " ॥ १ ॥ ___भाषार्थ-यथावस्थित समस्त षस्तुतत्वने स्वीकारना छतां पण · जमाहिनी माफक कोरक पक पदार्थमा विपरीत श्रद्धा थया कप 'निर्भय' धी मिथ्यात्त्व प्राप्त थाय छ १. पहेला कुदर्शन बासमायी बामिन अन्त:करणाका जीषने पारंवार मेंकडो युफियोवडे प्रतिबोध करता छनां पण नेज पूर्वमा ( कुदर्शन ) संस्कारना अनुवर्तन अवार्थी कदामहस्वरूप ' पूर्वयुदाह श्री पहेली अषस्थाना ' गोविन्द 'माधुनी जैम ( पाछली श्रुतज्ञाम भणषायी मिथ्यात्वविनाश पाम्न्यु छे ) केटलाकोने मिथ्याव थाय छ. २. विपरीतष्टि बाळा जीवोनी साथे सम्बन्ध करवा रूप ' सैमर्गवशेष थी ' मौराष्ट्र देशना भाषकनी जेम मिथ्यात्व पामे के ३. खोटा अभिमानयो जुदा स्वरूपवाला पदार्थ ने भिन्नस्वरूप निरूपण करवा रूप ' अभिनिवेश'यो ' गोष्ठामा हिल' नी जम मिथ्यात्व उत्पन्न पाय ठ ४. मत्यवस्तुतत्वना प्रकाशक साधुओना वर्शनमा अभावधी पण सत्यवस्तु अशाम गाद थवाथी मिथ्यात्व प्राप्त पाय , ५. दृष्टान्त गाथा--" मा भेषण जमाली, पुच्चुग्गहियं मि या गोवि. वो । समग्गी सागभिरूम, गोठामलिलो अभिनियमे ॥ १॥ २ आ गोष्ठामाहिल दुधमाकालीन जीवोना उपकारार्थ बारे अनुयांगांने प्रधान पणे जुबाजुवा सूचीमा हुँचनार महाविदह क्षेत्रमाथीलीमम्वरस्वामि भगवन्त स्वयं श्रीमुरवे शकेन्द्र पाले वर्णन करायेल, शन्ने पोताना आयुष्य तथा निगोडाविषिचारथी परीक्षा करी साक्षाम् वन्दम करायेल, किश्विम्म्यम दशपूर्वधारका युगप्रधान भगवान श्री आर्यरक्षितसूरीश्वरजीमा शिष्यसमुदायमांमा माधु हता, संसारपक्षे तेमना मामा हता, स्वजनपक्षपात-नेट--गगादि हित श्री आर्य रक्षितरि भगवाने पीताना भाउ फल्गुरक्षित विगैरे मुनिओने छोरी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४४ ] ॥ मियाद्वारे आभिनिवे० मिध्यामाहियस्वरूपम् ॥ द्वार) शामसां पोताना मद्दश गुणसम्पन्न दुवैलिका पुष्प मित्रने सूरिपद आप पाथी मत्सरभाव पामेला आ गोष्ठामाहिल साधु अभिनिवेशभावयी कर्म जीवना संयोगविश्वमां तथा प्रत्याख्यान विषयमां विपरीत प्ररूपणा करवायी आभि निवेशिक मिध्याख पाम्या, अने ते कारणची श्रीसचे समर्थ व्यक्ति छतां पण संघा कर्या, तेमनुं विस्तारथी वर्णन आवश्यकचूर्णि वृप्ति-उत्तरा ध्ययन टीकाओं नवपदवृदवृत्ति विगेरेमां विस्तारथी आपले छे, तेजोमं क्षिप्तसार नीचे प्रमाणे- श्री ऋषभदेव भगवन्तं प्रत्रज्या लेता पहेला पोताना सो पुत्रो पैकी अवन्ती नामना पुत्रने राज्यभाग तरीके आपली प्रदेश अबती देश तरीके प्रसिद्ध थयो हतो, तेनां अनेक मुख्य भगरां पैकी दशपुर नगरमां इतशत्रु राजा अने तेनी धारिणी पट्टराणी हती, ते राजाना अनेक अमात्यी पैकी ब्राह्मण सोमदेव मन्त्री अने सोमदेव मन्त्रीनी तमाम शास्त्रना भावने जाणनार जाणे मानात् सरस्वतीज न होय ? तेत्री श्रीजिनेश्वर शासनमां हाकानी भींज सुधो प्रेम रागथी रंगायेल आषिका रुद्रसोमा नामनी श्री ही श्राविका रुद्रसोमाने कोइ दिवस रात्रिला चोया पहारे " प्रतिपूर्ण क लमही शोभतो द्रमुखमा उमां प्रवेश करे तेषु शुभ स्व आयु, प्राभाशिक मङ्गल बाजत्रमा शब्दयी जागेल रुद्रसीमा आवश्यकादि सकल कृत्य यथाविधि करी परमानन्दयो पूर्ण थया छतां रहे तेज रात्रिय स्वप्रभाव सूचित पुत्ररूप गर्भ रह्यो, अनुक्रमे पुत्र जन्म थयो, प्रियङ्करा दा सीप राजाने तथा सोमदेवनं वधामणी आपी रक्षित नाम स्थायुं, कालान्त रे मनो बोजो नानो भाइ फल्गुरक्षित थयो, पिता पांसंधी तमाम विद्या रक्षितकुमार भण्या छतां "त्रियासु असंतु पुरिसेल होय' 'संतोष विषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने । त्रिषु चैष न कर्तव्यां दाने अध्ययने तपे ' आ घा क्योनो विचार करतां रक्षितकुमार पितानी तेमज राजा विरेनों हुकम ला पाटलीपुत्रमां जा ऋग, साम, यजुः, अथर्वण पवार वेद, शिक्षा, कल्प, ज्योतिष, निरुक्त, व्याकरण, नि प छ अङ्ग, इतिहास, मीमांसा, पुराण, धर्मशास्त्र (स्मृति) ए चाँद विद्यास्थानमा पारङ्गत थया, पाछा दशपुरमा आव्यर, वणील सत्कारपूर्वक प्रवेशमहोत्सव राजा पोले सम्मुख जवा साथ कर्या, महोत्सव सहित राजभवनमा जथा पूर्वक पोताना घरे आधी मातवितामें पगेलागी सभामण्डप बेठा, ते नगरमा तेयो को पुरुष नथी के कोइ श्री नथी के जे भेटणा साथ मेमना दर्शने त्यां न आय्या होय ! मात्र पां 1 一 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = - =- =- = २५) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ।। (सा. १४९) [३५] तानी माता भाषिका रुद्रसीमानं हर्ष--स्वरहित गृहकार्यमा पत्र दाने तेमणे विचार्य के मारा आपयामां सर्व मागरिको हर्ष पाम्पा, विशेषथी मि प्रयन्धु परिवार राजा अधिकारिधर्म साथ पिता हर्ष पाम्या पण माता मध्यस्य देखाय छ माटे जहर कांइक कारण होवू जोपये ! ए षिवारमां ने विचारमा आयेला तमाम लोकोनु स्वागतादि करी, तमाम दिनकृत्य नीषटा. वी सन्ध्याकार्य पीस्याबाद विनयपूर्वक मातापांस गया, भक्ति-बहुमानसहित माताने धरणे मस्तक नमायु दीगवरने माताने नममा कयु, पूज्य माताजी ? आप मध्यस्य के देखा आधिका सहामार तेणे भणेला शाखोर्नु आत्मकल्याण टिए निरर्थकपण, मिथ्यात्वपर्धकपणु, इएफलनु नहि उपजाधवापणुं बताषी पोतार्नु दुःख निवेदन कयु, छेवटे कई के. ओ मने तेमज सर्व माणिवर्गने साचो हर्ष उत्पन्न करवा इच्छतो होय तो है वत्स १ घण लोकने मुखावह परिवाद शाखनु अध्ययन कर्य!!! माताना वचनयी नया रात्रे इष्टिवादनो अर्थ विषारी दशपुरनगरथी नजीकना इचगृहउचाममां रडेला लोसलिपुत्राचार्य महाराज पांसे प्रभातमा जवा नीकळपा, मार्गमा पहेलपोला नजीकमा गाममा रहेनार नघ मंपूर्ण भने वशमो खण्डित पयेल पटळा शेरडीना सांगाना भेटणा साथे आषता पिताना मिश्ना शुभ शकुनयी उत्सवात माहित आगळ वधवा साथै भेटणु माता पांम मोकलाव्यु, अनुक्रमे उपान नजीक पहोच्यो, साधु पांसे जवानी मामाचारी वन्दनषिधि आदि नहि जाणवायी विधिना जाणकार श्रात्रकनी राह जोनों शोहीवार योभाय छे, सेवामा पक उड्डर स्वरवाळा आपकने साधु पाल जना जोर लेनी पाछळ चाल्यो, भाषक मोटा शन्दे साधुना उपाश्रयमा पमता प्रण मीसीही, दिया प्रतिक्रमण साधुयन्दन म कयु तम नमाम क्षिनकुमारे कार्य पण प्र. यम भाषक आघल न होषाथी भाषकनो प्रणामविधि दरदर भापये की नहोतो जेथी रक्षितकुमार ते जाणी शक्या नहि अने प्रथम प्रवेश करेल दइटर श्रावकने प्रणाम कर्यो नहि, आचार्य महाराजे नवीन श्रावक जाणी मनाछि पूछता साधुओए रञ्जितकुमारनु स्वरूप कटु, आगमनन कारण दुष्टिवाय भणवा माटेनु अणावता आचार्य भगवरने " जो मुं प्रवज्या ला सुहबतबाही पाश तो अनुक्रमे तमने पुष्टिषावनी. लाभ मळशे' दंष्ट्रय आनाथ भगवन्ने मर्ने भाषि शासनप्रभाषकपणुं जाणी अम्यत्र ला जइने दोक्षा आपी ने मनुं नाम आर्यरक्षित स्याप्यु. पोडाज काळमां के शिक्षाओसाथ अगीयार अङ्क तथा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४६] | मिथ्याष्टिबारे आभिनिवे०मिथ्यात्ये गोठामाहिलम्वरूपम ॥ द्वार) सोमलिपुत्राचार्य महाराज पांमे जेटलं दृष्टिवादश्रुत हनुं ते मर्य भणी गया, त्याग्बाद श्रीगुरुमहाराजाए ते कालमां युगप्रधान श्रीवनस्वामि महाराजा पुरीकानगरीमां बीगजतां उता नेमनी पांमे दृष्ट्रिवादनो घणो मोटो भाग ( सण दश पूर्व ) छ तम जाणी वीजा माधना परिवार मार्थ आर्यरक्षित मुनिने भणया मात्रे मोयल्या, विहारक्रमे उज्जयिनीमां पधार्या त्यां श्रीभत्र गुतम्ररि महाराज स्यविरक्षमाश्रमण युगप्रधानने विनयमाहित बन्दना करी पोतानो वृत्तान्त निवेदन को श्रीभत्र गुमाचार्य महागजा पोतानो नजीक समय जाणी शरीरनी मलेखना करी अणमण करवा इच्छावाला होइने पोता पांसे सेवा गीतार्थ गिर्याल (नीजामा करकार सरमामः माधि क. राधनार ) न होवाना कारणे मने नीजामणा करावीने तमे अजो तेम फरमान्यु, श्रीआर्यरक्षितजीए. पण तहत्ति ( पचनप्रमाण ) करीने स्वीकायु, काळ करना क्षमाश्रमण युगप्रधान श्रीमन गुप्नाचार्य. भगवन्ते छवटे फरमाव्यु. "तमो श्री आर्यवतम्यामि माथे यमति ( उपाश्रय ) मां न रहेतों भिन्न वसतिमा रहीने भणजो कारण ममा प्रषचन [शामम]ना आधार यशो अन जे सौपक्रमायु श्रीवत्रस्वामि सार्थ पक रात्रि पण निवास करे से तमनीज माथे अणमण करी काळ करे, (अर्थान श्रीवास्यामिनी नेत्री अपूर्व लब्धि हती के तमनी सार्थ एक रात्रि रहेनारने पण नेमनी ज लार्थ अणमणना परिणाम थाय ! ) श्रीआर्यरक्षितजीए तहति अङ्गीकार करी श्रीभत्रगुप्ताचार्य भगवान देवलोक पाये छते श्रीयनस्वामि भगवान पाम पधार्या, 'जुवा उपाश्रये उनर्या, अहि तेज गत्रिना छल्ला पहोरे श्रीआर्यषजस्वामि भगयानने ''कोई आगंतुके. ( अतिथिए ) मा खीरयी भरेल सम्पूर्ण पात्रु कांइक मावशेष रहे तेम पीधु ' आव स्वप्न आन्यु, जाग्या बाद माधुओने की. जुवो जुयों अर्थ कहेनां साधुओने पोते ज फरमायु. में “मारी परमेथी कार माधु आवी खीर समान श्रुतमान ग्रहण करशे पण कांडक अवशेष मार्गपाम रहे पटले क संपूर्ण ग्रहण करी शकशे नहि' नेपामां श्री आर्यरक्षितमी पधार्याः यथोक घिधिनाहित बन्दना करी, श्रीवनस्वामिभगवते स्वागत पृथ्वा साथै पृछेला कांथी अने शा कारणे आन्या अने क्या रभर छ। १ प प्रभोगा उत्तरमा पोतार्नु वृत्तान्त नियंदन कग्या सार्थ क्यारे घटे वहार जुवी वप्ततिमा उत्तयाँ छु नेम का स्यारे श्रीवनस्वामिभगवाने 'जुदी बमतिमा रहेनाग्ने केवीगन अध्ययन थशे तैम फरमावधायी श्रीभद्र. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ ॥ श्रीलोकमकाशे तनीयः संगः ॥ सा० १५५) (३४) गुप्ताचार्य भगवागर्नु फरमान निवेदन फयु के-आर्यषन स्वामि माथं एक षसतिमा रहंशा नहि !" घियायु के भगवान श्रीभत्रगुतावार्थमहाराजनुं मिकारण निवारण होय नहि ? उपयोग आप्यो, कारण स्वरूप जाण्यु, भणापवानी अनुमति आपी शरमात करी, थोडा काळमा श्रीआर्यरक्षितजी नय. पूर्व भणी वृक्या, दशभु प्रारभ्यु. तंत्रामा मातपिताप यालाषया संदेशों कहाल्यो ! छेवटे संदेशाधी न आव्या स्यारे सांसारिकपक्षे तेमना लघुनन्धु फलगुरक्षितने त्यां मोकल्या तेमण श्रीगुगने बन्दना फरी पिना आदिन थपेला वियोगदुःखनु शान्तवन करवा प्रार्थना करी, यनस्यामिजी ने चिनति करी सेमणे भणवा माटें हुकम कर्यो, आगल भणयानो प्रयत्न शर राख्यो, फल्गु रक्षिते वीजा उपायथी नहि आवे तेम थिचागे कायुं भाइ जो आप पधारशो तो आपना दर्शनी माता-पिता विगेरे मर्व पण भाषलाय दोसा ग्रहण करशे." फल्गुर झिनने त्या प्रथम दीक्षा आपी बेजप्रकारे शिक्षाओ शीखवी पछी तेमनो आग्रह अवाथी भीवनस्वामिजीनी आRI मांगी छेवटे, मेरु-सर* सब, समुद्र-जलबिन्दुनुं वृष्टान्त सांभळ्याथी उदवेग पामेला जौह दशा पूर्व माराथीज विच्छेद पामशे तेम अतशामथी जोधु अने रजा आपी. विहार फरता वशपुरमां पधार्या, श्रीगुरुमहाराभ तीलिपुत्राचार्य भगवंत आचार्य पद स्थाप्या, सर्व स्वजनबर्गने दीक्षा आपी तेमना पिता पण तेमना म्नाथी गृहस्थलिंग सहित तेमनी माथेज रहे छे, अनेक उपाय नेमने दीक्षा प्रापी तमना कुलिंग साधनो छोडाव्या उपायथी गोचरी (भिश्नाचर्या) प्रवृति कगषी, पण महालब्धिपात्र हता, तेममा समुदायमा योजा पण प्रण साधु परमलधिसम्पन्न हता. १ यत्रपुष्पमित्र रचतपुष्पमित्र आ बेड पण द्रव्य-शंघ-काल भात्री जेटला जेवा प्रकारना अनुक्रमे वला तथा घीनु समुदायने प्रयोजन होय तेरले तया प्रकाग्ना प्रव्यक्षेत्र-काल भाषवाटु लाबधा समर्थ छत्रीला दुलिका पुष्पमित्र जे हमश स्वाध्याय मा उद्यमशील. नवपूर्वयी अधिक भण्या छे,निरन्तर स्थाध्यायधिताधी दुर्वल थाय छे, जो न चिम्मषन करे तो विस्मरण थाय छ, आवेनुयो दुबलिका नाममी पसिद्धि था छ तेमना कुटुंबी चौद्रभक्त हना, तेओए आचार्य भगवान कप, अ बौद्धोमा ध्यागविज्ञान छे तेवु वीजामा मथी, श्रीप्रामार्य भगवन्त दुलिकापुष्पमित्रना शान्तयी परीक्षापूर्वक ध्यानमिद्धि घतात्री, विशषे धर्मदेशना सोमवाथी तेओ भाषक थया घळी ते गच्छमा विशेष ज्ञानादिगुणवान चार साधुओं जेमां मुख्य दुर्वलिका पुरुपमित्र (जमर्नु बरूप पर कई Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४८) ॥ मिथ्याष्टिवाराभिनिवे मिथ्यालये गोष्ठामाहिलस्वरूपम ॥ द्वार -- . -...-. . २ फल्गुरक्षित (आयरक्षिनधिमहाराजामा लघुबन्धो. ३ विन्ध्य नामना. ४ गोष्ठामाहिल (जे आवायधीना मामा हता ) विन्ध्य माधु महाबुद्धिमान होबायो अनुक्रमे श्रेणि {परिपाटि)थी मृत्रवाचना लेता खिन्न धाय छ. श्रीजा षाचनाचार्य माटे प्रार्थना करे छ, तेमने दुर्वलकापुस्पमित्र याचनाचाय तरीके सोप्या, कटलाक दिवस याद विन्ध्य साधुने वाचना आपी, श्रीगुरुमै प्रार्थना करे छ, भगवन ! वाचना आपषामां मागथो धाकीनं श्रुत गणानु नथी, पहेला संवन्धिषर्गने त्यां जवाथी भूली गयो ? अने हवे जो न गf तो सर्व धृत विस्मरण थशे, गुरुमहाराजाप चिम्नव्यु. के वृहस्पनिममान धुद्धि घाळा मिन्य स्मरणकरनार आमने जो विस्मरण थाय छे ते श्रीजा पुरुयोनी गणतरीज शी ! अतिशय भुनोपयोगथी भावि शिष्योनी खुद्धिमन्दतान स्वरूप जाणी मुख्यताप चारे अनयोगांने जवा जदा । मन्त्रीमा ) क्या, कोड दिवस श्रीआचार्य भगवान विहार करता मथुरापुरीना भूनगुफा चैत्यमां पधार्या ,, तेयामां महावित क्षेत्रमा श्रीसीमन्धरस्वामीपांस सौधर्मा धिपति बन्दना करी निगोवर्नु स्वरूप पृटे रहे. श्री भगवते श्रीमुग्वे यथार्थ स्वरूप वर्णव्यु, पळी शन्द्र " भग्नक्षधमा पूछयाधी निगीदम्वरूप कहीं शके तेया ममर्थ कोर छे', मेम पृच्छय, श्रीमीमम्धरम्यामि भगवने आयरक्षितसरि फरमाव्या, साधुओ गोचरी गये छतं अकेन्द्र घरहा माणरूपे परीक्षा फरवा आव्या, पोताना भायुष्यन स्वरूप पृछ, आचार्य भगवंत मा युष्यमा उपयोग आपता शकेन्द्र छो तेम फरमायु, निगोवन यथाय म्पका का, बन्दना करी जबा लाग्या, साधुओ तमोने क्षेबवाधी धर्ममा स्थिर थशे नेम जाणी माधुओ आषता सुधी क्षणवार धोभाधा कयु, अम्पसत्य होबारी साधुओ निया' करशे नेम जणावी बनतिनुं मार फेरववारूप चिन्ह करी शकेन्द्र गया, गोचरोथी साधुओ आन्या, हार न मधमाधी आ तरफ घाने आलो तेम कहेता आचार्य भगवंते शकेन्द्रमा आगमन साथे तमाम सकीकत करी, पळी को अवसरे श्रीआयर क्षिरि भगवान शिष्य मंडल परिवार समेत दशपुरनगर तरफ बिहार कार्या, वामां मथुरापुरीमा पक नास्तिक ( परलोक-जीव-सर्वज्ञ विगेरे इन्दियविषयातिक्रान्त पदार्थ कोइ छ नष्ठि लेम कोनार ) बादी आल्यो. नेणे तमाम नगरलोक षश कयु, कोरपण तेने उसर आपषा समय नथी, मथुराना श्रीसंधे शासनप्रभाषनाना कारणं इ. शपुर नगरमा युगप्रधान श्रीआयरक्षितम्ररि महागजाने मंदेशो मोकला Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः मर्गः ।। सा० १४० (३४) व्यो, वृद्धावस्थाना कारणे पोने जत्रा भमर्थ न होबाथी धावलम्धिमा श्रेष्ठ गोष्टामालिने मोकल्या. तमना मथगमां पधारमाधी नगरलाको हर्षपूर्ण धया, श्रीसंघ आनन्दित धयो. तमाम दर्शनवाळा मंतोष पाम्या. बीजे विषम उधित माधुभमुदाय महित गोदामाहिल राजमभामां गया. राजाप प्रणाम करवा लाये आमन अपान्यु, साधुओं महित गोष्ठामाहिल वेठा. नमाम श्रमि--सेनापति सार्थवाहवर्ग विंगरे लोकोए करी ममग्र राजसभा प्रणं भरा. स्थसमय परममयना झाणकारना कुलमा जन्मेला, क्षमागुणे प्रख्यात भेट - क्षने मम्मत सभ्य पण्हिती पण आल्या, नरथिषाण ( गधेडान शीगई ) नो माफक विषयातीत माथ, संयज्ञ विंगरे पदार्थना निषेधरूप स्वमानस्थापना कर्ये छते गोप्टामाहिले समर्थ यूनियोथी तेर्नु मण्डन करवा पूर्वक जीवाविपदार्थी मित्र कर्या, नास्तिकवावी निरुत्तर भयो राजाग देशपारनी शिक्षा करी श्रीश्रमणमघनी प्रशंसा पूजाओ थइ, घरमतीर्थकर भगवान श्रीबद्धमान स्वामिनु शासन जयवन्तु वर्ने छ. म राजाप उघोषणा करावी, वर्षाकाल प्रा थषाथी भावकोप गोष्ठामाहिलने धोमासु राख्या. अहीं श्री आर्यरक्षित सूरि भगवन्ते पोतार्नु स्वल्प आयुष्य प्राणी गच्छने बोलाची भाचायपदे कोने स्थापना ? तेम पूछा. स्वजमना रागधी गम्छ फल्गुरक्षित अथवा गोष्ठामाहिलने स्थापना गमछ पोतानो विचार निवेदन कयां, पक्षपातहत भी आचार्य भगय ने दुलिकापुष्पमित्रने गुणनिधान जाणाधी फरमान्यं, हे श्रमणों ? पफ पालनो घडी १. बीजी तेलनो घडी २, प्रीमो धोनो घडी ३ ग प्रणेने अधोमुख करना अनुक्रमे बाल तमाम खाली थाय, नल थोडे पण घोएडायल रही जाय, अने घी चोटी गयेलं घणु घाको रहे है. तेज प्रमाणे दुर्बलिकापुरुषमित्र प्रत्ये मूत्रः-अर्थ-तभय नम्वन्धमा है वालना घडा ला टुं. फल्गुरक्षित प्रत्ये मलना घडातुल्य अने गोष्ठामाहिलना सम्बन्धमा है घीना घडा मरखाँ छ, माटे हैं महानुभावी ? मृत्रार्थ उभय युक्त आ दुलि. कापुष्पमित्र आचार्य पवने योग्य छ, मारा धनयी तेज आचार्य थाओ. गले 'तहत्ति । मीका लिफापुष्पमित्रने आचार्य चाप्या. आचार्य भगवान फरमायु, फन्गुरक्षित, गोष्ठमाहिल थिगरेने में अशी रीत ममाया नेम नमारे पण संभाळधा, फागुरक्षित विगैरे पण काय के तमारे पण माग तुल्य अथवा माराथी पण अधिक नधीम आचार्य ने मानधा, गुणनिधान श्रा महापुरुषना प्रधनथी विरुद्ध यतं नहि । विगैरे विगेरे घेउ बर्गन शिक्षा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reci || मिध्यादृष्टिरेआभिनिवे: मिथ्यात्वे साहिलस्वरूप ।। छार वचनो फरमाची गीते अणमण करी परमेष्टीमनी जाप पधार्या, चोमा पूर्ण धया बाद गोष्टामाहिले दशपुरनगर तरफ विहार कर्या. करता देवलोक लोकांना सुखी युगप्रधान भगवान् श्री आर्य रक्षितरि महाराजना स्वतन शान्त जाण्यो दशपुर मां आध्या, षाडना घडाना छष्टान् श्रोदुलिका पुष्प मित्र भगवान्ने आवापदे स्थापला जाण्या, मत्सर जगवाथी जुड़ी बसनिमा रथा, ते आमला जाणी श्री आचार्य भगवन्ते श्रीफल्गुरक्षित विगेरे सुनिन मने बोला मोकल्या, तेमने आडोअपको उत्तर आपीने गोष्ठा माहिल स्यांजरा श्रीजा साधु श्रावक विगेरे कां छतां पण उपाथये न आया, आचार्य भगवन्ते उपदेश्यु के कषायोनुं माहात्म्य शुओ, जिनवचनना सोना जाणकार आचा उत्तमपुरुषो पण कषायोथी क्लेश करें है, अथवा आश्रय शुं हे ? मोटा गुणवान पुरुषे उपशमभावे करेला कषायो यथाख्यात चारित्रीने पण नीचे पाईछ तो सुरागस्य जीवांनुं कहे शुं ? ? ? ते बजते श्रीआचार्य भगवान् विन्ध्य विगेरे माधुओने आदमुं कर्ममवाद पूर्व भणाये छे मत्सरभावथी श्रीआचार्य भगवान पांसे आया असमर्थ गोसाहिल पाठ गोवता विन्ध्य साधु पांसे आत्री रोज बेने हे पक "केटक कर्म सुकी भत उपर सुका चूर्णनी प्रेम ओषप्रदशनी साथ संबन्ध मात्र थयेले तत्काल छुप छे, वही के लुक कर्म भीनाशवान्ळी भीत उपर नांखेला चीकाशवाळा चूर्णनी जेम वज्रस्पृष्टपये लांबे काले बुड़े पढे अने कंटक कर्म दूध पाणीना दृष्टान्ते जीवप्रदेशी साथे रिकाचित थयेले बहुकाल सुश्री वेदवा लायक छे. आ मनाने प्ररूपता विन्ध्य माधुने गोण्डा पाहिल क े के जीवप्रदेशनी साथै अन्योन्य ध्यान जो कर्त यह जाय तो सेना वियोग न यह शकवाथी सर्व जीवोनो मोक्षभावप्राप्त थशे " मारे "सपने उपर लागेली कांचळी अयन्द्र ( शरीर साथ आत्मीकृत नहिं ) छतां जेम स्पष्ट ( शरीर उपर चंदिली रेणुनी प्रेम ) मात्र रहे छे तेम ओवप्रदेशनी माघे कर्म पण अवद्ध छतां स्पृष्ट मात्र योग . " विन्ध्यसाधु कहे छे के श्रीगुरु महाराजे उपर मारा कथा प्रमाणे अ व्याख्यान कई छे. गोष्ठा० तारा गुरु शृं आणे छे ? विन्ध्य साधुना मनमां शङ्काया के कदाचित श्रीगुरु भगवाने सत्यस्वरूप व होय पण हें विपरोत करें हशे ! माटे जाने श्रीगुरुमहाराजने पुछु, विनयथी नम्र या श्रीगुरुमहाराजने कर्मस्वरूप पुछ, गुरुमहाराने उपर प्रमाणेन वर्णव. बळी कं के सामने जाणता छतां शामादे : ?+ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मुं) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० १४२.) (३५१) आ शका थड़ ? न्यारे विन्ध्यमाधुए गोष्टा र्नु वृतान्त निवेदन कर श्रीगुरु महाराजे गोष्टा ने कथन यु मिश्यास्थरूप वाले युनिसा वर्णम्यु. गोठामाष्टिले ने फा के अन्योन्यच्याप्ननो चियांग न थाय पण ते अमात्य छ. कारण अन्योन्यच्याप्त वृधपाणीनो पण उपायथो विभाग पढे छ वकी कमषियोग न थाय ते पण खोटु छ. मरणममये आयुष्यकर्मको वियोग धाय. छ, पळी कर्मनो कचकनी जैम बायस्पर्शमात्रज होय तो सिद्धमहाराजनी जैम फर्मनिमिते धवावाळी अभ्यन्तर वैवनाओं कर्मना अभावी न थषी जोइप. अने ते तो अनुभवविरुथ छे, इत्यादि श्रीगुरुभगवन्ते फरमायला अनेक विचारों सांभळी विन्ध्यसाधुप गोष्टा ने तमारो विचार बगर विचाऱ्या ( विधार रहित ) छ तेम कहेवाची गोष्ठा• उत्तर आपवा समर्थ न रमा छतां विचार्यु के-जयमुं पूर्व सम्पूर्ण थया वाद पमनु अपमान करीश, कॉड दिवम नवमापूर्वमां साधुजामा पश्चरखाना अधिकारमा " जाधव मुधी प्राणानिपातन पचरूखाण कर " इत्यादि सांभळीने गोष्ठामाहिल कहे रहे जे "कालना परिमाण ( अवधि ) रहितपणे पञ्चशण करयु तेज कल्याणकारी रंतु ' विन्यसाधुए तेमनु यचन अयुग कहेवाची गोष्टमाहिले नवम पूर्व पृण थयु र तम जाणीने विनयप्ताधुने कां " तुं शं कही शर्क ? जे तमाग आचार्य बलिकापुष्पमित्र छ तेमने ज कहया घी ' आ प्रमाणे कही श्री. चार्य भगवान्, पामे आधी बोलत्रा लाग्या " श्रीआयरक्षितमुनि महाराने व्याख्यान कर्या प्रमाण तमे शा माटे प्ररूपणा करता नथी ? श्रुतमम् मदो. न्मत्त पनी सूत्रनी आशातना न करो ! श्रीआचार्य भगवान पांसे पोतानों (प्रत्यारण्याननी अपरिमितस्थितिनी) पक्ष कां,श्रीआचार्यदेव पण मी तमारी विचार युक्तिवाळी नयी ने सम्बन्धमा मांभळो यावीषर्नु कालपरिमाण करयाथी आशंमायोग मुनिओने लागशे ? प साइन अयुक्त छ, कारण पचम्टबाण करेल होषाथी ने भयमा आशंसा होर शकनी नथी, वळी कालावधि न का होत तो देवपणाम अविरति आधाथी मतनो मर गान माटे अभिनिश छोडीने यथार्थ वचम स्वीकार करी आ प्रमाणे कया छता ग्यारे का छतां कदाग्रह छोडता नथी त्यारे अन्यगच्छीयस्थघिरोने पृथु तेओष पण भगवान् दुर्वलिकापुष्पमित्र महाराजना कधन प्रमाणेज करवाथी रोषमा आयल भीष्टा बोलवा लाग्यो, तमे म पण कांश जाणता नधी भगवान श्रीतीर्थरईये आ प्रमाणेज निरूपण कर्य ,. तेऔप पण नेनी सभ्मस्वज फर है गोष्ठा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) || मिध्यादृष्टिद्वारे आभिनिवे० मिध्यात्वे गोष्ठामा हिलस्वरूपम् ॥ द्वार ] जिनेश्वरे कहेला तत्वोमां देवी अथवा सबंधी शंका थाय ते सांशयिक मिथ्या० कहेवाय ||६ ९४।। तथा जे अनुपयोगपणाथी उत्पन्न धरेलु (अव्यक्त) ते अनामोगिक मिथ्यात्व के जे मिथ्या० एकेन्द्रियादिकने होय हे ते पांच मिध्या० छे. ||६९५ ॥ तथा जे दृष्टि होने छते सर्वज्ञे कला तत्त्वमां राग पण न थाय अने द्वेष पण न होय ते सम्यगूमिध्यात्वनामनी मिश्रदृष्टि कहेली है ॥ ६९६ ॥ जेम नाली र (ज्यो एकला नाहीयेरज उत्पन यता होय ते) द्वीपमा रहेनारा मनुष्यो धान्य उपर रागवाला नहि तेन पराळा पण होता नयी तेवीरोते मिश्रदृष्टिवाळा जोवो सर्वज्ञोक्त समांगळा होता नयी || ६९७|| जे कारणे कर्मग्रन्थकर्ताए कर्तुं छे के"जीव- अजीव पुण्य-पाप-मंत्र-योक्ष-अने निर्जरा (ए नवतव श्रीती करभगवंतनी आशातना न कर्य ! छतां पण अभिनिवेश छोडता नथी त्यारे समश्रीसंधै शासनदेवताने उद्देशीने कामोत्सर्ग कयों, आसन कंपायमान चतां उपयोग आपी शासनदेवी पधार्या श्रीसंघ कार्य फरमायो | तेम प्रार्थना की, श्रीसंघ महाविदेहक्षेत्रमां अइ भीतीर्थकर भगवंतने आचार्य श्रीसुलिकापुष्पमित्र बिगेरे श्रीसंघ सभ्य श्रादीछे के गोष्ठामाहिल ? " आ पूछीने एकदम पधारो, शासनदेत्रीय श्रीसंघ पासे प्रवामां निर्विघ्नता रहेवाने काउस्लग्ग करणारूप अनुप्रहनी याचना करी श्रीसंघ काउल्सग्गमां रखो. धोतीथङ्करभगवान् ने पूछी शासनदेषता श्रीसंव पांसे पधार्या भगवान् श्रीमुखे फरमाये छे के--" आचार्य श्रीदुवैलिकापुष्प मित्र विगेरे श्रीसंघ सम्यवादी अमे गोमाल असत्य छे. आ भरतक्षेत्रमा गोष्ठा सातमी मिश्नव . " आ सांभळतो रोषथो धमधमेल गोष्ठा " आ कपूतनामां भीतीर्थङ्करभग चन्तनः चरणकमलमां जवानुं सामथ्र्य क्यांथी होय ? " इत्यादि वचनोथी शासनदेवीमी आशातना करवा लाग्यो, श्रीसंघ तेने अभिनिवेशभात्र नहिं छोeer बिगेरे कारणोधी संबधाच कर्या. आलोयण मतिक्रमण कर्या शिवाय अभिभाषथी मिथ्यात्वदशाए पहोंची कालधर्म पाम्या आवत्रिमधी अनेक सारबिचारो उद्भवे छे. ते श्रगीतार्थ गुरुमहाराजना सदुपदेशथी जाणषा. १-२ : निमोदादि सर्व छे पण जे रीते रहेला कला परी अ केम सभा ? म बुद्धिनी मन्दताथी घती देशशङ्का कहेवाय, अने निगव बिगेरे जीषादि मूळथी इशे के नहिं १ प सर्व शङ्का ३ सर्व असंक्षिजीवाने मन नहि होवाथी अध्यक्ष मिध्यात्व ज होय. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५] ॥ीलोकप्रकाशे हतोयः सर्गः ।। (सा० १४९) [३५३] ना उपर जेनावडे श्रद्धा करे ते सम्यक्त्व क्षायिकादि प्रणा मेदवाळ (घणा भेदमांथी एक वा घणा मेदनुं सम्यक्त्र) होय ॥६९८॥ मिश्रमोहनीयथी जिनोक-धमपर एक अन्तर्मुसुधी रागने द्वेष नथी होतो, जेम नालीकर बीपना मनुष्यने अनाज उपर रागद्वेष नथी होतो तेम. तथा जिनोक्त धर्मथी जे विपरीत ते मिथ्यात्व कहेपाय॥६९९|| पुनः गुणस्थानक्रमारोहा तो ए प्रमाणे कधु छ के- 'जेम घोडी अने गधेहाना संगयो एक वर्णशंकर जाति (खच्चर) उत्पन्न थाय है, अथवा जेम गोळ अने दहिना संयोगथी कोइक बीजी जातनो रस उत्पन्न थाप छे नेम जीवने समद्धि होवाथी धर्म अने अधर्म बचे धर्ममा विलक्षण श्रद्धा उत्तन थाय छ तेथी जात्पनर रूप ( वर्णसंकर रूप) आ मिश्रसम्यक्त्व भाव उत्पन याय छे. ॥१-२॥ मिश्रष्टिजीवो सर्वथी अल्प छे, तेथी सम्यम्दृष्टिजीवी अनंतगुण अधिक छे, अने तेथी पण मिथ्याह० जीवो अनंतगुण अधिक है ( पर्याप्त पञ्चन्द्रिय जीवोमांज केटलाकने मिश्रष्टि होय छे, वळी ते कालथी अन्तमहर्नकाल मात्र ज रहे छे, माटे ने दृष्टिवाळा जोबो सर्वथी अल्प एटले असंख्याताज होय हे. अने सम्यन्टष्टिमीवोमां सिद्धभगवन्तो अनन्त होय छे. बळी दायिकनी अपेक्षाए सादिअनन्तकाल के. विगैरे हेतुओथी सम्यग्दृष्टिजीवो अनन्तगुणाधिक छे. एक निगोदा जेटला जीवो छे तेना अनन्तमे भागे सिद्ध जीवो . एटले के सिद्ध भगवन्तो फरतां एक निगोदना जीवो पण अनन्त गुण छे, तेवी असंख्य निगोदोनो एक गोळो, अने तेवा असंख्य गोळाओ लोकमां छे. ते सर्व तथा बीजा पृथ्वीकायादिनो मिथ्यात्वमां अन्तर्भाव छे. वळी मिथ्यात्वनो काळ पण केदलाकनी अपेक्षाए अनादि अनन्त छ, विगैरे कारणोथी मिथ्याष्टिमीवो अनन्तगुणाधिक छे. इत्याचयः)॥७००॥ इति दृष्टिद्वारम् ॥ २ पञ्चसंग्रहादि प्रयोमा झिनोका नवपर रागांपना अभावरूप कर्मप्रन्योका मिथसम्यक्त्पनु स्वरूप अङ्गीकार कर्यु छे. कारणके वर्शन अने कुदर्शन पन्ने पर राग होय तो अनाभिन मिथ्या० मा स्वरूपसरखु थायछे, छतां विलक्षणगुणनी प्राप्ति होवाथी गुणस्थानकमारोहनो उपरना आशय होय तम संभने छे. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दृष्टिछारयन्त्रकाणि ॥ । सम्यग्दृष्टिद्वारमा आवेला विचारोना यंत्रो । सम्यक्त्वना भेद. [१ प्रकारर्नु तस्वप्रारूप २ प्रकारनु स्वाभाविक, औपदेशिक. (निसर्ग) अधिगम) नैयिक, व्यावहारिक | ३ प्रकारनु ] कारक, रोचक, दीपक. अयोपशम, उपशम. सायिक. | ४ प्रकारच् | उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक, सास्थापन, ५ प्रकारनु उपशम, क्षयोपशम, सायिक, सास्वादन, पदक. ॥सम्यक्त्वयन्त्रम् ॥ सम्यक्त्व स्थिति कटलीपार कये गुणस्थाने वृद्धि प्रतिपा० भप्रतिक पमाय. अप:-अन्ममु० असंख्य १-५-६-७ मे | वृद्धि वा प्रतिपाति क्षयोपशम उ.- साधिक ६६ मागर पार. 1 उपशम जध-अन्लमु० चार | - था थी २५ । मा सुधी प्रतिपाति उ०- , आयिक मादि अनन्त जघमन्त 30 साधिक ३३ सागर पार अप्रतिपाति ४ था धी १४ | मा सुधी | सास्वावमः जय०-१ ममय उ.-६ आवलिका . | ২ বার बीजे प्रतिमामि जघउ- समय १ वार ] ५५६-७ में | वृद्धि Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५ ) ॥ श्रीलाकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १४५] सम्यन्वादिप्राप्तिमा स्थितिसत्ता. (३५५) - --- -- - (प्रसंगथी मोक्षणासि सुधीनो क्रम ) *मोक्ष (सकलकर्मक्ष सर्वविरनि (६ ला ७ मा गुणः नवनीय, आयु, नाम, गोरा मासि.) चार अधाति भवोपमाहित कर्मोनी भय थषाथी. संख्यातमागपस्थिति शैलेशी ( अयोग्यवस्था) घटाढवाथी. मन वचन काया पत्रणे योगोनो निगंध | *देशविरति (५ मा गुण प्रासि) करपाथी. पल्यपृथकवस्थिति केवलज्ञान (सयोग्यवस्था) घटाडवायी. मोहनीय ज्ञानाथ दर्शनानक अन्तराय प चार घातिक सम्यक्त्व (४था गुण प्रालि ) मांनी लय थवाथी. .. | उस्कृष्ट स्थितिओमाथी घग़ाही क्षपकणि (१२ मा गुण. सुधी पल्योपमना असंख्यात भाग पहोचवा माटेभी प्रवृत्ति) न्यून एक कोडाकोडी सा. संख्यात सागरोपमम्धिति गगेपम्पिति (अंतः पदाइयाथी. काडाकोडी माग उपशमणि (११मा गुण० सुधी খিনি) কাঘী पहोषवा माटेनी प्रवृत्ति) । संख्यात मारोपमस्थिति | मिथ्यात्व (१लंगुण.) __ घटाडबाथी. मिथ्यान्धमोहनीयना विपाकादयी ____ शका-जो सम्यक्त्वापसरे बाकी रहेली (अल-कोडाकोडी माग०) स्थितिथी पायपृथकत्व स्थिति खपाच्ये देशविरतिषणु पाम तो सम्यक्त्वमडित नवपल्योपमयी अधिकस्थितियाळा देवता धा नारकीमा उत्पन्न थयेला जीवने अथवा अधिक स्थितियाळा जीषने स्यां सम्पय उत्पम्न थया पछी भ्यां रखा छतां नवपल्यापम आयुष्य गया पछी देधिरतिपणु आअg मोरये ? नेम थाय तो तथा देवता नारकोने अधिरति फेम कहेवाय ? उत्तर-स्यां पूर्वस्थितिने सपावता छतां पण अवितिने गांगे जेटलु खपावे तेटलो नत्रो अन्ध पढे छे. एटले के पूर्वनी स्थितिमांधी औलाश बीलकुळ यती नथी, + आ यन्त्रमा नीना स्थानेर्थी उपर हड़बान स्वरूप छ, Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ष्टियारयन्त्रकाणि 1 ॥ सामायिकचतुष्के षड्छारयन्त्रम् ॥ धार निरन्तर प्रति | केटला भव सुधी आकर्षक | आकर्ष सामायिकनां | विरहका पक भषमा अनं कमলাম। যশিকান্ত : प्राप्त थाय ४ । ५ ] षमा असंख्य मध्यमतज २ समया ज घ०-१ भव उ-क्षेत्रपल्यास | सहन उ.-आपलिका ख्येयभाग समय मामायिक उ०-७ दिवस |' सहल २ प्रतसामा- ग ज -१ ममय जप-१ भष उ-आपलिका यिक गा ७ दिवम. उ०-अनन्तभव। जघ०-२ समय अ०.३ समय 30-क्षेत्रपस्योस ३ देशविर- जघ०-२ समय -[जघः-१ भव 3o-आपलिका भायेयभाग. उ०-१२ विषम तिमामा क्येयभाग समय प्रमाण सहन ४ सर्षविरतिर समय ज०-३ समय जघ---६ भव मामा० | उ०८ समय उ०.१५. दिवम उ०–८ भन्न शतपथवा माम ॥ रष्टियार यन्त्रम् ॥ गुणस्थान स्थिति अल्पाबाहुरव अनादि अनन्त - सम्यग्दरिथी अ. अनादि साम्त | सादि सात मन्तगुण ३ मिध्यारष्टि मिष्टि ३ जु । अन्तर्मुहत. | मर्यस्तोक ? सम्यग्दृष्टि | २.४ था थी. ज० अन्तर्मुहूर्त | मिश्रयी अन " | उ० सादिअनंत तगुण २ ॥जति समाग्यन्त्रकाणि ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १४९) | सामायिकचतुष्के विशेषविचारः ॥ -. (३७) क्षेत्र विचार - (माप्तिसमये ) सम्यक्त्व अने श्रुतसामायिक णे लोकम, सर्वविरति मनुष्यलोकमां, देशविरति नियैग्लोकमां (प्रतिपच ) सम्यक्त्व, श्रुत अने देशविति त्रणे लोकमां सर्वविरति तिर्यग्लोक अने अधोलोकमां, कहाचित ऊर्ध्वलोकमां. दिशावर - (क्षेत्र दिशा ) प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न पूर्वादि चारं महादिशामां चारे सामायिक होय!, एक प्रादेशिक विदिशा ओम जीवावगाहना न होart विदिशाओंम न होय, (तापक्षेत्र तथा मज्ञापकदिशा ) चारे सामायिकना afreeमान तथा प्रतिपन्न चारे दिशा तथा चारं विदिशाओमी होय (ताप तया प्रज्ञापक विदिशाओंमां महाममाण लेवाय ले. जेम भगवंतनी बार पढ़ाओ अमुक अमुक विदिशामा होय छे तेम कहेवाय छे. ) ऊर्ध्व-अधोए वे दिशाओमां सम्यक्त्व अने श्रुतनो प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय, देशविरति - सर्वविरनिनो 4-प्रतिपद्यमान न होय, पूर्वप्रतिपन्न ज होय ! ( भवदिशा ) एकेन्द्रियना आहे भेदोमां चारे सामायिकता प्रतिपद्यमान तथा पूर्वमपि न होय ! त्रण विकलेन्द्रियमां चारे सामायिकना प्रतिपद्यमान न होय तथा पूर्वमतिपत्र पण सम्यक्ल अने श्रुत ए वे ना होय, देश सबैविरतिना न होय, पंचेन्द्रियतिर्यचमां सम्यक्त्व - श्रुत अने देशविरतिना पूर्वप्रतिपन्न होय प्रतिपद्यमाननी भजना सर्वविरतिना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न न होय, नारक देवता, अकर्मभूमिज, अंतरर्जीपण मनुष्यों ए चारमां सम्यक्त्व अने श्रुतना पूर्वपतिपद्म होय प्रतिपद्यमाननी भजना, विरति न होय ! कर्मभूमिज मनुष्योयां नारे सामायिकना पूर्वमतिपत्र होयज, प्रतिपद्यमाननी भजना संमूर्छिम मनुष्योमां चारे सामायिकना पूर्वप्रतिपन्न तथा प्रतिपद्यमान चेउ न होय. कालद्वार - सम्यक्त्व अने श्रुतसामायिकना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपा छए आराम होय है. उत्सर्पिणीना श्रीजा चोथा अने अवसर्पिणीना जीजा " १. पृथ्वी १२ ते ३, वायु ४, मूलबीज ५, स्कन्धबीज ६, अग्रबीज ७, पर्वबीज ८. शोप्रिय ९ श्रीत्रिय १०, चतुरिब्रिय ११ पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च १२. तारक १३, देवता १४ सम्मूर्छिममनुष्य १५, कर्मभूमिज मनुष्य १६, अकर्मभूमिज मनुष्य १७, अन्तरीपज मनुष्य १८ आ अदार भेदोमां जीवनुं परिभ्रमण होवाथी अपेक्षाये शास्त्रीय परिभाषाथी भावदिशा १८ कषाय छे. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८) || सामायिकचतुष्के विशेषविचाः ॥ बार) चोथा अने पांचमा आरामां देश तथा सर्व विरतिना प्रतिपद्यमान तथा पूर्व पतिपन होय, संदरणने आश्रयी महाविदेनो कोइ जीव छ आग़मां पण प्रतिपत्र लाभे, प्रतिभाग ( सहरा त्रेण कालमां सम्यक्त्र अने श्रुतना *मतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय छे. पोथा प्रविभागकालमां चारे सामायिकना प्रतिपद्यमान तथा पूर्वमतिपत्र होय छे. काल चिन्ह रहित मनुष्यक्षेत्र चहारना द्वीपसमुद्रोमां सम्यक्त्व, श्रुत अने देशविर तिना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपक्ष होय, सर्वेविरतिना afaesare न होय पूर्वप्रतिपन्न कदाचित् होय, गतिहार - सम्यन्त्र अने श्रुतना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपक्ष चारे गतिमां दोय छे, देशत्रिरतिना उभय मनुष्य अने तिर्यंचगतिमां, सर्वविरतिना उभय मनुष्य-गतिमांज होय. भव्य तथा संज्ञिवार - चारे सामायिकना प्रतिपद्यमान तथा पूर्वप्रतिपन्न भव्य तथा संज्ञिजी हो. सम्म असंझिजीव जन्मकाले सास्वादनापेक्षा होय . अभव्यने निषेध है. उच्छ्वास, निःश्वासद्वार - वारे सामायिकना प्रतिपद्यमान तथा पूर्वप्रतिपन्न श्वासोच्छवासपर्याप्तजीवो होष है. अपर्याप्तजीव सम्यक्त्व अने श्रुतनी अपेक्षाये पूर्वमतिपन्न होय. नयदृष्टिद्वार —–व्यवहारनये सामायिकरहित सामायिक पाये, निश्वयनये सामायिक सविन पामे. आहारक तथा पर्याप्तवार - आहारक तथा पर्याप्तजीव चारे सामायिकना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपक्ष होय छे. विग्रहगतिनो अनाहारक तथा अपर्याप्तजीव सम्यक्त्व अने श्रुतना प्रतिपक्ष होय, केवलिसमुद्घात तथा शैलेशी भवस्थाना अनाहारक सम्यक्त्व तथा सर्वविरविना पूर्वप्रतिपन्न होय, सुसद्वार -- जागृतपुरुष चारे सामायिकनो प्रतिपद्यमान तथा पूर्वमतिपा होय, निद्रामृत चारे सामायिकनो प्रतिपन्न होय प्रतिपद्यमान न होय. जन्मबार - अंडज [हंसाद] अने पोतन ( हस्त्यादि ) मां सम्यक्त्व, श्रुत अने देशविरतिना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय, जरायुज (मनुष्य) मां चारेन्द्र १ सुषमासुषमा प्रतिभाग देवकुरुउत्तरकुरुमां १, सुषमाप्रतिभाग हरिव रम्यक्रमां २, सुषमाडुराभाप्रतिभाग हिमवन्सहिरण्यवन्त तथा अन्तरद्वीपमा ३. २ दुपमासुषमाप्रतिभाग महाविदेहमां ४, * सुषमसुषमाविमा देशोन पूर्वकोकमांज़ पाये छ. ( इति आवश्यकीया रिभवतिः ) . Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५मुं) ॥ श्रीलकमका तृतीयः सर्गः (सा० १४९) (१५) प्रतिपद्यमान प्रतिपन होय, औपपातिक ( देव नारक) मा सम्यक्त्व अने श्रुतना मतिपद्यमान अने प्रतिपन्न होय. स्थितिहार - आयु शिवाय सातकर्मनी उत्कृष्टस्थितिमां चारना उभय ( प्रतिपद्यमान, प्रतिपक्ष ) न होय, आयुनी उत्कृष्टस्थितियां (सर्वार्थसिद्धयां ) स म्यक्त्व अने श्रुतना प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय, सर्वकर्मनी मध्यम स्थितिमां चारेना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय, सातकर्मनी जघन्यस्थितिमां देशविरति शिवाय त्रण सामायिकना पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय, आयुनी जयन्यस्थितिमां चारेना उभय पण न होय, वेद, संज्ञा, कषायद्वार-त्रणे वेद चारे संज्ञा अने सकपाय अवस्थामां उभ य पण होय, अवेदि, अकपायी देशविरति शिवाय गणना प्रतिपन्न होय, आयुर्धार- संख्याता आयुवाळा मनुष्य चारेना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय, असंख्येय आयुवाळा सम्यक्त्व तथा श्रुतना प्रतिपन्न होय प्रतिपद्यमाननी भजना [ कोइक युगलिक छ मास शेषासु छते प्रशस्त लेश्या परिणामे सम्यक्त्व पामे छे, इति प्रज्ञापनापश्चमपदवृत्ति ) ज्ञानद्वार - (ओघे ) ज्ञानी चारे सामायिकना नयदृष्टिये प्रतिपद्यमान नथा प्रतिपन्न होय [विभागे] मति, श्रुतज्ञानी चारेना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय अज्ञानी सम्यक्त्व, श्रुत अने देशविरतिना प्रतिपद्यमान न होय, पूर्वप्रतिपन्न होय, सर्वविरतिना प्रतिपद्यमान तथा प्रतिपन्न होय, मनःपर्यायज्ञानी देशविरति शिवाय त्रणना पूर्वमतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय, देशवितिना प्रतिपद्यमान अथवा प्रतिपन्न न ज होय, सर्वविरतिना तीर्थङ्करमभ्रु समकाले प्रतिपद्यमान होय. haarat सम्यक्त्व अने सर्वविरतिना पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान नयी. योगद्वार - औदारिक सहितना त्रण योगमां चारे सामायिकना उभय होय, यस सम्पनत्व भने श्रुतना उभय होय, आहारसहिनमा देशविरति शिवाय त्रणेना पूर्वप्रतिपन्न होय, केवल तेजस फार्मणमां अपान्तरालगतिये स पूर्वमतिपन्न होय, (भविष्यति भूतवदुपचारः ए न्याये ) अगर संभवापेक्षया कायवायोगवाळा विकलेन्द्रियमां सम्यक्त्वथी पडता 'घण्टालाला' न्याये tatar सम्भये, केवलमनोयोगनी तथा केवलबाग्योनो संभव नथी, केवल औदारिक, fhani उभय न होय. उपयोगद्वार - साकार अनाकार क्षेत्र उपयोगमा चारेना उभय होय सर्व Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥मामायिकचनुप्फे विशेषविचारः ॥ सा) लब्धिओ साकारोपयोगे उत्पन्न याय ते वचन प्रवर्धमानपरिणामवाळा जीवनी । अपेक्षाये जाणवु) शरीरद्वार-औदारिकमां चारे सामायिकना उभय होय, वैक्रियमा सम्यक्त्वश्रुतना उभय होय देशविरति सर्वविरतिना पूर्वपनिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय, पाको शरीरमा योगदारने अनुसार जाणवू. संस्थान संघयणद्वार-सर्व संस्थानो तथा सर्व संघयणोमां चार सामायिकोना मतिपद्यमान तथा पूर्वप्रतिपन्न होय, अवगाहनावार-मध्यम अवगाहनावाला मनुष्य चारे सामायिकना उभय होय, लेण्याद्वार-द्रव्यलेश्यानी अपेक्षाये छये लेश्यामा सम्यक्त्व अने शुतना 'उभय होय, तथा देश अने सर्वविरतिना प्रतिपन्न होय, जो आदि त्रणमा देश सर्वविरतिना उभय होय, भावलेश्यानी अपेक्षाये जो आदि त्रणमा चारेना प्रतिपद्यमान होय, प्रतिपन्न ए लेण्यामां होय, __ परिणामहार-वर्धमान तथा अवस्थितपरिणाममा चारेना उभय होय, हीयमान परिणाममा प्रतिपद्यमान न होय पूर्वपतिपम होय. वेदनाद्वार-शाता अशाता उभयमां चारेना उभय होय. विषयबार- सम्यक्त्वमा सर्वद्रव्य सर्वपर्याय विषय छे, झुन अने सर्वविरतिमा सर्वद्रव्य विषय छे. सर्वपर्याय विषय नथी, देशविरतिमा सर्वद्रव्य विषय नयी तेम सर्वपर्याप विषय नथी. ___ स्पर्शकजीवसंख्या-(१) श्रुतसामायिक संव्यवहारराश्यन्तर्गत सर्वजीवोये स्पश्यु छे, (२-३) सम्यक्त्व भने सर्वविरनि सामायिक सर्व सिद्धजीवोये स्पध्र्या के. (४) देशविरतिसामायिक मरुदेवामामा विगैरेनी जेम एक असंख्यातभागन्यून सर्व सिद्धजीवोये स्पर्य छे. स्थिति-एकजीवापेक्षया (१-२) सम्यक्त्वसामायिक अने श्रृनसामायिकनी जघन्यस्थिति अन्तमुहूर्त, उत्कृष्टस्थिति छासठसागरोपम (३) देशविरतिनी जघन्य । सिद्धावस्था पामेला जीवोमी अपेक्षा उपरोक्त विचार छ ममारम्थजीवोमां पण स्पर्शकलीयोनी प्रानि छ, परन्तु ने सिद्धजीवी करतां स्वल्प छ. मेथी सेनी अपेक्षा लोधी नयी तेम संभधे छ. २ दशषितिना स्पर्शकजीवो पण संसारस्थ सभ्य छे. परन्तु ते पण एवं प्रमाणे सिद्ध करतां स्वरूप छे. तेथी प्रहण कर्या नथी तंम मभवं छ. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५] ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १४९) (३६१) स्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टस्थिति देशोनपूर्वकोटि (४) सर्वरितीनी जधन्यस्थिति ? सेमय, उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि, सर्वजीवापेक्षया सर्वसामायिको सर्वकाललभ्य थे, प्रतिपद्यमानजीवसंख्या-(१-२) सम्यक्त्व अने देशविरतिसामायिक पामनार जघन्यथी एक वा बे उत्कृष्टयी क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमाभागना आ. काशप्रदेशराशिसल्यापमाण (दशविरति करनां सम्यक्त्व पामनार असंख्यगुणाधिफ जागवा ) ४ श्रुतसामायिक पामनार उत्कृष्टथी घनीकृतलोकनी एकपदेशात्मक श्रेणिना असंख्यातमाभागगत आकाशमदेशप्रमाण, जयन्यथी एक वा चे, (४) सर्वविरति पामनार उत्कृष्टथी सहस्रशः प्रमाण जयन्यथी एक वा के. प्रतिपन्नजीवसंख्या-सम्यक्त्र अने देशविरनिनिपन्न वर्तमानसमये जघन्यथी उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान करता असंख्यातगुण, उत्कृष्टथी विशेषाधिक, श्रुतसामायिकपतिपन जघन्य वा उत्कृष्ट सप्तरज्ज्वात्मकमतरना असंख्येयभागगत असंख्यश्रेणि संबंधी आकाशप्रदेश प्रमाण. सर्वविरतिप्रतिपन्न संख्यातममाण. प्रतिपतिसजीवसंख्या-सर्वविरतिपतित अनन्ता तेथी असंख्यगुण देशविरतिपतित तेथी असंख्यगुण सम्यक्त्वपतित तेथी अनन्तगुण श्रुनपतित जीवो जाणवा. अन्तरकाल-श्रुतर्नु जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनन्तकाल,सम्यक्ष, देशविरति अने सर्वविरतिर्नु जघन्य अन्तर्मुहर्त उत्कृष्ट अपापुद्गल परावर्तकाल. निरन्तरपतिपत्तिकाल-चारे सामायिकनो जघन्यकाल बे समय, उत्कृट सम्यक्त्व श्रुत आने देशविरतिनो काल आवलिकाना असंख्यानमा भागमा आवेला समयममाण अने चारित्रनो आठ समय सुधी निरन्तर प्रतिपत्तिकाल छे. विरहकाल-उत्कृष्टथी सम्यक्त्व अने श्रुतनो सान अहोरात्र विरहकाल, जघन्यथी एक समय, देशविरतिनो जघन्यथी त्रण समय उत्कृष्टयी वार अहोरात्र, सर्वविरतिनो जघन्यथी त्रण समय उत्कृष्टथी पैदर अहोरात्र काल, ___ भवसंख्या-चारेनो जघन्यथी एक भव उत्कृष्ट्थी सम्यक्त्व अने देशविरतिना क्षेत्रपल्योपमना असंख्येयभागगतप्रदेश राशिप्रमाण, सर्वविरतिना आठ भवो, तसामायिकना अनन्तभवो. आकर्ष-सम्पक्त्व, श्रुत अने देशविरति एणना एक भवमा सहस्र पृथस्व, अनेक भवमा असंख्यसहस्र, सर्वविरतिना एक भवमां सतपृथक्त्व, अनेक भवोमां सहस्रपृथक्ल, १ पारिपरिणामना उत्तर समये आयुष्य क्षव थवायी. -- -- -- Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) || ज्ञानद्वारे मतिज्ञानप्रभेदव्यञ्जनावग्रहस्वरूपनिरूपणम् ॥ (द्वार क्षेत्रस्पर्शना- सम्यक्त्व अने सर्वविरतिनी जन्यथी लोफनो असंख्यात - म्रो भाग, उत्कृष्टथी सर्वलोक श्रुतसामायिकमी, लोक, देशवितिनी लोक स्पर्शना जाणवी. इत्यादि घणो विचार ले, विशेषजिज्ञलए विशेषावश्यकटीका- आवश्यकटीका विगेरे ग्रन्धो अवलोकचा. ॥ इति दृष्टिद्वारविचारः ॥ Tag: 2 मतिश्रुतावधिमनःपर्यायाण्यथ केवलम् । ज्ञानानि पञ्च तत्राद्यमष्टाविंशतिधा स्मृतम् ॥ ७०१ ॥ तथाहि || अवग्रहेहावायाख्या, धारणा चेति तीर्थपैः । मतिज्ञानस्य चत्वारो, भूलभेदाः प्रकीर्त्तिताः ॥ ७०२ ॥ शब्दादीनां पदार्थानां प्रथमग्रहणं हि यत् । अवग्रहः स्यात्स द्वेधा, व्यञ्जनार्थविभेदतः || ७०३ ॥ व्यज्यन्ते येन सद्भाव, दोपेनेव घटादयः । व्यञ्जनं ज्ञानजनक, तच्चोपकरणेन्द्रियम् ॥७०४ || शब्दादिभावमापन्नो, द्रव्यसंघात एव वा । व्यज्यते यद् व्यजनं तदितिव्युत्पत्त्यपेक्षया ॥ ७०५ ॥ ततश्च ॥ व्यञ्जनैर्व्यञ्जनानां यः, सम्बन्धः प्रथमः स हि । व्यंजनात्रमहोऽस्पष्टतरात्रवोधलक्षणः ||७०६ ॥ अस्य व स्वरूपमेवं तत्त्वार्थवृतौ ॥ यदोपकरणेन्द्रियस्य स्पर्शनादि (देः) पुन: स्पर्शाद्याकारपरिणतेः सम्बन्ध उपजातो भवति न च किमप्येतदिति गृह्णाति, किंव्वव्यक्त (वि)ज्ञानोऽसौ सुसमन्तादि सूक्ष्मावबोधसहितपुरुषवदिति, तदा तैः स्पशर्नाद्युपकरणेन्द्रियसंश्लिष्टेर्या च यावती च विज्ञानशक्तिरात्रिरस्ति सैवविघा विज्ञानशक्तिरवग्रहाख्या, तस्य स्पर्शनाद्युपकरणेन्द्रियसंश्लिष्टस्पर्शाद्याकारपरिणतपुद्गलराशेर्व्यञ्जनाख्यस्य ग्राहिका - same इति भण्यते, तेनैतदुक्तं भवति - स्पर्शनायुपकरणेन्द्रि Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६९) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः । [सा० १४९} (३६३) यसंश्लिष्टाः स्पर्शायाकारपरिणताः पुद्गलाभण्यन्ते व्यञ्जनं, विशिष्टार्थावग्रहकारित्वात् , तस्य व्यञ्जनस्य परिच्छेदकोऽव्यक्तोऽवग्रहो भण्यते,अपरोऽपि तस्मान्मनाग् निश्चिततरः किमप्येतदित्येवंविधः सामान्यपरिच्छेदोऽवग्रहो भण्यते, ततः परमीहादयः प्रवर्तन्ते इति (सा०१४९) रत्नाकरावतारिकायां चावग्रहलक्षणमेवमुक्तम् ॥"विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भुतसत्तामानगोचरदर्शनाजातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रह" इति । विषयः-सामान्यविशेषात्मकोऽर्थों, विषयी चक्षुरादिस्तयोः,समीचीनो-भान्त्याद्यजनकत्वेनानुकूलो, निपातो-योग्यदेशाद्यवस्थान,तस्मादनन्तरं,समुद्भुतम्-उत्पन्नं,यत्सतामात्रगोचरं-निःशेषविशेषवैमुख्येन सन्मात्रविषय,दर्शनं निरा. कारो बोधः,तस्माज्जातम्, आय, सत्वसामान्यादवान्तः सामान्याकारैः-मनुष्यत्वादिभिर्जातिविशेषैः, विशिष्टस्य वस्तुनो यद् ग्रहणं ज्ञान तदवग्रह इति नाम्नाऽभिधीयत इति ॥(सा०१५०) अत्र च प्राच्यमते दर्शनस्यावकाशं न पश्यामो,द्वितीयमते च व्यं. जनावग्रहावकाशं न पश्यामः, तदत्र तत्त्वं बहुश्रुतेभ्योऽवसेयं वक्ष्यमाणो वा महाभाष्याभिमतो व्यंजनावग्रहादीनां दर्शनस्य चाभेदोऽनुसरणीय इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ १ श्रीवादिदेवरि महाराजे रचेला आठ परिच्छेदमय सूत्रस्वरूप प्र. माणनयतत्त्वालोकालङ्कार" नामना ग्रन्धना श्रीजा परिच्छर्नु आ मुत्र . •आ प्रन्य उपर ८४००० श्लोक प्रमाण 'स्थानावरत्नाकर' नामनो स्त्रोपावृहदवृत्ति 2 अने नेमना शिव्य श्रीरत्नप्रभमगि महाराजे रत्नाकगवता रिका ' नामनी लघुत्ति अनाषी छे. कमभाग्ये स्याजादरानाफर मपूर्ण उपलब्ध यतो नथी. घटक त्रुटफ भाग मल्टीने लगभग २००७ (वीस हजार )लोक प्रमाण मळे छ. रत्नाकराषतारिकानां पाद अन्धकारश्री उपाध्यायश्री घिमयषिमयजी महाराजे मूळमां दाखल करेल छे. अने वृहदवृत्ति म्याहार Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४) ॥ ज्ञानद्वारे मतिज्ञानप्रमेदव्यअनावग्रहस्वरूपनिरूपणम् । द्वार रत्नाकरमो पाठ तेना अर्थ साथे आ नीचे आपीये छीथे. "विषयो द्रव्यपर्यायात्मकोऽर्थः । विषयी चक्षुरादिरिन्द्रियानिन्द्रियग्रामः । तयोः समीचीमो भान्स्यायनकत्वेनानुकूलो यो निपातो योग्यवेशाषस्थानम् । तस्मादनन्तरं समुदभूतमुत्पन्नं यत्सत्तामात्रगोचरं निश्शेष विशेषवैमुख्येन सन्मात्र विषय दर्शन निगकारबोधस्नम्माजातमा प्रथम सत्वसामान्यादयान्तरैः सामान्याकार मनुष्यत्वादिमिर्जानिविशेषैविशिष्टम्य वस्तुनो यदग्रहण ज्ञान सदरग्रह इति नाम्रा गीयते ॥ ननु दर्शनानन्तरमथग्रहो भरतीत्ययुक्तमुच्यते अपमहाविलक्षणस्य वर्शनम्याभावादिति, अत्रीच्यते, ततोऽमन्तरसमयभाविमेषु चक्षुरवग्रहमतिज्ञानावरणधीर्यान्तरायक्षयोपशमादतोपानीपष्टम्भकत्य मनुष्योऽयमित्यादिधिभाषितमनुष्यत्याधषान्तरजातिविशेष सानमुत्पद्यमानमयग्रह उच्यते इति मिन्द्रं दर्शनावप्रहयोविलक्षणस्वरूपत्वम् । अथ प्रथमसमयो. म्मेपसमुदभूतयालदर्शनमपि ज्ञानमिष्यते तहि तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्सम्यगामें पा, मिथ्याज्ञानम्वेपि संशयस्वभाषं तदभवेविपर्ययस्वरूपमनभ्यवसायात्म धा, तत्र न नाथसंशयविपर्ययात्मक मिथ्याशानं बाले मम्भवति, तस्य सम्यगतानपूर्वकत्वात् , सम्यग्ज्ञानं च प्राथमिकस्यात्तस्य नास्तीति, नाप्यमभ्यवसायरूपं वस्तुमात्रप्रतिपसे, नापि सम्यगक्षानं बालस्य दर्शन, अर्थाकारालम्बनाभावात् , किश्च यया मृसन्तुकारणभेवा घट्पटलमणकार्य भेदस्तया दर्शनहानावरणक्षयोपशमकारणभेदात्तत्कायदर्शनशानभेद इत्यस्ति प्रागपग्रहाद्दर्शनम् 1 ( इति वृवृत्तिः ) __ अर्थ-व्यपर्यायरूप पदार्थ ने विषय कवाय, (ने विषयने प्रहण करनार ) इन्द्रिय-अनिन्द्रिय समूहरूप वन विगैरे विषयी, ने बेउ' (घिययविषयी) नो भ्रम विगरे नही उत्पन्न करपा स्वरूपे अनुकूल व्याजबी जे योग्य देशमा रहेवा स्वरूप निपात यथायी अव्यवहिन उत्पन्न थयेल जे सत्तामात्र गोचर एटले तमाम विशेषस्वरूपना विमुखपणाप सतमात्रनेज विषय करनार ( ग्रहण करनार ) निराकार बोधस्वरूप दशन, तेथी (तं पानी ) श्रयेलु पहेळं सत्तासामान्यथी अधान्तर ( सत्तासामाभ्यना व्याप्यवृत्ति ) जे मनुष्यत्व विगैरे जातिभेदोरुप सामान्याकारोए करी विशिष्ट (सहित) यम्- . जे ग्रहण ( ज्ञान ) ते अवप्रव पवा नामथी सिद्धान्तमा गधाय छे. शETअयनहधी विलक्षण दर्शन न होपाथो दर्शननी पछी अवग्रह याय छे, ते अयुक छे.? समाधान-सत्तासामाभ्यना अयान्तर मनुष्यवादि धनि नहि ग्रहण करमार सन्मात्र विषयने प्रहण करनार निराकार घोधने दर्शन का इठे. अने ते पछी दुरत ज थता अनेक उन्मेवानां चक्षु घिगरोहन्द्रियोथी थमा अवग्रहरूप मतिझानना मात्र Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १५०) (३६५) __ अर्थ-|| २६ ज्ञानद्वारम् ॥ तत्र प्रथम मतिज्ञानम् ॥ मति-श्रुत-अयधि-मनाव- अने केवलज्ञान ए पांच ज्ञान छे. तेमा पहेलु मनिज्ञान २८ भकारनु कडेलु छे. ॥ ७०१ ॥ ते आप्रमाणे-अवग्रह-ईहा-अपाय-ने धारणा ए ममाणे श्री तीर्थंकरोए मतिनानना चार मूळ भेद कहला छे. ॥ ७०२ ॥ त्यां शन्दादि विषयोनु जे प्रथम प्राण ते अवग्रह व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रहना भेदयी वे मकारनो के. ॥७०३|| दीपकपडे जेम घटादि पदार्यों प्रगट थाय छे तेम जेना वडे पदार्थों (विषयो) व्यज्यन्ते-पगट कराय ते व्यञ्जन कहेवाय छे. अने ने व्यञ्जन ज्ञानने उत्पन्न करनार एवी उपकरणेन्द्रिय स्वरूप जाणवु ॥७०४|| अथवा "जे व्यज्यते-अगर थाय ते व्यञ्जन " ९ व्युत्पत्तिनी अपेक्षाए शब्दादि भावने माप्त थयेलो द्रव्यसमूह ज व्यञ्जन कहेवाय ।। ७०५ ॥ अने तेथी व्यअनो ( विषयो) साथे व्यञ्जनोनो ( उपकरणेन्द्रियोगो )जे प्रथम सम्बन्ध तेज अत्यन्त अस्पष्ट (अव्यक्त) ज्ञानरूप व्यञ्जनावग्रह कडेवाय ।। ७०६ ।। ध्यानावग्रहनुं स्वरूप श्रीतवार्थवृत्तिमा कर्यु छ (ने बनावे )-"ज्यारे उपकरणेरणीयकर्म तथा धीर्यान्तरायकमनाक्षयोपशमयी अङ्गोपाङ्गनु अवलम्बन कयें (टेको मल्यै) ते 'आ मनुष्य में इत्यादि स्वरूप जणायाछ मनुष्यन्य विगेरे अवान्तर नातिषिशेषो जेमा तेयु उत्पन्न थर्नु शान अश्ग्रह कहेवाय छ, आ रीते दर्शन अने अपग्रहन भिन्न स्वरूपपणु सिद्ध थयु, बळी जो दर्शन अने बान ( अचअह) नो अभेद होय तो प्रथम समयमा उन्मेषथी उत्पन्न भयेल तुरतना सम्मेला ) बालकनु दर्शनपण जो मानस्वरूप मनार्नु होय तो ते मिथ्याज्ञान छ के सम्यगझान छेमिथ्याज्ञान मानो तो ते संशयस्वरूप, विपर्ययस्वरूप के अनध्यवसाय स्यरूप छे. तेमा संशयविपर्ययस्वरूप मिश्याज्ञान तो तम्यगज्ञानपूर्वक होषाथी ते यालकने अभवता नथी. कारण यालकनु आ (ज्ञान) प्रथम होषाथी ते पहेला, सम्यगहान मथी. सेमज (आक्षानमा) वस्तुमानो स्वीकार होषायी "आ कंडक छ' एषी विचारणा (उपेक्षा) स्वरूपवाटुं अनभ्यवसाय पण नथी माटे बालकनु प्रथम दर्शन मिथ्याज्ञानस्वरूप मनाय नहिं पली बालकनु प्रथमदर्शन अर्थाकारको विषय करतुं नहिं होगायो (साकारता न होवार्थी) सम्पमझानरूप पण नथी, (वळी छानस्थिकसानमा दर्शन प्रथम होय छे तेथी बालकाना प्रथम दर्शनने दर्शनरूपज मानवू पडशे जेथी पण शनशाननो भेष मित छ बळी जेन माटी अने तन्तु (तांतणा) स्वरूपकारणमा भैरथी नैना कार्यरूप घडो अने बननो भेद छे. तेम शानावरणीय अने दर्शनावरणीयना नयोपशमरूप कारणनी भेद होषाथी तेना कार्यरूप ज्ञानदर्शननो पण भेद छ, तेथी पण अपग्रह अने दर्शन भिन्न छे. अने अवग्रहथी पृर्धे दर्शन , ते . निश्चित छे. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६६) ॥ज्ञानद्वारे व्यअनावग्रहादिमतिज्ञानस्वरूपम् ।। (द्वार न्द्रियनो स्पर्शनादिपुद्गलो साये एटले स्पर्शादि आकारे परिणमेला पुद्गलो साथे सम्बन्ध थाय छे,ते वरखते "आ कंडक छे"एको पण बोधयतो नयी पण सतेला अने बेशुद्ध थयेला एका सूक्ष्मज्ञान (अस्पष्ट झान) वाळा पुरुषनी पेठे ते सम्बन्ध अव्यक्त ज्ञानवालो होय छे ते वरखते ते स्पर्शादि उपकरणेन्द्रियने स्पर्शला द्रव्यसमूहबडे जेटला प्रमाणनी अने जे विज्ञान शक्ति प्रगट थाय छे. एवा प्रकारनी ने विज्ञानशक्ति अपग्रह नामे कहेवाय छे. अने ते स्पर्शनादि उपकरणेन्द्रियनी साघे संश्लिट थयेला ( सम्बद्ध ययेला ) स्पादिवाकारे परिणमेला व्यसन नामना पुद्रल राशिने ग्रहणकरनारी (विज्ञानशक्ति) अवग्रह एम कहेवाय छे. ते कारणथी एम करेलु के के ( तात्पर्य ए आयु के ) स्पर्शनादि उपक० ने सम्बद थयेला स्पर्शादि आकारे परिणमेला पुगलो व्यञ्जन कहेवाय छे. अने अमुक मकारनो अर्थावग्रह करनार होवाथी ते व्यञ्जननो ( विषयविपयिनो) परिच्छेदक (गणाबनार) एवो जे अव्यक्त बोध ते (व्यञ्जन) अक्ग्रह कवाय छे. वळी ते व्यअनावग्रहथी कंडक विषय निश्चयवाळो एटले " आ कंडक के " ए प्रकारे सामान्य जणावनार एवो बीजोपण (अर्थ) कोलाम है. भने व्यारबाद ईडा वगैरे प्रवत्त छे" पुनः रत्नाकरावतारिकामा अवग्रहर्नु लक्षण आ प्रमाणे कई छ के-“विषय अने विषयिनो सम्बन्ध थया बाद तुर्तज उत्पन थयेल सत्तामात्र विषयना दर्शनथी (सामा० बोधयी ) थयेल प्रथम अवान्तर सामान्य आकारवाली वस्तुनुं जे ग्रहण ते अवग्रह फहवाय छे. टीकार्थः-विषय एटले सामान्यधर्म अने विशेषधर्म ए उभय धर्मयुक्त पदार्थ, अने विषयी एटले चक्षु वगैरे ( उपकरणेन्द्रिय -चा अ. भ्य० निति०) ए बन्नेनो ( विषय अने विषयीनो) समीचीन एटले भ्रा. त्यादि रहितपणे अर्थात् अनुकूळ-योग्य जे निपात एटले योग्य प्रदेशमां (इन्द्रिय अने विपयनो परस्पर सम्बन्ध थइ शके लेवा स्थानमां ) रहेवा पj [ अने ते प्रमाणे रहेवाथी स्पर्श थतां ] तुर्तन समुद्भुत एटले उत्पन्न थयेल जे सातामात्रगोचर एटले सर्व विशेरधर्म सिवायना सत् ( विद्यमानपणा ) मात्रना विषयवाळोजे दर्शन बोध ( एटले कइक छे ए रूप विद्यमानतानो जे बोध) एटले निराकार ( आकार एटले विशेपर्म तेथी रहित एवो ) बोध तेवा निराकार बोधथी उत्पन्न थयेलु जे संचसामान्यथी अवान्तर सामान्याकारैः एटले अ १ सर्वपदार्थमा व्यापी ने रहनार 'सत्ता' स्वरूप महासामान्य [ परसामान्य] ना ठग्राप्यवृत्ति (म्यूनदेशवृत्ति) सामान्य से अषान्तर (अपर) सामान्य कषाय, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १५०) (३६७) वान्तर सामान्य आकारवाळी मनुष्यत्वादि जातिविशेपोवडे ( मनुष्यक्तियश्च-इत्या. दि जुदी जुदी जातिभेदवडे ) विशिष्ट ( विशेषणवाळी ) वस्तुओk जे प्रथम ग्रे. हण-ज्ञान त अवग्रह रवा नाम कवाय. " अहिं प्रथममवे दर्शननो अवकाश देखातो नधी, अने वीजे ( रत्नाकरा.) भने व्यअनावग्रहनो अवकाश देखातो नधी मारे अहिं तत्व बहुश्रुतथी जाणवु. अथवा तो आगळ कडेवाशे ते ममाणे महाभाष्यमां कहेलो व्यानावग्रहादिकनो अथवा दर्शननो भेद अनुसरवो. अही(घणा ममंगे करीने सर्यु. आटलुज वसले.) आवल्यसंख्येयभागो, व्यज्जनावग्रहे भवेत् । कालमानं लघु ज्येष्ठमानं प्राणपृथक्त्वकम् ॥ ७०७ ॥ स चतुर्धा श्रोत्रजि. हाम्राणस्पर्शनसम्भवः । अप्राप्यकारिभावात्स्यान्न चक्षुर्मनसोरसौ ॥७०८ ॥ शब्दादेर्यः परिच्छेदो, मनाक् स्पष्टतरो भवेत् । किञ्चिदित्यात्मकः सोऽयमर्थावग्रह उच्यते ॥ ७०९ ॥ काल. तोऽर्थावग्रहस्तु, स्यादेकसमयात्मकः । निश्चयाझ्यवहारातु, स स्यादान्तर्मुहर्तिकः ।। ७१० ॥ तस्यैवावगृहीतस्य, धर्मान्वेषणरूपिका । ईहा भवेत्कालमानमस्या अन्तर्मुहर्तकम् ॥७११॥ अथेहितस्य तस्येदमिदमेवेति निश्चयः । अवायो मानमस्यापि, स्मृतमन्तमुहर्त्तकम् ।। ७१२ ॥ निर्णीतार्थस्य मनसा, धरणं धारणा स्मृता । कालः संख्य उतासंख्यस्तस्या मानमवस्थितेः ॥ ७१३ ॥ बाल्ये दृष्टं स्मरत्येत्र, पर्यन्तेऽसंख्यजीवितः । ततः स्याधारणामानमसंख्यकालसम्मितम् ॥ ७१४॥ यथा हि सृज्यते १ कारणके स्पर्शमाथी प्रारंभीने संपूर्ण निश्चयबोध थाय त्यां सुधी शानज गफ्यु तो दर्शन कये वखते थयु ? ___ २ कारणके प्रथम पाणरूप अत्रब्रहथीज़ सामान्यग्रोध थाय पम कमु तो स्पर्श लक्षणधाळो व्यञ्जनाब. क्यारे थयो ? ३ " नाणमवायधिाभो, दसणमिहूं जहोगदाओ : अर्थ आगलम आधे थे, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८) || ज्ञानद्वारे मतिज्ञानभेदप्रभेदविचारः ॥ 3 " पूर्व, श्रोत्रेण शब्दसंहतिः । ततश्च किञ्चिदश्रौषमित्यर्थावग्रहो भवेत् ॥ ७१५ ॥ ततः स्त्र्यादिशब्दनिष्ठं, माधुर्यादि विचिन्तयेत् । इयमोहा ततोऽवायो, निश्चयात्मा धृतिस्ततः ॥ ७१६ ॥ एवं गन्धरसस्पर्शेष्वपि भाव्या मनीषिभिः । प्राणजिह्वास्पर्शनानां व्यंजनावग्रहादयः ॥ ७१७ || व्यंजनावग्रहाभावाच्चक्षुर्मानसयोः पुनः । चत्वारोऽर्थावग्रहाद्या, धारणान्ता भवन्ति हि ।। ७१८ ।। यथा प्रथमतो वृक्षे, चक्षुगोचरमागते । किञ्चिदेतदिति ज्ञानं, स्यादर्थावग्रहो ह्ययम् ॥ ७१९ ॥ ततस्तद्वतधर्माणां समीक्षेहा प्रजायते । निश्चयस्तरुरेवायमित्यवायस्ततो भवेत् ॥ ७२० ॥ ततस्तथानिश्चितस्य, धरणं धारणा भवेत् । भाव्यते मनसोऽप्येवमथार्थावग्रहादयः ॥ ७२१ ॥ यथा हि विस्मृतं वस्तु, पूर्व किञ्चिदिति स्मरेत् । ततश्च तद्वता धर्माः, स्मर्यन्ते लीनचेतसा || ७२२ ॥ ततश्च तत्तद्धर्माणां स्मरणात्तद्विनिश्चयः । ततः स्मृत्या निश्चितस्य पुनस्तस्यैव धारणम् ॥ ७२३ || अनिन्द्रियनिमित्तं च मतिज्ञानमिदं भवेत् । अत एव त्रिधैतत्स्यादाद्यमिन्द्रियहेतुकम् ॥ ७२४ ॥ अनिन्द्रियसमुत्थं चेन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् । तत्रायमेकाक्षादीनां मनोविरहिणां हि यत् ॥ ७२५ ॥ केवलं हीन्द्रियनिमित्तकमेव भवेदिदम् । अभावान्मनसो नास्ति, व्यापारोऽत्र मनागपि ॥ ७२६ ॥ अनिन्द्रियनिमित्तं च, स्मृतिज्ञानं निरूपितम् । व्यापाराभावतोऽक्षाणां तदक्षनिरपेक्षकम् ॥ ७२७ ॥ ओघज्ञानमविभक्तरूपं यदपि लक्ष्यते । वल्ल्यादीनां वृतिनीत्राद्यभिसर्पणलक्षणम्॥७२८ तदप्यनिन्द्रियनिमित्तकमेव प्रकीर्त्यते । हेतुभावं भजन्तीह, नाक्षाणि न मनोऽपि यत् ॥ ७२९ ॥ मत्यज्ञानावरणीयक्षयोपशम एव " · (डार Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १५३) (३६९) . हि । केवलं हेतुतामोधज्ञानेऽस्मिन्ननुते च यत् ॥७३॥ यत्तु जाग्र दवस्थायामुपयुक्तस्य चेतसा । स्पर्शादिज्ञानमेतच्चेन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् ।।७३१॥ इदमर्थतस्तत्त्वार्थवृत्ती ॥(सा०१५१) अथ प्रकृतं ॥ एवमर्थावग्रहहा, अवायधारणा इह । स्युश्चतुर्विशतिः षड्भि-हता इन्द्रियमानसैः ॥ ७३२ ॥ व्यंजनावग्रहः पूर्वोदितैश्चतुभिरन्विताः । स्युस्तेऽष्टावितिभंदा,मतिज्ञानस्य निश्चिताः ॥ ७३३ ।। भगवतीवृत्तौ तु ॥ (सा०१५२) पोढा श्रोत्रादिभेदेनावायश्च धारणापि च । इत्येवं द्वादशविध, मतिज्ञानमुदाहृतम् ।।७३४॥ द्वादशेहावग्रहयोश्चत्वारो व्यंजनस्य च । उक्ता भेदाः षोडशैते, दर्शने चक्षुरादिके ॥७३५।। यदाह भाष्यकार:-- "नाणमवायधिईओ,दसणमि जहोग्गहेहाओ"(ज्ञानमपायधृतयः, दर्शनमिष्टं यथा वग्रहेहाः) [सा० १५३] । नन्वष्टाविंशतिविधं, मतिज्ञानं यदागमे । जेगीयते तन्न कथमेवमुक्ते विरुध्यते ? ॥ ७३६ ॥ अत्रोच्यते ॥ मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनानां मिथो भिदम् । अविवक्षित्वैव मतिमष्टाविंशतिधा विदुः ॥ ७३७ ॥ अर्थः-व्यञ्जनायग्रहनु अघ० काळप्रमाण आवलिकानो असंख्यातमो भा. गछे, अने उत्कृष्टकाळ श्वासोच्छ्वास पृथक्व छे. ॥ ७०७ ॥ ते ध्यानाव० श्रो -जिला- घाण अने स्पर्शन इन्द्रियथो उत्पन्न थयेलो ए प्रमाणे चार प्रकारनो थे, अने चक्षु नथा मनने अप्राप्यकारीपणु होचाथी ए बेनो व्यबनाव० नयी. ॥ ७०८ ॥ " आ कंडक छे. "" ए प्रकारे शब्दादिकनो जे कंडक स्पष्टनर बोध थाय ते आ अर्थावग्रह कहवाय छे. ॥ ७०९॥ निश्चयनये अर्थावग्रहनो का ? समय प्रमाण छे, अने व्यावहारिक अर्थाव नो काल अन्नम० हे. ॥ ७१० ॥ ग्राण करेला ने विषयोना धर्म (स्वभाव-गुण) शोधवा [चितवन] रूप जे ईहा नेनु काळभमाण एक अन्तम० छ. ॥ ७११ ॥ तथा चितवन करेला ते विषयनो "अमुक विषयज छ' एम निश्चय करवी ते अवाय--अपाय कडेवाय. एनो काळ पण अन्तर्मु. के. ॥ ७१२ ॥ मनवडे निर्णय करेल ने विषयने धारी राखवो (या Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) ॥ ज्ञानशारे दृष्टाजतपुरःसरंच्यअनाक्महादिमतिज्ञानस्वरूपम् ॥ (बार द राखत्री) ते धारणा कडेली छ. एनी स्थितिन काल प्रमाण संख्यात अथवा असंख्यात काल छ. ॥७१३ ॥ कारणके असंख्यवर्षना आयुष्यवाला जीवो (देव -नारक ने युगलिको) बाळपणमां अनुभवेली वस्तुने अन्त्य अवस्था मुरी स्मरणमा लावे छे, माटे धारणानो काळ असंख्यवर्ष प्रमाण है. ॥ ७१४ ॥ जेमे शब्दद्रव्यनो समूह प्रथम श्रोत्रन्द्रियनी साथै सम्बन्धवाळो थाय छे, अने त्यारवाद "कंइक सांभम्युं "एत्रो अर्थावग्रह थाय छे. ।। ७१५ ॥ त्यारवाद स्त्री वगेरेना शब्दमा रहेला मधुरतादि स्वभावने चिंतये ते ईहा, अने न्यारवाद ( अमूकनो शब्द छे. एम ) निर्णय थाय ते अवाय अने त्यारबाद (ते शब्द याद राखी मुके ते) शरणा थाय, ॥७१६॥ प प्रमाणे बुद्धिमानोए गन्ध रस अने स्पर्शमां पण (अनुक्रमे) घ्राण-जिला-अने स्पर्शेन्द्रियना व्यअनावग्रहादि विचारवा ||७१७|| परन्तु चक्षु अने मनना त्र्यअनावनो अभाव होवाथी एबे इन्द्रियोना धारणा सुधीना अर्थावग्रहादिभेद होय छे, ॥ ७१८ ॥ जेम कोइक वृक्ष प्रथम दृष्टिगोचर थतांज आ कंइक के, एवा प्रकारनु जे ज्ञान थाय छे ते अर्थावग्रह ।। ७१९ ॥ ल्यारवाद ते वृक्षमा रहेला धोनी (अस्तिरूप अने वृक्षथी अपरधर्मोनी व्यार- . चिरूप ) परीक्षा करनी ने ईटा थाय है, अने त्यारबाद आ वृक्ष ज छै एना पकारनो जे निश्चय थाय छे. ते अवाय कवाय छे ॥ ७२० ।। अने त्यारवाद ते निश्चय करेला वृक्षने जे याद राखवू ने धारणा छे. ए प्रमाणे मनना पण अर्थावग्रहादि विचाराय छे. ॥ ७२१ ॥ जेम विस्मृत थयेली ( भूली गयेली) वस्तुने प्रथम " कंइक हर्तृ " एची रीते याद करे ( ते अर्थावग्रह ), अने ल्यारवाद एक चिचे ते वस्तुना धर्म संभारवामां आवे (तेहा)।। ७२२ ।। अने त्यारवाद ने ते धर्मोंना स्मरणयी ते ( विस्मृत ) वस्तुनो निर्णय थाय (ते अवाय ', त्यारबाद संभारीने निश्चय करेल तेज वस्तुने याद गरखवी [ते धारणा ] ॥ ७२३ ।। ए सर्व अनिन्द्रिय (मन) निमित्तनु मतिज्ञान छे. आज माटे ए [मतिज्ञान त्रण प्रकारच्छे, तेमा प्रथम इन्द्रियहेतुक ॥ ७२४ ॥ बीजुं अनिन्द्रियोत्पत्र, अने श्रीजु इन्द्रियानिन्द्रियोत्पन्न त्यां प्हेलु मतिज्ञान एकेन्द्रियादिकने होय के. कारणके मन रहित जीवोने ।। ७२५ ॥आ मतिज्ञान केवळ इन्द्रियनिमित्तनु २ अहिथी जे दृष्टांता अपाय ते व्यावहारिक अर्थाषप्रहादिना आणपां. अन्यथा अमुफनो शब्द छे. एवं ज्ञान नहि यतां मात्र आ शब्द छे था कप छ वा गन्ध छ. इत्यादि विषयमात्रनुज कान थाय , के जे नैश्वयिक अर्थावबादि कहेवाय, Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १५४] (३७१) ज होय छे. जेथी अहिं ( एकेन्द्रियादिमां ) मननो व्यापार लेश मात्र पण नथी ॥ ७२६ ॥ वळी जे अनिन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान ते स्मृतिझानने कहेलुछे, कारणके इन्द्रियोना व्यापारनो अभाव होवाथी ते इन्द्रियोनी अपेक्षा विनानुछे ॥७२७॥ वळी वेल वगेरेने वाढ अने वरंडी (भीत ) विगेरे उपर चढवा रूप अस्पष्ट ओघज्ञान ( सामान्यज्ञान ) जणाय के ( देखाय छे) ॥ ७२८ ॥ ते पण अनिन्द्रियनिमित्त ज कहवाय छे. कारणके त्यां इन्द्रिय अने मन कारणपणे नथी. ॥ ७२९ ॥ जे कारणयी ५ ओघ ज्ञानमः लाई पत्यज्ञालावस्तीफनो भयोपशमज कारणपणु पामे छे. ।। ७३० ।। वळी जागृन अवस्थामा उपयोगवाळा जीवर्नु मनपूर्वक जे स्पर्शादि ज्ञान ते इन्द्रियानिन्द्रियहतुक मतिज्ञान कडेवाय. ॥ ७३१ ।। ए भावार्थ तत्वार्थवृत्तिमा कयो के. हवे चालु विषय कहे 2-ए प्रमाणे अहिं अर्थावग्रह-ईहा-अपाय अने धारणा ए चारने इन्द्रिय पांच अने मन ए ६ साथे गुणतां २४ भेद थाय ॥७३२॥ अने पूर्व कहेला चार मकारना व्यञ्जनावग्रह सहित करतां ते मतिझानना निश्चित करेला २८ भेद थाय छ, ॥ ७३३ ॥ श्रीभगवतीजिनी वृत्तिमा तो-श्रोत्रादि भेदवडे ६ प्रकारनो अपाय अने ६ प्रकारनी धारणा ए प्रमाणे १२ प्रकारनु मतिज्ञान कहेलु ले. १७३४ ॥ तथा ईहा अने अवग्रहना १२ भेद अने व्यञ्जना० ४ भेद ए चक्षु आदि इन्द्रियोवडे थयेला १६ भेद दर्शनमा गणवा. ॥ ७३५ ॥ जे कारणथी भाष्यकारे का छे के अपाय अने धृति (धारणा ) ते ज्ञान, अने अत्रग्रह नथा ईहाने दर्शन मानेल छे. शंका-जो सिद्धान्तमा मतिज्ञान २८ प्रकारचें कहेवाय छे, तो ए प्रमाणे (१२ मेदे मतिज्ञान ) कहेनां विरोध केम न आवे ? ॥ ७३६ ॥ ___ उत्तर-पतिशान अने चक्षु आदि दर्शन्मां परस्पर भेदनी विवक्षा नहिं करीनेज मतिज्ञानना २८ मेद जाणवा ।। ७३७ ।। किश्च । एकैकश्च प्रकारोऽयं, द्वादशधा विभिद्यते । ज्ञानस्यास्य ततो भेदाः स्युः पत्रिंशं शतत्रयम् ॥७३८॥ तथोक्तं तत्त्वार्थभाष्य।एवमेतन्मतिज्ञानं द्विविधं चतुर्विधमष्टाविंशतिविधमष्टषष्ट्युत्तरशतविधं पट्त्रिंशत्रिशतविधं च भवतोति । (सा. १५४) ते चैव ।। बहूबहुविधान्यक्षिप्राक्षिणात्यनिश्रितत Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) ॥ ज्ञानछार मनिज्ञानप्रभेदबहुबहुविधादिस्वरूपनिरूपणम् ॥ (दार दन्याः । संदिग्धासंदिग्धध्रुवाध्रुवाख्या मतेर्भेदाः ॥ ७३९ ॥ तथाहि ।। आस्फालिते तूर्यवृन्द,कश्चिद्यथैकहेलया। भेरीशब्दा इ. यन्तोऽत्रैतावन्तः शङ्खनिःस्वनाः ।। ७४०॥ इत्थं पृथक् पृथक् गृहणन् , बहुग्राही भवेदथ । ओघतोऽन्यस्तूर्यशब्दं गृहन्नबहुवि. भवेत् ॥ ७४१ ॥ माधुर्यादिविविधबहुधर्मयुक्तं वेत्ति यः स बहुविधवित् । अबहुविधवित्तु शब्द, वेत्त्येकठ्यादिधर्मयुतम् ।। ७४२ ॥ वेत्ति कश्चिदचिरेण, चिरेणान्यो विमृश्य च । क्षिप्रा. क्षिप्रग्राहिणौ तौ, निर्देष्टव्यौ यथाक्रमम् ॥ ७४३ ॥ लिङ्गापेक्ष वेत्ति कश्चिद, ध्वजेनेव सुरालयम् । स भवन्निधितग्राही, परो लिङ्गानपेक्षया ॥७४४ ॥ निःसंशयं यस्तु वेत्ति, सोऽसंदिग्धवि. दाहितः । ससंशयं यस्तु वेत्ति, संदिग्धग्राहको हिस: shi . ज्ञाते य एकदा भूयो, नोपदेशमपेक्षते । ध्रुवग्राही भवेदेष तदन्योऽवविद्भवेत् ॥ ७४६ ॥ नन्वेकसमयस्थायी, प्रोक्तः प्राच्यैरवग्रहः । सम्भवन्ति कथं तत्र, प्रकारा बहुतादयः ? ॥७४७॥ सत्यमेतन्मतः किन्तु, द्विविधोऽवग्रहः श्रुते । निश्चयारक्षणिको व्यावहारिकश्वामितक्षणः ॥७४८ ॥ अपेक्ष्यावग्रहं भाव्यास्ततश्च व्यावहारिकम् । भेदा यथोक्ता बहुतादयो नैश्चयिके तु न ॥ ७४९ ॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ ॥ ननु चावग्रहः एकसामयिकः शास्त्रे निरूपितो, न चैकस्मिन् समये चैवैकोऽवग्रह एवंविधो युक्तोऽल्पकालत्वादिति, उच्यते, सत्यमेवमेतत्, किंतु अवग्रहो हिधा नैश्चयिको व्यावहारिकश्च, तत्र नैश्चयिको नाम सामान्यपरिच्छेदः, स चैकसामयिकः शास्त्रेऽभिहितस्ततो नैश्चयिका Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १५५ ) (३७३) दनन्तरमी हवमात्मिका प्रवर्त्तते किमेष स्पर्श ! उतास्पर्श इति, ततश्चानन्तरोऽपायः स्पर्शोऽयमिति, अयं चापायोऽवग्रह इत्युपचर्यते, आगामिनो भेदानङ्गीकृत्य यस्मादेतेन सामान्यमवच्छिद्यते, यतः पुनरेतस्मादीहा प्रवर्त्तिष्यते कस्यायं स्पर्शस्ततश्चापायो भविष्यत्यस्यायमिति, अयमपि चापायः पुनरग्रह इत्युपचर्यते, अतोऽनन्तरवर्त्तिनोमीहामपायं चाश्रित्य एवं यावदस्यान्ते निश्चय उपजातो भवति, यत्रापरं विशेषं नाकाङ्क्षतीत्यर्थः, अपाय एव भवति न तत्रोपचार इति, अतो य एष औरहीत्य बहु अवग्रहातीत्येतदुच्यते, नत्वेकसमयवर्त्तिनं नैश्चयिकमित्येवं सर्वत्रोपचा रिकाश्रयणाद्याख्येयमिति (सा० १५५) ॥ - अर्थी ए (२८ मां नो) दरेक भेद बार बार मकारे वहचाय लें, तेथी ए मतिज्ञानना ३३६ भेद पण धाय छे. ॥ ७३८ ॥ तत्त्वार्थभाष्यमा क छे के" ए प्रमाणे ए मतिज्ञान ने मकारेन -चार प्रकारंनु - २८ प्रकारनु - १६८ को१ इन्द्रियनिमित्तक - अनिन्द्रियनिमित्तक अथवा श्रुतनिश्रित अश्रुतनिचित. अवग्रह — इहा- अपाय-ने धारणा अथवा द्रव्यथी. क्षेत्रथी, कालयी, भाषथी, ३ बहुबहुविध वगैरे ६ मे २८ धो गुणतां १६८ प्रकार थाय. मां प्रतिपक्षी भेद न लेगा. अथवा विषक्षाभेदे मूल २८ भेदोने द्रव्य-क्षेत्र.. काल तथा भाषए चार भेदे गुणतां ११२ तथा बहु-अबहु आदि १२ में द्रव्यादि बारे गुणतां ४८ तथा इन्द्रियनिमित्तक १ अनिन्द्रियनिमित्तक २ श्रुतनिश्चित ३ अनिश्रित औत्पातिकी : वैनयिकी ६ कामको ७ पारिणामिकी ८ आ सबै ११२--४८-८ पनो सरवाळां करवाथी १६८ थाय, विगेरे अनेक प्रकारे बनो शके छे !!! तेमज पूर्वना २८ भेदी पण (६) अवग्रहादि चारने इन्द्रियनिमित्र अनिििन से भेदे गुणतां ८, तेमां बहुआदि १२ उमेरबाघी २० तथा मां द्रव्यादि ४ अने औत्पातिक्यादि ४ आठ उमेरबाधी २८ याय, (२) अथवा महादि ४ ने प्रन्यादि चारे गुणतां १६ तेमां बहुआदि बार उमेरवाची २८ थाय. (३.४) अथवा अविरोधिवहु आदि छने अवग्रहादि चारे अथवा द्रव्यादि चारे गुणतां २४ अने स्पाति० ४ उमेरवा २८ (२) अथवा व्यञ्जनाग्रह १ अर्थावग्रह २ वा ३ अपाय धारणा ५ अविच्युति ६ वासना ७ ܀ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) || ज्ञानद्वारे मतिज्ञानभेदप्रमेदविचारः || (द्वार) Authe -- रनु - अने ३३६ प्रकारेनु पण छे. " ते सर्व प्रकारो आ प्रमाणे - बहु -बहुविध - अक्षिम- अनिश्रित अने तेनाथी अन्य एटले अबहु- अवहुविध - क्षिमनिश्रित तथा सन्दिग्ध - असंदिग्ध - ध्रुव ने अध्रुव ए १२ मतिज्ञानना भेद से ।।७३९ ॥ तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे लिहायेम कोइक पुरुष जति शीघ्र पणे आटला भेरीना शब्द अने आउला शङ्खना शब्द ले ||७४० ॥ ए प्रमाणे जुजु जाणनारो हुग्राही कद्देवाय ( १ ) अने बीजो पुरुष सामान्यथी "आ वाजींनी शब्द " एलु ज जाणतो होय तो ते अबहु जाणनारो कहेवाय. (२) ॥ ७४१ ॥ बळी जे पुरुष ( ते वाजींना शब्दने ) मधुरतादि विविध प्रकारना घणा धर्म सहित जाणे ने बहुविध जाणनारो कहेवाय (३) अने (जे पुरुष) एक के बे इत्यादि धर्म सहित जाणे ते अबहुविध जाणनार कहेवाय (४) ॥ १४२ ॥ कळी कोइक पुरुष (वाजीं शब्दना) ते (मधुरतादि धर्मो शीघ्र जाणे तो ते क्षिमग्राही. (५) अने वो जो पुरुष विचार करीने व काळे जाणे ते अक्षिमग्राही [६] अनुक्रमे जाणत्रा ||७४३ ॥ बळी कोइक पुरुष जेम ध्वजावडे देवमन्दिर जाणे तेम कोहपण चिन्हनीअपेक्षाए जाणे ( एटले चिन्हवडे जाणे) ते निश्रितग्राही (७) अने जे चिन्हनाआश्रय दिना जाणे ते अनिश्रितग्राही (८) || ७४४ || जे संशय रहित जाणे ते असंदिग्ध जाणनार ( ९ ) अने जे संशय पूर्वक जाणे ते सन्दिग्ध जाणनार (१०)||७४५|| तथा एक बखत जाण्या वाद बीजीवार उपदेशनी [वीजीवार सांभ , पानी] अपेक्षा न राखे ते वग्राही होय (११) अने (अपेक्षा राखनारो) बीजो पुरुष अवग्राही होय ( १२ ) ।। ७४६ ।। शङ्का - पूर्वपुरुष अवग्रह तो एकज समय रहेनारो को छे, तो ते अवग्रहमां बहु बहुत्र इत्यादि भेट म संभवे ? || ७४७ | उत्तर - ए बात सत्य है परन्तु सिद्धान्तमां नैश्वविक अर्थाव० अने व्यावहा० अर्थाव० एम वे प्रकारनो अवग्रह मानेलो के तेमां व्यावड़ा अर्थाव असंख्य समयनो के ॥ ७४८|| तेथी ते बहुतादिभेद जे कथा छे ते सर्व arratio अर्थाव० नो अपेक्षाए जाणवा, परन्तु नैश्वविक अर्थात्र० मां नहि ॥ ७४९ ॥ स्मृति ८ ए आठमा बहुआदि १२, प्रव्यादि ४ तथा औपातिक्यादि ७ ¤ बीश मेळवतां २८ थाय इत्यादि पण अनेक भंग भेदोत्पत्ति बनी शके . ते शाखाशायुक्त मतिविचारणापूर्वक श्रीगीतार्थगुरुनी उपासनायी विचारणा. १ पूर्वोक्त अठाधीश भदाने चह्नादि वार भेदोष गुणतां ३३६ थाय. तथा मां अश्रुतनिश्चितमतिना औत्पातिकी विगेरे चार भेदो उमेरवायी ३४० भेदो पण थाय छे. ते आगळ यताषाशे. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १६० ) (१७५) ते प्रमाणे तवार्थटीकामां कथुं पण छे के - " ( शंका याय के ) अवग्रहने तो शास्त्रमां एक समयनो को छे, अने तेवा एकज समयमा एकज अवग्रह आत्रा - कारनो (बहु-बहुविधादि धर्मवाळो ) मानवो व्याजवी नथी, कारण काल थोडी होवाथी उत्तर कवाय छे के एत्रात सत्य छे परन्तु नैश्वयिक अने व्यावहारिक एम अब ग्रह वे प्रकारनो छे. त्यां नैश्व० अ० एटले सामान्य बोध अने ते शाखमा १ स arat को ले त्यारबाद एटले नैश्व० अवनी पछी तुर्तज 46 शुं आ स्पर्श छे के अस्पर्श १" एवा प्रकारनी नैश्च० ईहा प्रवर्ते त्यारबाद तुर्तज "आ स्पर्श है" एवो निश्चय थाय ते ( नै० ) अपाय अने ए (नै०) अपाय तेज आगामी (स्यारबाद थता) भेदनी अपेक्षाए ( व्यव० ) अवग्रह एम उपचारथी कहेवाय छे. कार के ए (नैश्च० अपाय कडे सामान्य बोध थाय छे, जे कारणे अहिंथी पुनः ई.डा ( व्याव० ईहा ) पवर्तशे के आ स्पर्श कोनो के ? अने त्यारवाद " अमुकनो आ स्पर्श छे " एत्री रीते ( व्याव० ) अपाय थशे. वळी एज ( धीजी वार थयेलो) अपाय ते तेनाथी आगळ थनारी ईहा अने अपायने आश्रीने अवग्रह एम फरीबी पण उपचार कराय छे, अने ए प्रमाणे इहने अन्ते पुनः निश्रय रूप अपाय थाय छे. (ए प्रमाणे) वारंवार अवग्रह ईडा ने अपायनी श्रेणि त्यां सुधी चाले छेके ) यावत् एने छेडे निश्चय उत्पन्न थाय छे. अर्थात् ज्यां बीजो धर्म जाणवानी आकांक्षा यती नथी. (ए तात्पर्य छे), कारणके सर्वान्ति अपाय ज थाय छे अने मां पुनः उपचार थतो नथी, माटे जे आ औपचारिक (व्यावहारिक) अवग्रह तेने अङ्गी "बहु ग्रहण करे छे" एम कहेवाय छे. परन्तु एक समय प्रमाण वर्तनारा नैश्च० अवग्रहने अङ्गी करीने ते कड़ेवातुं नथी, ए प्रमाणे सर्वे ( ईहादि अथवा क्षिपादि ) स्थळे औपचारिकने अङ्गीकार करीने कहेतुं " । औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी पारिणामिकी । आ भि: सहामी भेदाः स्युश्चत्वारिंशं शतत्रयम् ॥ ७४९ ॥ न दृष्टो न श्रुतश्च प्राग्, मनसाऽपि न चिन्तितः । यथाऽर्थस्तरक्षणादेव, यथार्थी गृह्यते धिया ।। ७५० ॥ लोकद्वयाविरुद्धा सा, फलेनाव्यभिचारिणी । बुद्धिरौत्पत्तिकीनाम, निर्दिष्टा १ " सत्यमिति अर्धस्वीकारे " ज्यां पूर्वपक्षमी अर्धीघात स्वीकारवानी होय त्यां 'सत्यं' ए प्रयोग मृकाय छे. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७६) ॥ ज्ञानद्वारे मनिज्ञानभेदोन्पत्तिकयादिषुद्धिचतुष्कविचारः ॥ (शार रोहकादिवत् ॥ ७५१ ॥ गुरूणां विनयात्प्राप्ता, फलदाऽत्र परत्र च । धर्मार्थकामशास्त्रार्थपटुबनयिकी मतिः ।। ७५२ ।। नैमित्तिकस्य शिष्येण, विनीतेन यथोदितः । स्थविराया घ. टध्वंसे, सद्यः सुतसमागमः ॥ ७५३।। शिल्पमाचार्योपदेशाल्लब्धं स्यात्कर्म च स्वतः । नित्यव्यापारश्च शिल्पं, कादाचिके तु कम वा ॥ ७५४ ॥ या कर्माभिनिवेशोत्थलब्धतत्परमार्थिका । कर्माभ्यासविचाराभ्यां, विस्तीर्णा तद्यशःफला ॥ ७५५ ॥ तत्तत्कर्मविशेषषु, समर्था कार्मिकी मतिः । केषुचिद दृश्यते सा च, चित्रकारादिकारुषु ॥७५६ ॥ सुदीर्घकालं यः पूर्वापरालोचनादिजः । आत्मधर्मः सोऽत्र परीणामस्तत्प्रभवा तु या ॥ ७५७ ॥ अनुमानहेतुमात्रदृष्टान्तैः साध्यसाधिका ।क्योविपाकेन पुष्टीभूताऽभ्युदयमोक्षदा।।७५८ ॥ अभयादेवि ज्ञेया, तुर्या सा पारिणामिकी । आभ्योऽधिका पञ्चमी तु, नार्हताऽप्युपलभ्यते ॥ ७५९ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ यद् धैव मतिलोंके, प्रथमा श्रुतनिश्रिता | शास्त्रसंस्कृतबुद्धस्सा, शास्त्रार्थालोचनोद्भवा ॥ ७६० ॥ सर्वथा शा. खसंस्पर्शरहितस्य तथाविधात् । क्षयोपशमतो जाता, भवेदश्रुतनिश्रिता ॥ ७६१ ।। सर्वाप्यन्तर्भवत्यस्मिन्, मतिरश्रुतनिश्रिता । यथोक्तधीचतुष्केऽतः, पञ्चम्या नास्ति संभवः॥७६२॥ इदमर्थतो नन्दीसूत्रवृत्तिस्थानाङ्गमूत्रवृत्त्यादिषु । (सा० १५६ -१५९) जातिस्मृतिरप्यतीतसंख्यातभवबोधिका । मतिज्ञानस्यैव भेदः, स्मृतिरूपतया किल ॥ ७६३ ॥ यदाहाचाराङ्गटीकायां-जातिस्मरणं चाभिनिबोधिकविशेष इति (सा० १६०)॥ इति मतिज्ञानं ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्रीलोकनकाशे तनोयः सर्गः ।। (सा० १५९) (३७७) __ अर्थ उपर वतावेल ३३६ भेदोने औत्यत्तिकी-वैनयिकी-कार्मिकी-अने पारिणामिकी ए ४ बुद्धिसहित करीये तो ते मतिज्ञानना भेद ३४० थाय के ।७४९॥ जे वस्तु देखी नयी पूर्व सांभळी नथी अने मनथी कढी चितवी पण नयी छतां जे बुद्धिवडे तुर्तज ते अर्थ यथार्थ (सन्यपणे) ग्रहण थाय ॥ ७५० ॥ अने आलोक परलोकविरुद्ध न होय तथा निश्चये फळने आपत्रावाळी होय ने औत्पत्तिकी बुद्धि रोहां दिकनीपेठे जाणवी ॥५१॥ तथा गुरुनो विनय करवाथी पाप्तथयेली, आलोक अने परलोकमां उत्तमफळ भापनारी. अने धर्म-अर्थ-काम तथा मोक्षना कार्यमा कुशल एवी वैनरिकी बुदि कहेवाय छे. ॥ ७५२ ।। जेम विन १ राथिमी नगरी पासेना कोरक गाममो भगतनामनी नट हतो तेनो पहेली बी मरण पामवायी ने चीजी श्री परायो पण नवी परणेली श्री जुनी बहुमा रोधक नाममा छोकरानी माथे सारीरीने वर्मती नथी, न्यारे गेहके कई के जो तुं मारापर या करे छे नोह ने कोरक यवन बताधी आपीश ससांपण ने नधी स्त्री मानी वयना रोइक पर प्याथी धने छे. त्यारे गहचे. पकवार रात्र हैं पिता आ कोर घरमांपी जाय छ ! पम ब्रूम पाटी पिनाने जगारतां काइ नहिं देखवाथी पोतानी मी माठा आचरणवाको हर्श पम लाग्यु. अने ग्यारथी से टेनी साथे योलतो के वार्तालाप विशेष करतो मी अने प्रमरहित बतें छे, मा बनाव गधी स्त्रीप जोषाथी रोहकने पगे लागी सेना पितानो प्रेम कायम राखवा का त्यारे गेह पातानी अतुल्यबुद्धि होघाथी घोजीषार पक रावे हे पिता आ घरमांथी कोषक आय छ : पम चूम पाही उटी त्यारे पिताए कोइने नाहिं देखषाथी पूछतावासकोडाथी पोतानी छांया बताधी कई के जुओ आ जाय छ, आ समाषथी बाळकनी अमानता ममजी पहेलो पण आ छायानेज पुरुष कामी शे पम धारी पुनः नयी श्रीपर गग धरमा लाग्यो परन्तु रोइक तो पोताने विषादिकी नधी मा मागेनांग्यशे पषी धाकधी पकली नहिं अमतां नित्य पोताना पितानी साथ जमे छे. हा एक दिवसे पोताना पिता भरतन साथै हक उायिनी नगरीमा गयो अने सर्व ठेकाणे फरी फरीने आखो नगरीनी रचना जोड. न्याम्बार पितासहित पोतामे गाम आवधा माटे सिमानदी सुधी आल्या नेटलामा भरत का यस्तु भूली जवाथी रोकने नवीना किनारापर सूफी पोते नगरीमा आयो. से यखते रोहके नवीपरनी रेतीमा पोते ओयेली मर्ष मगरी आलेमी कीडा करे छ तेटलार्मा उज्जयिनीनो राजा बगीमां बेसी कोइप्रकारे पकली पड़ी ग. येलो त्या आधी पदयो, ने जेटलामा चीतरेली मगरी नरफ आबे छ तेटलामा रोहके सामे आयी राजाने एकदम अका-यां, गजाप आ गेहकन माइन अने बुद्धिबळ जोड प्रसन्न था तेनु गाम टाम पूछी पाताना नगग्मां प्राध्या अने Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७८) ॥ ज्ञानबारे श्रुतनिश्रितमतिज्ञानभेदविचारः॥ बार) यवान् एवा कोइ निमित्तोचाना शिष्ये घटनो दिमाश थये डोसीने हुर्तज पुत्रनो मेळाप यवान का ॥ ९५३ ॥ तथा आचार्यना उपरे शथी माप्त ययेलं होय ते शिल्प अने स्वतः माप्त थाय ने काम कवाय अथवा नित्यनो व्यापार ते शिल्प अने कोइ बखतनो च्यापार ते कर्म कहेवाय ।। ७५४ ।। ते कर्मना आग्रहथी (सफळ न पाय तो पण वारंवार फर्या करवाथी) तेमांथी परमार्थ माप्त ययेल होय तेवी तथा कर्मना (ते कार्यना) अभ्यास अने विचार वढे विस्तार पामेली अने तेना (कार्यसिद्धिना) यशरूप फळने आपवावाळी. ॥ ७५५॥ अने ते ते कार्यों करवामां समयं ययेली ते का. भरत पण नयमांधा से बस्तरआधी रोहक साहस पासानं गामे आल्या. हवे राजाप पिताने ४९९ मंत्री के परम्म से सईनो उपरी पक पांडसेमोमंत्री रोहफने घमाववाना विषारथी बुरिनी विशेष परीक्षा करवा माटे रोहकमा गामना मुम्बी बगेरे पर पखु फरमान मोकायु के समारा गामनी महार जे पणी मोटी शीला छ लेने उपायपाविमा पक मोरी र राजाने रहेषा योग्य बनावी प शिलानु दोषणु करो. आ आज्ञा केवी रीते समे तेनो बिचार करवा माटे आखु म भेगु धयु छ त्यो मरतनट पण आष्यो छे अने शु करवू? तेनी उपाय सातो गयी. हवे या बाजु रोक्षक भूण्यो थयो के छसां पिता हि आवेस होवाची गाइ शकतो मी. तेपी रांडक पिताने तेहवा आध्यो त्यारे पिताप चिंतार्नु कारण दर्शावी ज्या सुधी राजानी आज्ञानो उपाय म र स्यां सुषी जमषानुं रण ६ महिं. पम कहेव,थी रोहले सर्व गामने उपाय दशम्यो के ज्यां शीला पसी के त्यां सेमे पडी वा दई नीचेथी जमीन खोदी रप बनायो मेथी राजामी भाशा यथार्य सम्वाशे प प्रमाणे सर्वलों के उपाय कबल राखी ते प्रमाणे करी राजाने जणावतां रा. जाए पूछछधुं के ए उपाय कोणे दर्शाप्यो १ स्यारे तप रोडकन नाम धी). म्यारवाद पुनः गजाए घेट मे सागे रोते खपाडतां छतां पण तोल प्रथम जेटलुज राखवानो-शीजा कुफा विमा इकबामे सरावधानी-रेतीनां दोर वणवानो इस्ति मरी गया छर्ता मरोगयों पषी खबर माह आपा पण मरी गयेलो जणाषानो-रोडकमा नाममो कूषो पोतानी मगरीमा मंगावधानो-गामनु बन पूर्व विशामा छे तेने पश्चिम दिशामा फेरवधानो- अग्नि बिना क्षीर गंधवानी-दिवस रात शुक्लपक्ष अने कृष्णपक्ष बगैरे मारतो पर्जी पीतामी नगरीमा आषपानी इत्यादि से जे आदेश कर्यो ते सर्व आदेशोनुं रोक जि. राकरण करषाथी राजाप ने सर्व प्रधामोमा श्रेष्ठ प्रधान पक्षी आपी. प मधेधि सर्व वर्णन तथा भौरपतिकीबुद्धिमा सूचक वीजा अनेक दृष्टान्तो पी मंदोजीनो वृत्तिर्मा छे. १ आ वष्टान्त पूर्षापर अस्थानिकादि सहित व वाय. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १६० ) (३७१) कोइक नगरमा एक सिद्धपुत्रक रहे छे तेनी पांसे वे विद्यार्थिओ निमित्तशास्त्र भोछे; एक शिष्य गुरु उपर बहु मानपूर्वक विनयमां तत्पर छतो जे कांइपण गुरु उपदेश करे ते तहनि करीने पोताना अन्तःकरणमा निरन्तर विचारणा पूर्वक भणे छे. विचारणा करतां जे कोइ टेकाणे संदेह उपजे ते विनयमहित गुरुचरणमा आषीने नम्रभावे पृछी निश्चय करे. आ प्रमाणे निरन्तर विचारणापूर्वक शाखनो अर्थ चिन्तवता तेनी बुद्धि घणीज तीव्र घर, वीजो शिष्य तेवा गुण रहित छे, ते बेउर पकवखत गुरुना फरमानधो नजीकमा गाममां प्रयाण बाजो विनीत शिष्य अ कोना पगला छ तेस बीजा शिष्यने पृष्ठभुं ते बगर विचार्ये एकदम वोल्यो के, एमां शुं पूछ से हाथींना पगला छे, ते विचारक शिष्य बोल्यो आम म बोल ! ** आ हाथणीमा पगला छे, ते डाबी आंखे काणी छेः तेना उपर बैठेली कॉर राणी जाय छे, ते सधवा अने आजकालमा प्रसवषाळी गर्भवती से तेयोने पुत्र यशे " वीजा शिष्ये कर्त्तुं भ वधुं शोरीत जणाय छे. विनोल कडे हे कान खातरी स्वरूपया छे. जेथो आगळ खातरी धसे, वरने अभोगाच्या. मैं गामनी बहारना प्रदेशमां मोटा सरोवरना कोनारे पडाब नांखेली राणी जोर, तेम डाबी आँखे काणी हायणी पण जोड़, तेषामां कोइक दासी मोटा अमलदारने राजानो पुत्र थयानी षधामणी आएं तु नेम कभुं विनीते बोजाने बोलावने वचन मंभळान्युं लेणे पण तमान सर्वज्ञान सत्य छे मने खातरी थइ छे के तमारा ज्ञानमां विपरीतता नथी, त्यारबाद ते बेउ हाथपग धोर ते सरोवरना कीनारे घडना झाड नीने श्रीमामा लेवा रखा है तेषामां माथे उपाडेल छे पाणीनुं बेडु जेणीप तेषी वृद्ध श्रीप ते बन्नेनी आकृतिथी आ पण्डित नेम जाणीने परदेश गयेला गोताना पुत्रना आगमन सम्बन्धमां पूछ पूछतातज माथा उपरथी जमीन उपर पडीने घडी सैकडो खण्ड यह गयो ते उपरथी एकदम उतावळीआ श्रीजा शिष्ये कधुं के समारो पुत्र घड़ानो माफक विनाश पासी गयो छे तुरतज विचारक विनीत शिष्य बोल्यो हे मित्र ! आम न बोलीश पुत्र तेजीना घरे आलो छे, हे माताजी आप घरे पधारी पुत्रमुख जुओं, त्यारबाद नवुं जोवनर पामेलाज जाणे होय नहि तेम ते वृद्धा विनीत सेंकडो आशीर्वादां आपती घर आषी, तुरतमांज आवेला पोताना पुत्रने जोयो, पुत्रे मालाने नमस्कार कर्या, माताए पोताना पुत्रने आशीर्वाद आपया पूर्वक नैमित्तिकनो वृत्तान्त को पुत्रने पूछो वायुगल Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) ॥ ज्ञानबारे श्रुतनिश्रितमनिझनिभेदविचारः ।। दार) माथे केटलाक रुपीयानी विनोतनैमित्तिकने दक्षिणा आपी, बीजो शिप्य खेद पामतो छतो पोताना पिसमा विचारणा लाग्यो के निश्चये गुरुए मने बराबर भणाख्यो नथी नहि तो हुँ यथार्थ स्वरूप जाणतो भयो अने आ जाणे छ, ५ केम बने ?, गुरुर्नु कार्य करीने बेड गुरुनी पास आध्या, विनीतशिध्ये दर्शनमात्रमा ज मस्तक नमावी अञ्जलिपुट करी बहुमानमदिन आनन्दना आंसुये भीजायेला नेत्र गुरुचरणोनी चचे मस्तक स्थापन करी प्रणिपात काँ. बीजो शिष्य मात्सर्यानिथी धमधमतो किश्चित् पण मस्तक नमान्या विना पत्थरमा स्तम्भमी जेम अक्कड उभो रखो, गुरुए तेने कई अरे कम पगमा पडतो नथी ! तेणे कई आपे जेने सारी रीत भणाष्यां छै ते पगमां परशे. मने सारी रोते भणाग्यो नथी " तने सारी रीते केम मणाच्यो नथी " तेम गुरुना प्रश्नना जवाब मां तण पूषनी सर्व वृत्तान्त करो. हे वत्स ! से आ शी रोते जाण्यु ? गुरुए विनीत शिष्यने पूछ. विनीत जबाव आपे छ. आप पूज्य गुरुना फरमानवडे विचार करया शरु कयो, आ हाथोना पगला तो प्रसिद्ध छे पण विशेष विचारतां शृं हाथी इशे के हाथणीना ! त्यां पेशाब ओइने हाथणीना छे तेम निभय कयों, षळी मार्गना समण पहखे घाट उपर उगेलो वेलडीओनो समाह दायेलो शीर्ण विशीर्ण देख्यो पण हाथे पडग्वे मेम न देखवाथी हाथणी बाबी आंखे काणी छे, नमज आधा परिवार माहित हायणी उपर चढोंने जवाने बोजो लायक कोर न होई शके तेथी जार को राजधी मनुष्य जाय छे. से मनुष्ये कोइक स्थले हायणीथी उतरी पेशाब कों ने देखधाथी राणी छे, वळी वृक्ष उपर वळगेला लाल वस्त्राश्चलना तांतणा देषाथी ने सधया छे, जमीन उपर हाथ स्थापीने उटवानो आकार देखाथी गर्भवती तथा जमणो पग भारथी भुकेलो देखधाथी तुरतमांज पुत्रने प्रसवनारी छ, तेम सर्व निशप फर्या, तेमज वृत्वा श्रोनो प्रभ कर्या पछो तुरतज घट पही जबाथी भा प्रमाणे विचार कर्यो के “ जेम आ घट जेनाथी (माटीथी) उत्पन्न थयेलो ते त्यां (माटीमां) ज मळी गयो तेम पुत्र पण मानानो मेळाप पाम्यो, आ वृत्तान्त सांभळी .गुरुप विनीत शिष्य उपर सानन्दद्दष्टि मांनी प्रशंसा करी, बीजाने क' के नारोज आ दोष छे. जे तुं पाते विचार करतो भथी, अमे तो शाखना यथार्थ अर्थ मात्रनो उपदेश आपषामा अधिकारो छौये विचारणा करवानो तमारो अधिकार छे. (इति दृष्टान्तः) आ विगेरे बोजा पण अनेक दृष्टान्तो वैमायिको बुद्धिप्रदर्शक श्रीनन्विटीका विगेरेमा Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ लोकमफाशे तृतीयः सर्गः (सा. १६०) (३८१) याध्या छ, बैनयिकी बुद्धिन स्वरूप. "भरनित्थरणसमत्या, तिबग्गसुतन्य गहियपेयाला ॥ उभओ लोगफलषर, विषयसमुत्था हवा युद्धी ॥॥"भाषार्थःअति मारे कार्यनो पार पमाडवामा समर्थ धर्म अर्थ अने काम प ण वर्गना अपार्जनना उपायमून मन्त्र तथा अर्थनो सार ग्रहण करनारी उभयलोकमा फलने आपनारी अने पिनययी उरपल थपेल पेनयिकोबुद्धि कडेवाय छे. प्रत्र-त्रिवर्गमा सघार्थना सार प्रहपा करयापर्ण श्रुतहानमा अभ्यास विना बनी शके नाहि तो आ बुद्धि अभुत्तमिश्रित केवी रोते कडेवाय १ उत्तर-स्वरूप श्रुतमान होवा छत्ता पण बहुलतावृत्तिने आश्रयो अक्षतनिमितपणु जाणवू. कार्मिको तथा पारिणामिकी बुजिना उदाहरणोमां खितारों तथा अभ. यकुमारना दृष्टान्तो प्रग्थकारे साक्षात् बताख्या छ, छतां ते अतिप्रसिद्ध तथा अभयकुमार वृत्तान्त घणु विस्तीर्ण होवायी बीजा शन्तो लोकोपकारार्थ बनावायले. एक चोर कोइक पणिकमा घरमां राधियै कमळना आकारे खानर (वांकु) खोधु (पायु) स्यारबाद सपारमा अजाण्यो थइने तेज घरमा आधीने लोकोथी थती लातर (बाई) भी प्रशंमा सामळे छ. तेमां एक ग्घहुत बोल्यो, भणेलाने से दुष्कर छ जेणे जे क्रियाना अभ्यास कों हे ते ने कियानी उत्कृष्ट दशाने पामे मां का आश्चर्य नथी, पामलने प्रदीत करषा सरखं खेडुतर्नु पञ्चन सांभळी ते घोर क्रोधषी बलवा लाग्यो, कोइ पुरुषने आ कोण छ अने कोनो सम्बन्धी छ ? विगेरे तेनु स्वरूप पूछी पक दिषस छरी ला ने तेनी पांसे खेतरमा गयो, अरे तने जमणांज भारी नाखु छु. नेणे का शो हेतु ? चोरे कंधु ते दिवसे ते' मारा खातरनी प्रशंसा न करी माटे, खेत मोम्यो प तो मार्नु छ के में पुरुष ने क्रियामां निरन्तर अभ्यासपरायण होय ते पुरुष ते क्रियामा अधिकतावाको थाय छ, लेमां हुं पोतेज पृष्टान्तरूप छु, आ मारा हाथमा रहेला मगने तुं जो कहे तो वधाने अधोमुरखे अगषा ऊर्ध्वमुखे अथवा पडखाभर नाखु ! अतिषिस्मय पामेलो चोर मौल्यो बधा मग अधोमुखे नांख्य, जमीन उपर लुगडं पायु सधैं मगना वाणा अधोमुखे नांख्या चोरने घणो विस्मय थयो, पारंवार गरी कुशलताने पखाणवा लाग्यो अहो आश्चर्यकारी कलाविज्ञान छे! 1 1 षळी चोरे का जो अधोमुखे न नांग्या होत तो निधये हु तने मारी नाखत | अही खेडुतनी वाणा नलिवानी कुशळता भने चौरमी खातर (याकू) पडवानी कुशलता प कर्मजा बुद्धि . आ विगेरे वीजा अनेक दृष्टान्तो छे. इति कर्मजा बुद्धिः ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८२) || ज्ञानद्वारेश्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ॥ द्वार] र्मिकी बुद्धि कहेवाय. अने ते बुद्धि केटलाएक चितारा वगेरे कारिगरांमां देखाय छे जेम डोशीयार चितारो रूप चितरवानो भूमिनुं माप कर्या शिवाय पण आटला मापनुं रूप थशे तेम जाणे छे. पोंछी उपर तेटलोज रङ्ग ल्ये छे के जेटलानुं प्रयोजन होय ते विगेरे कार्मिकी बुद्धि जाणवी ॥७५६॥ तथा घणा दीर्घकाळ सुधी पूर्वापर विचारादि कर्याधी उत्पन्न थयेलो जे आत्मधर्म ( आत्मस्वभाव ) ते अहिं परिणाम कहेवाय, अने ते परिणामथी जे उत्पन्न थयेली ॥ ७५७ || अनुमान तथा हेतुमात्रा (साध्यस्यान्तः वडे साध्य पदार्थने सिद्ध करवावाळी, वचना परिपाकथी पुष्ट थयेली तथा भविष्यमां सुख अने मोक्ष आपनारी ॥ ७५८ ॥ जे बुद्धि अभयकुमारादिकना सरखी होय ते चोथी पारिणामिकी बुद्धि जाणवी, ( जैम अभयकुमारे चण्डप्रद्योत राजा पासेयी चार बढ़ान पारिणामिकी बुद्धिना सम्बन्धमां दृष्टान्त बतावे छे एक कुमार ने मोदक (लाडवा) घणा प्रिय छे से पहेली उमरमां को वखत गुणनीमां बीओ विगेरेनी साथै जमा गयो श्यां इच्छा प्रमाणे मोदको खाता अजीर्ण थयाथी अतिशय दुर्ग या अघोषात छुटवाची विचारणा लाग्यो के अहो धिक्कार छे आ शीरंगे के जेना सम्बन्धयी सुन्दर अनं मनोहर एका पण लोट घो साकर विगेरे ग्रथ्यो खरात्र गन्धवाळा थया, आ अशुचि शरीरमें विकार एडी तेना मोइने पण विकार पढो के जे आ शरीरने माटे प्राणीओ पापारम्भ करे छे. इत्यात्रि स्वरूपत्राळी परिणामिकीबुद्धि यह एम उत्तरोत्तर शुभ शुभतर अध्यक्षला यना प्रभावश्री अन्तर्मुहुर्ते ते कुमारने केवलज्ञानी उत्पत्ति यह आ विगेरे अनेक दुष्ट. १. तात्पर्य पछे के मनुष्य प्रेम प्रेम काम करतो जाय तेममते काममां तेनी वधु ने वधु बुद्धि खीलती आय ५ कामना अभ्यासथी [वीलेली बुद्धि कार्मिकी कवाय. २ मनुष्य जेम प्रेम भोटो यतो जाय छे सेम तेम उम्मरमा प्रमाणमां sant अनुभव रूप बुद्धि पारिणामिकी काय तात्पर्य छे. कोई ठेकाणे वृष्टान्त बिना पण अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुधदे साध्यसिद्धि थाय छे, तेथी अहीं मात्र शब्द मुक्यो छे अनुमान अंन हेतु ए ऐ शब्द मुकेला दोषाथी प्रथम अनुमान शब्दे स्वार्थानुमान सेतुं भने हेतु शब्दयो परार्थानुमान लेखूं, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६म) ॥ श्रीलोकमसाशे तृतायः सर्गः ॥ (सा० १६०) (३८३) नी मांगणी करी, खुमो पाहता छतां पण चण्डप्रयोत राजानी नगरीमायोज चण्डप्रयोत राजा बांधीने लइ जवाया ते विगैरे अभयकुमाग्नी पारिणामिको बुद्धि जाणी.) एयी पांचमी पृद्धि तो अरिहंतोर पण दीठी नधी ( अर्थात् बुद्धि चा. रज छे पण पांचमी बुद्धि छेज नहिं ॥७५९॥ कारणके लोकमां मति के प्रकारनी जछे.तेमांजे शास्त्रवडे संस्कार पामेली पुद्धिथी शास्त्रोक्त पदार्थोना विचार करवायडे उत्पन थपेली ते प्रथम श्रुतनिश्रित कहेवाय छे ॥७६०॥ अने सर्वथा शास्त्रना सरिहित जीवने तेवा मकारना क्षयोपशमयी उत्सम थयेली बुद्धि ते अश्रुतनि श्रित कहेबाप ॥७२॥ पूर्व कहेलो आ चार बुद्धिमां सर्वे अश्रुतनिश्रितबुद्धिो अंतर्गत याय है, माटे पांचमी बुद्धिनो संभव नथी. ॥ ७६२ ॥ ए भावार्थ नंदी सूत्रनी वृत्ति अने ठाणांग सूत्रनी वृत्ति वगरेमा फह्यो छे तथा पूर्व व्यतीनगयेला संरख्यात भवने प्रगट करनार जे जातिस्मरण शान ते पण स्मृतिरूप शेवायी निश्चय मतिज्ञाननो ज भेद है ॥ ७६३ ॥ जे कारणधी आचारांगनी टीकामा काछ के-"जातिस्मरण शान ते आमिनिबोधिक (मतिज्ञान) वि. शेप डे" ए प्रमाणे मतिज्ञानतुं स्वरूप कार्यु. श्रूयते तत् श्रुतं शब्दः, स श्रुतज्ञानमुच्यते। भावश्रुतस्य हेतुत्वाद्धेतौ कार्योपचारतः ॥७६।। श्रुताच्छब्दादुत ज्ञानं, श्रुतज्ञानं तदुच्यते । श्रुतग्रन्यानुसारी यो, बोधः श्रोत्रमनःकृतः ॥७६५॥ ननु श्रुतज्ञानमपि श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तकम् ।तन्मतिज्ञानतः कोऽस्य,भेदो? यत्कथ्यते पृथक्॥७६६॥ अत्रोच्यते ॥ वर्तमानार्थविषय, मतिज्ञानं परं ततः । गरीयोविषयं त्रैकालिकाथेविषयं श्रुतम् ।। ७६७ ॥ विशुद्धं च व्यवहितानेकसूक्ष्मार्थदर्शनात् । छद्मस्थोऽपि श्रुतबलादुच्यते श्रुतकेवली ।। ७६८ ।। तदुक्तं ॥ "न य णं अणाइसेसी, बियाणइ एस छउमथो"त्ति (नचैनमनतिशयो विजानात्येव छद्मस्थ इति सा. १६१) ॥ जीवस्य ज्ञस्वभावस्वान्मतिज्ञानं हि शाश्वतम् । संसारे भमतोऽनादौ, पतितं न कदापि यत् ॥ ७६९ ।। अक्षरस्यानन्त Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८४) ॥ज्ञानद्वारे श्रुतनिश्रितमतिज्ञानभेदविचारः ॥ द्वार] भागो, नित्योद्घाटित एव हि । निगोदिनामपि भवदित्येत- " त्पारिणामिकम् ॥७७०॥ यदागमः ।। "सब्बजीवाणं पिअ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ चिट्ठइ, जइ सोवि आवरेजा तेणं जीवो अजीवत्तणं पावेजा" इति ( सर्वजोवानामपि चाक्षरस्यानन्तभागो नित्योदघाटितस्तिष्ठति । यदि सोऽप्यात्रियेत ततो जीवोऽजीवत्वं प्राप्नुयात् ) (सा० १६२) ।। श्रुतज्ञानं पुनवं, भवेज्जीवस्य सर्वदा । आप्तोपदेशापेक्ष यत्, स्यादेतन्मतिपूर्वकम् ॥ ७७१ ॥ मतिज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् । श्रुतं तुस्याल्लब्धितोऽपि, पदानुसारिणामिव ।। ७७२ ।। इत्याद्यधिकं तत्त्वार्थवृत्त्यादिभ्योऽवसेयं । (सा० १६३) श्रुत ज्ञानन स्वरूप-जे श्रूयते-संभलाय ते श्रुत अर्थात् शन्द ते श्रुत. ज्ञान कहवाय. कारणके शब्द ते भावश्रुतर्नु कारण के माटे कारणमा कार्यनो उपचार करवाथी ( शब्द एज श्रुतझान छ.)।। ७६४ ॥ अथवा श्रुतथी-शब्दथी जे ज्ञान थाप अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय अने मनथी थयेलो जे श्रुतग्रंथने अनुसग्नो बोध ते श्रुतज्ञान कहेवाय. ॥ ७६५ ।। शंका- जो श्रुतज्ञान पण धोत्रेन्द्रियना कारणवाळ छे तो ( श्रोत्रन्द्रिय संबंधि) मतिज्ञानथी एनो भुं भेद छे के जेथो श्रुन झानने मतिज्ञानथी जूहूँ कहेवामां आवे छे ? ।। ७६६ ।। उत्तर-मनिज्ञान चतमान अर्थना विपयवाछ के (अर्थात् मतिज्ञानथी वर्तमानकालना भावी जणाय .) अने श्रुनज्ञान त्रणेकाळना भावोने जाणनाई छ माटे मनिशानथी मोटा विषयवाई अने मतिज्ञानथी पर (जूदु अयवा श्रेष्ठ) के. ॥७६७॥ तेमज मनिज्ञानथी विशेष विशुद्ध छे.जे कारणथी अंतरित (परोक्ष रहेला) एवा अनेक सूक्ष्म पदार्थोने (भावोने) जाणनार होवाथी छनस्थ पण ए श्रुतज्ञानना बलथी श्रुतकेवली फवाय छे ||७६८ छे के "अणाइसेसी-तथा प्रकारना अतिशयवाळा ज्ञान विनाना जीवी एस छउमत्य-आ छअस्य के त्ति-एम न नहियण-एमने (श्रुतफेवलीने) वियाणह-जा-णे.” जीवनो ज्ञानस्वभाव होवाथी मतिज्ञान निश्चपथी शाश्वत छ,' Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D (२६ ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १६३] (३८५) कारणके अनादिकाळथी संसारमा परिभ्रमण करतां जीवने मतिज्ञान कोइपण वखते पतित ( नष्ट ) ययु नयी ॥ १६९ ॥ वळी निगोदीया ( लब्धि अपर्याप्त सू० निगोदीया ) जीवने पण अक्षरनो (शाननो ) अनंतमो भाग सदा उघाहो (निरावरण ) न रहे छ ए हेतुथी आ श्रुतज्ञान पारिणामिक है, ॥ ७७० ॥ आगममां (श्री नन्दिसूत्रमा ) का छे के-“ सर्व जीवोने पण अक्षरनो (श्रुतज्ञान अथरा भाष्यकारना विचार प्रमाणे श्रुतमिश्रित केवलज्ञान अक्षर शब्दे ग्रहण कराय छै.अने श्रुतज्ञान मतिझाननु सहचारि होवाथी अक्षरशब्दे मतिज्ञान पण लेवाय छे ) अनंतमो भाग सदाकाल उयाहो रहे छे, जो ते पण अवराइ जाय तो जीव ते अजीवपणुं पामो 'जाय (अर्थात् अजीबसरखो जह थइ रहे.) वळी ए * प्रमाणे श्रुतज्ञान जीवने सदाफाळ होतुं नयी. कारणके ते आमपुरुपना उपदेशनी अपेक्षावाल छ । अर्थात् सत्यवक्ताना उपदेशयी प्राप्त थाय छ ) अने ते पण मतिज्ञान पूर्वक थाय छे (पण मतिज्ञान विना श्रुतज्ञान थर्नु नधी.) ॥७७१॥ वळी मतिझान स्पर्शेन्द्रियादि ५ इन्द्रिय अने मनना निमित्तवाछै छ, गाने मुत्तमान पदानुसारिशनिवाला मनुष्योनी माफक लब्धिथी पण होय छे. ।। ७७२ ।। इत्यादि अधिक वर्णन श्रीतत्त्वार्धवृत्यादिकथी जाणवो. चतुर्दशविधं तच्च,यद्वा विंशतिधा भवेत् । चतुर्दशविधत्वं तु, तत्रैवं परिभाव्यते ॥ ७७३ ॥ अक्षरश्रतमित्येकं, स्याद हिती. यमनक्षरम् । तार्तीयिक संज्ञिश्नुतं, तुर्य श्रुतमसंज्ञिनः ।७७४ । सम्यक्श्रुतं पञ्चमं स्यात्, षष्ठं मिथ्याश्रुतं भवेत् । सादिश्रुर्त सप्तमं स्यादनादिश्रुतमष्टमम् ॥ ७७५ ॥ सान्तश्रुतं तु नवम १ संखाईए उ भधे, मं वा माहा परी उ पुच्छला जयण अणाइसेंसी, चियाणा एस छउमात्यो । ३॥ति पूर्णगाथा अर्थः--बीजो मनुष्य असंख्यात भव आगळ पाइन्टनी जे पात पई ने पण कहे माटे अतिशयतानी विना श्रुतकेवलिने आ छनण , एम न जाणे-इति तात्पर्यः २ लोकादिकनु पक पद सांभळता आखा श्लोकादिकनु झान थाय ने पदानुसारी हधि कषाय. * विशिष्ट श्रुतक्षामनी अपेक्षाये आ विचार बताया छे भेव दर्शावधाना हेनुरुप. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) ॥ ज्ञानद्वारे श्रुतज्ञानचतुर्दशभेदविचारः ॥ द्वार) मनन्तं दशमं श्रुतम् !' एकादशं गरारूपनगमं शादर्श पुनः ॥ ७७६ ॥ त्रयोदशं त्वङ्गरूपमङ्गबाह्यं चतुर्दशम् । प्रायो व्यक्ता अमी भेदास्तथापि किश्चिदुच्यते ॥ ७७७ ॥ तत्राक्षरं विधा संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभेदतः । तत्र संज्ञाक्षरमेता लिपयोऽष्टादशो. दिताः ॥ ७७८ ।। तथाहि-हंसलिवी १ भूअलिबी २ जक्खा ३ तह रक्खसी ४ य बोद्धव्या । उड्डी ५ जवणी ६ तुरक्की ७ कोरा ८ दविडी ९ य सिंधविआ १० ॥१॥ मालविणि ११ नडि १२ नागरि, १३ लाडलिवी १४ पारसि १५ य बोद्धब्बा । तह अनिमित्ती अ लिवी १६, चाणक्की १७ मूलदेवी १८य ॥२॥(हंसलिपि तलिपियक्षा तथा राक्षसी बोद्धच्या उड्डी यवनी तुरुष्कीकीरी द्राविडो च सैन्धवी मालवी नटी नागरी लाटलिपिः पारसी च बोद्धव्या तथा नैमित्तिको चलिपिः चाणाक्यी मूलदेवी च)(सा. १६४) अकारादिहकारान्तं, भवति व्यखनाक्षरम्।अज्ञानात्मकमप्येतद्,द्वयं स्यात् श्रुतकारणम् ।७७९॥ ततः श्रुतज्ञानतया,प्रज्ञप्तं परमर्षिभिः। लब्ध्यक्षरं त्वक्षरोपलब्धि. रर्थावबोधिका ॥ ७८० ॥ तच्च लब्ध्यक्षरं षोढा, यत् श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः । बोधोऽक्षरानुविद्धः स्याच्छब्दार्थालोचनात्मकः ॥ ७८१ ॥ यथा शब्दश्रवणतो, रूपदर्शनतोऽथवा । देवदत्तोऽयमित्येवंरूपो बोधो भवेदिह ॥ ७८२ ॥ एवं शेषेन्द्रियभावना कार्या ॥ तैरक्षरैरभिलाप्यभावानां प्रतिपादकम् । अक्षरश्रुतमुद्दिष्टमनक्षरश्रुतं परम् ॥ ७८३ ॥ तथोक्तम् ।। उससि नीससिअं, निच्छुढं खासि च छीअं च । निस्संघिअमणुसारं अणक्खरं छेलियाईयं ॥७८४॥ (उच्छ्वसितं निःश्वसितं निष्ट्यूतं कासितं च क्षुतं च । निःसिंधितमनुस्वारं अनक्ष Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६W ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १६८ (३८) रं वेडितादिकं ) ( सा० १६५ ) अयं भावः ॥ कासितक्ष्वेडिताद्य यन्मामाह्वयति यक्ति वा । इत्याद्यन्याशयग्राहि, तत्स्यात् श्रुतमनक्षरम् ।। ७८५ ॥ इह च शिरःकम्पनादिचेष्टानां पराभिप्रायज्ञानहेतुत्वे सत्यपि श्रवणाभावान्न श्रुतत्वं, त. दुक्तं विशेषावश्यकसूत्रवृत्तौ ॥ “रुढीइ तं सुझं सुच्चइति चेट्ठा न सुच्चइ कयावि"त्ति । (रूढ्या तत् श्रुतं श्रूयते इति, चेष्टा न श्रूयते कदापीति) (सा० १६६) उक्तन्यायेन श्रुतत्वप्राप्तौ समानितायामपि तदेवोच्छ्वसितादि श्रुतं न शिरोधूननकरचालनादिचेष्टा, यतः शास्त्रज्ञलोकप्रसिद्धा रूढिरियमितिकर्मग्रन्धवृत्ती तु शिरःकम्पनादीनामप्यनक्षरश्रुतत्वमुक्तं ॥ तथा च तद्मन्थः ॥ अनक्षरश्रुतं वेडितशिरःकम्पनादिनिमित्तं मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानमिति [सा०१६७] ॥स्यादीर्घकालिकी संज्ञा, येषां ते संझिनो मताः। श्रुतं संज्ञिश्रुतं तेषां, परं वसंज्ञिकश्रुतम् ॥७८६|| सम्यकुश्रुतं जिनप्रोक्तं, भवेदावश्यकादिकम् । तथा मिथ्याश्रुतमपि, स्यात्सम्यग्दृपरिग्रहात् ॥ ७८७ ॥ आवश्यकं तदपरमिति सम्यक् श्रुतं द्विधा । पोढा चावश्यकं तत्र, सामायिकादिभेदतः ॥ ७८८ ॥ तथाहि ॥ सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं पडिक्कमणं काउसग्गो पच्चक्खाणं चेति । (सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवः वन्दनकं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानमिति ) ( सा० - १६८ ॥ आवश्यकेतरच्चाङ्गानगात्मकतया द्विधा अङ्गान्येकादश दृष्टिवादश्चाङ्गात्मकं भवेत् ॥ ७८९ ॥ आचाराङ्गं सूत्रकृतं, स्थानाङ्गं समवाययुक् । पञ्चमं भगवत्यग. ज्ञाताधर्मकथापि च !॥ ७९० ॥ उपासकान्तकृदनुत्तरोपपातिकाह Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८८) ॥ श्रुतज्ञानचतुर्दशमेदव्याख्याविचारः ॥ द्विार शाः । प्रश्नव्याकरणं चैव, विपाकश्रुतमेव च ॥ ७९१ ॥ परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वानुयोग ३ पूर्वगत ४ चूलिकाः ५ पञ्च । स्युदृष्टिवादभेदाः, पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ॥ ७९२ ॥ गी. तिः । तानि वम उत्पादपूर्वमग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवाद स्यात् । अस्तेर्ज्ञानात्सत्वात्तदात्मनः कर्मणश्च परम् ॥ ७९३॥ प्रत्याख्यान विद्याप्रवादकल्याणनामधेये च । प्राणावायं च किलारिशालमथ लोकबिन्दुसारमिति ॥ ७९ ॥ गीतिः ॥ दृष्टिवादः पञ्चधाऽयमङ्गं बादशमुच्यते । उपाङ्गमूलसूत्रादि, स्यादनात्मकं च तत् ॥७९५॥ एवं च ॥ यदुक्तमर्थतोऽर्हद्भिः, संहब्धं सूत्रतश्च यत् । महाधीभिर्गणधरैस्तत्स्यावङ्गात्मकं श्रुतम् ॥ ७९६ ॥ ततो गणधराणां यत्पारम्पर्याप्तवाङ्मयैः । शिष्यप्रशिष्यैराचायः, प्राज्यवाङ्मतिशक्तिभिः ॥ ७९७ ॥ कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तिधीस्पृशाम् । अनुग्रहाय संदृब्धं, तदनङ्गात्मकं श्रुतं ॥ ७९८ ।। सृष्टान्यज्ञोपकाराय, तेभ्योऽप्यक्तिनर्पिभिः । शास्त्रैकदेशसंबद्धान्येवं प्रकरणान्यपि ॥७९९ ॥ एतल्लक्षणं चैवम् ।। शास्त्रकदेशसंबद्धं,शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम, अन्धभेद विपश्चितः ॥ ८०० ॥ एवं च वक्तृवैशिष्टयादस्य द्वैविध्यमीरितम् । वस्तुतोऽहत्प्रणीतार्थमेकमेवाखिलं श्रुतम् ॥८०१॥ तथोक्तं तत्त्वार्थभाष्ये॥ वक्तृविशेषाद वैविध्यमिति' (सा. १६९)।किञ्च॥ व्याकरणच्छन्दोऽलकृतिकाव्यनाट्यतर्कगणितादि । सम्यग्दृष्टिपरिग्रहपूतं सम्यक्श्रुतं जयति ॥ ८०२ ॥ मिथ्याश्रुतं तु मिथ्यात्विलोकः स्वमतिकल्पितम् । रामायणभारतादि, वेदवेदाङ्गकादि च ॥ ८०३ ॥ उक्तं च भाष्यकृता। सदसदविसेसणाओ,भवहेउजहिच्छिओ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १७५ (३८५) वलंभाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छबिट्ठिस्स अन्नाणं ॥१॥ (सदसदविशेषात्, भवहेतुत्वतो यदृच्छोपलम्भात् । ज्ञानफलाभावात् , मिथ्यादृष्टेरज्ञानं ॥ ) ( सा० १७० ) पूर्वान्तर्गतेयं गाथा । ऋग्यजुःसामाथर्वाणो, वेदा अङ्गानि पट् पुनः। शिक्षाकल्पो व्याकरण, छन्दोज्योतिर्निरुक्तयः॥८०४ । ततश्च ॥ षडङ्गी वेदाश्चत्वारो, ममांसाऽऽन्वीक्षिकी तथा । धमशास्त्रं पुराणं च, विद्या एताश्चतुर्दश ॥८०५॥ तथा ॥ आयुवेंदो धनुर्वेदो, गान्धर्व चार्थशास्त्रकम् । चतुर्भिरेतेः संयुक्ताः, स्युरष्टादश ताः पुनः ॥ ८०६ ॥ अपूर्णदशपूर्वान्तमपि सम्यक् श्रुतं भवेत् । मिथ्यात्विभिः संगृहीतं, मिथ्याश्रुतं विपर्ययात् ॥ ८०७ ।। हन्यशेषकालावैः, सामन्तं भवनि शुतम् । अनाद्यपर्यवसितमपि ज्ञेयं तथैव च ।। ८०८६ एकं पुरुषमाश्रित्य, सायन्तं भवति श्रुतं । अनाद्यपर्यवसित, भूयसस्तान् प्रतीत्य च ।। ८०९ ॥ भवान्तरं गतस्याशु, पुसो यन्नश्यति श्रुतम् । कस्यचित्तद्भव एव, मिथ्यात्वगमनादिभिः ॥ ८१० ॥ तदुक्तं विशेषावश्यके ॥ “चउदसपुवी मणुओ, देवत्ते तं न संभरह सव्वं । देसंमि होइ भयणा, सट्ठाणभवे वि भयणा उ॥१॥" [चतुर्दशपूर्वी मनुजो देवत्वे तन्न मिरति सर्वं ।। देशे भवति भजना, स्वस्थानभवे पि भजना तु] ( सा० १७१) देशे पुनरेकादशाङ्गलक्षणे इति कल्पचूर्णिः (सा० १७२) । स्वस्थानभव इति मनुष्यभवेऽपि तिष्ठतो भजना ॥ तत्र श्रुतज्ञाननाशकारणान्यमूनि ॥ 'मिच्छभवंतरकेवलगेलन्नपमायमाइणानासोति [मिथ्यात्वभवान्तरग्लानत्वप्रमादादिना नाश इति ] (सा० १७३) षष्ठाङ्गचतुर्दशाध्ययने तु तेतलिमन्त्रिणः पूर्वाधीत Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९. __ शामबारे भुरावानातुर्दशभेदविचारः ॥ _ (द्वार) चतुर्दशपूर्वस्मरणमुक्तमस्तीति ज्ञेयम् ( सा. १७४ ) । साद्यन्तं क्षेत्रतो ज्ञेयं, भरतैरवताश्रयात् । अनाद्यपर्यवसितं, विदेहापेक्षया पुनः ।।८११॥ कालतश्चावसर्पिण्युत्सर्पिण्योः सादिसान्तकम् । महाविदेहकालस्यापेक्षयाद्यन्तवर्जितम् ॥८१२॥ भवसिद्धिकमाश्रित्य, साद्यन्तं भावतो भवेत् । छानस्थिकज्ञाननाशो, यदस्य केवलक्षणे ॥ ८१३ ।। 'नट्ठमि य छाउमथिए नाणे [ नष्टे च छाद्मस्थिके ज्ञाने] इति वचनात् । (सा. १७५) अनाद्यनन्तं चाभव्यमाश्रित्य श्रुतमुच्यते । श्रुतज्ञानश्रुताज्ञानभेदस्यात्राविवक्षणात् ॥ ८१४ ॥क्षायोपशमिकभावे, यद्वाऽनाद्यन्तमोरितम् । एवं साद्यनादिसान्तमनन्तं श्रुतमूह्यताम् ॥ ८१५ ॥ गमाः सदृशपाठाः स्युर्यत्र तद्गमिकं श्रुतम् । तत्प्रायो दृष्टिवादे स्यादन्यच्चागमिकं भवेत् ॥ ८१६ ॥ अङ्गाविष्टं द्वादशाङ्गान्यन्यदावश्यकादिकम् । इत्थं प्ररूपिताः प्राज्ञैः, श्रुतभेदाश्चतुर्दश ॥८१७॥ अर्थः-ते श्रुतज्ञान १४ अथवा २० प्रकारनुं छे, तेमां १४ प्रकार आ प्रमाणे कहेवाय छे. । ७७३ ।। हेलं अक्षस्श्रुत, बीर्जु अनक्षरश्रुत-त्रीजु संनिश्रुतु-चौघु अ संजिश्रुत !॥ ७७४ ॥ पांचमु सम्यक्श्रुत-छटुं मिथ्याधन-सात, सादिश्रुत-आठर्मु अनादिश्रुन || ७७२ ॥ नवमुं सान्तश्रुत-दशम अनन्तश्रुत-अगीआरगं गमिकश्रुत, बारम अममिकश्रुत ॥ ७७६ ।। तेर# अंगश्रुत-चौदभु अनंगभ्रुत ए१४ मेद प्रायः ( घणुंकरीने ) मगट अर्थवाळा छे तो पण तेओर्नु किंचित स्वरूप कडेवाय छे ।। ७७७ ॥ त्यां अक्षरश्रुत संज्ञा-व्यंजन-अने लब्धिना भेदथी ३ प्रकारनुं छे. त्यां आगळ कहवाती १८ प्रकारनी लीपीयो ने संज्ञाक्षरभुत कडेलु छ. ॥ ७७८ ।। ते आ प्रमाणे-"हंसलीपी-भृतलीपी-यक्षलीपी-तेमन राक्षसी लिपी जाणवी-उडी लिपी-याननीलिपी-तुर्कीलिपी-कीरलिपी द्राविडी लिपी-सैंधवी लिपी ॥ १॥ मालविणीलिपी-नडीलिपी-नागरी लिपी-लाटलिपीपारसीलिपी--तथा अनिमित्तीलिपी-चाणाक्यलिपी--अने मूलदेवी लिपी प Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६W] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १६०) (३९१) ण जाणवी ॥२॥अकारथी हकार सुधीना अक्षरो (खोलाता अक्षरो) ते व्यंजनाक्षर श्रुतज्ञान के. ए वने (लिपी अने व्यंजन ) पोते अज्ञानरूप (जहरूप) के तोपण श्रुतज्ञान कारण छे ॥ ७७५ ॥ मारे पूर्वाचार्योए से बन्नेने श्रुतज्ञान रूप कहेल के. अने अर्थनो बोध करनारी एपी जे अक्षरोपलब्धि ते लेन्ध्यक्षर श्रुतज्ञान छे. ॥ ७८० ॥ ते लब्ध्याक्षर श्रुतज्ञान [इन्द्रिय अने मनबहे ] ६ प्रकारनुं छे, कारणके श्रोत्रादि इन्द्रियोवडे पण शब्दना अर्थनो विचार करवारूप जे शान थाय छे ते अक्षरानुविद्ध-अक्षरयुक्त ज छ. ॥ ७८१ ॥ जेम शब्द सांभळवा. थी अथवा रूप देखवाथी "आ देवदत्त है। एवा प्रकारनो (चितवन अक्षर पूर्वक) वोध याय के. ॥७८२।। ए प्रमाणे शेष (त्रण) इन्द्रियोमां पण विचारवं, ते अक्षरवडे अभिलाप्य (बचनगोचर ) भावोने प्रतिपादन करनार अक्षरश्रुत कयुं छे अने तेथी चीजें अनक्षर श्रुत छ।।७८३॥कर्ष छे के उच्छ्वास लेवो, निःश्वासलेवो, धुंक, खांसी खावी, छींक, नाक नसीकg, गणगणाट करवो, अने खुंखारी फरवो इत्यादि अनक्षर श्रुतज्ञान छ" ।। ७८४ ॥ तात्पर्य ए ले के-उधरसखोखारो वगेरे के जे मने बोलावे के अथवा मने कहे छे इत्यादि वीजाना अभिमायने ग्रहणकरनार ( प्रगट करनार ) होय ते अनक्षर श्रुतज्ञान छे. ॥ ७८५ ॥ जो के अहिं शिरकंपनादि चेष्टाओ पण परनो अभिप्राय अणावनार के छा पण ने चेष्टाओ श्रोत्रेन्द्रिय ग्राय नहिं होबाथी श्रुतझान नथी. श्रीविशेषावश्यक सूत्रनो वृत्तिमाकयु छ के-"रुद्वीए करीने तो जे संभकाय ते श्रुत कहेवाय,अने चेष्टा तो कदीपण संभळाती नथी. टीकार्थः-पूर्वोक्त न्यायधी (शिरः कंपनादिमा ) श्रुतपणानी प्राप्ति सम्पकमकारे आवे छे तो पण ते उच्चा सादिज श्रुतज्ञान कहेवाय, परन्तु शिकंपन अने हस्तपालनादि चेष्टाओ श्रुतज्ञान न कहेवाय. कारणके शास्त्रमा अने लोकमां पण एज प्रसिद्ध रुढी छे. अने कर्मग्रन्थनी वृत्तिमा तो शिरसकंपनादिकने पण अनक्षरश्रुतज्ञान गणेलु छे, ते १ तास्पर्य ए छ के लल्लाता अमगे ते संज्ञाभर, (संकेतिताक्षर) उच्चाराता: अक्षरी ते व्यंजगाक्षर, अने मममां विधाराता अक्षरो अथषा आत्मामा बोधरूप अव्यक्त अक्षरो से लमध्यभर कठेवाय २ शब्दमा अर्थनो विचार करतां पण आस्मानी अंदर अक्षर पंक्ति पू. का विचार कराय छे माटे ते अंतरंम अक्षरपंक्ति पज लब्ध्यक्षर अथवा अक्षरानुविद्धपणु कहेवाय. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ज्ञानद्वारं श्रुतज्ञान चतुर्दशभेद विचारः ॥ (३९२) (द्वार == नां पाठ आ प्रमाणे “मने बोलावे हे अथवा मना करे छे इत्यादि रूप अभिप्रायना ज्ञान के जे खखारो अने शिरःकंपनादिनिमित्तथी उत्पन्न थयेलं छे ते पण अनक्षर श्रुतज्ञात है, " ओ का संज्ञि कहेला छे, अने ओनुं जे श्रुतज्ञान ते संज्ञित अने तेनाथी पर ( असंक्षिजीवोनुं श्रुतज्ञान ते ) असंज्ञित कहेलं छे. ॥ ७८६ ॥ श्रीजिने वरनुं कहेलं वचन जेमां होय तेत्रां आवश्यक सूत्रादि शास्त्रो ते सम्पर्क, अने सम्यग्दृष्टिजीवोये (सम्यक् अर्थपणे ) ग्रहण करवाथी (भारत रामायणादि) मिथ्याशास्त्री पण सम्यक त है. ॥ ७८७ || अहिं आव श्यक अने अनावश्यकना भेदयो सम्यक् श्रुत बे प्रकार के तेमां पण आवश्यक ज्ञान सामायिकादि भेदथी छ प्रकार है || ७८८ ।। ते आप्रमाणे- १ सामायिक-- २ चतुर्विंशतिस्तव-- ३वन्दनक-४मतिक्रमण - कायोत्सर्ग -ने ६ प्रत्याख्यान. तथा अनावश्यक श्रुतज्ञानना पण अंग अने अनंगपणावडे वे भेद छे. त्यां ११ अङ्ग अने दृष्टिवाद सूत्र ए बन्ने अङ्गश्रुत ज्ञान कहेवाय ।। ७८९ ।। तथा आचारांग सूत्रकृतांग-स्थानांग समवाय-पांच भगवतिसूत्र -छट्टु ज्ञाताधर्मकथा -11७९० ॥ उपासकदशांग-अंतकृतदशांग-अनुत्तरोपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण- विषाक श्रुत( प ११ अंग छे तथा १२ मा दृष्टिवादम) ।। ७९१ ।। परिकर्म-सूत्र- पूर्वानुयोग- पूर्वगतअने चूलिका ए पांच दृष्टिवादना मेद छे. त्यां पूर्वगत भेदमां १४ पूर्व है ॥७९.२॥ ते आ प्रमाणे- १ उत्पाद पूर्व- २ अप्रायणी पूर्व - ३ वीर्यमवाद - ४ अस्तिप्रवाद - - ५ज्ञानमवादइसवमवाद - ७आत्मप्रवाद - ८ कर्ममवाद ।।७९३ ॥ प्रत्याख्यानपूर्व १० विद्यामवादअने ११ कल्याण - १२ प्राणात्राय- १३ क्रियाविशाल अने १४ लोकविंदुसार ए प्रमाणे ॥ ७९४ ॥ आ पांच प्रकारनुं दृष्टिवाद अंग बारमुं कहेवाय है. तथा १२ उपांग-४ मूलसूत्र (-अने ६ -१० पयन्नानंदि - अनुयोग वगेरे) ते सर्व अनंगल है. ॥ ७९५ ॥ अने ए प्रमाणे अरिहंते अर्थयी जे कथुं, अने महाबुद्धिबाळा गणधरोए जे सूत्ररूपे गुंथ्यं ते सर्व अंगश्रुत कहवाय ॥ ७९६ || अने त्यारपछी (विशाळ भाषा-मति भने शक्तिवाळा) श्रीगणधर भगवंतोनी परंपरा ए (अनुक्रमे ) पास करेल हे शास्त्रो जैम एवा गणधरोना शिष्य प्रशिष्यादि आचार्यों ए जे ॥ ७९७ ॥ काळ- संग्रयण-अने आयुष्यना दोपथी (ना कारणर्थी) अल्पशक्ति अने अल्पबुद्धि १ अथवा सम्यगष्टिनु जे श्रुत ज्ञान ते सभ्यत २ अथवा सम्यग्दृष्टि जीये ग्रहणकरेलां रामायणादिशाओ ते पण सम्यक् श्रुत. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकभकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १७५) (३०.३) बाळा जीवोना उपकार माटे जे श्रुत गुंथ्यु ते अनंगश्रुत कहेवाय. ॥७९.८॥ बळी ने मांयी पण ते पछीना आचार्योए तेओनाथी पण बधु अज्ञ जीवोना उपकारने माटे शास्त्रना एक देश ( विभाग ) संबंधवाळा गुंथेला प्रकरणो पण अनंगश्रुत कहवाय, १७९९।। प्रकरणर्नु लक्षण आ प्रमाणे छे--शास्त्रना एकदेश माथे संबंधशको [ आखा शास्त्रमांना पणा वियोमांथो एक चे विषय उरेल होय नेवं ] अने शास्त्रना कार्यान्तरमा रहेलो (-ज विपय जुदे रूपे गोठमेल होवाथी ने शास्त्रन एक वीजु रूपान्तर एवो ) जे ग्रन्थभेद (--अन्धविशेष ) तेने विद्वानो प्रकरण कहे छे. ॥ ८०० ।। ए प्रमाणे चक्ताना भेदयी ए श्रुनना पण वे भेद कह्या. परन्तु वास्तविक रीते तो ने सघळ श्रुत अहत्पणीत भावार्थवाळ होराथी एकज छे. ॥ ८०१ ॥ तत्त्वार्थभाष्यमा कय के के-"वक्ताना विशेषथी ( भे. दयो) चे प्रकारचें " वळी व्याकरण-छंद--अलंकार-काव्य नाटक--नर्क--- णित-वगेरे शास्त्र सम्यग्दृष्टिजीवे ग्रहण करवायी पवित्र थयेलं ( ग्रहण करेल ) ते सम्यक श्रुत जयवन्तु वर्त छे ।। ८०२ ॥ तथा मिथ्यादृष्टि लोकोप पोनानी मति कल्पनाथी रचेला भारत-रामायण-वेद-अने वेदांग (उपवेदादि वगैरे सर्व मिथ्याश्रुत कहेवाय.॥८०३॥भाष्यकारे कधुं छे के-सत् अने अमन पणाना तकावत विनानु, तथा संसार(द्धिार्नु कारण होचाथी इच्छा माफक(समजवाथी अर्थ कल्पवाथी)ज्ञानन फळ (विनि) नहिं महोबाथी, मिध्यादृष्टि जोवोनू जे ज्ञान ने अज्ञानज के ॥१॥ आ गाथा पूर्वमा (१४ मांना कोइक पूर्वमां) शी छे. ऋग्नेदयजुर्वेद--सामवेद-अथर्वणवेद-ए चार वेद छे, अने शिक्षा-कल्प-व्याकरण-छंदज्योतिष-अने निरुक्ति ए छ वेदना अंग छे. ॥ ८०४ ॥ अने तेथी छ अंग-४ धेद-मीमांसा-तर्कशास्त्र न्यायशास्त्र ) धर्मशास्त्र अने पुराण ए १४ विद्या कहेवाय छे. ॥ ८०५ ॥ तथा आयुर्वेद-धनुर्वेद-गांधर्व-अने अर्थशास्त्र ए चार सहित ते १४ विद्या करतां १८ विद्याओ पण कवाय छे ।। ८०६ ॥ वळी अपृ. १० पूर्व सुधीनुं श्रुतमान सम्यक् श्रुत पण होय छे, अने मिथ्यादृष्टि जीवोर ग्रहण करेलु ( अपूर्ण १० पूर्वनुं ज्ञान ) विपरीत अर्थरूप होवाथो मिथ्याश्रुन पण होय छे ॥ ८०७ ।। श्रुतंज्ञान द्रव्य-क्षेत्र-काळ-अने भावधी सादिसान्न ले, नेमज १ मिथ्यात्यो (अभव्यादि) जीवो पण ९ पूर्व मपूर्ण अने १० मा पूर्वना अमुक भाग सुधी भणे २ माटे, २ नयत्रिचारनी अपेक्षाये व्रठ्यास्तिकनयथी धर्मास्तिकायादिनी माफक श्रुतज्ञान अनादिअनन्त ठे, अने नारकादि पर्यायनी माफक एयांगास्तिकनयनी अपेक्षाये श्रुतज्ञान सावि माग्न रहे. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९४) ॥ ज्ञानद्वारे दृष्टान्तपुरःसरं श्रुतशानचतुर्दशभेदविचारः ॥ (हार अनादि अनन्न पण छ । ८०८ ॥ (ते आ प्रमाणे- ) एक पुरुषनी अपेक्षाए, श्रुतज्ञान सादि सान्त, अने घणा पुझपोनी अपेक्षाए अनादि अनन्न छे ।।८०९।। ( कारणके ) भवनमः गयेला दुरूपये भतशान र. नागे के भने कोइकने नो मिथ्यात्व पामवादिकबडे नेज भवां पण नाश पामे छ ।।८१०॥ श्री विशेषा०मां कहाधु के के-चौद पूर्वी मनुष्यने देवपणामां ते सर्वशुन न सांभरे (न याद आवे ). पण देश श्रुतमा भजना ( अनियम ) होय छे तेमज स्वस्थान भावमां पण भजना जाणवी. ॥१॥ अहिं देसे प. शब्दनो अर्थ " १? अंगमां " एवी रीते कल्पचूर्णिमां कों के,अने सहाणे ए शब्दनों अर्थ "मनुष्यभवमा" पण रहेनारने भजना रूप जाणवो. त्यां श्रुतज्ञान नाशपामवाना कारण आप्रमाणे छ मिथ्यात्वनी माप्ति-परभवमां गमन केवलज्ञान-ग्लानपणुं-अने प्रमाद वगरे कारणोथी (श्रुतंज्ञाननो) नाश थाय छे. बळी छठा अङ्गना (ज्ञातासूत्रना) खोदमा अध्ययना तो तेतली मंत्रिने (पूर्वभवमा अभ्यास करेल) चौद पूर्वन स्मरण का के एम जाणवु, क्षेत्रथी भग्न अने अरवतनी अपेक्षाए सादिसान्त जाणवू, अने महाविदेहनी अपेक्षाए अनादि अनंत जाण. ॥ ८११ । नथा काळधी अवसपिणी अने उत्सर्पिणी ( आ काळ ज्यां के ते भरतरवत क्षेत्र संवंधि काळ ) नी अपेक्षाए सादि सान्न, अने महाविदेहना ( नो उसर्पिणी नो अवसर्पिणो ) काळनी अपेक्षाए ( हमेश एक स्वरूपकाळ होबाथी) अनादि अनंत छ. ॥ ८१२ ॥ तथा भावधी भवसिडिक (-भव्य ] जीवनी अपेक्षाए सादि सान्त छे. कारण ते जीवने केवलज्ञानोत्पनि समये छाअस्थिक [ मत्यादि चार ] धाननो नाश थाय छे. ।। ८१३ ॥ कारणके "छानस्थिकज्ञान नष्ट थये छते । केवलज्ञान पगट थाय है-इति)" ए सिद्धा न्तनुं वचन छ, तथा श्रुतमा ज्ञान अजानना भेदनी विवक्षा कर्या विना ( मामा २ चौद पूर्व मर्यथा याद न आये ( देवपणे उपजेला जीधने.) २ देयपणामां कोईकने पूर्व भषमा भणेला ११ अंग याद आवे अथवा कोडने याद पण न आवं. पुरुघाहीयाई सामाइयमाइ चोइस पुश्यावं.सयमेव अभिसमन्त्रागया ३ जेणे मनुष्य भषमा १३ पूयनी अभ्यास कर्यो छ तेने तेज मनुष्य भवमा झानावरण कर्मना आवरणथी कोई जोव चौद पूर्य भली जईने दुर्गतिमां पण उपजे माटे तथा ग्लानिप्रमाद विगेरे श्रुतज्ञान नाशना कारणां बताया पण सते. ४ अभव्य जीवने अज्ञाननी विवक्षाये शुनज्ञानावरणीयनो क्षयोपशम अनादि काळधी छ अने तेनो अन्त नथी माटे अनादि अनंत (तथा भव्यजीवने श्रुतज्ञान सादिसान्त है. अने श्रुत अज्ञान अनादि सान्त छ, अने अभव्यने श्रुत अज्ञान अनादि अनन्त ले पम ज्ञान अज्ञान भेदनी विवाए जाणव) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ...-..- = नी अपेक्षाए अनादित है. प. प्रमागे अण. ॥ २] ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः ममः (सा. १७७) (३९५) न्यतः) श्रुतज्ञान अभव्यनी अपेक्षाए अनादि अनंत कहवाय छे. ॥ ८७४ ।। अथवा क्षयोपशम भाचे श्रुतवान अनादि मान्न . ए प्रमाणे श्रुतज्ञान सादि सा न्त-अनादि सान्त-अने अनादि अनंन पम त्रण प्रकारनं जाणवू. ॥ ८१५ ॥ गम एटले सरस्खा पाठ ( अथवा भंगो, गणितविशेषो) ते जेमा होय ते गमिकश्रुत कहेवायके जे प्रायः दृष्टिवाद सूत्रमा (वारमा भंगमां) ले. अने तेथी वि. परीत अर्थवाळ (प्रायः कालिक सूत्र) अगमिकश्रुत कठेवाय. ।। ८१६ || तथा चार अंगते अंगप्रविष्टश्रुत, अने आवश्यकमूत्रादि अनंगप्रविष्ट [-अंगवाय] श्रुत कहेवाय. एप्रमाणे बुद्धिमान पूर्वाचार्योग् श्रुतज्ञानना १४ भेद कहया है. ।।८१७ ॥ ये भेदा विंशतिस्तेऽपि, कश्यन्ते लेशमात्रतः। न ग्रन्थविस्तरभया-दिह सम्यक् प्रपञ्चिताः॥ ८१८ ॥ तथाहुः॥ पज्जय अकवरपयसंघाया पडिबत्ति तह य अणुओगो । पाहुडपाहुड पाहुड वत्थू पुवा य ससमासा ॥८१९॥(पर्यायाक्षरपदसङ्घाताः • प्रतिपत्तिस्तथैव चानुयोगः । प्राभूतप्राभतप्राभृत-वस्तुपूर्वाणि च ससमासानि ॥ १॥) (सा० १७६) तत्र च ।। अविभागः परिच्छेदो, यो ज्ञानस्य प्रकल्पितः । स पर्यायो द्वयादयस्ते, स्यात्पर्यायसमासकः ॥ ८२० ॥ लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदस्थशरीरिणः । यदाद्यक्षणजातस्य, श्रुतं सर्वजघन्यतः ॥८२१॥ तस्मादन्यत्र यो जीवान्तरे ज्ञानस्य वर्द्धते । अविभागपरिच्छेदः, स पर्याय इति स्मृतः ।। ८२२ ॥ येविभागपरिच्छेदा, यादयोऽन्येषु देहिषु । वृद्धिं गतास्ते पर्यायसमास इति कोनिताः ॥ ८२३ ॥ तथोक्तमाचारावृत्तौ।"सर्वनिकृष्टो जीवस्य, दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां सच भवति विज्ञेयः ॥ ८२४ ॥ तस्मात्प्रभति ज्ञानविवृद्धिदृष्टा जिनन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणेः कायेन्द्रियवाङ्मनोदृम्भिः ॥८२५।" (सा० १७७)मध्ये लब्ध्यक्षराणां स्याद्यदन्यतरदक्षरम् । तदक्षरं तत्संदोहोऽक्षरसमास इष्यते॥८२६॥ पदानां यादृशानां Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९६) || ज्ञानद्वारे श्रुतज्ञानविंशतिभेद निरूपणविचारः ॥ (द्वार स्यादाचाराङ्गादिषु ध्रुवम् । अष्टादशसहस्त्रादि - प्रमाणं तत्पदं भवेत् ॥ ८२७ ॥ यादीनि तत्समासः स्या- देवं सर्वत्र भाव्यताम् । संघातप्रतिपत्यादौ समासो नया दिशा ।। ८२८ ॥ गतीन्द्रियादिद्वाराणां द्वापष्टेरेकदेशकः । गत्यादिरेकदेशोऽस्याः, स्वर्गतिस्तत्र मार्गणा ॥ ८२९ ॥ जीवादेः क्रियते सोऽयं, संघात इति कीर्त्यते । गत्यादिद्याद्यवयव मार्गणा तत्समासकः ॥ ८३० ॥ संपूर्णगत्यादिद्वारे, जीवादेर्मार्गणा तु या । प्रतिपतिरियं जीवा-भिगमे दृश्यतेऽधुना ॥ ८३१ ॥ सत्पदप्ररूपणाधनुयोगद्वारमुच्यते । प्राभृतान्तःस्थोऽधिकारः, प्राभृतप्राभृतं भवेत् ॥ ८३२ ॥ वस्त्वन्तर्वर्त्यधिकारः, प्राभृतं परिकीर्त्तितम् । पूर्वान्तर्वर्त्यधिकारो, वस्तुनाम्ना प्रचक्षते ॥ ८३३ ॥ पूर्वमुत्पादपूर्वादि, ससमासाः समेऽप्यमी । श्रुतस्य विंशतिर्भेदा । इत्थं संक्षेपतः स्मृताः ॥ ८३४ ॥ इति श्रुतज्ञानम् ॥ अर्थ- हवे श्रुतज्ञानना जे २० भेद छे ते पण लेशमात्र श्री कहेवाय छे. परन्तु अहिं विस्तारना भयथी ते भेदो सम्यक प्रकारे विस्तारपूर्वक कहचा नथी. ॥ ८१८|| ते भेदो आ प्रमाणे कहया छे. - पर्यायश्रुत, पर्यायसमासश्रुत, अक्षरञ्जन, अक्षरसमासश्रुम, पदश्रुत, पदसमासश्रुत, संघातश्रुत, संघात समासश्रुत, प्रतिपत्तिश्रुत, प्रतिपत्तिसमासश्रुत, तेमज अनुयोगश्रुत, अनुयोग समासश्रुत, माभृत प्राभृतश्रुत, प्राभृत प्राभृतसमासश्रुत, प्राभृतश्रुत, प्राभृत समासश्रुत, वस्तुश्रुत, वस्तु समासश्रुत पूर्वश्रुत भने पूर्व समात ए प्रमाणे समाससहित सर्व भेद जाणवा. ॥ ८१९ ॥ नेमां ज्ञाननो जे (बुद्धिधी) कल्पेलो अविभाग परिच्छेद (अनिर्विभाज्य अंश, ने पर्यायश्रुत, अने तेवा वे ऋण आदि अनेक जे ज्ञानना अंशी ते पर्यायसमामश्रुत कहैवाय.||८२०|| (तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे) अहिं लब्धिअपर्याप्त अने भवना प्रथम समये उत्पन्न थयेल सूक्ष्म निगोदीया जीवने सर्वश्री जघन्य जेवलुं श्रुतज्ञान होय॥ ८२२१॥ ते शिवायना वीजा जीवने श्रुतज्ञाननो जे अनिर्विभाज्य अंश अधिक होय तें (अनिविभाज्य अंश) पर्याय एवा नामयी कहेलो के ॥ ८२२|| तथा ये ऋण आदि अनिर्वि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) || श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० १७७) (३९७) भाज्य अंशो बीजा जीवोमा वृद्धि पामेला होय ते पर्यायसमास नामथी कहला छ ।। ८२३ ॥ आचारांगवृत्तिमां का के के-बीर भगवाने जीवनो जे आ सर्व जघन्य उपयोग देखेलो छे ने सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तजीवाने होय छ एम जाणवु. ।। ८२४ ॥ ते सर्व जघन्यांशथी मारंभीने जीवांना ज्ञाननी वृद्धि जिनेश्वरे लब्धिनिमित्तक एवां काय-इन्द्रिय-वचन-मन-अने दृष्टि रूप करणोवडे (जेम जेम काय इन्द्रियादि वश्तां जाय छे. तेम तेम ज्ञाननी पण दृद्धि थती जाय छे.) देखेली छे ।। ८२५ ॥ तथा लब्ध्यक्षरोमांना कोइपण एक अक्षरनुं ज्ञान ते अक्षरज्ञान, अने तेवा घणा अक्षरनुं ज्ञान ते अक्षरसमास श्रुतज्ञान कहेवाय छ ।। ८२६ ॥ आचारांगादि शास्त्रोमां जेरा प्रकार पदोनुं अदारहजारादि निश्चय प्रमाण छ तेवा प्रकारना एक पदनुं ज्ञान ते *पदश्रुत ज्ञान छे ॥८२७|| अने तेवां वे ऋण इत्यादि पदोनुं ज्ञान ने पदसमास श्रुतज्ञान, ए प्रमाणे संघात अने मतिपत्ति वगेरेमा सर्वत्र एज पढ़तिए समासनो अर्थ विचारवी. ॥८२८॥ गति अने इन्द्रियादि ६२ द्वारोनो एक देश विभाग गति वगैरे अने तेनो पण एक विभाग देवगति(वगेरे)तेमां मार्गणा1८२९॥जीवादि पदार्थोनी मार्गणा(विचारणा)अवताग य ते आ संघात श्रुत कहेवाय छ,अने चेत्रण आदि मति वगैरेना अवयवमां मार्गणा ( जीवादि पदार्थ अवनारवान ज्ञान ) ते संघातसमास श्रुत कहेवाय. ॥८२९ ॥ तथा संपूर्ण मत्यादि (मूळ ) मार्गणामां जीवादि पदार्थनो जे अवतार करत्रो ने प्रतिपत्ति श्रुत वर्तमान काळे जीवाभिगम मूत्रमा देखाय छै ।।८३०॥ सत्यदमरूपणादि द्वार ( सत्पदमरूपणता-द्रव्यप्रमाण-क्षेत्र-स्पर्शनादि ९ द्वार) ते अनुयोग कहेवाय, ।। ८३१ ॥ अने प्राभृतनी अंदर रहेलो अधिकार ते प्रामृत - - - - - - - - - -- - __* अहो विभक्त्पन्ने पदम् ' इत्यादि लक्षणवार्छ पद लेषा, नथी परन्तु पारिभाषिक ५१.८८६,८४० पकाधन कोड आटलाख छाशी हजार आठसो ने चालीस श्लोक अने अठाधीश अक्षरे एक पक्ष थाय, केटलेक स्थळे 'भीपलब्धिः पदम्' ला प्रमाणे पदोन लेक्षण यताव्यु छ, नेवा १८००० पदोयालु आचागंग ,. आगळना अङ्गोमा मेथी बमाणु बम' प्रमाण पटलेक मृयगडांगमा ३६००० पदो ठाणांगमा ७२७०० पदो घिगरे अनीआर अङ्गाना तथा चौद पूर्वना पद प्रमाणन यन्त्र नीचे प्रमाणे. १ श्री जीवाभिगम सूत्रमा हरेक अध्ययन प्रनिपत्तिना रूपमा गोठवेला छ. कारण के सेमां दरेक जीव भेदमां उपयोग-मन्त्रिय-लेश्या-ममुदधानःदिशिआहार इत्यादि अनेकद्वार उतारेला छे. तेम आ ट्यलोकमां पण था सर्गयो प्रतिपत्सिना रूपमांज सर्यद्वारो जीवभवमा जतायी छ: - Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८) १. ર ४ ३ ठाणा ६ ७ ረ || ज्ञानद्वारेश्रुतज्ञानविंशतिभेदनिरूपणम् ॥ ॥ अगीआर अङ्ग तथा चौद पूर्वनी पद सहायंत्रकम् ॥ ५१.०८ ८६,८४० लोक अने २८ अक्षरे एक पद थाय. अङ्ग नाम, पद प्रमाण पूर्व नाम. १८००० उत्पाद पूर्व अप्राणीय पू० ३. वीर्य प्रवाद पु० अस्ति प्र० ५० ५ श्रीभगवतीजो ज्ञाताधर्म कथाङ्ग ९ १० आवाराङ्ग १.१ मृगगडाज समवायाङ्ग उपासक दशाङ्ग अन्तगढ़ মুशाङ्ग अनुत्तरी प दशाङ्ग प्रश्न व्याकरण fare ३६०००० ७२००० १४४००० २८८००० ८.७६००० ११५२००० २३०४००० १ २ ४ ५. Int ८ ७ आत्म प्र० पू० ४६०८००० ९ ९२१६००० १० ज्ञान प्र० पू० १८४३२००० १६ सत्य प्र० पू० कर्म प्र० पू० प्रत्याख्यान प्र० विद्या प्र० पू० कल्याण पु० कुल प्रमाण ३६८४६००० १२ प्राणायु पू० १६ क्रियाविशाल पू शरमा दृष्टिवादना परिकर्म २ सूत्र, ३ पूर्वानुयोग, ४ पूर्वगत ५ चूलिका ए पांच भेद पैकी चांथा पूर्वगतभेदमा १४ लोक बिन्दुसार पू० चौद पूर्वनों समावेश आणयो. पद प्रमाण. for००:०० पट कोटि $,5+0000 छन्नुं लाख ७०००-२० सीतंर लाख ६०००००० साई लाग्य (चार ९९९९९९९ एक कोटिमां एक म्यून १०००० ८६ एक कोटिने छ २६००००००० छबीस कोड १८०००००० एक कोटिने पेंशी लाख ८४०-००० थोराशी लाख १००१-००० एक क्रीडने दशहजार २६००००००० छत्रीश कोड ५६०००००००००० छपनलाख कोड 80.00.00 नव क्रोड $24000000 लाडोवार कोड चौदे पूर्व मळी कुल पद प्रमाण ५६१०० ०८२,४०, १००५ छप्पनलाल व्यासीकांड चालीशलाख दशहजारने पांच, अगीआर अङ्ग तथा चौवपूर्वनु मळी कुल पद प्रमाण ५६०००८६,०८५६००५. छप्पनलाख छाशीक्रोड आठलाख छप्पनहजार ने पांच. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १७७) (३९९) प्राभृत कवाय, वस्तुनी अंदर रहेल अधिकार विशेष ते प्राभृत कहेलुं छे, अने पूर्वी अंदर रहेलो अधिकार ते वस्तु नामे कद्देवाय है ।। ८३३ ।। अने ( प्रथम कल ) उत्पाद पूर्व वगैरे पूर्व कहवाय, ए सर्वभेदने समास सहित करतां श्रुत ज्ञानना २० भेद ए प्रमाणे संक्षेपथी कया. (पूर्व कहेला चौर भेदोमां क्रमे वृद्धिना विचार विना द्रव्य तथा भावश्रुत बेडनो समावेश वाय हे. अने या बीश मेट्रोमां उत्तरोत्तर कमी वृद्धिवाला भावश्रुतनो ज अधिकार छे. ) || ८३४ || इति श्रुतज्ञानम् || अवधानं स्यादवधिः, साक्षादर्थविनिश्चयः । अत्रशब्दोऽव्ययं थद्वा, सोऽधः शब्दार्थवाचकः ॥ ८३५ ॥ अधोऽधो विस्तृतं वस्तु, धीयते परिबुध्यते । अनेनेत्यवधिर्यद्वा, मर्यादावाचकोऽवधिः || ८३६ ॥ मर्यादा रुषिद्रव्येषु, प्रवृत्तिर्न त्वरूपिषु । तयोपलक्षितं ज्ञानमवधिज्ञानमुच्यते ॥ ८३७ ॥ अनुगाम्यननुगामी, वर्धमानस्तथा क्षयी । प्रतिपात्यप्रतिपातीत्यवधिः परविधो भ वेत् ॥ ८३८ ॥ यद्धि देशान्तरगतमप्यन्वेति स्वधारिणम् । अनुगाम्यवधिज्ञानं, तद्विज्ञेयं स्वनेत्रवत् ॥ ८३९ ॥ यत्र क्षेत्रे समुत्यन्नं यत्तत्रैवाववोधकृत् । द्वितीयमवधिज्ञानं तङ्गलितदीपवत् ॥ ८४० ॥ यदङ्गुलस्यासंख्येयभागादिविषयं पुरा । समुस्पधानु विषयविस्तरेण विवर्धते ॥ ८४१ ॥ अलोक लोकमात्राणि यावत्खण्डान्यसंख्यशः । स्यात्प्रकाशयितुं शक्तं, वर्द्धमा > १ तात्पर्य ए ले के दृष्टिवाद नामना १२ मा अंगना परिकर्मादि पांच अधि कार पैकी चांथा पूर्वगत अधिकारमा १४ पूर्घनो समावेश याय छे. पुनः तं दरेक पूर्वमां वस्तु नामे अनेक अधिकार आवेला छे, पुनः ते वस्तु अधिकारमां अंतर्गत अनेक प्रान नामे अधिकार से पुनः ने प्रभूत अधिकारमां प्राभूतप्राभूत नामे अवयवो अधिकार छे, पुनः नं दरेक प्राभृत प्रानुतमां मानाविष वस्तुनां स्वरूप वर्णवेल होय है. प्रेम श्रीभगवती सुनी असर अनेक शतक, केटलाक शतकांमां अवान्तर शतक अने दरेक शतकां अनेक उद्देशा इत्यादि बळी जेम आचारांगमां के श्रुतस्कन्ध, दरेक श्रुतस्कन्धम अनेक अध्ययनों दरेक अध्ययनमां अनेक उद्देशाओं होय . तेम समजवु Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४००) ॥ ज्ञानदार अवधेिशानभेदविचारनिरूपणम् ॥ द्वार] नं तदीरितम् ॥ ८४२ ॥ अप्रशस्ताध्यवसायात, हीयते यत्प्रति- . क्षणम् । आहुस्तदवधिज्ञानं, होयमानं मुनीश्वराः ॥ ८४३ ॥ स्याहर्द्धमानं शुष्कोपचीयमानेन्धनाग्निवत् । होयमानं परिमितातागिन्धनवह्निवत् ॥ ८४४ ॥ योजनानां सहस्राणि, संख्येयान्यप्यसंख्यशः । यावल्लोकमपि दृष्ट्वा, पतति प्रतिपाति त. त् ॥ ८४५ ।। प्रमादन पतत्येतद्भवान्तराश्रयेण वा । यथाश्रुतं स्वरूपं च, वक्ष्येऽथाप्रतिपातिनः ॥ ८४६ ॥ यत्प्रदेशमलोकरय, द्रष्टुमेकमपि क्षमम् । तत्स्यादप्रतिपात्येव, केवलं तदनन्तरम् ॥८४७॥ होयमानप्रतिपातिनोश्चायं विशेषः॥प्रतिपाति हि निमूलं, विध्यायत्येकहेलया । होयमानं पुनर्वासमुपयाति शनैः शनैः ।। ८४८॥ इदं कर्मग्रन्यवृत्त्यभिप्रायेण, (सा. १७८) तस्वार्थभाष्ये तु अनबस्थिताव स्थिताख्ययोरन्त्यभेदयोरेवं स्वरूपमुक्तम्, अनवस्थितं हीयते वर्द्धते च वर्द्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति पुनः पुनरुम्मिवत, अवस्थितं यावति क्षेत्र उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतति आकेवलप्राप्तेरवतिष्ठते, आभवक्षयाद्वा, जात्यन्तरस्थायि वा भवति लिङ्गवत्, यथा लिङ्गम्--पुरुषादिवेदमिह जन्मन्युपादाय जन्मान्तरं याति ज. न्तुस्तथाऽवधिज्ञानमपीति भावः ॥ (सा० १७९) नृतिरश्चामयं पोढा, शायोपशमिकोऽवधिः । भवेद्भवप्रत्ययश्च, देवनारकयोरिह ॥ ८४९ ॥ तदुक्तं ॥ द्विविधोऽवधिः [ १ अ० २१ सू०] भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्चेति (भाष्यम्) तत्वार्थसूत्रे 7 (सा० १८०-१८१) । स्याद्भवप्रत्ययोप्येष, न क्षयोपशमं विना। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां, हेतुत्वादस्य किन्विह ।। ८५० ॥ स्याक्षयोपशमे हेतुर्भवोऽयं तदसौ तथा । उपचारा तुहेतुरपि हे. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १८१) (४०१) तुरिहोदितः ।। ८५१ ॥ इत्यवधिज्ञानम् ॥ ॥ अथ अवधिज्ञाननुं स्वरूप ॥ अर्थ-अवधान एटले पदार्थनो आत्मसाक्षात निश्चय ते अधि, अथवा अब ए अध्यय पद अधः-नीचे अर्थन वाचक छे ।। ८३५॥ तेथी जेनावडे ( एनावडे ) अधो अधो पटले नीचे नीचे वस्तु अधिक अधिक विस्तार घीयतजणाय माटे अवधि, अथवा अवधि शब्द मर्यादावाचक के ( अवधि एटले मर्यादा) ८३६॥ अने ते मर्यादा रूपी द्रव्योने विषे प्रवृत्तिरूप जाणवी,पण अरूपी द्रव्योमां नहि ते मर्यादित प्रवृत्तिवडे ओळखायलं जे ज्ञान ते अवधिज्ञान कवाय / अनामी-अनगुमानी-वर्षमान-हीयमान पतिपाति-अने अप्रति पाति ए रीते अवधिज्ञान छ प्रकारनुं छे ॥८३८॥ जे अवधिज्ञान परदेशमां गयेला (जे क्षेत्रे अवधि उत्पन्न थर्य होय ते क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रमा रहला) ने पण पाछळ पाछळ आवे ते अनुगामि अवधिज्ञान कडेवाय, अने ते पोताना मेत्र सरखं [ नेत्र जेम साथेन होय छे ते जाणवं ।। ८३९ ॥ तथा जे अवधि जे क्षेत्रमा उत्पन्न थयुं होय ते क्षेत्रमाण ( रहेला पदार्थोंने ) बोध करनारं होय ने बीजूं अननुगामी अवधि कहेवाय, अने ते सांकळे बधिला दीवासरखं जाणवू ।। ८४७ ॥ जे अवधि पथम अंगुलनो असंख्यातमी भाग इत्यादि ( अल्पक्षेत्रना) विषयवाळं उत्पन्न थइने त्यारवाद ( प्रतिसमय ) विपयना विस्तारे ( द्रव्य-क्षेत्र -काळ-अने भावथी) वयतुं जाय ।। ८४१ ॥ अने स्यां मुधी वर्ष के अलोकमां लोक प्रमाण जेवढा असंन्यात खंडो (असंख्य लोक जेवई क्षेत्र) ने प्रकाश फरवा समर्थ होय ने वर्द्धमान अवधिज्ञान कहेलं छे ॥ ८४२ ।। (जे अवधिशान प्रथम अधिक प्रमाणमां उत्पन थइ ) अशुभ अध्यवसायथी पनिसमय घटत जाय ते अवधिज्ञानने मुनीश्वरोए हीयमान कहेलं छे ।। ८४३ ॥ एमां वर्षमान अवधिज्ञान मंको लाकडांना ढगलामां वळना अग्नि सर, अने हीयमान अव० अल्प अने लीलां लाकडामा बळता अग्नि सरखं [घणां लाकडा बळीने थोडां रहेला होय ने ते पण लीला होय तो ते अग्नि धीरे धीरे ओछी दळतो बिलकुल बुझाइ जाय तेवू ] होय छे ।। ८४४ ॥ हजारो योजन-संख्यानयोजन असंख्यात योजन यावत् संपूर्ण लोकने पण देखीने जे पड़े वे प्रतिपाति अवधि १ क्षेत्रमो अपेक्षाप पमानिकादि देषीमा उपर उपरना देवने नीचे अ. धिक अधिक अपधिज्ञान के माद, अथवा काटनी अपेक्षाप अधिज्ञान जेम जेम अधिक कार्नु होय नेम तेम बधारे पधारे जाणे मादे. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - .. (४०२) ॥ ज्ञानबारे अवधिज्ञानभेदस्वरूपनिरूपणम ॥ द्वार) झान ॥ ८४५ ॥ ए अवधिज्ञान ममादबडे अथवा परभक्मां जपायी पतित थापळे । [ एकदम विनाश पामे छे. ] हवे सिद्धान्तने अनुसार अमतिपानि अव ज्ञानन स्वरूप कहोश || ८४६ ॥ जे अवज्ञान अलोकना एकपण प्रदेशने ( संभवसत्ताए त्यां कोइ रूपी पदार्थ होय तो तेने) देखवाने समर्थ होय ते अप्रतिराति अवधिज्ञान कहवाय, प्रने त्यारवाद तुर्तज ( अन्तर्मु मां ) केवलज्ञान उत्पम धाय छ । ८४७ ।। आ भेदोमा हीयमान अने पनिपानि ज्ञानमांशु तफावत छ ? ते कहे वाय-प्रतिपानि अवधिज्ञान एकदम समूळ नाश पामे छे, अने हीयमान अव ज्ञान धीमे धीमे क्षय पामे के ॥ ८५८ ॥ए कर्मग्रन्धयत्तिना अभिप्रायथी का. तस्वार्थभाष्यमा तो अनवस्थित अने अवस्थित भेदन स्वरूप आ प्रमाणे कां छ के-" अनस्थित अवज्ञान घटे छे अने व छ तथा क्षे के. अने घटे छे, नरंगनी माफफ वारंवार पडे अने उन्पम थाय छे, अने अबस्थित अवधिज्ञान जेटला क्षेत्रमा उत्पम थाय छ, तेटला क्षेत्रथी ओई यतुं नधी, परन्तु केवलज्ञाननी प्राप्तिमुधी स्थिर रहे छे. ए शान लिंगनी पेठे भवना अन्नमुधी अने परभवमां पण रहेनार ( साथे जनार) होय छे." जेम लिंग एटले पुरुषादिवेद आ भवमांथी लइने पाणी परभवमां जाय छे तेम ए ( अवस्थिन ) अवधिज्ञान पण (परभवमा साये जाय छे. ) अहिं ए ६ प्रकार नु अवधिज्ञान मनुष्य अने तिर्यंचने क्षयोपशमभाववाळ होय छे, अने देव-नारकने भवमत्ययिक होय छे ।। ८४९ ॥ तत्वार्यसूत्र (अने भाष्य)मा कपुंछ के-" भवप्रत्ययिक अने क्षायोपशमिक एम वे प्रकारचें अबधिज्ञान छे" बळी आ भवमन्यायिक अवधिज्ञान पण क्षयोपशम विना होतुं नथी कारण अहिं ( भवान्यायिक ज्ञानर्मा) क्षयोपशमनु अन्वयव्यतिरेकवडे हेतुपर्ण होयाथी, परन्तु ॥८५०|| आयोपशमनी अंदर भवज हेतुरूप छे ते कारणथी आ (देव-नारकनो भव) कारण पणे १. भलोकनो एक प्रदेश देखी वृद्धि पामतुं पामर्नु अलोकमां असंख्य लोक प्रमाण अंध जीवानी शक्तियाळ थतां परमाषधि याय अने स्यारबार कंपळशान पामे. अहिं अलोकमां जोधार्नु होय नहिं पण जो सूपिपदार्थ होय तो ते जोवामी शक्ति छ. एम जाणवं. २ अपथिलानाधरणनो क्षयोपशम होय तो अवधिज्ञान होय ए अ. बय, अने अबाधिज्ञानावरणमो भयोप न होय तो अबधिज्ञान न होय प व्यतिरेक कवाय. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १८२) (४०३) कहेवाय छे, कारणके उपचारथी ( आरोपयी-व्यवहारथी ) कारणना कारणने पण अहि हेतु (कारण) कहलं छे. ॥८५१|| एप्रमाणे अवधिज्ञान स्वरूप कयु, मनस्त्वेन परिणतद्रव्याणां यस्तु पर्यवः । परिच्छेदस्स हि मनःपर्यवज्ञानमुच्यते ॥ ८४९॥ यदा ॥ मनोद्रव्यस्य पर्याया, नानावस्थात्मका हि ये । तेषां ज्ञानं खलु मनःपर्यायज्ञानमुच्यते ॥८५०॥ स्यादृजुधीविपुलधीलक्षणस्वामिभेदतः। तद द्विभेदं संयतस्याप्रमत्तस्यदिशालिनः ॥ ८५१ ॥ अनेन चिन्तितः कुम्भ, इति सामान्यग्राहिणी। मनोद्रव्यपरिच्छित्तिर्यस्यासावृजुधीः श्रुतः ॥ ८५२ ।। अनेन चिन्तितः कुम्भः, स सौवर्णः स माधुरः । इयत्प्रमाणोऽद्यतनः, पीतवर्णः सदाकृतिः ॥ ८५३ ॥ एवं विशेषविज्ञाने मतिर्यस्य पटीयसी। ज्ञेयोऽयं विपुलमतिमनःपर्यायलब्धिमान् ॥ ८५४ ॥ युग्मम् ॥ ननु च ॥ अवधिश्च मनःपर्यवश्चोभे अप्यतीन्द्रिये । रूपिद्रव्यविषये च, भेदस्तदिह कोऽनयोः ? ॥ ८५५॥ अत्रोच्यतेऽवधिज्ञानमुत्कर्षात्सर्वलोकवित् । संयतासंयतनरतिर्यक्स्वामिकमीरितम् ॥ ८५६ ॥ अन्यद्विशदमेतस्माद्बहुपर्यायवेदनात् । अप्रमत्तसंयतैकलभ्यं नृक्षेत्रगोचरम् ॥८५७॥ उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये (सूत्रे १-२५) ।विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यवयोर्विशेष इति । (सा० १८२) सामान्यग्राहि ननु यन्मनःपर्यायमादिमम् । तदस्य दर्शन किं न, सामान्यग्रहणात्मकम् ? ॥८५८॥ अत्रोच्यते॥ विशेषमेकं हो त्रीन्वा, गृह्णात्यजुमतिः किल । ईष्ट बहन विशेषांश्च, परिच्छेनुमयं न यत् ॥८५९॥ सामान्यग्राह्यसौ तस्मात्, स्तोकमाहितया भ १ अषधिज्ञानतुं कारण अवधिशानावनो क्षयोपशम, अने अवधिज्ञानाबच्ना क्षयोपशमनु कारण देष-मारकनो भष माटे कारणन कारण देष-नारकनो भव पण अधम्झार्नु कारण कडेवाय. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) ॥ ज्ञानदार अवधिमनःपर्यायज्ञानमैदाक्षेपपरिहारविचारः॥ (द्वार वेत् । सामान्यशब्दः स्तोकार्थो, नत्वत्र दर्शनार्थकः ।। ८६० ।। ' कर्मक्षयोपशमजोत्कर्षाद्विपुलधीः पुनः । वहन विशेषान वेत्त्यत्र वह्वों विपुलध्वनिः ।। ८६१ । नचाभ्यधायि सिद्धान्ते, कु. त्राप्येतस्य दर्शनम् । दर्शनात्मकसामान्यग्राहिता नेतयोस्ततः ॥ ८६२ ।। विशेषरूपमाहित्ये, प्राप्ते नन्वेवमेतयोः । द्वयोर्मनोविषययोविध्ये किं निवन्धनम् ॥ ८६३ ॥ अत्रोच्यते-अल्पपर्यायवेद्यायं घटादिवस्तुगोचरम् । नानाविधविशेषावच्छेदि शुद्धतरं परम् ॥ ८६४ ॥ कस्यचिन्न पतत्याद्यं, कस्यचिच्च पत त्यपि । अन्त्यं चाकेवलप्राप्तेन पतत्येव तिष्ठति ॥६५॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ-यस्य पुनर्विपुलमतिर्मनःपर्यायज्ञानं समजनि तस्य न (नैव प्रति) पतत्याकेवलप्राप्तेरिति। (सा० १८३) एतत्सूत्रेऽपि , 'विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः' (१-२५) इति ॥ (सा०१८४) योगशास्त्रप्रथमप्रकाशवृत्तावपि-जुश्च विपुलश्चेति, स्यान्मनःपर्यवो द्विधा । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां, विपुलस्तु विशिष्यते ॥१॥" [सा० १८५] इति मनःपर्यायज्ञानम् । — अर्थ-मन:पर्यव ज्ञानन स्वरूप-मनपणे परिणमेला द्रव्योनों जे पर्यव पटले परिच्छेद (ज्ञान) ते मनःपर्यय ज्ञान कहेवाय ।।८४९॥ अथवा अनेक प्रकारनी अवस्थाबाळा (जुद्रा जुदा भकारना) मनोद्रव्यना पर्यायो (भाव ) ते भावोनु-पर्यायोर्नु ने ज्ञान ते मनःपर्याय ज्ञान कवाय ||८५०॥ लक्षणं अने स्वामिना भेदथी ले मन जान ऋजुमति अने विपुलमति एम के प्रकार छे. ते अप्रमत्त अने ऋदि ( लब्धि ) वाला मुनिमहात्माने होय छे ।। ८५१॥ जे सुनिने आ जीये घट चिंतन्यो छे, ए प्रमाणे सामान्य अर्थग्रहण करनार मनोद्रव्यनुं ज्ञान होप ते मुनि ऋजुमति मनो ज्ञानवाला कहेला छे ॥ ८५९ ॥ अने आ जीवे जे घट १ जुम्न मनःप माननुं लक्षण सामान्यग्राहित्य, अने स्वामि चरमदेही अने अचरमदेही यन्न मुनि, तथा विपुलमति मनःपर्नु लक्षण विशेपमाहिब, अने स्वामी परमशरोर मुनि. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • I (२६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १८५ ('४०५) चितव्यो छे ते सोनानो मथुरा नगरीयां बनेलो, आटला काळो, आजनो बनेलो, पीळा वर्णवाको अने सारी आकृति ॥ २५३ ॥ एस मनना विशेष ज्ञानमां जे मुनिनी यति निपुण होय ते मुनि विपुलमतिमन पर्याय लब्धिवा को कहेवाय ।। ८५४ ॥ शङ्का – अवधिज्ञान अने मन:पर्ययज्ञान बन्ने इन्द्रिय विनानां अने रूपी द्रव्यना पियबाळा छे तो अहिं ए वे ज्ञानमां तफावत शुं ? ।। ८५५ || उत्तर- अवधिज्ञान उत्कृष्थी सबै लोकाकाशने जाणनारी छे भने तेना स्वामि विरतिवंत अने अविरत तिर्यश्व अने मनुष्यो (उपलक्षणो देवादि) पण कल छे || ८५६ ॥ चली बीजुं मनःपर्यायज्ञान घणा पर्यायाने जाणनार होवाथी ते अवधिज्ञानी अधिक निर्मळ, अप्रमत्तयतिनंज प्राप्त थनाएँ, अने मनुष्यक्षेत्र जेटला विषयवा के || ८५७ ॥ तत्वार्थ माध्यमां कहां छे के "विशुद्धि क्षेत्र - स्वामि- अने विषय - ए चारवडे अवधि अने मनःपर्यायनो तफावत छे” शङ्काजो पहेलं ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान सामान्य अर्थ ग्रहण करनार छे तो ते सामान्य ग्रहणात्मक दर्शन केम न होइ शके ? || ८५८ ॥ उत्तर-ऋजुमति मनोज्ञान निश्चय एक वा ऋण विशेष धर्म ग्रहण करे छे. कारण के ए ज्ञान घणा विशेष धर्मों जाणखाने शक्तिमान नथी || ८६९ ॥ माटे ए ऋजुमतिज्ञान थोडा विशेष धर्मने ग्रहण करनार होवाथी सामान्यमाही कहेवाय छे, कारण के अहिं "सामान्य" ए - दनों अर्थ अप के पण दर्शनवाचक ( सामान्यबोधवाचक ) नयी. । ८६० ॥ तथा कर्मना क्षयोपशमधी उत्पन्न थगेल विपुल मतिज्ञानी उत्कुष्टधी घणा विशेष धर्मो जाम अहिं "विपुल" शब्दनी अर्थ बहु वाचक जाणवो ॥८६५ ॥ बळी सिद्धान्नमां कोइपण स्थाने ए मनःपर्यायज्ञाननुं दर्शन कर्तुं नथी माटे ए बले भेद दर्शनरूप सामान्य ग्राहिपणुं नयी. ॥। ८६२ ॥ शंका- ए प्रमाणे ए बन्ने मनोज्ञानना विषयमा विशेषरूपग्राहिपणुं प्राप्त भये छते वे मे पाडवा कारण हैं ? ।। ८ ६३ ॥ उत्तर- घटादि पदार्थना त्रिपया व्हेलं (ऋजुमति ) मनं: ० ज्ञान अल्पपर्यायोने जाना ले, अने वीजुं (त्रिषुलमिति ) मनः० ज्ञान अनेक प्रकारना विशेषधर्मोने जाणेनारुं अने अधिक शुद्ध के. ॥। ८६४ ॥ तथा हेले (ऋजुमति) मनोज्ञान कोइकने १ अवधिज्ञान विशुद्धिम अप क्षेत्री असूलना असम्यानमा मधी आरंभी संपूर्ण लोकप्रमाण २, स्वामियों देव नारक - गर्भजपर्यनितियेच पंच - अने गर्भज मनुष्य ३, भने । विषयेथी- पीयमान ४, अने ज्ञान तो विशुद्धिम अधिक थी शादी प्रमाण २, स्वामि अप्रमयति अने विषयी मनपणे परिमेला पुलों जाणे ४, ५ प्रमाणे मां बार यांनी तपासले. IF Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) . . ज्ञानद्वारे मनःपर्याय-केवलज्ञाननिरूपणम || छार) पतित थत् नयी अने कोइकने पतित याय छ, अने वीजें ज्ञान केवळशाननी माप्ति सूत्री पतित यतुं नथी पण कायम रहे छ. ।। ८६५ ॥ तरवावृत्तिमा क[ के के-"बळी जेने विपुलमतिमनोज्ञान ययु होय तेने ते ज्ञान केवलझाननी पाप्तिसुधी पडतुं नथी" तथा तत्वार्थना मूळसूत्रमा पण फयु छ के-"विशुद्धि अने अपतिपातिषणु ए वे बाबतनो एबेमा तफावत छ' तथा योगशास्त्रानीवृत्तिमा पण का छे के-"जु अने विपुल एम वे मकार- मनःपर्यायशान छे,त्यां विशुद्धि अने अपतिपान पणे विपुलमति । ऋजुमतिथी ) विशेषतावाळ के" ॥ १ ॥ प प्रमाणे मनःपर्यवज्ञाननं स्वरूप कहy. केवलं यन्मतिज्ञानाद्यन्यज्ञानानपेक्षणात् । ज्ञेयानन्त्या. दनन्तं वा, शुद्धं वावरणक्षयात् ॥ ८६६ ।। सकलं वाऽऽदित एव, निःशेषावरणक्षयात् । अनन्यसदृशत्वेनाथवाऽसाधारणं भवेत् ॥ ८६७ ॥ भूतभाविभवद्भावस्वरूपोद्दीपकं स्वतः । तद् ज्ञानं केवलज्ञानं, केवलज्ञानिभिर्मतम् ॥ ८६८ ॥ इति केवलज्ञानम् ॥ अर्थ-केवलज्ञानन स्वरूप पतिज्ञानादि अन्य ज्ञाननी अपेक्षा राखनार नहि होवायी केवल (एकल-एकम) अथवा ज्ञेय पदार्य अनन्त होवाथी अनंत, अने ज्ञानवरणना सर्वथा क्षयथी शुद्ध ।। ८६६ ॥ अथवा प्रथम समयेज सर्व आवरणनो क्षय थवाथी संपूर्ण ( पण प्रथम थोडे अने पछी धीरे धीरं संपूर्ण थाय तेम नहिं ) अथवा एना सरखं बीजु कोड ज्ञान नहि होवाथी जे असाधारण छे ॥ ८६७ ।। तथा भूत वर्तमान-अने भविष्य काळना स्वरूपने स्वतःमगट करनार एवा ने जानने केवलज्ञानीओए केवलज्ञान कहल छे ॥८६८|| ए प्रमाणे केवलज्ञामनुं स्वरूप कायु. कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, कुत्सार्थस्य नञोऽन्वयात् । कु. सितवं तु मिथ्यात्वयोगात् तत्रिविधं पुनः ।। ८६९ ॥ मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान, विभङ्गज्ञानमित्यपि । अथ स्वरूपमेतेषां, दर्शयामि यथाश्रुतम् ।। ८७० ॥ मतिज्ञानश्रुतज्ञाने, एव मिथ्याखयोगतः । अज्ञानसंज्ञां भजतो, नीचसङ्गादिवोत्तमः ।।८७१ ।। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... या २६९) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १८६) (१७) तथोक्तम्-"अविसेसिया मइ चिय, सम्मबिस्सि सा मइनाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिहिस्स, सुअंपि एमेव" ॥ १ ॥ [अविशेपिला मतिरेव सम्यगटोः सा महिमान,मत्यज्ञानं मिथ्या दृष्टः, श्रुतमपि एवमेव ॥१॥](सा. १८६) भंगा विकल्पा विरुद्वाः,स्थुस्तेऽत्रेति विभङ्गकम् । विरूपो वाऽवधेभङ्गो,भेदोऽयं तद्विभङ्गकम् ।। ८७२ ॥ एतच्च ग्रामनगरसन्निवेशादिसंस्थितम् । समुद्रद्वीपवृक्षादिनानासंस्थानसंस्थितम् ।। ८७३ ।। ___अर्थ-अज्ञानतुं स्वरूप कुत्सा अर्थवाळा न अव्ययनो (न कारनो) संबंध होवाधीन-एटले] कृत्सित (अशोभनिक। ज्ञान ते अज्ञान कहेवाय. अहिं कृत्सित पणुं मिथ्यात्वना योगे , ते अज्ञान ३ प्रकारर्नु छ । ८६९ ।। १ मलिअज्ञान-२ श्रुतअज्ञान-३ विभंगज्ञान. वे ए त्रण अज्ञानोनु स्वरूप सिद्धान्तने - नुसारे दर्शा, ९ ॥ ८७० ॥ नीच पुरुषनी सोवतथी जेम उत्तम पुरुष नीचमा गणाय, तेम मिथ्यात्वना योगथी मनिज्ञान अने श्रुतज्ञान ( ए वे ज्ञान ) ज अज्ञानसंज्ञा (नाम) ने पामे छे ॥ ८७१ ॥ काहले के-"निश्चयधी मति नो केइ पण भेद विनानीज थे परन्तु सम्यग्दृग्रिनी ने मति मतिज्ञान अने मिथ्यादृष्टिनी ने मति मातिअज्ञान छ. ए प्रमाणे श्रुत पण (ज्ञान अज्ञान रूपे) जाणg," ( इति विशेषावश्यके) तश भंग एटले विकल्प (भेद) ते जेम (चि-एटले) विरुद्ध छे ते कारणथी ते विभंग ज्ञान कहेवाय, अथवा अवधिद्वाननो जे विरुप (विपरोत ) भंग एटले भेद ते आ विभंगज्ञान कहेवाय ॥८७२॥ आ विभंग गाम, नगर, सभिषेश ( ग्रामविशेष ) विगेरेना आकार वालु तथा समुद्रसीप अने वृक्षादि अनेक आकार रहेलं छे ।।८७॥ आ प्रमाणे अज्ञानत्रिकर्नु स्वरूप जाणवू. ___ अष्टानामप्यथैतेषां, विषयान् वर्णयाम्यहम् । द्रव्यक्षेत्रकालभावव्यतस्तत्र कथ्यते ॥ ८७४ ॥ सामान्यतो मतिज्ञानो, सर्वव्याणि बुध्यते । विशेषतोऽपि देशादिभेदैस्तानवगच्छति ॥८७५॥ किन्तु तद्गतनिःशेषविशेषापेक्षयाऽस्फुटान् । एपधर्मास्तिकायादीन् पश्येत्सर्वात्मनातुन (पुनः) ॥ ८७६ ॥ योग्यदेशस्थितान् शब्दादीस्तु जानाति पश्यति । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०८) || ज्ञानद्वारे मतिज्ञानविपयविचारः ॥ खार] श्रुतभावितया बुद्धया, सर्वद्रव्याणि वेत्ति वा ॥ ८७७ ॥ * लोकालोको क्षेत्रतश्च, कालतस्त्रिविधं च तम् । सर्वाद्धां वा भावतस्तु, भावानौदयिकादिकान् ॥ ८७८ ॥ आह च भाष्यकारः ॥ " आएसोत्ति पगारो, ओघादेसेण सबदवाई | धम्मत्थिकाइयाई जाणइ न उ सव्वभावेणं ॥ ८७९ ॥ खेत्तं लोगा - लोगं, कालं सव्वमहव तिविहंपि (ति) | पंचोदइयाई ए, भावे जन्नेयमेवइयं ॥ ८८०|| आएसोप्ति व सुतं, सुओबलधेसु तस्स मइनाणं । पसरइ तब्भावणया, विणावि सुत्तानुसारेण ||८८१ ॥ ( आदेश इति प्रकार ओघादेशेन सर्वद्रव्याणि । धर्मारितका विकादीनि जानाति न तु सर्वभावेन ॥ १ ॥ क्षेत्रं लोकालोकं कालं सर्वाद्धामथवा त्रिविधमपि । पञ्चदयिकादीन् भावान् यज्ज्ञेयमेतावत् ||८८२|| आदेश इति वा सूत्रं श्रुतोपलब्धेषु तस्य मतिज्ञानं । प्रसरति तद्भावनया विनापि सूत्रानुसारेण || ८८३ ॥ ) (सा० १८७ ) तत्त्वार्थवृत्तावप्युक्तं - "मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानोपलब्धेष्वर्थेषु यदाऽक्षरपरिपाटीमन्तरेण स्वभ्यस्तविद्यो द्रव्याणि ध्यायति तदा मतिज्ञानविषयः सर्वद्रव्याणि न तु सर्वान् पर्यायान् अल्पकालविषयत्वान्मनसश्वासते" रिति [सा० १८८ ] । इति मतिज्ञानविषयः ॥ " A अर्थ- आठे ज्ञानना विषयोना स्वरूपमा प्रथम मतिज्ञाननो विषय हवे ए आठे ज्ञानना विषयोनुं स्वरूप हुं वर्ण कुं. त्यां विषयो द्रव्य-क्षेत्र - काळ- अने भावडे चार प्रकारे कहेवाय ले ॥ ८७४ ॥ मतिज्ञानी सामान्यतः सर्व द्रव्योने ( द्रव्यस्कंधोने ) जाणे छे. अने विशेषथी पण देश ( प्रदेशादि ) मेवे ते द्रव्योने जाणे छे ।। ८७५ || परन्तु ते द्रव्योमां रहेला सर्व विशेष धर्मोनी अपेक्षा धर्मा ftaaraft द्रव्योने अप्रगट पणे जुए के जागे छे ), परन्तु सर्वप्रकारे । वर्णादि सर्व पर्याय पणे ) न जुए ( न जाणे. ) || ८७६ || तथा योग्य स्थाने ( इ . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- २६) ॥ श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः ॥ {सा० १८८) (४०९) न्द्रिय ने मन ग्रहण करी शके तेवा स्थाने ) रहेला शब्दादि विषयोने जाणे छे अने देखे थे, अगवा श्रुतवडे संस्कार पामेली बुद्धिथी ( मतिज्ञानी जोव) सर्व द्रव्योने ( अर्थात् सर्वस्थाने रहेला विषयादिने) जाणे छ. ॥ ८७७ ॥ तथा क्षेत्रधी लोक अने अलोक, तेमज काळधी भृत-वर्तमान-ने भविष्य कालने, अथवा सर्व काळने, अने भावथी औइयिकादि भावोने जाणे ॥ ८७८ ॥ भाष्यकारे कह धुं छे के-"आदेश एटले प्रकार. त्यां सामान्य प्रकारथी धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्योने जाणे. परन्तु सर्व भाववडे न जाणे [अर्थात सर्व पर्यायो न नाणे ], तथा क्षेत्रधी लोकालोक आणे, अने काळधी त्रणे प्रकारना काळने अथवा सर्व काम्ने जाणे, अने भावथी औदयिकादिवा पांच भावोने जाणे, का. रणके मतिज्ञानने पटलं जज्ञेय ( जाणवा योग्य ) छ. ॥ ८७२ ।। अथवा आदेश एटले सूत्र ते मूत्र [ शास्त्र ] बडे उपलब्ध (माप्त करेला-जाणेला) पदार्थोमां ने सूत्रनी भावना विना पण ( ते शाखना चितवनविना पण ) ते मनिज्ञानीन मतिज्ञान सूत्रने अनुसारे प्रसरे छे" तथा तत्वार्थ वृत्तिमा पण कहथु छ के-"प्रथम श्रुतज्ञानवडे जाणेला पदार्थोमां ज्यारे अक्षरनी परिपाटी विना सारी रीते भणेली विद्यावालो मतिज्ञानी द्रव्योने चितवे छे त्यारे मतिज्ञाननी विषय सर्वे द्रव्य होय छे. परन्तु सर्व पर्यायोने जाणतो नथी, कारणके मतिनो विषय अल्पकाळवाळो छ, अने मननी शक्ति [ तेटला अल्प काळमां सर्व पर्यायो जाणे नेवी) नथी." ए रीते मतिज्ञाननो विषय कह्यो. ।। ८८० ।। भावश्रुतोपयुक्तः सन् जानाति श्रुतकेवली । दशपूर्वादिभृद् द्रव्याण्यभिलाप्यानि केवलम् ॥ ८८१ ॥ यद्यप्यभिलाप्यार्थानन्तांशोऽस्ति श्रुते तथाप्येते। सर्वे स्युः श्रुत्तविषयः, प्रसङ्गतोऽनुप्रसङ्गाच्च ॥ ८८२ ॥ यथाहुः ॥ पन्नवणिजा भावा, अर्णतभागो उ अणभिलप्पाणं । पन्नवणिज्जाणं पुण, अणंतभामो सुअनिबद्धो ॥१॥ (प्रज्ञापनीया भावाः अनन्तभागस्त्व नमिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ॥१॥ ( सा० १८९) तथा ॥ श्रुतानुवर्तिमनसा, ह्यचक्षुर्दर्शनात्मना । दशपूर्वादिभद् द्रव्याण्यभिलाप्यानि पश्य Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) || ज्ञानद्वारे श्रुतज्ञानविषयविचारः || बार] ति ॥ ८८३ ॥ तदारतस्तु भजना, विज्ञेया धीविशेषतः । वृद्धेस्तु पश्यतीत्यत्र, तत्त्वमेतन्निरूपितम् ॥ ८८४ ॥ सर्वात्मनाऽदर्शने - ऽपि पश्यत्येव कथञ्चन । भैवेयकानुत्तरादिविमाना लेख्यनिर्मितेः॥ ८८५ || नो चेत्स्यात्सर्वथाऽदृष्टस्यालेख्यकरणं कुतः ? । तुर्योपाङ्गे श्रुतज्ञानपश्यना प्ररूपता (सा० ११०) क्षेत्रतः कालतोऽप्येवं, भावतो वेत्ति सश्रुतः । भावानादयिकादीन् वा, पर्यायान्याऽभिलाप्यगान् ॥ ८८७ ॥ इति श्रुतज्ञानविषयः || अर्थ- श्रुतज्ञाननो विषय- भावश्रुतमां उपयोगबाळा वया छता श्रुतकेबली (१४ पूर्वघर भगवन्तो तथा ) १० पूर्वघर वगैरे केवळ अभिलाप्य द्रव्योंने (वचन गोचर पदार्थोंने ) जाणे ॥ ८८१ ॥ जो के श्रुतम ( शास्त्रां ) तो अभिलाप्य अर्थनो ( पदार्थनो) अनंतमो भाग ज (गुंथायलो) के तो पण आ सर्व अभिलाप्य भावो प्रसंग अने अनुप्रसंगथी श्रुतज्ञाना विषय थाय छे ज. ||८८२॥ कह के के-" प्रज्ञापनीय ( प्ररूपणायोग्य अभिलाप्य ) भावो अनभिलाप्य भावोथी अनंतमा भागे छे, अने ते मज्ञापनीय भावनो वळी अनंतमो भाग श्रुतमां घायलो "तथानने अनुसारे वर्तता अचक्षुर्दर्शन रूप मनबडे दशादि पूर्वधरो अभिलाप्य द्रव्योने देखे है | ८८३ || तेथी ओछा ज्ञानवाळा बुद्धिनी विशेषताए (अभिला० भात्रोने ) देखे अने न पण देखे, आ स्थाने " पश्यति देखे " ए अर्थनु तव द्घोष आ प्रमाणे धुं छे. ॥ ८८४ || सर्वरूपे नहिं देख्या छतां पण कोइक अपेक्षा ग्रैवेयक अने अनुत्तरनां विमाननी चित्र रचना रचाती होवाथी "देखे "ए ठीक है. ॥८८५॥ जो नेम न होय तो सर्वथा नहि देखेली चीजनी १ कंवली चरमो जम्बू : स्वाम्यथ प्रभषः प्रभुः । शय्यम्भवां यशोभद्र, सम्भूतजियस्तथा || १ || भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनी हि षट् । महागिरिसुहस्त्याचा वान्ता दशपूर्विणः ||२॥ श्रुतकेवलि भगवंतोने मध्यक्रमं निधाई एवं विशेषण पण अपाय छे. fr ર स्मृतम्योपैचानर्हत्वं प्रसङ्गः " स्मरणमां आवेलानुं उपेक्षा करवा लायकपणुं नयो ते प्रसङ्ग अने प्रसङ्गप्राप्तमां स्मरणमां आवेदनुं उपेनालायक पशुं महि ते अनुप्रसङ्ग प्रेम छ द्रव्यना व्याख्यानमां जीवद्रव्यनु वर्णन आवे से प्रसंगथी कहेवाय, अने तेज चालू वर्णनमां जीवना संबंधमां ज्ञाननुं वर्णन आये ते अनुप्रसंगथी कहेषाय. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १९० ) २६मुं] आकृति चितरवी केम बनी शके ? माटे चोथा उपायां (श्रीपन्नवणाजीमां) श्रुतज्ञानथी देखवा पण कहुं छे. ॥ ए प्रमाणे श्रुतज्ञानी काळी ( वा सर्वकाळ ) अने क्षेत्रथी 'लोकालोक) अने भावथी औयिकादि भावोने अथवा अभिलाप्य पदार्थगत पर्यायने जाणे है | ८८७ ॥ ए प्रमाणे श्रुतज्ञाननो विपय को. ➖➖➖ (४११) द्रव्यतोऽथावधिज्ञानी, रूपिद्रव्याणि पश्यति । भाषातेजसयोरन्तः स्थानि तानि जघन्यतः ॥ ८८८ ॥ उत्कर्षतस्तु सर्वाणि सूक्ष्माणि बादराणि च । विशेषाकारतो वेति, ज्ञानत्वादस्य निश्चितम् ॥ ८८९ ॥ क्षेत्रतोऽथावधिज्ञानी, जघन्याद्वैति पश्यति । असंख्येयतमं भागमङ्गुलस्योपयोगतः ॥ ८९० ॥ विशेषश्चात्र ॥ " जावइया तिसमयाहारगस्स हुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहण्णा, ओहिक्खिन्तं जहन्नं तु ॥१९१॥" (यावती त्रिसमयाहारकस्य सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य । अवगाहना जघन्या, अवधिक्षेत्रं जघन्यं तु || १ || ) इति नन्दीसूत्रादिषु । [ सा० १९९] नन्दीवृत्तौ च ॥ "योजनसहस्रमानो, मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः । उत्पद्यते हि पनकः, सूक्ष्मत्वेनेह स प्रायः ॥ ८९२ ॥ संहृत्य चाद्यसमये, स ह्यायामं करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्याङ्गुलविभागवा हल्यमानं तु ॥ ८९३ ।। स्वतनुपृथुत्वमात्रं, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये, संहृत्य करोत्यसौ सुचिम् ॥ ८९४।। संख्यातीताख्याहूगुल विभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुपृथुत्वदीर्घा (दे ) तृतीय समये तु संहृत्य ॥ ८९५॥ उत्पद्यते च पनकः, स्वदेवेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समय त्रयेण तस्थावगाहना यावती भवति ॥ ८९६ || तावज्जघन्यमवधेरालम्वनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___... -- - (४१२) ॥ ज्ञानद्वारे अवधिज्ञाननिरूपणम् ॥ द्वार) मेव मुनिगणसुसंप्रदायात्समवसेयम् ॥ ८९७ ॥ (सा. १९२) तथा॥ "मच्छो महलकाओ, संखित्तो जो उ तीहि समएहिं ।स किर पयत्तयिसेसेण, सण्हमोगाहणं कुणइ ॥१॥ सण्हयरा सण्हयरो, सुहुमो पणओ जहन्नदेहो य । स बहुविसेसविसिट्टो, सण्यरो सव्वदेहेसु ॥ ८९८ ॥ पढमबिए इसण्हो, जमइत्थूलो चउत्थयाईसु । तइयसमयंमि जुग्गो, गहिओ तो तिसमयाहारो ॥ ८९९ ॥ (मत्स्यो महाकायः संक्षिप्तो यस्तु त्रिभिः समयः । स किल प्रयत्नविशेषेण श्लक्ष्णामवगाहनां करोति ॥ १॥ श्लक्ष्णतरात् श्लक्ष्णतरः सूक्ष्मः पनकः जघन्यदेहश्च । स बहुविशेषविशिष्टः श्लक्षणतरः सर्वदेहेषु॥२॥ प्रथमद्वितीययोरतिश्लक्ष्णो,यदति स्थूलः चतुर्थकादिषु । तृतीयसमये योग्यः गृहीतस्ततः त्रिसमयाहारः)[सा० १९३] अलोके लोकमात्राणि, पश्येत्खण्डान्यसंख्यशः। उत्कृष्टतोऽवधिज्ञानविषयः शस्यपेक्षया ॥ ९०० ॥ असंख्यभागमावल्या, जघन्यादेष पश्यति । उत्सपिण्यवसर्पिण्य, उत्कर्षेण वसंख्यकाः ॥९०१ ।। अतीता अपि तावत्यस्तावत्योऽनागता अपि । तावत्काले भूतभाविरूपिद्रव्यावबोधतः ।। ९०२ ।। पर्यायान् भावतोऽनन्तानेष वेत्तिजघन्यतः। आधारद्रव्यानन्त्येन. प्रतिद्रव्यं तु नेयतः ॥९०३।। उत्कर्षतोपि पर्यायाननन्तान् वेसि पश्यति । सर्वेषां पर्यवाणां चानन्तेऽशे तेऽपि पर्यवाः ॥ ९०४ ॥ ___अर्थ-अवधिज्ञाननो विषय-हवे अवधिज्ञानी व्यथी सर्व रूपी द्रच्योने देख अने ते पण तेजस अने भाषा वर्गणानी वच्चे रहेला (अप्रायवर्गणाना) द्रव्पाने १ श्लोकनी अंदर भाषा शब्द अल्प स्वरवाळो हीधाथी व्याकरणमा नियमयी सेना पूर्वनिपात (पहेलु प्रहण) थयो . वर्गणाओना क्रममा तो पहेली जात (औदारिकादि आठ प्राय वर्गणाओनो अपेक्षाये घोथी ) अने Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्यास्ममदेशासंहार चित्र नंबर १९ महामत्स्यना स्थभायस्थ आल्मप्रवेशा. .. - - . ve..F N PRIYAN प्रथम समये संहरणधी धयेलं मत्स्यात्म प्रदेशीनु प्रनर . . . . . . . ..." . . . . . . .:: .. . . . . . . . . . . . 4 r - . .. .. ." - -- - - - - - - . - . .. . . H a . . . . . . HIR --- ----- --4 बीने समो धयेली मन्म्यात्म परेशो नो ईड (अधया सूची) ... एज मन्स्टाली कायापकपणे समर्थन मस्थलो आन्मा -- ... पजक आभल्स्यता कलेयरमा जे गुलासंख्येय भाग मा मनी अयगाहनाए सूक्ष्मपनक उत्पन्न भयो नेटली अमगाहना प्रमाण अधन्यलान न समन्य क्षब आणबु. १ आमत्स्यना शरीरली तथा आत्म प्रदेशाचगाहनानी लगाइ १००० योनननी छे. २ आमत्स्यना भाग प्रशाना प्रत्तर नीलया पहोकार मत्स्यना शरीरनी होलाइ जेमड़ी अमेजाराह अंकुलासंरमेय भाग प्रमाण छे. ३ आमस्स्यना आत्मप्रदेश नी चिनी लंबाइपर नाप्रनरजेटलीएरले पस्पना शरीरनी ही कार सेटली अपीलार्धा मारार अंगुलासरचय भाग प्रमाण छ. ४ आ मस्स्थमा कलेवरमा पनकपणे उत्पन्न थयेल मत्स्य जीमनी अवगाहना अंगुलासख्येय भाग प्रमाणछे नेटलु अधिनाननु जघन्य क्षेत्रछ. आनन्द प्रो. प्रेस-भावनगर. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा. १९० (४१३) जघन्यथी जाणे ।। ८८८ ॥ अने उत्कृष्टथी तो सर्व बादर अने सर्व सूक्ष्मद्रव्योने विशेष आकारथी (विशेष धर्मयुक्त) जाणे, कारणके एने निश्चयथी ज्ञानपणु कहेलं छ. ॥ ८८९ ॥ हवे अवधिज्ञानी उपयोग बडे ( उपयोग मूके तो ज अ० ज्ञा होय माटे उपयोगथी ) क्षेत्रथी जघन्यपणे अंगुलनो असंख्यातमो भाग जाणे ।। ८९० ॥ अहिं विशेष ए के के-त्रण समय आहारक ( त्रण समय आहार करता थया के जेने ) एवा सूक्ष्मवनस्पति जीवनी जेटली जघन्य अवगाहना छ लेटलु अवधिनाननु जघा क्षेत्र है. ॥८९१॥ ए प्रमाणे श्री नन्दीमत्र विगेरेमां कईं छे. अने श्रीनन्दीसूत्रनीवृत्तिमा कामु छ के. १००० योजन प्रमाण कायावालो जे मत्स्य मरण पामीने पोतानाज शरीरना कोइ एक भागमा सूक्ष्म वनस्पति पणे उपजे तेज जीव अहिं सूक्ष्मपणावडे ग्रहण करवो ॥८९२॥ ते (महाकापो) मत्स्य (पोताना आत्ममदेशोनी) दीर्घताने प्रथम समये सङ्कोची मतर । . करे, ते मनर अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाण जाडे अने लवाइमां पण पोताना शरीर नी पहोळाइना प्रमाणवाल, (होळाइथो पण स्वशरीर प्रमाणज ) करे बळी घीजे समये ने प्रतरने षण सङ्कोची आत्म सामथ्र्यवडे ते महाकायी मत्स्य (स्वप्रदेशोनी) सूची करे (ते सूचि) अंगुलना असंख्यातमा भागनी विष्कम्भ प्रमाणवाळी (होजीने जाही) बताची छे, अने पोताना शरीरना विस्तार जेटली दीर्घ (म्बदेहनी प्होलाइ जेटली दीर्य) बनावे छे, एवी रीते बनावेली सूचीने त्रीजे समये सङ्कोची ॥८९.८॥ ( ने मत्स्य ) पोताना शरीरना एक भागमा पनकपणे सक्ष्म वनस्पतिपणे) उत्पन थाय ते सूक्ष्म परिणामवाळो जाणवो, ने पनकनी उत्पन थया बाद त्रण समयमां जेटली अवगाहना थाय ।१५।। तेटलुं क्षेत्र अवधिज्ञानना आलम्बन पदार्थोनु (अवविज्ञानना विषयभूत पदार्थोनु) भाजनरूप जघन्यक्षेत्र जाणवू, आ जार० क्षेत्र मुनिग त्यारयाद भाषा ( औ• ग्रा० अपे० पांचमी ) घर्गणा कहेली छ, भापानी अपेक्षाये तैजस स्थूल छे, अने तैजसमी अपेक्षाये भाषा सक्षम छे. माटे तेज वर्गणा क्रम घटी शके छे. अने अप्राण न्यो तैनसनी नशीक होय ते गुरुलधु अने भाषानी नीक होय ने अगुरु लघु जाणया. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) ॥ ज्ञानदार ज्ञानहारे अवधिज्ञाननिषगविनारः ॥ (द्वार णना उत्तम सम्पदायथी (आम्नायथी) ए प्रमाणेज जाणवू तथा (श्री विशेषा० . मां कहथु छ के-) जे मत्स्य महाकायावाळो होय ते निश्चय प्रयत्नविशेगथी त्रण १ अहियो म विशेषा० नो अर्थ प्रश्नमा जवाब पे छे, पास्तु में प्रश्नी कया कया ! मी गाथा चाल विषयमा नहि देशाधली होबाथी अशी दर्शावायचे. किं मोऽतिमहलो. किं निमममी व कीस चा सुमो ? गरिओ कीम ५ पणओ, कित्र जहन्नावगाहणी ॥२॥ अर्थ-मच्छ (अने ते पण) अति मोटी कायावाळी कम प्रहण कयों ? पण समयना आहारथाझै कम । शुभम केम ? पनक शामाटे ? अने ते पनक पण जघग्यावगाहनावाळी फेम ग्रहण कर्यो ? ( प प्रश्नोनो जवाब उपर आधी गयो है तो पण संक्षेपमा सुगमतापूर्वक समषा माटे प्रश्नोत्तर हम्म्या छे. प्रशः--बीजा जीयो नहिं ग्रहण करतां मच्छ केन प्रहण कर्यों ? उत्तर–बीजा जीवा घणी मोटी कायायाळा २०१० जाजम जेटला होर स्वदेहमा अति सूक्ष्म पनक पणे उपजता नयी माटे. प्रश्न:- हजार योजन अधिक कायषाळी प्रत्येक वनस्पति सू० पनक पणे स्वदेशमा उपजी शके छे तो ते केम न प्राहण करो! उत्तर:- मछमी अपेक्षाए ० बनस्पनो मंद प्रयत्न होवाथी पनकपणे उपजतां अति सूक्ष्मता न थाय पण हसूल पनकपणे उपजे माटे. प्रश्नः-पांतानी कायामांज उत्पन्न थाय ए विशेषण शा माटे? उत्तर:--परस्थाने अने बकतिप जता आत्मप्रवेशोनो विस्तार बघाथी अति सूक्ष्मता न थाय माटे. (अने स्थकायमां तो मझु गतिए ज उत्पन्न वाय तेथी सूक्ष्मता प्राप्त थइ शके.) प्रश्नः-प्रण समयना आहारवाळा प विशेषण कम ? उत्तर:-हेला अने बीजां समयना आधारवाळो पनक अन्यत सूक्ष्म, अने चोधादि समयचाळो पनक स्थूल होय छे, अने अध० अब. क्षेत्र ते टल नहि पण त्रिममयाहारक जेटलुज छ माटे. प्रश्नः-मक्षम केम ? उत्सरः-स्थूल पनकनी सर्यजघन्य अवगाहनायी पण अबन्नु अघ क्षेत्र अल्प होय छे माटे, प्रश्नः- पनकपणे उत्पन्न थाय एम शामाटे ? उत्तर:- पनक सिवाय वीजा जीय अति सूक्ष्म न होय माटे. प्रश्नः-से समपनक पण जध. अवगाहनाषाळो कम ग्रहण कर्यो ? उत्तर --जघ० अवधिनु क्षेत्र तेटलुज होवाथी, ( अहि केटलाक प्रश्न गायामा अने केटलाक प्रश्न अध्यावाग्थी लहने पण प्रश्नोसरनी विषय पूर्ण कयों छे से जपरना अर्थ साथे यथायोग्य विधारवो.) Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ २६ मुं) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १९० ) न समयमां ( आत्म प्रदेशोने ) सङ्कोच करतो छतो सूक्ष्म ८९६ || बळी मुख्यमां ने ते पण पूर्वेला अति घणां विशेषणी ( १००० जोजननो-स्वदे हे उत्पन्न थनार - पनकपणे उत्पन्न धनार-त्रण समयना आहारवाळी - ए विशेषणो ) वाळो ज सर्व देहमां सूक्ष्मदेहवाळो होय . ।। ८९७ ।। त्यां हेला अने वीजा समयमा अतिसूक्ष्म होय छे, अने चोथादि समयम अतिस्थूल होय छे, माटे बीजे समज ( अवधिना जय० क्षेत्रने ) योग्य थाय छे, तेथी अहिं ण समयना आदारवाळो एवं विशेषण कह. ।। ८९९ ।। उत्कृष्टथी अलोकमां लोक जेवडा असंख्यात खण्ड देखे. ए अवधिज्ञाननो ( क्षेत्रथी ) ० विषय शक्तिनी अपेक्षाए को. ॥ ९०० ॥ कळी ए अत्र ज्ञानी [ काळधी ] जय० पणे आवलिकानो असंख्यातमो भाग देखे, अने उत्कृष्ट पणे असंख्य अवसर्पिणी उत्सर्पिणी देखे. ॥ ९०१ ।। भूतकाळमां पण तेटली अने भविष्यकालमा पण तेली अवस०-उत्स० देखे, अर्थात् तेटला काळ सुधीमां रूपी द्रव्यने (व्यतीत अने अनागत कालना द्रव्योने) देखे माये ॥१०२॥ तथा अज्ञानी (भावधी) अनन्त पर्यायी जाणे, ते पण ज्ञेयद्रव्य अनन्त होवाथी ( अनन्त पर्याय जाणे.) प्रत्येक द्रव्यमां (एटला) अनन्त पर्याय न जाणे, नो यतः एवो पाठ राखीये तो जे कारण माटे एत्रो अर्थ करतो ( परन्तु अनन्त द्रव्यना मलीने अनन्त) अने एक द्रव्यमां असंख्य पर्याय जाणे ॥ ९०३ तथा उत्कृष्टथी पण अनन्त पर्याय जाणे अने देखे ते पण सर्व पर्यायोना अनन्तम भाग जेटला अनन्त पर्याय जाणे ॥ ९०८ ॥ (४१५) अवगाहना करे छे. ॥ होय. अने अथावधेर्विषययोर्नियमः क्षेत्रकालयोः । मिथो विभाव्यते वृद्धिमाश्रत्य श्रुतवर्णितः । ९०५ ॥ अङ्गुलस्यासंख्यभागं, क्षेत्रतो यो निरीक्षते । आवल्यसंख्येयभागं कालतः स निरीक्षते ॥ ९०६ ॥ प्रमाणाङ्गुलमत्राहुः केचित्क्षेत्राधिकारतः । अवधेरधिकाराच्च, केचनात्रोच्छयाङ्गुलम् ॥९०७॥ यश्चाङ्गुलस्य संख्येयं, क्षेत्रतो भागमीक्षते । आवल्या अपि संख्येयं कालतोऽशंस वीक्षते ॥ २०८ ॥ संपूर्णमङ्गुलं यस्तु, क्षेत्रतो वीक्षते Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१६) || ज्ञानद्वारे अवधिज्ञानविपयक्षेत्रकालसंषेधनिरूपणम् ॥ द्वार) जनः । पश्येदावलिकान्तः स, कालतोऽवधिचक्षुषा ।। ९०२ ॥ पश्यन्नावलिकां पश्येदङ्गुलानां पृथक्त्वकम् | क्षेत्रतो हस्तदर्शी च, मुहर्त्तान्तः प्रपश्यति ॥ ९९० ॥ कालतो भिन्नदिनदृग्, गव्यूतं क्षेत्रमीक्षते | योजनक्षेत्रदर्शी च भवेदिनष्पृथक्त्वदृक् ।। ९९९ ।। कालतो भिन्नपक्षेक्षी, पंचविंशतियोजनीम् । क्षेत्रतो वेति भरतदर्शी पक्षमनूनकम ॥ ९९२ ॥ जानाति जम्बूद्वीपं च, कालतोऽधिकमासवित् । कालतो वर्षवेदी स्यात्, क्षेत्रतो नरलोकवित् ॥ १३ ॥ रुचकद्वीपदर्शी च पश्येद्वर्षपृथक्त्वकम् | संख्येयकालदर्शी च संख्येयान द्वीपवारिधीन् ॥ ९९४ ॥ सामान्यतोऽत्र प्रोक्तोऽपि, कालः संख्येयसंज्ञकः । विज्ञेयः परतो वर्षसहस्रादिह श्रीधनैः । ९१५ || असंख्यकालविषयेऽवधौ च द्वीपवार्धयः । भजनीया असंख्येयाः, संख्येया अपि कुत्रचित् ॥ ९१६ ।। विज्ञेया भजना चैवं, महान्तो द्वीपवार्धयः । संख्येयाएव किंचैकोऽप्येकदेशोऽपि संभवेत् ॥ ९९७ ॥ तत्र स्वयम्भूररमणतिरश्वोऽसंख्यकालिके । अवधौ विषयस्तस्याम्भोधेः स्यादेकदेशकः ॥ ९९८ ॥ योजनापेक्षयाऽसंख्यमेव क्षेत्रं भवेदिह । असंख्यकालविषयेऽवधाविति तु भाव्यताम् ॥ ९९९ ॥ कालवृद्धौ द्रव्यभाव क्षेत्रवृत्तिरसंशयम् । क्षेत्रवृद्धौ तु कालस्य, भजना क्षेत्रसौक्ष्म्यतः || ९२० ।। द्रव्यपर्याययोर्वृद्धिरवश्यं क्षेत्रद्धितः । अत्र शेषो विशेषश्च ज्ञेय आवश्यकादितः ॥ ९२९ ॥ अवध्यविषयत्वेनामृर्त्तयोः क्षेत्रकालयोः । उक्तक्षेत्रकालवर्तिद्रव्ये कार्याsत्र लक्षणा ॥ ९२२ ॥ इत्यवधिज्ञानविषयः ॥ अर्थ - अवधिज्ञाननाविषयभूत क्षेत्रकाळनो संवेध हवे अवविज्ञानना विषयरूप क्षेत्र अने काळ सम्बन्धि परस्पर नियम वृद्धिनी अपेक्षाए सिद्धान्तमां Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १९३) (४७) वर्णवेली के ते दर्शवाय छे. ॥ ९०५ ॥ जे अवधिज्ञानी क्षेत्री अङ्गुलना असं ख्यातमो भाग देखे है, ते अवधिज्ञानी काळयी आदिकानी असंख्यातमो भाग देखे छे. ॥ ९०६ ॥ अहिं क्षेत्र अधिकार होवाथी केटापक आचार्य प्रमाणाकुल (नुं माप) कहे छे. अने केटलाएक अहिं अवधिज्ञाननो अधिकार होवाथी उत्सेधांगुल (नुं माप) कहे . जे क्षेत्रथी अगुलनी संख्यानमो भाग देखे ने काart आलिफानो पण संख्यातमो भाग देख ॥ ९०७॥ जे मनुष्य क्षेत्रथी संपूर्ण अगुल देखे ते अवधिरूप चक्षुवडे कालथी देशीन (किंचिन्यून) आवलिका देखे ९०८ || संपूर्ण आवलिकाने देखतो अवधिज्ञानी अङगुल पृथक्सन क्षेत्र देखे, अने क्षेत्रथी १ हाथने देखना काळ्यो अन्तर्मु० देखे ॥ ९०९ ॥ काळी देशोन एक दिवसने देखनार क्षेत्री १ गाउ देखे, अने क्षेत्रथी १ योजन देखनारो काळधी दिवस पृथक्त्वने देखनार होय || ९१० ॥ काळी देशोन पखवाडीयाने देखनार क्षेत्रथो २५ योजन देखे. अने क्षेत्रथी भरतक्षेत्रने देखनार काळी संपूर्ण परववाडीयुं देखे ॥ १११ ॥ काळयी साधिक १ मास देखनारो क्षेत्रभी जम्बूद्धीपने, अने काळो १ वर्षेने जाणनारो क्षेत्रथी मनुष्यक्षेत्र जाणनारो होय . ॥ ९२२ ॥ क्षेत्रथी रुचक द्वीप देखनार काळधी वर्ष पृथक्तत्व देखे, अने संख्यात काळ देखनारो संख्यात मोसमुद्र देखे || ९१३ || अहिं सामान्यतः कहेलो संख्यानकाळ पण बुद्धिमान १००० वर्षथी उपरनो ज जाणो ॥ ९१४ || असंख्यकाळना विपवाळा अवधिज्ञानमा असंख्यात द्वीप वा समुद्रोतुं ज्ञान भजनाए (विकल्पे ) जाणवुं. कारणके कोक असंख्यकाळाविळ संख्यात द्वीप समुद्र पण जाणे ॥१५॥ ते भ जना आ प्रमाणे जाणवी के मोटा खोप समुद्रो असंख्ययोजनमा प्रमाणवाळा संख्यात ज अथवा ( तेथी मोटो ) एकज, अथवा ( तेथो पण मोटो ) एक द्वीप वा समुद्रनो एक विभाग पण देवानुं संभवे ॥ २१६ ॥ त्यां स्वयम्भूरमण समुद्रमां FETT तिर्यञ्चने असंख्यकाळना त्रिषयवाळु अवधिज्ञान होय तो ते अत्र ज्ञाननो ( क्षेत्रथी ) विषय ते स्वयम्भू समुद्रनो एक विभागज होय ।। ११७ || अहिं असंख्यकाळवाळा अवधिज्ञानता विषयमा योजननी अपेक्षाए असंख्य ज क्षेत्र के एम जाण ।। ९१८ ।। पुनः ( अवधिज्ञानना विषयमा ) जैम जेम काळनो विषय वृद्धि पामतो जाय तेम तेम द्रव्य-क्षेत्र - अने भाव विषयनी वृद्धि निश्चय होय ॥ ११९॥ अने क्षेत्र विपयनी वृद्धियां काळ , Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१८१ ज्ञानद्वारे अवधिज्ञानविषयविचारः ॥ आर वृद्धिनी भजना जाणवी. कारणके काळ करतां क्षेत्र सूक्ष्म के माटे ॥ ९२० ॥ तथा क्षेत्रनी वृद्धिधी द्रव्य अने पर्यायनी अवश्य वृद्धि थाय. अहिं वाकीनुं विशेष वर्णनकादिकथ जाण ॥१२१॥ अमृत् (अरूपी) एवा क्षेत्र अने काळ a safai विषय नहि होवाथी कला क्षेत्रकाळमां वर्तनारा द्रव्यमां ते वन्नेनी ( क्षेत्र - काळनी ) लक्षणा करवी. ॥ ९२२ ॥ ए प्रमाणे अवधिज्ञाननो विषय को. -- १- २-३ एक प्रमाणाङ्गुल जेटली श्रेणिप्रमाण आकाश खण्डना दरेक ममये एक एक आकाशप्रदेशनो अपहार करतां असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणीओ वीति जाय. माटे काळ करतां आकाश सूक्ष्म छे. तेथी घणुं क्षेत्र बचे तो ज काळनी वृद्धि थाय अन्यथा नहिं माटे भजना भने वध्य क्षेत्र करतां पण सूक्ष्म छे, कारण एक आकाशप्रदेशमां अनन्तपरमाणु तथा अनन्तप्रादेशिक स्कन्धांनी अवगाहना थाय छे। अने द्रव्यथी पण पर्याय घणा सूक्ष्म है. कारण एक परमाणुरूप मध्यमांप अपनी म हाथ से मारे क्षेत्रमां द्रच्यवृद्धि तथा पर्यायनी वृद्धि निश्चयथी थाय छे, द्रव्यवृद्धियां काळवृद्धि तथा क्षेत्रवृद्धिनी भजना जाणधों, पण पर्यायवृद्धि निश्वयथो जाणची पर्यायवृद्धिमां काळवृद्धि, क्षेत्रवृद्धि तथा श्रन्यवृद्धि त्रणेनी भजना समजत्रो आज कारणने लड़ने क्षेत्री अंगुलनी असंख्यातमो भाग अने काळ्थी आघलिकानां असंख्यानमो भाग जं जघन्य अवधिविषय कधी तेमां आवष्टिकाना असंख्यातमा भागमां जेटला समय छे, ते करतां अंगुलना असंख्यातमा भागमां आकाशप्रदेशां असंख्यात गुणा है, एज प्रमाणे सर्व स्थळे काळ करतां क्षेत्र असंख्यात गणुं समजबु यही अवधिज्ञानता जघन्य विषयक्षेत्र प्रमाण माटे जे सिमाहारक पनक लोधी, मां केंटलाको "पहेलो घनरसमय बीजो सूचि समय अते बीजो उत्पत्तिसमय समयमां ऋजुगतिथी आवेल होवाथी आहारक ज माटे ते लेवी अने ते जघन्य अवगाहना बाळो पण छे." नेम हे छे, पण नं अयुक्त छे, कारण त्रिसमयाहारक प एनकनुं विशेषण हे अने प्रतर तथा सूचि समयों तो मत्स्यभवना छे माटे पनकभत्रमा उत्पत्तिथो श्रीजी समय लेवी तेज व्याजत्री है, अवधिज्ञानना सम्बन्धमां चाँद द्वारोनुं वर्णन आवश्यकवृत्ति आदियो जाण. " शक्याथैवाधे शक्यसम्बन्धी लक्षणा जे अर्थमा जे पनी शक्ति होय ते अर्थ ते पवनुं शक्य कहेवाय ते शकयार्थनो बाघ छतां शक्यनों मेंबन्ध ते लक्षणा कद्देवाय जेम गङ्गायां घोषः " ठेकाणं गङ्गापनुं शक्य गङ्गा नदी प्रवाह तेमां घीष पटले गायना नेहडानां श्राध है ( न संभवी शके) י F 1 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६k) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २००) (४१९) स्कन्धाननन्तानृजुधीरुपयुक्तो हि पश्यति । नृक्षेत्रे संज्ञिपर्याप्तर्मनस्त्वेनोररीकृतान् ॥ ९२३ ॥ मनोज्ञानस्य नितरां, क्षयोपशमपाटवात् । विशेषयुक्तमेवासी, वेत्ति वस्तु घटादिकम् ॥ १.२४ ॥ स्कन्धान जानाति विपुलधीश्च तानेर साधिकान् । अपेक्ष्य द्रव्यपर्यायान्, तथा स्पष्टतरानपि ॥ ९२५ ।। द्विधा मनःपर्यवस्य, द्रव्यतो विषयो ह्ययम् । विषयं क्षेत्रतोऽथास्य, ब्रवीमि ऋजुधीरिह ॥ ९२६ ॥ अधस्तिर्यग्लोकमध्याद्वेत्ति रत्नप्रभाक्षितौ । अजुधीर्योजनसहस्त्रान्तं संज्ञिमनांस्यसौ ॥ ९२७ ॥ ज्योतिश्चक्रोपरितलं, यावर्षं स वीक्षते । तिर्यक्षेत्रं द्विपाथोधिसार्धद्वीपद्वयात्मकम् ।।९२८। उक्त क्षेत्र विपुलधीनिर्मलं वीक्षतेत्रिधा (तथा)। विष्कम्भायामबाहल्यैः, सार्द्धद्वयङ्गुलसाधिकम् ॥९२९॥ "अयं भगवतीसूत्रवृत्ति-राजप्रश्नीयवृत्ति-नन्दीसूत्र-नन्दीमलयगिरीयवृत्ति-विशेषावश्यकत्तिकर्मग्रन्थवृत्त्याद्यभिप्रायः ।”(सा. १९४-१९९) सामान्य घटादिवस्तुमात्रचिन्तनपरिणामग्राहि किञ्चिदविशुद्धतरमर्ध-- तृतीयाङ्गुलहीनमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञान ऋजुमतिलब्धिः, संपूर्णमनुष्यक्षेत्रविषयं विपुलमतिलब्धिरिति तु प्रवचनसा रोद्धारवृत्त्यौपपातिकवृत्त्योर्लिखितं ॥ ( सा० २०० ) "अर्धतमाटे समीपतिन्य मभ्यग्धरूप लक्षणाबडे गङ्गानीर (कांटा)मां घोष छे तेत्री अर्थ करधों पहे छ, पटले गङ्गापदनी गङ्गातीरमां लक्षणा करबी पडे है, तेम अहीं पण क्षेत्र अने काळपटना पाच्य अरूपि आकाश प्रदेशो नया आषलि. काविरूपकालमां रूपित्रव्यने विषय करनार होवाथी अयधिज्ञानना विषयपणाना वाध छ, तेथी तत्स्थत्वरूप सम्यग् करी तदसियो ज क्षेत्रकाळपदोथी लंबा, लक्षणा १ माइस्था, २ अजहरस्वार्धा, ३ निरुदा, ४ आधुनिको एम चार प्रकारनी है, तेमां अहीं निरुदालक्षणा जाणवी आ मगन्धी विशेष वर्णन स्यायग्रन्योथी जाणवु. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - , (४२०) _ ॥ ज्ञानद्वारं मनःपर्यायविपयविचारनिरूपणम् ॥ __ द्वार] तीयद्वीपसमुद्रेष्वर्धतृतीयाङ्गुलहीनेषु संज्ञिमनांसि जुमतिर्जानाति, विपुलमतिरर्धतृतीयैरगुलैरभ्यधिकेविति चार्थतः श्रीज्ञानसागरसूरिकृतावश्यकावचूर्णी ।। " (सा. २०१) ऋजुधीः कालतः पल्यासंख्यभागं जघन्यतः । अतीतानागतं जानात्युत्कर्षादपि तन्मितम् ॥ ९३० ॥ तावत्कालभूतभाविमनः पर्यायवोधतः । तावन्तमेव विपुलधीस्तु पश्यति निर्मलम् ।। ९३१॥ सर्वभावानन्तभागवर्तिनोऽनन्तपयवान् । जुधीर्भावतो वेत्ति, विपुलस्तांश्च निर्मलान् ॥९३२॥ इति मनःपर्यायविषयः॥ ___ अर्थ-मनःपर्यवज्ञानको विषय-उपयोगराळो एवो ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी मुनि मनुष्यक्षेत्रमा रहेला संक्षिपर्याप्तजीवोए मनपणे अङ्गीकार करेला (परिणमाचेला, अनन्त स्कन्धोने देखे ॥ ९२३ ॥ मनोज्ञानना क्षयोपशमनी अनि पटुता (तीक्ष्णता) होवाथी मनोज्ञानी विशेषधर्मयुक्त ज घटादि वस्तुने जाणे छे ॥९२४॥ तथा विपुलमनि ज्ञानी तेज अनन्त स्कन्धोने द्रव्यना पर्यायनी अपेक्षाए अधिक अने वधु स्पष्ट जाणे छे. ॥ ५२५ ॥ बजे प्रफारना मनःपर्यवज्ञाननो प विषय द्रव्ययी कयो, अने हवे सरळ बुद्धिवाळो हुँ ते मनःपर्यवज्ञाननो क्षेत्रयी विषय कई छ. ॥९२६॥ तिर्यग्लोकना मध्यभागथी रत्नप्रभा पृथ्वीमा नीचे १००० योजन मुधी ते बाजुमति मनोज्ञानी संज्ञिजीवोना मनोभाव जाणे २. ॥ ९२७ ॥ अने ज्योतिष् चक्रना उपरना तोया सुधी ने ऊर्ध्व देखे छे. अने अढी दीप अने ये समुद्र सुधी तिच्छ क्षेत्र देखे छे ॥ ९२८॥ ए कहे त्रणे प्रकारचं क्षेत्र विपुलमनि मनोज्ञानी निर्मळपणे अने रहोलाइ- लम्बाइ-अने जाढाइ ए त्रणे प्रकारे २॥ अङ्गुल अधिक क्षेत्र देखे छ. ।।२२। ए भगवतिनी पृत्ति-रायपसेणिनी वृत्ति-मन्दीसूत्र-नन्दीनीमलयगिरिवृत्ति-विशेषा० वृत्ति-अने कर्मअन्यत्तिनो अभिप्राय कायो, प्रवचनसारोद्धारवृत्ति अने उयवाइजीनी वृत्तिमा ए प्रमाणे लख्यु छ के-" सामान्य एटले घटादि पदार्थ मात्र चितवन परिणतिने ग्रहण करनार ( जाणनार ), कइक अविशुद्ध, अने २|| अंगुल हीन मनुष्पक्षेत्रना विषयवालं बान ते मजुमति लब्धि, अने संपूर्ण मनुष्यक्षेत्रना विषयवाळ शान ते विपुलमति लन्धि तथा श्रीज्ञानसागरमरिकृत आवश्य Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥श्रीलोकभकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० २०१] (४२१) कसम्रनी अवणिमा एवो भावार्थ छ के-" २॥ अंगुल न्यून अढी द्वीप समुद्रमां संशिजीवोनां मनने ऋजुमति जाणे छे,अने अढी अंगुल अधिक [एटले संपूर्ण] अढी द्वीपसमुद्रमा विपुलमनि जाणे 2" ९.३०॥ ऋजुमति काळथी जयन्यपणे भृतभावी पन्यो० नो असंख्यानमो भाग जागेले. अने पत्रणे पण देशलंग ना छे. ॥१३१ । अर्थात नेटला काळना व्यतीत थयेला अने भावीकाळमां यनारा मनना पर्यायोनो बोध होवाथी (तेटलं ज जाण छे). अने विपुलमति ज्ञानी नेटलं ज (काळ्थी) पण वधु निर्मळ जाणे, तथा ऋजुनिज्ञानी भावधी सर्व भावना अनन्तमा भाग जेटला अनन्त पर्यायोने जाणे, अने विपुलमति तेटलाज पर्यायोने निर्मळपणे जाणे. ।। २३२ ॥ ए प्रमाणे मनःपर्यवज्ञाननो विषय कहो. केवली द्रव्यतः सर्व, द्रव्यं मूर्तममूर्तकम् । क्षेत्रतः सकलं क्षेत्रं, सर्व कालं च कालतः ॥ ९३३ ॥ भावतः सर्वपर्यायान् •प्रतिद्रव्यमनन्तकान् । भावतो भाविनो भूतान्, सम्यग् जा नाति पश्यति ॥ ९३४ ॥ विहायःकालयोः सर्वद्रव्येषु संगतावपि । पृथयुक्तिः पुनः क्षेत्रकालरुढ्येति चिन्त्यताम् ॥९३५॥ इति केवलज्ञानविषयः ॥ अर्थ केवलज्ञानको विषय- केवलज्ञानी द्रव्यथी रूपी अने अरूपी सर्व द्रव्यने जाणे, क्षेत्रथी सर्व क्षेत्रने, काळथी सर्व काळने, ॥९३३॥ अने भावथी प्रत्येक द्रव्यना भूत भावी (ने वर्गमान) सर्व अनन्त पर्यायाने सम्यक प्रकार जाणे देख. ।। १.३४ ।। सर्व द्रव्यो (जाणे एम कहेवा) मां आकाश (क्षेत्र) अने काळनी साति ( अन्तर्भाव ) छतां पण पुनः [ क्षेत्र अने काळने ] नृदा कशा ते क्षेत्र अने काळनी रूद्विधी जाणवं. ॥ १३५ ।। ए प्रमाणे केवळज्ञाननो विषय कह्यो. मत्यज्ञानी तु मिथ्यात्वमिश्रेणावग्रहादिना । औत्पत्तिक्यादिना यद्वा, पदार्थान् विषयीकृतान् ॥ ९३६॥ वेत्त्यपाया. दिना तांश्च, पश्यत्यवग्रहादिना। मत्यज्ञानेन विशेषसामान्यावगमात्मना ॥९३७॥ मत्यज्ञानपरिगतं, क्षेत्र कालं च वेत्त्यसौ। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) ॥ ज्ञानद्वारे मन्यज्ञानाद्यज्ञानत्रयविषयविचारः ॥ (बार . मत्यज्ञानपरिगतान, स वेत्ति पर्यवानपि ॥ ९३८ ॥ श्रुताज्ञानो पुनर्मिथ्याश्रुतसंदर्भगर्भिता, ! अन्य क्षेत्रकालभावान्, वेनि प्रज्ञापयत्यपि || ९३९ । एवं विभङ्गानुगतान, विभङ्गज्ञानवानपि । द्रव्यक्षेत्रकालभावान्, कथश्चिद्वेत्ति पश्यति ॥ ९४० ॥ यथा स शिवराजर्षिदिशाप्रोक्षकतापसः । विभङ्गज्ञानतोऽपश्यसप्त द्वीपपयोनिधीन् ।। ९४१ ॥ निशम्य तानसंख्येयान्, जगद्गुरुनिरूपितान् । संदिहानो वीरपार्श्वे, प्रवज्य स ययौ शिवम् ॥ ९४२ ।। ( इति ज्ञानाज्ञानविषयः) ___ अर्थ-मतिअज्ञाननो विषय-मतिअज्ञानी जीव मिथ्यात्वयुक्त एवा अवनहादियडे (व्यअनावग्रहादिवडे अथवा औल्पानिकी आदि बुद्धिवडे विपयीकृत (प्रहण करेला ) पदार्थोंने ।। १.३६ ॥ विशेषधर्म (घटत्व, तदूप बिगेरे) अने सामाधर्म (सत्त्वपमेयस्व विगैरे)ना धोवस्वरूप मन्यज्ञानात्मक अाय अने अवग्रहादिमां अपायादिवडे ( अपायने धारणावडे ) आणे छे, अवग्रहादिकवडे देख छे. ॥ ९३७ ॥ तथा मतिअज्ञानमा व्याप्त विषयरूप थयेला क्षेत्र अने काजने मतिअज्ञानी जाणे छे, अने ने मतिअज्ञानमा व्याप्त थयेला पर्यायाने पण जाणे छे. ।। २८ ।। श्रुत अज्ञाननो विषय-श्रतअज्ञानी पुनः मिथ्याश्रुतनी संडतिसमूहमा रहेला द्रव्य-क्षेत्र काज-भावोंने जाणे, अने वीजाने जणाचे ।। १३९ ।' विभाज्ञाननो विषय-ए ममाणे (श्रुत अज्ञानीवत ) विभाज्ञानी पण विभाज्ञानना विपयरूपे माप्त ययेला द्रव्य-क्षेत्र-काळ अने भावने कथञ्चित् ( कोइ मकारे कंडक अल्प पणे) जाणे अने देखे ॥१.४०॥ जेम ते दिशा पोक्षक (जे दिशाथी फुल फलादि लेवा होय तेना अविष्टायकनी पादा लइ ने दिशाना फलफुल ----- ------ - - - - - -- - - - - -- - - - १ जेम को मत्यज्ञानी एकज बहा पदार्थने आणे कोई मन्यमानी नैयायिफवत् ७ पदार्थाने आणे. इत्यादि आगळ क्षेत्रकाळ वगेरेमा पण संख्यानों अनियम ए रीतेज जाणवो. २ प्रथम कहवाइ गयुं छे के अधया ने हा दर्शनरूप हे अने अपाय ने धारणा ज्ञानरूप आहे. ते अनुसार अहिं ५ अर्थ कपो, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २०५) (४२.३) विगेरे एकदा करनार ) तापस विशेष शिवराजर्षि नामनो तापस विभङ्गज्ञानयी सातवीप अने सात समुद्र देखना लाग्यो || ९४१ ।। पण जगद्गुरु श्री arrer कडेला असंख्य द्वीप समुद्रो सांभळी संदेहवाळी धयो छतो वीरनी पासे चारित्र अङ्गीकार करी मोक्षे गयो ।। ९४२ ॥ इदं पञ्चविधं ज्ञानं, जिनेर्यत्परिकीर्तितम् । तद् द्वे प्रमाणे भवतः, प्रत्यक्षं च परोक्षकम् ॥ २४३ ॥ स्वस्य ज्ञानस्वरूपस्य, घटादेर्यत्परस्य च । निश्चायकं ज्ञानसिंह, तत्प्रमाणभिति स्मृतम् ॥ ९४४॥ यदाहुः- “स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्" इति । [ सा० २०२] तत्रेन्द्रियानपेक्षं यज्जीवस्यैवोपजायते । तत्प्रत्यक्षं प्रमाणं स्यादन्त्यज्ञानत्रयात्मकम् ॥ ९४५ ॥ इन्द्रियैर्हेतुभिर्ज्ञानं, यदात्मन्युपजायते । तत्परोक्षमिति ज्ञेयमाद्यज्ञानद्वयात्मकम् ॥ ९४६ ॥ • प्रत्यक्षे च परोक्षे चापायांशो निश्चयात्मकः । यः स एवात्र साकारः, प्रमाणव्यपदेशभाक् ॥ ९४७।। यथाभिहितम् - "साकारः प्रत्ययः सर्वो, विमुक्तः संशयादिना । साकारार्थपरिच्छेदात्प्रमाणं तन्मनीषिणाम् ।। ९४८ ।। " [ सा०२०३ ] सामान्यैकगोचरस्य दर्शनस्यात एव च । न प्रामाण्यं संशयादेरप्येवं न प्रमाणता ॥ १४९ ॥ अत एव मतिज्ञाने, सम्यक्त्वदलिकान्वितः । योऽपायांशः स प्रमाणं स्यात्पॉनलिकसदृशाम् " ३ शिवराजर्षि तापसनुं वृत्तान्त श्रीभगवतीजीना अगोआरमा शतकना नवमा उद्देशामां विस्तारथी वर्णव् हे त्यांयी जोड़ ले, आ शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगरनो शिव नामे राजा हतो तेने धारणी राणी तथा शिवमद्रकुमार पुत्र तो छेवने वैराग्य भावथी छटने पारणे छट करबो तेवी तपस्यानी अभि की दिशाप्रोक्षकतापस थया छे, अज्ञानतपना प्रभावधी विभङ्गज्ञान प्राप्त करें से सातशीप सात समुद्र छे, त्यास्वाद द्वीपसमुद्री व्यवच्छेद पाम्या तेम देखे छे, महावीर परमात्मा त्यां समयसरे छे, छेटे तमनो उपदेश सांभळी सत्यज्ञान पामी दीक्षा लड मोक्ष पचार्या छे, Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = (४२४ ) || ज्ञानद्वारे ज्ञानानां प्रमाणान्तर्गतता - प्रमाणभेदादिविचारः ॥ ( हार ||९५०॥ प्रक्षीणसप्तकानां चापायांश एव केवलः । प्रमाणमप्रमाणं वावग्रहाथा अनिर्णयात् ।। ९५१ ।। अयं च तत्त्वार्थवृत्त्या यभि प्रायः ॥ (सा० २०४) रत्नाकरावतारिकादौ च मतिज्ञानस्य तद्भेदानां च सत्यमाणत्वमुक्तं तथा व तद्ग्रन्थः - "अवग्रहवेहा चावायश्च धारणा च ताभिर्भेदोविशेषस्तस्मात्प्रत्येकमिन्द्रियानिन्द्रियनिबन्धनं प्रत्यक्षं चतुर्भेदमिति" । (सा०२०५ ) श्रुतज्ञानेऽप्यपायांशः, प्रमाणमनया दिशा । निमित्तापेक्षणादेते, परोक्षे इति कीर्तिते ॥ ९५२ ॥ परोक्षं ह्यनलज्ञानं, धूमज्ञाननिमित्तकम् । लोके तद्वदिमे ज्ञेये, इन्द्रि यादिनिमित्तके ॥ ९५३ ॥ इदं च निश्चयनयापेक्षया व्यपदिश्यते । प्रत्यक्षव्यपदेशोऽपि व्यवहारान्मतोऽनयोः ॥ ९५४ ॥ तथोक्तं नन्द्यां - "तं समासओ दुविहं पण्णत्तं नं० - इंदियपच्चक्खं च नोइंदियपञ्चक्खं च इत्यादि ” ( तत्समासतो द्विविधं प्रज्ञसम् । तद्यथा इन्द्रियप्रत्यक्षं च नोइंद्रियप्रत्यक्षं च । ) (सा०२०६ ) ननु च - प्रत्यक्षमनुमानं चागमश्चेति त्रयं विदुः । प्रमाणं काfपला आक्षपादास्तत्सोपमानकम् ।। ९५५ ॥ मोमांसकाः पड पत्त्यभावाभ्यां सहोचिरे । द्वे त्रीणि वा काणभुजो, हे बौद्ध आदितो विदुः ॥ ९५६ ॥ एकं च लोकायतिकाः, प्रमाणानीत्यनेकधा । परैरुक्तानि किं तानि, प्रमाणान्यथवाऽन्यथा ! ॥ ९५७ ॥ अत्रोच्यते - एतान्यायज्ञानयुग्मेऽन्तर्भूतान्यखिलान्यपि । इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमिनकतया किल ॥ ९५८ ॥ अप्रमाणानि वा मूनि मिथ्यादर्शनयोगतः । असद्बोधव्यापृतेश्वो न्मत्तवाक्यप्रयोगवत् ॥ ९५९ ॥ पांच ज्ञानमा प्रमाणप्रासि श्री जिनेश्वरोप जे आ पांच प्रकारने 得 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. २०६) (४२५) ज्ञान कहेलं छे ते प्रत्यक्ष अने परोक्ष ए वे प्रमाणवाल छे. ॥ ९४३ ॥ त्या झान स्वरूप एवा पोताने अने घटादि रूप पर पदार्थने यथार्थपणे निश्चय करनारंजे ज्ञान ते प्रमाण कोल के. ॥ ९४४ ।। कह्यु छ के-" स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमागं" स्व एटले ज्ञान (पोते) अने पर एटले वाद्य पदार्थ तेनु वि-विशेष करीने (यथावस्थित स्वरूपे करीने अवसायि-निश्चय करनार जे ज्ञान ने प्रमाण कहेवाय छे, आ लक्षणमा ज्ञाननो निश्चय अपर ज्ञानथी माननार नैयायिकादिनो व्यवच्छेद करवाने स्थ पद छ, बाद्यपदार्थना अपलाप करनार ( नहि माननार ) विज्ञानवादि बौद्धोनुं निराकरण करवा पर पद छे, संशयात्मकज्ञान,विपर्यय (भम) ज्ञान,अनध्यवसाय अने बौद्धोये प्रमाणरूप मानेल निर्विकल्पक ज्ञाननो व्यवच्छेद करवा व्ययसायि पद छे. त्यां इन्धित लाने नोइन्द्रिय) मी पेक्षा विमान में बाल साक्षान्) ज्ञान जीवने थाप छेते म यक्षप्रमाण छेल्ला त्रण ज्ञानरूपछे । ९४२अने इन्द्रियोना आलम्बनथी आत्माने जे ज्ञान उत्पन्न थाय छे ते परीक्षण्माण प्रथमनां वे ज्ञान रूप छ. ।। ९४६ ॥ प्रत्यक्षज्ञानमा अने परोक्षज्ञानमा निश्चयरूप जे अपायांश नेज माकार अपायांश अहिं प्रमाण एवा व्यपदेशने धारण करें छे. ॥ ९४७ ।। जेम कायुं छे के-संशयादि रहित सर्व साकार ( विशेप ) एवो जे निर्णय (विशेष धर्मोनो निर्णय ) ते साकार विषयने जाणनार होत्राथी युद्धिमानोने ते प्रमाण (ए रूपे मान्य ) २. ॥ ९४८ ।। ए कारणथी ज सामान्य मात्र विषयवार्छ दर्शन ने प्रमाण न गणाय, अने ए रीते संशयादि ज्ञान ने पण प्रमाण न गणाय ॥९४९।। वळी ए कारणथी ज मनिज्ञानमा सम्यक्त्व दलिक सहित जे अपायांश ने क्षयोप० सम्यग्दृष्टि जीवोने प्रमाण छे.॥५५०॥ अने जेओन दर्शन सप्तक क्षय पाम्युं छे,तेओ(क्षायिकसम्यग्दृष्टि)ने केवळ (सम्य० दल रहित) अपायांश ज प्रमाण छे परन्तु व्यअनावाहादि अनिर्णयवाला होवाथी अप्रमाण है. ॥९५१॥ एतावार्थवृत्ति विगे --- - १ आहों आदिशध्द विपर्यय अन अनध्यघमायझानो पण ग्रहण करवा, नमा 'एकस्मिन्धगि विरुद्ध कोटिहयाबगाहि ज्ञान मंशयः '' पफ पदार्थमां विरुद्ध के कोटि (धर्म) ने प्रहण करनार झान ते संशय. अतस्मिलदध्ययमायो विपर्ययः विद्भककोटिमिशन" तवभाववति तत्प्रकारकं ज्ञान" इत्यादि अनेक लाक्षणी विपर्ययना छ. जेमा ने धम न होय नेमां सद्धर्मप्रकारक बान जेम शक्ति छीप)मा आ रजत (रुपुं) के ने ज्ञान ने विपर्यय अने "किमि ज्यालोचनमानकमनध्यवसायः " आ कांडक छ प विचारणान्मक, जेम जता मापसने घांसना स्पशन झाम ते अनध्यवसाय उपेक्षात्मक) ज्ञान कईयाय. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) ॥ ज्ञानहार ज्ञानानांप्रमाणस्वरूपनानिरूपणम् ॥ [बार रेनो अभिप्राय कयो. अने रन्नाकरायतारिकादिकमां तो मतिज्ञानने अने " तेना अवग्रहादि भेदीने सांव्यवहारिक प्रत्यक्षममाणता कहेली ले तेनो पाठ आ प्रमा -"अयग्रह-इहा-अपाय-ने धारणा ए चारवडे मेद एटले विशेष ले,तेथी प्रत्येक [ भेदव.] इन्द्रिय अने मनना कारणवाळु प्रत्यक्ष प्रमाण चार प्रकारनुं छे". परीने श्रुनज्ञानां पण अपायांश ने ममाण छे, ए प्रमाणे ( इन्द्रिय अने मन रूप निमित्तनी) अपेक्षावाळा होवाथी ए वन्ने [ मति-श्रुत ] ज्ञान परोक्षपमाण रूप कहेला छे. ॥ १५२ ॥ जेम लोकमां धूमज्ञानना निमित्तवाळ (धूमना निमित्तथी थत) अग्निन ज्ञान (अनुमिति) निश्चयथी परोक्ष कवाय छे. तेम इन्द्रिय अने मनना निमित्तवानां प चे ज्ञान पण [ परोक्ष ] जाणवां. ॥५३॥ ए ( प्रत्यक्षपणु ने परीक्षपणं । निश्चय नयनी अपेक्षाए का छे, नाहितर व्यवहारथी नो ए बन्ने ज्ञानमा प्रत्यक्षपणानो पण व्यपदेश थाय छे. ॥५४॥ श्री नन्दीसूत्रमा कयुं छे के "ते (मत्यक्षज्ञान) संक्षेपथी वे प्रकार, कहेलं हे-इन्द्रियप्रत्यक्ष. अने नोइन्द्रिय मन्यक्ष". शहा-कपिलमतवाळा (सांख्य) प्रत्यक्ष-अनुमान-अने आगम ५ प्रण प्रमाण कहे छे. नैयायिक मतवाला ते त्रण ने उपमान सहित चार प्रमाण को ले, . ॥१५५।। मीमांसकदर्शनाळा अर्धापनि अने अभाव सहित ६ प्रमाण कहे छे, वशेषिकमतवाळा प्रयमनां बे अथवा त्रण (मत्यः-अनु० अथवा प्र०-अनु०-ने आगम ) प्रमाण माने छ, अने बौद्धमतवाला प्रथमना ये (म०-अनु०) प्रमाण माने छे ॥१५६।। ककी नास्मिकमनवाळा हेलु एक (प्रत्यक्ष) प्रमाण ज माने छे, एम दरेक दर्शनवाला अनेक प्रकारे माने में तो ने अन्यदर्शनीओए कहेला प्रमाणो ने प्रमाण कवाय के अप्रमाण कडेवाय ।।२०उत्तर-एसर्व प्रमाणो इन्द्रियअने अर्थना सनिकरूपनिमित्तपणा बडे (इन्द्रियसाथै विषयन संबंध थर्बु अथवा समोपनि पणुं एज ज्ञान- निमित्त होवाथी) हेला बे ज्ञानमा अन्तर्गत थाय छे. ॥१.८ ।। अथवा मिथ्यात्वना सम्बन्धथी उन्मत्त थयेला पुरुषना प्रलापवन म इन्द्रियोद्वारा पदार्थनी साक्षान उपलनिध ते इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अने मनवड़े पदार्यानी चिन्तना अथवा म्घानादि तं नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष. २ मीमांमधमतमा प्रभाकर मतानुयायि भट्टमतानुयायि बिगरे भको छै तैमा प्रभाकर मतानुशायि अभाबने म्यान बुद्धिने मानता होयार्थी अभाव यमाणा मानला. थी अने भट्टमनानुयायि अभाव महित छ प्रमाण माने . कश्च द्र के-'गुम धियमभावस्य म्यानस्थ ने ऽभिषिक्तयान | प्रसिद्ध पर्व लोकेऽस्मिन्बुजवन्धु प्रभा करः॥ ३ केटमाक पौराणिक विगरे मंभव-अनि विगरे प्रमाणों पण माने रहे. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २०८ ) (४२७) म्यक् बोधरूप व्यापार नहि होवाथी ने सर्व प्रमाणो अप्रमाण गणाय. ॥९५९॥ इति प्रमाण विचारः ॥ 3 < पञ्चानामप्यथैतेषां सहभावो विचार्यते । एकं द्वे त्रीणि चत्वारि, स्युः सहैकत्र देहिनः (नि) ।। ९६० ॥ तथा हि - प्राप्तं निसर्गसम्यक्त्वं येन स्यात्तस्य केवलम् । मतिज्ञानमनवाप्तश्रुतस्यापि शरीरिणः । ९६१ || अत एव मतिर्यस्य ( त्र ), श्रुतं तत्र न निश्चि तम् । श्रुतं यत्र मतिज्ञानं तत्र निश्चितमेव हि ।। ९६२ ।। अयं तत्त्वार्थवृत्त्याद्यभिप्रायः । नन्दीसूत्रादौ तु ॥ जत्थ मइनाणं तत्थ सुअनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ मइनाणं' (यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानं ) इत्युक्तं [सा० २०७] अत एवैकेन्द्रियाणामपि श्रुतज्ञानं स्वीकृतं श्रुते, यथा“जह सुहुमं भविंदियनाणं दविदियावरोहेऽवि । दबसुआ - भावंमिवि भावसु पत्थिवाईणं ॥ १ ॥ (यथा सूक्ष्मं भावेन्द्रियज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि । द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावश्रुतं पार्थिवादीनाम् || १ || ) ( सा० २०८ ) भावेन्द्रियो - पयोगश्च बकुलादिवदेकेन्द्रियाणां सर्वेषां भाव्यः ॥ तथा १ उपर का प्रमाणे जैनदर्शनमां प्रत्यश्न अने परोक्ष र वे प्रमाण छ अथवा अपेक्षाभेदयो अक्ष शब्द मन इद्रिय अथवा जीव अर्थमां रुद्र होयाथी त्रिशुद्ध नयना अभिप्राये प्रत्यक्ष एकज प्रमाण ले. पण तेना साम्रग्ण अने अनावरण एम बे भेदी थाय सावरण (छद्मस्थ) जीवोने मननो अभिमुखताथी. इन्द्रियनी अभिमुखताथी अने आत्मानी अभिमुखताथी एम ऋण प्रकारे साम्रग्ण प्रत्यक्ष छे । आत्मानी अभिमुखताये स्वमां थता भय हम रोग गमन राज्यलाभ विगेरे ( मननी अभिमुखतायें स्मरण, प्रत्यभिज्ञान वितर्क. विपर्ययनिर्धारण विगेरे ३ इन्द्रियांनी अभिमुखतायी चक्षु विगेरेथी धनुं रूपादिज्ञान होय, अने निराधरण सर्वज्ञ भगवन्तोने केवल आत्मानी अभिमुखताश्री घं अ भ्यात्म) निरावरण प्रत्यक्ष छे, जे माटे कहा . के. "अभिमाशां भाज्यमस्यान्म तु स्वयं शाम | एकं प्रमाणमक्याक्यं नल्लक्षणैक्यतः ||१|| प्रमाणद्वात्रिंशिका, , " Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८१ ॥ शानद्वारे ज्ञानानां प्रमाणान्तर्गतताविचारः॥ बार मलयगिरिपूज्या अप्याहुः नन्दीवृत्तौ ॥"यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासंभवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभोभवति यदशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि तदा भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव, ततस्तेषामपि काचिदव्यताक्षरोपलब्धिरवश्यं प्रतिपत्नव्या" इति (सा०२०९) मतिज्ञानश्रुतज्ञानरूपे द्वे भवतः सह । त्रीणि ते सावधिज्ञाने, समनःपर्यवे तु वा ॥ ९६३ ।। चतुर्णा सहभावोऽपि, च्छद्मस्थश्रमणे भवेत् । पञ्चानां सहभावे तु, मतद्वितयमुच्यते ॥ ९६४ ॥ ___अर्थ-एक जीपमा समका शानप्राति स पापेशानन सहचारिप" (एक साथे केटलां ज्ञान ? होय ते) विचाराय छे. ते आ प्रमाणे-एक जीवने विषे एक साथे एफ-बे-त्रण-ने चार ज्ञान होय ॥ ९६० ॥ ने आ प्रमाणे जेणे निमग ( गुरुना उपदेश विना स्वाभाविक) सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु होय नेवा श्रुनज्ञान नहिं पामेला जीवने केवळ एफ मतिज्ञानज होय ॥ ५६१ ॥ ॥ हेतुधीज ज्यां यत्तिज्ञान छे त्यां श्रुतज्ञान होय एवो नियम नहिं, परन्तु ज्यां श्रुतज्ञान छे त्यां मतिज्ञान तो निश्चयथी छ ज. ॥ ९६२ ॥ ए तत्वार्थवृष्यादिनो अभिमाय कदो अने नंदीमृत्रमा नी-" या मनिज्ञान त्यां श्रुनज्ञान अने ज्यां श्रुतज्ञान न्यां मतिज्ञान " एम कहेन्लु हैं, ए हेतुथो सिद्धान्तमा एकेन्द्रियोने पण श्रृनज्ञान म्वीकारलं है. जेम का छे के-" द्रव्येन्द्रियनो अभाव छने पण मूक्ष्म प्र, भाषेन्द्रियजन्यज्ञान होय के (माटे ) द्रव्यश्रुननो अभाव छते पण पृथ्विकायादिकने भारश्रुत छे.' भावेन्द्रियनो उपयोग वकुलादिमनी पेठे सर्व एकेन्द्रियोने (प्रथम कश्यो छे नेम) विचारबी. नथा नंदीनी वृत्तिमा पुज्यमलयगिरि आचार्य महाराज पण कहछे के-"जो के ते एकेन्द्रियादिने पर उपदेश सांभळवानो असंभव के तोपण तेओने तथा प्रकारको क्षयोपशम होवायी कंडक अव्यक्त (अस्पष्ट अक्षरनो लाभ होय के के लेना वशथी अक्षरोवडे व्यान एवं श्रुतज्ञान थाय छे, ते (अक्षरलाभ) आ प्रमाणे अंगीकार करयों ( जाणवों ) के नेओने पण आहारादिनो अभिन्याप उपजे Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २०९) (४२०) छे, अने अभिलाष ते प्रार्थना छे. अने ते ( प्रार्थना ) " जो हुँ आ पागं तो ठीक थाय " इत्यादि ( अंतरंग) अक्षरोबडे व्याप्त ज छे, माटे ते एकेन्द्रियोने पण कोइफ अस्पष्ट अक्षरबोध अवश्य मानवो जोइए, '' तथा मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानरूप वे शान एक साथे होय छे, अने नेमां अवधिज्ञान सहित करतां अथवा मनः पर्यवज्ञान सहित करतां त्रण ज्ञान एक साथे होय छे ॥ ९६३ ॥ नथा छद्मस्थ मुनिने चारे । छानस्थिक) ज्ञान पण एक साथे होय छे, अने पांचे ज्ञानना सहचारीपणामां तो वे मत छे ते कवाय छे. ॥ ०.६४ ॥ केचिदचुन नश्यन्ति, यथाऽभ्युदिते सति । महांसि चन्द्रनक्षत्रदीपादीन्यखिलान्यपि ॥ ९६५ ।। भवन्त्यकिश्चित्कराणि, किंतु प्रकाशनं प्रति । छाद्मस्थिकानि ज्ञानानि, प्रोद्भुते केवले तथा ॥ ९६६ ॥ ततो न केवलेनैषां, सहभावो विरुध्यते । अव्यापारानिष्फलानामप्यक्षाणामिवाहति ॥ ९६७ ॥ अन्ये चा[वा]हुन सन्त्येव, केवलज्ञानशालिनि । छानस्थिकानि ज्ञानानि, युक्तिस्तत्राभिधीयते ।। ९६८ ॥ अपायसदद्रव्याभावान्मतिज्ञानं न संभवेत् । न श्रुतज्ञानमपि यत्तन्मतिज्ञानपूर्वकम् ॥ ९६९ ॥ रूपिद्रव्यैकविषये, न तृतीयतुरीयके । लोकालोकविषयकज्ञानस्य सर्ववेदिनः ॥९७० ॥ क्षयोपशमजान्यन्यान्यन्त्यं च क्षायिकं मतम् । सहभावस्तदेतेषां, पञ्चानामेति नौचितीम् ॥ ९७१ ॥ कटे सत्युपकल्प्यन्ते, जालकान्यन्तराऽन्तरा । मूलतः कटनाशे तु, तेषां व्यवहृतिः कुतः ? ।।९७२॥ किंच ॥ ज्ञानदर्शनयोरेवोपयोगी स्तो यथाक्रमम् । अशेषपर्यायव्यबोधिनोः सर्ववेदिनः ॥ ९७३ ॥ एकस्मिन् समये ज्ञान, दर्शनं चापरक्षणे । सर्वज्ञस्योपयोगी हौं, समयान्तरितो सदा ॥९७४॥ तथाहुः ॥ " नामि देसणंमि य, एत्तो पकतरयमि उवउत्ता । सव्वस्स कवलिरसवि, जुगवं दो नत्थि Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) ॥ ज्ञानहारे ज्ञानानां सहभावकेरलिन उपयोगविचारच ॥ (द्वार उवओगा ॥१:७५॥"(ज्ञाने दर्शने च इतः एकतरस्मिन् उपयुक्ताः सर्वस्य केवलिनोऽपि युगपत् द्वौ न स्त उपयोगौ।)(सा० २१०) इदं सैद्धान्तिकमतं, तार्किकाः केचनोचिरे । स्यातामेवोपयोगी द्वारेकस्मिन् समयेऽर्हतः॥१७माजन्यथा नारीण इन, सादावारकता मिथः । एकैकस्योपयोगस्यान्योपयोगोदयद्रहः ॥ ९७७ ।। यच्चैतयोः साद्यनन्ता, स्थितिरुक्तोपयोगयोः । व्यर्था स्यात्साऽप्यनुदयादेकैकसमयान्तरे ।। ९७८ ॥ अन्ये च केचन प्राहुर्तानदर्शनयोरिह । नास्ति केवलिनो भेदो, निःशेषावरणक्षयात् ।। ९७९ ॥ ज्ञानकदेशः सामान्यमात्रज्ञानं हि दर्शनम् । तत्कथं देशतो ज्ञान, संभवेत्सर्ववेदिनः ? ॥९.८०॥ इत्यादि ।उक्तं च ॥ " केई भणंति जुगवं, जाणइ पासइ य केवली नियमा । अन्न एर्गतरियं, इच्छन्ति सुओवएसेणं ॥१॥ अन्ने न चैव वीसुं, दसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलनाणं, तं चिय से दसणं बिंति ॥ ९८१ ॥ " ( केचिद् भणन्ति युगपत् जानाति पश्यति च केवली नियमात् । अन्ये एकान्तरितं इच्छन्ति श्रुतोपदेशेन । अन्ये न चैव विष्वग् दर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य । यदेव केवलज्ञानं तदेव तस्य दर्शनं ब्रुवन्ति। ) (सा० २११) अत्र च भृयान् युक्तिसंदर्भोऽस्ति, स तु नन्दीवृत्तिसम्मत्यादिभ्योऽवसेयः। अथ प्रकृतं ॥ विनैताभ्यां परः कश्चिन्नोपयोगोऽर्हतां मतः । ततः कथं भवत्तेषां, मत्यादिज्ञानसंभवः॥२.८२।। इत्यादि प्रायोऽर्थतस्तत्वार्थभाष्यवृत्तिगतं॥ इति ज्ञानानां सहभावविचारः । ॥पांचे ज्ञानना महभावमां चे मती दंग्वा ॥ ____ अर्थ-केटलाएकआचार्य को ले के जेम सूर्य उदय पाम्ये छते चंद्र नक्षत्र अमे दीवा वगेरेनां सपळा तेज नाश पामतां नथी. ॥ १६६ ॥ परन्तु प्रकाश । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २११ (४३१) कार्य मन्ये किंचित् पण करी शकतां नथी, तैम केवळज्ञान प्रगट थये छाप्रमिथक ज्ञानो पण तेवा प्रकारे (अकिंचित्कर) जाणवां. ॥१६॥ ने कारणथी केवलि भगवानमां व्यापार रहित होवाथी निष्फळ एवी पण इन्द्रियोनी (सत्तानी माफक ने छाशस्थिक ज्ञानोनो केवलज्ञाननी साथे सहचारी भाव विरोधवाळी नथी. [एटले के पांचे ज्ञानो साथै रही शक के. ] ॥ ९६७ ॥ बळी बीजा आचार्यों तो एम कहे के के केवळज्ञानीने छाशस्थिक ज्ञानो नन होय, अने नेम कहेवामां जे युक्ति ले ते कवाय छे ॥ ९६८ ॥ पायसद् द्रव्यना अभावथी ( केवलिने ) मनिज्ञान संभवतुं नथी, तेम श्रुननान पण नथी, कारण के ते श्रुतज्ञान मनिज्ञानपूर्वकज होय . ।। ५.६९ । नया रूपी द्रव्यना विश्यवाळ त्रीजु अने चोधुं ज्ञान (अवधि अने मनःपर्याय) पण लोकालांक विषयना मानवाला कलि भगवानने न होय, || ११० ॥ नथ वीमा ( प्रथमना । चार ज्ञान क्षयोपशमजन्य है, अने छेल्ल केवळज्ञान क्षायिक भावन मानेलं छे, ते कारणथी ए (केवलि भगवानमां क्षायोपशमिक भाव न होवाथी) पांच हानीनो सहचारी भाव उचितपणाने पामनी नथो । उचित नथी.) ॥९७१ ।। वळी कर ( कडा-पाल-वासनी चीपोनी सादही) होते छतेज बच्चे बच्चे रहेलां जाळी. यांनो प्रकाश कल्पाय छे, पण मूळधीज कटनो विनाश थये जान्टीयांनी प्रकाशनो व्यवहार । या व्यपदेश ) केम होइ शके ? || ०७२ ॥ बळी सर्व पर्याय अने सर्व द्रष्यने जाणवावाला सर्वाने पण झान अने दीननो उपयोग अनुक्रमेज होय छे. ।। ९७३ ।। ( अर्थात ) एक समय ज्ञान अने वीजे समये दर्शन, प प्रमाणे सर्वझने सदाकाळ एकक समयने आंतरे वने उपयोग होय छे. ॥ ०७४ ।। को छ के-" ज्ञानने विषे अने दर्शनने विषे ए वनमांथो कोइपण एकने विप ( जीवो ) उपयोगशळा होय छ, । कारण के ) सर्व जावाने अने कवलिने पण समकाले (वे ) उपयोग होता नथी. " P मिद्धान्तनो मत कयो. (प्रथममतं ) अने केटलाएक तर्कवाद मानवाकाळा आचार्यों तो एम कह अपाय-निश्चयांशरूप मतितान अने मद-प्रशस्त अथवा विद्यमान गवां क्रय-मम्यन्यपणे परिणमेला मिश्यात्वनां शुद्ध पुनलो ए वेना मेयीगयी थयेलं सम्यक्त्ययुक्त मतिज्ञान केबलिने नयी इति नात्पर्यः ( तत्त्वार्थ प्रथमाध्यायभाध्यवृत्ति. २ श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराज श्रीवृद्धयादि आदिना विचारानुमार मम्मतितर्क नामना बंधमां कंबलीन पक, भमयमां के उपयोग होयानी तथा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३२)।। ज्ञानदार केवलज्ञानचिपयतदुपयोगसम्बन्धिमतभेदविचारनिरूपणम् ॥द्वार] छे के केवलि भगवानने एक समयमां वे उपयोग होय ज. ॥ ५७५ ॥ है अने जो तेम न होय तो परस्पर अन्य उपयोगना उदयने अटकावनार दरेफ उपयोगने कर्मोंनी माफक परस्पर आवारकपणुं प्राप्त थाय. ॥ ९७६ ॥ वळी प. बन्ने उपयोगनी जे सादि अनंत स्थिति कही छे ते पण एकक समयने आंतर अनुदय होवाथी (कहेली स्थिति) व्यर्थ थाय है. (द्वितीयमतं ॥९७७॥ बळी केटलाएक आचार्य कहे छे के अहिं केवलिने सर्व आवरणनो लय थवायी ज्ञान दर्शननो भेद ज नथी. ॥९७८ । कारण के सामान्य मात्र ज्ञानरूप जे दर्शन ते तो ज्ञाननो एक अंश छे तो सर्व ज्ञानीने अंशज्ञान कम संभवे ? ॥९७२॥(इत्यादि युक्तिथी ज्ञान अने दर्शनने एकरूप गणे छे) (तृतीयमतं) कय के के-केटलाक आचार्य भगवतो केवलि निश्चयथी समका जाणे छे अने देखे छे एम कहे छे, बीजा आचार्यों सिद्धान्तना कथनवडे एकेक समयने आंतरे जाणे देखे पम माने छे. ॥१.८०॥ अमे बीजा आचार्यों नो जिनेश्वरने निश्चयथी इशनने नृदं मानता नथी, कारण के केवलिनु जे केवळज्ञान नेज तेमनु केवळदर्शन पण छे, एम कहे छे. || ९८१ ।। अहिं घणी युक्तियोनो समूह के ने सर्व नंदीमन्ननी वृत्ति अने सम्मतितर्क वगेरे ग्रंथोथी जाणवी. हवं प्रस्तुतविचार कहे . प ये उपयोग सिवाय बीजो कोइ उपयोग केवलिने कयो नथी, तो नेओने मतिवगेरे (छानस्थिक) ज्ञाननो संभव केवी रोने होय ? ||९८२॥ इत्यादि विचार अर्थयी प्रायः तत्वार्थभाष्य अने वृत्तिमा कयो छे.॥ अथ ज्ञानस्थितिधा, प्रज्ञता परमेश्वरैः। साद्यनन्ता सादिसान्ता,तत्राद्या केवलस्थितिः ॥९८३॥ शेषज्ञानानां द्वितीया तत्रायज्ञानयोर्लधुः । अन्तर्मुहर्नमुत्कृष्टा, षट्षष्टिः सागराणि च ॥ ९८४ ॥ इयं चैवं॥त्रयस्त्रिंशहाद्धिमानौ, भवो वो विजयादिषु। द्वाविंशत्यब्धिमानान् वा, भवांस्त्रीनच्युतादिषु ॥ ज्ञानदर्शननी अभिन्ननानी घणी युक्तियांद्वारा पुष्टि करो छ. श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण महागजे श्रीविशंपायश्यक महाभाष्यमा समयान्तर उपयोगनु स्वकर अनेक युनियाथी मावीत फयु जे. पूर्वाचार्य गीतार्थ भगवन्तीय वर्णय विधारीनु ते से ग्रन्थामां घणु ममथन करेल. छ. उपाध्यायजी भगवान श्री यशोविजयजीगणिजी महाराजे पृथक पृथक् मयविचारन। अपेक्षनाये रणे विचारन अधिमधाद म्वरूप श्रीझानबिन्दु ग्रन्थमा वर्ण घले छे. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २११) (१३) ॥९८५।। कृत्वोत्कर्षाच्छिवं यायात्, सम्यक्त्वमथवा त्यजेत् । सातिरेका नरभवः, षट्षष्टिर्वार्द्धयस्तदा ॥९८६॥ यदाहुः-“दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नऽचुए अहव ताई। अइरेगं नरभ वियं, नाणाजीवाण सव्वद्धं ॥ ९८७ ॥ (छो वारौ विजयादिषु गतस्य त्रीनच्युते अथवा तानि। अतिरेकं नरभविकं नाना जीवानां सर्वाद्धा)[सा०२११] अथोत्कृष्टावधिज्ञानस्थितिरेषेत्र वर्णिता । जधन्या चैकसमय, सा त्वेवं परिभाव्यते ॥९८८॥ यदा विभङ्गकज्ञानी, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । तदा विभङ्गसमये, तस्मिन्यायविशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीगणी महाराजे केवलज्ञान केवलदर्शनोपयोगसंबन्धमा प्रणे पूज्यआचार्यभगवन्तोना विचारोनो नयविधारथी समन्वय करनारा श्रीज्ञानबिन्दुप्रकरणनी प्रशस्तिमा जे श्लोको आप्पा छे तेनो भाव जाणवो कठिन होवाची संस्कृतज्ञजीवोना लाभार्थ ते श्लोकोनी संस्कृत व्याख्या आ नीचे दर्शावाय के. - -* वीरं मणम्य सर्वज्ञ, नेमिसरि गुरुत्तमम् । स्तुत्वा सरस्वती देवी, भव्यजाध्यतमोपहाम ॥ १ ॥ त्रयाणां सरिवर्याणां, केवलस्य परीक्षणम् । ऐकमत्यमुपाध्यायै–त्रिभिः पद्यैः प्रदर्शितम् ॥ २ ॥ पद्यानि तानि तात्पर्या-विर्भावपुरस्सरम् । विवणोमि यथामज्ञ, समन्वयविदा मुदे ॥ ३॥ मन्बेके भाचार्या भिन्नोपयोगस्वभाव केवलज्ञानं केवलदर्शनच समसमय प्रतिपन्नाः १, युगपदुपयोगस्यममभ्युपगच्छन्तभापरे आषार्पाः प्रथमक्षणे केवलशानं द्वितीयसमये केवल दर्शनमित्येवं भिन्नलमयमेव सयुभयमुररोकृतवन्तः २, नव्याः पुनः एकमेव केवलं विशेषविषयकरवाज्यानमिति सामान्याषिषयकत्वाच पर्शममिति घाख्यायते इत्युपगच्छन्ति ।, सर्वेऽन्येते "कवलोणं भंते ! Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४)। महोपा. श्रीयशो गणिनिर्मितः केवलोपयोगसत्कविचारसमन्वयः॥ [द्वार ज समय जाणणो तं समय पासा ! दंता ? गांयमा 'इस्यापागमवयसामधिरीधं स्वस्त्रपक्ष उपपादयन्ति, तपः परस्परषिद्धा अपि पते पक्षा विशिष्टशेमु. पोशालिपुरुषोनीता ति निर्षिचिकित्सं समयश्रद्धाधर्मरावतण्या एष, कि का यत्र सरलगत्याऽऽगमसाम्मुख्यं स वैतेषामन्यतमः समाधोऽभ्यस्नपेक्षणीय पष, यहा स्याहादे सर्व धर्मा विरुद्धा अविरुद्धा का साक्षात्परम्परया या सर्वसम्य. धिन इति विरुद्धतयाऽऽपाततः प्रतिभासमानानामप्येयाविरोधोऽपि भविव्यतीप्ति किया विशेषगवेषणया स्याहावनमरणराजसाम्राज्यमास्थाय प्रयाणामपि सरिपक्षाणामभ्युपगम पय घरम्, यद्वा भारत्वेत विरुवा एष पक्षाः,तथापि मस्थत्यादेव नापराध्यन्त्यत्र सरयः, किमत्र तत्वमिति जिक्षामा तु सत्वे तु केवलिनो विदन्तोन्युक्त्या मर्यषु फेवलिपु निर्भरमास्याय विषयषिशेपरूपं मुन्वपिण्डमवैध गलहस्तिफया निष्कासनीयन्यधरीत्याषतरति बहुधा विमर्श सर्वमनन्तधर्मात्मकमिन्यनकान्नथादे स्याद्वाद ज्ञेयस्येच ज्ञानस्याप्यनम्तधर्मान्मकन्यमिति नविशेषः केबलोपयोगाऽपि तथैध भवितुमर्मातीति स्वप्रकाशस्वभावतया प्रमाणमूभिपिकाला सर्वात्मता नवर्ग समामानेऽपि तस्मिन स्थानाम्पदान प्रेक्षाधनान, प्रनि विधिच्य तत्तदंशष्यवस्थापनप्रत्यलगत्तनयमधीचीनप्रमाणव्यापार सफल पति ज्ञानम्तः मूरिप्रवरास्तसदभिमतककांशव्यवस्था नप्रत्यलतलग्नयसमाश्रयेण केवलोपयोगस्वरूपावमर्षप्रत्याविधिकस्वाभिप्रायोट्टः अनतः प्रमाणसाहाय्यमेधाचरितवन्त इति तेषां सर्वेषां फेवलव्यवस्था सु. व्यवस्थेवेन्यादर्तव्यैष धीधन रित्यभिप्रायेण प्राधां पाषामित्वादिषधकदम्बकं निर्ममुनि विन्धुपकरणे न्यायाचार्यन्यायविशारदोपपदा महोपाध्यायाः श्रीमती यशोविजयगणयः, पाचां वाचां विमुख विपोन्मेषसमेक्षिकार्या, येऽरण्यानीभयमधिगता नव्यमार्गानभिज्ञाः ॥ तेपामेषा समयवणिजां संमतिग्रन्थगाथा, विधासाय स्वनयविमणिपाज्यवाणिज्यवीथी ॥१॥ मेदग्राहिव्यवहनिनयं संश्रितो मल्लवादी । पूज्याः मायः करणफलयोः सीम्नि शुद्धर्जुमूत्रम् ॥ भेदोच्छेदोन्मुखमधिगतः संग्रई सिद्धसेनस्तस्मादेते न खलु विषमाः मरिपक्षालयोऽपि ॥२॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २०६ ) . चित्सामान्यं पुरुषपदभार केवलारख्ये विशेषे । तपेण स्फुटमभिहितं साधनन्तं यदेव ॥ सूक्ष्मैरंशैः क्रमवदिदमयुच्यमानं न दुष्टै । तत्रीणामियमभिमता मुख्यगौणव्यवस्था || ३ || व्याख्याT- ये सिद्धान्तानुसारिण ऋजुमतयो नव्यमार्गानमि ज्ञा उपयोगथोर्योगपच पेक्यं वेति यन्नव्यं मतं तदधिगतिप्रत्यलो थी मल्लकापदर्शितां षादिदिवाकरोपदर्शितो या मार्गः तथार्थस्वरूपावधारणविकलाः पाप भोगवीर्यपूज्य जिनभग णिक्षमाश्रमणोक वाणीनां विमुखोऽनभिप्रेतो यो विषयः उपयोगयोर्योगपद्यमेकत्वं वा तस्य य उन्मेषः मलश्राद्यादिवचसि षाभ्यतयाऽवभासः तस्य या सूक्ष्मेशिका अनयात्र शाऽयमुपपद्यते इत्यादि तद्रहस्याकलनं नत्र अरण्यानीभयमुपगताः, यथा विकटापार विस्तारागम्यान ल्पष्टिकप्राणियनमध्यपतितस्य वनान्तगमनोपायमार्गमपश्यतः कस्यचित्पुंसो याशं भयं तत्सशमपसिद्धान्ताविभयमुपगताः प्रातयतः तेषां समयषणिजां सिद्धान्तानुसारिव्यवहारपरायणानां विश्वासाय म लादिवसि प्रामाण्यग्रोस्पादनाय, एषाऽस्मिज्ञान विन्द्राय भरतर मेषां कि सा, सम्मतिधन्यगाया स्वनयविपणिम्राज्यवाणिज्यबोधी समस्तीति क्रियापदमध्याहार्यम, स्वनयाः जैन राजासाभिमता ये सप्रहादयो नया न तु दुर्नया:, तप विपणयो ट्टकानि तत्र प्राह्मतया स्थितानि यानि प्राज्यवाणिज्या नि , वाणिज्यकरूपानि तत्वानि तदधिगतये वीथी मार्ग इव मार्गः तथा च सम्मतिप्रन्थगाथारूपमार्गाश्रयणतः राजमार्गगामिनामिव नैषामपसिद्धान्तादिभयले शावकाशोऽपीति भावः, अथवा प्राचां वाचामिति विरुद्धप्रतिपत्तिभाजां प्रयाणामप्याचार्याणां वचनानामित्यर्थः ये विमुखा विषयाः प्रतिपाद्याः परस्परबिरुद्धपक्षाः तेषां य उम्मेषः प्रकाशः तद्रूपा या सूक्ष्मेक्षिका तस्यामित्यर्थः, अत्र च प रस्परोपमर्दकयुक्तिभ्यः चयाणामपि पक्षाणामन्योन्यं याधितत्वानेकस्याभ्युपगमे भवति स्वास्थ्यमिन्यस्ति भयमिति बोध्यम् अत्र व त्रयाणां पक्षाणां तत्तनयातुसरणप्रवृत्तत्वान्नास्ति विरोध इत्यादिर्तव्यमार्गस्तजज्ञाने नास्ति भयमिति त वनभिज्ञत्वं तत्र हेतुतया विशेषणं बोध्यमिति ॥ १ ॥ तेषां विभिन्नन पाथयपानस्तस वंशव्यवस्थापकत्वेन प्रमाणसंवादित्वमेवेति व्यवस्थापयितुं भेदग्राहिपहृतीत्यादि द्वितीयषधं प्रभवति, एकक्षणवृत्तितया केवलज्ञान केवल दर्शनीपयोगयोपगन्तामवादी भेदप्रादिव्यवहृतिनयं संश्रितः, यद्यपि शुद्धस्य व्य २६) (४३५) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (द्वार पहारस्य विशेष पथ विषयो नतु सामान्य सस्य शशङ्गकल्पस्यादिति तहिषयकोपयोगरूपं वर्शनमपि तम्य मास्ति, तथापि ध्यषहन्युपयोग्यरत्यविशेषोपगमोऽस्य सद्ध्यं पृथिवीत्याधिविमानक्रमेणेति विभागप्रक्रियायामघाप्यस्येव सामान्यप्रवेशः, अथयाऽशुद्धस्थ व्यवहारस्य सामाग्यमपि थिषयः, अत एव व्य. बहती शुद्धत्यविशेषणं मोपात्तम्, न च कर्माष्टकविभजनान्यथानुपपस्या चतुईर्शनन्धाग्यथानुपपन्या च घिभजनपरस्यास्य शानदर्शनयोर्भेदो भयतु विषयः पताबता तयोर्योगपतु नायाति तदर्थमेव तु व्यवहतिनयाश्रयणम्, अन्यथा ज्ञान दर्शनभेरस्य पूज्यानामप्यनुमतत्वेन तस्यापि व्यवतिनयाश्रयणं का स्यादिति पाध्ये, यो कदा सर्व जानाति स सर्वज्ञ इति व्यवष्टियते विभजमगरे चास्मिन सर्वपदार्थाऽपि सर्वसामान्य सर्वषिशेषति तदुभयागतायेव संघज्ञ. त्वं घरते मान्यथेति भवति ज्ञानयोगपणे व्यवहारनयाश्रयणमुपयोगीति, पुण्याः सिद्धान्तकनिरतत्वात्सर्यसिद्धान्तसेवाधिनग्धविदग्धकुलमुकुटायमानत्वात पूजाहा: श्रीजिनभनगणिक्षमाश्रमणाः क्षायोपशमिके पूर्व दर्शन पश्चामानमिति मः क्षाषिके त केवले पूर्व शाम पश्चाद् दर्शनमित्येव क्रमः ननिर्वाहकच शामवर्शनयोः कार्यकारणभाष पष, कार्यकारणभावादेव च तयोः पौषियस्याप्यवश्यंभाषान्न योगपचं, परं कचिरकालं ज्ञानपर्यायमनुभूय दर्शनपर्यायाविर्भावतोऽपि कार्यकारणभावस्य सम्भवेन मैसावता शानोत्पत्यनन्तरक्षण पत्र वर्शनोस्पतिस्तदनन्तरक्षण पव च ज्ञानोत्पत्तिरिति कम उपपद्यत इयत उक्त करणफलयोः सीम्मि शुद्ध त्रमिति अध वचनविपरिणामेन संथिता त्यध्याहार्यम, करणफलयोः भाषप्रधाननिदशात्कार्यकारणभाषयोः, सोम्मि व्यषस्थायां, सा च "क्षणिकाः सर्यसंस्कारा अस्थिराणां क्रिया कुनः । मतिर्यषां किया सेव कारणं सेव बोध्यते" इति वचनात् तत्तत्कार्योत्पन्यव्यवहितप्राक श्रणे तत्तकारणस्य भवनमेव तस्य तत्कार्य प्रति कारणत्वमिन्याकारिका, अ. यवा केवलदर्शनं प्रति केवलक्षागस्य केवलज्ञानत्वन कारणरधे केवलज्ञान प्रस्यपि के. वलदर्शनस्य केपलदर्शमत्येन कारणावं वाच्य तथान के घटज्ञाने व्यभिवागन्न सम्भपति, न चाधकेवलज्ञाने तर केवल शामत्वाच्छन्न प्रति कैशलदर्शनाघेन कारणनिति वाच्यम अनेकधर्मघरितस्य तस्य स्वधरतसविच्छिन्नप्रतिनियत तसत्का रण सामग्रीसमुदायनियम्यतयाऽर्थसमाजग्रस्ततया कार्यतावच्छेदकत्थासम्भवात् , किन्तु सप्सत्कार्य प्रति तत्तत्पुर्यत्वेन कारणस्थमित्येष कार्यकारणभावस्था त. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २११) (४३७) स्याप्रित्यर्थः, ऋजुसूत्रस्य पर्यायाथिकतया शुद्धत्यस्य प्राप्तत्षेऽप्युपरजकमेध सविशेषणम्, अथवैतन्मते मजुसूत्रस्यापि द्रव्याथिकरनाशुद्धत्वस्यापि सम्भ बातम्यवच्छेदाय शुद्भवविशेषणम् । पवमपि केवलस्य सायनन्तस्वस्योपपत्तये चिसामान्यात्ममा पूर्वापरकालानुगमस्य पूज्यानां सम्मत वेग शुद्ध सधै निरन्धयविनाशस्येवोपगमेन सदभावात्सर्वथा तदाश्रयणं न सम्भवतीति प्राय प्रत्युक्तम् । सिद्धसेनः सङ्ग्रहमधिगत इति न चेकमेव केवलं सामाग्यविषयकत्वा. दर्शन मिति विशेषविषयकाचाच ज्ञानमि युपगमो दिवाकरस्य, स ब सड़ग्रहाअयणे विरुध्यते. सङ्ग्रहे विशेषधाभान तद्विपयकान्धस्याध्यमावादिति धा. च्यम्, अत एव हि भेवोन्छ योन्मुखमिति. मनस्य विशेषणमुपन्यस्तम्, नेग. माभ्युपगतसतो वनयणो वि सग्रहोऽनेकमुखः. तत्र विषयसोचको नातः सरिणा, किन्तु वियिस्वरूपभेवसको बक पति | उपसंहरति तस्मादिति ध्य. कमदः, || २ || ननूपपयन्तां सत्तम्नयावलभ्यनेन प्रयोऽपि पक्षाः प्रमाणानुप्रहमस्तरेण परस्परमेकवाक्यत्वन्नु न सम्भवति तेषाम, न च तदन्तरेण प्रमाणपक्षपातिभिरुपादेयास्ते इत्यत आह चित्सामान्य मिनि, केवलाख्ये विशेषे यरेष चित्सामान्य पुरुषपदभाक् केवलोत्पत्तेः पूर्व परतश्च पुरुषः पुरुष इति य. देकाकारेण व्यपदिश्यते तत्र "उपयोगलक्षणो जीव' इन्यतः चित्सामाभ्यमे पानाच नन्सपारिणामिकभाषस्यरूपं नियामकम, अन एवं निगोदावस्थायामपि चितः केनविदशेन प्रकटावस्था शाश्रमम्मता, एवं सत्यपि पेण साधनम्न स्फुटमभिहितम्. तपेण केवलोपयोगरूपेण, तथा च यथा चितः मामान्यात्ममाऽनादित्वेऽपि विशेषात्मना सादित्व में दुष्टम् , तथा इद मुभमरशः कायदप्युच्यमानं म दुष्टम् इदं फेवलविशेषात्मना परिणतं चित्मामाग्य, सक्षमैरशः विशेषावगाहनांशमामान्यावगाहनांशैः, कमषतं पृक्षणे ज्ञानं तदनन्तरक्षणे दर्शनं इत्येवं क्रमिकम्, अपिशवायुगपदभिन्नं चेत्यनयोरुपमहः, अत एव सूक्ष्मरंगरित्यय यहुवचनमपि सङ्गतम्, यथा केवलस्य हावेशो भरमा दर्शनात्मको तया कैवलज्ञानस्यापि सन्ति यहयोऽशाः पर्व केवलदर्शनस्यापि, अन्यथा प्रथम क्षणे सर्वात्मना फैश्चलबानस्य द्वितीयक्षणे तथा दर्शनस्योत्पादे तयोरनुत्पन्नां. शान्तराभावान तृतीयपञ्चमाविक्षणेषु पंव रामस्य सतुर्थषष्ठादिक्षणेषु च दर्शनस्योत्पादो न स्यात् , एवं घ केवलझानोत्पत्त्यव्यवहितपूर्वक्षयो केपलानाघरश्रीयकर्मविगमवकेषलदर्शनाबरणीयकर्मभिगमस्यापि सद्भाषे फेवातिशयस्थाभाव्याद् भवतु प्रथम केबलशानं सथापि फेन विवंशेन केवलदर्शमस्यापि Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३८)॥महोपाल श्रीयशो गणिनिर्मितः केवलोपयोगसत्कविचारसमन्वयः ।।(हार नदानीमा युत्पत्तिरसत्येय तत्र च क्रमिकोपयोगवादी गनिमीलिकामवलम्बमानो गौणतया तदभ्युपगतेच, अन्यथा दुर्भयप्रवेशोऽपरिवरणीय पक्ष स्यात्, इत्यमे ष तृतीयक्षणभाषिनः केषलझामस्य केवलदर्शनाधिकरणे द्वितीयक्षणे, एत्रमप्रेऽपि, संवदति चामुमर्थ प्रथमतन्तुसङ्घदनसमयेऽपि केनचिदंशेन सहमततुकपटस्योत्पत्तिस्वीकारषचनम् | युगपदुपयोगषापि क्रमिकोपयोगवादं गौण तथाश्रयत्येय, यतो यथा प्रथमश्रो ज्ञानदर्शनयोरुत्पत्तिस्तथा द्वितीयादिक्षणेष्यपि, एचश्च प्रथमक्षणे ज्ञानमेष द्वितीयक्षणे दर्शनमेवेत्येवं क्रमवादी मास्तु परं प्रथमक्षणे ज्ञान दितीयक्षणे दर्शन मित्येवं कमवावस्तु तस्यान्यस्त्येव प्रयोरभेषाभ्युपगताऽपि दुनयप्रवेशभिया भेदं सर्वथा न प्रतिक्षप्तमहतीति गौणतया भेदमभ्युपगच्छन्यत्र, एवञ्च युगपद्वादः क्रमषादयोकादिशा तम्मतेऽपीति स्यामादप्रमाणानुग्रह सषामैकमत्यमिति त्रयोऽपि परिपक्षा आवर्तव्या इत्यभिप्रागणोपसंहारषचन तन्तुरीणामियमभिमता मुख्यगौणव्यवस्थेति ॥ ३ ॥ संस्कृतविवरण, भापान्तर घणु विस्तीर्ण थर ज्ञाय ग्रंथो मूलश्लोक मावनी भावार्थ लखीये छोये प्रथम श्लोकार्थ-पाचीन (पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण पूज्यश्रीमल्लवादिनी पूज्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराजाओ अथवा पूज्य श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महाराज ) ५ महापुरुषोनी वाणीमोनी विरुद्ध विषयना विकासवाळी सूक्ष्मविचारणामा स्तक्या लायक ( नयविचारनी गवेषणावाळा ) अथवा नवीन तर्कानुसारी मार्गने नहि जाणनारा जेओ गहन अरण्यमां पडेलाओनी जेम भय पामेला छे तेवा सिद्धान्तथी व्यवहार करनाराओने (ते ते पूज्य पुरुषोना विचारोमां) विश्वास लाघवाने आ सम्मतिग्रन्थनी माया (जे ज्ञान बिन्दु प्रकरणमां बतावी छे ते ) जैनसिद्धान्तसम्मत नयरूपी दुकानोमा रहेला विस्तीर्ण ( तस्वरूपी ) फरीयाणानी पंक्ति रूप छ. द्वितोयश्लोकार्थ-एक समयमां केवलज्ञान केवलदर्शनोपयोग वेर्नु योगपद्य छे ते विचारने दर्शवनार पूज्य श्री मल्लवादिजी महाराज वस्तुओनी भिन्नता ग्रहण करनार व्यवहार नयनो मुख्यताए आश्रय कों के. भिन्नसमयमां केवलज्ञान केवलदर्शनोपयोग छे तेविचारना बतावनार पूज्य श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महाराजे कार्यकारण भावनी व्यवस्थामा मुख्यत्वे शुद्धऋजुमूत्रनयनु अवलम्बन कयु छे.(सामान्य Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २११) (४३९) अजुनत्र द्रव्यार्थिक होवाथी वस्तुनी स्थिरता पण माने के मारे शुद्ध ऋजुसूत्र नय लीयो छे जे प्रतिक्षण वस्तुनी भिन्नता मानेछे,) केवळज्ञान अने केवलदर्शनोपयोग पक रूपज के ते विचारना प्रतिपादन करनार पूज्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराजे प्रधानतया भेदने उच्छेद करवामा सन्मुख रहेल संग्रहनयनो स्वीकार कर्यों छे, तेथी आ त्रण पण पूज्य आचार्योना विचारो विषम नथी एटले परस्पर विरोध दर्शवनारा नथी, (जो एकज नयना अवलम्बनथी त्रणे विचारो हात तो विरोध शात पण लेग बी ए आहे. तृतीयश्लोकार्थ- केवलनामना विशेषस्वरूपमा पुरुष (जीव) पदने भजनाएं 'चित्' एटले चैतन्य ए सामान्य धर्म एकाकार के एटले के केवलज्ञान उत्पन्न यया पूर्व अने पछी चैतन्य ए सामान्य धर्म एक सरखो के छत्तां पण कैवल्य स्वरूपे सादि अनन्तभागे जे स्पष्ट रीते कईलु छ भने विशेषावगाहित्वधर्मावच्छिमकेवलज्ञानरूप अने सामान्यावगाहित्वधर्मावच्छिन्न केवलदर्शनरूप सूक्ष्म अंशोए करीने प्रथम ममये केवलज्ञान बीजे समये कंवलदर्शन ए प्रमाणे अनुक्रमवाकहवामां आये तोपण दुष्ट नथी. एज प्रमाणे वस्तु अनन्तधर्मात्मक होवाथी जेम कोइ कोड धर्मनी मुख्य व्यवस्था अने कोइ कोइ धर्मनी गौण व्यवस्था करवामां आवंछे तेज प्रमाणे प्रणेय आचार्य भगवन्तोने आ मुख्यगौणव्यवस्था सम्मत छे तेथी कमवत् केवलज्ञान अने केवलदर्शन उपयोग, युगपद् केवलज्ञान केवलदर्शनोपयोग अने केवलज्ञान केवलदर्शन एकरूपज छे ए त्रणे विचारोमां दोपापत्ति नधी, हुये आगळना प्रशस्ति श्लोको पण अपूर्व विचारदर्शक अने तच्चगवेषकोने आनन्ददायक होवाथी आ नीचे मूल माघ आपीये छीयेतमोऽपगमचिज्जनुःक्षणभिदा निदानोद्भवाः, श्रुता बहुनराः श्रते नयविचादपक्षा यया । तथा क इत्र विस्मयो भवतु मुरिपक्षत्रये, प्रधानपदवी धियां क्व नु दवीयसी दृश्यते ॥ ४ ॥ प्रसङ्घा सदसत्त्वयोनहि विरोधनिर्णायक, विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकै यत्र न । गुणागुणविभेदतो मतिरपेक्षया स्यात्पदा, किमत्र भजनोजिते स्वसमये न साच्छते ॥ ५॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) ज्ञानद्वारे ज्ञान स्थिति निरूपणम् ॥ द्वार) 1 नेवाधिर्भवेत् ॥ ९८९ ॥ क्षणे द्वितीये तद् ज्ञानं, चेत्पतेन्मरणादिना । तदा जघन्या विज्ञेयाऽवधिज्ञानस्थितिर्बुधैः ॥ ९९० ॥ संयतस्याप्रमत्तत्वे, वर्त्तमानस्य कस्यचित् । मनोज्ञानं समुत्पद्य, द्वितीयसमये पतेत् ।। ९९९ ।। एवं मनः पर्यवस्य, स्थितिलध्वी क्षणात्मिका । देशांना पूर्वकोटी तु महती साऽपि भाव्यते ॥ ९९२ ॥ पूर्वकोट्यायुषो दीक्षाप्रतिपत्तेरनन्तरम् । मनोज्ञाने समुत्पन्ने, यावज्जीवं स्थिते च सा ॥ ९९३ ॥ तत्र च ॥ स्थितिर्लघ्वी ऋजुमतिमनोज्ञानव्यपेक्षया । अन्यत्त्वप्रतिपातित्वादाकैवल्यं हि तिष्ठति ॥ ९९४ ॥ केवलस्थितिरुक्तैव, साद्यनन्तेत्यनन्तरम् । मत्यज्ञानश्रुताज्ञान स्थितिस्त्रेधा भवेदथ ।। ९९५ ॥ अनायनन्ताऽभव्यानां भव्यानां द्विविधा पुनः । अनादिसान्ता साथन्ता, तत्राद्या ज्ञानसंभवे ॥ ९९६ ॥ सादिसान्ता पुनर्देधा, जय 10 प्रमाणनपसत्ता स्वसमयेऽप्यनेकान्तधीनैयस्मयतटस्थतोल्लसदुपाधिकिर्मीरिता । कदाचन न बाधते सुगुरुसम्प्रदायफर्म, समपदं दस्रुथिया हि सद्दर्शनम् ॥ ६ ॥ रह जानन्ते किमपि न नयानां हतधियो, विरोधं भाषन्ते foragधपक्षे बत खलाः । अमी चन्द्रादित्यमभृतिविकृतिव्यत्यय गिरा, निरातङ्काः कुत्राप्यहह न गुणान्वेपणपराः ॥ ७ ॥ स्याद्वादस्य मानचिन्दोरमन्दान्मन्दारद्रोः कः फलास्वादगर्वः । द्राक्षासाक्षात्कारपी यूषधारादारादीनां को विलासश्च रम्यः ॥ ८ ॥ गच्छे श्रीविजयादिदेवगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, पौमिमिवाम्नि जोसविजयाः माज्ञाः परामैयरुः 1 तत्सातीर्ध्यभृतां नयादिविजयमाशेोत्तमानां शिशु किञ्चिदि यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान् ॥ ९ ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 २६) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २११) (४४१) • न्योत्कृष्टभेदतः । जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्त स्यात् सा चैवं परिभा व्यते ॥ ९९७ ॥ जन्तोर्भष्टस्य सम्यक्त्वात् पुनरन्तर्मुहूर्त्ततः । सम्यक्त्वलब्धौ लघ्वी स्यादज्ञानद्वितयस्थितिः ॥ ९९८ ॥ अनन्तकालचक्राणि, कालतः परमा स्थितिः । देशोनं पुद्गलपरावर्त्तार्द्ध क्षेत्रतस्तु सा ॥९९९॥ भावना ॥ ततः परिभ्र श्य, वनस्पत्यादिषु भ्रमन् । सम्यक्त्वं लभतेऽवश्यं, कालेनैता - वता पुनः || १००० ॥ जघन्या त्वेकसमयं विभङ्गस्य स्थितिः किल । उत्पद्य समयं स्थित्वा भृश्यतः सा पुनर्भवेत् ॥ १ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागराणि विभङ्गावस्थितिर्गुरुः । देशोनया पूर्वकोट्याधिकानि तत्र भावना || २ || देशोनपूर्व कोट्यायुः कश्चिदङ्गी विभङ्गवान् । ज्येष्ठायुरप्रतिष्ठाने, तिष्ठेद्विभङ्गसंयुतः ॥३॥ इति ज्ञानस्थितिः ॥ > " , अर्थ - हवे जघन्य उत्कृष्टादि भेदे करी सर्वज्ञानोनी स्थितिनुं वर्णन करे - श्रीजिनेश्वरो ज्ञाननी स्थिति सादि अनंत अने सादि सान्त एम वे प्रकारनी कहेली के तेमां केवळज्ञाननी पहेली ( सादि अनंत ) स्थिति के, ॥ ९.८३ ।। अने शेप (चार) ज्ञाननी स्थिति बीजी (सादिसान्त ) छे. हेलां वे ज्ञाननी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम के. ॥ ९८४ ॥ ते आ प्रमाणे-३३ सागरोपम प्रमाणना वे भव विज्ञयादि ( चार विमान ) मां अथवा २२ सागरोपम ममाणना ऋण भत्र अच्युतादि ( अच्युत अने पहेली ग्रैवेयक ) मां उत्कृष्टपणे करीने मोक्षमां जाय अथवा सम्यकूत्वनो त्याग करे तो मनुष्यभव अधिक ६६ सागरोपम थाय. ।। ९८५-८६ ॥ क १ साधिक पटले २ मनुष्यभव विजयादि जतां अने साधिक पटले ३ मनुष्यभय अच्युतां मा मोक्षं नतां घर सम्यक्त्व मां आणवा बन्दी ए स्थि ति क्षयोपशम सम्यक्त्व अथवा क्षायिकषाळा मति-अत ज्ञाननी स्थिति जाणत्री. अन्यथा उपशम सम्यक्त्वनी अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त छे. तथा उत्कृमां पण मोक्ष जयां क्षायिक अने क्षयोपशम सम्यक्स्य युक्त मतिश्रुतमी, अने त्याग करतां मात्र क्षयोपशम सम्युक्त मतिनी उपर कडेली उत्कृष्ट स्थिति प्राणत्री. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४२) ॥ज्ञानद्वारे मत्यादिज्ञानानां स्थितिविचारः ॥ द्विार छ के-"विजयादिमा बे यार गपेल अथवा प्रणवार अच्युतमा मयेल जीवोनी अपेक्षाए मनुष्यभव अधिक ६६ सागर जाणवा अने अनेक (वा सर्व) जीवोनी अपेक्षाए सदाकाल स्थितिवाळे (प्रथम ज्ञान युगल छे-इति शेषा)" ॥९८७)। तथा अवधिज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति पण एज (उपर कला प्रमाणे साधिक६६ सागरोपम) कही छे, अने जघन्यथी १ समयनी छे ते आ प्रमाणे कहेवाय छे–ज्यारे विभंगशानी सम्यकृत्व पामे त्यारे तेज समये जे विभंगज्ञान ते अवधिज्ञान थइ जायः॥९८८८९॥ अने बीजेज समये जो मरणादिफवडे ते ज्ञान (अवधिज्ञान) पतित थइ जाय तो पंडितोए ते रखते अवधि ज्ञाननी जघन्य स्थिति (१ समपनी) जाणवी. ॥१९०।। अप्रमाददशामा वर्तता कोइ मुनिने (ऋजुमति) मनापर्यवज्ञान (मथम समये) उत्पन्न थड़ वीजे समये पडी जाय, ।।९९१॥ तो सामनःपर्यशालनी नजन्य स्थिति समयात्मक जाणवी,अने उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्व फ्रोह वर्ष प्रमाणनी छे ते पण आ प्रमाणे कहेवाय छे. ॥ १९ ॥ पूर्वकोह वर्पना आयुष्यबाळा जीवने दीक्षा अंगीफार कर्या वाद तुर्तज मनःपर्याय ज्ञान उत्पम थाय अने ते आखी जींदगी सुधी रहे तो ( मनःपर्यवज्ञाननी ) ते उत्कृष्ट स्थिति थायः ॥ ९९१ ॥ वली तेमा जघन्य स्थिति ( १ समयनी ) तो ऋजुमति मनोज्ञानीनी अपेक्षाए जाणवी. कारण के बोर्जु ( विपुलमति मनोज्ञान ) तो अप्रतिपाति होवाथी केवळज्ञान पामना सुधी स्थिर रहे छे. ॥ ९९२ ॥ केवळज्ञाननी स्थिति तो प्रथम सादि अनंत कहेलीज छे. हवे मति अज्ञान-श्रुत अज्ञाननी स्थिति त्रण प्रकारनी के (ने आ प्रमाणे) ॥ ९९३-२५ ॥ त्यां अभव्य जीवोने आश्रयि (मतिश्रुत अज्ञाननी स्थिति) अनादि अनंत छ, अने भव्यजीवोनी अपेक्षाप अनादि-सान्त अने वीजी सादि-सान्त एम चे प्रकारनी छे तेमां पहेली अनादि सान्त स्थिति अनादिकालनुं अज्ञान मटीने (सम्यक्त्व माप्ति समये) ज्ञान थवाना संभव होवाथी छ, ।।२.९६ ॥ अने बीजी सादि-सान्त स्थिति पुन: जपन्य अने उत्कृष्टना भेदधी वे मकारनी छे, त्यां जघन्य मादि सान्त स्थिति (बे अज्ञाननी) अन्तर्मुहूर्तनी छे ते आ प्रमाणे विचाराय छ९९७॥ सम्यक्त्वयी पतित थपेका जीवने पूनः अन्तर्मुहत वाद सम्यकत्वनी प्राप्ति थये ये अज्ञाननी जघन्य स्थिति (अन्तर्मु. प्रमाण) यार छे ॥ ९९८ ॥ अने उत्कृष्ट स्थिनि काळयी अनंतकाळचक्र जेटली, अने क्षेत्रंथी ते उत्कृष्ट स्थिति कंइक न्यून ०॥ अर्ध पुदलपरावत जाणवी. १९९५।। तेनी भावना आ प्रमाणे-सम्यक्त्वधी । न्यादि चार प्रकारनां पुनल पराधमां अहिं क्षेत्र पुन र परावर्त में Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९] ॥ श्रीलोफमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २११) (४४३) जीव पतित थइने वनस्पत्यादि भवोमा परिचमण करतो जीव तेरले काळे पुनः अवश्य सम्यक्त्व पामेज (माटे अर्धपुद्रलपरावर्त स्थिति कही.) ॥१०००॥ विभंगज्ञाननी जघन्य थी। समय स्थिति छ, ते निश्चये विभंगझान उत्पन्न था ? समय रहीने पुनः पतित यतां ते ( १ समय स्थिति ) होय छे. ॥१॥ अने विमा शाननी उत्कृष्ट स्थिति कंइक न्यून पूर्वक्रोड वर्ष अधिक ३३ सागरोपम प्रमाण छ, तेनी भावना आ प्रमाणे-॥२॥ कइक न्यून पूर्व कोड वपना आयुष्यवाळो कोइक विभंगज्ञानी जीव विभंगज्ञान सहित अप्रतिष्धान नरकावासमां ( ७ मी नरफना मध्य नरकावासमा ) उत्कृष्ट आयुष्यपणे उपजे ( तो विभा ज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति याय.)।। ३ ।। ए प्रमाणे आठे ज्ञाननी स्थितियो कही. अवान्तर ॥ मत्यादिज्ञानता भष्टः,पुनः कालेन यावता । ज्ञानमाप्नोति मत्यादि, ज्ञानानामन्तरं हि तत् ।। ४ ॥ अनन्तकालचक्राणि, कालतः स्यान्मतिश्रुते। देशोनं पुद्गलपरावर्त्ताद्वै क्षेत्रतोऽन्तरम् ॥ ५॥ एवमेवावधिमनःपर्यायज्ञानयोः परम् । अन्तर्मुहर्तमात्रं च, सर्वेष्वेष्वन्तरं लघु ॥ ६ ॥ केवलस्यान्तरं नास्ति, साद्यनन्ता हि तस्थितिः । अनाद्यन्तानादिसान्तेऽज्ञानद्वयेऽपि नान्तरम् ॥ ७ ॥ सादिसान्ते पुनस्तत्राधिकाः षट्षष्टिसागराः । इयमुत्कृष्टसम्यक्त्वस्थितिरेव तदन्तरम् ॥८॥ अन्तरं स्याद्विभङ्गस्य, ज्येष्ठं कालो वनस्पतेः । अन्तर्मुहूर्तमेते. षु, त्रिपुं ज्ञेयं जघन्यतः ॥ ९॥ ( अथाल्पाबहुत्वम् ) स्तोका मनोज्ञा अवधिमन्तोऽसंख्यगुणास्ततः । मतिश्रुतज्ञानवन्तो, मिथस्तुल्यास्ततोऽधिकाः ॥१०॥ असंख्येयगुणास्तेभ्यो, विभ ज्ञानशालिनः। केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणास्तेभ्यः प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥ तदनन्तगुणास्तुल्या, मिथो धज्ञानवर्तिनः । अप्यष्टस्वेषु पर्याया, अनन्ताः कोर्तिता जिनः ॥ १२ ॥ अय-ज्ञाननो विरह काळ ( अन्तर काळ )-मत्यादि शानथी पतित Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४) ॥शानबारे मत्यादिज्ञानानामन्तरविचारः॥ (दार थयेलो जीव पुनः जेटले काळे मत्यादिज्ञान पामे तेटलो काल मत्यादिज्ञान अन्तर (विरह, कहेवाय. ॥४॥ त्यां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान- अन्तर (उपर कया प्रमाणे) काळथी अनंतकाळचक्र अने क्षेत्रथी कंडक न्यून ०|| अध पुद्गल परावर्त छे. ॥५॥ अवधि अने मनःपर्यवर्नु मा उत्कृष्ट मनाने प्राक, अमेका सर्वज्ञानमा (४ ज्ञानमांजघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त मात्र हे.॥ केवळज्ञानर्नु अन्तरज नपी,कारण के तेनी स्थिति सादि-अनंत के. अने अनादि-सान्त तथा अनादि अनन्त स्थितिवाळांचे अज्ञानमा (मति-श्रुत अज्ञानमा) पण अन्तर नथी. ॥ ७ ॥ अने ए वे अज्ञाननी सादि-सान्त स्थितिमा पुनः साधिक ६६ सागरोपम अन्तर छे अने ने सम्यक्त्वनी उत्कृष्ट स्थिति (पथम कही छे ते) प्रमाणेज तेर्नु उत्कृष्ट अन्तर जाणवू. ॥ ८॥ विभंग ज्ञाननु अन्तर बनस्पतिना उत्कृष्ट काळ ( फायस्थिति ) जेटल छे, अने ए त्रणे अज्ञानमां जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त जाणवु. ॥२॥ ज्ञानो, अल्पबहुत्व, मनःपर्यव ज्ञानी सर्वथी अल्प छे, तेथी अवधिज्ञानी जीवो असंख्यगुणा छ, तेथी मति-श्रुत सानवाला अधिक अने परस्पर तुल्य छे. ॥१०॥ तेथी विभंग ज्ञानवाळा असंख्यगुणा छे, अने तेथी पण केवळझानी अनंतगुणा कहेला छे. ॥ ११ ॥ तेथो वे अज्ञानवाळा जीवो अनंतगुण छ पण परस्पर तुल्य छे. वळी ए आठे ज्ञानोमां जिनेश्वरोए अनंत अनंतपर्यायो कहेला छे. । १२ ॥ १ मनःपर्यायशान लब्धियन्त अप्रमत्तसंयतमनुष्योने ज थतुं होवाथी ममःपर्यषज्ञानी जीया परिमितज होय छे. अधिज्ञान सम्यग्दृष्टि सधंदेष तथा सर्वनारकोने भषप्रत्यधिक होया छे तथा मनुष्यातियचोमा केटलाकने गुणप्रस्यायिक थाय छे. पटले पारे गनिना जीवोने तेलो समय होपाधी अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा छे मति अने अतमाम अधिशाम लेओने होय मोने तो होयज अने अपशिशान रहित पण सम्यग्दृष्टिजीषोने होय छे, जेथो अघविज्ञानि करता मतिः-श्रुतमानो बधारे छे, मति अमे शुतज्ञान नो सहपर्ति होषाथी से ये परस्पर तुल्य छ, विभङ्गज्ञान सम्यग्दृष्टि शिवायना तमाम देष तथा भारकोओने भवप्राययिक होयज छे मनुष्यत्तियंघोमां पण केटलाकने होय यी मति--श्रुतक्षानियो असंख्य गुणविभङ्गमानिओ होय छे केवलमान सब सिहभगवन्तोने तथा सयोगि ( १३ मुं) तथा अयोगि ( १४ मुं) गुणस्थामवर्तिजीमोने होय छ, मेथी अनम्तगुण फेषलझानि भगवन्तो छ, तेममाथी समाधि वनस्पति विगरे सर्व मिथ्यावृष्टिजीची मतिनानी अने श्रुतअज्ञानी धीय छ, जैसी अनन्तगुणा कमा है, अने से ये अज्ञानो सहति होवाधी परस्पर तुल्य छे. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मुं) || श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१२ ) (४४५) सर्वेषां पर्यवा द्वेधा, स्वकीयापरभेदतः । स्वधर्मरूपास्तत्र स्वे, परधर्मात्मकाः परे ॥ १३ ॥ क्षयोपशमवैचित्रयान्मतेरवग्रहादयः । अनन्तभेदाः षट्स्थानपतितत्वाद्भवन्ति हि ॥ १४ ॥ षट्स्थानानि चैवं - अनन्तासंख्यसंख्येयभागैर्वृद्धिर्यथाक्रमम् | संख्येया संख्येयानन्तगुणैर्वृद्धिरितीह षट् ॥ १५ ॥ अनन्ता संख्यसंख्यानामनन्तासंख्यसंख्यकाः। भेदाः स्युरित्यनन्तास्ते, मतिज्ञानस्य पर्यवाः ||१६|| प्रतिज्ञेयं मतिज्ञानं, विभज्येत यतोऽथवा । ज्ञेयानन्त्याततोऽनन्ता, मतिज्ञानस्य पर्यवाः ॥ १७ ॥ निर्विभागः परिच्छेदेरिछन्नं कल्पनयाऽथवा । अनन्तखण्डं भवतीत्यनन्ता मतिपर्यवाः ॥ १७ ॥ स्वेभ्योऽनन्तगुणा ये च सन्त्यर्था - न्तरपर्यवाः । यतस्तेऽत्रोपयुज्यन्ते, ततस्तेऽप्यस्य पर्यत्राः ॥ १८ ॥ यद्यप्यस्मिन्नसंबद्धास्तथाप्यस्योपयोगतः । तेऽदसीया असंबद्धस्वोपयोगिधनादिवत् ॥ १९ ॥ आह च ॥ " जइ ते परपजाया न तस्स अह तरस न परपजाया ? ( यदि ते परपर्याया न तस्य अथ तस्य, न परपर्यायाः ? | ) आचार्यः प्राह ॥ जं तंमि असंबद्धा, तो परपज्जायववदेसो ॥ २० ॥ ( यत्तस्मिन् असंबद्धाः ततः परपर्यायव्यपदेशः । ) चायसपज्जायविसेसणाइणा तस्स जमुवजुज्जति । सधणमिवासचन्द्धं हवंति तो पज्जवा तरस ॥ २१ ॥ " ( त्यागस्वपर्याय विशेषणादिना तस्य यदुपयुज्यन्ते । स्वधनमिवासम्बद्धं भवन्ति ततः पर्यवास्तस्य ॥ [ सा० २१२] 'चाय' त्ति त्यागेन स्वपर्यायविशेषणादिना च परपर्याया घटादिपर्याया 'येन' कारणेन 'तस्य' ज्ञानस्योपयुज्यन्ते - उपयोगं यान्ति यतो घटादिसकलवस्तुपर्यायपरित्याग एव ज्ञानादिरर्थः सुज्ञातो भवतीति सर्वे परपर्यायाः परित्याग Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) ॥ ज्ञानद्वारे साक्षेपपरिहारं मतिज्ञानस्य पर्यायनिरूपणम् ।। द्विार मुखेनोपयुज्यन्ते, तथा परपर्यायसद्भाव एव एते स्वपर्याया इति । विशेषयितुं शक्या इति स्वपर्यायविशेषणेन परपर्याया उपयुज्यन्त इति तात्पर्यम् ॥ ___ अर्थ ज्ञानोना स्व अने पर पर्यायनु स्वरूप-सर्व ज्ञानोना (आठे झानना) पर्याय स्व अने पर भेदथी वे मकारना छे. त्या पोताना धर्मरूप जे पर्यायो ते स्वपर्याय, अने पर अन्यपदार्थना धर्मरूप जे पर्यायो ते परपर्याय फहेवाय ॥१॥ क्षयोपशमना विचित्रपणावडे मतिर्नु पट्स्थान पतितपणुं होवायो मतिज्ञानना अवग्रहादि भेदो निश्चये अनंत भेदवाळा छ॥१४॥त्यां पट्स्थान आ प्रमाणे-अनंतमागवृद्धिअसंख्यभाग वृद्धि-संख्यभाग वृद्धि-संख्येय गुणवृद्धि-असंख्येय गुणपृद्धि अने अनंतगुण वृद्धि र प्रमाणे अहिं ६ स्थान के ॥ १५ ॥ वळी ए अनंतना अनंत मेद, असंख्यना असंख्य भेद, अने संख्यातना संख्याता भेद छे, माटे पनिज्ञानना ते पर्यायो पण सर्व मळी अनंत छ. ।। १६ ॥ अथवा जे कारणधी मतिज्ञान क्षेयनो अपेक्षाए भेटवाळ गणीए तो ज्ञेय अनंत होवायो मतिज्ञानना पर्याय पण अनंत छ. ॥ १७ ॥ अथवा बुद्धि कल्पनावडे निर्विभाज्य अंशोबडे छेद्यु छतुं अनंत खंडवालं ( अनंत भागात्मक )याय ए इतथी पण मतिज्ञानना अनंत पर्याय ( स्वपर्याय ) छे. ॥ १८ ॥ इये जे कारणथी प स्वपर्यापोथी बीजा पदा थैना जे अनंतगुण पर्यायो छे, जे कारणथी ते मतिज्ञानना पर्याय विचारमा उपपोगमा आवे छे तेथी ते ( पदार्थान्तरपर्यायो) पण आ मतिज्ञाननाज पर्यायो (परपर्यायो ) छे. ॥ १० ॥ जो के एमां ( मतिझाना ) ते पर्यायो ( परपर्यायो ) संबंध दिमाना छ तोपण ए मतिज्ञानना उपयोगमा आवता हो म प्रकाशस्थरूप ओळखषामां अन्धकागवि त्यागरूपे उपयोगी धाय छे. तेम स्वपर्यायने ओळखवामां परर्यायो त्यामरूपे उपयोगी पाय छ, तथा "अभावाने प्रतियोगिहानस्य कारणत्वं ए न्यायधी जेम घटाभावहाममा घशान कारण छे तेमज अन्धकागद अग्यपदार्थलु विचमासपणे होय तो ज "आ प्रकाश एषो विशेष ध्यपदेश घडू शके लेम परपर्यायो होय तो ज "आ स्वपर्याय" एको विशेषव्यपदेश था शकै माटे ए प्रमाणे स्वपर्याय प्रत्ये परपर्यायो घे रोते उपयोगी थाय छ, प भावार्थ छे. प गाथाओनी विशेष स्पष्टार्थ पिशेषाचश्यका भाष्यमी ४८२ मे १८. मी गायानी टीकाथो जाणयो. .. मतिनानमा स्वपर्याय अनन्त होषामांत्रण कारण छे. १ क्षयोपशम अनेक अने विषय पक, २ क्षयोप. अने विषय अनेक अने ३ भयोप. पक अने विषय एक होय णे बखते उपयोगर्मा वर्तता अनन्त पर्याय स्वाय (अने उपयोग गोचर ना बयेला पर्याय कडेवाय. ) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१२ ) (४४७) वाथी ते ( परपर्यायो ) पण जेम असंबद्ध छतां पण पोताना उपयोगमां आव धन बगेरे पोतानुं गणाय छे तेम (ते पर पर्यायो पण ते मतिज्ञाननाज गणाय. ॥ २० ॥ कं छे के शिष्य शङ्का - "जो ते परपर्यायों के तो तेना ( मतिज्ञानना) न कहेवाय, अने जो ते तेना ( मतिज्ञानना) हे तो परपर्याय न कहेवाय. ए शंकाना समाधानमा आचार्य कहे छे के उत्तर- जे कारणथी ते मतिज्ञानमां संबंध विनाना ले माटे ज दे (असंबद्ध पर्यायों) ने परपर्याय एत्रो व्यपदेश के, कारण के त्यागवडे अने स्वपर्याना विशेषणादि बड़े ते ( परपर्यायो ) ते ज्ञानने उपयोगी याय छे असंबद्ध एत्रा पोताना धननी माफक (असंबद्ध एवा परपदार्थेना) ते पर्यायो तेना कहेवाय छे. ॥ २१ ॥ टीकार्थ- चाय एटले त्यागवडे अने सपज्जाय इत्यादि एटले स्वपर्यायाना विशेषणादिवडे (ए वे बडे ) पर पर्याय एटले घटादि पर्यायी जे कारणथी तस्त्र - ते (मति) ज्ञानना उबजुचंति - (उपयोगी थाय छे) - उपयोगमां आवे अर्थात् त्यागवडे अने स्वर्याय विशेषणादि वडे परपर्याय- घटादि पर्याय जे कारणे ते ज्ञानना उपयोगमां आवे छे. कारण के घटादि सर्व पदार्थोंना पर्यायनो त्याग * थये छते ज ज्ञानादिक अर्थ सुखे करीने जाभ्यो जाय है. माटे सर्व परपर्यायो परित्याग द्वारा उपयोगो थाय छे, अने परपर्याय होते छतेज " ए स्वपर्याय " एम विशेषित करवाने शक्य थाय छे, माटे स्वपर्ययना विशेषण द्वारा परपर्यायो उपयोगी याय है. ए तात्पर्य के. I श्रुतेऽप्यनन्ताः पर्यायाः, प्रोक्ताः स्वपरभेदतः । स्त्रीयास्तत्र च निर्दिष्टास्तेऽक्षरानक्षरादयः ॥ २२ ॥ क्षयोपशमवैचि याद्विषयानन्त्यतश्च ते । श्रुतानुसारिवोधानामानन्त्यात्स्युरनन्तकाः ॥ २३ ॥ अविभागपरिच्छेदेरनन्ता वा भवन्ति ते अनन्ताः परपर्याया, अप्यस्मिंस्ते तु पूर्ववत् ॥ २४ ॥ अथवा स्यात् श्रुतज्ञानं श्रुतयन्थानुसारतः । श्रुतग्रन्थश्चाक्षरात्मा, ता• न्यकारादिकानि च ॥ २५ ॥ तच्चैकैकमुदात्तानुदात्तस्वरित भेदतः । अल्पानल्पप्रयत्नानुनासिकान्यविशेषतः ॥ २६ ॥ संयुक्तासंयुक्तयोगद्व्यादिसंयोगभेदतः । आनन्त्याच्चाभिधेयानां, भिद्यमानमनन्तधा ॥ २७ ॥ केवलो लभतेऽकारः, शेषवर्णयु Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४८) ॥ ज्ञानद्वारे श्रुतज्ञानपर्यायनिरूपणम ॥ (सार तश्च यान् । ते सर्वेऽस्य स्वपर्यायास्तदन्ये परपर्यवाः ॥ २८ ॥ एवं च ।। अनन्तस्वान्यपर्यायमेकैकमक्षरं श्रुते । पर्यायास्तेऽखिलद्रव्यपर्यायराशिसम्मिताः ॥२९।। आह च-"एक्केकमक्खरं पुण सपरपज्जायभेयओ भिन्नं । तं सवदव्वपज्जायरासिमाणं मुणेयव्वं ॥ ३० ॥ जे लहइ केवलो सेसवण्णसहिओ अ पज्जवेऽगारो । ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जवा तस्स ।। ३१ ।। (एकैकमक्षरं पुनः स्वपरपर्यायभेदतो भिन्नं । तत् सर्वद्रव्यपर्यायराशिमानं ज्ञातव्यम् ।।यान् लभते केवलः शेषवर्णसहितश्च पर्यवेऽकारः, ते तस्य स्वपर्यायाः शेषाः परपर्यवास्तस्य ॥) (सा० २१३) अयं भावः ॥ यान्पर्यायान् केवलोऽकारः शेषवर्णसहितश्च लभते ते तस्य स्वपर्यायाः, शेषाः-शेषवर्णसं. वन्धिनो घटाद्यपरपदार्थसम्बन्धिनश्च परपर्यायास्तस्य-अकारस्येति । एवं विधानेकवर्णपर्यायोः समन्वितम् । ततश्चानन्तपर्यायं, श्रुतज्ञानं श्रुतं श्रुते ॥ ३२ ॥ अर्थ - श्रुतज्ञानमां पण स्व अने परना भेदथी अनन्त पर्याय कहेला छ, नेमा अक्षरश्रत-अनक्षरत इत्यादि स्वपर्याय कहेला छे, ।। २२ ।। तथा क्षयोपशमना विचित्रपणाथी अने विषयना अनन्तपणाथी श्रुतानुसारी पोधनु अनन्तपणुं होवाथी ते स्वपर्यायो अनन्त छे. ॥ २३ ॥ अथवा निर्विभाज्य अंशो वडे करीने पण ने ( स्वपर्यायो ) अनन्त छे, अने आ श्रुतज्ञानमां पूर्वोक्त रीते पर पर्यायो ते पण अनन्त के. ॥ २४ ॥ अथवा श्रुतज्ञान ते श्रुत ग्रन्थने अनुसारे होप छे, अने श्रुत ग्रन्थ ने अक्षररूप ले, अने ते अक्षरो अकारादि छे ।। २५ ॥ वळी ते प्रत्येक ( अकारादि ) अक्षर उदात्त-अनुदान-अने स्वरितना भेदथी नथा अल्पपयत्न जे अक्षरना उच्चारमा वायु उचे स्पर्श करी ने जाय ते उदात्त, वायु मीचे स्पर्श करीने जाय ते स्वरित अक्षर कहेवाय ए प्रत्येक हस्व दीर्घ अने जलुतभेदे नब अने त सब सानुनासिक-निरानुनासिक भेदे प्रत्येक अक्षर १८-१८ मे छे. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 (४४९) (२६) ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २१२ ● अतिमयत्न- अनुनासिक - निरनुनासिक इत्यादि विशेषोधी संयुक्तयोग- असंयुक्तयोग-विसंयोग- त्रिसंयोगी इत्यादि संयोग भेदथी अने अभिधेय ( श्रुतविषयक ) भावना अनंतपणाथी श्रुतज्ञान अनंत भेदाकुं छे. ॥ २६-२७|| केवळ अकार अने अन्य अक्षरयुक्त अकार जे पर्यायो पायेले ते सर्व पर्यायो प अकारना स्वपर्याय छे. अने तेथी बीजा पर्याय है ||२८|| अने एप्रमाणे सिद्धान्तमां अथवा श्रुतज्ञामां मत्येक अक्षर अनंत स्वपर्याय अने अनंत परपर्यायवाल छे, अने ते पर्यायो सर्व द्रव्यना पर्या राशि जेटली हे ॥ २९ ॥ कां छे के मूळगाथार्थः - प्रत्येक अक्षर पण स्त्र अने परपर्यायना भेदी दवा छे अने ते एक अक्षर सर्वद्रव्यना पर्याय राशिप्रमाणनों जाणो ॥ ३० ॥ तथा केवळ ( एकलो ) अने शेषवर्णयुक्त एवो अकार जे पर्यायोने पाये के ते तेना स्व पर्यायों के अने शेष कीना बीजा पर्यायो ते तेना (ते अक्षरना) परपर्यायो है. ॥३०॥ (टीकाभावः) तात्पर्य आ छे के' 'केवळ अने शेषवर्णयुक्त अकार जे पर्यायोने पाये छे ते तेना स्वपर्याय के अने शेष पहले शेषवर्ण सम्बन्धि अने घटादि अन्यपदार्थ सम्बन्धि पर्यायते तेना एटले अकारना परपयायो " ।। ३१ ।। (ए प्रमाणे ) मिद्धान्तम श्रुतज्ञान आवा प्रकारना अनेक अक्षरना पर्यायता समूहबडे सहित के ने कारणथी श्रुतज्ञान अनन्तपर्यायवाचं सिद्धान्तमां श्रुत-कलं . ॥ ३२ ॥ " अथावधेः स्वपर्याया विविधा या भिदोऽवधेः । क्षायोपशमिकभवप्रत्ययादिविभेदतः ॥ ३३ ॥ तिर्यग्नैरयिकस्वर्गिनरादि * मुख अनं नासिकायो उच्चारण करातां वर्ण ते मानुनामिक १ मुखे क गगने में उच्चारण करातां ते निरनुनासिक २ व उधारण करवामां ज्यारे सर्वाङ्गने अनुसरतो तोत्र प्रयत्न होय स्थारे शरीर स्तब्धपणुं अनेक वरनुं सूत्रमपशु तथा स्थर अनं वायुनु तीव्रगतिपशुं षाथी रुक्षपणुं होय ते उदात्त, तेथी विपरीत ते अनुदान, उदात्त अने अनुदानो मन्त्रिपात धाथी स्वरित कबाय छे, अथवा जेना उच्चारणमां वायु उसे स्पर्शश्राप होग उदात्त, नीचे स्पर्श ने अनुशन, समाहार से स्वरित आ नया विवार, संवार, श्वास माइ घोषवत अघोष अल्पप्राण महामाण ५ सय वर्गच्वाग्मां बाले, अस्पष्ट ईस्ट, विवृत ईषद्विवृत, विवृततर, अतिचिततर अने अतिथिवृतनम ए सात अन्तर प्रयत्नो मयं वर्णना की. इत्यादि, असयुनेकाक्षर 1 १- इत्यादि संयुक्तकाक्षरयोगी व संयोगी व पध द्विर्मयोगी धन प्रच्ध इत्यादि वियोगी पण कवाय Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४५८) ॥ ज्ञानद्वारेअवध्यादिज्ञानानां पर्यायनिरूपणं, पर्यायाल्पाबहुलं च ॥ [द्वार स्वामिभेदतः । अनन्तभित्स्वविषयद्रव्यपर्यायभेदतः ॥ ३४ ॥ असंख्यभित्स्व विषयक्षेत्राद्धाभेदतोऽपि च । निर्विभागैर्विभा. गैश्च, ते चैवं स्युरनन्तकाः॥३५॥ एवं मनःपर्यवस्य, केवलस्य च पर्यवाः। निर्विभागैविभागैः स्वे (स्वः), स्वाम्यादिभेदतोऽपि च ।। ३६ ॥ अनन्तद्रव्यपर्यायज्ञानाच्च स्युरनन्तकाः । अज्ञानत्रितयेऽप्येवं, ज्ञेया अनन्तपर्यवाः ।। ३७ ।। परपर्यस्तु सर्वत्र प्राग्वत् ॥ अष्टाप्येतानि तुल्यानि, व्यपेक्ष्य स्वान्यपर्यवान् । यद्वक्ष्येऽल्पबहुत्वं तदपेक्ष्य स्वीयपर्यवान् ॥ ३८ ॥ तत्र स्युः सर्वतः स्तोका, मनःपर्यायपर्यवाः । मनोद्रव्यैकविषयमिदं ज्ञानं भवेद्यतः ।। ३९ ॥ एभ्योऽनन्तगुणाः किं च, विभङ्गज्ञानपर्यवाः । मनोज्ञानापेक्षया यहिभङ्गविषयो महान् ॥४०॥ आरभ्य नवमवेयकादासप्तमक्षितिम् । अधिःक्षेत्रके तिर्यक, चासंख्यद्वीपवाड़िगे ॥ ११ ॥ रूपिद्रव्याणि कतिचित्तत्पर्यायांश्च वेत्ति सः । अनन्तघ्नास्ते च मनोज्ञानज्ञेयव्यपेक्षया ॥ ४२ ॥ समस्तरूपिद्रव्याणि, प्रतिद्रव्यमसंख्यकान् । भावान्वेत्तीत्यनन्तना, विभङ्गापेक्षयाऽवधौ ॥ ४३ ॥ अनन्तगुणितास्तेभ्यः, श्रुताज्ञान इदं यतः । सर्वमूर्तामूर्तद्रव्यसर्वपर्यायगोचरम् ।। ४४ ॥ श्रुताज्ञानाविषयाणां, केषाश्चिद्विषयत्वतः । स्पष्टत्वाच श्रुतज्ञाने, तेभ्यो विशेषतोऽधिकाः ॥ ४५ ॥ अभिलाप्यानभिलाप्यविषयेऽनन्तसंगुणाः । मत्यज्ञाने श्रुतज्ञानादभिलाप्यैकगोचरात् ॥ १६ ॥ मतिज्ञानपर्यवाश्च, ततो विशेषतोऽधिकाः । मत्यज्ञानाविषयाणां, विषयत्वात् स्फुटत्वतः ॥ ४७ ।। तेभ्योऽप्यनन्तगुणिताः, केवलज्ञानपर्यवाः । सर्शद्धाभाविनिखिलद्रव्यपर्यायभासनात् ।। ४८ ॥ इति ज्ञानम् २६ ॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९) ॥ श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः ।। [सा० २१२) (४५१) अर्थ-वे अवधिज्ञानना स्वपर्यायो यतावे छे, क्षयोपशम निमित्तथी यवावाल, भनिमित्तथी थवावालं विगेरे भेदोथी, १.तिर्यंच-नारकी-देवता अने मनुस्य विगेरे स्वामि (अवधिज्ञानवाला जीव ) ना भेदयी. २. अनन्तभेदवाळा पोताना (अवधिज्ञानना) विषयरूप द्रव्य अने पर्यायोना भेदयी ३-(१) अने असंख्य मेदवाळा पोताना (अवविज्ञानना विषयरूप क्षेत्र अने काळना मेदयो ३(२)जे अवधिज्ञानना अनेक पकारना भेदो के ते सर्व अवधिज्ञानना स्वपर्यायो छे अने आ रीते ने सर्वपर्यायो जेना विभागो न पाही काय तेवा विभागोए करी अनन्ता होय छ. ॥ ३३-३४-३५-३६ ॥ ए प्रमाणे मनापर्यव तथा केवलज्ञानना पण (पोताना) निर्विभाज्य अंशोवडे आ. बागि कोरेगा यी रग ( अनन्त अनन्त स्वपर्यायो जाणवा,) ॥ ३७॥ तेमज अनन्त द्रष्य-पर्यायना झानयी पण अनन्त स्वपर्यायो जाणवा. ए रीने प्रणे अज्ञानमा एण अनन्त अनन्त स्वपर्यायो जाणवा. ॥३८॥ अने परपर्यायो तो सर्वज्ञानोमां पूर्वोक्त रीते जाणवा. ए आठे ज्ञान स्त्र अने परपर्यायनी अपेक्षाए परस्पर तुल्य छ, अने आगळ जे अल्पबहुत्व कहीश ते स्वपर्यापोनी अपेक्षाए समजवं. ।। ३९ ॥ आठे ज्ञानना पर्यायोगें १ मही अवधिमानना त्रण प्रकारे भेदो पढे छे ते बतायु छ, र निमितभेदयी, २ म्यामिभेदशी, ३ विषयभेश्यो. १ मनुष्यत्तियचोने क्षयोपशम निमित्तथी चतुं तथा देवता नारकीने भवप्रत्ययिक पतु अवधिमान २ स्वामिभेदयो अवधिशाषन्त सारे गतिमा ओधोना भेदयी,३ विषयभेदयी व्यथी वधिना विषयभूत सर्वतव्य मळी अनन्त द्रव्यरूप द्रव्यभेदोथी, क्षेत्रयी भवधिज्ञानमा विषयमूत प्रध्यनो अवगाहमाघाळा असंख्यात क्षेत्रभेदोथो, कालपी असंख्यात कालभेदीथी, भाषयो अधिनाविषयभूत सर्व मळी अनन्त पर्यायरूप पर्यायभेदोथी यता अवधिज्ञानना भेदो तेमज क्षयोपशमनी तरतमता मथा बि. मित्रता योगे पडता आनुगामिकादिभेदो, देशावधि सविधि आदि भेदी, सम्बद्ध असम्बद्धादि भेदो, तीत्रमन्दादि भेवो विगेरे अनेकपकारना अवधिनाममा भेदो ते सर्व अवधिज्ञानना स्वपर्यायो कठेवाय छे. २ मनःपर्यवमानना स्वविषयभूत द्रव्य अने पर्यायभेदथी अनन्त स्थाविषयभूत क्षेत्रकालना भेषधी असंख्य, अने निर्षिभाज्य अंशोवढे अनन्स स्वपर्याय छे. ३ केवळज्ञानना स्थविषयभूत प्रध्य क्षेत्र-काळ अने पर्याय भेदथी अनमत, स्वामिभेदथी पण अनन्त भने निर्विभाज्य अंशोध पण अनन्त स्वपर्याय छै. * मतिज्ञानमा में परपर्यायोन स्वरूप बतायु छ ते प्रमाणे ४ आठे शानोनी स्वपर्याय अने परपर्याय संख्या भंगी करता मरवाळ संपनी संख्या सस्य छ, से आ प्रमाणे कल्पित संख्याप्रमाणथो जाणवू. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५२) || ज्ञानद्वारे ज्ञानपर्यायाणां अल्पबहुत्वनिरूपणम् ॥ (द्वार अल्पबहुत्व- त्यां मनः पर्यवज्ञानना स्वपर्याय सर्वथी अल्प छे, कारण के ए ज्ञान मात्र एक मनोद्रव्यनाज विषयवा छे, ॥ ४० ॥ बळी तेथी विभङ्गज्ञानना पर्यायो अनन्तगुणा छे, कारणके मनोज्ञानना विषयनी अपेक्षार विभङ्गज्ञाननो विषय मोटो छे. ॥ ४१ ॥ कारणके ऊर्ध्व अने अधःक्षेत्रमां नवमाद्यैवेयकथी प्रारम्भोने नीचे यावत् सातभी नरकपृथ्वी सुश्री अने तिर्यक दिशामा असंख्य दीपने समुद्र सुधिमां एटला क्षेत्रमां रूपि द्रव्योने दरेक द्रव्यना केटलाक पर्यायने ते ( विभङ्गज्ञानी ) जाणे छे, माटे मनः पर्यवज्ञानमा विपयनी अपेक्षाए ते ( विभङ्गना ज्ञेयपदार्थो ) अनन्तगुणा छे, (तेथी ज विभंगना स्वपर्यांयो मनः पर्यवज्ञानना स्वपर्ययो करतां अनन्तगुणा के ) ।। ४३ ।। ( अवधिज्ञानी ) सर्वरूपि द्रव्योने अने दरेक द्रव्यना असंख्य असंख्य पर्यायाने जाणे छे. माटे विभनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना स्वपर्याय अनन्तगुणा छे. ॥४४॥ ते ( अवधिज्ञानना स्वपर्यायो ) करता श्रुतअज्ञानम स्त्रप अनन्तगुण छे. कारण के अत अज्ञान सर्वरूपी अरूपी द्रव्य अने सर्वपर्यायना पियवा छे, ॥ ४५ ॥ तथा अज्ञानता विषयमां नहिं आवता एवा केलाएक farer श्रुतज्ञाना विषयवाळा होवाथी अने जाणवामां विशेष स्पष्टपणु होवाथी श्रुतज्ञानना पर्याय ते श्रुतअज्ञानना पर्यायोथी विशेषाधिक (मणाथी पन ) जेटला - परयो मतिज्ञानमा सेटलाज श्रुतज्ञान वगेरेना पण जाणत्रा, जेम कल्पमाथी मतिज्ञानना ४० पर्याय अने ६० परपथ महीने १०० पर्याय छे, तो श्रुतज्ञानमा ३० स्थपर्याय अने ७० परपर्याय पळी १०० सर्वपर्याय इत्यादि रीते शेष ज्ञामो पण सो सो पर्याय आणषा मनुं कारण पछे के एक विवक्षित ज्ञानमा स्वपर्यायों शिवायभा बीजा सर्वज्ञानमा स्व-पर्यायी से विचक्षितज्ञानना परपर्यायो छे अने ने पर पदार्थमा पर्यायो ते पण शिवक्षित ज्ञानना परपर्याय कडेघाय. जेथी सरवाळे दरेक कामना स्व-पर पर्यायां मलीने सरखी संख्यापण आषी रहे – अथवा जगत्‌मां जेटला सर्वपर्यायी मांथी विवक्षित ज्ञानमी स्वपर्यायी बाद करतां शेष सर्व ते विवक्षितज्ञानना परपर्याय काय पटले स्ष अने पर भंगा करता सर्वना सरखा ले. १ वस्तुतः श्रुतअकान सर्व द्रव्य अने केलापक पर्यायता विषयचा छे, छतां अहिं सर्वद्रव्य ने सर्वपर्यायमा विषयवा कधुं से अज्ञानी जीव जेटलां भ्रष्य अने जेटला पर्याय जाणे तेटळानी अपेक्षापण सर्व शब्द जोडधो उचित छे. " मतिश्रुतयोर्नियग्धः सर्वद्रव्येष्वसर्षपर्याय " [ तत्वार्थ अ १ ०२७] सूत्रमां मतिश्रुतज्ञाननो विषय सर्व द्रव्य अने असर्व पर्यायो कमा को भने नन्दिवादिमां जे सर्व पर्यायो का छे ते अभिलाप्यपययोनी अपेशाये सर्व शब्द ग्रहण कर्यो छे. अगर भाव शब्दे और विकादि सर्व भाषी लेषा. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (सा०२१२) (४५३) ।। ४६ ॥ अभिलाष्य भने अनभिलाप्य पदार्थना विषयवाळा पतिअबानना स्वपर्यायो अभिलाष्य मात्रना विषयवाला श्रुतज्ञानथी (श्रुतज्ञानना स्वपर्यायोथी) अनन्तगुणा छे ।। ४७ ।। तथा मतिअज्ञानना अविषयभूत भावो पण मतिझानमा विषयवाळा होवाथी अने विशेष स्पष्ट होपाथी मतिबानमा पर्यायो मनिअमानना पर्यायोथी विशेषाधिक छे ॥४८॥ सर्वकाळमा थनारा (सम्बन्धी) सर्व द्रव्य अने सर्वपर्यायोन शान होवायो केवलज्ञानमा पर्यायो मतिज्ञानना पर्यायोथी अनन्तगुणा छे. ॥४९॥ ए प्रमाणे ज्ञान- स्वरूप क. ॥ इति ज्ञानद्वारम् ॥ ॥ अवग्रहादीनां स्थिति मानयन्त्रम् ॥ (श्लो०७०७) अषप्रहादि || সময় খিনি उत्कृष्ट स्थिति उपयोग | मालिकानो व्यञ्जनायग्रह | असंख्यातमोभाग | उवासपृथक्ष नै अर्थावग्रह समय । १ समय दर्शन पत्र अर्थावर अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त दर्शन हा अन्तर्मुहुर्त । अन्तर्मुस दर्शन अपाय ज्ञान अधिच्यति धारणा माम षासमा धारणा संख्यात या असंख्यातकाळ (स्मृतिकारण) स्मृति धारणा अन्तर्मुहत शान Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४) || ज्ञानद्वारविचारयन्त्रकाणि ॥ ॥ मतिज्ञानना २८ भेद । (स्पर्शेन्द्रिय मतिज्ञानना ५ भेद) १ स्पर्शेन्द्रिय व्यञ्जनवह २ स्पर्शेन्द्रिय अर्थामह 3. स्पर्शेन्द्रिय ईडा ४ स्पर्शेन्द्रिय अपाय ५ स्पर्शेन्द्रिय धारणा ( रसनेन्द्रियमतिना ५. भेद) १ १ रसनेन्द्रिय व्यंजना २ रसनेन्द्रिय अर्थावद ३ रसनेन्द्रिय ईहा ४ रसनेन्द्रिय अपाय ५ रसनेन्द्रिय धारणा (न्द्रिय मतिना ५ भेद ) श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनात्रग्रह श्रोत्रेन्द्रिय अर्थागमह श्रोत्रेन्द्रिय ईहा श्रोत्रेन्द्रिय अपाय श्रोत्रेन्द्रिय धारणा (मनोऽनिन्द्रिय मतिना ४ भेद) १ मनोऽनिन्द्रिय अर्थावग्रह २ मनोऽनिन्द्रिय ईहा ३ मनोऽनिन्द्रिय अपाय ४ मनोऽनिन्द्रिय धारणा ॥ श्रुतज्ञानमा १४ भेद | (श्लो० ७७४) ( घ्राणेन्द्रिय महिना ५. मेद ) १ घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह २ घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह ३ घ्राणेन्द्रिय ईंहा ४ घ्राणेन्द्रिय अपाय अक्षर श्रुत १ संज्ञाक्षर, २ व्यंजनाक्षर, ३ लब्ध्यक्षर १ चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह २ चक्षुरिन्द्रिय ईहा ३. चक्षुरिन्द्रिय अपाय ४ चक्षुरिन्द्रिय धारणा १ २ ३ ४ ५ २ घ्राणेन्द्रिय धारणा (चक्षुरिन्द्रिय मतिना ४ भेद) ३ ४ द्वार अनक्षर श्रुत संज्ञि श्रुत असंशि श्रुल ? Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) सम्यक्त ६ मिथ्यात ७ सादिश्रुत ८. अनादिश्रुत सान्तश्रुत १ पर्यायश्रुत २ ३ १० अनन्तश्रुत ११ गमिकश्रुत १२ अगमिकश्रुत १३ अंगश्रुत १४ अंगवाल श्रुत || श्रुतज्ञानना २० भेद || (श्लो० ८९९) ११ अनुयोगश्रुत १५ अनुयोग समासश्रुत १३ माभृतप्राभृतश्रुत १४ माभृतमाभृतसभासभत १५ प्राभृतश्रुत १६ माभृतसमासश्रुत ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१२) पर्यायसमासत अक्षरश्रुत अक्षर समासश्रुत पदश्रुत पद समासश्रुत ६ ७ संघातश्रुत ८ संघात समासश्रुत -- १७ वस्तुश्रुत १८ वस्तु समासश्रुत १९ पूर्वश्रुत २० पूर्वसमासत || अवधिज्ञानना ६ भेदो || (श्लो०८३८ ) ४ होयमान ५ प्रतिपाति ६ अप्रतिपाति ९. प्रतिपत्तिश्रुत १० प्रतिपत्ति समासश्रुत १ आनुगामिक २. अनानुगामिक ३ वधमान (४६५) १ आये भेदने यहले तवार्थमां अवस्थित अनवस्थित, भेदी का ले. Te Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वार __॥ नानदारविचारयन्त्रकाणि ॥ ॥ मनःपर्यायज्ञानना २ भेदो ।। ? ऋजुमति मनःपर्याय । २ विपुलमनि मनःपर्याय ॥ अवधिज्ञानमा क्षेत्र--काळनो संवेध ॥ (श्लो० ९०६ ) क्षेत्रथो देखमार काळथी देख? अगल असंख्येय भागमा १ आवलिनो असंख्येय भागकाळ देखे ___ अयगाद द्रव्य देखनार (वृत्तिद्रव्य देखे) २ अङ्गुल संख्येयभाग . २ आवलि संग्ख्येय भाग देखे ३ एक अगुल देखनार ३ किंचिन्यून आवलिका देखें ५ अङ्गुल पृथक्त्व , ४ एक आवलिका , ५ एक हस्त दग्वनार ने एक जन्तर्ग ६ एक गाउ ६ किंचित्न्यून एक दिवस , " ७ एक योजन , ७ दिनपृथक्व ८ पश्चीश योजन , ८ किंचितवन पंदर दिवस ,, ९ भरत क्षेत्र २ संपूर्ण पंदर दिवस १० जंगीप , १० एक साधिक मासा ११ मनुष्य क्षेत्र , ११ एक वर्ष १२ रुचक द्वीप ,, १२ वर्षपृथक्त्व १३ संख्येयद्वीप समुद्र , १३ (१००० वर्ष उपरांतनो) संख्येकाळ अने असंख्येकाळ पण , १४ असंख्यद्वीप समुद्र ,, । १४ असंग्व्य काळ चक्र , ॥ द्रव्यादि वृद्धिनो संवैधयन्त्र ॥ ( उलो. ९२०) कामवृद्धिा --- | द्रश्य, क्षेत्र, भाव(पर्याय)नीद्धि निश्चय, क्षेवदिए-दृव्य अने भाव(पर्याय)नीति अवश्य, अने कालद्धि विकल्प द्रव्यदृद्धिए.- भाव(पर्याय यदि निश्चयथी, क्षेत्र अने कालद्धिनी भजना ५ द्रव्य, क्षेत्र अने काल वृद्धिनी भजना जाणवी पनि Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अष्टसु ज्ञानेषु विषयादीनामेकादशानां वाराणो यन्त्रकम् ।। धान तथा अज्ञान३ द्रव्यथी क्षेत्रथी काळ्थी __ मतिज्ञान आदेशथी सवंद्रव्य आदेशथी लोकालोक आदेशथी प्रणे काळ सर्व अभिलाय तज्ञान अब्यो ( उपयोगथी असंख्यकाळ ) हशे ते ने जाणे-ति शेषः ।। भाष जाणे पण अनंतकाळ पहेलो था पछी आ पदार्थ केषा स्वरूपं हती के तशानी सामान्यथी प्रणे काळ आणे पण उपयोग पूर्वक असंख्य काळना अबधिमान जध- भाषा तंजस बच्चेना पुद्रल| ज०-अंगुलनो अमंख्यातमी भाग | जब आघालीनो असंगातमा भाग भून-भविष्य "| उ.-सर्व पुद्गलो. उ-असंख्य लोकाकाश (शनिथी)| उ०-प्रसंयकाळसक भूत भविष्य ऊच-ज्योतिषना उपरितल भाग सुची मनः पर्यष - मनरूप परिणमैल इच्छा. जघ-पल्यासम्न्यग्र गम भून भविष्यनी अधः-अधोग्राम तिर्यक् २। अंगुलाधिक पुष्कराय सुधी. |. केवळज्ञान! कपि-अपि सर्व प्रख्य सर्वक्षेत्र लोफालांक प्रणे काळ संपूर्ण ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २११) (४) - मतिअज्ञान स्वविषयगत द्रव्य म्यविषयगत क्षेत्र स्वविषयगत काळ (६) धृत अशान | स्वविषयगत अभिलायतव्य विभङ्गमान रूपविषयगत पुद्गलद्रव्य (GDR) (८) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावी जाणे देखे प्रमाणी भद | मकाळे वीजा क पा जान होय! (") १ अनन्तमा भागना पर्याय, अथवा ] औदयिकादि सर्वभाव जाणे देचे परोक्ष १ श्रत. अथरा २१: अवः पा ३ अ. मना. वा. १० म. मनः २ सर्व अभिलाग्य पर्याय अथवा औदायिकादि पर्याय जाणे देखे १४-२०] १ मति अथवा २ मा अव.. वा ३म) मन.. वाम० अ० मन०. ३ प्रतिव्रज्यना असंख्य सर्व मली अनन्त (अनन्तमा भागना) जागे देखे प्रत्यक्ष १ म. प्र.. अथवा २ म. श्रु. मन.. ४ अनन्तमा भागना अनन्त पर्याय (मनोवर्गणाना) जाणे देते ॥ शानदारविचारयन्त्रकाणि ॥ २ । १ म. श्री. अयचा २ म.) क्षु अब) ! सय पर्याय. जाणे देवे ७ अथवा शक्तिधी म० श्रु. मन पण ६ सविषयगत पर्याय. जाणे देखे परीक्ष २८ । १ अत अकान अथवा २ : अ विम जाणे देखे १३-२०१मति अज्ञान. अयथार मति अविभ०|| जाणे देखे प्रत्यश्न १ मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, (द्वार Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति (4) | अन्तर पा विरहकाल [२] स्वाभि यि अल्पबन्ध(१८)स्वपर्याय आश्रयि अल्पबहुत्व[११ जधः-अन्तमु अव०-अन्तर्मुहत उ:-देशोन अध पुरलपराषत अवधियो विशेषाधिक ३ | मतिअज्ञानथी विशेषाधिक उ०-६६ सागरांपम ७ : जय -समय मतिमानी शुल्य [३] अन्तअज्ञानथी विशेषाधिक ५ मनःपर्यत्रीथो असंख्यगुण २ | विभङ्गयो अनन्तगुणा ३ || अघ-६ समय १०-८ वर्ष ७ मास म्यून पूर्वकोद वर्ग (देशोनपूचकोटि सर्वथो अल्प मर्वयी अल्प ॥ श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१२) । सादि अनन्त अन्तराभाद विमङ्ग यी अनन्तगुण ५ | मतिज्ञानथी अनन्तगुण ८ उ-भव्यने अनादि सान्त अथवा पुनलपरावर्त, अभब्यने नादि अनन्त अष-अन्तमु० उल-साधिक ६६ सागर केवलीथी अमरतगुण ६ | श्रवज्ञानयी अनन्तगुण ६ मतिअहानी दुल्या अवधियी अनन्तगुण मघा-६ समय सागर जघ०-अन्तमु उ वनस्पतिकाल | जल-देशान पूर्वको वर्वाधिक ३३ | आरन्यमयेयभाग पुलपरावर्त) मतिझानीयो असंख्यगुण ४ | मनःप० थी अनन्तगुण २ मतिज्ञानना अपमहादि भेदो भयोपशम विचित्रतायी पदस्थान पतित होय छे. अने नयी ने दरेक भेदोना अनन्त प्रकारो चाय छ, हे पटस्थानक पृद्धिप्रकारमा नया हानिप्रकारमा पमधे प्रकारे छ, अ पदस्थानको अन्यत्र पण विशेषोपयोगि होचायो | Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- - - - । (४६०) ॥ बानबारे प्रसङ्गायात पट्रस्थानकनिरुपणम् ॥ (बार तनु स्वरूप नीचे प्रमाणे जाणवू. अहों वृद्धि के प्रकारनी छे. गक भागवृद्धि अने चीजी गुणवृद्धि. तेमांप्रथम भागवृद्धि-पक संख्याने अमुक मरण्याये भाग आपषाथी जे आये ते पधार ते भागवृद्धि कटेषाय देना पण भवी छे, अनन्मभागवृद्धि २ असंख्य भागवृद्धि अने ३ मख्यातभागवृद्धि. २ तथा बीजी गुणवृद्धि-पक संख्याने 'अमुक मख्याये गुणाकार करवायी जे आधे ने धारवु गुणवृद्धि कहेयाय, से पण त्रण प्रकार छ, मंग्यान गुणवृद्धि. १, अमख्यगुणवृद्धि २, अनन्तगुणवृणि ३. आश्रण भागवृद्धि अमें त्रण गुण वृद्धि मळीने छ ये वृद्धि, पटस्थानक कडेवाय छे. तेज प्रमाणे हानि ग्धरूपमा पण हानिपमान कोषास रहे. शास्त्रोमा आधत छयेनु स्वरूप नीचे प्रमाणे. १ अनन्तभागवृद्धि-विधक्षित संख्याने सर्वशीषनो अनन्त मण्याये भाग आपवायी जे आधे नेटलु विवक्षित संख्यामां पधारव ते अनन्तभागवृद्धि कषाय २. अमन्यभागवृति- विक्षित सलयाने असहय लोका काशना प्रदेश राशिये भाग भाषाथी जे आये नेटलुं विवक्षित सहयामां पधारयु से प्रस सय भागन्ति कवाय, ३ मलयातभागवृद्धि-विधक्षित सचाने उत्कृष्ट संग्याताये भाग आपत्राथो जें आवे मेटल विवक्षित संख्यामां बधारबुं ने सङ्खचातभागवृद्धि, कहेवाय. ४ मलयातगुणवृद्धि-विवक्षित सयाने उत्कृष्ट सङ्ग्याताय गुणाकार करवाथी जे आये तेलु विक्षित मायामां अधार से सशपातगुणवृद्धि कदेवाय. ५ असनशातगुणवृद्धि-विवक्षित समयाने अन लश लोकाकाश प्रदेशग. शिये गुणतां जे माये तेलु विक्षित महशामां बधारच ते अमलगातगुणवृद्धि कवाय. ६ अनन्त गुणवृद्धि भिक्षम मलयाने सजीवनी अनन्त सङ्ग्याये गुणाकार करषाथी में आधे तेरटु विवक्षित सयामां वधारधु ने अनन्तगुणवृद्धि वृशिनास्वरूप प्रमाणे हानिन स्वरूप पण जाणयुं मात्र तेमां हीनकरवान शाण. आट झानीमा सहभाविदर्शमी नीचे प्रमाणे जाणघा. मतिज्ञान १ पश्च. अचश्नु, अथपा २ च0 अचः अधधि, Vतज्ञान-मति प्रमाणे अधिज्ञान-१ घ. अच० अब., 11 मनःपर्यायशान-१ चच. अय.. वा ३ च० अधः अवधि || केवलज्ञान- केवलदशन || मतिअज्ञान-म.. अच० अने विभङ्ग होय नो पकमते अवधिन पण. धनसान-मनिअमान प्रमाणे विभङ्गमान-मतिअकास प्रमाण Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७) श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २१३) (४६१) द्विरूपं हि भवेद्वस्तु, सामान्यतो विशेषतः । तत्र सामा. न्यबोधो यस्तइशनमिहोदितम् !! ५९ ॥ यथा प्रथमतो दृष्टो. घटोऽयमिति बुध्यते । तदर्शनं तद्विशेषबोधो ज्ञानं भवेत्ततः ॥ ५० ॥ उपचारनयेनेदं, दर्शनं परिकीर्तितम । विशुद्धनयतस्तचानाकारज्ञानलक्षणम् ॥ ५१ ॥ इदं साकारबोधात्प्रागवश्यमभ्युपेयते । अन्यथेदं किञ्चिदिति, स्यात्कुतोऽव्यक्तबोधनम् ? ॥५२॥ अनेन च बिनापि स्याद, बोधः साकार एव चेत् । तदेकसमयेनैव, श्याद घटादिविशेषचित् ॥ ५३ ।। तथोक्त तत्वार्थवृत्तौ ॥ (२ अ० ९. मू०) “योपचारिकनयन ज्ञानपकारमेन दर्शनमिच्छति, शुद्धनयः पुनरनाकारमेव संगिरते दर्शनं. आ. कारवञ्च विज्ञानं, आकारश्च विशिष्यनिर्देशो भावस्य पर्यायतःप्रोक्तः, स च दर्शनसमनन्तरमेव संपद्यते, अन्तर्मुहर्नकालभावित्वात, आकारपरिज्ञानाच्च प्रागालोचनमवश्यमभ्युपेयम्, अन्यथा प्रथमत एव पश्यतः किमपीदमिति कुतोऽव्यक्तबोधनं स्यात् ?, यदि चालोचनमन्तरेणाकारपरिज्ञानमुत्पादत (नो. स्पाद) एव पुंसः स्यात् तथासत्येकसमयमात्रेण स्तम्भकुम्भादीन् विशेषान गृहणीयात्" इति ॥ (सा० ११३) सामा. न्येनावबोधो यश्चक्षुषा जायतेऽङ्गिनाम् । तचक्षुर्दर्शनं प्राहुस्त. स्यादाचतुरिन्द्रियात् ॥ ५४ ॥ यः सामान्यावबोधः स्याचक्षुवर्जापरन्द्रियः । अचक्षुर्दर्शनं तस्यात. सर्वेषामपि देहिनाम् ॥ ५५॥ तथोक्तं तत्वार्थवृत्तौ ।। (२ अ० ५ सू०) । "चक्षुर्दर्शनमित्यादि, चक्षुषा दर्शनम-उपलब्धिरसामान्यार्थग्रहण,स्कन्धावा न च तथोपलभ्यतं, अपि च समयमपि स गृहणीयान्न च केवलिनमानरेग समयप्रणमस्ति । इति पादपूतिः । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || दर्शनद्वारे दर्शनभेदविचारः ॥ रोपयोगवत्तदर्जातवालदारकनयनोपलब्धिवद्वा व्युत्पन्नस्यापि, अचक्षुर्दर्शनं शेषेन्द्रियैः श्रोत्रादिभिः सामान्यार्थग्रहण" मिति || (सा०२१४) येनावधेरुपयोगे, सामान्यमवबुध्यते । अवधिज्ञानिनामेव, तत्स्यादवधिदर्शनम् ||५६ || यथैवमवधिज्ञाने, भवत्यवधिदर्शनम् । एवं विभङ्गेऽप्यवधिदर्शनं कथितं श्रुते ॥५७॥ अयं भावः ॥ सम्यगृहगवधिज्ञाने, सामान्यावगमात्मकम् । यथेतत्स्यातथा मिथ्यादृग्विभङ्गेऽपि तद्भवेत् ॥ ५८ ॥ नाम्ना च कथितं प्राज्ञेस्तदप्यवधिदर्शन : अनाकारत्वाविशेषनि तत् ॥ ५९ ॥ अयं सूत्राभिप्रायः । आहुः कार्मप्रन्थिकास्तु, यद्यपि स्तः पृथक् पृथक् । साकारेतरभेदेन विभङ्गावधिदर्शने ॥ ६० ॥ तथापि मिथ्या रूपत्वान्न सम्यग्वस्तुनिश्चयः । विभङ्गान्नाप्यनाकारत्वेनास्यावधिदर्शनात् ॥ ६१ ॥ ततोऽनेन दर्शनेन पृथग्विवक्षितेन किम ? । तत्कार्मग्रन्थिकेर्नास्य, पृथगेतद्विवक्षितम् ||६२|| तथोक्तं ॥ "सुत्ते अ विभंगस्स य, परुवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडिसिद्धं, कम्मप्पगडीपगरणंमि? ||६३ || ” ( सूत्रे च विभङ्गस्य च प्ररूपितमवधिदर्शनं बहुशः । कस्मात् पुनः प्रतिषिद्धं कर्मप्रकृतिप्रकरणे ?) (सा० २१५) इत्याद्यधिकं विशेषणत्रत्याः प्रज्ञापनाष्टादशपदवृत्तितश्चावसेयं तत्त्वार्थवृत्तिकृताऽपि विभङ्गज्ञानेऽवधिदर्शनं नाङ्गीकृतं, तथा च तद्मन्थः ॥ ( २ अ० सू० ५ ) " अवधिगावरणक्षयोपशमाद्विशेपग्रहणविमुखोऽवधिदर्शनमित्युच्यते, नियमतस्तु तत्सम्यग्दविस्वामिकमिति । (सा० २१६) सर्व भूतभवद्भाविवस्तुसामान्यभावतः । बुध्यते केवलज्ञानादनु केवलदर्शनात् ॥ ६४ ॥ , (४६२) भार Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१७) आदौ दर्शनमन्येषां ज्ञानं तदनु जायते । केवलज्ञानिनामादौ, ज्ञानं तदनु दर्शनम् ॥६५॥ अत एव ' सवन्नृणं सङ्घदरि सोण' मिति [ सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः ] पठ्यते ) स० २१७) || (४६३) " अर्थ - २७ दीनद्वारम् || सामान्यथी अने विशेषथी एम वस्तु वे स्वरूपवाळी छे, त्यां वस्तुमा रहेका सामान्यस्वरूपलो जे बांध ते अहिं दर्शन कहे है ॥४९॥ जेम प्रथमज देखतां आ घट " एवो जे बोध थाय छे ते दर्शन, अने त्यारबाद जे (द्रव्यथी माटीनो- सुवर्णेनो- रुपानी इत्यादि क्षेत्रथी सौराष्ट्रनो - गुजरान नो - मारवाडी इत्यादि, काळी शरद् हेमन्त शिशिरऋतुनी इत्यादि अगर एक दिवस वे दिवसनी इत्यादि भावथी रक्तवर्णनो, नीलवर्णनो, वर्तुल-लम्बगोळ इत्यादि अनेक स्वरूपे) विशेष स्वरूपनी बोध थाय ते ज्ञान कहेाय है ॥५०॥ आदर्शन ते बंगचार (व्यवहार) नय बड़े कहे, अने विशुद्ध, निश्वय) नयथी नां दर्शनने अनाकार ज्ञानरूपज कल के ॥ ५१ ॥ आ दर्शन ते सरकार (विशेष) बोध या पहेला अवश्य अङ्गीकार कराय हे ( मनाय के ), नहितर कंक है " एका प्रकारनो अस्पष्ट बोध क्यांथो थाय ? ॥ ५२ ॥ बळी ए दर्शन विनापण जो साकार बोध ज धतो होय तो एकज समयमां घटादि विशेष स्वरूपनो बोध यह जाय || १३ || ते प्रमाणे तच्चार्थवृत्तिम कछे के " वळी (उपचारने माननार) व्यवहार नय ज्ञानना (साकार) प्रकारने दर्शन माने हे. अने शुद्ध निश्चय नय तो अनाकारतेज दर्शन माने है, अने आकार सहित (साकार) बोध ने तो ज्ञान छे, अने आकार पटले पर्यारथी पढ़ार्थनो जे आ . १ 'आ घर छे' एवं ज्ञानपण साकारस्वरूप दोषाश्री ज्ञान ज से छर्ता आगळ थता विशेष ज्ञाननी अपेक्षाये सामान्य स्वरूप होवाथों ज्ञानमा दर्श नमो आरोप करषों ते उपचार, 'अतद्वति तदारोप उपचार: जेमां से न होय तेमां नैनी आरोप करषो ने उपचार. २ अर्थात् आकार पटले पदार्थना पर्यायीरूप जे विशेष स्वरूप नं. मिकाय नयथी तो " आ घट छे" एवो सामान्य बोध पण ज्ञानरूप छे. कारणक दर्शनरूपे तो " आ घर छे " एयो निश्चय बोध ( अपायांश न होय पण आ कंडक पथों अर्थामरूप बांध हो शके तेज निश्वयथां दर्शन कही शकाय अने "आ घट " ए निश्चयबोध से व्यवहारथी दर्शनरूप कवाय Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (द्वार (४६४) ॥ दर्शनबार दर्शनभेदविचारः ।। विशेषपणे करीने निर्देश ते (आकार) कहेल छे. अने अन्तर्मुहूर्त का थवाचाळो होवाथी ने (आकार, दर्शन पछी ज थार के. अने आकार विज्ञान यया पहला आलोचन ( "आ कंइफ छे" एवा विचाररूप दर्शन ) ज्ञान तो अवश्य अङ्गीकार फर जोइय, नाहितर "आ कडक छे" एवो अस्पष्ट बोध प्रथमधीज जोनाग्ने क्यांधी होय ! बळी जो आलोचन (दर्शन) विनाज मनुष्यने [जीवने] आकार ज्ञान उत्पनिधी ( प्रथम )ज थाय नी नेम धवाथी पर समय मात्रयां स्तम्भ कुम्भ वगैरे विशेष स्वरूपने ग्रहण करे [ परन्तु ते इष्ट नथी माटे प्रथम आलोचन थया बाद ज आकारज्ञान स्वीकार-इति भावः ] पाजीओने चक्षुबडे जे सामान्य अवोध थाय ने यक्षुर्दर्शन का छे. ने ते चतुरिन्द्रिय जीवोथी मारम्भीने (पञ्चन्द्रिय सुधीना छद्मस्थ जीवोने) होय है ॥५४॥ नथा चक्षु शिवायनी बीजी इन्द्रियोवडे जे सामान्य योच थाय ने अचक्षुदर्शन म (कंवलि शिवाय) जीव मात्रने होय. ॥५५॥ तस्यार्थयत्तिमां कहधु के केचक्षुदर्शन इत्यादि पटले चक्षुबडे जे दर्शन-उपलब्धि-सामान्य अर्थन (भावमुं) ग्रहण ते चक्षुदर्शन, व्युत्पन्न समजदार पुरुषने पण स्कन्धावार ( पराव नारखेला - - - - - - - ... १ आलोचनाशान "लनण आड़ मर्यादायां आलोचनं दशन परिच्छेदो या सा आलोचना वस्तुसामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूपनामजास्यादिवियुतभ्य यः परिछैदः सा आलोचना मर्यादया भवति (सत्यार्थ १ अध्याय) भावार्थ -आइम. यांदा अर्थमा पटले स्वरूप नाम जाति विगेरेथी रहित (अगर रहितस्वरूप मर्यादाये करीने) नियश (अन्यने बतायु) न करी शकाय तेवा बस्तुना सामान्य धर्मनी जे परिच्छेद (घोध) ते आलोचना कहेपाय, अग्य प्रग्योमा पण का ले के-अस्ति शालोधनाज्ञानं, प्रथमं निर्षिकम्पकम् । बाल. मूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धधस्तुजं ॥१॥ भावार्थ:-चालक अने मुङ्गा विगैरे जेम पोसाना सामने बीजा पासे बोली शकता नयी नेना शत्रुपदले बोली न शकाय अन शुख वस्तुमात्री अस्पन थपेलु पडेल जे निनिकायकशान से मालोचना सान कषाय २ अने सेम तो कसातुं नयी पली समय मात्रमा ग्रहण करे तं पण कालि शिवाय समय मात्रमा ग्रहण था शक महि । प पण अभिष्ट दोष प्रसङ्ग यशे (पूर्तिः । ३ पहाव नाखेला लश्कर पर मजर करतां प्रथम मा लश्कर छपवी सामान्यबोध पाय पण प्रथम समये अस्ति- अश्व--रथ--सुमट-इत्यादि विशेष बोध म धाय. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ॥ श्रीलोकनकाशे हतीयः सर्गः ॥ (सा० २१७) (४६५) सैन्यना-छावणी) विषयक उपयोगनी पेठे अथवा तेज दिवसे जन्मेला नाना बोलफना वधुयी पता बानवत् (अध्यक्तषोधते) चक्षुर्दर्शन जाणधु, अने पोटेन्द्रियादि शेष इन्द्रियोबडे जे सामान्य अर्थनो षोध थाय ते अचक्षुर्दर्शन कहेवाय." जेनावडे अवधिना उपयोगमा सामान्य अर्थ जणाय ते अवषिदर्शन अवधिज्ञानीओने ज होय है ।। ५६ ।। ९ प्रमाणे अम अवधिज्ञानमा अवषिदर्शन होय छे तेम विधजबानमा पण अवधिदर्शन होबार्नु सिद्धान्तमा कहेलं है. ॥ ५७ ॥ तात्पर्य ए छे के-सम्यग्दृष्टिना अवधिशानमा जेवी सामान्य बोधरूपता होय छे. तेवो मिथ्यारष्टिना विमङ्गलाना पण ते सामान्य बोधरूपता होप छ ।।५८। ते माटे पण्डितोए तेने पण अनाकारपणु सरखं होगाथी नामवडे अवधिदर्शनज कहेलं छे, परन्तु विभङ्गदर्शन कहेलुं नथी. ॥५९|| ए सिद्धान्तनो अभिपाप कसो, अने कर्मप्रन्धकारो तो कहे के के-जो के विभाज्ञान साकार अने अवधिदर्शन निराकार होवायी बन्ने मित्र भिम छे. ॥६॥ तोपण मिध्यारूप पणु होवायी विभाशानथी वस्तुनो सम्यक् निश्चय होय नदि, अने अनाफारपणाये करीने (अस्य) विभज्ञानीने थयेला सामान्पाक्योधरूप अवधिदर्शनयी पण वस्तुनो सम्यग निअय यतो नथी ।।६१॥ तेयो आ [विभाजान माटे मानेला] दर्शनने न्दु कद्देवावडे करीने ( फळ १ ), ते हेतुथी कर्मग्रन्थकारोए ए विभाज्ञानीने जदुं दर्शन कईचा इच्छेल नयी ॥६॥ कई छे के-"सिद्धान्तमा विभाज्ञानीने घणे ठेकाणे अवधि दर्शन कडेल छे, परन्तु कर्मपकृति प्रकरणमा ते शा माटे निषेध्यु के ?" इत्पादि अधिक विस्तार विशेषणवती प्रथधी अने पमवणाजीना १८ मा पदनी धृत्तिषी जाणवी. तत्यार्थत्तिकर्ताए पण विभागानमां अवधिदर्शन स्वीकार्यु नपी तेना पाव आ प्रमाणे-"अवधिदर्शनावरणकर्मना क्षयोपशमयी पदार्थना विशेष स्वरूपने प्राण करवामां विमुख एवो जे अवधिरूप बोध ते अवधिदर्शन कडेवाय, अने तेनो स्वामि निश्चययी सम्यग्दृष्टि जीवन होय " केवळज्ञान थपा पाद (पीजे -. -... -- - -- - - - - - तुर्तगा मा मेला शळकना चक्षु उसयतां मधु जुषे स्पारे आ मधु काक में पक्षो मस्पष्ट पोध होय पण दरेक बीजने भिन्न भिन्न गाणी शके ना २ मळो पज तत्वार्थ सूनी बोजा अध्यायनी अवमा सूचनी टीकार्य स्पष्ट करी दीधु छ के-'अवधिदर्शन सम्यग्वष्टेरेव न मिध्यादृष्टे: अवधिरशन सम्यग्दृष्टिने अहोय मिथ्यावृष्टिने नहि, पटके के विमनमानि चक्षुर्वशम अने भानुदर्शन श होय । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) ॥ दर्शनबारे दर्शनभेदनिरूपणम् ॥ बार समये ) केवळदर्शनथी भूतकाळना-दत्तमानकाळमा-अने भविष्यकाळना .पदार्थोने सामान्य भावथी सर्व प्रकारे जाणे (ते केवळदर्शन कहेवाय इति शेषा) ।।६।। (सर्व सिवाप) पीजा (उपस्थ ) जीवोने प्रथम दर्शन उत्पन्न याय, अने त्यारवाद ( अन्तर्मु० बाद ) ज्ञान उत्पन्न याय है, अने सर्वहोने प्रथम (पहेले समये) ज्ञान अने त्यारवाद (बीजे-चोथे-छट्टे इत्यादि की समये) दर्शन उत्पन्न थाय छ १६६।। ए हेतुथीज (श्रीभगवतीजी आदिमा पण) सन्चानूर्णसर्वज्ञानीने अने सव्वदरिसीण-सर्वदर्शनीने एवो ( अनुक्रम ) पोलाय छे. प्रज्ञप्ताःसर्वतः स्तोका, जन्तवोऽवधिदर्शनाः। असंख्यगुणितास्तेभ्यश्चक्षुर्दर्शनिनो मताः॥६६॥अनन्तगुणितास्तेभ्यो,मताः केवलदर्शनाः। अचक्षुर्दर्शनास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणिताधिकाः॥१७॥ कालश्चक्षुर्दर्शनस्य,जघन्योऽन्तर्निकम् । सातिरेक एयोगशिसहस्रं परमः पुनः॥६॥अचक्षुर्दर्शनस्यासावभव्यापेक्षया भवेत् । अनाधन्तोऽनादिसान्तो,भव्यानां सिद्धियायिनाम्।६९/जघन्ये- १ नैकसमयः,स्याकालोऽवधिदर्शने। उत्कर्षतो द्विः षट्पष्टिर्धियःसाधिका मताः॥७०॥ज्येष्ठो नन्ववधिज्ञानकालः षट्पष्टिवार्धयः।अवधिद[धेर्दर्शने तर्हि, यथोक्तो घटते कथम् ॥७१॥अत्रोच्यते ॥ अवधौ च विभड़े चावधिदर्शनमास्थितम् । ततो द्वाभ्यां सहभावायुक्तः सोऽवधिदर्शने॥७२॥अत्र बहु वक्तव्यं तस्तु प्रज्ञापनाष्टादशपदवृत्तितोऽबसेयं ॥कालः सादिरनन्तश्च, भवे. केवलदर्शने । एषु कस्याप्यनादिवं, नाचक्षुर्दर्शनं विना ।।७३ ॥ इति दर्शनं २७ । चतुष्टयो दर्शनानां, व्यज्ञानी ज्ञानपञ्चकम् ।। अमी द्वादश निर्दिष्टा, उपयोगा बहुश्रुतैः ॥ ७४ ॥ ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रयं साकारका अमी । उक्ताः शेषास्त्वनाकाराश्चतुर्दर्शनलक्षणाः ॥ ७५ ॥ इत्युपयोगाः २८ । अर्थ-दर्शन- अल्पबाहुत्व अने काळनियम-सर्वधी अल्प प्राणीमो अवधि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २१७) (४६७) दर्शनवाला कया छ, अने तेथी असंख्यगुणा चक्षुर्दनिवाळा कसा के ३।। ६ ।। तेथी अनंतगुणा केवळ दर्शनवाया, अने तेथी पण अन्नगुणा अधिक अचक्षुदर्शनवाला जीवो कया छे. ॥ ६८ ॥ चक्षुदर्शननो फाळ जघन्यथी अन्तर्मु०, अने उकृत्यो साधिक १००० ( हजार ) सागरोपम ॥ ६९ ।। अचक्षुर्दशननो काळ अभव्य जीवनी अपेक्षाए अनादि अनन्त, अने मोक्षे जनारा भव्य जीवोनी अपेक्षाए अनादि सान्त जाणवो ॥७॥ अवधिदर्शननो काळ जघ० ? समय छे, अने उत्कृष्टथी साधिक १३२ (-६६-६६) सागरोपम मानेला २.७१|| शंका-अरविज्ञाननो काळ उत्कृष्टथी ६६ सागर छे तो अवधिदर्शननो काळ तेटलो (१३२ सा०) केम घटी शके ? उत्तर-अवधिदर्शन ते (सिद्धान्ताभिप्राये ) अवधिज्ञानमा अने विभक्तज्ञानमां पण रहेल, नेथी बन्नेना सहभावथी अवधिदर्शननो कहेलो नेटलो काळ युक्त ज छे. अहि घणु कहेवानुं छे ते प्रज्ञापना मूत्रनी १८ मा पदनी वृत्तिमाथी जाणवू. । ७२शा केवनदर्शननो काळ सादि-अनन्त , ए चारे दर्शनमा अचक्षुदर्शन विना कोइपण दर्शनने अनादि पणुं नथी ॥७॥ ए प्रमाणे दलदार स्वरुप मा । इलि दर्शजहारम् ॥ ॥ दशेनद्वारयन्त्रकम् ॥ दर्शन | अल्पपत्य | स्थिति समकाले ज्ञान अवधिदर्शनी असत्यगुण.(२) अघ-अन्तर्मुहत्त. उ.-साधिक २००० सागर ५ भतिभ०००.२मा ०६००वि०मति. मृतमान. ४मश्रू: अब म अमन-६० | भु०० मन० अचक्षुर्दर्शना केवलवर्शनथी अनन्तगुण.(४) अभय ने-अमादि अनन्त भव्यने-अनादि साम्त अवधि दर्शन मयी अल्प जघर-1 ममय उ-साधिक वे छासह [१३२] सागर १ मति-भूत० अब.. २ मति. अत० अ०म) (मतान्तरेण मतिभ्रता अ- वि०) केवलदर्शन चक्षुदर्शनयी - अनन्तगुण. (३ सादि अनन्न १ कंवलज्ञान १ प्रथम ६६ सागरोपम सुधी क्षयोपशम सम्यक्त्व पूर्वक अधिज्ञान का यम रहोने अन्तर्मुहूर्त मिश्रसम्यकत्व पामतां विभङ्गशाम गणाय, ने पुनः ६६ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६८) ॥ उपयोगवार- आहारकशारनिरूपणम् ॥ (दार २८ उपयोगबारम्-चार दर्शन-त्रण अज्ञान-ने पांच ज्ञान र १२ उपयोग पहुश्रुतधारीओए कहेला छे ।। ७४ ॥ तेमां पांच ज्ञान अने प्रण अज्ञान ए आठ उपयोग साकारोपयोगरूप, अने शेष चार दर्शनने अनाकारोपयोगरूप कहेला २ ॥ ७५ ।। ए प्रमाणे उपयोगर्नु स्वरूप कर्पु. ॥ इति उपयोगद्वारम् ॥ आहारकाः स्युश्छद्मस्थाः, सर्वे धक्रगतिं विना। त्रिच. तुःसमयान्ता स्यात्तत्रानाहारितापि च ॥७६।। गतिढ़िधा हि जन्तूनां, प्रस्थितानां परं भवम् । सरला कुटिला चापि, नत्रैकसमयाऽऽदिमा ॥७७॥ उत्पत्तिदेशो यत्र स्यात्समश्रेणिव्यवस्थितः । तत्रेकसमयेनैव, अजुगत्याऽसुमान ब्रजेत् ॥७८॥ परजन्मायुराहारौ, क्षणेऽस्मिन्नेव सोऽभुते । तुल्यमेतदृजुगुतो, निश्चयव्यवहारयोः ॥७९॥ द्वितीयस्मयेऽनुज्च्या, व्यवहारनया श्रयात् । उदेति परजन्मायुरिद तात्पर्यमत्र च ॥८०॥ प्राग्भवान्त्यक्षणो वक्र(का)परिणामाभिमुख्यतः । कैश्चिद्रक्रादिसमयो, गण्यते व्यवहारतः ॥८॥ ततश्च-भवान्तराद्यसमये, गते त्वस्मिन् द्वितीयके । समये परजन्मायुरुदेति खल तन्मते ॥८।। यदाहुः॥"उज्जुगइपढमसमए परभवियं आउअं तहाऽऽहारो। बक्काइ बीअसमए परभविआउं उदयमेइ॥३॥" (ऋजुगतिप्रथमसमये पारभविक आयुस्तथाऽऽहारः। वक्रायां द्वितीयसमये पारभविकायुरुदयमेति)(सा०२१८)निश्चयनयाश्रयाच्च ।संमुखो. ऽङ्गी गर्यद्यप्यन्त्यक्षणे तथापि हि। सत्त्वात्याग्भवसंबन्धिसं. - -- - - - सागरोपमनु भयोपशम सम्यकस्य प्राप्त थनां अवधिनान याय न्याग्थान अयश्य मिथ्याल्ये या मोक्षे असा अवधि अने विभङ्गनी पण अभाष थाय, ना में प्रमाणे बन्ने ज्ञाममां मळीने अन्तर्मुहूर्त अधिक १३२ सागर भवधिदर्शननो काळ गणाय. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 २९मुं) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१९) (४६९) घातपरिशाटयोः ॥ ८४॥ समयः प्राग्भवस्यैव (ष), संभवेन्न पुनर्गतेः । प्राच्यान्सर्वशादोऽग्रथभवाद्यक्षण एव यत् ॥ ८५॥ ' परभवपढमे साडो ति आगमवचनात् ॥ [सा०२१९] उदेति समयेऽत्रैव, गतिः सह तदायुषा । ततोऽन्यजन्मायुर्वक्रगतावप्यादिमक्षणे ॥ ८६ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ तत्र संघातपरिशादस्वरूपं चैवमागमे ॥ संघातः परिशादश्व, तौ द्वौ समुदिताविति औदारिकादिदेहानां प्रज्ञसं करणत्रयम् ॥८७॥ सर्वात्मना पुगलानामाद्ये हि ग्रहणं क्षणे । (सर्वात्मनोत्पत्तिदेहक्षणे हि ग्रहणं भवेत् ) चरमे सर्वथा त्यागो, द्वितीयादिषु चोभयम् ॥८८॥ यथा तप्तaापिकायां, सस्नेहायामपूपकः । गृह्णाति प्रथमं स्नेहं सर्वात्मना न तु त्यजेत् ॥ ८९ ॥ ततश्च किञ्चि गृह्णाति स्नेहं किचित्पुनस्त्यजेत् । संघातभेदरूपत्वात्पुद्गलानां स्वभावतः ॥ १९०॥ तथैव प्रथमोत्पन्नः प्राणमत्प्रथमक्षणे | सर्वात्मनोत्पत्तिदेशस्थितान् गृह्णाति पुद्गलान् ॥ ९१ ॥ ततश्चाभवपर्यन्तं, द्वितीयादिक्षणेषु तु । गृह्णंस्त्यजंश्च तान् कुर्यात्, संघातपरिशादनम् ॥९२॥ तत आयुः समाप्तौ च भाव्यायुः प्रथमक्षणे । स्याच्छाट एव प्राग्देहyहलानां न तु ग्रहः ||१३|| औदारिकवैक्रियाहारकेषु स्युनयोऽप्यो । संघातपरिशाटः स्यातैजसे कार्मण सदा || ९ || अनादित्वाद्भवेन्नैव, संघातः केवलोऽनयोः । केत्र - लः परिशाटश्च संभवेन्मुक्तियायिनाम् ||२५|| अत्र च भूयान् विस्तरोऽस्ति स चावश्यकवृत्त्यादिभ्योऽवसेयः ॥ ་ अर्थ- आहारद्वारम् सर्वे छमस्थजीवा आहारक ज हाय है, अने ते वऋगतिमां पण त्रण अनाहारकपणुं रहे के. ॥ ७३ ॥ परभवमां प्रयाण WAP...... गतिमां न वर्तता होय ते बबने अथवा चार समय सुधीज करतां जीवोनी सरल अने Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७०) ॥ आहारकहार-यासङ्गिकसंघानादिनिरूपणम् || द्विार कुटिल (ऋजुगति अने वक्रगति ) एम चे मकारनी गति होय छे, त्यां पहेली - ऋजुमति एक समय पमाणनी के ॥ ७७ ॥ ज्या जीवने उपसवान स्थान समश्रेणिए रहेल होय त्यां जीव ऋजुगतिकडे एकज समयमां जाय ॥ ७८ ॥ अने तेज समये ते जीव परभवर्नु आयुष्ययेदे अने परभवनो आहार करे. आ ऋजुगतिमा निश्चय अने व्यवहार बन्नेनो मत एक सरखो के. ॥ ७९ ॥ अने पक्रगति मां बीजा समये व्यवहार नयनी अपेक्षाए परभव- आयु 'उदय आवे. अर्हि तास्पर्य आ प्रमाणे हे के-।। ८० || स्क्रगतिना सन्मुखपणानी अपेक्षाए पूर्वभवना छल्ला समयने व्यवहारथी केटलाएक आचार्य वक्रगतिनो प्रथम समय गणे छे ।। ८१ ॥ अने तेथी नेओने मते परभवनो प्रथम समय व्यतीत यया बाद आ वीजा समयमा निश्चय परभरर्नु आयुष्य उदय आवे छे. ॥ ८२ ॥ कथु छे के-जुगतिना प्रथम समये परभवनुं आयुष्य अने आहार उदय आवे छे, वक्रगनिमां बीजे समये परभवनुं आयुष्य उदय आवे ॥ ८३ ।। ॥ अने निश्चयनयनी अपेक्षाए तो जीव जो के ( पूर्वभवना ) अन्त्य समये (वक) गतिनी सन्मुख छे तो पण (ते समये) पूर्वभव सम्बन्धि सहनत अने परिशाट होवाथी ।। ८४ ॥ ते समय पूर्वभवनोज संभवे हे पण ( वक्रादि ) गतिनो नहि, कारणके पूर्वभत्र सम्बन्धि शरीरनो सर्वाश परिशाट अग्रभवना प्रथम ममयेन डोय २. ॥ ८५ || कारणके "परभवना प्रथम समये एकलो परिशाट होय' ए प्रमाणे सिद्धान्तनु वचन होत्राथो एज समये ते आयुष्य सहित गति उदय आपे थे, माटे परभवन आयुष्य तो वक्रगतिमां पण प्रथम समय ज उदय आवे छे. ॥८६॥ हवे स्यां सिद्धान्तमा सङ्कात अने परिशानुं स्वरूप आप्रमाणे -संघात १,परिशाट २,अने संघात परिशाट ३, समुदित पणे-एम ३ फरण (क्रियाभेद) औदारिकादि शरीरमां कहेलां के ।। ८७ ।। त्यां प्रथम समये सर्व आत्मपदेशो वडे (वा सर्वथा) पुद्गलोर्नु ग्रहणज मात्र होय छे, अन्त्य समये स था त्यागज होय है. अने वीजा विगैरे समयोमा संघात अने परिशाट बेउ साथे थाय छे. ॥ ८८ ॥ जेम तपी गयेली तेल या घीवाळी कहाइमां ( था तवीमां ) नाखेली पूरी ( वा पृडलो तेल वा घीने प्रथम सर्व बाजूथी ग्रहण करे थे, परन्तु त्याग करे नहि ।।८९॥अने त्यारबाद किश्चित् तैलादि ग्रहण करे अने किंचित् स्याग करे, कागणक पुलोनो स्वभावज मलवा अने विखरवारूप छे । ९० ॥ तेवीज रोते १ अने आहार तो पफगतिना योजा श्रीजा अने चोथा समयमा अनाहारकपणु होयाथी न होय एम अध्याहारथी जाणवू. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९) ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० २१८) (४७१) प्रथम उत्पन्न थयेलो जीव प्रथम समये सर्वात्मावडे उत्पत्ति स्थानमा रहेला पुत्रलोने ग्रहण करे ।। ९१ ।। अने त्यारबाद आखा भव सुधी बीजा त्रीजा समयोमां ते पुद्गलोने ग्रहण करतो अने त्याग करतो छतो संघात अने परिभ्राट बन्ने करे || ९२ || माटे पूर्वनुं आयुष्य समाप्त थतां परभवायुना प्रथम समये पूर्वभव सम्ब न्धि शरीर उहलोनो केवळ शाट ( त्याग ) ज होय ले पण ग्रहण नहिं. ॥ ९३ ॥ यां औदारिक- वैयादि - अने आहारक ए त्रण शरीरमां ( संघातादि ) त्रणे करण प्रवत्त छे, अने तेजस फार्मण ए मां सदाकाळ संघात परिशाट (समुदित पणे ) . ॥ ९४ ॥ ए वे शरीरं अनादिपणुं होवाथी केवळ संघात होतो नथी परन्तु मोक्षे जनारा जीवोने केवळ परिशाद तो संभवे ॥ ९५ ॥ आ स्थाने घणो विस्तार छे ते आवश्यकवृत्त्यादिधी जाणवो. अथ प्रकृतं ॥ वा गतिश्चतुर्धा स्याद्वरेकादिभिर्युता । तत्राया क्षणैकैकक्षणवृद्धया क्रमात्पराः ॥ ९६ ॥ तथाहि ॥ यदोर्ध्व● लोकपूर्वस्या अधः श्रयति पश्चिमाम् । एकवक्रा द्विसमया, ज्ञेया वा गतिस्तदा ॥ ९७ ॥ समश्रेणिगतित्वेन, जन्तुरेकेन यात्यधः । द्वितीयसमये तिर्यगुत्पत्तिदेशमाश्रयेत् ॥ ९८॥ पूर्वदक्षिणोर्ध्वदेशादधश्वेदपरोत्तराम् । व्रजेत्तदा द्विकुटिला, गतिस्त्रिसमयात्मिका ॥ ९९ ॥ एकेनाधस्समश्रेण्या, तिर्यगन्येन पश्चिमाम् । ति येगेव तृतीयेन, वायव्यां दिशि याति सः ॥ ११९०० ॥ त्रसानामेतदन्तेव, वा स्यान्नाधिका पुनः । स्थावराणां चतुःपञ्चसमयान्तापि सा भवेत् ॥ १॥ तत्र चतुःसमया त्वेवम् ॥ त्रसनाTafeरधोलोकस्य विदिशो दिशम् । यात्येकेन द्वितीयेन, सनाडयन्तरे विशेत् ||२|| ऊर्ध्वं याति तृतीयेन, चतुर्थे समये पुनः । नाडा विनिर्गत्य दिश्यं स्वस्थानमाश्रयेत् ||३|| दि. शो विदिशि याने तु, नाडीमाये द्वितीयके । ऊर्ध्वं बाधस्तृतीये तु, बहिः विदिशि तुके ॥ ४ ॥ यदोक्तरीत्या विदिशो, जायते 5 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ औदारिकादिदेहेषु संघातादिकरणसत्कदादशवारयन्त्रकम् ।। शरीरना | सर्व संघात | सर्व परिशाट संघातपरिशाटो भयाभाव हापरिशाटकाल संधान परिशाटोमय क्यारे क्यारे होय भय क्यारे दोय| क्यारे अघन्यकाल (४७२) सघातकाल भाम. औदारिक उत्पत्ति प्रया शरीरस्याग समये मध्यमवति | विप्रगती क्षणेषु | १ समय | ! समय ३ 'समयन्यून शुरुळकभव विक्रिय उत्पति स्यमई शरीरम्याग १ समय | 'समय समये क्षणेषु २ समय आहारक | उत्पत्ति प्रथम शरीरस्याग मध्यमवति । तद्विरहकाले १ समय | १ समय क्षणेषु | अन्तर्मुहत ॥ संघातादिकरणयन्त्रकम् ।। अणे समये | . शैलेशीचरम अयोगिनं मुदत्वा सिजन्ये समये १ समय | अनादिसान्त कार्मण शैलेशीवरम भयोगिनं मुक्त्वा सिखत्वे समये 1 सर्वकाल । अनादिसात •ौदारिकशरीरो वैश्यिशरीर प्रारंभे भने तेजसमये काल करी ऋजुगतिये देषगतिमा उत्पन याय त्याये ३समय सर्व संघात माला २. २समय निता अमे १समय संघातमीपसमयहीन क्षुल्लकमा २५६ अपमालिका. २ के समय वेकिय करी मरी देवलो. मी कमां उपजे तो एक समय संघातपरिशाटोभय. (धार Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकोटि आयुष्य औदारिकनुं भोगषभारने. हिमां रही संघात करे तेने जाणवु. ७ तेत्रोश सागरोपम वैकियां रही म्यून शेष पूर्वकोटि संघात परिशादरोभय करो ३३ सागरोपम क्रियमां रही ये समय उत्पन्न बनाने जाणवु ६ पूर्वकोटि आयुष्य वाली एक मंघात समय की एक समय समय पते त्रण समयहीन कथमां संघात परिशाटोभय करी ऋजुगतिये ३-४ एक संघात समयन्यून करवो. ५ वे समय विग्रहना तथा एक संघात ८ संघात परिशाटोभय उत्कृष्ट काल १ समयन्यून ३ पल्योषम १ समग्रहीन ३३ सागरोपम अन्तर्मुहुर्त अनादि अमन्त अनादि अनन्त संघातांतर काल कभत्र "ज० - ३ समयद्दीन शुखउ०- २ समय सहित पूर्व कोटि अधिक ३३ मा ०-१ समय द- वनस्पतिकाल ज० - अन्तर्मुहून उ०- किंचिन्म्यून अर्धगपरावर्त १० परिशातिरकाल ज० - क्षुल्लकभव उ० पूर्वकोटि अधिक ३३ सागरोपम कक्षा - अन्तर्मुहूर्त उ – वनस्पतिकाल ज० - अन्त मुहूर्त - किंचिग्न्यून अर्ध पुगलपरावर्त उ. ११ उभयांतर उभयांतर उत्कृष्टकाल जघन्यकाल १ समय सप्रय अन्यमुहूत ० C ३ मयाधिक ३३ | सागरोपम वनस्पतिकाल किम् अर्ध पुद्गलपरावर्तकाल ० २९) ॥ श्रीलोकाशे वतीयः सर्गः (सा० २१८) (४७३) Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) ॥ आहारकबारे वक्रगतिमेदादिस्वरूपम् ॥ शार विदिशि क्वचित् । तदा तत्समयाधिक्यात्, स्पात्पञ्चसमया ग-: तिः ॥५॥ उक्तं च ॥"विदिसाउ दिसं पढमे बीए पइसरइ नाडि. मज्झमि।उड्ढं तइए तुरिए उनीइ विदिसंतुपंचमए॥६॥(विदिशो दिशं प्रथम, द्वितीये प्रतिसरति नाडिमध्ये। ऊध्र्व तृतीये तुर्ये तु, निरेति विदिशं तु पञ्चमके ॥) इति भगवतीवृत्तौ शतक १४ *प्रथमोद्देशके । (सा० २१९) स्थापनेयम् ।। भगवतीसप्तमशतक प्रथमोद्देशके(वृत्तौ)तु पञ्चसामयिकी विग्रहगतिमाश्रित्येत्थेमुक्तं दृश्यते-" इदं च सूत्रे न शितं, प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति" ( सा० २२० ) ॥ (एकवादिगतिव्युत्पादनम्) अर्थ-हवे चालविषय कहेछे-चक्रगति एकादि वक्रवडे सहित चार प्रकारनी छे,तेमां पहेली बे समयनी अने वीजी सर्व वक्रगतियो अनुक्रमे एकएक क्षणी द्धिवडे जाणवी ॥९६||ते आ प्रमाणे-जीव ज्यारं उर्ध्वलोकनी पूर्व दिशामाथी आवी अशेलोकनी है पश्चिम दिशामां उत्पन थाय त्यारे बे समय प्रमाणनी एकवकागति जाणवी ॥२७॥ कारणके (जीवनी) समणिगति होवाथो जीव एक समये नोचे जाय, अने बीजे समये तिीदिशामा उत्पत्ति स्याने जाय ॥९८।। तथा अवलोकना अग्निखुणामायी अधोलोकना वायव्य खुणामां उत्पन थाप त्यारे त्रण समय ममाण द्विवकागति थाय छे ।। ९९ ॥ कारणके एक समये (ऊर्ध्व लोकना अमिवणामाथी) अधोलोकना (अग्निस्तुणामां) समश्रेणिए (जाय) बीजे समये तिच्छौं पश्चिम दिशामा (जाय) अने प्रोजे समये ति गतिए ते जीव वायव्य खूणामां जाय ॥११००॥ त्रस जीवोनी अहीं सुधीनीज वक्रगति छ, कारणके ए जीवोने एथी ___ * पतच पाहुण्यमतीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि विषही भवेदेकेन्द्रियाणां.सयाहि-त्रालमाढया बहिस्तादधोलोके विदिशो विशं यात्यफेन, द्वितीयेन लोकमध्य. तृतोयेनोपयलोक, चतुन तसस्तिर्यक पूर्वादिदिशो निर्गच्छप्ति, ततः पश्चमेन विदिग्न्यवस्थितमुतात्तिस्थान यातोति ॥ ! अन्ये स्वाहः वकवतुश्यमपि संभवति यदा हि पिदिशो विदिश्येवोत्पयते तत्र समयत्रयं प्राग्वत्, चतुर्थे समये तु नाडीतो मिगस्य समणि प्रतिपचने । पश्चमेन नस्पत्तिस्थानं प्राप्नोति, तत्र घाघे समयचतुष्टये वक्रषसुष्टयं स्यात् , तत्र घानाहारक पति, द ध सत्रे न दर्शितं प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२०) (४७) अधिक समयनी वक्रगति नधी. भने स्थावर जीवोने तो वक्रगति चार अने पांच समय सुधीनी पण होय ॥ स्पा बार सम्पनी वक्रगति भा प्रमाणे-प्रस नाडीनी बहार अयोलोकनी विदिशामांयो दिशामा प्रथम समये जाय, अने बीजे समये त्रस नाहीमा प्रवेश करे ॥ २॥ प्रोजे समये ऊर्ध्वलोकमां जाय, अने चोथे समये त्रस नाडोमांथी निफळी दिशामा रहेला पाताना उत्पनि म्याने जाय ॥ ३ ।। ( ए रीने विदिशाथी दिशामां उपजवानी गनि कही, अने हर्ष दिशामांथी विदिशामा उपजवानी रीत दर्शा छ के-) दिशाधी विदिशामां जनां प्रथम समये ( दिशामांथी निफळी ) त्रस नाडीमा प्रवेश करे, बीजे समये उर्व या अधोलोकमां जाय, त्रीजे समये त्रस नाडीथी बहार निकले, अने चौथे समये विदिशामां उपजे ॥४॥ तथा ज्यारे पूर्वोक्तरीने कोड वग्वन कोइ जीव (नाही बहारनी) विदिशामांथी (निकळी नाडी बहारनी) विदिशामां उपजे नो ने एक समयना अधिकपणाथी पांच समयनी वक्रगति कोइ (कोइ) ठेकाणे कही है. ॥ ५॥ श्री भगवतीजीना १४ मा शतकना १ ला उदंशानी वृत्तिमा "(आ चार समयनी विग्रागनिन स्वरूप बहुलता आश्रयी कहा के. अन्यथा पके. न्द्रियोने पांच समयनी विग्रह पण धाय (संभये), ते आ प्रमाणे अधोलोकमा प्रस नाहीथी बहार) पहेले समये विदिशाथी दिशामां, बोजे समये अस नाडीमां प्रवेश करे, जीजे समये अज़लोकमां, चौथे समये नाडीथी बहार नीकले भने पांचमे समये विदिशामां उपजे. ॥ ६ ॥ " आ प्रमाणे कयुं थे, परन्त नेज श्री भगवतोजीना ७ मा शतकना १ ला उशा ( नी टीका ) मां तो-पांच समयनी विग्रहगतिना सम्बन्धमा आ प्रमाणे कहेले के (बीजाओ तो कई छे के ज्यारे विदिशामांथी विदिशामां ज उन्पन्न थाय त्यारे चार वक्र पण संभवे छे, तेमां त्रण समय पूर्वानी माफक (नाडीनी बहार विदिशामांधी दिशामा पहेले समये, बोजे समये नाडीमा प्रवेश, वीजे समये ऊर्बलोक गमन) भने चोथे समये नाहीथी बहार समश्रेणिमा नाय अने पांचमे समय उत्पनिस्थाने आवे मां पहला चार समयमां चार वक्र थाय अने नेमां अनाहारकप" छ, परन्तु) "आ वात सूत्रमा दर्शावी नयी, प्रायः ए रीने अनुत्पत्ति होवाधी (अर्थात् परीने पांच समयनी विग्रहगतिय प्रायः उम्पत्ति न होय.) १ आनुपू नो उत्कृष्ट उपय घार ममयनो को छ, ने पांच मायनी उत्पत्तिवाली पतषकामां मम . पन माट 'एक बाउनहारकः' ५ मृत्रमा Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६१ ॥ आधारकद्वारे विग्रहगतावनाहारकविचारः॥ हार व्यवहारापेक्षया च,भवेदाहारकोऽसुमान् । गतौ किलैकवक्रायां, समयद्वितयेऽपि हि॥ ७ ॥ तथाहि समये पूर्वे, शरीरमेष उत्सजेत् । तस्मिन्पुनस्तच्छरीरयोग्याः केचन पुद्गलाः ॥८॥ लोमाहारेण संबन्धमायान्ति जीवयोगतः । औदारिकादिपुन्नलादानं चाहार उच्यते ॥९॥ एवमत्राद्यसमये, आहारः परिभावितः । सर्वत्रैव द्विवादावप्याद्यक्षण आहतिः ॥ १० ॥ द्वितीयसमये चासावुत्पत्तिदेशमापतेत् । तदा तद्भवयोग्याणन, यथासंभवमाहरेत् ॥ ११॥ द्विवका तु त्रिसमया, मध्यस्तत्र निराहतिः । आद्यन्तयोः समययोराहारः पुनरुक्तवत् ॥ १२ ॥ एवं च त्रिचतुर्वक्रे, चतुःपञ्चक्षणात्मके । मध्यास्तयोनिराहाराः, साहारावादमान्तिमौ ।। १३॥ यदाहुः ॥ " इगदुतिचउवकासु दुगाइसमएसु परभवाहारो । दुगवक्काइसु समया इग दो तिन्नि उ अणाहारा ॥ १४ ॥ ( एक द्वित्रिचतुर्वकासु द्विकादिसमयेषु परभवाहारः । द्विवकादिषु समया एको हौ त्रयस्त्वनाहारा:) ( सा० २२१ ) निश्चयनये तु ।। भवस्य भाविनः पूर्वे, क्षणे प्राग्वपुषा सह । असंबन्धादनाप्त्या च. भाविनोऽङ्गस्य नाहतिः ॥१५ ।। द्वितीयसमये तु स्वं, स्थान प्राप्याहरेत्ततः । समयः स्यादनाहारः, एकवकागतावपि ॥ १६ ॥ अन्यस्यां द्वावनाहारी, तृतीयस्यां त्रयस्तथा । चतुर्थ्यामपि चत्वारः, साहारोऽन्त्योऽखिलासु यत ।। १७ ।। ततश्च व्यवहारेणोत्कर्पतः समयास्त्रयः । निश्चयेन तु चत्वारो, निराहाराः प्रकीर्तिताः ॥ १८ ॥ सामान्यात्सर्वतः स्तोका, या शुदयी पण समय पण लेखा, पण में बरगजी बोने होय नथो अनेक थले लोधी नथी ।मृषकमावृत्ति ) Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... | पहेली समय .. पीजी समय चियक्रागनि समयनी र गोमुत्राकार . आनन्द प्रो. प्रेस-भावनगर. .. (निष्कट थी) चिदिशिथी मरणस्थान मरणास्थान : अजुन एक समय जी :::: दंडाकार उत्पति स्थान चीजो समय 2 प्रथमसमय दिशिमा पीसोसमय बोथो समय प्रथम समय चतुर्वप्रागनि ५ मायनी" एकवकागति २समयनी . जुगनि एकवक्रा हिवका दि चित्राणि . अ स ना डी मां (३ जो समय) कृपराकार 'बीजो समय 20 ४था समय दिशिमा प्रथम समय (निष्करमा उत्पति स्थान विदिशि हिक्का गति ३ समबनी लागुलाकार . : • मो.समय बीजो समय श्रीजीसमय : Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२१) (४७५) निराहाराः शरीरिणः । आहारका असंख्येयगुणास्तेभ्यः प्र. कीर्तिताः ॥ ११ ॥ (नराभेदेन बाहानाहारहानिचारः) ____ अर्थ-वली व्यवहारनगनी अपेक्षाए एक वक्रा गतिमा बन्ने समये जीव आहारफज होप छे. ॥७॥ ते आ प्रमाणे प्रथम समये आ जीव शरीरनो स्याग करे, अने ते त्याग समये ज पुनः ते शरीरने योग्य केटलाफ पुदगलो जीवना व्यापारथी लोमाधारवडे जीवना सम्बन्धमा आवे, अने जीवना योगयी औदारिफादि (१ शरीरना) पुद्गलोर्नु जे ग्रहण करवं ते आहार कहेवाय छे ॥८ ॥ आ प्रमाणे अहीं एक वका गतिमा पहेले समये आहार विचार्यों एज प्रमाणे सर्व शिवका विगेरे गतिओमां पण पहेले क्षणे आहार जाणवो ॥१०॥ वली बीजे समये ने जीव ज्यारे उत्पत्ति स्थाना आवी पहोचे ते समये पण ते धरने योग्य परमाणुओनो यथायोग्य ( देवनारकभत्रमा क्रियनो मनु पतियचभवमा औदारिकनो इत्यादि यथायोग्य ) आहार करें. || ११ ॥ इथे ट्रिक्कागति त्रण समयनी छे त्यां मध्यनो समय आहार विनानो छे, अने पूर्व कह्या प्रमाणे पहला अने छल्ला समयमा आहार ग्रहण होय छे. ॥१२॥ ए रीते चार समयनी विवक्रागतिर्मा, अने पांच समपनी चतुर्वका. गतिमां तेओना मध्य समयो आहार विनाना अने पहेला छेल्ला समयो माहारवाळा जाणवा ।। १३ ।। माटे कधु छे के-" एफवक्रा-द्विवक्रा-त्रिवत्रा अने चतुर्वक्रागतिमा (अनुक्रमे) बीजादिक ( चीजा-बोजा चोया अने पांचमा ) समयमां परभवनो आहार होय है, अने ( अनुक्रमे ) विवादितियोमा एक चे अने. पण समय आहार विनाना होय छे." ॥ १४ ॥ बळी निश्चय नयमने नो आवता भवना ( परभवना) पूर्वसमयमां[ प्रथम समयमा ] पूर्वभवना शरीरनी साथे जीवनो सम्बन्ध नहिं होयाथी, अने परभवना शरीग्नी इजो माप्ति नहि थवाथी ते समये आहार होतो नथी ॥ १५ ॥ अने बीजे समये पोतान उत्पत्ति म्यान पामीने आहार फरे ले माटे एक वकागतिमां पण ? समय अनाहारी होय छे. १६ ॥ स्यारयाद पीजी (डिवत्रा)मां ये समय अनाहार, त्रीनो (विका)मां पण समय, अने चौथी (चतुर्वका)मां पण चार समय अनाहार होय छे, कारणक सर्व वजागतियोमा छोटो एक समय आहार महिल होप छे. ॥१७ । नेथी व्यवहार नये उत्कृष्टयी त्रण समय अने निश्चयनये ( उलएपी ) चार समय अनाहाग्ना कहेला छे ॥ १८ ॥ सामान्यतः निराहारी जीवो सर्वथी अल्प छे. अने आहा Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ) ॥ आहारहार ओजमादित्रिविधाहारम्वरूपम् ।। (बार गै जीवो तेथी पण असंख्यगुणा छ ॥ १९ ॥ त्रि(वि)विधश्च स थाहारः, ओजआहार आदिमः । लोमाहारो द्वितीयश्च, प्रक्षेपास्यस्तृतीयकः ॥ २०॥ तत्राचं देहमु. स्मृज्य. ज्व्या कुटिलयाऽथवा। गत्वोत्पत्तिस्थानमाप्य, प्रथम समयेऽसुमान ॥ २१॥ तैजसकार्मणयोगेनाहारयति पुद्गलान । औदारिकाद्यङ्गयोग्यान , द्वितीयादिक्षणेष्वथ ॥ २२ ॥ औदारिकादिमिश्रेणारब्धत्वाद्वपुषस्ततः । यावच्छरीरनिष्पत्तिरन्तर्मुहतकालिकी ॥२३॥ युग्मं । यदाहुः "तेएण कम्मरणं आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निप्फत्ती॥ ॥२४॥"(तेजसा कार्मणन आहारयतिअनन्तरं जीवः । ततः परं मिश्रेण यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः।) (सा०२२२)स सर्वोऽप्योज आहार, ओजो देहाहपुद्गलाः। ओजो बा तजसः कायस्तद्रप. स्तन वा कृतः ॥ २५ ॥ शरीरोपष्टम्भकानां, पुद्गलानां समाहतिः । त्वगिन्द्रियादिस्पर्शेन, लोमाहारः स उच्यते ।। २६ ॥ मुखे कवलनिक्षपादसौ कावलिकाभिधः। एकेन्द्रियाणां देवा. नां,नारकाणां च न ह्यसौ ॥२७॥ जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्ता, ओजआहारिणो मताः। देहपर्याप्तिपर्याप्ता, लोमाहाराः समेऽशिनः ॥२८॥ ओजसोऽनाभोग एव,लोमरत्वाभोगजोऽपि च। एकेन्द्रियाणां लोमोऽपि, म्यादनाभोग एव हि ॥२९॥ तथोक संग्रहणीवृत्ती-"एकेन्द्रियाणामतिस्तोकापटुमनोद्रव्यलब्धीनामाभो. १ जी के अनाहरक मिदभगवन्त घिगरे जोधोनी अपनाये आहारक निगोदना जीवी अनन्तगुण छे तोपण मनिगोदमा पक. असंख्यातमो भाग हमेशां विग्रहगतिमा धर्मती होय छे, अने से सर्व अनाहारक के मेथी ने अपेक्षा असायगुण आहारक जोयो कला है.. मूत्रकृतोगनियुक्त मोगणं ति पादः. ३ मतान्तरेण सर्वपर्यापिपाता इति संपहणिवृत्यादी. ४ श्रीचन्द्रीयाया देयमद्रीय १८३ नम गाथावृत्ती. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९मुं] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२४) (४७९) गमान्यावस्तुतोऽनाभोगनिवर्तित एव, (सा०२२३) यदागमः“एगेंदियाणांनो आभोगनिवत्तिए,अणाभोगनिवत्तिए" (एकेन्द्रियाणं न आभोगनिवर्तितः अनाभोगनिर्वर्तितः)इति ।(सा. २२४) द्विक्षणोनो भवः क्षुल्लो, जघन्या कायसंस्थितिः। आहारित्वे गरिष्ठा च, कालचक्राण्यसंख्यशः॥३०॥ इत्याहारः २९ ॥ ___ अर्थ-वली दे आहार लग (जादा नकारनो छ. स्यां हेलो ओजआहार बीजो लोमाहार, अने त्रीजो प्रक्षेपाहार नामनो छे. ॥ २० ॥ तेमा पहेलं (पूर्वभवन) शरीर छोडीने भाजु अयवा वक्रगतिए उत्पत्ति स्थाने जइने जीव पयम समये तेजस (युक्त) कार्मण काय योगवडे औदारिकादि [त्रण] शरीरने योग्य पुद्गलोने ग्रहण करे के, अने बोजा [त्रीजा] विगैरे समयोमा शरीर (रचना) नो प्रारम्भ होवाथी, त्यांथी (वीजा समयथी । यावत् अन्तर्मुहर्त काळ प्रमाणनी शरीरोल्पत्ति सुधी औदारिकादि (वैक्रिय) मिश्रवडे (आहारप्रण) याय ॥२१२२-२३।। कयु छ के-"अनन्तर समये (परभवना प्रथम समये) जीव तैजस(सूत्रः निम्मा 'जोएणं' ए पाठनो पण ज्योत एरले तेजस अर्थ फरवो) कार्मण (काययोग, वडे आहार फरेछे,अने त्यारवाद शरीरनी निष्पत्ति (रचनानी समासि) याय त्या सुधी मिथ (काययोग) बडे आहार करे ॥२४॥ ते सर्व ओजआहार कहेवाय. अहिं ओजम् एटले देहने लायक पुद्गलो, अथवा ओजम् पटले सैजस शरीर, ते रूप ( तैजस भरीररूप ) अथवा तैजस शरीरवडे करायलो (आहार ते ओजाहार) ।। २२ ॥ तथा शरीरोपष्टम्भक (देइने टेको देनार-पददगार) पुद्गलोनो स्पर्शेन्द्रियादि ( त्वचादि )ना स्पर्शवडे जे आहार ( ग्रहण ) कराय ते लोमाहार कहेवाय ।। २६ ।। अने मुखमां कोळीयो नाखवायी जे आहार थाय के ते कावलिकाहार-प्रक्षेपाहार नामनो आहार छे, ए [कवलाहार ] एकेन्द्रिय १ अहिं " स्पर्श रिद्रय" शबपी स्पशेन्द्रिय मति पण स्पर्शनिमयमा आ. पाररूप रखचा अथवा मानिवृत्ति इन्द्रिय ग्रहण करतो, कारणके माहारग्रह णनो संबंध छ, पण स्पर्शज्ञामरूप विषयप्रवणगो गयी. २ एकेम्नियोने मुख न होयाथी, देवताओने मानस अभिलाषयो परिणाम पामेला शुभ प्रन्योरूप आभोगिक आहार सर्षकाय घडे प्राण थाय है, अन तेथीदेवताओने मनोभक्षि कहेला छे, तेथी अने नारकीभोने निरन्तर परिणाम पामेला अशुभ द्रव्योरुप आधार होबाथी सेमीने काबलिक आहार डोती मथा. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८०) ॥ आहारदार भोजसादित्रिविधाहारस्वरूपम् ॥ (द्वार जीवोने-देवताओने-अने नारकजीवोने होय नहिं ॥२७ ॥ सर्वे अपर्याप्तजीवो ओम आहारी, अने देहपर्याप्तिए पर्याप्त (मतांतरे पर्याप्त सर्वजीवो लोमाहाती छे, ॥२८|| ओज आहार अनाभोगिकज (उपयोग रहितज) होय छे, अने लोमाहार आभोगिक (अने अनाभोगिक) पण होय छे. परन्तु एकेन्द्रिपोने तो लोमाहार पण अनामोमिक जछे ॥ २९ ॥ तेज प्रमाणे श्रीसंग्रहणीवृत्तिमा का छे के-" अति अल्प अने अपटु ( अतिमन्द ) मनोदव्यनी लब्धिवाळा एकेन्द्रिय जीवोने आभोगना (उपयोगना) मन्दपणायी वास्तविक रोते अनाभोग निवनित ज (आहार) होय छे. " फारणके सिद्धान्तमा का छे के-" एकैन्द्रियजीवोने आभोग निवर्तित आहार नथी पण अनाभोग निवर्तित आहार छे." आहारकपणानो काळ-आहारकपणामां जघन्यकाल वे सेमयन्यून शुल्लकभव ( २५६ आवली) प्रमाण छे. अने उत्कृष्टकॉल असंख्याता कालचको प्रमाण जाणतो. ॥१३॥ ए प्रमाणे २९ मा आहारबारर्नु स्वरूप पाढे. ॥ ओजसादि आहार यन्त्रम् ॥ क्यारे! कोने? आभोग के अनाभोग? - आहार ओजमू आहार | उत्पत्ति समयथो शरीरपर्याप्ति सुधी सर्व जीवोने अमाभोगिक शरीरपर्याप्त थयाथी भषलोम आहार | पर्यन्त केवलिममुचाते | ३-४-५ समयषीने आमोगिक-त्रसजीवोने अनामोगिक-पकेन्द्रियने अवश्य, वसने विकल्प आयोगिक कषल आहार करणपनिने देष नारक अने| [अमुक अमुक काठे | केन्द्रिय विना सर्वने १ विग्रह गतिमा के समय अनाहारक पणाना भोगवेल होषाथी ले न्यून करवा अने हटकभष करी पाछो विग्रहमा अनाहारक पाय माटे. २ अविग्रहमतिये तेटला काळ सुधो उत्पन यता जीषो माटे मा. ३ अन्य आचार्यो घाणा सक्षु अने प्रोवेन्द्रियपढे जे अणाय छे अने धातु पणे परिणाम पामे छ ते ओजाधार, स्पर्शप्रियषडे जणाय अने धातुपणे परिणमे ते लोमाहार, अने जिला इन्द्रियो स्थूलपदार्थ शरीरमा भखाय से प्रणिहार प प्रमाणे को छ । सूत्रकृतांगतिः ) Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ( ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः मर्गः ॥ (सा. २२६) ॥ विग्रहगति यन्त्र ॥ केटष्टा समय | कये समये आहार| कये समये अनाहारक पकषका 'पहेलो योजो हिषमा पहेंलो बीजो खोजी त्रिपक्रा पहेलो सोथो बीजो त्रोजो चतुबका । ५. पहेलो पांथमो / बोजो धीजो बोयो गुणा नाम गुणस्थानान्यमूनि च चतुर्दश । वच्मि स्वरूपमेतेषामन्वर्थव्यक्तिपूर्वकम् ॥ ३१ ॥ तथाहु:--'मिच्छे सासण मोसे अविरय देसे पमत्त अपमत्त । नियही अनियट्टी सुहुमुवसम खीण सजोगि अजोगि गुणा॥३२॥' [मिथ्यात्वं सास्वादनं मिश्रंअविरत देशःप्रमत्तमप्रमत्तं । निवृत्तिरनिवृत्तिः सूक्ष्ममपशमः क्षीणं सयोग्ययोगी गुणाः ॥] (सा० २२६) गुणा ज्ञानादयस्तेषां, स्थानं नाम स्वरूपभित्। शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्पोत्थाऽत्र प्रकीर्त्यते ॥३३॥ तत्र मिथ्या विपर्यस्ता, जिनप्रणीतवस्तु. षु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः, स मिथ्यादृष्टिरुच्यते ॥३४॥ यत्तु त. स्य गुणस्थानं, सम्यग्दृष्टिमबिभतः। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं, तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥३५॥ ननु मिथ्यादृशां दृष्टेविपर्यासात्कुतो भवेत् ? । ज्ञानादिगुणसद्भावो, यद् गुणस्थानतोच्यते ॥३६॥ १ निश्चय जय मते पडेले समये पण अमाहारक जाणवो. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र (४८२) ॥ गुणस्थानबारे प्रथमगुणस्थाननिरूपणम् । [द्वार अत्र ब्रूमः ॥ भवेद्यद्यपि मिथ्यात्ववतामसुमतामिह । प्रतिप- त्तिर्विपर्यस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु ॥३७॥ तथापि काचिन्मनुजपश्वादिवस्तुगोचरा । तेषामप्यविपर्यस्ता, प्रतिपत्तिर्भवेद् चम् ॥ ३८ ॥ आस्तामन्ये मनुष्याचा, निगोददाहिनामपि । अस्त्यव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तियथास्थिता ॥ ३९॥ यथा घनघनच्छन्नेऽर्केऽपि स्यात्काऽपि तत्प्रभा । अनावृता न चेद्रात्रिदिनाभेदः प्रसज्यते ॥४०॥ इति प्रथमं गुणस्थानं ॥१॥ अर्थ--३०९ गुणस्थानद्वार || हवे गुण एटले गुणस्थान ते आ '१४ ले, तेनुं स्वरूप यथार्थ अर्थ प्रगट करवा (दरेक गुणस्थाननो नाम प्रमाणे अर्थ अने तेनुं विशेष स्वरूप कहेवा) पूर्वक कई छ ।॥३१॥ तेनां नाम आ प्रमाणे काहे छ१ मिथ्यात्व ८ अपूर्वकरण [निवृत्ति बादरसंपराय) २ सास्वादन ९ अनिवृत्ति बादरसंपराय ३ मिश्र १० सूक्ष्मसंपराय ४ अविरत सम्यग्दृष्टि ११ उपशान्तमोह ५ देशविरत १२ क्षीणमोह ६ प्रमत्त ( सर्वविरत ) १३ सयोगिकेवलि ७ अप्रमत्त १४ अयोगिकेवल ए१४ गुणस्थान को ॥ ३२ ॥ अहिं गुण एटले ज्ञानादिमुण तेओर्नु स्थान एटले शुद्धि अशुद्धिना प्रकर्षापकपथो (पूर्वगुणस्थानापेक्षया शुद्धिनी वृद्धि अने अशुद्धिनी हानि अने उत्तरगुणस्थाननी अपेक्षाय शुद्धिनी हानि अने अशुद्धिनी वृद्धिवडे ) थयेलो जे स्वरूपमेद ते (स्थान) कहेवाय छे ॥ ३३ ॥ त्यां मिथ्या एटले श्रीसर्वज्ञप्रभुये कईला पदार्थोमां विपर्यासवाळी (विपरीत) जेनी रष्टि एटले प्रतिपत्ति अङ्गीकार करवापणुं होय ते मिथ्या दृष्टि जीव कहेवाय, ॥३४|| सम्यग्दृष्टिने नहिं धारण करनार (शुद्ध श्रद्धा रहित) एका ते ( मिथ्या १ प्रत्येक गुणस्थानकमां पण शुद्धि अशुद्धिनी तरतमताना अनेक भेदी होबाथी गुणस्थानना असत्यभेदो थाय छतां बौद सहयानियम तद्गुणस्यागयति सर्यशीबाना अध्ययसायोनी तरतमतानी पक्रय विवक्षाधी जाणयो. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २२६ (४८३) दृष्टि) जीवनुं जे गुणस्थान तेने पूर्वाचार्योए मिथ्याष्टिगुणस्थान कहेलु छ ॥ ३५ ॥ शंका-मिथ्यादृष्टि जीवोने दृष्टिनो [ बोधनो] विपर्यास होवाथी शानादि गुणनो सद्भाव कम होय ? के जेथी तेने गुणस्थानपणुं कहेवामा आये छे ॥ २६ ॥ उत्तर-जो के अहिं सर्वज्ञप्रभु कथित पदार्थोमा मिथ्यास्त्री जीवोने विपरीत श्रद्धा होय छे ।। ३७ ॥ तो पण मनुष्य पशु बगेरे पदार्थों संबंधी नेओने कइक [ मनुष्यने मनुष्यपणे-पशुने पशुपणे मानवारूप] अविपरीत श्रद्धा पण नि. श्चय होय छे. ॥ ८ ॥ बळी मनुष्यादि वीजा जीवो तो दर (एक वाजु) रहो ( कारण नेबोने तो ज्ञानादिलब्धि रिशिष्ट छे ) पण निगोदजीवोने पण यथार्थ ( अविपरीत ) एवं अन्यक्त ( अस्पष्ट ) स्पर्शमात्र ज्ञान होय छे ।। 2 ।। १ प्रथम मिथ्यावृष्टिगुणस्थानकना संबंधमां मोगुणस्थानकमारोहकार फोहे के-अपनाना नानामि मि मानावंत जीयोने मिथ्यात्व अ. नाविकालथी होवाथो लेने गुणस्थान कहेवातुं नथी, परन्तु ने ओने पकमिध्यात्वबुनि थाय के सेषा व्यवहार राशिवनि जीवोने प्रथम गुणस्थान कडेवाय छ,-कर्ष छे के-- अमाचव्यकमिभ्यास्त्रं जीषेऽस्त्येष सबा परम । व्यकमिथ्यात्वधीप्राप्तिगुणस्थागतयोच्यते ॥१॥" पळो योगाचार्य भगवंतोता गुणहीन मिथ्याष्टिओमां "गुणांनु स्थान" पषी अग्षर्य गुणस्थान पवनी प्रवृत्ति घटी शकतो नथी परन्तु ज्यारे मिश्यावृष्टि जौषमां पण सत् पुरुषीने प्रणाम करषो विगेरे योगबीजोमा महजरूप गुणर्नु माजमपणु थाय छे स्यारेज सार्थक गुणस्थान पदतो प्रवृत्ति याय नेम फरमाधे छे. आयोगबीजना उपादाननुं स्वरूप मित्राष्टियान जीवोमाज घटे के. जे गुणस्थानकमारोहकार व्यसमिध्याव बुद्धि थयाथी व्यवहार राशिवाळाने गुगस्थान कहे छे, तेनुं तात्पर्य पण विपर्यस्त बुद्धिरूप मिथ्यात्मनुं व्यक्त । प्रकट ) यत्रा पर्यु लेखु नहि. कारण तेत्री विपरीत बुद्धिन व्यक्तपणु लाये तो ते बुद्धि अव्यक्त बुद्रि करतां घणो दुष्ट होबाथी कोर रोते पण गुणस्थामपद प्रवृत्तिनुं कारण था शके महि. परन्तु मित्रारष्टिरूपज व्यक्तता लेखी आ विधारमो विशेष स्पष्ट खुलासा द्वात्रिंशदवाधिशिकामो पकधीशमी मात्रिशिकाना २५-२६ मा श्लोकोनी टीकामा भ्यायविशारद म्याथाचार्य महोपाध्याय थीमान् यशोविजयजीगणि महाराजे घणोज सारी गीले करेलो छ स्यांधी जोड लेयुं प्रवर्तते गुणस्थानपदं मिथ्याशीइ यत । अन्यथयोजमा मूनमम्यां त. स्योपपद्यते ॥ २४ ॥ व्यक्तमिध्यावधीधातिरप्यन्यत्रयमुस्यते । धने मले विशेषस्तु अक्ताव्यक्तधियानु क । २६ ॥ " चौदशो धुमालीश प्रन्यप्रणेता भगवान श्रीहरिभद्रसरिजी महाराजे पण फरमायु छ के " प्रथमं सदगुणास्थानं मामाम्येनोपणितम् । अस्यां तु सदस्थायां मुग्यमन्यधयांगतः ॥१॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८४) ॥ गुणस्थानद्वारे प्रथमद्वितीयगुणस्थानप्ररूपणम् ॥ द्विार जेम गाढ बादळाथी ढंकायेल सूर्य होय तो पण सूर्यनी कंइक मभा चुम्ली होय छे, अने जो तेम न होय तो रात्रि अने दिवसनो अभेद थाय ॥ ४० ॥ प प्रमाण प्रथम गुणस्थानन स्वरूप का ।। १ ॥ आयौपशमिकाख्य(ख्य) सम्यक्त्वस्यात्र सादयेत् । योऽनन्तानुबन्धिकषायोदयः साऽऽयसादनः ॥ ४१ ।। उत्कर्षादावलीषट्कात्, सम्यक्त्वमपगच्छति । अनन्तानुबन्ध्युदये, जघन्यात्समयेन यत् ॥ ४२ ॥ पृषोदरादित्वाल्लोपे, यकारस्य भवेत्पदम् । आसादनमित्यनन्तानुबन्ध्युदयवाचकम् ॥ ४३ ॥ ततश्च ।। आसादनेन युक्तो यः, स सासादन उच्यते । स चासौ सम्यग्दृष्टिस्तद्-गुणस्थानं द्वितीयकम् ॥ ४४ ॥ तच्चैवं ।। प्रागुक्तस्योपशमिकसम्यक्त्वस्य जघन्यतः । शेष क्षणे पट्सु शेषासूत्कामावलीबच ।। ५ । महाधिभोषिकोत्थानकल्पः के- . नापि हेतुना। कस्याप्यनन्तानुबन्धिकषायाभ्युदयो भवेत् ॥ ४६ ॥ अथैतस्मिन्ननन्तानुबन्धिनामुदये सति । सासादनसभ्यग्दृष्टिगुणस्थानं स्पृशत्यसौ ॥ ४७ ॥ यदिवोपशमश्रेण्याः, स्यादिदं पततोऽगिनः । सम्यक्त्वस्यौपशमिकस्यान्ते कस्यापि पूर्ववत् ॥ ४८ ॥ तत ऊर्ध्वं च मिथ्यात्वमवश्यमेव गच्छति । पतन् द्वितीयसोपानादाद्यमेव हि गच्छति ॥ ४९ ॥ नाम्ना मास्वादनसम्यग्दृग्गुणस्थानमयदः । उच्यते तत्र चान्वों, मनिमगिरयं स्मृतः ॥ ५० ॥ उद्वम्यमानसम्यक्त्वास्वादनेन सहास्ति यः । स हि सास्वादनसम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते ।।५।। यथा हि भुक्तं क्षीरानमुद्वमन्मक्षिकादिना । किञ्चिदास्वादयत्येव, तसं व्यग्रमानसः ॥ ५२ ॥ तथाऽयमपि मिथ्यात्वाभिमुखो भान्तमानसः । सम्यक्त्वमुद्रमन्नास्वादयेत्किञ्चन त Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) ४८५) द्रसम् ॥ ५३ ॥ इति द्वितीयं ॥२॥ अर्थ-जे कारण माटे अनंतानुबंधि कषायनो उदय अहिं आय एटले औपशामिक नामना (स्वरुप) सम्यकत्वना लाभने सादयेत-हानि करे ते आयसादन (सास्वादन) कवाय छे.जे कारणथी अहिं अनंतानबंधीनो उदय थतां जयन्पथी एक समये अने उत्कृष्टथी (उपशम सम्पकत्वना काळनी) ६ आवलिका वाकी रखो उप० सम्प० चाल्यु जाय के ॥ ४२ ॥ पृषोदरादिमा पाट होबाथी ( आयसादन शब्दमांथी ) य कारनो लोप थये छने आसादन एवो शन्द धाय के. अने ते ( आसादन शब्द ) अनंतानुबंधी कपायना उदयनो वाचक छे. (अर्थात आसादन एटले अनंतानुबन्धिनो उदय ). ॥ ४३ ॥ अने आसादने करीने युक्त जे पाणी होय ते सासादन कहेवाय है अने तेवो जे सम्यग्रहष्टि होय (ते सासादन सम्यग्दृष्टि कवाय ) अंनत जीवनू जै गुणस्थान ते सासादन सम्यग्दृष्टि नामर्नु वीर्जु गुणस्थान कहेवाय, ॥ ४४ || ते आ पमाणे-पूर्व (२५मा द्वारमां) कहेला उपसम सम्यक्त्वनो जघन्यथी १ समय बाकी रहो, अने उत्कृष्टयो ६ आवलिकाओ बाकी रह्ये, कोइक कारणथी महा भयानक स्थितिनी जन्पत्ति सरखो अनंतानुबन्धि कपायनो उदय कोइफ जीवने याय छे ॥४४-४५।। हवे ते अनंतानुबन्धीनो उदप थये छते ते जीव सासादन सम्परादृष्टि गुणस्थान स्पर्श छ ( पामे छे) । ४७ ॥ अथवा उपशम श्रेणियी पडता कोइ पण जीवने पूर्वनी पेठे (समय कन्या प्रमाणे) ए गुणस्थान औपनमिक सम्यक्त्वने अन्ते थाप छे । ४८ ॥ अने त्यारवाद ( ते सास्वादननो काल पूर्ण थये ) ने जीव अवश्य मिथ्यावज पामे, कारणके बीजे पगथीएथी पडतो पहले पगथीएन जाय ॥४१॥ वळी आ गुणस्थान सास्वादन सम्यग्दृष्टि नामे करीने पण कई बाय छे, त्यां पण्डित्तोए आ प्रमाणे तेने अनुसरतो अर्थ कयो छे ।।५८|| जे जोत्र वमन कराता (पडना) सम्पत्तवना आस्वादन (म्बाद) युक्त होय ते जीव माम्बादन सम्यग्दृष्टि कहेवाय ॥५१॥ जेम जमेली क्षीरने माखी विगेरेना कारणथी वमन करतो व्याकुळ थयेलो जीव ते क्षीरना रसनो कंडक आस्वाद पाम २. ॥ ५२ ॥ तेम आ जीव पण भ्रान्तिमय चित्तवाळो मिथ्यात्वनी सन्मुख श्या छतो सम्परत्वनुं वमन करतो कइक सम्यक्त्वना रसनो स्वाद पामे ले. ॥५॥ ए प्रमाणे श्रीजु सास्वादन सम्यग्दृष्टिगुणस्थान को. ॥२॥ पूर्वोक्तपुञ्जत्रितये, स यद्यर्धविशुद्धकः । समुदति तदा Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८६) || गुणस्थानद्वारे तृतीयस्मादासारमरूपणम् ॥ (द्वार तस्योदयेन स्याच्छरीरिणः ॥ ५४ ॥ श्रद्धा जिनोक्ततत्वेऽर्धविशुद्धाऽसौ तदोच्यते । सम्यग् मिध्यादृष्टिरिति गुणस्थानं च तस्य तत् ॥ ५५ ॥ युग्मम् । अन्तर्मुहूर्त्त कालोऽस्य, तत ऊर्ध्वं स देहभत् । अवश्यं याति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वमथवाऽऽप्नुयात् ॥ ५६ ॥ इति तृतीयं ||३|| सावद्ययोगाविरतो, यः स्यात्सम्यक्त्ववानपि । गुणाविरत पाणमस्य यत् ॥ ५७ ॥ पूर्वोक्तमोपशमिक शुद्धपुञ्जोदयेन वा । क्षायोपशमिकाभिख्यं सम्यक्त्वं प्राप्तवानपि ॥ ५८॥ सम्यत्वं क्षायिके वाSSतः क्षीणदर्शनसप्तकः । कलयन्नपि साद्यविरतिं मुक्तिदायि नीम् ॥ ५९ ॥ नैवाप्रत्याख्याननामकपायोदयविघ्न (नि)तः । स देशतोऽपि विरतिं कर्त्तुं पालयितुं क्षमः ॥ ६० ॥ इति च तुर्थ ||४|| स्थूलसावद्यविरमाद्यो देशविरतिंश्रयेत् । स देशविरतस्तस्य, गुणस्थानं तदुच्यते ॥ ६१ ॥ सर्वसावद्यविरतिं, जानतोऽप्यस्य मुक्तिदाम् । तदाहृतौ प्रत्याख्यानावरणा यान्ति विघ्नताम् ||६२॥ इति पञ्चमं ॥५॥ संयतस्सर्वसावद्ययोगेभ्यो विरतोऽपि यः । कषायनिद्राविकधादिप्रमादेः प्रमाद्यति ॥ ६३ ॥ स प्रमत्तः संयतोऽस्य, प्रमत्तसंयताभिधम् । गुणस्थानं प्राक्त नेभ्यः स्याद्विशुद्धिप्रकर्षभृत् ॥ ६४ ॥ वश्यमाणेभ्यश्च तेभ्यः, स्याद्विशुद्धयपकर्षभृत् । शुद्धिप्रकर्षापकर्षावेवं भाव्यों परेष्वपि ॥६५॥ इति षष्ठं ॥ ६ ॥ यश्च निद्राकषायादिप्रमादरहितो यतिः । गुणस्थानं भवेत्तस्याप्रमत्तसंयताभिधम् ॥६६॥ इति सप्तमं ॥ ७ > " अर्थ-पूर्व (२५ मा द्वारसां) कहेला त्रेण पुनमांनी ते अविशुद्ध पुंज ज्यारे उदयमां १ पुंज करवामो प्रकार, मिध्यादृष्टि साम्यग्मिध्यादृष्टि भने सम्पटिनु स्वरूप पुष २५मा द्वारमा विस्तारथी कडेवाय हे त्यांथो और लेबुं Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २२६) (४८७) आये त्यारे ने पक्षमा उदयवडे जीपने जिनेश्वरे कहेला तम्बमां अर्धविशुद्ध श्रद्धा थाय छे त्यारे ते (श्रद्धा) सम्यगमिथ्यादृष्टि (मिश्राष्टि) कहेवाय छे,अने ते जीवन (तेवी अर्धविशुद्ध श्रद्धा काला) गुणस्थान पण तेज (सम्पयामिथ्पादृष्टि गुणस्थान) कहे. बाय छे ॥५४-५५॥ ए गुणस्थाननो काळ अन्तर्मुहर्न होय छे, अने त्यारपछी ते पाणी अवश्य मिथ्यात्ये जाय छ, अथवा सम्यक्त्व पामे छे ।।५६।।आ प्रमाणे श्रीजु सम्यगमियादृष्टि गुणस्थान कायु. ।।३।। सावध (पाप सहित) व्यापारोथो निष्टस नहिं यगणो पण जे सम्मान कोरेगहने जीव अदिस्तसम्यग्दृष्टि नामर्नु गुणस्थान होय छे. ।।५७॥ पूर्वे (२५मा बारमा) कोला (दर्शनसप्तकना उपशमथी धयेल ) औपशमिक सम्यक्रने अथवा शुद्ध पुक्षना उदयवडे लायोपमिक नामना सम्यक्त्वने पाम्यो छतो पण, अशवा क्षीण पाम्यु के दर्शनसप्तक (४ अनन्तानुपन्धी अने ३ दर्शनमोह ) जेनुं पत्रो जोत्र क्षायिक सम्यक्त्वने पाम्यो छनो पण तथा सावधव्यापारोनी विरति (त्याग) ने मोक्ष आपनारी जाणतो छनो पण. अप्रत्याख्यानावरण नामना कपायना उदयरूप विघ्नथी ( अथवा उदयथी विश्न + वालो) ते जीव लेशमात्र पण विरति (देशविरनि) ने अङ्गीकार करवा के पाळवाने समर्थ थइ शकतो ज नथी ।।५८-५९-६०। ए प्रमाणे यो| अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कथु. ॥१॥ स्थल (मोटा मोटा) सावध व्यापारनो त्याग करवाथी जे जीव देशविरति अङ्गीकार कर ते जीव देशविरत कहवाय, अने तेनुं गुण - १ अहीं जाणबु आदर अने पाळबुं प्रण पदोनी अष्टमङ्गी धाय छे. १ न आणे न आदरे न पाके ५ जाणे न आदरे न पाळं २ न जाणे न आवरे पाले ६ जाणे न आदरे पाळे ३ न जाणे आदने न पाळे ७ आणे आदरे न पाळे ४ग झाणे आदरै पाळे ८ आण आदरै पाळे तमांना प्रथमना धार भांगामा कामनी अभाष होबाथी मिध्यावृष्टिना ते पार भांगा छे, आठमो भांगो पिरतिषस्त जीवोनो छ, अने शेष त्रण भांगा अधिरत सम्यग्दृष्टिना छे आठ भांगाओना स्वरूप तथा प्रशान्तने जणाघनागरी प्रण गाथाओं नीचे प्रमाणे छे. "नी जाण नो आदरा नो पाला जिणधम्मु । तिपपहिं अठभंगा सेना दिट्टतया नेया ॥१॥ सम्म ने याण (समत्तजण १ तष २ लिंगधारया३अगीयत्यसिणियाया५ । पंचुसर सुर६संदिग्गपत्रिखणो अमेसु जई८ ।। २ ॥ पदमा मिच्छट्टिी चउरी मसारभमणहेति । इपरा सम्महिंदठी अरिक्षा निब्याणगमणस्स || ३ ||" Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८८) ॥ गुणस्थानद्वारे पञ्चमगुणस्थानमरूपणम् ॥ (बार स्थान पण वेज (देशविरेत गुणस्थान) कवाय छे. ॥१॥सर्व मावद्यन्या- . १ गुणस्थानकमा जेम जेम जीष उंचो आवतो जाय तेम तेम पूर्व पूर्व गुणम्यानकर्मा प्रगट थयेल गुणो उपगत विशुद्धिनी अधिकताने लामे अधिकाधिक गुणो प्रगट यतां जाय छ नेथोज देशविरतगुणस्थानकमा चोथा अधिरनमम्यगपूष्टि गुणस्थाने "उम्पन्न ययेल" सम्यश्यगुण उपरांत स्वशक्ति प्रमाणे विरति गुण उम्पन्न थाय छे. आ देशधिरत गुणस्थान जघन्यमां पकवनथी मांडीने उत्कृष्टमा अनुमति भारसधा सण. :- सं. पाणसहिओ गिहतो विरामप्पामतीए । पगम्यया चरिमो अणुमामित्तोति देममा ॥१॥" मक पण कोर लावधर्नु पच्चक्खापाको ते पकविरत ते 'जघन्यदेशाधिरन, नेयो उपरांत उत्कृष्थो म्यान ते " मध्यप्रदेशविरत" २. अने संपूर्ण बारव्रत. धारी पर्वसाधचनु पच्चरूग्वाण कयु होय पण अनुमतिमात्र तेवतो होय ते '' उत्कृष्टदेशविगत " ३. अहो अनुमतिना प्रण भेदो छ र प्रतिसेवनानुमति २ प्रतिश्रणानुमति ३ संघासानुमति, १ प्रतिसेवनानुमति-पोते या बोजाओप करेला पापनी प्रशंसा करे अथवा मावशारंभथी .पनेला आहार विगेरे बापरे ते. २ प्रतिपक्षणानुमति-पुत्रादिये कोला पापने भवण करे सांभळीने अनुमोदे पण निषेध न करे ते ३ संवासानुमति-सापचारंभमा प्रयतेला पुत्रादिमां केवल ममत्व मात्र युक्त होय बीझुं कांह पम तेमनां पापन सांभळ फ वखाणवू के अनुमोद न होय ते. आ वणर्मा पण मात्र संबासानुमनि होय पण पतिसेवनानुमति के प्रतिश्रवणानुमति पण न करे त्यारे उत्कृष्ट देशविपत कषाय, अने में सर्वश्रावकीमा गुणोथी उत्तम जाणवी. दे. शधिरसिगुणस्थानमा अविरतसम्यग्दृष्टिनी अपेक्षाये अगस्तगुणविशुद्धि होय के आ गुणस्थानकना असंख्यात विशुद्धस्थानको छे. देविति तथा सर्ववि. रतिनी प्राप्ति माटे यथाप्रवृत्त करण तथा अपूवकरण पम में करणो करवा पड़े रहे, पण मध्यक्रवामिनो जम त्रोझुं अनिवृतिकरण होत नथी तंमां अ. घिग्लसम्यगष्ट छनो बे करण करे तो कोडक जोध देशधिरनि पामे, अने कोडक विशुदिनी अधिकताथी सर्यविरति पाम में, अने जो देशषिरत छत्ता बकरण करे तो सर्वविसि पामे देशविरति अने सचिरति पाम्या पाही अ न्नमहर्नकाल सुधी अवश्य प्रवर्धमान परिणाम बाळा जीव होय है. अने तथीज देशपिति के सचिरति पाम्या बाद उदयावळिकानी उपरनी अम्ममइतमुधो दकसमये इलियानी पचनानी अपेक्षाये असंख्यातगुणावृद्धिवाली गुणणि रचना करे छ, अने अन्तमुहर्त घाव कोइक विशाध्यवसायवाली आत्मा व. धमानपरिणामी शेय, कोइक अविशदाध्यवसायवाळी हीयमानपरिणामी, अने कोरफ अवस्थितपरिणामी थाय छे पर्धमानपरिणामी हायतो आगळ पण पधती गुणणि करें, होयनानपरिणामी हीयमान अने अवस्थितपरिणामी अ. स्थिन रचना करें, अबस्थित अने होयमान परिणाममा स्थितिघात-सघात Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. ३०) ॥श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) (१८९) पारोनो सर्वया त्याग करवो ते मोशने आपनार छे, एम जाणतां छतां पण ने जीवने ते (सर्व विरति) नो आदर-ग्रहण करवामां प्रत्याख्यानावरण नामना कपायो विघ्नरूप थाय छे.॥३२॥ एप्रमाणे पांचमु देशविरत गुणस्थान कबु.॥५॥ सर्व सावध व्यापारोयी विरक्त थयेलो पण जे मुनि कषाय-निद्रा-विकयादि (मद अने विषय प सर्व मली पांच) प्रमादोवडे ममाद करे छे. ते मुनि प्रमत्त कहेवाय अने नेनुं गुणस्थान ते प्रमत्तसंयत नामर्नु [ कहेबाय छे भने ते ] प्रयमनां गुण स्थानोथी विशेष विशुद्धिवाळ छे ॥ ६३ ६४॥ अने आगळ कहेवाशे ने (अप्रमनादि) गुणस्थानोथी विशेषहीन विशुद्धिवालं छे, एज प्रमाणे बीजां दरक गुणस्यानोमां पण विशुद्धिनी विशेपना अने हीनना जाणवी. ( प्रथमनी अपेक्षा अधिक विशुद्धि अने आगळनां गुणस्याननी अपेक्षाए विशेष डीन विशुद्धि जाणथी ). ॥६॥ए प्रमाणे छट्टु पमन्नमयत गुणस्थान कायं. ६ निद्रा अने कषायादि (पांचे ) ममाद रहित एवो जे मुनि होय तेने अप्रमत्तसंयत नामर्नु न याय, अनुपयोगी परिणाममा निमित्त जी देशविरतिपरिणामधी पीने अविरतिपाम्या होय अगर सर्वपिरतिपरिणामयी पडोने देशवाति अगर अचिरनिने पाम्या होय नेओ करण कर्या शिवायज देशपिरति के सर्व पिरतिने पामे छे, अने उपयोग सहित पड्या होय अने यावत् उपयोगमाहित मिथ्या गया होय सो जघन्ययो अन्तमुहर्ते अने उस्कृष्टयो किचिम्यूम अधपुनलपरायतें करो ज्यारे देशविरति के सर्वपिरति पामवाना होय स्यारे पूर्वाक करणो करबापूर्वक ज पामी शके, स्पांसुधी देशविरति के सर्वविरतिनी पालना करे हे त्यांसुधी समये समये परिणामी शानि वृद्धिनी सरतमताये गुणनिमी तरतमना होयछे, वर्धमानपरिणामी होय मां पण चतुःस्थामकवृद्धि होयहरे. जेशी गुणजि पण कोइने असंख्येवमागाधिक १, कॉइने सख्येयभागाधिक २, कोने संख्येयगुणाधिक ३, कोने असंख्येषगुणाधिक ४ होयके, डीयमानपरिणामीने पतु म्यानक हामि होवायो गुणणि पण चतु:स्थानशामिवाली होय. अने अवस्थितपरिणामीने अवस्थित गुणणि होय छे. १ देशविनतना बस्कृष्ट विशुद्रिस्थान करता म विरमनु भयो जयाय विशुद्धिस्थान पण अनन्तगुण विशुद्धिवाळ होय छ की, के.- " उस्कृष्टाशविरते. स्थानासर्वजघन्यकम् । स्थानं तु सर्वविरतेरनन्तगुणतोऽधिकम ॥१॥" २ वा अप्रमत्तगुणस्थानकमा ऋणकालनी अपेक्षाये सामान्यथी असंख्यातलीकाकाश प्रदेशप्रमाण विशोधिस्थानको होयछे, अप्रमतसयतभगवान ने विशिष्ट तप अभे धर्मभ्यागादिना संबंधथी कर्मों खपायता भने अपूर्व अपूर्व विशोधित स्पामकोमा आरोण करता छता ममापर्यवज्ञानादि अदिओ पण प्रकट थाय Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९० ) || गुणस्थानद्वारे अष्टमगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् ।। (द्वार "==== गुणस्थान होय ||६६ || ए प्रमाणे सातनुं अप्रमत्तसंगत गुणस्थान क. ॥७॥ स्थितिघातो रसघातो, गुणश्रेणिस्तथा परा । गुणानां संक्रमश्चैव, बन्धो भवति पञ्चमः ॥ ६७ ॥ एषां पञ्चानामपूर्व, करणं प्रागपेक्षया । भवेद्यस्यासावपूर्वकरणो नाम कीर्त्तितः || ६ || गरीयस्याः स्थितेर्ज्ञानावरणीयादिकर्मणाम् । योऽपवर्त्तनया घातो, स्थितिघातः स उच्यते ॥ ६९ ॥ कर्मद्रव्यस्थकटुकत्वादिकस्य रसस्य हि । योऽपवर्तनया घातो, रसघातः स कीर्त्यते ॥ ७० ॥ एतौ पूर्वगुणस्थानेव्वल्पावेव करोति सः । विशुद्धयल्पतयाऽस्मिंस्तु महान्तौ शुद्धिवृद्धितः ॥ ७१ ॥ यत्प्रागाश्रित्य दलिकरचनां तां लघीयसीम् । चकार कालतो हाघीयसीं शुद्ध्यपकर्षतः ॥ ७२ ॥ अम्मिस्वाश्रित्य दलिकरचनां तां प्रथीयसीम् । करोति कालतोऽल्पां तदपूर्वां प्रागपेक्षया ॥ ७३ ।। तथा बध्यमानशुभप्रकृतिष्वशुभात्मनाम् । तासामबध्यमानानां दलिकस्य प्रतिक्षणं ॥ ७४ ॥ असंख्यगुणवृद्धघा यः क्षेपः स गुणसंक्रमः । तमध्यपूर्वं कुर्वीत सोऽत्र शुद्धिप्रकतः ॥ ७५ ॥ स्थितिं द्राघीयसीं पूर्वगुणस्थानेषु वद्धवान् । अशुद्धत्वादिह पुनस्तामपूत्र विशुद्धितः ॥ ७६ ॥ पल्यासंख्येयभागेन, हीनहीनतरां सृजेत् । तद्गुणस्थानमस्य स्यादपूर्वकरणाभिधम् || ७७ || अष्टभिः कुलकं ॥ 3 अर्थ - १ स्थितिघात- २रसघात तथा स्त्रीजी गुणश्रेणि-तथा ४ गुणसंक्रम- अने छ. कल के " निर्माता पत्र तथा विशोषयोऽसयोकमात्रस्ताः । तमयुक्ता या अधितिष्ठन यतिरप्रमत्तः स्यात ॥ १ ॥ अवगाहते च स वजप्राप्नोति चाधिज्ञानम | मानसपर्यायं वा ज्ञान कोठादिबुद्धी ॥ २ ॥ चारणवैकिगल बषधिताचाश्चापि लब्धयस्तस्य । प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि या मानसाधोनि !! ३ ॥" अप्रमत्तसंयतने उपरना लाभो मळे छे. त Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) (४२१) पांचमी ५अपूर्वस्थितिबन्ध ।। ६७ ॥ पूर्वलां गुणस्थानोनी अपेक्षाए अहिं ए पांचे अपूर्व (प्रथम ) करण जे जीवने होय छे ॥ ६८॥ ते अपूर्वकरणना नामधी कहेल छ [अर्थात् तेनुं गुणस्थान पण ते अपूर्वकरण कहेषाय छे.]॥१९॥ त्यां ज्ञानावरणीयादि कर्मनी मोटो स्थितिनो अपवर्तना करणवडे जे घात करवो ते स्थितिधात कहेवाय छे, कर्म पुगस्लोमां रहेला कटु इत्यादि [ अशुम कर्मोमां रहेला लोंबडा आदिना रस जेवा विपाकवाला कडकरसनो अने शुभ कर्ममा रहेला इक्षु (शेरडी) आदिना रस वा विपाकवाळा मधुर) रसनो अपवर्तना करणवडे जे घात करतो ते रसंघात कहेचाय ।। ७० ।। हेलांना (१ थी ७ सुधीना ) गुणस्थानोमा विशुद्धिनी अल्पता होवाथी ते स्थाने जीव अल्पज स्थितियात-सघात करतो हतो, अने आठमा गुणस्थानमां तो विशुद्धिनी वृद्धि होताथी पणा प्रमाणमां करे छे. ॥ ७१ ।। वळी प्रथमनां (१ थी ७) गुणस्थानोमां विशुदिनी अल्पता होनाथी दलिकनी अपेक्षाए लघु अने काळनो अपेक्षाए दोघ [गुणश्रेणि ] करतो हतो ।। ७२ ।। ते हवे (विशुद्धिनी अधिकता होवायी आ गुणस्थानमां (ते मुणग्रेणि) दलिक रचनाने आश्रयि घणी अने काळनी अपेक्षाप अल्प थाय छे ते हेतुथी पूर्वनी अपेक्षाए अहिं अपूर्व गुणधेणि) याय छे. 1,७३॥ सथा बन्याती शुभ प्रकृतियोमा नहिं बन्धाती अशुभ प्रतियोनां पुद्रलीनो पतिसमय 11 ७४ । असंख्यगुण असंख्यगुण वृद्धिस जे प्रक्षेप करवो ते गुणसंक्रम, १-२ स्थितिधात अने रसघात बन्ने व्यायात अपवर्तनाथी चाय छे. अने मपवर्तना ते स्थिति अने रसनीश होय छे पण प्रकृति अने प्रदेशनी महि. भने निव्याघात अपवर्तना तो जीवने मेश चालुत्त . पर्नु विशेष स्वरूप कर्मप्रकृतिगत अपवत्तना करणथी आणवं. ३ " गुण अणि " उदयापलिकामा अयथा उदयावलिका बहाना प्रथम समयथी प्रारंभीने असंख्य समयो सुधी ( अन्तमुहर्त सुधी) रचनामां अने काठमां क्षिपतरकालमा खपायमा माटे असंख्यगुण अमरूपगुण वृद्धिये पलिको प्रतिसमय प्रक्षेपी उश्यमा आणो भोगषता मधु ते. मा दलिकोनु ग्रहण स्थितिघात बढे पणाना स्थितिखंडमांयी प्रायः बोय के ४ नास्पय प छ के प्रयमनां ७ गुणस्थानोमां पणे काळे-मोटे अम्तमुहले थोडां कर्म पुनलो निजरतो तां मने अहिं अल्पकाळमां-नामा अम्तमुहर्तमा घणां पुरली निर्जरतां आय छ माटे अहिं अपूर्व गुणणि कषाय. . ५ सम्पन्धादि गुणमामि बनने शुभप्रकृतियोमा परावर्तमान शुभप्रकलियो अंधाय पण परावतमान अशुभप्रकृतियो यंधाती मथी माई ते नही --..- . - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४९२) || गुणस्थानद्वारे अष्टमापूर्वकरणगुणस्थानस्वरूपम् ॥ द्विार तेने पण जीव अहिं विशुद्धिनी अधिकता होदाथी अपूर्वज फरे छे. ॥ ७५॥ तथा प्रथमनां गुणस्थानोमां अध्यवसायोनी अशुद्धि होवाथी कर्मनी घणी मोटी स्थिति बांधतो हतो ते हवे आ गुणस्थानमां वळी विशुद्धिनी वृद्धिथी ते स्थितिबन्धने अपूर्व ।। ७६ ॥ एटले पस्योपमना असंख्यातमा भागवडे न्यून वृनतर बांधे छे, ते हेतु ( अपूर्व पांच क्रियाओ करवा ) यो ए जीवन जे गुणस्थान ते अपूर्षकरण नामर्नु ८ मुं गुणम्यान कहेवाय है. ॥७७II आठ श्लोकर्नु कुलक छ. क्षपकश्चोपशमकश्वेत्यसो भवति द्विधा । क्षपणोपशमाहत्वादेवायं प्रोच्यते तथा ॥ ७८ ॥ न यद्यपि क्षपयति, न चोपशमयत्ययम् । तथाप्युक्तस्तथा राज्याहः कुमारो यथा नृपः ॥ ७९ ॥ अन्तर्मुहर्तमानाया, अपूर्वकरणस्थितेः । आद्य एवं क्षण एतद्गुणस्थानं प्रपन्नकान् ।।८० त्रैकालिकाङ्गिनोऽपेक्ष्य, जघन्यादीन्यसंग्ज्यशः । स्थानान्यध्यवसायस्योत्कृष्टान्तानि भवन्ति हि ॥ ८१ ।। असंख्यलोकाकाशांशमितानि स्युरमूनि च । ततोऽधिकाधिकानि स्युर्द्वितीयादिक्षणेषु तु ॥ ८२ ॥ आये क्षणे यजघन्य, ततोऽनन्तगुणोज्ज्वलम् । भवेदाद्यक्षणोत्कृष्टं, ततोऽनन्तगुणाधिकम् ॥ ८३ ॥क्षणे द्वितीये जघन्यमेवमन्त्यक्षणावधि । मिथः षस्थानपतितान्येकक्षणभवानि तु ॥ ८४ ॥ - -. बंधाती परावर्तमान अशुभप्रकृतियोगी पुनलो बंधाती सर्व शुभप्रकृतियोमा अपम ममये नेटला परे सेयो श्रीजे समये असंख्यगुण तेथी पण डीजे समये असंख्यगुण पम प्रतिसमय पहनी असंख्य गुणताए संकम से "गुणसंकम'. १ कर्मभी अधिक स्थिति से लियाध्याषसायोथी बंधातो हावाथी अधिकस्थिति अशुभ भनाय रहे. अहिं सातमे गुणस्याने प्रत्येकर्कर्म नी जे अंतःकोरकोडी सागगेपम प्रमाण स्थिति बंधाती हती ते ४थे अपूर्वकरण गुणस्थानना पहेले अग्समुहत्तै पत्योपमा रूपसम भागहोन, थीजे अन्तमही तेथी पण पल्योपमासंख्यतम भागहीन, ५ प्रमाणे प्रति अन्तर्मुहुर्ने पल्योपमासंख्यतम भा. गहीन बंधातो होगायो " अपूर्वस्थितिबंध अथवा अभिनय स्थितिबंध' करे. याय है Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ३.) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) (४९३) समकालं प्रपन्नानां, गुणस्थानमिदं खलु । बहूनां भव्यजीवानां, वर्त्तते यत्परस्परम् ॥८५॥ उक्तरूपाध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा । निवृत्तिस्तन्निवृत्त्याख्यमप्येतत्कीर्त्यते बुधैः ॥ ८६॥ इत्यष्टमं ।। ८॥ (आठमा गुणस्थाननो भेदविचार) अ-आ अपूर्वकरण क्षपकापूर्वकरण अने उपशमकापूर्वकरण एम दे पकारना अपूर्वकरण छे; त्यां मोहनीय कर्मनो क्षय अने उपशमने योग्य होवायो से तेवा प्रकारना कहेवाय छे [ अर्थात् मोहनीयना क्षय करनारनी अपेक्षाये क्षपकापूर्वकरण, अने उपशम करनारनी अपेक्षाए उपशमकापूर्वकरण.] ॥ ७८॥ था गुणस्थानवति जीव कोइ पण कर्मने क्षय करतो नयी तेम उपचमावतो पण नधी, नोपण आगल राज्य पामवाने लायक एवो राजकुमार जेम प्रथमयोज राजा कवाय तेम अहिं पण ते प्रमाणे (क्षपक अने उपशमक शब्दथी) कल के ।। ७९ अन्तमुहत प्रमाणवाली अपूर्वकरणनी स्थितिना हेले समयेज आ गुणस्थान पामनारा त्रणे काळना जीवोनी अपेक्षाए जघन्यथी मांडीने उत्कृष्ट सुधीनां अध्यवसायना असंख्य स्थानो होय छे. ॥८०-८१ ॥ अने ने सर्व मली असंख्य १ आ अपूर्वकरणगुणम्घामना प्रथमसमयपति भूतकालमा प्रतिपक्षमीवो, बर्तमानकालना पतिरपमान जीषो अने भविष्यकालना प्रतिपस्यमान ओषो ए प्र. माणे प्रथमस प्रयवर्ति त्रणे कालना जीवोना अघम्ययी मांडो उत्कृष्टसुधोना अभ्यवसायम्यानो क्षेत्रनी कालनी जीवोनी तरतमताये असंख्यातलोकाकाशप्रदेशममाण जाणवा. फेलिभगते ते ज प्रमाणे देखेल होचायो तेथी ओछा केवधारे होय महि, शंका-भूत-भविष्यकालनी अपेक्षाये आ गुणस्थान पामेला अने पाम ते जीयो तो अमरता छे. तो अध्यवसायस्थानी अनन्ना कम न थाय ? उत्तर-- एक सरखा अध्यवसायस्थानमा अनेकशीषोनु बर्तघापणु हो. बाथी अध्यवसायस्थानोनी संख्या पूर्वे कहेलो ज होयले घली पीने समये ने सोयोना तेनाथो जुदा साने संख्यामां पधारे अध्यषसायस्थामी होयछे, पीने समये तेनार्थी जुदा भने संम्यामां पण तेमायो पधारे. धौथे समये पण तेज प्रमाणे, यज प्रमाणे अम्तर्मुहुर्नस्थितिक भाउमागुणस्थानना यात्रा परमसमय सुधी कहेता अयं सर्वमध्यवसायोनी प्रतितमयनी/000000000 स्थापनाना ५ प्रमाणे म्यापनाकरता विषमतुरबक्षेत्र व्यापे |......... परेकसमयमा अने नाका--प्रथमसमयनां अध्यषसाय-00000000000 ध्यवसायस्थामा स्थामो करता बीजासमयलायीजाकरता 000-000-0००० मा धारी, थ. जीजासमयना धीजाकरता चोथासमयना ---००००००००००. वामां कारण शु! पम यावत अपारस्यसमयकरताबरमसमय 000000000000000| उत्तर- स्वभाव Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९४) || गुणस्थानद्वारे अष्टमा पूर्व करणगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् ॥ (बार लोकाकाशना आकाशप्रदेश जेटलां छे, अने बीजा त्रीजादि समयोगां तेथी पप्प अधिक अधिक अध्यवसाय स्थानो होय . ॥८२॥ तेमां पण एक जीवने प्रथम समये जे जघन्य अध्यवसायस्थान के, तेज समये बीजा कोइ जीवने तेथी पण अनंaगुण अधिक निर्मळ उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान ( प्रथम समय संबंधि उत्कृष्ट अध्यबसाय स्थान) होय, वली तैनाथी पण अनंतगुण निर्मळ बीजे समये जघन्य अध्यवसायस्थान होय है, एज प्रमाणे (अनन्तगुण विशुद्धिनुं स्वरूप) अन्त्य समय (आउमा अपूकरण गुणस्थानना चरमसमयना उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान ) सुधी जामं. बळी मत्येव समयनां अध्यवसायस्थानो परस्पर छ स्थान पतित होय के ॥ ८२-८३-८४ ॥ बळी निश्वयथी आ गुणस्थानने समकाळे अंगीकार करेला(पामेला) घणा भव्य जीवोने पूर्वे कडेला स्वरूपवाळा अध्यवसाय स्थानोनी व्यावृत्ति ( परस्पर फेरफारी) रूप निरृति जे कारणथी परस्पर वर्ते छे, ते कारणथी पंडि तो आने निवृत्ति नामनुं पण गुणस्थान कयुं छे, ।। ८५-८६ ॥ ए प्रमाणे. आठमुं अपूर्वकरण अथवा निवृत्ति नामनुं गुणस्थान करूं ॥ ८ ॥ तथा ॥ परस्पराध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा । निवृत्तिर्यस्य नास्त्येषोऽनिवृत्त्याख्योऽसुमान् भवेत् ॥ ८७ ॥ तथा किट्टीकृतसूक्ष्मसंपरा यव्यपेक्षया । स्थूलो यस्यास्थ्यसौ स स्याद्वादरसंपरायकः ॥ ८८ ॥ ततः पदद्वयस्यास्य विहिते कर्मधारये । स्यात्सोऽनिवृत्तिवादरसंपरायाभिधस्ततः ॥ ८९ ॥ तस्यानिवृतिवाद संपरायस्य कीर्तितम् । गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसंपरायकम् ॥ ९० ॥ अन्तर्मुहूर्त्तमानस्य, यावन्तोऽस्य क्षणाः खलु । > विशेष मां कारण छे के मा गुणस्थानपामगार शोषो दरेक समये विशुद्धिकने पाता छता स्वभावथीज उपर उपर चढ़ता जाय ते घणा भने जुदा जुवा अध्यवसाय म्यानोमां घ १ प्रतिसमयवति जघन्य अध्यवसायस्थानथी उत्कृष्टाध्यवसायस्थान सुधीना सवं परस्पर पदस्थानपतित होयछे, केटलाक अध्यवसायस्थानो अनन्तभागवृद्धिविशुद्धिषाळा होयछे १ केटलाक असंख्यात भागवृद्धि विशुद्धिषाळा होय २ फेट लोक संख्यात भागवृद्ध ३. केटलाक संख्यातगुणवृद्ध ४, केटलाक असंख्यातगुणधूद्र ५ अनेकेटलाक अध्यवसायस्थानी अनन्तगुणवृद्ध विशुद्धिषाला होय छे ६ で | ! Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ) ॥ श्रीलोकभकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) (४९५) तावन्त्येवाध्यवसायस्थानान्याहुजिनेश्वराः ॥९१ ॥ अस्मिन् यदेकसमये, प्राप्तानां भूयसामपि । एकमेवाध्यवसायस्थानकं कीर्त्तितं जिनैः ॥ ९२॥ अनन्तगुणशद्धं च, प्रतिक्षणं यथोत्तरम्। स्थानमध्यवसायस्य, गुणस्थानेऽत्र कीर्तितम् ॥ ९३ ॥क्षपकश्योपशमकश्चेत्यसो भवति द्विधा । क्षपयेद्वोपशमयेहाऽसौ यन्मोहनीयकम् ॥ ९४ ॥ इति नवमं ९ ।। सूक्ष्मः कोट्टीकृतो लोभकपायोदयलक्षणः । संपरायो यस्य सूक्ष्मसंपरायः स उच्यते ॥ ९५ ॥क्षपकश्चोपशमकश्चति स्यात्सोऽपि हि द्विधा । गुणस्थानं तस्य सूक्ष्मसंपरायाभिधं स्मृतम् ॥ ९६ ॥ इति दशमं १०॥ अर्थ-तथा [पकन समयमां] अध्यवसायम्थानोनी च्यात्ति (फेरफारी) रूप नित्ति जे जीवने नथी ते जीव अनिवृत्ति (गुण नाम वाळो) कवाय छ । तथा फिहिरूप करेला सक्ष्मफपायनी अपेक्षाए जेमे स्थूळ (बादर) कशय वर्ने छ ने यादरमंपराय जीव कहेवाप छे ते पछी ( अनिवृत्ति अने बादरसंपराय) ए वग्ने पदनो कर्मधारय समास करतां ते जीव अनिवृनि बादरसंपराय नामवाळो कहवाय छे, अने तेथी, ने अनिवृत्ति वादरमपरायी जीवनू गुणस्थान पण अनि. वृत्ति पादरसंपराय नामर्नु कहेलं छे ।। ८७-१० । निधये अन्न(हन प्रमाणवाळा आ गुण ( गुणस्थान ) ना जेटला समय छे. तेटलांज अध्यवसायम्यानो जिनेश्वरे कईला छे. ॥१॥ कारण के आ गुणस्थानमा एकज समये भावेला घणा जीवोनुं पण एक ( सरग्बु)ज अध्यवसायस्थान जिनेश्वरोप का छे ॥१२॥ अने ( त्यारवाद ) पतिसमय अनुक्रमे आ गुणस्थानमा अनंनगुणविशुद्ध अव्यरसाय स्थान कहेला छे ॥९॥ आ गुणस्थानवाळा जीव पण क्षपफ अने उपशमक एमबे मकारनां छे, कारण के आ गुणस्थानवाळो जीव मोहनीय कर्मने (क्षपक होय तो) क्षय कर छ अथवा तो [ उपशमक होय तो ] उपशमाये ले १२४ ॥ १. "निवृति" पटले व्यावृत्ति, अर्थात अध्यवसाय स्थानोनी एका म. मयमा अनेक जातनी फेरफारी. कारणक अधकरणना प्रथम समय पतना अनेक जीवोना पण अध्यवसाय जुदा मुषा होय ( अमे ९ मा गुणस्थानमा प्रथम समयमा धर्तता अनेक जीयोना अध्यषमाय मर्चना पकमरमाज होय ). Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९६) ॥ गुणस्थानधार दशमैकादगुणस्थानस्वरूपवर्णनम् ॥ द्विार ए प्रमाणे नवमुं अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थानक कधू । २।। जे जीवने । कीहीरूप करेलो लोभकषायोदयरूप सूक्ष्मकपाय गर्ने छ ते जीव सूक्ष्मसंपराय कहेवाय छे । आ जीव पण क्षपक अने उपशमक एम चे प्रकारनो के अने तेनुं जे गुणस्थान ने सूक्ष्म संपराय नामनु कहेलु छ । ९५-१६ ॥ र प्रमाणे दशमुं सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की ॥ १० ॥ यनोपशमिता विद्यमाना अपि कषायकाः। नीता विपाकप्रदेशोदयादीनामयोग्यताम् ।। ९७ ॥ उपशान्तकषायस्य. वी. तरागस्य तस्य यत् । छद्मस्थस्य गुणस्थानं, तदाख्यातं तदाख्यया ।। ९८ ।। असौ युपशमश्रेण्यारम्भेऽनन्तानुवन्धिनः । कपायान द्रागविरतो, देशेन विरतोऽथवा ॥ २९ ॥ प्रमत्तो वाऽप्रमत्तः सन् , शमयित्वा ततः परम् । दर्शनमोहत्रितयं, शमयेदथ शुद्धधीः॥१२००। कर्मग्रन्थावचरौ तु इहोपशमश्रेणिकृदप्रमत्तय- . तिरेव,केचिदाचार्या अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तयतीनामन्यतम इत्याहुरिति दृश्यते।(सा०२२७)श्रयन्त्युपशमश्रेणिमाद्यं संहननत्रयम् । दधाना नार्धनाराचादिके संहननत्रये ॥१॥तथोक्तं"उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुह्यते” इति कर्मस्तववृत्तौ। (सा०२२८) परिवृत्तिशतान कृत्वाऽसौ प्रमत्ताप्रमत्तयोः । गत्वा चापूर्वकरणगुणस्थानं ततः परम् ॥२॥ क्लीबस्त्रीवेदी हास्यादिषट्के पुंवेदमप्यथ । क्रमात्प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानसंज्वलनाः क्रुधः ॥३॥ तथैव त्रिविधं मानं, मायां च त्रिविधा तथा । द्वितीयतृतीयौ लोभी, विंशतिं प्रकृतीरिमाः ॥ ४ ॥ शमयित्वा गु. णस्थाने, नवम दशमे ततः । शमी संज्वलन लोभ, शमयत्यतिदुर्जयम् ।। ५ ।। उपशमश्रेणिस्थापना ॥ एक क्षणं जघन्येनोत्कर्षेणान्तर्मुहर्तकम् । उपशान्तकषायः स्यादृषं च निय Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९) । श्रीलोकभकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० २३१J (४९७) मात्ततः ॥ ६॥ अद्धाक्षयाद्भवान्ताद्वा, पतत्यद्धाक्षयात्पुनः । पतन् पश्चानुपाऽसौ, याति यावत्प्रमत्तकम् ॥ ७ ॥ गुणस्थानद्वयं याति, कश्चित्ततोऽप्यधस्तनम् । कश्चित्सासादनभावं. प्राप्य मिथ्यात्वमप्यहो ॥८॥ पतितश्च भवे नास्मिन्, सिद्धये. दुत्कर्षतो वसेत् । देशोनपुद्गलपरावर्ताद्ध कोऽपि संसृतौ ।। ९ ॥ तथोक्तं महाभाष्ये ॥" जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणतं पुणोवि पडिवायं । न हुभे वीससियो, थोवे वि कसायसेसंमि ॥१॥[विशे० भाष्य गाथा १३०९](यदि उपशान्तकषायः लभते अनन्तं पुनरपि प्रतिमासं । जैव अवता विश्वसितव्यं, स्तोकपि कषायशेषे॥१॥) ( सा० २२९ ) भवक्षयाद्यः पतति, आद्य एव क्षणे स तु। स- ण्यपि बन्धनादिकरणानि प्रवर्तयेत् ।।१०॥ बद्धायुरायुःक्षयतो, नियले श्रेणिगो यदि । अनुत्तरसुरेष्वेष, नियमेन तदोद्भवेत् ॥११।। तथोक्तं भाष्यवृत्तौ । “यदि बद्धायुरुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नः श्रेणिमध्यगतगुणस्थानवी वा उपशान्तमोहोबा भूत्वा कालं करोति तदा नियमेनानुत्तरसुरेष्वेवोत्पद्यते” इति ( सा० २३०)। गुणस्थानस्यास्य प्रोक्का, स्थितिरेक क्षणं लघुः। अनुत्तरेषु बजतः, सा ज्ञेया जीवितक्षयात् ॥१२॥ कुर्यादुपशमश्रेणिमुत्कर्षादेकजन्मनि। द्वौ वारौ चतुरो वारांश्चाङ्गी संसारमावसन् ॥ १३ ॥ श्रेणिरेकैवैकभवे, भवेत्सिद्धान्तिनां मते । क्षपकोपशमश्रेण्योः, कर्मग्रन्थमते पुनः ॥ १४ ॥ कृतकोपशमश्रेणिः, क्षपकश्रेणिमाश्रयेत् । भवे तत्र द्विःकृतोपशमश्रेणिस्तु नैव ताम् ॥१५॥ इति कर्मग्रन्थलघुवृत्ती (सा० २३१) । इत्येकादशं ११ ॥ १ अणिप्रतिपतिनस्य तु कालकरणेऽनियमः, नानामनियन नागास्थानग. मनादिति [ पाठ पूर्तिः ] विशेषावश्यकभाष्यगत १३०४ गाथा वृत्ती. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९८) । गुणस्थानद्वारे एकादशोपशान्तमोगुणस्थाननिरूपणम् ॥ (द्वार अर्थ-जे जीवे विद्यमान (सत्तामा रहेला) कषायोने पण उपशमाव्या छ, अने ( ने कषायो ) विपाकोदय तथा प्रदेशोदयने अयोग्य कर्या छे । एवा ते उपशान्तकपायो वीतराग छद्मस्थ जीवन गुणस्थान ने ते नामवडे ( उपशान्तकपायवीतरागमस्थ ए नामे) कहेलुं छे. ॥९७-९८॥ आ जीव निश्चये उपशमधेणिना पारम्भमां अनन्तानुवन्धि कपायोंने शीघ्र अविरत सभ्यग्दृष्टि अथवा देश - - - - - - - - १ उपशमश्रेणिनो प्रारम्भक जीव सिद्धान्तानुयायिना अभिप्राये अप्रमत्तसंयत मने काममन्यिकोना अभिप्राये पोथा पांषमा छठा सातमा ए चार गुणस्थानी पैकीना कोइपण गुणस्थान के धर्ततो होय मने ते अनन्तानुवन्धिने उपशमात्रोने सर्पमिरत भाषमांश दर्शनमोहनीयधिकने उपशमाये, हवे अहीं अनम्नानुबन्धिनी उपशमनानो प्रकार कहीये छोये.-अविरत सम्पष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत के अप्रमतसंयत प वार पैकीनो कोई ग, मनोयोग पचनयोग अन काययोग पैकीना कोषण योगमा प्रवर्तनो, अवश्य विशुद्ध पत्री तेजोलेश्या, पद्मलेश्या के शुक्ल लेश्या पैकीनी श्यायुक्त, साकारोपयोगमा उपयोगबाळी, अम्तःसा. गरोपम कोटाकोहीनी स्थिति ससाघाळी पराधर्तमान शुभप्रकृतिआने बांधतो प्रतिसमय अशुभकर्मोना अनुभागने अनन्तगुणहानिये हीन धरतो अनै शुभ कांना अनुभागने अनन्तगुणवृद्धिये पधारतो, एक स्थितिवन्ध पूर्ण थये मीजी नो स्थितियध पस्योपमसंख्येय भागहीन करतो अने मेज प्रमाणे आगळ आगळ हीन हीन स्थितियन्ध करतो, करणो करवाना कालथी पहेला पण अन्तर्मुहूर्त सुधी निर्मल थती चिससन्ततिवाळी पर्ते छ, अने ते प्रमाणे निर्मलपित्तसन्ततिमा अन्तर्मुहत काल रहोने अन्तर्मुहर्त काल प्रमाणयाळा यथाप्रवृत्त ३, अपूर्व २, अने अनिवृत्ति ३ पम घण करणो करे छ, अने चौथी उपशाम्ताद्धा होय छे, समां प्रथम यथाप्रवृत्तकरणमा प्रवेश करमो दरेक समये अनन्तगुण विशुद्धिये प्रवेश करे ड्रे, अन्तमुहूसंप्रमाण ययाप्रवृसकरणकालमां त्रिकालवति अनेकजोधांनी अपेक्षाये दरेक समये असंख्येय लोकाशाशप्रदेशप्रमाण विशुद्धिस्थानको होय छ, प्रतिसमययति त अध्यवसायस्थानको शि. शुधिमां षटस्थान पतित फया छे, तेमा पहेले समये जे सर्व जघग्यविशुद्धि ते सर्यथी स्तोक जापाबी, तेथो बीज्ञा समयनी जवन्यविशुद्धि अनन्तगुणाधिक तधो पण श्रीजा समयनी जघन्यशिशुद्धि अमरसगुणाधिक प प्रमाणे यावत Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २३१) (४९९) यथाप्रवृत्तकरणमा संख्येयभाग सुधी जवु त्यारमाद ने संख्येयभागमां आवेळ परमसमयभी जपम्पविशुद्धि करता प्रथम समयनी उत्कृष्टविशुद्धि अनसगुणा. धिक, तेमा करता प्रथम से जघन्यविशुद्धिस्थानफे अटक्यो छे, तेमाची उपरनु मपन्य विशुद्धिस्थानक अनन्तगुणाभिक, सेना करताबीजासमयनु उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानक अननगुणाधिक, तेनाथी उपरनु जधम्यविशुद्धिस्थानक अनन्तगुणाधिक, तेनाथी त्रौजा समयनं उत्कृष्टषिशुद्धिस्थाम अनन्तगुणाधिक, पक्ष प्रमाणे ( उपर बतान्या क्रम प्रमाणे ) नघग्य ममे उत्कृष्टम्यानकोने न मुकता अनन्तगुणवृद्धि प्रणिय यावत् यथाप्रवृत्तकरणमा परमसमयनु सर्वान्तिम ( सर्वथी रोषटना ) जघन्यविशतिस्थान सुधी माणयु. स्पारवाद बाकीमा सर्व उत्कृष्टस्थानको अनन्तगुणवृदिये जाणषा यावत् यथाप्रवृत्तकरणमा उपामयसमयमा उत्कृष्ट विशुद्धिम्यान करता घरमसमयनु सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिस्थाम अनन्तगुणधृद्ध होय छे. आ यथाप्रवृत्तकरणमा स्थितिघातादिने योग्य विशुद्धिनो अभाष होापी, स्थितिघास-रसधात-गुणणि अने गुणसंक्रमण करतो नधो. आ प्रमाणे प्रथम यथाप्रवृत्तकरणर्नु स्वरूप जाणवू. हधे योजु अपूर्वकरण बताथाय छ, आ अपूर्वकरणमा पण दरेक समये असंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण विशुद्विस्थानको छे. अने ते पण दरेक समये परस्पर घटस्थानकपतित होय छ, अपूर्वकरणमा प्रथमसमये अघन्यषिशुद्धि सर्वथी स्तोक छे, ते पण यथाप्रवृत्तकरणमा घरमसमयनी उस्कृष्टविशतिः स्थान करता अनन्तगुण होय जे, तेमा करता पण प्रथमसमयनोज उत्कृष्टविशुद्धि अमन्तगुणाधिक होय छे, तेनाथो वीजा समयनी जघन्यविशुद्धि अनानगुणाधिक, तेथी बीजा समयनीज उत्कृष्ट विशुद्धि अनम्तगुणाधिक प प्रमाणे पूर्वसमयनी उत्कृष्ट विशुद्धि करता आगळमा समयनी अघन्य अने ते करना तेज समयमी उस्कृष्ट एवी अनन्तगुणवृशिवाळी श्रेणिये त्यां सुधो जाणवु यावत् অনুজলা স্বমযী এঘষিতি ব্ৰথায় সমযী ও বিযুক্তি करता अनन्तगुणाधिक अने तेमा करता तेज चरमसमयनी उत्कृष्ट विनिय मन्तगुणाधिक आणबी.मा अपूर्वकरणमा प्रवेश करतो समकामेज स्पितिघातरसघात-गुणश्रेणि गुणसंक्रम अने अपूर्ण स्थितिषाब ए पांचे पदार्थो आरम्भ (१) स्थितिघात-स्थितिसाकर्म (सत्तागतकर्म)ना आगळमा भागथी जयन्यथी पत्योपाना संख्येयभाग प्रमाण अने उत्कृष्टयी सागरांपम शतपृथक्त्य Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) || गुणस्थानद्वारे एकादशगुणस्थानपसंगम उपशमश्रेणिस्वरूपम् ।। (छार प्रमाण स्थितिने ना करे अने ते बलिकने नौसेनी जे स्थिति मण्डित महि करे तेमा प्रक्षेप करे. अन्तर्मुहृतकाले ते इलियु वण्डाय है, ते पछी बळी तेनाथी नीचेना उपर चसापळ कमी पल्यानंख्येयभाग प्रमाण स्थिति खण्डने उकले अने दलियाने प्रक्षेप करे. प प्रमाणे अपूर्वकरणना कालमा अनेक हजारो स्थितिखण्डो थाय छे. ने अपूर्वकरणना प्रथमसमये :ने स्थिनिकम इतुं ते चरमसमये संख्येयगुणाहीन थयु, आ प्रमाणे स्थितियातनुं स्वरूप जाणवू. [२] रसघात-अशुभप्रकृतिओनु जे अनुभागसत्कर्म रघु छे. तेना एक अनम्नमा भागने मुक्रीने धाकीना विभागांना अनन्ता अनुभाग भागीन दरेक समये विनाश करतो अम्तमुहुर्तकाले सम्पूर्ण विनाश करे ते पछो यही प्रथम मूकेला अनम्तमाभागनो पक अनन्तमो भाग गृको बाकोना विभागने पूचे कडेला विधि प्रमाणे अन्तर्मुहुर्त काले सम्पूर्ण विनाश करे, प प्रमाणे पक स्थितिखण्डना उत्किरणकाल हजारो अनुभागखण्दो व्यतीत थाय छे. हजारो स्थितिबण्डोये अपूर्वकरणनी परिसमामि चाय छे. आ प्रमाणे रसघा. सनु स्वरूप जाणवु. (३) गुणणि-कालप्रमाणथी अपृर्षकरण अने मनिवृतिकरणमा कालथी विशेषाधिक करे , सेमां अन्तर्मुहृतप्रमाणगाली स्थितिथी उपरवर्ततीस्थि सम्बन्धि दलोयु लाने उदयावलीकाथी ऊपर वर्तती अन्तमुहून प्रमाण स्थितिओमा निक्षेप करे. [ जे स्थितिनो पात पये लो छे. तेमांपो दलीयु लाने अनन्तानुबन्धिनो उदय न होबाथी उदयालिफा छोटीने प्रतिसमय असंख्यातगुणवृद्धिये रचमा करयी, जो प्रकृतिनो उदय होय तो उदयावलिकाना प्रथम समयथी असंख्यातगुणी रचना थाय छे, इति विशेष: J प्रयमसमयनु महण करेलु दलीयुं में निक्षेप कराय छे, ते थोडे नखाय है, बीजे समय तेयो अग्नरूयेयगुण, पीजे समये तेथी असंख्ययगुण, प प्रमाणे यावत् गुणणिरषनानो घरमसमय आवे. बीमे समये पण अन्तमुहर्तथी उपरती स्थितिमाथी से इलियु प्रहण क. गयछे ते प्रथमसमयगृहीत दलिया करना असंख्येयगुण जाणयु. अन तेनो पण पूर्वमी माफक निक्षेप जाणवी, पज प्रमाणे श्रीजा विगरे समयोमा पण ग्रहण अने निक्षेपो जाणधा, आ प्रमाणे गुगधेणिर्नु स्वरूप जाणवू. (५) गुणसंक्रम- अपूर्षकरणना प्रथमसमये अनन्तानुवन्धिकषाय सम्बन्धि में दलीयु परप्रकृतिमा संक्रमाये ते स्तोक छे, तेथो पोजे समये संकमण करात Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३१) (५०१) असंख्यातगुणुं त्रीले समये तेथी असंख्यातगुणु ए प्रमाणे यावत् अपूर्षकरणाद्वानो परमसमय आधे म्यांसुधी असंन्यानगुण असंख्यातगुण कहेवू आ प्रमाणे गुणसंक्रमर्नु स्वरूप आणवू, Pा अपूर्वस्थितिबन्ध--अपूर्वकरणना प्रथमसमये चीजोज स्थितिवन्ध शरुकोछे स्थितिबन्ध अने स्थितिखण्ड पकसाथे शाकराय छे अने पकमाथे समाप्त थायछे. आप्रमाण आ पांचे पदार्थो भा अपूर्वकरणमा एकसाथ आरंभायछे, आ प्रमाणे अपूर्वकरणने स्वरूप जाणवं. हवे अमितिकरणनु स्वरूप बताथाय छै- मा अनिवृतिकरणमां स. मकालपनि सजोषोनु पफज अध्यवसायस्थान होयछे, पटलेके ! अनिवृतिकरणमा प्रथमसमयमा जेओ भूसकालमा प्रवेश करीगया धर्तमानमा प्रवेशकरेले अने अनागतकालमा प्रधेशकरशे, ते सर्व प्रणेकालना प्रथमसमयनि जीषोनु एकरूपज अध्यवसायस्थान होय. पज प्रमाणे वीनासमयमा पण जे पी गया, वर्ने छ भने धनशे ती सर्वभु पण एका सरचे अध्यवसायस्थान होय छे मात्र प्रथम समयना मध्यवसायस्थाननो विशुद्धिनी अपेक्षाये बीजा ममयना अध्यषसायस्याननी पिशुद्धि, अमग्मगुण होयछे.पज प्रमाणे यावत अनिवृत्तिकरणना चरमसमयसुधी तसत्समयषति धणे कालना सजोषोनु सरखे सरखं अध्यवसायस्थान होय अने ते पूर्वपूर्व समपना अध्यवसायस्यान करता उत्तरोत्तरसमयनु अध्यवसायस्थान अन- . न्तगुण अनन्त गुण विशुद्धियालु झाणवू, आज कारणथी पटळे के आ अनिवृत्तिक रणमा प्रवेश करेला समानकालीन सभाणोओ संबम्धी अध्यवसायस्थानोमां परस्पर निवृत्ति-फेरफार (तरतमता-न्यूनाधिकपणु-जघन्योत्कृष्टादिभाव ) मथी माटेज आनु अनिवृप्तिकरण पद्यं नाम आपेलु छ. भा अनिवृत्तिकरणकाटना भेटला समयो छे ते टलाज सेना पूचंपूर्व अध्यक्षमायस्थान करना अ. नन्तगुणवृद्ध अभ्यबसायस्थानो २ अने तेओनी स्थापना करता मुक्तावनि ( मोतीनी पंक्ति ) ना आकारे स्थापी शकाय है,T000000000000 | आ अनिवृत्तिकरणमां पण प्रथमसमययोज पूर्ण बताघेला स्थितिघातादि पांच पदार्थों पक साथै आरंभाय छे अनिवृत्तिकरणना कालना संख्येयभागो गया याद पक भाग पाको रय छते अनन्तानुषिकापायोनु नीथी आपलिका मात्र मूकी अन्तमुर्त प्रमाण अन्तस्करण अभिनपस्थितिबाधना कालनी स. गम्सा अन्तम हत प्रमाणका ले करे छे, ते आ प्रमाणे-नीचेथी माविका मात्र मुकी उपरनु अन्तर्मुहर्त प्रमाण स्थितिखंड उकरे भने उकेरातुं ते दलोयुं बंधाती परप्रकृतिओमा संक्रमाय स्थितियाधना काळनी सरखा अम्तमुहर्ने अन्तरकरण Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०२ ) || गुणस्थानद्वारे एकादशगुणस्थानप्रसंगत उपशमश्रेणिस्वरूपम् || (द्वार विरत अथवा प्रमत्त के अममत्त थयो तो [अर्थात् ए चारे गुणस्थानमां] उपक्षमावी ( मतान्तरे विसंयोजी ) ने त्यारबाद विशुद्धबुद्धिवाको एबो ते जीव ऋण दर्शन मोहनीयने उपमाये ॥९९- १२०० || कर्मग्रन्थनी अवचूरीमांतो कहुं छे के" अहिं उपशमश्रेणि करनारो जीव अप्रमत्तयति ज होय छे, अने केटलाएक आचार्य सभाम कराय छे. प्रथम स्थितिमी आवलिकामा रहेलु दळीयुं वेदाती परप्रकृतिओम स्तिलक्र से संक्रमासे अने अन्तरकरण करें छते बीजे समये अमरतानुबन्धिनुं उपरनो स्थितिनु वळीयुं उपशमाथे से आ प्रमाणे - प्रथमसमये थोहुँ, बीजे समये तेथी असंख्येयगुण, श्रीधे समये मेथी असंख्येयगुण, पम यावत् अन्तर्मुहूर्त काले अनन्तानुबन्धिने संपूर्ण उपशमाने, अर्को हवे संपूर्ण अनन्तानुबन्धिकषायो उपशान्त थया. उपशान्त पया पटले जेम हेणु (रेती) तो ढगलो पाणीना बिन्दुओना समूह सोंची सींची लाकडाना धणे घणे ( बुडा अथवा गेल विगेरे ए) कुटायो (दबायो तो खरा रहित थाय छे तंम कर्म रेणुनी ढगळी पण बिशुद्ध रूप पाणीनामवाहवढे लोंची सींची अनिवृत्ति करणरूप घणवढे कुटयो छती संक्रमण -१, उदय-२, उदीरणा-३, मिवश-४ निकाचना-६, प करणाने अयोग्य थाय हे पटले तेषा उपशाम्त करेला कर्ममां आ पांच करणी प्रवर्ती शकता नथी, बीजा आचाय कडे छे के अनन्तानुबन्धिनी उपशमना पती नथी परन्तु विसंयोजनाज थाय छे, बिलंयोजना पटले श्रपणा, ते विलंयोजना करनार अविरत सम्यगपुष्टि होय तो बारे गतिना जीवो पण [उपशमश्रेणि शिवायना प्रसंग ] करे छे, देश चिरत होय तो तिच अने मनुष्यो पण करे छे. अने सर्वविरतोय तो मनुष्यो ज होय हे ते दिसंयोजना करणा माटे पूर्वे बता वेला यथाप्रवृत्त - अपूर्वे अने अभिवृत्ति ए त्रण करणो करमा पढे छे, मात्र अर्थी तफावत पटलोज के अनिवृतिकरणमां पेठा छतां अम्तरकरण हो नयी, अने तेना अभाषथी उपशम पण यतां नथी, भर्ती अपूर्वकरणर्मा अनतानुबन्धिमोक्षपणा करणाने प्रवर्तको जीष सम्पश्वोत्पत्तिती जेम यथाप्रवृत्त बिगंजे त्रण करणो करेछे. विशेषमां अह अपूर्वकरणमां प्रथम समययोज अनस्तानुचन्धिमो गुणसंकम पण कद्देवो. गुण संक्रमषिधि-- अपूर्वकरणमा प्रथमसमये अनन्तानुबन्धिमुं दळीयु शेषकषायरूप पर प्रकृतिमां थोडं संक्रमावे खोजे समये मेथी असंख्यातगुण, श्री समये तेथी असंख्यातगुण र प्रमाणे अपूर्वकरणमा घरसलप्रयसुधी कटेषु. आ गुणसंक्रम पण स्थितिनी अपेक्षाये घणा मोटा एषा प्रथम स्थिति खंडनो अने विशेष विशेषहीन एवा बीजा बोजा विगरे स्थितिखेडोनों जे घास करबो ते घातथी उत्पन्नधयेत्र में उइलमा संक्रम सेनार्थी अनुविद्ध जाणचो आषा उमासंक्रमानुषिद्ध गुणसंक्रमे करीने अपूर्वकरणमां अमरतानुबन्धि क पायनो वाकीनी प्रकृतिस्वरूप बनायवाथी नाशक रेछे अने अभिवृत्तिकर Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१मुं) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [ सा० २३१) (५.०३) अविरत - देश विरत - प्रमत्त-ने अपमन ए चारमांनो कोइपण होय एम कड़े छे " प्रथमना ( वर्षभनाराच, ऋषभनाराच अने नाराच) त्रण सङ्घयणने धारण करवा बाळा जीवो उपशमश्रेणि अङ्गीकार करें ले, पण अर्धनाराचादि (कीलिका छेवट्ट) १. अनन्तानु० ४ अने दर्शन ने उप नियोश्रेणि, अने शेष २५ कषायने उपशमावा ते चारित्रमोदोपशमणि एम उपशमश्रेणि से प्रकारभी छे. हवे अनन्तानु० ४ नी उपशान्ति ४-५-६-७ मांना कोइरण गुणस्थाने होय छे, शेष मिध्यात्यादि त्रणी उपशान्ति ७ मे गुणस्याने, अने चारित्रमोहनीय उपशमश्रेणिनी प्रारंभ में अने सर्वापशान्ति ११ मे होय छे. आ प्रकार होवाथी अपेक्षा पूर्वक चांथेथी सातमे वा सातसे पा आदमें उपशमश्रेणिनां प्रारंभ कडेवामां कोइ जानो विरोध संभव नथी. मां वर्तती छतो गुणक्रमानुषिद्ध उशना संक्रमे करी संपूर्ण अनन्तानुयन्धिनो बिनाश करे. मात्र नीचेी आवलिकामात्र सुकोचे ते पण स्तियुकरमे करी देवाती प्रकृतिओमां संकमाये अन्तर्मुहूर्तथी आगळ अनिवृत्तिकरणना छेडे वाकीना कमना पण स्थितिघात रखघात गुणश्रेणिओ न करें परन्तु मोहनीयनी चोवोशनी सत्तावादी स्वभावस्यज रहेछे, आ प्रमाणे अनन्तानुबन्धिनी त्रिसंयोजना ( क्षपणा ) जाणवी. , इथे त्याला वर्शनकिनी उपशमना करे ते आ प्रमाणे – प्रथम मिथ्यात्वमोहनीयनी उपशमना करनार वे प्रकारना जीध होय, सम्यक्बोत्पादकामां मिथ्यादृष्टि जीव होय १ अने उपशमश्रेणिना प्रारंभकाळमां क्षयोपशमसम्यग्वष्टिजीव होय २, अने मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्त्वमोहनीयनी उपशमना करनार तो मात्र क्षयोपमसम्यग्दृष्टित दोष के अह तो दर्शन त्रिकनी उपशमना करनार क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि लंबाना छे. ते पण पूर्वोक गुणवान सर्वविरत संयतमहात्मा अ दर्शन त्रिकमी उपशमना अन्तर्मुहूर्तमाथ काले करे छे. दर्शनचिकनी उपशमना करती खते पण श्रण करणनो विधिमी माफक जाणत्री, यावत् अनिवृत्ति करणना कालना संख्याता भागी गये छते अन्तरकरण थाय छे। अन्तरकरण करता छतां चेदानी सम्यक्त्वमोनीयनी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापन करे मिध्यान्य अने मिश्रitter आलिकामात्र स्थापं प्रणेतुं पण उकेरातुं वदीयं सम्यक्त्व मोहनीयती प्रथम स्थितिमां नांखे, मिथ्यात्व अने मिश्रमांनीयनुं प्रथम स्थितिनुं युं सम्यक्त्रमोहनीयना प्रथम स्थितिना दलिकम किकमे संक्रमाचे, सम्यक्यमोहनीयनी प्रथम स्थिति विपाकोदयथी क्रमे क्रमे यथये छले उपशमस्यग्दृष्टि थायले, मिथ्यात्वमोहनीयादि त्रणेना पण उपस्थि सिना दलियानी उपशमना अनन्तानुबन्धिना उपरनो स्थितिना वहियानी उपमनानी प्रेम जाणषी आ प्रमाणे दर्शन प्रिकनी उपशमना समजयो. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) ॥ गुणस्थानबारे एकादशोपशान्तमोहगुणस्थाननिरूपणम् ।। द्विार छलां वण सङ्घ-यणवाळा नहि. ॥१॥ कयु छ के-"वळी उपशमणि प्रथमनां त्रण संघयणबडे आरोदाय छे [अङ्गीकार थाय छ.]" ए प्रमाणे कर्मस्तय (बीजा फर्मग्रन्थनी धृत्ति) मा क छे, वळी आ (उपशमश्रेणि करनार) नोव प्रमत्त - -- - - - - ___ आ प्रमाणे वर्शनधिकनी उपशमना कर्या चाद चारित्रमोहनीयनी उपशमना करवामाद ग्रथाप्रवृत्तफरणादि पण करणो करे छ, करणानु स्वरूप पूर्वनी माफक जाणवु. मात्र यथाप्रवृत्तकरण अप्रमत गुणस्थानके, अपूर्यकरण अपूर्वकरणगुणस्थानके अने अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके माणया, तेमां अपर्वकरणमा स्थितिघातादि पूर्वनी माफक अपत छे. विशेषमा अहीं नहि बंधाती सर्ष अशुभप्रकृतिआनो गुणसकम प्रवत्तछे, अप करणकास्टमी मंख्यातमी भाग गये ढ़ते निद्रा अने प्रचला प वे वर्शनाघरणीयनो बन्धविच्छेद थाय छ. न्यारयाच घणा इजारो स्थितिष डो गये इसे अपूर्वकरणकालना मंख्याता भागो गया एक भाग अबशेष रहेछे. अर अवसरे देवगति १. देवानुग: २. पानेन्द्रियजाति ३, वैकिय ५, आहारक ५ नेजस ६ कार्मण ७ एकर शीर माना ग या पकिय अंगोपाग ९, आ. शरक अंगोपांग १०, पर्ण ११, गंध १२, रस १३, मारशं १४ प चतुष्टय, अ. गुरुलघु १५, उपधात १६, पराधात २७, उच्छ्वास १८, म १९. यादर २... पर्याप्न २१, प्रत्येक २२, प्रशस्तविहायोगति २३. स्थिर २४, शुभ २५, सुभग २६, सुस्बर २७, आवय २८, निर्माण २९, अने तीर्थंकर नामकर्म ३.. पधील प्रकृतिओनी वन्ध व्यवच्छेद पामे, त्यारबाद स्थिलिखंड पृथकाय गये अपूर्वकरणकालना परमसमय हास्य ३. रति २, भय ३, अने जुगुप्सा ४ प चारनो बग्धव्यवच्छेद याय, हास्य १, रति २, अगति ३, शोक ४, भय ५, अने जुगुप्सा ६, ए षट्कनो उदय व्यथरछेद अने सबकोभा देशोपशमना निधत्ति अने निकाचना प करणोनो व्यवच्छेद पाय छे. ते पछी अनन्तरसमये अनिवृसिकरणमा प्रवेश करे अमे से अनिवृत्तिकरणमा पण स्थितिघात बिगेरे पूर्वनो माफक को छ, न्यारवाद अनिवृत्तिकरणकालना संख्याता भागो गये छते यारकषाय अने नव नोकवाय ए एकवीश मोहनीय प्रकृति मोनु अम्मारकरण करे छे तेमां जे थेदनो अने जे संज्वलनकषायनो उपय वर्तनी होय ते येउनी पोत पीताना उदयकाल प्रमाण प्रथम स्थिति करे अने वाकीना अगीआर कषाय म. ने आट नोकषाय ए आंगणोशनी आपलिकामा स्थिति करे, महीं घारे सवालनकषायो अने प्रणे वेदोन पोतपोतानु उदयकाल प्रमाण आ प्रमाणे-स्त्रीय नपुंसकवेदनों उदयकाल सर्वस्तीक अने परम्परतुल्य, नेनाथी पुरुषवेदनो उदयकाल संत्र्यातगुणो, तेनाथी पण संज्वलनकोधनी विशेषाधिकतेनायो पण ज्व लनमाननो विशेषाधिक, लेनाथी पण संज्वलनमापानी विशेपाधिक. तेनायो पण संज्वलनहीभता विशेषाधिक, नेमां ज्वलनकोधोदये उपशम्|णि अंगी Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥ श्रीलोफमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३१) (५०५) अने अपमत गुणस्थानमां सेंकडोवार पराशत्ति (आत्र जा) करीने अने अपूर्वकरण गुणस्याने जइने त्यारबाद [नयमे गुणस्थाने] नपुंसकवेद-खीवेद-हास्यादि ६-पुरुषवेदत्यारवाद अनुक्रमे मत्याख्यानावरण-अप्रत्याख्यानी एवेकोध-संज्वलन क्रोध नेचीज रीने भत्याख्यानावरण-अप्रत्याख्यान एवे मान-गे संज्वलनमान-नेवीजरीते प्रत्याख्यानावरण-अप्रत्याख्यान एवे मापाने संज्वलनमाया तमाम बीजो ने बीजो (अमत्यारव्या पाल्यान) लोमा ३० प्रतियोन नमे गुणस्थाने उपशान्त करीने कार करमारने ज्यांसुधी अप्रत्याख्यामाबरण-प्रत्याख्यानावग्ण कोधनी अप. शम थाय नहि स्पांसुधी संज्वलमक्रोधनों उदय बर्ते छ, पज प्रमाणे संज्वळममानोदये श्रेणिकरनारने ज्यांसुधी चे माननी उपशम थाय नहि त्योसुधी संज्वलनमानती उदय व छे, तेज प्रमाणे संज्वलनमायाना तथा लोभना उघयमां पण समजवु, आ रीते मर्यकर्मन अन्तरकरण उपरना स्थितिभागनी अपेक्षाये मरखं अने मौचना स्थितिभागनी अपेक्षाये उपर यनाव्या प्रमाणे विषमतावा होय छे. जेटसे काले स्थितिखंडनो घात करे अथवा अ. भ्यस्थितिबंध करे तेटले काले अन्तरकरण पण करे. पटले के स्थितिघात अन्य स्थितिबंध अने अन्तरकरण पचण्ये पण समकाले शक करे अने ममकालेज पूर्ण थायछे. इथे अन्तरकरण संयंधि बलीयानो प्रक्षेपविधि आ प्रमाणे-जे कर्मोनो ने धनते बन्ध अने उदय ए थेट विद्यमान होय सेमी. नु भन्नरकरणनु दलीयू प्रथम स्थिति अने योजी स्थिति प बेमा प्रक्षेप करे, ओम पुरुष घेवोदये धेणिमा पहनार पुरुषमा दलीयानोबे स्थितिमा प्रक्षेपकरे, जे कर्म प्रकृतिओनो केवळ उदयज विद्यमान होय धन्ध न होय ते कर्मानु अन्तरकरण संयंधि दळीयु प्रथम स्थितिमांज प्रक्षेप करे, बीजी स्थितिमा न माने, जेम श्रीवेदना उदये घेण्यासद जोव श्रीधेदना दलोपानो प्रथम स्थितिमा प्रक्षेप करे, पली में कर्मप्रकृतिओनो उदय विद्यमान न होय केवल बन्धन होय तेओk अम्मरकगण मंबंधी दलोयुं बीभी स्थितिमांज नांखे प्रथम स्थितिमा न मांये, जेम मंग्वलनक्रोधादय श्रेण्यावर जीव संचालनमान विगेरेना वलीयानो बीजी स्थितिमांजप्र. क्षेष करे, सेमज में कर्मप्रकृतिआगो बन्ध पण न घर्ततो होय अने उदय पण न विच. माम होय ते कर्मोन अन्तरकरण संबंधी दलीयु पाप्रकृतिओमां प्रक्षेप करे. जेम अप्रत्याख्यानाधरण प्रत्याख्यामापरणकपायोन दलीयु मंज्वलनकायर्मा प्रक्षेप करे, अहीं अनिवृत्तिकरणमां पणुं वक्तव्य कोयानु छै परन्तु विस्तार ना भयथी अहीं ऋयु नयी विशेषार्थयि कम्मपयबीटीका विगेरेधी जाणवू हवं अन्तरकरण करीने (कमप्रकृतिमां अन्तरकरणना धीजे समये ए प्रमाणे कधुछे ) नपुंसकवेदने उपशमापं. नपुंसकवेदोपशमना घिधि आ प्रमाणे-पहेले समये स्लोक (थोडा इलोया) उपशमाचे, बीभे समये तेषी असंख्यातगुण उपश Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०६ ) || गुणस्थानद्वारे उपशान्तभो हगुणस्थानप्रसंगत उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार ==rET' स्वारबाद उपशमश्रेणिवाळा (मुनि) दशमे गुणस्थाने अनि दुर्जय एवा संज्वलनलोभने उपशान्त करें. ॥ २ श्री ५ ॥ अने जघन्थी १ समय अने उत्कृष्टपणे अन्तर्मुहूर्त धी उपशान्त कपायो थाय अने स्यारबाद निश्चयथी ॥ ६ ॥ अद्धाहृयथी ( ११ मा गुणस्थाननो अन्तर्मुहूर्तकाळ पूर्ण थवाथी) अथवा आयुष्यनो क्षय भवाथो नीचे पड़े ले ( उतरे ले ; त्यां अद्धा क्षयधी पडतो ने मुनि पचानुपूर्व‍ माये, श्रीने समये यली सेनाथी पण असंख्यातगुण प प्रमाणे यावत् चरम स मयसुधी दरेक समये असंख्यातगुण असंख्यातगुण उपशमावे. अने उपशमावेल दलीयानी अपेक्षाये दरेक समये यावत् विचरम ( उपान्त्य ) समयसुश्री परप्रकृतिने चिपे असंख्यातगुण असंख्यातगुण प्रक्षेप करे ( संक्रमाचे ). परन्तु श्वरम समयने विषे उपशमात्र जे लो ते परप्रकृतिमां संक्रमात्राला दलीयानी अपेक्षाये असंख्यातगुण जाणवु, आ प्रमाणे नपुंसकवेद उपशमायी. पनले नपुंसकत्रैव उपशस्ये ४ अमन्तानुषन्धि, १ मिथ्यात्वमोहनीय, १ मिश्रमोहनीय, १ सम्यक्त्वमोहनीय अने १ मपुंसकये ए प्रमाणे आठ मोहनीयमकृति उपशान्त था, त्यारपछी अन्तर्मुहुर्तकाले उपर बताया कमे खोद उपशमाये पटले नव प्रकृति उपशान्त थर, त्यारपछी अन्तर्मुहूर्त काले हास्यादिछ प्रकृतिओ उपशमाघे पटले पंदर प्रकृतिओ उपशान्त थर, अने तेज समये पुरुपना ग्रन्ध-उदय अने उदोरणानां तथा प्रथम स्थितिनां व्यवच्छेद थाय ( हास्यादि छ पलिनो उपशम यये छते पुरुषवेदनो प्रथम स्थितिमां सम मात्र उदय स्थिति शेष रहे छे. ते बखते पुरुषवेदनो बन्ध सहय इति कर्मकृतौ ) पुरुषवेदनी में आवहिकाप्रमाण प्रथमस्थिति शेष रहे आगाल थतो नथी, उदीरणा तो थायले, त्यारथी मांडीने छ नांवाय संबंधी दलीयुं पुरुषवेदमां प्रक्षेप करे ( संक्रमावे ) नहिं परन्तु संस्वलन कोधादिमांनांखे, कम्मपयडीमां पण छेके से आपलिका शेप र दलद्रग्रह न थाय हास्यादिषट्कनी उपशमना थया पछी समयीन वे आषनिकामात्र काले संपूर्ण पुरुषवेदने उपशमा, पुरुषवेदने आ प्रमाणे उपशमार्थ – प्रथन समये थोडे उपशमायें, घीने समये असंख्येयगुण, तेनायी पण त्रीझे समग्र असंख्य गुण, प्रमाणं घे समयन्यून आलिकाको चरमसमय आये त्यांसुधी असंख्ये गुण अवगुण उपशमना कहेगी. अंत ते ये समयन्यून आलिकाद्विक काल सुधी प्रतिसमय गयाप्रवृत नेक्रमे करी परप्रकृतियां संक्रमाचे, परन्तु प्र थम समये धणुं, यो समय विशेषहीन, तेथी पण बोजे समये विशेषहीन, ए प्रमाणे यावत चरम समय आये त्यांसुधी कहे पुरुपद उपशान्तये सोळ प्रकृतिओन उपशम भयो, ते पछी जे समये हास्यादिछतो उपशम थयो a great प्रथम स्थिति क्षीण यह ते समयी आग अप्रत्यास्थानाव 4, Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३१) प्रकृतयः अवशिशः भवक्षयेण उपशमश्रेण्यन्तर्गतगुणस्थानेषु कालं कृत्वा अनुवर विमाने त्पधते, गच्छति मयम गुणस्थानं द्वितीयं वा गत्वा चतुथ वा गच्छति। पतन आपष्टं-आअद्धाक्षयेण पति उपशान्ताः प्रकृतयः . ० - m. . . . . : जफ 卐5फ 5 | उपशान्तमोहः १ संज्वलनलोभं उपशमयति २८ २ अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणलोभौ उपशमयति २७ १ संचलनमायां उपशमयति २० २ अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणमाये उपशमयति २४ १ संज्वलनमान उपशमयति २२ २ अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणमानौ उपशमयति २१ २ संज्वलनकोयं उपशमयति १० २ अपत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणक्रोधी उपशमयति १८ १ पुरुषवेदं उपशमयति १० । हास्य १० रति ११ अरति १२ भय १३ शोक १४ जुगुप्सा १५ रूपं पटकं उपशमयति १५ . स्त्रीवेद उप० ० | . नपुंसकवेद उप० ८ १ सम्यक्त्वमोहनीयं उपशमन मिश्रमोहनीय उपशमयति ६ . १ मिथ्यावमोहनीयं उपशमयति ५ २४ अनन्तानुबन्धिनः क्रोध ५-मान २-माया -लोभान् -उपशमयति ४ | ॥ उपशमश्रेण्यारोहकमोऽयं ॥ मोहनीयपकृतय अष्टाविंशतिः ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०८ ) । गुणस्थानद्वारे एकादशगुणस्थानप्रसंगत उपशमश्रेणिस्वरूपम् || (द्वार रण को प्रत्याख्यानावरणकोष अने संञ्चलनकोध ए जणे समफाले उपशमाबचा प्रारंभकरे, हवे संज्वलनकोधनी प्रथमस्थिति समयम्यून त्रण आवळिकाशेरछते अप्रत्याख्यानात्वरण प्रत्याख्यानावरण क्रोधनु वकोयुं संवलनशी धर्मा प्रक्षेप करे नहि, परन्तु संज्वलन मान विगेरेमां प्रक्षेपे, कथुं छे के स मयम्युम जण आवलिका शेष रहो संम्बलनक्रोध पतदूग्रह न थाय. मे आजलिका शेष रहते तो आगाल पण यतो गयो, परन्तु पकली उदीरणाज प्रब छे, अने एक भावकिका बाकी रहे त्यांसुधी उदीरणा हीय, पछी ते एकावखिका अवशेष रहे ते ते संचनक्रोधना बन्ध, उदय भने उदीरणानी व्यवच्छेद थाप, अने अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण कोध उपशारत या पटले के आटले सुधीमां अदार प्रकृतिभी उपशान्त थइ, ते बखते बाकी रहे प्रथमस्थिति संबंधी एक आवलिका अनं समयन्यून आवलिका शिक बज्र उपरनी स्थिति संबंधी दलीयुं छोडोने बाकी सर्व संज्चलनक्रोध उपशमाव्यो, स्थारवाद से प्रथमस्थिति संबंधी एक आवलोकाने लनमानमां स्तिबुक संक्रमे मां भने समयोगश्रावलिकाशिक बदलीयु पुरुषषेत्रमां अणावेला प्रकारडे उपशमा अने संकमाये, पटले समयोन वे आवलिकाप्रमाण काले कोध उपशमाच्यो, पटले भोगणीश प्रकृतिओ उपशान्त यह इसे ज्यारे संवोधना बन्ध उदय उदीरणानो व्यवच्छेद थयो सेना अनन्तर समबधी आरंभी संचलन माननी बोझो स्थितिमांची दलीयु' लेवीने प्रथमस्थितिरूप बनाये अने वेदे तेमां उदय समये योहुं प्रक्षेप करे बीजी स्थितिमां असंख्यातगुणं, त्रीजी स्थितिमां असंख्यातगुणु, ५ प्रमाणे बाबत प्रथमस्थितिनो चरमसमय आये त्यांसुधी कहेतुं प्रथम स्थितिकरवाना प्रथमसमयथी मांडीक अमत्याख्यातावरण प्रत्याख्याभावरण अने संज्वलन प त्रणे मानीने एक साथै उपशमावषा शरुआत करे संज्वलनमाननी प्रथम स्थिति समयीन त्रण आवलिका प्रमाण शेष रहने छते अप्रत्याख्यानावरण प्रस्याध्यानावरण माननुं वलीयु संचलन मानमां न नांखे पण संज्वलनमाया विगेरेमां नांखे, बळी घे आवलिका शेष रथे छते आगाल पण व्यवच्छेद थाय, मात्र उदीरणाज प्रवर्ते. अने ते पण एक आवलिका अवशेष रहे त्यांसुधी जाणबो, आबलिका शेष छते तो संज्वलन मानना यन्ध उदय अने उदीरणानो व्यवच्छेद थाय, अने अप्रत्याख्यातावरण प्रत्याख्यामावरण ५ वे मात्र उपशान्त थया पटले प कषीश प्रकृति उपशान्त यह तेज समये प्रथम स्थिति संबंधी एक आषलिका अने समयोग आषलिकाशिक बज्र उपरमी स्थिति संबंधी दलोयु सुकोने बाको सर्व संबलणमान उपयभाष्यों, त्यारवाद ने सलमामनी प्रथम स्थिति सम्बन्धि एक मावलिका स्तिबुक संक्रमे संस्वनमायामां प्रक्षेप करे, अनेस Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... -:-::.....:..: .:.:.::.:::: :::: : ३१] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३१) (५०९) (११ यो १०-९-८-७-ने ६ ए रीते) ( प्रमत्त गुणस्थान सुधी आये ॥ ७ ॥ अने कोइक जीव तो त्यांथी ( ६ वा थी ) पण पडतो नीचे (५ ने ४ १) वे गुणस्थाने आवे, अने कोइक तो त्यांची पण नीचे पडी सास्वादन भाव पामीने भयोन आपलिकाद्रिक बर वलीयु पुरधषेवमां वतापेक्षा प्रकारबरे उपशमाये अने मंक्रमाष, समयोन आपलिकाका'ले उपलनमान उपशान्त थयो पटले २२ प्रकृति उपशान्त थइ. जे बसते संपलन मानना बच उदष भने उदीर. णानो व्यवच्छेद थयो तेगा अनन्तर समयथी मांरीने मंश्चलमायानी बीजी स्थितिमाथी पलीयु खपीने पूर्वोक्तप्रकारे प्रयमस्थिति बनाये अने घेदे, अने ते समयथीज मांडीने अप्रत्याख्यानाधरण प्रत्याख्यानावरण भने संवहम ए अमे पण मायाओ पकलाये उपशमाषवा प्रारंभेछ, मंज्वलनमायानी प्रथमस्थिति समयम्यून पण भावनिका शेष रही अप्रत्याख्यानाधरण-प्रत्याख्यानाबरण मायार्नु छरुठीयू संज्वलनमायामां न नांखे, पण सज्वलनलोभमा नांखें, ये मावलिका शेष र आगाल न थाय, मात्र उदीरणाज प्रवत छे. ते पण स्यांसुधीज के यावत आपलिफाशेष न शाय, आषलिका शेष रणे संज्वलनमायाना बन्ध उदय 3दीरणामो म्पबच्छेद थायछे. अने ते बचते अप्रत्याख्यानाधरण भने प्रत्यास्यामावरण प ये मायाओ उपशान्त था एरले घोषोश प्रकृतिको उपशान्त था. अने ते समये प्रथम स्थिति सम्बन्धी एक आवलिका अने उपरनो स्थितिसम्बश्री समयोग आपलिका द्विक पर दलीयु मुकी बाकी सर्व प्रज्वलनमाया उपशमाधवी, त्यारपछी ते प्रथमस्थितिसम्बन्धी एक भापलिकाने स्तियुक मंक्रम संज्वलनलोभमा मंत्रमाणे, अने समयोन आपलिकातिकबद्ध दलोयं पुरुषवेदमा कमा प्रकारे उपशमाये अने सक्रमावे, न्यारयाद समयोन के आपलिकाकाले संबलममाया उपशागत था. पटले २५ प्रकृति उपशाम्त था. ग्यारे संज्वलनमायाना बन्ध उदय अने उदीरणानो व्यवोद थयो सेना अनन्सर ममयथो प्रारंभी संज्वलनलोभनी बीसी स्थितिमांधी दलीयु मेचीने होम वेदशाना कालना ये तृतीयांश कालप्रमाणवाली प्रथमस्थिति पूर्वोकप्रकारे यनाघे भने वैदे. पहेलो एक त्रिभाग तेनुं नाम अश्वकर्ण करणाखा कडेवाय १. अमे बीजो त्रिभाग किट्टीकरणाखानामनी कवाय २, हथे पडेला अश्वकर्णकरणावा मामना त्रिभागमां पतंतो छतो पूर्ष स्पर्धकोमांथी दलोयु लइने - पूर्वस्पर्धको बनाये, रूपर्धकनुं स्वरूप आ प्रमाणे-भहों अनन्तानन्तपरमाशुभोषडे बनेला स्कन्धोने जीष कर्मपणे ग्रहण करेछे, ते एकका स्कन्धमां जे सर्व अधन्यरसवाळो परमाणु तेनो पण रस केलिप्रशाये छेद करता सर्व जीवो करता अमन्सगुण रसाधिभागोने आपछे. एटले एक एक Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : (५१०) । उपशान्तमोहमुणस्थानप्रसङ्गत उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार मिथ्यात्वे पण जाय ए आश्रय छे. ॥ ८॥ अने पतित थयेलो जीव ते भवमा मोक्ष न जाय, भने कोइक जीव उत्कृष्टयां अयं पुलपरावर्त सुधी संसारमा रहे (परिभ्रमण करे). ॥९॥महाभाष्यमां कथु छ के-"जो उपशान्त कषायी जीव - - - .- -- कम परमाणु सर्य जीव करता अनन्त गुण ग्माणुये युक्त होय . बीजो कम. परमाणु एकभाग अधिक रसाविभागो आपछे, तेथी योजो बै अधिक रसा. विभागो आपे ५ प्रमाणे एक एक अधिभागनी आगळ आगळ वृलिये म्यांसुषो जयु के यावत् छल्लो परमाणु सिद्धना अनंतभाग अधिक रसाविभागों मापे, नेमां अघन्यरसपाळा जेटला परमाणुओ अगतमा होय सेओनो समुदाय समानजातीय होषायी पका पहेली)सर्गणा कहेवाय छे. योजा एकाधिक रसाधिभागयाळा परमाणओनो समुदाय बी जी षर्गणा, वे अधिक रसाविभागवाला पर• माणुभोना समुदायनी प्रोजी वर्गणा प प्रमाणे पक पक रसाधिभागथी वधता परमाणुओना समुदायनी वर्गणाओ कहेता कहेता घर्गणाओनी मांया अभ. व्योथी अनग्तगुण अने सिद्भोगा अनन्तभाग मम्य संख्याप्रमाण जाणवी. अहीं उत्तगेमरवृद्धिथो वर्गणाओ नाणे स्पर्धा करती न होय तेथी आ वर्गणा ओनो समुदाय ते 'म्पर्धक कहेयाय छे. आ स्पर्धकनी छल्ली वर्गणामां आवेला रसपी आगळ पक पक रसाषिभागनो निरन्तर वृद्धिये षधतो रस मळतो नथी. परन्तु सर्ष जीव करता अनन्त गुण रक्षाविभागोये बधतो रस मळे छ. त्यारपछी सेज ( उपर यताव्या स्पर्धकना ) झमे करी त्यांची मंडी पीर्जु स्पर्धक कहे, पज प्रमाणे त्रीजुं स्पर्धक कहेवु, पाषत् पजरीते अनन्ता स्पधेको थाय छै. आ स्पर्धको जीधे पहेला करेला होवाथी पर्यस्पर्धको कहेषाय छे, हवे इमणां तेज स्पर्धफोमांची दरेक समये दलीय ग्रहण करीने तेनु अस्यरत होमरस पणु पमाडीने अपूर्व स्पर्धको बनावेछे. अनादि संसारमा - मण करता आ जोधे कोइपखत पण चम्धने आश्रयी आवा स्पर्धको घनाव्या नथी, परन्तु हालमांज अत्यन्त विशुशिना योगे आषा अपूर्व स्पर्धको बनावेछे. माटेज आन अपूर्वस्पर्धको कहे वार " हवे जा अश्वकर्ण करणाद्धा पूर्ण यये ते किट्टीकरणाद्वामा प्रवेश करो, हवे अहीं किट्टीकरणाद्वामा पूर्वस्पर्धको अने अपूर्वस्पर्धकीमाथी दलीयु पाहण करी दरेक समये अनन्तो किट्टीओ बनावे ठे, किट्टीओनु म्यरूप आ प्रमाणे—पूर्वस्पर्धक अन अपूर्वस्पर्धकोमांयी वगंणाओ लाने तेने अनन्तगुणहीन सपणु पमाडीन ते वर्गणाओने मोटा अग्तरास्टपणाये स्थापन कर, जेमके जे वर्गणाओना अनुभागभागी अनन्नान न्त छनां पण असरकल्पनाये ते अनुभाग भागोनी संख्या एकसो, एकसी एक अथवा एफसी के पत्रोरीत कमथी अने अधिकरसस्परूपे हती तेज वर्गणाओना अनुभागभागोमो संख्या पांच पदर पचीस प.प्रमाणे हीन हीनरलपणे अन मोटा अरतरालपणे स्थापयी वे किट्टोकरणाद्धामा चरम समये एक साथ अप्रत्याग्न्यानावरण Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३१) (११) पर पुनः वारंवार अनन्न (काळ सुधी) प्रतिपातने ( अर्थात् अनन्त काळ संसार परिभमणने ) पामे छ माटे तमारे निश्चये लेशकषाय बाफी रयो होय तो तेटला मात्रनो पण विश्वास न ज फरवो" ॥१॥ (विशे• भाष्यगाथा १३०९) हवे जे जीव (११मा गुणस्थानथी) भवनो क्षय थतां (आयुष्य पूर्ण धवाथी)पनित थाप - - - - - - - - -- - - - - अने प्रन्याल्यानाधरण प ये लोभ उपशाम्त यया पटले २७ प्रकृति उपशान्त थइ, अने तेज समग संज्वल्ठमलोभनो बन्धव्यवच्छेद अने यादर संचलनलोभना उदय उदीरणानी व्यवच्छेद अने नषमा अनिनियादरसंपराय गुणम्याननो पण व्यवधछेद थाय छे, आप्रमाणे अहीं अनिवृतिबादरसंपरायगुणस्थानके अनुक्रमे सातयी मांडी पचीशसुधी प्रकृतिओं उपशान्त होय छे, अनन्तानुवन्धि ४ दशममोहनीय ३ ए सातनीउपशमना प्रथम करी दोषायी सात उपशान्त. १, नपुंसकवेदना उपशनमा पाये का शान्त २, सोवेदडपशम्ये मध उपशान्त ३, हास्याधिपटक उपशम्ये पंचर उपशान्त ४, पुरुषवेश्उपशम्ये सोय उपशान्त ५. अप्रन्या यानापरण प्रत्याख्यानावरण के क्रोध उपशम्ये अढार उपशान्त ६, मंखलनौध उपशम्ये आंगणीश उपशान्त ७. अप्रत्याख्यानायरण प्रत्याख्यानावरण वे मान उपशम्ये पकवीश उपशान्त ८, संग्ध. नमान उपशम्ये बाधीश उपशान्त ९, अप्रत्याख्यानाधरण प्रत्यास्थानाधरण वं माया उपशम्ये चोयीश उपशान्त १०, संज्वलनमाया उपशम्ये एवीश मो. हनीयप्रकृति उपशाम्त या ११, हवे अप्रत्याख्यानाषरण प्रत्याख्यानाषरण धे लोभ अनिवृसिना धरमसमये उपशम्या पटले दशमे समसंपरायगुणस्थानके माता शामोहनीय प्रकृति उपशाग्न था, हवे आ हमसंपायनी कार अन्तमहतघमाण छे. तेर्मा पेठो छत्तो कटटीक लाभली मुभम किट्टीओने उपरनी स्थितिमांयी मंचोने समसंपरायना कालतुत्य प्रथमस्थिति करे अने येदे. बाकीनु सूलमकिट्टीरूप चनाघेर दलोयु अने समयोन आपलिकाहिकमा यांचल न नीयु उपसावे. सूरमपरायना छेल्लासमये अज्यालमलोभ सर्व उपशा. Pस थयों एटले अटाधीश मोहनीयप्रकृतिओ उपशान्त था , तेज समये पांच शानावरणीय ५, चार दर्शनावरणीय, ९, पांच अन्तगय १४, यशःकी निनाम फर्भ ३०, अने उच्चईत्रक १६, ए सोळ प्रकृतिओनी बन्धन्यवच्छेद थान म्याग्बाद अनन्तासमये उपशान्तकषायबीनरागछमस्थ अगीयारमु गुणस्यामक पामे छ, अधों मोहनीयनी अटाघोश प्रकृति ओ उपशान्त पमाय , आ उपशाम्त. मोरगुणस्थान के जघन्यथी एक समय आने उत्क्रपथी अन्तमुहूर्नकाल मुधी रहे छ, ते पछी नियधी पड़े छे पडपार्नु प्रे प्रकारे थाय छ, एक भयक्षयथो अने श्रीजु अड़ा (काल) क्षयथी, भव आयुष्य क्षयमरनारने अने अद्राक्षय उपशान्तनो कालपूर्ण थये. अद्राक्षये पहतो जेवी रीते चढी इतो तेषीज गीते पडे ठे, पटले के ज्यां ज्यां (जे में गुणस्थान के ) यन्ध उदय विगेरे व्यवच्छे पाम्या बता पडता छता ते ते Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 (५१२) ॥ उपशान्तमोगुणस्थानसह उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार छे ते जीव प्रथम समवेज बन्धनादि सर्व करणो पर्वतवेि छे. ॥ १० ॥ कारण के पूर्वे वांधेला आयुष्यवाळो जो अहिं श्रेणिमां वर्तती (८- ९-१०-११ मे ) जो मरण पामे तो निश्वये अनुत्तर देवमाज उत्पन्न थाय. ॥। ११॥ महाभाष्यवृत्तिमां "जो जीवेश्रेणि अंगीकार करी होय, ते जीव - franti कोइपण गुणस्थानमा ( ८- ९-१० मां ) वर्त्तनो अथवा उपशान्तमोहवाको (११मां) थड़ने जो काळ करे तो निश्वयथी अनुत्तरदेवमांज उत्पन्न थाय. " ( अने श्रेणिधी पडेलानो काळ कर्ये छते कोइ नियम नथी, तेने जुदा जुदा अध्यसायो थवाथी जुदीजुदी गतिओनो संभव होय छे. विशेषाः भाष्यगाथा १३०४ नी टीका) आ गुणस्थाननी जघन्यस्थिति ? समयनी कही छे, अने ते स्थिति आयुष्यनोक्षयत अनुत्तरे जाय त्यारंज (१ समय जघन्यस्थिति अन्यथा अन्तर्मुहूर्त्तन होय) जाणवी || १२ || एक जीव एक भवमां वे बार उपशमश्रेणि करें अने आखा संसारमां बसतो सर्व मलीने चार बार उपशमश्रेणि करे || १३|| अहिं सिद्धांतकारने मते एक मां क्षपकश्रेणि अने उपशमश्रेणिमांनी एकज श्रेणि करवानी गुणस्थानके ते सर्व प्रवर्त ले (आरम्भ कराय ले) पढतो छतो यावत् छठ्ठा सुधी पढे, कोष तेथी पण नीचे वे गुणस्थानक सुधी आवे, यात कोइ सास्वादममाय पण पाये है. अने मिध्यात्वे जाय छे. बळी जे भष क्षये पड़े छे से प्रथम समयेज स बन्धनादिकरणाने प्रवर्तावे उत्कर्षथो एकभवमां उपशमणि वे धार करे छे. जे बेवार उपशमणि करे तेने ने भषमां क्षपकश्रेणि याय नहि, अने जे एकबार उपशमश्रेणि करे मेने अपकश्रेणि थाय पण खरो तेम कामप्रथिकोनो अभिप्राय छे छे - "क्षां दुबे वारे उयसममेदि पडिवरजर तस्स मियमा संमि भवे बगसेदी नत्यि, जो पचसि उपसमसेठी पडिवजा तस खगदी डोज वित्ति सिद्धान्तना अभिप्राये तो एक भवमां एक श्रेणि अङ्गीकार करे पटले के उपशम श्रेणि करणार ते भवमां श्रपश्रेणि करे नहि के मोटोपशम एकस्मिन्भवे हि म्याद सन्ततः । यस्तिन्भये तृपशमः क्षय मोहस्य तत्र न || १३ प्रमाणे कां सविस्तर उपशमश्रेणिनुं स्वरूप कयुं. विशेषार्थिये कम्मपयडी टीका पश्च संग्रह टोका त्रिगरे ग्रथो अब ठोकवा. १ अद्राक्षयची पद्धत १० मे ९ मे इत्यादिके आवे तो ज्यां नेत्री रोते धादिविच्छेद कय होय त्यां तेषी रीत बंधादि पुनः प्रचर्ता अनं भवनथथी अनुत्तरां जतां १२मामांध शोध थेज गुणस्थाने अवेलो होवाथी ते गुणस्थानने योग्य वंषावि सर्च कियाओ एक साथ करवा भांडे २ उपशमश्रेणिए चढतो जीव पण ८-९-१२-२१ मे मरण पामे अने उपशमश्रेणिधी पडतो शीघ्र पण चार स्थाने मरण पामी अनुतरमां जाय. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ ) ॥ श्रीलोकभकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३३) (५१३) होय छे, परन्तु कर्मग्रंधने मते ॥ १४ ॥ करी छ एकवार उपशमणि जेणे तेवो जीव क्षपकश्रेणि करी पाके ( एकवार उपशमणि करनार जीव वेज भत्रमा क्ष. पकश्रेणि अङ्गीकार करे नो ने भवमां वे श्रेणि करी कवाय ). पण एकन भवमा ये वार करी छ उपशमणि जेणे ने सपकणि तो न ज करे. ॥ १५ ॥ ए प्रमाणे कर्मग्रन्थनी लघुवृत्तिमां का छे. ए प्रमाणे ११ मुं उपशान्त. मोह गुणस्थान को. ॥ ११ ॥ हारे पार, गणारभानक कुते हे. क्षीणाः कषाया यस्य स्युः, स स्यात् क्षीणकषायकः । वीतरागश्छद्मस्थश्च, गुणस्थानं यदस्य तत् ॥१६।। क्षीणकपायच्छद्मस्थवीतरागाह्वयं भवेत् । गुणस्थानं केवलिवद्रङ्गाधिगमगोपुरम् ॥ १७ ॥ तत्र च ॥ श्रेष्ठसंहननो वर्षाष्टकाधिकरया नरः । सद्ध्यानः क्षपकश्रेणिमप्रमादः प्रपद्यते ॥ १८ ॥ तथोक्तं कर्मग्रन्थलघुवृत्तौ ॥ "क्षपकश्रेणिप्रतिपन्नो मनुष्यो वर्षाप्टकोपरिवर्ती अविरतादीनामन्यतमो. ऽत्यन्तशुद्धपरिणाम उत्तमसंहननः, तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि, केचन धर्मध्यानोपगत इत्याहुः । (सा० २३२) विशेषावश्यकवृत्तौ च "'पूर्वधरोऽप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽप्येतां प्रतिपद्यते, शेषास्त्रविरतादयो धर्मध्यानोपगता” इति निर्णयः ।। ( सा० २३३) तत्क्रमश्चायं ॥ स तुर्यादिगुणस्थानचतुष्कान्यतऽन्तयेत् । अन्तर्मुहर्तायुगपत् , प्रागनन्तानुबन्धिनः ॥ १९ ॥ ततः कमेण मिथ्यात्वं, मिश्रं सम्यक्त्वमन्तयेत् । उच्यते कृतकरणः, क्षीणेऽस्मिन् सप्तके च सः ॥ २० ॥ वद्धायुः क्षपकश्रेण्यारम्भ इह आपकणिप्रतिपन्नोत्तमसंहननोऽधिरतदेशषिरतप्रमताप्रमत्तानामन्यतम उत्पन्नविशुद्धपरिणामो विज्ञेयः । तत्र ( इति पाठपतिः ) विशेषाभाष्य गाया १३२३ पृत्ती Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (५१४) || गुणस्थानद्वारे द्वादश क्षीणमो गुणस्थानपरूपणम् ॥ (द्वार कश्चेनिवर्त्तते । अनन्तानुबन्धिनाशानन्तरं जीवितक्षयात् ॥ २१ ॥ तदा मिध्यात्वोदयेन भूयोऽनन्तानुबन्धिनः । वध्नाति मिथ्यात्वरूप तद्वीजस्याविनाशतः || २२ ॥ क्षीणे मिथ्यात्वबीजे तु भूयोऽनन्तानुबन्धिनाम् । न वन्धोऽस्ति क्षितिरुहो, बीजे दग्धे हि नाङ्कुरः || २३ || सुरेषूत्पद्यतेऽवश्यं बद्धायुः क्षीणसप्तकः । चेत्तदानीमपतितपरिणामो म्रियेत सः ॥ २४ ॥ निपतत्परिणामस्तु, बद्धायुम्रियते यदि । गतिमन्यतमां याति, स विशुद्धयनुसारतः ॥ २५ ॥ बद्धायुप्कोऽथाक्षतायुः, क्षपको म्रियते न चेत् । नियमात्सप्तके क्षीणे, विश्राम्यति तथाऽप्यसौ ||२६|| सकलक्षपकश्चाथ, विधाय सप्तकक्षयम् । क्षयं नयेत्स्वनरकतिर्यगायूंष्यतः परम् ||२७|| प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानाष्टकमन्तयेद्र गुणे नवमे । तस्मिन्नर्द्धक्षपिते क्षपयेदिति षोडश प्रकृतीः ॥ २८ ॥ तिर्यग्नरकस्थावरयुगलान्युद्योतमातपं चैत्र । स्त्यानर्द्धित्रयसाधारणविकलैकाक्षजातीश्च ॥ २९ ॥ अत्र तिर्यग्युगलं- तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीरूपं, नरकयुगलं- नरकगतिनरकानुपूर्वीरूपं, स्थावरयुगलं - स्थावर सूक्ष्माख्यमिति ज्ञेयं । अन्धो वह्निर्दहेत्प्राप्येन्धनान्तरम् | क्षपकोऽपि तथाऽ.. प्रान्तः क्षपयेत्प्रकृतीः पराः || ३० || कपायाकशेवं च क्षपयित्वाऽन्तयेत् क्रमात् । क्लीवस्त्रीवेदहास्यादिषट्क पूरुषवेदकान् ||३१|| एष सूत्रादेशः ॥ अन्ये पुनराहुः ॥ षोडश कर्मापयेव पूर्वं क्षपयितुमारभते, केवलमपान्तरालेऽष्टौ कपायान् क्षपयति, पश्चात्षोडश कर्माणीति कर्मग्रन्थवृत्तौ || (सा० २३४ ) अर्थ - - जे जोबना कपायो क्षय पाया होय ते क्षीणकषायी जीव कवाय अने तेवो जे वीतराग द्यस्थ तेनुं जे गुणस्थान ते ||२६|| क्षोणकषाय १ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ३'मुं] ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (मा० २३४) (५१५) छद्मस्थवीतराग नामर्नुछे, अने ए गुणस्थान केवलिपणारूपनगर (विशिष्ट शहेर)मां प्रवेश करवाने मोटा दरवाजा सरखं छे, ॥ १७॥ अने त्यां उत्तम (वनगमनाराच) सहयणवाळो-आठवर्षथी अधिक उम्मरवाळो-मनुष्य-श्रेष्ठ (धर्म वा शुक्ल) ध्यानवाळो-अप्रमादी जीव क्षपफश्रेणिने अङ्गीकार करे छे ॥१८॥ तेज प्रमाणे कर्मग्रन्ध लघुत्तिमा कयु छे के "क्षपफणिने अङ्गीकार करेलो (करनार) मनुष्य आठ वर्षयी अधिक वयनो, अविरतादि (चार गुणस्थानमाथी) काइपण (गुणस्थान १ कार ई. ५ गुग. ET पाया काप अग्नर्मुहूर्तमा मयोगिकमली गुणस्थान प्राप्त थाय छे माटे २ क्षपकणिमा क्षपणा करवाना प्रकार आ प्रमाणे ?--क्षपकणि कर.. नार आठ वर्षनी उपर बर्तता वर्षभनाराच संघयणपाळा जिनेश्वर प्रभुना विद्यमानकालयति (ते काल आ अवसर्पिणीकालमा भरतक्षेपने आश्रयी श्रोप्रथमतीर्थंकर प्रभुना कालथी मांडीने श्रीजम्वृस्वामीभगवानमी केवलोपनि सुधीनो लाणी एल प्रमाणे परयत क्षेत्र विगैरेमा तथा तमाम चोयीशीकारटोमां पण जाणवु, धर्मशुक्नध्यानध्याता इत्यादि विशिष्ट गुणयुक्त जीवो होय ने नीची थे प्रकाग्ना होय, १ चमायुक, २ अन्यच्चायुक, बवायुष्कमा । येमानिक यद्वायुष्क, अने २ बीजा अन्यगतिबद्धायुष्क पम बे भेदी छे. बवायुकनीवो सर्यक्षपणा करता नथी, समकाये अरके छे, ते पण मानीक बदायक होय ते समकक्षयथी क्षायिकसम्यक्त्व पामी ऊपशमश्रेणिये पण चढ़े छे. अने अम्य गनिचद्धायुरा होय ते श्रेणिकादिनी पेठे कोइपण श्रेणिकरता नथी, भने अबदायुकि के होय ते संपूर्ण क्षपकणि करे छ, बसायुष्क होय के अचद्वायुष्क होय ते बन्न पण अविरत १, देशविरत २, प्रमत्त ३, अने अप्रमत्त , प. चार पैकी गुणस्थानके वर्ततो छतो अनम्तानुबन्धि ४ अने द. शममोहनीयनी क्षपणा करेछ. तनी विधि-अनन्तानुबन्धि धिमंयोजना [क्षप. गा)नो प्रकार जे पूर्व बतायी छे ते प्रमाणे जाणधी, दर्शनमोहनीयनी क्षपणा पण अनन्तानुबन्धिनो जमज जाणधी, कांफ विशेष स्वरूप मा प्रमाणे जाणवु,- दर्शमोहनीयनी श्रपणा माटे तत्पर थयेल जीय पर्ने यताबेला ग. याप्रवृत्तादि त्रण करण करे हे मात्र अपूर्वकरणना प्रथम समये नहि अश्य मां आवेला मिथ्यारव तथा मिश्रना दलिकनै गुममंकमे करी मम्यक्त्यमीहनीयमा प्रक्षेप करे, मिश्याच अने मिश्रन उबलनासयम पग आरंभे, ने आ प्रमाणे-पहेलो स्थितिखंड घणो मोटो उयेले. चौजी थी विशेषहीन, पीजो तेथी पण विशेफहीम, प प्रमाणे याश्त अपूर्वकरणना घरमसमय सूधी कडे अपूर्वकरणना प्रथमममये ने स्थिति सत्कर्म हनुं ते अपूर्वकरणना चरमसमये संगम्येयगुणहीन यय, प प्रमाणे स्थितिवन्ध पणा जाणवो, अपूर्वकरणमा प्रथमनमये जे दल्दो स्थितिगन्ध हतो सेनी अपेक्षाये तैना नमसमये सहयेय गुणहीन Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१६)। गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षिणमोहगुणस्थानप्रसंगतः सपश्रेणिप्ररूपणम् । [छार वाळो), अति शुद्ध परिणामवाळो, उत्तम संघयणबालो. त्यां पूर्वनो जाणनार अप्रमत्त (होय तो ) शुक्लध्यानने पाप्त थयेलो, अहिं केटलापक आचार्य धर्मध्यानने प्राप्त ययेलो होय एम कहे छे. अने विशेषावश्यकवृत्तिा पूर्वधर-अपमत्त-एवा (मुनि) शुक्लध्यानने प्राप्त ययेला आ मुनि क्षपकणिने अङ्गीकार करे। अने शेष अविरतादि (त्रण) धर्मध्यानने मान थया छता क्षफ्कश्रेणि अङ्गीकार कर. एवो निर्णय छ ।” ने क्षपकश्रेणिनो अनुक्रम आ प्रमाणे-चतुर्थअविरतसम्यग्दृष्टि विगेरे चार [ ४-५-६-७ ] गुणस्थाननी अंदर ते जीव अन्तर्मुहसमां समकाले प्रथम (चार) अनन्तानवन्धिनो विनाश ( वय । करे ॥ १९ ॥ तदनन्तर अनुक्रमे मिथ्यात्वमोहनीयनो-मिश्रनो-अने सम्यक्त्व मोहनीयनो क्षय थाय छे. ते पछी अनिवृत्तिकरणमा प्रवेश करे भ्यां पण स्थितिधात विगरे सर्व पपा ते बीज रोते करे, अनिवृतिकरणना प्रथमसमये प्रणे वर्शन मोहनीयमा पण देशोपशमन्ना निर्धात अने निकायमानो व्यवच्छेद थायले, दर्शनमोहमीयधिकन जे स्थितिसत्कर्म अवशिष्ट छे ते अमिवति करणना प्रथमसाय. थी मांडी मे तिघातादिवर घात कंगन घातकरातु दजास्थितिवडा गये छते असंक्षिपंचेन्द्रियना, स्थितिसत्कर्म सरलु थाय छे त्यारबाद स्थि. तिखंडोना सडनपृथकव गये छते चतुरिन्द्रियमा स्थितिमत्कम भेटल. ते पो वली तेटला स्थितिसंहो गये श्रीन्द्रियमा स्थितिमत्कर्म जेटलं. तेमाथी पण नेटला स्थितिखंडो गये हीन्द्रियना स्थितिसत्कर्म जेटलु, तेमांथो पण दला स्थितिढो गये पकेन्द्रियना स्थितिसत्कर्म जेटल, तेमाथी पण तेटला स्थितिबंदो गये पल्यापमना असंख्येयभागप्रगण (एकेन्द्रियना स्थितिसम्कर्म प्रमाण पाली सेटमा स्थितिखटी गये छने पस्योपममात्र स्थितिसकम थाय छ, आ णिकार महाराजानु कथन छे. पंचसंग्रहकारना कथन प्रमाणे तो पण्योपमनख्येयभागप्रमाण] स्थतिसत्कम थाय है, तेपछी ते ऋणे वर्शनमोहनीयना पण दरेकदरेफनो एकएक मख्यातमोभाग मुकी शेषतयनो नाश करे ते पछी धली ते मुफेला पक संख्येयभागनो पकसंख्यातमी भाग मुकी याको विनाश करे । प्रमाणे हजागे स्थितिघाती जायछे. त्यारपछी मिथ्यात्वना असंख्याताभागोनों खंड करे, अने सम्यकत्व तथा मिश्रमोहनीयना संख्याताभागांना खड करे, आ प्रमाण घणा मिनिम्मंडी गये छते मिथ्यात्वन दलियु मालिकामात्र थ', अने सम्यक्त्व तथा भिथमोहमीयनु पल्योपमना अमंख्यातमा भागप्रमाण थयु मियान्य सम्बन्धी नं. इन कराता आ स्थितिबढी सम्यकन्य अने मिश्रमोहनीयमा प्रक्षेप करे, मि. श्रना होय ने सम्यम्नमाइनीयमा अने सम्यत्व मोहनीयता नाचना पोतामा स्थानमा हवे आश्रमिकामात्र जे मिश्यान्यनु दलीयु र हतुं ते स्तिवुक सं. मे मम्यक्त्यमोहमीयमा प्रक्षेप करे. त्यारपछी सम्यक्त्व अने मिश्रमोनो Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ मुं) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३४) ((१७) करे, आसामतिक्षप पाम्ये छते ते जीव कृतकरण कहेवाय हे ॥ २० ॥ पूर्व पांला आयुष्या जीव क्षपकश्रेणिनो प्रारंभ करनार जो अनन्तानुबन्धिनो क्षय कर्याबाद आयुष्यनो अन्त आववाथी पकश्रेणिथी ) निवृति पाने छे ||२१|| तो ते अनन्तानुबन्धिने उत्पन्न करवामां बीजभूत एवा मिध्यात्वनो विनाश नहि थयेलो होवाथी मिध्यात्वनो उदय थतां पुनः अनन्तानुबन्धिनो बंध ( उपार्जन ) करे छे || २२ || अने मिथ्यावरूप वीज क्षय पाम्ये छते पुनः अनन्तानुबन्धिनो (उत्पत्ति करके वृक्ष बीज बळी गये छ १ सम्यकृत्यमोहनीयनो क्षय करतां ज्यारे सम्यक्त्वमोहभोगनी सत्ता ८ वर्ष प्रमाण रहे त्यारे ते ओम निश्चयनयथी " दर्शनमोहनीयक्षपक क हेधाय भने सम्यक्त्वमोहनीयती अन्त्यखंड उकेरे ते खते " कृतकरण कडेवाय. ए कृतकरण काळमां वर्ततो जीव मरण पामी चारे गतिमांजर यां किसम्यक्त्व पामे माटे क्षायिकमम्यकन्य पासवानी कियाओनी प्रारंभक मनुष्यज होय ने सम्यक्त्वमोहनीयना दलीयानी सर्व क्षय करी क्षायिकसम्यक्त्य पासनार ( क्रियानिष्ठापक ) चारे गतिना झवी होय. थना असंख्याता भागो [ खंड ] करे, एक भाग अवशेष रहे, ते पछी ते एक भागता पण असंख्याता भागो गंडे एक बाकी राखे प प्रमाणे केदलाक स्थि ति खंडो गये छते मिश्रमोहनीय आवलिकामा थयुं अने ते बस्ने सम्यकत्वमोहनीयनुं स्थितिसत्कर्म आठ वर्षप्रमाण रहेछे, निश्चयनयमते आ बखते सफलविघ्नमो विनाश थवाथी दर्शनमोहनीयनी क्षपक कहेषाय से, त्यारबाद सम्यक्त्वमोनीयनुं अन्तमुहतं प्रमाण स्थितिखण्ड उकेरे, अने तो उ दयसमयथी आरंभी प्रक्षेप करे मात्र उदयसमये सर्वस्तोफ, तेनाथी खोजे समये असंख्यात गुण झीजें लमये तैनाथी पण असंख्यातगुण. प प्रमाणे यावन गुणश्रेणिनुं शिखर आये त्यांसुधी कहता जत्रु. तेथी आगळ विशेषशीन विशेषहीन कहेवु. यावत् चरमस्थिति आवे आ प्रमाणे अन्तरमुहूर्तप्रमाणवाळा पूर्वपूर्वेकरता अ संख्याता गुणा अनेक स्थितिखण्डीने उकेरे अने निक्षेप करे ते यावत् विथचरम ( उपान्त्य ) स्थितिखण्ड आवे त्यांसुधी उकेरे भने निक्षेप करे उपा म्यस्थिति खण्ड करता चरमखण्ड असंख्येयगुण जाणवु, (कम्मपपडीमां उपा न्य स्थितिखण्ड करता चरम स्थितिखण्ड संख्यातगुण कडेल हे.) अने चरम ( छेलो ) स्थितिखण्ड उके छते ते क्षपक 'कृत करण थयो म प्रमाणे क वाय आ कृतकरणना फालमां वर्ततो कोक जीव काल पण करे अने चारे गतिकीनी कोईपण गतिम उत्पन्न याय, प्रथम ते जीव शुक्कलेश्यामां हती. मां तोते कोइ पण लेश्याने पामं तेन कारणथी आ क्षपकश्रेणिनो प्रस्थापक . Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१८||गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षीणमोहगुणस्थानप्रसंगनः शपकणिप्ररूपणप (बार अंकुरो फुटतो नथी ॥ २३ ।। पूर्व वांधला आयुष्यवाळो सात प्रकृतिनो क्षय कर्यो छे जेणे यो जीव अप्रतिपतित परिणाम वालो छतो जो मरण पामे तो ते निश्चये देवोमांज उत्पन्न थाय छ । २४ ।। अने पूर्वबद्धायु जीव पहता परिणाम बाळो थयो छतो जो मरण पामे तो विशुद्धिने अनुसारे चारमांनी कोइपण गतिमा जइ शके ॥ २५ ॥ हवे पूर्ववद्धायु जीव होय अने अखंड (दीर्घ ) आयुष्यवालो होय ने तेथी जी ते क्षपक जीव मरण नपामे नोपण (ते क्षपक) सात प्रकृतियो क्षय कर्या वाद (सायिक सम्यकत्व पाम्या बाद ) अवश्य विश्राम पामे आगळ क्षपकश्रेणि न करे ( अर्थात ने देशलपक कहेवाय)॥ १६ ॥ हये सर्वक्षपक जीव ५ प्रकृनियोनो क्षय करीने त्यारवाद देवायुप्य-नरकायुष्य-ने तिर्यंचायुष्य क्षय करे. १ मे इर्शनसमा क्षय कर्य ने ने ' देशनपक " अने सर्वमोहनीयनो अय करे ते "मक्षपक", २ ए ३ भागुणा भानामां नमी दोषण आयुष्य यधनी योग्यता टाळे ए हेतुथी ३ आयुष्यनो क्षय आटमे गुणटाणे करे पम कवाय. ( प्रारंभक ) मनुष्य होय अने निष्ठापक चारे गनिमां पण होय छे, क' छै के "पवगो उ मणूसी निषगो होइ चजसु वि गईसु" अही आटलु वि शशेष समजषानु है के-जी क्षपकश्चणिना प्रारंभ पूर्व घद्धायु । आयुष्य बांध्यु होय अने ) क्षपकणि आरंभे अने अनन्तानुन्धिनो क्षय यया पछी तरनज मग्ण थवाथी कदाच अट की जाय तो कदाचित् अनन्तानुबन्धिमा वीजरूप मिथ्यान्वनी क्षय न थयेट होघापी मिश्यात्योदये फरो पण अनन्तानुयन्धिओने उपचय ( पकटा ) करे. अने मिथ्यात्व क्षय पाम्युं होयतो मिथ्यान्यचीजमो अभाव थषाथी अनन्तानुबन्धि ओनो उपचय करतो मथी, जेनु म. मक ( अनन्तानुबन्धि ३ दर्शनमोहनीय ) क्षय पाम्युं छै तेयो जीब अतिपतित ( नहिं पडघाइ) परिणामी छनी अवश्य देवलोकर्मा उपजे. अने प्र. निपतित परिणामी छनो भिन्न भिन्न परिणामांनो मभव होवायी परिणामने अनुसाचे कोपण गतिमा उत्पन्न थायछ, घायु छोरा छतां पण दीघ आयु होगाथी जो ते बनते काल न करे तो साफ क्षय थये छतं निश्चयथी उभी रहे ( अटक ) परन्तु चारित्रमोहनीयमी शपणानो आरंभ न करे, पण कोक जीव उपशमश्रेणि करें, शङ्का क्षायिक सम्यक्त्र पामेलो जीव घटल्लामे भधे मोक्ष जाय? उत्तर-अबदायु चरमशरीरी जीव क्षायिकसम्यक्त्व पामे तो तेज भये मोक्ष जाय, देघ अथवा नरकगतिनु आयुष्य बांध्या पछी क्षायिकसम्यक्त्व पामे तो प्रथम भष क्षायिकसम्यकस्यप्रस्थापक मनुष्यनी, यीजो भव देव अथवा सरकनी अने त्रीजो भव चरमशरोगियो मनुपनी पामी ते त्रीने भय माक्षजाय पटल Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३१ मुं) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३४) (६१५) ॥ २७ ॥ अने नवमे गुणस्थाने प्रत्याख्यानावरण ४ अने अपत्याख्यानावरण ४ ए आठ प्रकृतिनो क्षय करे अने ते आठ अक्षय थतां वचमांज १६ प्रकृतियो खपावे ।। १६ प्रकृतियों आ प्रमाणे- तिर्यचगति १ तिचानुपूर्वी २- नरकगति ३- नरकानुपूर्वी ४-स्थावर ५ - सूक्ष्मद - ( प निच- नरक ने स्थावरन युगल कहेवाय ) उद्योत - तेमज निश्चय आतप ८ - स्त्यानर्द्धित्रिक ११ (निद्रानिद्रा - प्रचला चला ने थोडि ) - साधारण १२ - विकलेन्द्रिय-बिक (डीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति) १२ - ने एकेन्द्रिय जाति- १६ ॥२८-२९।। " अहिं निचयुगल ते तिर्यंचगति अने निर्यचानुपूर्वी रूप, नरकयुगल ते नरकगति अने नरकानुपृवरूप, अने अणभव धाय २, असख्यातवर्षायुत्राळा नियँच अगर मनुष्यनुं आयुष्य बांध्या पछी क्षायिका तिस्थापक थी भवे आयु बांधे होवाथी युगलिक थाय, अने युगलिको निश्चये देवगतिमांज जाय माटे श्रीजी भव देवगतिमो अने त्यांची व्यथी चरमशरीरी मनुष्यपणे उत्पन्न यह मोक्षे आय, पटले चार भय धाय कशुं छे के "इथे तं मिय भम्म सिम्झति इस खीणे। जं देवनिरयसंखाउ चरिमदेतेसु ते सि ॥ १ ॥ " शंका- क्षायिकसम्यग्दृष्टि कृष्णनुं पांचमा भवमां मोक्षगमन संभळाय थे. तेथी पांचभषो का ओइये. ते पांचभवो आ प्रमाणे - कृष्णवासुदेवरूप मनुष्यभश्रमां क्षायिक सम्यक्त्व पाम्या ते प्रथमभव १. नरकायु बांधलु होवाथी नरकोपत्ति छ यो भत्र २ नरकभवमांथी व्यश्री मनुष्यमां उत्पन्न यशे ए बीजो भष ३. मनुष्यमाँ आराधना करी पांचमा देवलोके उपजशे ए चोथो भव ४. त्यांची रुषी अमम नामना घारमा तीर्थकर थशे ए पांचमो भव ५ आज प्रमाणे आगमणां वर्णवेल दुःप्रसह आचार्य विगेरे जीवोने क्षायिकसम्यक्त्व पण आ रोसेज [ चारभवनो नियम न राख्थे छते ज] घटी शकेछे. उत्तर-चार भष सुधीनो नियम वर्णव्योछे ते बहुलताये समजत्रो, माटेज कृष्ण कु.प्रसह सरि विगेरेना छान्तमां दोषापति नथी, ये अवद्धायु छतो जो क्षपकश्रेणिनो प्रारंभ करे तो सप्मक लय यये छते निश्चये चालता बिशुद्ध परिणामथो महि विराम पाम्यो छतो ज संपूर्ण क्षपकश्रेणि पूर्णकरनार होवाथी चारित्र मोहनीय खपावत्रा प्रयत्न करे में, चारित्र मोहनीयनी क्षपणा करवा प्रयत्न करनार जोन पूर्वे ताम्य स्वरूपाचा यथाप्रवृत्तकरण १. अपूर्वकरण २, अने अनिवृत्तिकरण ३ ए त्रणे करणी करेले, मात्र विशेष ए के के अहीं यथाप्रवृत्तकरण अप्रमत्र ( ७ मे ) गुणस्थानके, अपूर्वकरण अपूर्वकरण ( ८ मे ) गुणस्थानके, अने अनिवृतिकरण अभिवृत्ति. करण चादर संपराय [ ९ मे । गुणस्थानके आपणसुं, हर्ष प्रथम अपूर्वकरणमां अपश्याख्यानावरणीय अने प्रस्याख्यानावरणीय प कपायाष्टकरूप आठ चारि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२०)। गुणस्थानद्वारे खाद शक्षीणमोहगुणस्थानमसंगतः क्षपकश्रेणिप्ररूपणम् | [द्वार === = स्थावरयुगल ते स्थावर अने सूक्ष्म नाम कर्म ए प्रमाणे जाणवृं, " जेम अर्धा वा लीनाखेला इन्धन (लाकडा) जेणे एवो अग्नि बीजां काटने पामीने नेने प्रथम चाळी नाते नेम क्षपक जीव पण अहिं ( ८ प्रकृतियोना क्षयनी । वचमज पूर्वोक बोजी १६ प्रकृतियोनो क्षय करे हे ||३०|| अने त्यारबाद क्षय करतां बाकी रहेला आठ पायोनो क्षय करी अनुक्रमे नपुंसकवेद- खोवेद - हास्यादि ६ - अने पुरुषवेदनो क्षय करे के ||११||ए सिद्धान्तमत को अने केलाएक आचार्य तो एम कहे छे के “१६ प्रकृतियोनेज प्रथम खपावना मांडे ते दरम्यानमां (बच्चे ) फक्त आठ पायोने खपाये अने त्यास्वाद ( अवशिष्ट ) १६ प्रकृतियोनो क्षय करे " ए प्रमाणे कर्मग्रन्धनी वृत्तिमां कथुं छे. मोहनीयने स्थितिघातादिव तेस्तु अने तेबोरीते खपावे के जेवी अनि वृत्तिकरणमा प्रथमलमये पल्योपमना असंख्यानमा भाग जेटली स्थितिषालु ते थाय छे, स्थास्वाद अनिवृतिकरणकाळना संख्यात भागों गये छते उचलना सं क्रमणे उशन कराती स्त्यानद्धित्रिक ३ । स्त्यानधि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला नरकगति ४, नरकानुपूर्वी ५ तिर्यग्गति ६ तिर्यगानुपूर्वी ७ जातिखष्क ११ ( पकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, अने चतुरिन्द्रियजाति ) स्थावर १२ आतप १३ उपत १४ सूक्ष्म १५ साधारण १६ प सोळ प्रकृतिओनी स्थिति पण प स्योपमना असंख्यानमा भागप्रमाण यह पछी ते सोळे प्रकृतिओ दरेकसमये समये बंधाती प्रकृतिश्री मां गुणसंक्रमे प्रक्षेप कराती प्रक्षेप कराती संपूर्ण क्षय पामे ये अह पहेलेशी खपायाने आरंमेलुं कषायाष्टक हजुषी क्षय पाम्यु नथी, मात्र तेनी समज अ सोळ प्रकृतिओ खपावी ! त्यारबार हये अम्ल मुंइतकाले ते कायाकने संपूर्ण खपाये पटले के अनिवृतिकरणतो एक संख्यातमो भाग बाकी रथे पूर्वोक सोळे प्रकृतिओ संपूर्ण क्षय थइ, अने त्यारबाद कषायाष्टक पण संपूर्ण क्षय पाये छे, चीजा भाषायों को में सोळप्रकृतिपाषवामी प्रथमज मात करे अने वचगाले कपायाष्टक खपावे अने पछी शेष सो प्रकृतिओमी अपणा पूरी करें, स्यारवाद अन्तर्मुहूर्तकाले नव नो. कषाय भने चार संचलन कषायनुं अन्तकरण करी उपरनी स्थिति नपुंसक वेदन वली उलनविधिये खपाधना शरुआत करे, अन्तर्मुहूर्तकाले ते मपुंसकयेदर्नु दलीयूं पस्योपसना असंख्यातमा भागप्रमाण स्थितित्राखुं ययुं त्यारथी मांडीने बंधाती प्रकृतिओमां गुणसंक्रमे करी ने दली प्रक्षेप करे आ प्रमाणे प्रक्षेप करता करता अन्तर्मुहूर्त से संपूर्ण क्षय पाम्यु हवे जो नपुंसक वेदे श्रेणिये चद्रवो होय तो नीचेनी स्थितिनुं ( आपलिका मात्र ) दलीयुं भोगखीने क्षय करे अने अन्य वेदे श्रेणि आरंभी होयतो ते आमलिकाममा दलीयुं छे अने ते हितकसकमे वेदात प्रकृतिओमां संक्रमावे प्रमाणे संपूर्ण नपुंसकयेव Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४] ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३४) (५२१) क्रमः पुंस्यारम्भकेऽयं, स्त्री तु क्षपयति क्रमात् । क्लीबपुंवेदहास्यादिषट्कं स्त्रीवेदमेव च ॥ ३२ ॥ क्लीवस्त्वारम्भको नूनं, स्त्रीवेदं प्रथमं क्षिपेत् । पुंवेदं हास्यपट्कं च, नपुंवेदं ततः क्रमात् ॥ ३३ ॥ ततः संज्वलनक्रोधमानमायाश्च सोऽन्तयेत् । ततः संज्वलनं लोभ, क्षपयेद्दशमे गुणे ॥ ३४ ॥ लोभे च मूलतः क्षीणे, निस्तीर्णो मोहसागरम् । विश्राम्यति स तत्रान्तर्मुहु क्षपको मुनिः ॥ ३५ ॥ तथोक्तं भाष्ये ॥ " खीणे खत्रगनियंठो वीसमए मोहसागरं तरिउं । अंतोमुहुत्तमुदहिं, तरिउं थाहे नो क्षय थयो. त्यारबार अन्तर्मुहूर्तकाले आज कमे करीने स्त्रीवेद पण खपावाय छे, स्यारबाद हास्यपदकमे समकाळे खपापवानी शरुआत करे त्यारथी मांडीने ते डास्यादिनुं उपरनी स्थितिनु दलीय पुरुषवेदमां न संक्रमाने पण संबलनकोधमां संकमाये, आपण छये नोकषायो पूर्वोक्तविधिये संवहनक्रोधमां नखता ( संक्रमावता ) अन्तर्मुहूर्तकाले संपूर्ण क्षय पाम्या, तेज समये पुरुषवेवना वन्ध-उदय उदीरणाओनो व्यषच्छेद थाय, अने समयम्यून बेजाथलिकाम बांधेली मूकीने बाकीना दीयानो क्षय थाय पटले में अवैध वाय. पुरुषयेदे श्रेणि अंगीकार करमारने आ प्रमाणे जाणवुं नपुंसकवेवे श्रेणिप्रारंभ तो पहेला खोवेद अने मपुंसक वेदने समकाले खपावे, खविद नपुंसक वेदना क्षयनी साये पुरुषवेदनो बन्धादित्रय व्यवच्छेद थाय, स्वारबाद अवेदी थयो छतो पुरुषवेद भने हास्यात्रिकषट्कने एकसाथे खपावे जो श्रीवेदे श्रेणि प्रारं मैं तो पहेला नपुंसक वेदभे त्यारपछी श्रीवेदने ग्रपा से मने स्त्रीवेदना क्षयनी सायेज पुरुषवेदना बन्धादि व्यवच्छेत्र पामे, अने से पछी अवंदी धको पुरुषषद अमे दास्यादिषट्कने एकसाथे खपायें, आटलो प्रामंगिक विचार कथा पछी, 3 रुपये क्षपकश्रेणि पामेलाने उशीने प्रस्तुत विचार कहीये छीये, हवं संअक्रमकोधने वेदता छता ते क्रोधना कालना त्रण विभागों थाय १ अम्बककरणार. २ किट्टिकरणाचा, ३ किट्टिवेदनावर मेम अभ्वकर्ण करणा वर्ततो चारे पण संज्वलनकषायोगी अन्तरकरणथी उपरनी स्थितिमा दरेक समये अनन्ता अपूर्व स्पर्धको करे छे, वो आ अश्वकर्णकरणायामां वर्ततो पुरुषखेने पण समयम्यून से आपलिकाकाले गुणसंक्रमे करो संवनकोधमां मक्रमाषतो चरमसमये सर्व संक्रमे संकमा छे, अने तेथी सर्व पुरुषवेद य पाम्यो पटले हर्ष अभ्वकर्णकरणाचा पूर्ण थये किट्टीकरणाद्वामां प्रवेश करे छे, त्यां रह्यो छतो चारे पण संज्वलनोना उपर भी स्थितिमा दलीयानी किट्टीओ बनावे छे. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२२)।गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षीणमोहगुणस्थामप्रसंगतः क्षपक श्रेणिमरूपणम् (बार जहा पुरिसो ॥३६॥" (क्षी क्षाकनिधः विभापति गोड्सागरं तोर्वा । अन्तर्मुहर्तमुदधिं तीर्खा स्ताघे यथा पुरुषः ॥) (सा०२३५) गतोऽथ द्वादशेक्षीणकषायाख्ये गुणेऽसुमान । निद्रा च प्रचलो चास्यान्तयेदन्त्यादिमक्षणे ॥ ३७॥ पञ्च ज्ञानावरणानि, चतस्त्रो दर्शनावृतीः । पञ्च विघ्नांश्च क्षणेऽन्त्ये. क्षपयित्वा जिनो भवेत् ॥ ३८ ॥ एवं च ।। अष्टचत्वारिंशदाद्य शतं प्रकृतयोऽत्र याः । सत्तायामभवस्तासु, षट्चत्वारिंशतः क्षयात् ॥ ३९॥ घ्याढयं शतं प्रकृतयोऽवशिष्टा दशमे गुणे । क्षीणमोते किट्टीओ वास्तविकरीते अनन्त छत्तो पण स्थूलमातिभेदनी अपेक्षाये पहेली बीसी अने धीजी ए प्रमाणे पक पक कषायनीत्रण प्रण कल्पवी पटले चारेकषायनी मळीने बार किट्टीओ कल्पायने आ प्रमाणे क्रोधोदये आणि अंगीकार करनारन काणg, ज्या. रे माने श्रेणि अङ्गीकार करे त्यारे उलनाविधिये क्रोधनो क्षय कयै छतेश्रण कषाय ( मान, माया, अने लोभ) नी पूर्वक्रमे मष किट्ठीभी करे छ, भने जो मायाये श्रेणि अंगिकार करे तो क्रोध अने माम बेड कवायो उसलमाविधिये खपान्ये छते माया अने लोभ प बेनी पूर्षक्रमे छ किट्टीओ करेछे, असे जो लोभे आणि अंगीकार करे तो उबलनाधिधिये शोध मान मने माया प प्रणने पाये को पकला लोभनी प्रण किट्टीओ करे . आ प्रमाणे किट्टीकरवानो विधि माणधो. किट्टीकरणाद्धा पूर्ण यये छते कोधे अणि अंगीकार करी होय सो कोषनु बीजी स्थितिमा रहेलु म्यम किट्टीन दलीयु मेचीमे प्रथम स्पिनि केप करे अने देते, ते यावत् समयाधिक एक आपलिकामा शेष रहे स्पांसुधी, त्यारवाद अमम्मरसमये बीशी स्थितिमा रहेलु बीजी किट्टीन दलीयु खेंचोने प्रथम स्थिति बनाये अने वेके, ते पण यावत् समयाधिक आवलिकामात्र शेष रहे यासुधी, स्पारबाट पढ़ी अमन्तरसम्ये वोजीस्थितिमा रहेलु त्रीजी किट्टोनु वलीयु संबीने प्रथमस्थिति चमारे अने घेदे यावत्, समयाधिक आ. पलिकामात्र शेष रहे यासुधी, थलो मात्रणे किट्टीवेदमाखाओमा उपरनो स्थितिनु बलीयु प्रतिसमय असंमन्येयगुणदि स्वरूपवाळा गुणसंकमे करोम संस्खलनमाना प्रक्षेप करे, अहीं हष त्रीजी किट्टीवेदनावाना चरमसमये संग्व. लनकोधना यक्ष उदय उदीरणाओनो समकाले व्यवच्छेद चाय छे, अने कीधनु सर्व सत्ताकर्म पण मानमां मांखयुं (संक्रमाव्यु) होषाधी समयन्यून घे मावलिकामा प्रमाण मुकीने बोलुं मग्री, स्यारबाद अनन्तरमपये माननु बीजी स्थितिमा रहे प्रथमकिट्टीन बलीयु कोचीने प्रथमस्थिति करें अने वेदे, यात् Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥ श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा. २३६ (५२३) + हद्विचरमक्षणावध्येकयुक् शतम् ॥ ४०॥ सत्तायां नवनवतिः, क्षीणमोहान्तिमक्षणे। चतुर्दशक्षयादत्र, पञ्चाशीतिः सयोगिनि ।। ४१॥ ततोऽयोगिद्विचरमक्षणे द्वासप्ततिक्षयः । अयोगिनः क्षणेऽन्त्ये च, शेषत्रयोदशक्षयः ॥ ४२ ॥ अत्र भायं" आवरणकूखयसमए, निच्छड़यनयस्स केवलुप्पत्ती । तत्तोडगंतरसमए, क्वहारो केवल भणइ ॥ ४३ ॥” ( आवरणक्षयसमये नैश्चयिकनयस्य केवलोत्पत्तिः । ततोऽनन्तरसमये व्यव. हारः केवलं भणति) (सा० २३६) क्षपकश्रेणिस्थापना । (इति छादशं)॥ १२ ॥ अन्तर्मुहर्तसुधी कोधना पण यन्धनादिनो व्यवच्छेद थये छत कोधनु दलीयू समयोन के आधलिकाप्रमाण काले गुणकमे करी संक्रमावती चरमसमये मषं मंकमे करी मानमा संकमाये, पटले बये कोधनी सर्वथा क्षय ययी. इवे मा. गनु पण प्रथम स्थितिरूप बनायु मे प्रथम किट्टीन दलीयु ते पण वेदातु धंदातु समयाधिक आपलिकामात्र शेष थयु', त्यारयाद अनन्तरसमयै मानघोजीस्थितिमा रहेलु मोजी किद्भिन दलीयु संषीने प्रथमस्पिति बनाये अने वेदे, ते पाचनसमथाधिक पक आवलिकाप्रमाण शेष रहे भ्यांधी, स्यारवाद अनप्लगसमयमा वीजी स्थितिमा रहेलं त्रीजी किट्टीन दलीयु रोचीने प्रथमस्थिति यनावे अने वैदे, ते पण त्यांसुधी जाणवू के यावत् समयाधिक एक आवलिका शेष रहे, तेज ममये मानना बन्ध उदय उवोरणानी समकाले व्यवछ पाय अने ते पाते धीजु धधु मायामां प्रक्षेप करेल होवाथी मामनु लस्कर्म पण समयोन आलिकानिकमा या प्रमाण हाय छ, स्यारवाद मायान बोजीस्थितिमा रहेलु प्रथम किट्टीन दलीयु वधाने प्रथम स्थिति बनाये अने वेवे, यायत अन्तर्मुहुनसुधी मानना पण बन्धनादिनी व्यवच्छेद थये छते ते [ मान ] नु बलोयुं समयोन घे आपलिकाममाण का करी गुगणसंक्रमबारे मायामां प्रक्षेपे, मायानुं पण प्रघमास्थितिरूप करेलु से बीजीस्थितिमानुप्रथम किट्टीनु दलीयु ते वेवातुं छतुं समयाधिक आषलिकाशेष प्रमाण थयु, पारवाद अनन्तरसमय मायानु बीसी स्थितिमा रहेलु चीजो किट्टीमु दलीयु खेची ने प्रथमस्थिति करे अने वेदे, से पण समयाधिक आषलिका शेष रहे स्थांसुधी जाणवू, स्यारखाप पली अनम्तरसमये मीजी स्थितिमा देलु जीजी क्रिहिन बलीयू पण खे चीने प्रथम स्थिति को अने धे, ते यावत् समयाधि Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .: (५२४)। गुणस्यानद्वारे बादशक्षीणमोहमुणस्थानप्रसंगतः क्षपकश्रेणिमरूपणम् [बार अर्थ-क्षपक श्रेणिमारंभक पुरूषनो ए अनुक्रम कह्यो, अने श्रेणि आरंभक स्त्री होयतो अनुक्रमे नपुंसकवेद-पुवेद-हास्यादि-६ अने स्त्रीवेद खोवे छे ॥३२॥ अने नपुंसक जीव क्षपाणिनो आरमक होय तो निश्चयथी प्रथम खीयेद् खपावे,अने त्यारवाद अनुक्रमे पुंषद-हास्यादि-६ अने न वेद खंपावे।।३३॥ त्यारबाद ते क्षपफ जीव (पण वेदमांनो कोइपण क्षपकजीव नवमे गुणठाणे) संचलनकोध- संन्वलनमान ने संचलनमायानो क्षय करे,अने त्यारवाद दशमे गुणठाणे संज्वलनलोभनो (अनुक्रमे) क्षय करे ।।३४॥ वे लोभ समूळगो (सर्वश्रा) क्षय थये छते श्रद गायोगकत कर्मप्रकृति टोकामां तो कर छ के-श्रेणिआरंभक श्री होय मी प्रथम नपुंसकवेद, न्यारवाद स्लीवेद खाये, अने न्यारवाद पुरुषवेद ने हास्य पटकनो ममकाळे क्षय थाय. २ पुनः पज कामां को छ के-श्रेणिप्रारंभक नपुंसक होग तो प्रथम म्रीवेद ने नपुंसकवनो समकाळे भय करे, अने न्यारवाद पुरुषवेद ने हास्य षटकनो समकाळे क्षय करे. क भावलिकामा शेष है त्यांमुधी जाणवं, तेजलमये मायाना यन्ध उदय उदीरणानो समकाले ध्यवरछेद थाय , मायानु सतागत कर्म पण ममयोन आपलिकातिकबद्ध मात्रज बछ, वाकीनु सर्व गुणसंक्रमे लोभमा प्रक्षेप्यु (संक्रमाव्यु') त्यास्वाद अनन्तरसमये लोभनु बीजी स्थितिमा रहेलु प्रथमकिटोनुबलीयु खधीमे प्रथम स्थितिकप करे भने थेवे, ते यावत् अन्समुहूर्तसुधी माणयु. संज्वलनमायाना मन्धादि व्यवच्छेद कर्य छते मायानु सर्व दलीयु भमयोन के आवलिकाप्रमाण काले गुणसंकमे करी लोभमां मंक्रमाचे, लोभर्नु प्रथमस्थिति स्प करेलु प्रथमकिट्टीनु' दलीयु दातुं छत्तुं समयाधिक आषलिकामात्र शेष पर्यु स्यारवाद अनन्तरसमये बीजी स्थितिमा रहेढुं लोभनु बीजी किट्टीनु वलीयु खचीने प्रथम स्थिपिरूप यनाथे अने वंदे, इथे ते वेदतो कतो श्रीजी किट्टीना दलीयाने ग्रहण करी मुभम किट्टीओ बनाये, ने यापन प्रथम स्थितिरूप करेला योनी किट्टीना इलोयानो समयाधिक आवलिकामात्र शेष रहे तेजसमये संस्थलन लोभनो बन्ध व्यवच्छेद १, बादरकणायना उपय उदीरणामो व्यवच्छेदर,अने अनिवृसिवावर संपराय नामना नषमा गुणस्थाननो व्यपच्छेद३, एसर्व समकाले थायछे, न्यारवाद अनन्तसमये पीजी स्थितिमा रहेला मुमकिट्टीमा बलीयाने प्रथमस्थितिरूप करे अने घेवे, तेषखते से सूकमसंपराय कषाय छे, अहीं पूर्व कहेली पीजी किट्टीनी चाको रहेली सर्व मालिकाओ पण येवाती पर प्रकृतिओमां स्तिथुक सकमे संक्रमाये, यथायोग्यपणे पहेली किट्टीनी आपलिकाओ बीजी किट्टीमा अने श्रीजीकिट्टीनो आलिकाको श्रीजी किट्टीमा अन्तर्गतपणे भोगाय के लोभनी सम किहीमोने येतो माम संपरायी Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३६) (५२५) मोहने तरी गयेलो एवो ते क्षपकमुनि अन्तर्मुहूर्तसुधी त्यांज ( एटले १२ मे गुणस्थाने) विश्राम ले ले (कोइपण प्रकृति क्षय करतो नथी) ||३५|| (विशेषाइसक) भाष्य (गा० १३३२) मधुं छे के - " ( लोभाणु मात्रनो पण सर्वथा ) क्षय थये क्षपक निर्बं ( थयेला मुनि) मोहसमुद्र तरोने अन्तर्मुहूर्त विश्राम पामे, जेम ( बाहुवडे) समुद्र तरीने थागजलमा ( ढींचण प्रमाण जलमां आवेलो फोड़क तारक) पुरुप विश्राम ले के तेय " ॥ ३६ ॥ ये बारमा क्षीणकषाय नामना गुणस्थाने गयेलो जीव ते गुणस्थानना उपान्त्य समये निद्रा अने मचलानो क्षय करे ॥ ३७ ॥ अने अन्त्यसमये ५ ज्ञानावरण-४ दर्शनावरण- अने ५ अन्तरायनो क्षय करो जिन सर्वज्ञ थाय ॥ ३८ ॥ ए प्रमाणे जब ममयोन आकिमि बद्ध सूक्ष्म किट्टीमा दलीयाने प्रतिसमय स्थितिघातादिवडे त्यांसुधो खपाये के यावत् सृम्मसंप राय काळमा संख्याता भागां जाय, एक भाग अवशेष रहे. न्यारबाद से संख्यातमा भागमां संचलन लोभने सर्वापवर्तनाये अपवर्तन करी सूक्ष्मसंपरावना कालनी सम्मान बनाये, में सूक्ष्म संघरायनी काल हजी पण अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हे त्यारथी मांडीने लोभमा स्थितिघात विगेरे निवृत्त थया, खाकीना कर्मना तो प्रबर्तेज छे हवे ते लोभी अप वर्तन करेली स्थितिने उदय अने उदीरणाबडे वेदतो यावत् समयाधिक आ पलिकामात्र शेष रहे स्यां सुधी जाय, त्यारबाद अनन्तरसमये लोभनी उदीरणा अटकी पटले केवळ उदयवदेश लोभनो स्थितिने वेदे यावत् चरम समय आवे ते झेल्लासमये पांच ज्ञानावरणीय-५, चारवर्शनावरणीय-४, पांच अन्तराय-५, यश कीर्ति- १. उच्चैर्गोत्र- १ र सो प्रकृतिओना बन्धनां व्यवच्छेद तथा मोettesर्मना उदय गने सप्तानां पण व्यवच्छेद थाय, अहीं लोभनो संपूर्ण पणे क्षय कर्ये ते अनन्तरसमये क्षीणकषाय थाय छे हवे ते क्षीणकषायीने मोहनीवर्जने यकीन कर्मोना स्थितिघात विगेरे पूर्वनी माफक प्रछे, यात क्षीणकषायामा संख्याता भागो जता सुधी, एक संख्यातमो भाग बाकी रहे छे, ते सख्यातमा भागमां पांच ज्ञानावरणीय चार दर्शनावरणीय पांच अन्तराय अने थे निद्रा प सोव्यप्रकृतिओनु स्थितिसत्कर्म सर्वापत्रसेनाये अपवर्तन करी क्षीण कषायाद्वामी समानस्थिति बनाये कर्मत्वनी अपेक्षाये मुल्य छतां मात्र बेनिद्रालु' एक समयन्यून स्थितिसत्कर्म जाणवु पटलेके श्री मोहना उपान्त्यलमये निद्रा ठिकनुं दलीं दर्शन चतुष्कयां स्तिनुकमको संक्रमाषशे अने संक्रम पामते दली करक स्वरूप त्याग करेछे अंथी नित्य अने प्रचकात् रूप पोताना स्प रुपनी अपेक्षाये समयन्यून क्षीणकषायना काळनी सरखी स्थिति कही असे संक्रमना अन्त्यसमयमां चौद प्रकृतिस्वरूप रहोगे तेनी साथै निशाकिनी क्षय करशे माहे पर प्रकृतिरूप कवनी अपेक्षा तुल्यता कही छे, कम्पयडीमां को क Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२६)।गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षीणमोहगुणस्थानप्रसङ्गतः अपकणिप्ररूपणम्।।(हार अईि जे १४८ प्रकृनियो मनामा हती नेमांयी ४६ नो क्षय थराथी ॥ ३९ ॥ दशमे गुणस्थाने १०२ प्रकृतियो वाको रही अने (लोभना क्षयथी) १२ माः गुणस्थानना उपान्त्य समयमुधी १.१ प्रकृतियो वाकी रद्दी ॥ ३० ॥ अने [पुनः निद्रा २ नो क्षय थतां क्षीणमोहगुणस्थानना अन्त्य समये सत्तामा ९९ रही, अने १४ नो क्षय थवाथी अहिं सयोगि गुणस्थाने ८५ महतियो बाकी रही, ॥४२॥ स्वारवाद अयोगि गुणस्थानना उपान्य समये ७२ प्रकृतियोनो क्षय थाय अने अयोगिना अन्य समये शेप १३ प्रकृतियोनो क्षय थाय. ॥ ४२ ॥ अर्हि भाध्यकार महाराजे कधु छेके-"निश्चय नये केवळज्ञाननी उत्पत्ति ( विशेषा. भाष्यणा० १३३४) (क्रियाकाल अने निष्ठाकालनो अभेद होचाथी) शानावरणना क्षय समये छे, अने व्यवहार नय कहे छे के ते आवरणना शयथी अनन्तर समये केवलज्ञाननी उत्पत्ति छे ।।४३), क्षपकश्रेणिनी स्थापना अहीं जाणरी (आगळ व नाबी छ) आप्रमाणे यारमुक्षीणमोहवीतरागछमस्थ गुणस्थानक जाणवू. १ अनन्तानुबन्धि ४-दर्शनमोहनीय ३-आयुष्य ३. स्न्यानपित्रिकादि १६मध्यमकवाय ८-नोकषाय ९-मयलन क्रोधादि ३. ए नेतालीश प्रकृति २ वेदनीय-१ मनुष्यत्रिक- पंचेन्द्रिय १ घस-१ सुभग-१ आदेय- यश-र पर्याम-३ बावर-१ तीर्थकर-ए-ने उच्चगोत्र-१ प तेर प्रकृति. के अनुश्यषती प्रकृतिओने घरमसमये स्तिवुक मक्रमे करी उदयवती प्रकृतिओमां प्रक्षेप करें (मफमा) अनं परप्रकृति स्वरूपे भोग एटले चरमसमये ते अनुदयवतीन दलीयु स्वम्धरूपे होतु नथी पण परप्रकृतिम्वरूप होय छ, पज प्रमाणे आगळ पण अनुदयवती प्रकृतिओनी समयन्यूमता विद्यारवी ते क्षीणकषायादा बसु पण अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जाणषी, इवे ग्यारथी मांडीने ते सोळ प्रकृतिमा स्थितिघातादि अटक्या वाकीमा कर्मना तो प्रवतेज ने, निद्राहिक हीन ते सोळ कर्म उदय अने उदीरणाथो वेवतो यावत् समयाधिक आषलिकामात्र शेष रहे त्यांसुधी जाय, त्यांची उदीरणा निवृत्त था न्यारपछी आपलिकामात्र काल सुधी केवल उदये करोनेज़ भोगचे यायल् क्षीणकवायना कायनो विचरम (उपान्त्य) समय आये ते उपान्त्यसमये निद्रानिक स्वरूप सत्ताथी क्षय पाम्यु, निद्राद्रिकनी उपास्यसमये भय यवाना हेतु पटलोज के-"उदप पुण खबगाणं चत्तारि उ. मणापरणे' ए सप्ततिका भारुपना पचनी अपकणिमा निब्राहिकना उदयने निषेधर्छ, माटे उपास्त्यसमये निवाहिक स्तिघुकर्मक्रमे अन्य (दर्शनघतष्क) मां संक्रमावे पटले स्वरूपसत्ता अपेक्षाये निवाधिक अय पाम्यु, भन में उदयवतो प्रकृतिओ होय तनो नो प्रथम संक्रम न होवाथी अन्यसमयसुधी म्वरधरूपे दहीथु देखाय छ, अंने मिन्द्राद्विकर्नु दलीयुं तो उपाय समये क्षय पाम्यु, माटे ज. - - - -- Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३६) (५२७) णाय से के क्षपकश्रेणिमां निद्राशिको उदय नथी, घृणिकार पण कडे छे के"दुधरिमलमये एवं मिहादुगं खीणं उदयाभाषाओ", याकोनी चौद प्रकृ तिओनो चरमसमये कय पाय निश्वयम ये ते समये अगे व्यवहारनवे ते पछीमा अनम्रमये सर्वस्वरूपे सर्वलोकालोकनु परिपूर्ण त्रिकालस्वरूप प्रकाशक केवलज्ञान प्रगट बाथ पटले सयोगि केवल गुणस्थान पाये तात्पर्य पज के अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानो पैकीनो प्रथम ( बार्थभनाराच ) संघयणवाळो सुविशुद्धपरिणामी क्षपकर्मणिमां बडेलो अनुक्रमे वारमा गुणस्थाममा चरम समयसुधोमां सर्वमस्त्री मोहनीय २८. ज्ञानावरणीय - २ दर्शनाबरणीय - ९, अन्तराय - ५. आयु-३, नामकर्मनी-१३. प प्रमाणे ६३, प्रकृतिओ म्रपीने केवलज्ञान पामे, गुणस्थानक्रमारोहमां क्षपकक्षेणिकम आप्रमाणे छे-धरमश रीरी बोथे गुणस्थानके नरकायु (संभवतः ) क्षय करे, पांच मे तिर्यगायु क्षय करे, सातमै देवायु, अम्लानुबन्धि चतुष्कम, अने दर्शनत्रिक ३ प आठ प्रकृति क्षय करे, आठमे शुक्लध्यानमा पहेला पायामां प्रवेश करें, ध्यान विधि विस्तारथी ध्यानशतकवृति विगेरेथे जाणो, नमाना पहेले भागे नामकर्मनी १३ अने त्यानधित्रिक प सोळ. प्रकृति खपाने, पीजे भागं कषायाष्टक, बीजे भागे नपुंसकवेद, बोथे भागे खीद, पांचभागे हाच ट्रक, छट्ठेभागे पुरुषमेष, सातमे भागे संवलनक्रोध, आटमे भागे नमान नवमे भागे संचलन मायानो क्षय करें. त्यारबाद बादरलोभने सुक्ष्मरूप बनावी दशमे सूक्ष्मलोभन क्षय करे, बारमे गुणस्थाने शुक्लध्याननो बीजो पायें ध्यान बारमाना उपायसमये निद्राणिक भने चरमसमये सामावरणीयादि चाँद प्रकृति खपाम्रो केवलज्ञान पामे आब वृहद वृति- उत्तरावृति विगेरेमां आटलो विशेष छे. (१) अमन्तानुबन्धिनु अवशिष्ट दलीयुं मिध्यात्वमां प्रक्षेप करे, पज्ञ प्रमाणे सर्वत्र पूर्वप्रकृतिनु अवशिष्ट दही उत्तरप्रकृतिमां संक्रमाचे, कार्यप्रमिथकोना विचार प्रमाणे १ मूलप्रकृतिथौ भिन्नप्रकृतिओलु संक्रमण न थाय. आयुष्यनुं परस्पर सं कमण न याथ तथा ३ दर्शममोहनीय अने चारित्र मोहदयतुं पण परस्पर संक्रमण न चाय, जेथी चारित्रमोहनीय प्रकृतिरूप अनन्तानुग्रम्धीनु दलीयु दर्शनभीनीरूप मिथ्यात्वमां संकमा नहि. (२) जैम पुरुषवेदे मंणि अंगीकार करें छते पोतानी पुरुषवेद पाछळथी खपावे तेभ नपुंसकये तथा श्रीवेदे प्रेणि स्वीकारवामां पाळधी पोतपोताना बेद खपावे (३) क्षीणमोह धारमा गुणस्थानमा उपास्य समये निद्राद्विकनी साथे देवगति विगरे केटलीक नामकभी प्रकृतिओ पण खपावे छे इत्यादि विशेष स्वरूप प्राचीन ग्रन्थोधी जाणवु. ॥ इति क्षपकश्रेणिविधिः ॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१८)|| गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षोणमोहगुणस्थानमसंगतः क्षपकश्रेणिस्थापना | [ द्वार =-= [शिष्टा : प्रकृतयः ] सिद्धि ० ' ८५ ९९ १-१ १०२ 'ક્ १०४ १०५. २०६ ११२ ११३ ११४ R சுசகமிதி अयोगिगुणस्थान नरत्रिकाविद्वादश० अयोगिगुणस्था देवविकादि सिमति क्षपयति ७३ क्षीणमोह ज्ञाना०पंच दर्श० चतुष्क अन्त० पंचकं च २०१४ परमसमये G क्षीणमोहवाश निश १८२० प० गुणस्थानोपान्त्स्य समये गुणस्थानके सं० लोभं श्र १७ संवलनमायां क्षपयति ४६ स्थाननषमे भागे संमानं क्ष० ४५. सूक्ष्मसंपराय नवमगुण मधप्रगुण नवम गुण लक्ष्मगुण नवमगुण म कम गुण नवमगुण केविशु पोडश । प्रकृतिक्षपणा मध्ये कषायाएकं क्षपयति अस्तिसम्यग्दृष्टेराप्रमत्तं मध्ये श्रपयति १३८ अविरतसम्यग्दृष्टि १४१ १४२ १४३ h संज्वलन कांध क्ष० ४४ पुरुषषेषं क्ष० ४३ स्थान [पिताः ] U नोपान्त्यसमये १३६ चरमसमथै स्थानाष्टमे भागे हास्याविषक क्षपयति ४२ स्थान सप्र मे भागे स्थानषष्ठे भागे गुणस्थानावारभ्य संभवतः स्थानपंचमे भागे श्री क्षप० १६ स्थानस्य सूर्ये भागे ३५. स्थामतृभीये भाग भागे नवम नपुंसकवेदं क्षपयति ३५ अप्रस्याख्यान-प्रत्यारूयानकणयाकशेषं क्ष० । ३४ द्वितीये ३४ नरकशिक, तिथे विक, स्थावर शिक, zoìa,saq,ezara får fires, enamरण. जातिचतुष्कषोडश ४० २६ अप्रत्याख्यान -- प्रत्याख्यानक पायाष्टका क्ष० स्य प्रथमे भागे नरकटतिर्यग देवावृषि१०क्षप सम्यक्त्वमो० क्ष०७ मनमोहनीयं क्षपयति ६ मिथ्यात्वमोहनीयं क्षपयति ५ अनन्तानुवन्धिनः क्रोध १ मान २ भाया श्रीमान ४ क्षपयति ॥ क्षपकण्यारोदकमोऽयम ॥ उभयमीलमे १४८ प्रकृतयः अष्टानामपि कर्मणाम् ॥ # अविरत सम्यग्दृष्टेराप्रमत्तं "J ४६ ४५ મુક ४५ ર ३६ २६ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा०२३६) (५२९) ___ योगो नामात्मनो वीर्य, तत्स्याल्लब्धिविशेषतः । वीर्यान्तरायक्षपणक्षयोपशमसंभवात्॥४४॥ योगो द्विधा सकरणोऽकरपश्चेति कीर्तितः । तत्र केवलिनो ज्ञेयदृश्येष्वखिलवस्तुषु ॥४५॥ उपयुञ्जानस्य किल,केवले ज्ञानदर्शने।योऽसावप्रतिधो वीर्यविशेषोऽकरणः स तु ॥४६।। युग्मम् । अयं च नात्राधिकृतो, योगः सकरणस्तु यः । मनोवाकायकरणहेतुकोऽधिकृतोऽत्र सः ॥४७॥ केवल्युपेतस्तैयोंगैः, सयोगी केवली भवेत । सयोगिकेवल्याख्यं स्याद्, गुणस्थानं च तस्य यत् ॥४८॥ मनोवाकायजाश्चैवं, योगाः केवलिनोऽपि हि। भवन्ति कायिकस्तत्र, गमनागमनादिषु ॥ ४९ ॥ वाचिको यतमानानां, जिनानां देशनादिषु । भवत्येवं मनोयोगोऽप्येषां विश्वोपकारिणाम् ॥ ५० ॥ मनःपर्यायवद्भिर्वा, देवेर्वाऽनुत्तरादिभिः । पृष्टस्य मनसाऽर्थस्य, कुर्वता मनसोत्तरम् ॥ ५१ ।। द्विचत्वारिंशतः कर्मप्रकृतीनामिहोदयः। जिनेन्द्रस्यापरस्यैकचत्वारिंशत एव च ॥ ५२ ॥ औदारिकाङ्गोपाङ्गे च, शुभान्यखगतिद्वयम् । अस्थिर चाशुभं चेति, प्रत्येक च स्थिरं शुभम् ॥ ५३ ॥ संस्थानषट्कमगुरुलघूपधातमेव च । पराघातोच्छ्वासवर्णगन्धस्पर्शरसा इति ॥ ५४ ॥ निर्माणायसंहनने, देहे तेजसकामणे। असातसातान्यतरत्, तथा सु. स्वरदुःस्वरे ॥ ५५ ॥ एतासां त्रिंशत: कर्मप्रकृतीनां त्रयोदशे। गुणस्थाने व्यवच्छेद, उदयापेक्षया भवेत् ॥ ५६ ॥ भाषापुगलसंघातविपाकित्वादयोगिनि । नोदयो दुःस्वरनामसुस्वरनामकर्मणोः ॥ ५७ ॥ शरीरपुद्गलदलं विपाकित्वादयोगिनि । शेषा न स्युः काययोगाभावात्प्रकृतयस्त्विमाः ॥५८॥ ततश्च ।। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३०) ॥ गुणस्थानद्वारे त्रयोदशसयोगिकेवलि गुणस्थानवर्णनम् ॥ (बार यशः सुभगमादेयं, पर्याप्तं त्रसबावरे । पञ्चाक्षजातिर्मनुजायु. गत्यौ (ती) जिननाम च ॥ ५९ ॥ उचैर्गोत्रं तथा सातासातान्यतरदेव च । अन्त्यक्षणावध्युदया, द्वादशैता अयोगिनः ॥६०॥ (इति त्रयोदशं सयोगिकेवलिगुणस्थानम् ) ॥१३॥ अर्थ-हवे सयोगिगुणस्थानर्नु स्वरूप कहे छे-योग एटले आत्मानुं वीर्य ते वीर्यान्तरायना क्षय अने क्षयोपशम (अन्तरायकर्मनो औपशमिकभाव थतो नथी) थवाथी उत्पन्न थयेल लब्धिविशेषथी होयछे ।।४४॥ त्यां योग सकरण अने अकरण एम रे प्रकारनो कहेलो छ, नेमां जाणरा योग्य (झानना विषय) अने देखवा योग्य (दर्शनना विषय) एवा सर्व पदार्थोमां केवळज्ञान अने केवळदर्शननो उपयोग करता एत्रा केवलीन जे आ अप्रतिहत (कोइथो नहि अटकावातु) वीर्यविशेष ते अकरणयो. ग कहेवाय ॥४५-४६॥ आ (अकरण) योग अहिं (चालु विषयमां) अधिकार करायेलो (उपयोगी) नथी, पण मनवचनने कायाना निमित्तवाळो जे सकरणयोग तेम अहिं अधिकार करायेलो छ ॥ ४७ ॥ ते (सारण ) योगवढे सहित जे . केवली ते सयोगिकेवलि छे, अने तेमन जे मुणस्थान ते पण सयोगिकेवलि नामर्नु छे. ।। ४८ ॥ केवलीने पण मन वचन अने कायाना योगो आ प्रमाणे होय छे, त्यां गमन आगमनादि क्रियामां काययोग होय छे ॥ ४९ ॥ तथा उपदेश देवादिकमा प्रयत्नवाना जिनेश्वरोने वचनयोग होय छे,अने एज प्रमाणे जगतना उपकारी तेओने मनोयोग पण होय छे. ॥५०॥ [ ते आ प्रमाणे ] मनः पर्यवज्ञानीओए अथवा अनुत्तरादि देवोए मनथी पूछेला प्रश्ननो (द्रव्य) मनयी जवाद आपता ( मनोयोग होय छे ). ॥ ५१ ॥ आ गुणस्थाने ४२ कर्मप्रकृतियोनो उदय जिनेश्वर (तीर्थकर केवलि)ने अने वीजा सामान्य केवळीने ४१ प्रकृतियोनो ज उदय होय छे ॥ ५२ ॥ औदारिकशरीर १, औदारिफअंगोपांग २, शुभविहायोगति ३, अशुभ विहायोगति ४, अस्थिर ५, अने अशुभ ६, ए प्रमाणे प्रत्येक ७, स्थिर ८, शुभ ९ ॥ ५३ ॥ छ संस्थान १५, अगुरुलघु १६, सपघात १५, पराघात १८, उच्छ्वास १९, वर्ण २०, गंध २१, स्पर्श २२, रस २३, ए प्रमाणे ॥ ५४ ॥ निर्माण २४, वर्षभनाराच संघयण २५, तैजस २६, अने कार्मणशरीर २७, अशाता अथवा शाता बेमाथी कोइपण एक २८, तथा सुस्वर २१, अने दुःस्वर ३०, ॥५५॥ ए ३० प्रकृतियोनो विच्छेद १३ मे गुणस्थाने उदयनी अपेक्षाए (अ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. २३६) (५३१) र्थात् उदयविच्छेद) थाय छे. ।। ५६ ॥ ( कारण के दुःस्वर अने मुस्वर नामकमर्नु ) भाषा पुद्गल संमृहसंबंधि विपाकीपणुं होवाथी अयोगि गुणस्थानके मुस्वर अने दुःस्वर नामकर्मनो उदय नथी । (औदारिकशरीर विगेरे २८ प्रकृतिओर्नु) शरीर पुलिसमूहना विपाकीपणु होवाथी अयोगिगुणस्थाने काययोगना अभावथी बाकीनी (२८) प्रकृतियो पण न होय ॥ ५८॥ अने तेथी यश १, सुभग २, आदेव ३, पर्याप्त ४, त्रस ,बादर क, पंचेन्द्रिपजाति ७, नरायुष्य ८. नरगति ९, अने जिननाम १.॥५९ उच्चगोत्र ११ तथा शाता के अशातामांधी कोइ एफज ए १२ प्रकृतियो अयोगिकेवलिने अन्त्य समयसुधी उदयमा वर्ते छे. ॥६०॥ आ प्रमाणे तेर# सयोगिकेवलि गुणस्थानक जाणचुं॥१३॥ नास्ति योगोऽस्येत्ययोगी, तादृशो यश्च केवली । गुणस्थानं भवेत्तस्यायोगिकेवलिनामकम् ॥ ६१ ॥ तच्चैवं ॥अन्तर्मुहृतशेषायुः, सयोगिकेवली किल । लेश्यातीतं प्रतिपित्सुर्व्यानं योगान् रुणद्धि सः ॥६२ ॥ तत्र पूर्व बादरेण, काययोगेन बादरौं । रुणद्धि वाग्मनोयोगी, काययोगं ततश्च तम् ।। ६३ ॥ सू मक्रियं चानिवृत्ति, शुक्लध्यानं विभावयन् । रुन्ध्यात्सूक्ष्माङ्गयोगेन, सूक्ष्मौ मानसवाचिकौ ॥६४ ॥ रुणङ्ख्यथो काययोग, स्वात्मनैव च सूक्ष्मकम् । स स्यात्तदा त्रिभागोनदेहव्यापिप्रदेशकः ।। ६५॥ शुक्लध्यानं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति च । ध्यायन् पञ्चहस्ववर्णोच्चारमानं स कालतः ।। ६६ ॥ शैलेशीकरण याति, तच्च प्राप्तो भवत्यसौ । योगव्यापाररहितोऽयोगी सिद्ध्यत्यसौ ततः ॥६७॥ गत्यानुपूव्र्यो देवस्य, शुभान्यखगतिद्वयम् । छो गन्धावष्ट च स्पर्शा, रसवर्णाङ्गपञ्चकम् ।। ६८ ॥ तथा पञ्च १-२ सुम्बर अने दुःम्बर नामकर्मनो विपाक भाषानन्यनो हतिना निमितथी होय छे, अने काययोग मंथन्धि प्रकृतियानो विपाक शरीरपुनलमातिना निमित्तथी हे, ते बन्ने अयोगिने नहिं होपायो तद्विपाकी प्रकृतियानो पण उदय न होय प तात्पर्य छे. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३२) ॥ गुणस्थानद्वारे चतुर्दशायोगिकेवलिगुणस्थाननिरूपणम् ॥ [द्वार बंधनानि, पक्षपानमपि । निर्माण षट् संहननान्यस्थिरं चाशुभं तथा ॥६९|| दुर्भगं च दुःस्वरं चानादेयमयशोऽपि च । संस्थानषट्कमगुरुलघूपघातमेव च ॥७०॥ पराघातमथोच्छ्वासमपर्याप्ताभिधं तथा । असातसातयोरेक, प्रत्येकं च स्थिरं शुभम् ॥७॥ उपाङ्गत्रितयं नीचैर्गोत्रं सुस्वरमेव च ।अयोग्युपान्त्यसमये, इति द्वासप्ततेः क्षयः ॥ ७२ ॥ मनुजस्य गतिश्चायुश्चानुपूर्वीति च त्रयम् । प्रसवादरपर्याप्तयशांसीति चतुष्टयम् ।। ७३ ॥ उच्चैर्गोत्रमथादेयं, सुभगं जिननाम च । असातसातयोरेक, जातिः पञ्चेन्द्रियस्य च ॥ ७ ॥ त्रयोदशैताः प्रकृतीः, क्षपयित्वाऽन्तिमे क्षणे । अयोगिकेवलो सिद्धयेन्निर्मुलगतकल्मपः ॥७५ ॥ मतान्तरेऽत्रानुपूर्वी, क्षिपत्युपान्तिमक्षणे। ततस्त्रिसप्ततिं तत्र, द्वादशान्त्ये क्षणे क्षिपेत् ॥७५ ॥ चतुर्दशं १४ ॥ अर्थ जेने योग नधी ने अयोगि भने तेवा पकारना जे केवळी होय तेमनुं जे गुणस्थान ते अयोगिकेवलि नामर्नु गुणस्थान छे ॥ ६१ ॥ अने ते आ प्रमाणे-अन्तर्मुहूर्त आयुष्य याकी रहे त्यारे ते सयोगि केवळी निश्चयथी लेश्या रहीत ( अलेशी ) ध्यान अंगीकार करवानी इच्छाबाळा थया छता सर्व पोगोने रुंधे छे ॥६॥ तेमां पथम चादर काययोग वडे बादर वचनयोग अने वादर मनोयोगने रोके छे, अने त्यारवाद ते बादर काययोगने रोके ले ॥ ३ ॥ स्वारपाद भूक्ष्मक्रियाअनित्ति नामना शुक्लध्यानने ध्याता छता सूक्ष्मकाययोग वडे सूक्ष्म मन अने वचन योगने रोके ।।६४।। अने त्यारवाद पोताना आत्मबल बडेज सूक्ष्मकाय योगने "रुधे, अने तेथी ते सयोगि केवलिभगवान ने वखते त्रिभागन्यून (अवगाहनाये) १ अनुक्रम एवो छ के बादरकाय योगना बळथी अन्तमुहर्तमां यादर पचनयोग रोये न्यारवाद अन्तर्मन स्थिर रहीने पुनः श्रादर काययोगषडे बादर मनोयांगने अम्तमहतमा कंधे, प प्रमाणे दरक योग अन्तर्मन संधाय अने बच्चे बच्चे अन्तमुह स्थिर रहे. २ प ध्यान यसते आत्मप्रवेशोनी अवगाहना [धे तृतीयांश ] पटले ९ हायनो होय तो द हाथनी थाय. ५०० धनुष्यनो होय तेमांयी एकसो छा Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥श्रीलोफप्रकाशे तृतीयः सर्गः । [सा० २३६] (५३३) , देहमा व्याप्त आत्मपदेशवाळा याय. ॥३५॥ अने ते अयोगिभगवान् समुच्छिन्नकिया अभाविपाशी ना बोधु अपलध्यानने ध्याता छता काळथी पांच हस्वाक्षरना उच्चार प्रमाण (अ इ उ ऋ ल अथवा हु अ ण न म ना उचार जेटला काळ ममाणवाळा ), शैलेशी करणयां जाय अने त्यारबाद ते शैलेशीकरणने माम थयेला आ अयोगि केवली योग ( मन वचन कायाना ) व्यापारथी रहित थाय छे, अने त्यार पछी अनुक्रमे मोक्ष पामे छ. ।। ६६-६७ ॥ देवनी गनि-१ अने देवानुपूर्वी-२ शुभ अने अशुभ ए बे विहायोगति-४ वे गंध-६ आठ स्पर्श १४पांच रस-१९-पांच वर्ण२४-पांच शरीर-२९ ॥६८|| तथा पांच बंधन-३४ पांच संघातन-३९ निर्माण-४० छ संघयण-४६ अस्थिर-४७ अने अशुभ-४८ तथा ॥६९॥ दुभंग-४९ दुःस्वर-५० अनादेय-५, ने अयश-५२ तथा छ संस्थान-५८ अगुरुलघु-५५ उपघात-६० ॥ ७० ॥ पराघात-६१ श्वासोच्छवास-६२ अने अपर्याप्त-६३ नामकर्म (प्रकृतिओ) नथा अशाता श शातामांनी एक-६४ पत्येक ६५ स्थिर ६६ अने शुभ-६७ ॥७॥ण उपांग-७० नीचगोत्र-७१ अने सुस्वर-७२ ए ७२ प्रकृतियो अयोगि गुणस्थानना उपान्त्य समये क्षय पामे ॥ ७२ ॥ अने मनुष्यगति-१ मनुष्यानुपूर्वी-२ तथा मनुष्यायुष्य-३ एत्रण तथा प्रम-४ बादर-५ पर्याम-5 ने यश-७ ए चार ॥७३॥ उगोत्र-८ आदेय-९ सुभग-१० जिन [ तीर्थकर ] नाम-११ अने शाता अशातामांथो कोई एक-१२ तथा पत्रन्द्रिय जाति-१३॥४॥ ए १३ प्रकृत्तियो अयोगीकेवलि अन्त्य समये खपावीने मूळथी दूर थयाँ छ कम जेमना एवा ते अयोगिभगवान् मोक्ष पामे छे ।।७।। अहि मतान्तरे मनुष्यानुपूर्वी उपान्त्य समये खपावे तो त्या उपान्त्य समये ७३ प्रकृतियो क्षय पामे, अने अन्त्य समये १२ प्रकृतियो क्षय * पामे [एम मतान्तर जाणवो.]॥७६॥ आ प्रमाणे चौदमु अयोगिकेवलि गुणस्थानk स्व. रूप जाणबु.॥१४॥(हवे गुणस्थानोनो परभवसहगमनादि विचार कहे छे) आद्यं द्वितीयं तुर्य च,गुणस्थानान्यमूनि वै। गच्छन्तमनुगमट धनुन्य बे हाय सोळ आंगळ प्रमाणामों पक तृतीयांश भाग न्यून करता बाकी ३३३ धनुण्य १ हाथ अने ८ आंगळ अयशेष रहे, १शले शोमां शैल-पर्थतमा ईश-मुन्य ने शैलेश-पटले मेरुपवत तेना सरखं जे निश्चल-स्थिर ध्यान अथवा अषस्था ते शैलेशीकरण अथवा शीत सषरभाव तेथी थत चारित्र ते शैल तेनोश ते शैलेश-र्य संवरभाव अमन्धक दशानुं ययाण्यातचारित्र ते अप्राप्तनुं प्राप्त करवू. Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) || गुणस्थानद्वारे गुणस्थानानां परभवसहगमनादिविचारः ॥ =.. (द्वार J च्छन्ति, परलोके शरीरिणम् ॥ ७७ ॥ मिनदेशविरत्यादीन्येकादश पराणि च । सर्वथाऽत्र परित्यज्य, जोवा यान्ति परं भवम् ॥ ७८ ॥ तत्र मिश्र स्थितः प्राणी, मृतिं नैवाधिगच्छति । स्युर्देशविरतादीनि यावज्जीवावधीनि च ॥ ७९ ॥ यतृतीयं गुणस्थानं, द्वादशं च त्रयोदशम् । विनाऽन्येष्वेकादशसु, गुणेषु म्रियतेऽसुमान् ॥ ८० ॥ स्तोका एकादश गुणस्थिता उत्कर्ष - तोऽपि यत् । चतुष्पञ्चाशदेवामी, युगपत्संभवन्ति हि ॥ ८१ ॥ तेभ्यः संख्यगुणा क्षीणमोहास्ते ह्यष्टयुक् शतम् । युगपत्स्युरटमा दित्रिगुणस्थास्ततोऽधिकाः ॥ ८२ ॥ मिथस्तुल्याश्च यच्छेद्वियस्था अपि सङ्गताः । स्युर्द्वाषष्ट्युत्तरशतं प्रत्येकं त्रिषु तेषु ते ॥ ८३ ॥ योग्यप्रमत्तप्रमत्तास्तेभ्यः संख्यगुणाः क्रमात् । यत्ते मिताः कोटिकोटिशतकोटिसहस्रकैः ॥ ८४ ॥ पञ्चमस्था द्वितीयस्था, मिश्राश्वाविरताः क्रमात् । प्रत्येकं स्युरसंख्येयगुणास्तेभ्यस्त्वयोगिनः ॥ ८५ ॥ स्युरनन्तगुणा मिथ्यादृशस्तेभ्योऽप्यनन्तकाः । इदमल्पबहुत्वं स्यात्, सर्वत्रोत्कर्षसंभवे ॥ ८६ ॥ विपर्ययोऽप्यन्यथा स्यात्, स्तोकाः स्युर्जातुचिद्यथा । उत्कृष्टशान्तमोहेभ्यो, जघन्याः क्षीणभोहकाः ॥ ८७ ॥ एवं सास्वादनादिष्वपि भाव्यं || ( इति गुणस्थानेष्वल्पबहुत्वम् ) अर्थ - पहेलुवी ने चोथुं एत्रण गुणस्थान परभवमां जता जीवनी साथै जाय ||७|| अने मिश्र तथा देशविरत्यादि शेष प ११ गुणस्थानोने सर्वथा आ भवमां छोडीनेज जीवो परम जाग है (अर्थात् ए ११ गुणस्थानों परभवम साथै जतां नथी ) ॥ ७८ ॥ तेमां पण मिश्रगुणस्थाने रहेलो माणी मरण पावतो नथी, अने देशवित्यादि गुणस्थानो आखा भत्र पर्यन्त पहोचें छे ॥ ७९ ॥ | कारण के १ मित्व - अधिरतसम्यक्त्व - देशविरत प्रमत्त अप्रमत्त- अपूर्वकरण - अनिवृतिकरण- श्रश्ममं पराय -उपशान्तमोड अने अयोगि १० गुणस्यानां " यात्रज्यारथी प्राप्त थाय छे त्यारथी मरणपर्यन्न पण पहोंचे छे, माटे अहिं Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३६) चीजु-बार, अने तेर ए त्रण शिवायना शेष ११ गुणस्थानमां जीव मरण पामे छे ॥ ८० गुणस्थानानुं अल्पबहुत्व-११ मा गुणस्याने रहेला जीवो सर्वथी अल्प छे कारण के तेओ उत्कृष्टधी पण समकाळे ५४ संभवे . ।। ८१ ॥ तेथी क्षीणमोहगुणस्थानवाळा संख्यात गुणा के कारण के तेओ समकाळे १०८ होय , तेथी अष्टमादि त्रण गुणस्थानवाला (८-९-१० गुणस्थानचाळा ) विशेषाधिक होय छे ॥ ८२ ॥ कारण के क्ने श्रेणिमा रहेला जीवो अहिं एकठा थाय छे ( उपशमश्रेणिमास ५४ ने क्षपकश्रेणि मान १०८ जीवो ए गुणस्थानमां आवे ) अने ते प्रणेमा प्रत्येकमा ते सर्व जीवो १६२ ( १६२ ए १०८ करतां वमणा न हो. वाथी विशेषाधिक कहेवाय छे ) होय छे.॥ ८३ ॥ अने ते अणे गुणठाणामां जीवो परस्पर तुल्य होय छे. तेथी सयोगिकेवलि-अपमत्त ने प्रमत्त जीवो अनुक्रमे संख्यातगुणा होय छे,कारण के रोगो कोधि, कोशिशन को गोटिवाइस (कृष्ट एकसोसीत्तेर तीर्थंकरभगवानना काळा नवक्रोड केवलिभगवंतो विचरता होय अने नव हजारकोड साधुभगवंतो विचरता होय तेमा अमुक भाग अप्रमत्तमां वाकी प्रमत्त गुणगणामां होय अने जघन्यकाले वीच तीर्थकर भगवन्तो विधमान होय ने काले चे कोड केवलिभगवन्तो अने बेचे हजारकोड साधु भगवन्तो बिचरता होय छे.) होय छे ।। ८४ ॥ नेथी पांचमा देशविरत-वीजा सास्वादन-बीना मिश्रअने चोया अविरत ( मां वर्तता ) जीवो अनुक्रमे प्रत्येक असंख्यातगुणा छै, देशविरतमा तियेचो पण केटलाक भळे ले, अने सास्वादन मिश्र अने अविरत ए त्रण गुणस्थान चार गतिना जीवोने होय छे) अने तेथी अयोगिकेवलि अनंअभीवावधि " कडेला संभधे छे, अन्यथा अन्मथी मरणपर्यंत तो पहेलु' अने घोथुप बेश गुणस्थान होय. १ आचारांगनियुक्तिमा अघन्यकाले दश तीर्थकरी होवार्नु पण जणाषे छे. २ आ धारेगुणम्यानपति जी वो प्रत्येक प्रत्येक उत्कृष्टपवे क्षेत्रपन्योपमना असंख्यातमा भागबति आकाशप्रदेश राशि प्रमाण छे,तोपण असंम्यातमा असंख्यात मैदो होषाथी परस्पर पताषेलु असंख्यातगुणु अस्पबहुत्व घटीशके छ, देशपिरति मनुष्य अने तिर्यंच मांज बोय छ जेथी रणनी अपेक्षाये नानु असंख्यातु,सास्वादन पणु चारे गप्तिमा खोय छे तेथी ते अमंगपातगुण छ, तेना करता मिथनो काल अधिक होषाथी ने असंख्यातगुण छ, अविरतलभ्यगपष्टिनो काल क्षणीज छ जेथी से मिथना करता पण असंख्यातगुण जाणमा ( इति भावः ) ३वन्तुस; अयोगिकेवळी जे १४ मा गुणस्थानमाळा कडेवाय छे तेव्लाज मीषो अहिं न लेषा पण ते सहित सिद्धी पण [योगमा अभाव के माटे] अयो Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३६) || गुणस्थानद्वारे गुणस्थानानामल्पबहुत्वत्रिचारः ॥ द्वार गुणा छे, तेथी पण मिथ्यादृष्टि जीवो अनंतगुणा छे. आ अल्पबहुत्व सर्व स्थाने उत्कृष्टसंख्यानो संभव होय त्यारेज जाणवुं ॥८५-८६ ।। अन्यथा [ सर्व गुणस्थानोमा सर्वोत्कृष्ट संख्यानी अपेक्षा न राखोए तो ] विपरीत रीते पण अल्पबहुत्व श्राय, जेम के कोइक समये उत्कृष्ट उपशान्तमोदीथो जघन्य क्षीणमोही अल्प होय ॥ ८७ ॥ प्रमाणे सास्वादनादिकमां पण विचारपुं. मिथ्यात्वं कालतोऽनादिसान्तं स्यात्सादिसान्तकम् । अनाद्यनन्तं च न तत्सायनन्तं तु संभवेत् ॥ ८८ ॥ स्यादायं तत्र भव्यानामनाप्तपूर्वसदृशाम् । द्वितीयं प्राप्य सम्यक्त्वं, पुनर्मिथ्यात्वमीयुषाम् ॥ ८९ ॥ स्या तीयमभव्यानां, सदा मिथ्यात्ववर्तिनाम् । आनन्त्यासंभवात्सादेस्तुर्ये युक्तमसंभवि ॥ ९० ॥ सासादनं चोक्तमेव, षडावलिमितं पुरा । तुर्यं मितं समधिकत्रयस्त्रिंशत्पयोधिभिः ॥ ९१ ॥ सर्वार्थसिद्धदेवत्वे, त्रय- " स्त्रिंशत्पयोनिधीन् । धृत्वाऽविरतसम्यक्त्वं ततोऽत्राप्यागतोऽसकौ ॥ ९२ ॥ यावदद्यापि विरतिं, नाप्नोति तावदेष यत् । तुर्यमेव गुणस्थानमुररीकृत्य वर्त्तते ॥ ९३ ॥ किञ्चिन्म्यूननवादोनपूर्वकोटिमिते मते । त्रयोदशं पञ्चमं च गुणस्थाने उभे अपि ॥ ९४ ॥ अन्तिमं ञणनमेत्येवंरूपैः किलाक्षरे: । अविलम्वात्वरतयोश्चारितैः प्रमितं भवेत् ॥ ९५ ॥ आन्तर्मुहूर्त्तकानि स्युः, शेषाण्यष्टाव्यमूनि च । केचिदूचुर्न्यनपूर्वकोटिके षष्टसप्तमे ॥ ९६ ॥ तथोक्तं भगवती सूत्रे ॥ “पमत्त संजयस्स णं पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा विणं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ?, मंडिआ ! एगं जीवं पडुञ्च जह० एवं समयं उक्कोसं देसूणा पुत्रकोडी, णाणाजीवे पडुञ्च सव्वद्धा, (प्रमत्तसंयतस्य प्रमत्तfree storथी अहिं ग्रहण करवा, जेथी अनन्तगुणः थाय, अन्यथा अयोगिकेवळी गुणस्थानवाळा तो उत्कृष्टकाळे तत्समयवति १०८ ज हीय. 2 | Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) ३० मुं) ॥ श्रीलोकप्रकाशे टतीयः सर्गः (सा० २००७-१८) संयमे वर्तमानस्य सर्वापि प्रमत्ताद्धा कालतः कियच्चिरं भवति ? मंडित ! एक जीवं प्रतोत्य जघन्येनैकं समयं, उत्कृष्टा देशोना पूर्वकोटी । नानाजीवान्प्रतीत्यसर्वाद्धा) अस्य वृत्तिः ॥ ' जह० एक्कं समयंति' कथं' ?, उच्यते, प्रमत्तसंयतप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात्, 'देसूणा पुव्वकोडित्ति, किल प्रत्येकमन्तमुहूर्त्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थाने, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, महांति चाप्रमत्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तानि कल्प्यन्ते, एवं चान्तर्मुहूर्त्त प्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मिलने देशोनपूर्वकोटीकालमानं भवति । अन्ये त्वाहुः ॥ अष्टवर्षोनां पूर्वकोटिं यावदुत्कर्षतः प्रम तता स्यात्, एवमप्रमत्तसूत्रमपि । नवरं, 'जह० अन्तोमुहुत्तं' ति, किलाप्रमत्ताद्धायां वर्त्तमानस्यान्तर्मुहर्त्तमध्ये मृत्युर्न भवतीति, चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमस उच्यते, प्रमादाभावात्, स चोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानो मुहूर्त्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यते इति, देशोनपूर्वकोटी तु केवलिनमाश्रित्येति ॥ (सा० १३७-३८) अर्थ- गुणस्थानोस काळ नियम- मिध्यात्वगुणस्थान काळधी ? अनादि-सांत, रसादि - सान्त, अने अनादि अनंत छे, परन्तु सादि अनंत संभवतु नथी. ॥ ८८ ॥ यो प्रथम कोण वखत सम्यक्त्व नहिं पामेला भव्य जीवोने पहेलो काळ (अनादिसान्त) होय है, अने सम्यक्त्व पामीने पुनः मिध्यात्वे गयेला जीवोने बीजो काळ ( सादि सान्त ) होय के, ॥ ८९ ॥ अने सदाकाळ मिध्यात्वमां वर्तवाचाळा अभव्यजीवोने त्रीजो काळ ( अनादि अनन्त ) छे, अने मिध्यात्वनी सादि थपाबाद अनंतकाळनो असंभव होवाथी चोथो काळ सादि अनन्त ) असंभवित छे १ सम्यक्त्व पाम्या पछी पण सम्यकृत्य पतित यह मिथ्यात्वे जाय तो उत्कृष्ट रहे तो ते मिध्यात्व किंचिम्म्यून अधपुर परावतं प्रमाण अनन्तकाळ सुधी रछे, पण छेडा रहित अनन्तकाळ ग्रहण करवाना है. जेथी असंभव को छे. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३८ ॥गुणस्थानकडारे गुणस्थानानांकालनियमविचारः॥ बार ते युक्तम छ ॥ १० ॥ली सास्वादन गुणस्थान तो हेला (इथियारना वर्णन है प्रसंगे ) आवलिका प्रमाण कोलज छे, अने ४-धुं गुणस्थान साधिक ३२' सागरोपम प्रमाण के ॥ ९१ ॥ कारणके सर्वार्थसिद्धदेवपणामां ३३ सागरोपमसुधी अविरत सम्यवत्व धारण करीने त्यांयी अर्हि मायेलो पण ते जीव || ९२ ॥ जे कारणथी ज्यांसधी जी विरतिमुणस्थान पाम्यो नथी स्यांसुधी ते जीव घो\ गुणस्थामज अंगीकार करीने रहे छे ।।२३१३-में अने ५-मुंए वे गुणस्थान कंडक न्यून नव वर्ष न्यून पृचत्रोह वर्षप्रमाण कहेला छे ॥ ९४ ॥ छेल्लं गुणस्थान ङ प्र ण न म ए पांच अक्षरोने अति विलंब रहित अने अति शिघ्रता रहिन उन्नार करे तेटला काळपमाणर्नु छ । ९५ ॥ अने शेष आठे गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त प्रमाणना छे. अने केटलाक आचार्य कहे छे के-छई ने सान, चे गुणस्थान कइकन्यून पूर्वप्रोड वर्षप्रमाण छे ॥ ९६ ॥ श्री भगवतीमत्रमा का छे के-" हे भगवन् ? प्रमत्त संयममा वर्तता प्रभत्तमुनिनो सर्वे मळीने प्रमानकाळ केटलो होय ? उत्तर-हमंडित ? (१० मा गणधर) एक जीवनी अपेक्षाए जघन्यथो १ समय अने उत्कृष्टयों कइफन्यून पूर्वक्रोरवर्ष, अने अनेक जीवनी अ-* पेक्षाए सर्वकाळ." ए मूळ सूत्रमी टीका आ प्रमाणे २-"जघन्य १ समय ते केवी रीते कहेवाय १ ते. कहीए छीए के प्रमत्तसंयतपणुं (६-९ गुणस्थान ) अंगीकार कर्याना समरथी अनन्तर समयेज मरण पामवायी (जघन्य १ समय .) इचे देशोन पूर्वकोड वर्ष केवी रीते ? ते कडेवाय छे के–ममत्त अने अप्रमत्त ए वेमार्नु प्रत्येक गुणस्थान निश्चये अन्त महत प्रमाणर्नु छे, अंने परस्पर परावृत्ति (अदल बदल ) थवाथी उत्कृष्टपणे कंइक न्यून पूर्वक्रोड वर्ष पर्यन्तनां छे. एमां अभभत्तना अन्तर्मुहूर्तनी अपेक्षाए ममत्तपणानां अन्तर्मुहर्त मोटो कल्पाय छे. अने ए प्रमाणे अन्तमहत प्रमाण प्रमतकानां सर्व अन्तर्मुहतों मेळवता (मसन) देशीन पूर्वकोड वर्षप्रमाण काळमान याय छे. बकी बीजाआचार्यों काहे छ के- आठ वर्ष न्यून पूर्व कोडवर्ष सुधी (सततपणे) उत्कृष्ट प्रमत्तसंयतपणुं होय छे, अने प प्रमाणे अममत्त भू १ सामान्यतः सम्यक्त्व ५६ सागर बा १३२ सागर अधिककाल प्रमाणर्नु छ, पण चतुथ गुण स्थान पणुप्तो साधिक ३३ सागर बाद अवश्य पलटायचं. २ अप्रमत्सनां देशोभपूर्वकोटी सुधीनां नानां नानां सर्व अन्तर्मुहूतने पकटा करतां पण मात्र । अन्तर्मुर्त मेटलोज अप्रमत्त पणानो संघ कठिन काळ याय कारणकै अप्रमत्त पणान अन्तर्मुहर्त परखं वधु नानुज छे. अने ते बाद करता घरकीनो सर्प काल प्रयतनो छ जेथी देशोमपूधकौटि वर्ष पमतमो काळ थाय. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] ॥ श्रीलोकमा तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५३९) नी व्याख्या पण जाणवी परन्तु विशेष ए ले के जघन्य अन्तर्मुहूर्त एटले निवये अप्रमत्तकामां वर्तता जीवने अन्तर्मुहूर्तनी अंदर मरण न होय. बळी चूर्णकारने मते तो ममत्तसंयत शिवाय सर्वे सर्वविरत जीवो (सातमाथी चौदमा गुणस्थान सुधीना पण ) प्रमादनो अभाव होवाथी अप्रमत्त कहेवाय, हवे ते जीव उपशमणिने अंगीकार करतो अन्तर्मुहुर्तनी अंदर काळ करे तो जघन्यकाळ (अन्तर्मुहतपणानी) पामे. अने देशोनक्रोड पूर्व तो केवळीने आश्रयी जाणवो. यनिर्दिष्टं जिनाuttरेकजीवव्यपेक्षया । त्यक्त्वा पुनः प्रा तिरूपमथैषामुच्यतेऽन्तरम् ॥ ९७ ॥ जघन्यं सासादनस्य, पल्यासंख्यांशसंमितम् । शेषेषु च दशानां स्यादन्तर्मुहूर्तमन्तरम् ॥ ९७ ॥ मिथ्यात्वस्य तदुत्कृष्टं द्विःषट्षष्टिः पयोधयः । साधि काः कथितास्तत्र, श्रूयतां भावना वियम् ||१८|| अनुभूय स्थितिं कश्चित् सम्यक्त्वस्य गरीयसीम् । मिश्रं ततोऽन्तर्मुहूर्तमनुभूय ततः पुनः ॥ ९९ ॥ षट्षष्ट्यम्भोनिधिमितां, सम्यक्त्वस्य गुरुस्थितिम् । समाप्य कोऽपि मिथ्यात्वं, जातु याति तदा हि तत् ।। १३०० ।। देशोनपुद्गलपरावर्त्तार्द्धप्रमितं मतम् । द्वितीयादीनां दशानां गुणानां ज्येष्ठमन्तरम् ॥ १ ॥ क्षपकस्यान्तरं जातु न स्यात्रिष्वष्टमादिषु । सकृत्प्राप्तेः क्षीणमोहादित्रयेऽध्यन्तरं न हि ॥ २ ॥ इति गुणाः ३० ॥ > अर्थ- गुणस्थानोनो अनसरकाळ हवे श्रीजिनेश्वरोए एक जीवनी अपेक्षाए ते गुणस्थाननो त्याग करीने पुनः प्राप्त करे ते रूप जे अन्तर दशवितुं के ते काय के ॥९७॥ व्यां सास्वादननुं जघन्य अन्तर पेल्योपमना असंख्यातमा भागनुं, अने शेष १ सास्वादन गुणस्याने त्रिपुंजनी सत्ता अवश्ये होय छे अने ए सत्ता उकेल्या शिवाय पुनः सास्वादन भाष पामे नहि, अने ते सत्ता मिथ्यात्वे ज फेलतां अघन्यथी पण पल्योपमनो असंख्यातम भाग लागे माटे सास्वादमनुं जघन्य अंतर ते कथं छे, बळी कोइक वखत अन्तर्मुहूर्तां पण सास्वादन पामे पण ते अति अल्प होवाथी विवक्षित नयी इत्यादि विस्तार पांचमा कभैन्यनी वृति आदियी जाणो. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ (५४०), ॥गुणस्थानानामन्तरस्वरूपनिरूपणम् ॥ (द्वार १० गुणस्थानोर्नु अन्तर अन्तर्मुहर्त के ॥९७|| मिथ्यात्वर्नु उस्कृष्ट अन्तर बे छासठ (१३२) सामरोपम साधिक कहेल छे, तेनी विचारणा आ प्रमाणे के, ते सांभको ॥९८॥ कोइक जीव सम्यकत्वनी उत्कृष्टस्थिति (साधिक ६६ सागरोपम) अनुभषीने त्यारवाद अन्तर्मुहत मिश्रने अनुभवीने वली सम्यक्त्वनी ६६ सागर प्रमाण उल्लष्टस्थिति संपूर्ण करीने कादाय कोइक जीव मिथ्यात्वे जाय तो ते उत्कृष्ट अन्तर (१३२ सागरोपम) थाय० ॥९९-१३००॥ सास्वादनादि १० गुणस्थानोर्नु उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गलपरावर्त प्रमाण कहेलं छै ॥ १ ॥ बळी झपकना अष्टमादि त्रण (८-९-१०) गुणस्थानोमा (अप्रतिपातिपणुं होवायो) अन्तर कदीपण होतुं नथी, तेमज एकवार प्राप्ति होवाथी क्षीणमोहादि प्रण (१२-१३-१४) गुणस्थानोमां पण अन्तर नथी. ॥शा ए प्रमाणे गुणस्थानद्वार कg. ॥ इति गुणस्थान द्वारम् ॥ ॥ गुणस्थान परिशिष्टो. ॥ .-.-.--:..NLINEMA पुरुषने श्रेणिमा उपशमाती अने क्षय पामती प्रकृतिओनो तफावत. उपशमश्रेणिमा खीने नपुंसकने १ नपुंसकवेद १ नपुंसकवेद १ स्त्रीवेद २ स्त्रीवेद २ स्त्रीवेद २ नपुंसकवेद ३ हास्यादि६ ३ हास्यादि ६ ३ हास्यादि ६ ४ पुरुषवेद ४ पुरुषवेद ४ पुरुषवेद क्षपश्रेणिमा. पुरुषने खोने नपुंसकने १ नपुंसकवेद १ नपुंसकवेद १ स्त्रीवेद २ स्त्रीवेद २ पुरुषवेद २ पुरुषवेद ३ हास्यादि ६ ३ हास्यादि ३ हास्यादि ६ ४ पुरुपद ४ स्त्रीवेद ४ नपुंसफवेद १ बहुलताप आक्रम छ, प्रधान्तरमा क्रमभेद पण देखाय छे. ते अंणिओना टिप्पणमा उपर बताव्यो छ. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ३०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३८) (५४१) आ चौदे गुणस्थानोमा सत्पदप्ररूपणता विगेरे द्वारोनी श्रीपंचसंग्रहारिग्रन्थोमा पूर्वाभावि भरूपया पताची छे तेज जिज्ञामु भन्यजीवोना उपकारार्थे संक्षेपधी बतावीए छीये. , सत्पदप्ररूपणा द्वार-पहल मिथ्यादृष्टि १, चोथु अविरतसम्यग्दृष्टि २, पांची देशविरत ३, छटुं प्रमत्त ४, सातर्मु अप्रमत्त ५, अने तेरसे सयोगिकेबलि ६, ए छ गुणस्थानको सदाकाल विद्यमान होपछे, ते शिवायना बीजुं सास्वादनसम्यग्दृष्टि १, त्रीजु मिश्रदृष्टि २, आठमु अपूर्वकरण ३, नवमु अनिवृत्तिबादरसंपराय ४, दशम सक्ष्मसंपराय ५, अगीआर उपशान्तमोडवीतरागछयस्थ ५, बारसुंक्षीणमोहवीतरागमस्थ ७, चौदमु अयोगिकेवल ८, ए आठ गुणस्थानो पैंकी श्रेणिोना विरहकालमा आठमु, नवमु, दशम, अगीआरम अने बारम्, ए पांच गुणस्थान,सिद्धिना छमासना विरहकालमां चौदमु तथा सम्यक्त्वमातिनो विरहकाल होवाथी बीजं अने मिश्रना बिरहकालमा त्रीजुं ए आठ गुणस्थानोनो कदाचित विरह पण होय एटले के ए गुणस्थानफोये वर्तता जीवो न पण लाभे, कोइ कालविशेषे कोइएक गुणस्थानके एक पण जीव होय, कोइ काल विशेषे अनेक जीवो पण होय, कोइ काल विशेष आट गुणस्थानकोपको ये गुणस्थानोमा क्रमोस्क्रमे एकानेक जीवो विकल्पथी होय,ए प्रमाणे त्रणा चारमा विगेरे भंगकल्पनाओ थाय छे. जे विस्तारथी पूर्वमहर्षिोये बतावीछे ते ते ग्रन्थोथी जोह लेवी. २ द्रव्यप्रमाणद्वार-प्रथम (१-२-३-४) सास्वादनसम्यग्दृष्टि वीजें मिश्रदृष्टि, त्रीर्जु अविरतसम्यग्रदृष्टि अने चोथु देशविरत ए चार गुणस्थानतिजीवो प्रत्येके उत्कृष्ट काले असंख्याता होय, तेमां (१-२) सास्वादन अने मिथकाळा अध्रुव होवाथो कोइ काले न पण होय अने होय तो जघन्यथी एक अथवा वे होय अने उत्कर्षथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागवति आकाशप्रदेशराशि तुल्यसंख्या परिमाण होयळे, कारणके-सास्वादनगुणस्थान कर्मग्रन्थना अभियाये केटलाफ चादर अपर्याप्त १ पृथ्वीकाय, २ अपकाय अने ३ प्रत्येक वनस्पतिकाय ए त्रण मकारना एकेन्द्रिय जीवोमां ( सिद्धान्तना अभिमाये एकेन्द्रियोमा सास्वादन मान्यु नथी) तथा अपर्याप्त प्रण विकलेन्द्रियोमां, अपर्याप्त संमूर्छिम तिर्यंचपंचेन्द्रियोमां, पर्याप्त तथा अपर्याप्त गर्भजतिर्यचोमां, पर्याप्त तथा अपर्याप्त लोकान्तिक अने अनुत्तर शिवायना देवोमा पर्याप्त तथा अपर्याप्त गर्भजमनुष्योमां अने पर्याप्तनारकीओमा वर्ततं होवाथी ते गुणस्थानचर्ति जीवो असंख्याता छ अने मिश्रष्टि Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४२) ॥ गुणस्थानबारे गुणस्थानेषु सत्पदमरूपणतादिद्वारविचारः ।। (हार गुणस्थान पर्याप्ता जीवानेज होय तमां पण एकन्द्रिप विफलन्द्रिय अने संमूर्छिमपं. + चेन्द्रियमा होतुं नथी तो पण लोकान्तिक बने अनुत्तर शिवायना पर्याप्त देवोमां पर्याप्त नारकिओमां अने पर्याप्त गर्भजमनुष्योमा तथा पर्याप्त गर्भजतिर्यचोमा वर्तन होवाथी ते गुणस्थानवर्तिजीवी पण असंख्याता छे.(३)अविरतसम्पग्दष्टिगुणस्थानक पर्याप्त अपर्याप्त गर्भजमनुष्यो,पर्याप्त अपर्याप्त गर्भजतियचो,पर्याप्त अपर्याप्त देवताओ अने सातमी नारकीना पर्याप्त नारकीओ तथा बाकीना सर्व पर्याप्त अपर्याप्न नारकीओ ए सर्वमा वर्ततुं होवाथी ते गुणस्थानार्तिजीवो असंख्याना अने(४) देशविरसगुणस्थानक पण गर्भज पर्याप्ततिर्यंचोमां तथा गर्भज पर्याप्तकर्मभूमिजमनुष्योमां वर्ततुं होवाथी तिर्यंचोनी अपेक्षाए ते गुणस्थानवतिजीत्रो पण अ. संख्याता छ, अविरतसम्यग्दृष्टि अने देशविरत बेउ ध्रुव होवाथी ते चे गुणस्थानवर्निजीवों सदाकाल विद्यमान होय छे मात्र कोइवखते जयन्यपदे होय अने कोइ कालविशेषे उत्कृष्टपदे पण होय, तेमां जयन्यपदे पण ते घेउ प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमाभागमा रहेला आकाशमदेशराश्रितुल्य संख्याये होय अने उत्कृष्टपदे पण तेज क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागमा रहेला आकाशप्रदेश राशितुल्यसख्याये होय विशेष पटलो छे के असंख्याताना असंग्व्याता भेदो होवाथी जघन्यकरता उत्कृष्ठपदवति जीवो असंख्यातगुणा छ,वळी ते घेउमां परस्पर विचार करता मनुष्य अने तिर्यंचगतिना देशविरतजीवो करता चारे गतिना अविरतसम्यग्दृष्टिजीवो जघन्यपदे वधारे होय अने उत्कृष्टपदे पण वधारे होय. (५) मिथ्यादृष्टिजीवो अनन्त लोकाफाश प्रदेशराशितुल्य संख्याप्रमाण अनन्ता होयछे, अनन्तानन्तजीवोथी गहन भरेली सूक्ष्म बादर निमोदो मिथ्यात्वभावमा छे. वादरमूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त तेउकाय तथा वायुकापजीवो पण मिथ्यात्वमांज छे, पृथ्वी अपकाय अने मत्येक वनस्पतिकायमां बादर अपर्याप्तावस्थामा अल्पकाल थोडाक जीवोमां सम्यक्त्वांश होय छे ते वाद करता बाकीना सर्व मूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त पृश्वीकाय अप्काय अने वनस्पत्तिकाय सर्व जीवो मिथ्यात्वमा छ, केटलाक अपर्याप्तविकलेन्द्रियो शिवाय सर्वपर्याप्त अपर्याप्त विकलेन्द्रियो, केरलाक अ. पर्याप्त समूर्छिम तिर्यंच शिवाय सर्व पर्याप्त अपर्याप्त समूर्छिमपंचेन्द्रियो अने केटलाफ पर्याप्त तथा अपर्याप्त देवता नारकी तियेच अने मनुष्यरूपसंज्ञिपंचेन्द्रियजीवो शिवायना सर्व संजिपंचेन्द्रियो मिथ्यात्वभावमां छे,आ सर्वमा पण मूक्ष्मनिगोद(सूक्ष्मसाधारणवनस्पति)वनि जीवो अनन्तलोकाकाशपदेशराशि तुल्य होबाथी ते अपेक्षाये Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #] ॥श्री लोकमकाशे तृतीया सर्गः (सा. २३८) (५४३) मिथ्याटिमोर्नु द्रम्पप्रमाण जाणषु, पाकीना जीरो तो आटामां लूणनी जेम. सर्व * गा करीये तो पण असंख्यातान छे. , (६-७) प्रमत्तसंयतगुणस्थान अने अप्रमत्तसंयतगुणस्थान ए वे गुणस्यानवति जीवो संख्याता ज होयछे, कारणके ने गुणस्थानको मात्र गर्भज पर्याप्तमनुष्यगतिना जीवोने ज होय छे, तेमां पण कर्मभूमिना विशिष्ट अध्यवसायविभु. दियुक्त मनुष्योने होय; पांच भरत. पांच ऐरवन अने पांच महाविदेव क्षेत्र ए पैदर क्षेत्रो [ कर्मभूमि मां मली जघन्यथी अप्रमत्तसंयत कोटिशतसंख्याये अने उत्कृष्टयी पण कोटिशनसंख्याये तथा प्रमत्तसंपत जघन्यथी कोटिसहसपृयक्त अने उत्कृष्टथी पण कोटिसहपृथक्त्व संपाये जाणवा, जघन्य करता उत्कृष्टमां अधिक समजवा वेथी नव सुधीनी संख्याने सिद्धान्तपरिभाषाये पृथक्त्व कहेवाय छे. द्विमभृतिरानवभ्यः पृथक्त्वम् । इयं सामयिकी संज्ञा, जयन्पकाले एटले वीशं तीर्थंकरभगवन्तो विचरना होय त्यारे वे कोडसहस्र मुनियों अने ये कोड केवलिभगवंतो होय अने उस्कृष्टकाले ज्यारे १७० एकसोसीत्तर नीयकरभगवतो विच| रता होय त्यारे नवकोटिसहस्र मुनिभो अने नवक्रोड केवलिभगवंतो विचरता होय छे. । उपशामक (उपशमश्रेणिमत] जीवोनी अपेक्षाये (८-९-१०-११)आठमां अपूर्यकरणवाळा,नवमा अनिवृत्तिषादरसंपरायवाळा, दशमा मूक्ष्मसंपराय| बाळा अन अगीयारमा उपशान्त मोहवीतराग छप्रस्थगुणस्थानबाळा जीवो अनुव होवाथी कोइ फालविशेषे न पण होय अने होप तो मत्येकमां जघन्यथी एक वे | अण पण, होय भने उत्कृष्थी प्रवेशनी अपेक्षाये चोपन होय, अर्थात् तेटला जीवो उपशमश्रेणिमा प्रवेशकरता पमाय,अने उपशमश्रेणिना संपूर्णकालनी अपेक्षा• ये प्रतिपद्यमान तथा मतिपश्नमीवोनो विवक्षाथी संख्याता होय. एटलेक -उपशम! श्रेणिना असंख्यातसमयात्मक अन्तर्मुहतकाळमां जुदा जुदा प्रवेशकरता सर्वनी पण संख्या मेळवता संख्याताज जीवोथाय. शंका-अन्तर्मुहर्तममाण उपशमश्रेणिना प्रत्ये, फगुणस्थानना कालमां असंख्याता समयो होय छे. तो जो दरेकसमये एकएक जीव । प्रवेश करे तोपण संपूर्णश्रेणिकालने उद्देशी असंख्यातसमयो होदाथो असंख्याता - जीवो पण ते ते मुणस्थानोमां पमावा जोइये. तोपछी नेत्रण यावत् उस्कृष्टथी चो, पन प्रवेश कर्ये छते तो असंख्याता जीवो थाय. उत्तर-है शिष्य ? आ तारी १ को क स्थळे जघन्यथी १० तीर्थकर होवान पण यताये छे, ते अपेक्षाये साधु तथा फेवलिनी संख्यामां पण मारतम्य जाणवु. १ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४४) ॥ गुणस्थानबार गुणस्थानेषु द्रव्यप्रमाणविचारः ॥ द्वार कल्पना साची तो ठरत के जो श्रेणिना सर्व समयोमा जीवोनो प्रवेश थवानो होता पण ते प्रमाणे तो पनत नथी, परन्तु कोइकोइ समयोमाज प्रवेश पायछ ! आ पण शाथी जाणवू ? तेम शिप्यना मनमां कदाच शंका थाय तो तेनो जवाब नीचे प्रमाणे-अहीं उपशमणि अंगीकारकरनार पर्याप्त गर्भजमनुष्योज होयछे अने तेमां पण चारित्रवत मनुष्योज णि अंगीकार करे छे.बीजा कोड़ होता नयो अने चारित्रधारीजीवो उत्कृष्टयी पण नवहजार कोडसंख्याये होयछे.ते पण सर्वे श्रेणिअंगीकार करता नथी, परन्तु विशिष्ट विशुद्धिवंत जीवोज श्रेणि करे छे, तेथी ए निर्णीत थाय ले के-उपशमश्रेणिनासर्वसमयोमांजीव प्रवेश होतो नथी परन्तु अमुकन समयोमा प्रवेश पायछे, तेमापण अमुफफाले(अमुकसमये) पंदरे पण कमभूमिश्रोमांथइने उन्कर्षथी चोपनज जीवो प्रथेशकरता होय अधिक न होय तेथी ए निर्णयज छे के. अणिना संपूर्णकालमा थइने संख्यानाज होयछे, नेमां पण पूर्वाचार्योना वचनयो संख्याता ते सेंकडो संख्यामां लेचा हजारो रूप संख्याता लेवा नहि, भगम सालियो गीगा (८-९-१० गुणस्थानति) क्षोणमोही (१२ मा गुणस्थानति) अयोगि (१४ मा गुणस्थानवति) एटले के (८-९-१० -१२-१४) आ पांचे गुणस्थानवर्ति जीवो पण अध्रुव होनाथी कोइकालविशेष न पण होय कदाचित्कालविशेषे होयतो प्रत्येके जघन्यथो एक वे होय अने उत्कर्पयो एक सायमां मयेशनी अपेक्षाये १०८ पण संभवे अर्थात् उत्कर्षयी एफसोआठ जोवो सपक ( ८-९-१०) भावमां, सीणमोह (१२ मा) मां अने अयोगिकेवलि (१४ मा) गुणस्थानमा एफसमयमा प्रवेश करेछे. तथा अन्नहर्तममाण क्षपफश्रेणिना संपूर्णकालमां पंदरे कर्ममृमिना सर्वक्षेत्रमा क्षपकश्रेणिमा प्रवेशकरता भिन्न भिन्न जीवोनी सर्वेनी गणत्री करीये तोपण उत्कर्षथी शतपृथक्त्वसंख्याये होय छे. अधिक होय नहि,आस्थले पण शंका समाधान उपशमश्रेणिगतजीवोनो माफक जाणवू, अयोगिकेवलि भगवन्तो पण उत्कर्षयी शतपृथक्स्व जाणवा. ___ सयोगिकेवलि (१३ मा गुणस्थानति) जीवो सदा विधमानहोवाथी हमेशां कोटिपृथक्त्व संख्याये होयछे, जघन्यपदे पण कोटिपृयक्त्व प्रमाण होयछे, अने उत्कृष्टपदे पण फोटिपृथक्त्वममाण होयछे, मात्र जयन्यपद करतां उत्कृष्टपदा कोटिपृथक्त्व मोटाप्रमाणनु ले, एटले वीश तीर्थकरभगवंतना जघन्पकाले क्रोड केवलिभगवंतो विचरता लाभे अने उत्कृष्टकाले १७० तीर्थकरभगवतो विच. रता होय त्यारे नवक्रोड केलिभगवंतो विचरता लाभे, ही सिद्धान्तपरिभाषाये Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३०मुं] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५४५) बेथी नव संख्यासुधीनुं नाम पृथक्त्व कवायछे, जेथी वेकोड ए जघन्यकोटिपृथक्त्व अने नवकोड ए उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व कहेवाय. आ प्रमाणे द्रव्यममाणद्वार जाणवु. २. ३ क्षेत्रप्रमाणबार-(२ थी १२-१४) पहेलं मिथ्यादृष्टिगुणस्थान अने तेर । सयोगिकेवलिगुणस्थान ६ वे मुणस्थान वीने पाकामा वीजा सास्वादन सम्यक्त्वगुणस्थानथीवारमा क्षीणमोह वीतरागछमस्थगुणस्थानसुधीना अगीआर गुणस्थानक तथा चोदमु अयोगिकेवलिगुणस्थान ए वार गुणस्थानकना जीवो प्रत्येक प्रत्येके अने सर्वे पण लोकना असंख्यातमा भागमा वर्त छे. कारण सास्वादनशिवायना बाकीना मिश्रदृष्टि विगैरे अगीआर गुणस्थानको संक्षिपञ्चेन्द्रिय मांज होय. तेमां पण पर्याप्त चारे गतिना संक्षिपञ्चेन्द्रियमा मिश्रदृष्टि गुणस्थान होय, अने अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान पर्याप्त अपर्याप्त चारेगतिना संक्षिपञ्चेन्द्रियमा होय छे, देशविरतगुणस्थान पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रिय लियच अने मनुष्यमा होय. अने छट्ठा प्रमनसंयतयी बाकीना गुणस्थान पर्याप्त संक्षिपञ्चेन्द्रियमनुष्यमांज होय अने ने जीवो त्रसनाइयन्तर्गत घणाज स्वल्प स्वस्थानादि क्षेत्रमा वर्तता होवाथी ते अगीआर गुणस्थानकना जीवो पैकी प्रत्येक प्रत्येक गुणस्थानवाचार्नु क्षेत्र लोकासंख्येयभागवर्तिज छ. अने जो के सास्वादनगुणस्थानवाळा केटलाक स्वल्पजीवो करण अपर्याप्त वादर एकेन्द्रिय (पृथ्वीकाय.अपकाय,अने प्रत्येकवनस्पनिकाय)मा तथा करण अपर्याप्तविकलेन्द्रिय (हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने चतुरिन्द्रिय) मां होय छ तथा करण अपर्याप्त अमंशि ( संमूर्छिम ) पंचेन्द्रियतियचोमां पण होय तथा केटलाक. करणअपर्याप्त तथा फरणपर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रियमा यथायोग्य चार गनिमां होयछे नो पण ते सास्वादनवर्ति जीवो स्वल्प होवाथी तथा ने जीवोनु क्षेत्र घणु अल्प होवाथी सास्वादनवाला जीवो पण लोकना असंख्यानमा भागमा वर्ते,अन ते यारे गुणस्थानयति सर्वजीवोनु समुदितक्षेत्र लइए तोपण लोकनो असंख्यातमो भागज होय ! [१] पहेला मिध्यादृष्टिगुणस्थानवति जीवो सर्व चौद राजलोक प्रमाण सम्पूर्णक्षेत्रमा व्याप्त होय छे, जो के अन्यगुणस्थाननि जीवोनु क्षेत्र पण तेमा आवी जाय छे तो पण ने अन्यगुणस्थानवनि जीवावगाहक्षेत्रमा पण मिध्यान्वगुणस्थानवति (सूक्ष्म एकेन्द्रिय) जीवो रहेला होवाथी मिथ्यात्वमुणस्थानवतिजीवोन सर्व (चौदराज) लोकक्षेत्र समजवू. (१३) तेरमासयोगिकेवलिगुणस्थानवर्ति जीवोपण केलिसमुद्घातना चौथा समयनी अपेक्षाये सकललोकव्यापि होयचे,ते शिवायना काळनो अपेक्षाये लोक Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४६) ॥ गुणस्थानकवारे गुणस्थानेषु क्षेत्रस्पर्शनाद्वारविचारः ॥ बार ना एक असङ्ख्यातमा भागमा पर्ते, मात्र केवलिसमुद्घातना त्रीजा पांचमा समये * अनेक असंख्याता भागो लेवा, एटले के समुद्घातना मथमसमये दंडाकार करे त्यारे असंख्यातमा भागमां बीजे समये कपाटाकार करे त्यारे पण असंख्यातमा भागमां अने त्रीने समये मन्यानाकार करे त्यारे अनेक असंळ्याता भागोमां अने चोथे समये लोकपूरण २८ले संपूर्णलोकमां व्यात थाय पछी पांचमाथी संहरणसमयोमा पण तेज प्रमाणे व्युत्क्रम जाणवो, आ प्रमाणे क्षेत्रद्वार विचार जाणवो ॥३॥ ४ स्पर्शनाबार-एफजीवापेक्षया अने नानाजीवापेक्षया एम स्पर्शनाचे मकारनी गणायछे, क्षेत्रद्वारमा जेटलु अवगाढक्षेत्र होय तेटलुंज लेवायने अने स्पर्शना अवगादक्षेत्रथी अधिक होयछे, एकजीवनी अपेक्षाये सयोगिकेवलिभगवन्तोने केवलिसमदातनी अपेक्षाये चतुर्थसमये संपूर्ण चौद राजलोक जे अवगाहक्षेत्र के तेज तेमनु स्पर्शनाक्षेत्र पण जाणवू. त्या स्पर्शना अधिक होइ शकती नयी कारण अलोकक्षेत्रमा धर्मास्तिकापादिनो अभाव छ, इवे नाना (अनेक) जीवोनी अपेक्षाये (१) मिथ्यात्व गुणस्थानवसिजीवो तथा(१३)सयोगिकेवलिगुणस्थानयर्ति जीवो चतुर्दशरज्जु (सर्वलोक)स्पर्शनावाला होय. मिथ्याष्टिजीवोमां मूक्ष्म एकेन्द्रियजीवो सर्वव्यापक होत्राथी सर्वलोकस्पर्शना जाणवी, अने सयोगिकेलि जीवो केवलिसमुद्घातना चोथे समये सर्व लोकव्यापि होवाथी सर्वलोकस्पर्शना जाणवी. (३-४)मिश्रष्टिगुणस्थानति जीवो अने अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवर्तिजीवो प्रत्येके आठ आठ राजलोकनी स्पर्मनाकरे ते आप्रमाणे-आनत (नवी कल्प) विगेरेना देवो अल्प स्नेहादिभाववाळा होवायो स्नेह विगैरे प्रयोजने करीने पण नरकमा जता नथी, जेथी सहस्रार ( आठमु फल्प ) सुधीना देवो पूवंभवना प्रेमवाना नारकीना स्नेहवडे तेनी वेदना शमाववा अगर पूर्वजन्मना वैरीनारफीने वेदनानी उदीरणा करवामाटे त्रीजी नरकपृथ्वी मुधी जायछे. तेमज भच्युत (बारसुं कल्प) कल्पना देवताओ पूर्वजन्मना अगर आ जन्मना स्नेहथी बीजा देवोने अच्युतदेवलोकमां लइ जायछे तेथी मिश्रदृष्टिवाळाओनी तथा अविरतसम्यग्दृष्टिवाळाओनी प्रत्येके आठ.आठ राजलोकनी स्पर्शना घटेछे, अहीं भावना आप्रमाणे जाणवी. सम्यमिध्यादृष्टिगुणस्थानबाळा भवनपतिनिकाय आदिना कोइदेवने पृ नो मित्र अच्युतदेवलोकवासि देव पूर्वना स्नेहथी अच्युतदेवलोके लइ जाय तो अ. च्युतदेवलोकसुधीमा छ अच्चुए ए वचनथी' छ रानलोक यता होवाथी ते मिश्रष्टहिवाळादेवने छराजनी स्पर्शना थायछे अने सम्यगमिथ्याष्टिसासारदेवलोकवासी Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (०.४७) कोइ देव पूर्वना स्नेहवाळा त्रीजीनरकना नारकीनी वेदना शमावाने अगर पूर्वना वैरी त्रीजीनरकना नारकीनी वेदना वधारवाने वालुकाप्रभा नामनी त्रीजी नरके जाय एटले भवन पति सुधीनी स्पर्शना पर्ने लगजनी अंदर गणा गहले, जेथी तेनीनी चेना वालुकाप्रभासुधी वे राजलोक होवाथी ते बेराजनी स्पर्शना वधारे गणतां पूर्वनी छ अने आबे मलीने अनेक जीवोनो अपेक्षाए आवराजनी स्पर्शना मिश्रदृष्टिगुणस्थानवाळानी जाणवी - अथवा त्रीजीते विचारतां पण अठराजनी स्पर्शना घटेछे, मिश्रदृष्टिवाळी सहसावलोकवासी कोइ देव पूर्वोक्तकारणवशात् त्रीजी पृथ्वीये जाय तो सातराजनी स्पर्शना थायले अने तेज मिश्रदृष्टिवाळा सहस्रार कल्पवासी देवने अच्युतकपवासी देव स्नेह अच्युतदेवलोके लड़जाय त्यारे ते एकराज बधे एटले आठ राज स्पर्शना घटेछे, एजप्रमाणे अविरतसभ्यओिनी पण आठ राजनी स्पर्शना विचारी, अविरतसम्यदृष्टिजीव सभ्यवत्वसहित परभवर्मा जता के परभवधी आवता अनुत्तर विमानसुधीनी उत्कृष्ट सात राजनीज स्पर्शना पायेछे तेथी अधिक स्पर्शना होती नधी माटे उपर काममाणेन आठराजनी स्पर्शना जाणवी. कोइपण वीजा प्रकारे घटी सकती थी. बीजा आचार्यों अविस्तसम्यग्दृष्टिओने उत्कर्षयी नवराजनी स्थर्शना पण थाय तेम बतावे के, तेनो विचार आ प्रमाणे- क्षायिकसम्यग्दृष्टि त्रीजी नरकमां पण जायछे एटलेके सम्यक्त्वसहित अनुत्तर विमानमां जना अगर त्यांथी मनुष्यभवमां आतां सातराजनी स्पर्शना थाय अने त्रीजी नरकमां सम्यक्त्वसहित जता अगर त्यांथी आवता बे राजनी स्पर्शना थाथ एममाणे नवराजनी स्पर्शना पण घटीशकेछे, वली श्री भगवती सूत्रना अभिप्रायप्रमाणे सम्यक्त्वसहित छठी नारकीसुधी पण जइश के छे तेथी अविरतसम्यन्दृष्टिवालाजीवने बार राजलोकनी स्पर्शना पण संभये छे. ते आप्रमाणे - सम्यक्त्रसहित अनुत्तर विमानमां जता अगर त्यांथी मनुष्यभवमां आवता सातराजनी स्पर्शना, तथा सम्यवत्वमाप्त कर्या पहेला बांधयुचे नरकायु जेणे तेव मनुष्य तिचपैकीनो कोड़ पण अविरतसम्यग्दृष्टि जोव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसहित सिद्धान्तकारना अभिप्राये तमः प्रभानामनी छुट्टी पृथ्वीमां पण नारकीपणे उत्पन्नधाय छे अगर छट्टो नारकीमांथी क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसहित मनुष्यगतियां उत्पन्नथाय छे एटले अधो छट्टी नरकमा जता अगर त्यांथी अहीं मनुष्यमां आवता पांचराजनी स्पर्शना थाय तेथी अविरतसम्यग्दृष्टिजीवने बारराज स्पर्शना पण घटीश केले, वली अच्युतेन्द्र थयेल सीतानो जीव चोथी कमभाकरकपृथ्वीमां नारकपणे उत्पन्न थयेल Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - (५४८) ॥ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानेषु स्पर्शनाखारविचारः॥ [द्वार लक्ष्मणना जीवनी वेदना शमाववा गया हता तेमपण बघनछे तो ते अभिप्राये पूर्व का बतावेन अनुत्तर विमानमा जता आवतानी अपेक्षाये सातराजस्पर्शना भने चोथी नरकसुधीनी ऋणराजाना मली इला राजपना धिरे विशेषस्वरूप पण जाप, वली श्रीभगवतीजीमा सातमी पृथ्वीना नीचेना प्रदेशमधी पण वैमानिकदेवोर्नु गमन कांछे. तो ने अपेक्षाये चौद राज स्पर्शना पण संभवीशके ? इत्यादि अपेक्षाभेदे अनेक तारतम्य संभवीनके पण अनेकशास्त्रोमां त्रीजी नरकसुधीज बैमानिकदेवोनु गमन कांछे, जेथी ने अपेक्षाये आठराजनी स्पर्शना बतावी ले. (२) साम्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवालाने वारराजनी स्पर्शना होयछे, तेनी भावना नीचेप्रमाणेजाणवीछठी तमापभा पृथ्वीमा वततो कोड नारकजीव पोताना भवना अन्न्यविभागमा औपशमिफसम्यक्त्त्व पामी ने वमनो सास्वादनभावने पामे अने तेज सास्वादनअवस्थामां काल करीने अहीं तियेच अथवा मनुष्योमां उत्पभधाय तेथी लेने पांचराजनी स्पर्शना थाय, अहींथी सास्वादनभावसहित काल करी नारकमां उत्पन्नधाय नहि जेथी अहींथी जतानी स्पर्शना कही नथो, सातमी नमस्तमःमया नरकना नारकी सास्वादनलाभ पाम्या डोयतो ते त्यागकरीनेज नियचोमा उत्पन्न थाय सास्वादनसहित काल करे नहि, माटे छठीनरफना नारकी लीघाछे अने आ तिर्यग्लोकमांथी पण सास्वादनगुणस्थानमा वर्तता केटलाक तियंचों अथवा मनुप्यो काल करीने ऊर्ध्वलोकना उपरना लोकान्तनिष्कुटोरूप स. नाडौना उपरना लोकान्तप्रदेशोमा उत्पन्न थायछे नेथी तेमने सातराजनी स्पर्शना घटेले पटले नीचेनी पांचराजनी अने उपरनी सातराजनी ए उभय मली सास्वादनमुणस्थानवाळाओने वारराजनी स्पर्शना थायले. सास्वादनवाळानी नीचे गति थती नथी जेथी बारगजनी म्पर्शना फहीछे तेज घटेछे, जो नीचे गति सास्वादनचाळानी धतो होततो अधोलोकनिष्कुटादिमा पण तेओना उत्पादनो संभव थान अने तेम धातनो चौदराजनी स्पर्शना पण कहेवी जोइये. आप्रमाणे ग्रन्थान्तरोमां जणाव्यु के-के अधोलौकिकपृथ्वीकायिकादिमा सास्वादनवाळो जनो नयी, जो जतो होयतो क्यारं स्पर्शना पण लाभत. (६थी ११) उपशमश्रेण्यारुढ अपूर्वकरण आठमुं गुणस्थान, नव अनिवृत्तियादरगंपरायगुणस्थान दशर्मू मध्मसंपरायगुणस्थान,अगीयार उपशान्तमोह Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ". (30) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३८) (५४०) वीतरागछद्मस्थगुणस्थान तथा सात अप्रमत्तसंगतगुणस्थान अने छ प्रम त्तसंगत गुणस्थान एगुणस्थानवाळा जीवो सर्वार्थ सिद्ध महा विमानमां ऋजुगनिए उत्पन्न याय के जेथी तेओने सातगजनी स्पर्शना थायले, अने क्षपक श्रेण्या रूढ अपूर्वकरण विगेरे गुणस्थानना जीवोते ते गुणस्थानोमां काळ करता नथी तेम मारणान्तिकसम्मुयात पण करता नयी तेथी तेओने लोकना असंरूपातमा भागमात्रनीज स्पर्शना घटे, अधिकस्पर्शना होती नथी. अर्थात् उपशमश्रेणिनी अपेक्षाये सातराजनी स्पर्शना उपर कथा प्रमाणे घटेले. शंका - मनुष्यभवना आयुष्यनो क्षय भये अने परभव (देव)ना आयुष्यनो उदय थमेज मरण पानी परलोकगमन थायले. अने ते बखते ( देवभवायुष्यना उदयसमये ) तो अविरतपणुंज होय अपूर्वकरण विगेरे गुणस्थानो होता नथी तो शीरी अपूर्वकरणादिनी सातराजनी स्पर्शना घटी के ? उत्तरए दोपपत्ति नयी कारण अयो मरण पामी परलोकमां जता जीवनी वे प्रकारनी गति होय. १ एक कन्द्रकगति २ बीजी इलिकागति, कन्दुक (दडो) नी माफक उतीगति ते कन्दुकगति एटले के जेम कन्दुक (दहो) उछाल्यो छनो पोताना देशीवडे पिण्डित थयो छतो ( सर्वप्रदेशयुक्त ) उपर जायले, वेम कोड़क जीव पण परभargrat उदय थये परलोकमां जतो पोताना सर्व प्रदेशाने एकत्रपिंड करीने (सर्व प्रदेशोसहित) गति करेछे अने इलिका ( इयल) नी जेवी गति ने इलिकागनि काय एटले जेम इयल पुंछडाभागे पूर्वस्थानने नहि छोड़ती मुखना भागे करी आगळना स्थान सुधी पोतानुं शरीर फेलावी ते स्थाननो स्पर्शकरी न्यारवाद पुंछदानी भाग संहार करें (खेची लेछे) एज प्रमाणे कोड़क जीव पण आयुष्यना अन्तसमये केला आत्मप्रदेशोन डे पोताना पूर्वस्थलने नहि छोडतो केटलाक प्रदेशोये आगलाभवना उत्पत्ति स्थाननो स्पर्श करी परभवायुच्यना प्रथमसमये शरीरनो परित्याग करेछे. आ वे गतिओ पैकी इलिकागतिनी अपेक्षाये अपकरणादिनी सातराज स्पर्शनानी व्याघात यतो नथी. कन्दुकगतिमां परभवायुष्यनो उदयज परभवमां लड़ जतो होवाथी ते जवानासमये अविरतसम्यग्दृष्टिजीव होय. शंकाग्रन्थान्तरमा प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत तथा अपूर्वकरणादि गुणस्थानवाला जीवो लोकनो असंख्यातमो भाग स्पर्श कर्यो ले ए प्रमाणे कथन होवाथी सालगजनी स्पर्शना घटी शके ? उत्तर- " Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D (५५०) ॥ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानेषु स्पशनाद्वारविचारः॥ [बार __ कारण भशन्तरमाज प्रमत्तसंयत चिगेरे अवस्थानो त्याग करी असंयतपणु द पामे छे. नेथी प्रमत्तसंयतादि जीवो स्वस्थानस्थन लेवाय छे, भरन ऐरवत अने महा. विदेवस्वरूप जे स्वस्थान ते लोकना असंख्यातमा भागमांजळे माटे उपर कश्या प्रमाणे लोकना एक असहयातमाभागने स्पर्श करनारा भमत्तसंयतादि ग्रन्थान्तरमा यताव्या छे, तो सातराजनी स्पर्शनाना वचननी साथे केवी रीते सङ्गति थाय ? उत्तर- सूत्रशैली सापेक्ष होवाथी सातराज स्पर्शनाना मूत्रमां उपर कहेलो प्रकार विवक्ष्यो नथी अने लोकना असायातमाभागनी स्पर्शनाना मूत्रमा सानराज स्पर्शनामां कहेलो प्रकार विवक्ष्यो नथी जेथी कोइ जातनी दोपापति नयी. [५ | देशविरसगुणस्थानवाळा मनुष्यगतिना जीको ऋजुगलिए वारमा अच्युन देवलोके उत्पन्न थाय छे, अने ते अच्युतदेवलोक तिर्यग्लोकना मध्ययी छ रज्जु प्रमाण होवाथी छगजनी स्पर्शना देशविरनिवाळा मनुष्योनी जाणवी आ प्रमाणे स्पर्शनावार विचार जाणवो ॥ ४ ॥ (५) पांचमुं कालद्धार-(१) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवाळा कालथी विचारीये तो त्रण प्रकार छ, अनादि अनन्त ?, अनादिसान्त २ अने सादिमान्त ३, तेमां जेओ कोइ दिवस मुक्ति पामवाना नथी तेवा अभव्यजीव तथा तथाविध सामग्रीना अभाचे जे मुक्तिसुख पामवाना नयी तेम व्यवहारराशिमा प्रवेश करवाना पण नथी तेवा भन्यजीव ए सर्वनी अपेक्षाये अनादिअनन्त प्रकार के, जे भन्यजीवो अनादिमिथ्याष्टि छतां अवश्य आगामिकाले सम्यक्त्व पामशे. ते जीवोनी अपेक्षाये अनादिसान्त प्रकार के २, तथा जे भव्यजीवो भव्यत्वपरित्राकादि कारणो पामी सम्यक्त्व पाम्या छतां पाछा अहेव आशातना विगैरे कोइपण कारणे सम्यक्त्वथी पतित थइ मिथ्यात्व पामे छे ते अवश्य कालान्तरे सम्पाव पामशे तेथी ते जीवनी अपेक्षाये सादिसान्त प्रकार के कारण सम्यक्त्व पाम्या बाद मिथ्यात्व पाम्यो माटे मिथ्यात्वगुणस्थाननी आदि थइ, वळी कालान्तरे अब श्य मिथ्यात्व दूर करशे-सम्यक्त्व पामशे तेथी मिथ्यात्वनो अन्त थयो एटले सादिसान्त प्रकार ३, आ सादिसान्त भांगानुं मिध्यात्व जघन्ययो अन्नमुहूर्त सुधी रहे ले, कारण सम्यक्त्वथी पडल्या बाद कोइक जीव तरतज अन्तर्मुहूर्तमां सम्यक्त्व पामे छे, अने उत्कृष्ट महाआशातनावन्त जीवीनु मिथ्यात्व देशोन अर्थपुद्गलपरावर्त सुधी रहे छे, एटले उत्कृष्टथी पण अर्थपुद्गल परावर्त अवश्य सम्पक्त्व पामे छे, आ ज हेतुथी मिथ्यात्वनो सादि अनन्त भांगो नयी कारण मिश्यानी Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३८) (५५१) आदि थये अवश्य उस्कृष्टथी अर्धपुद्गलपरावते पण अन्त होय छे, आ प्रमाणे एक जीवनी अपेक्षाये मिथ्याष्टिगुणस्थान- कालमान का, अने अनेक जीवोनी अपेक्षाये नारक मनुष्य अने देवगतिमां प्रत्येकमा असङ्ख्याता मिथ्यादृष्टिजीवो सदाकाल विधमान होय छे, मात्र मनुष्यगतिमा सम्मूछिममनुष्यना विद्यमानकालमा असङ्ग्याता अने तेना विरहकालमां संख्याताजीवो जाणवा अने तिर्यंचगतिमां पृथ्व्यादि चार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय अने पञ्चेन्द्रियनी अपेक्षाये असंख्याता अने वनस्पतिनी अपेक्षाये अनन्ता जीवो मिथ्यात्वमा सदाकाल विद्यमान होय छे. अर्थात् नानाजीवापेक्षया मिथ्यात्वगुणस्थान अनादि अनन्त काल छे. (२) चीजें सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान एक जीवनी अपेक्षाये जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टयी छ आपलिका प्रमाण रहे थे. उपशमसम्यवत्व वमतो कोइक जीव एक समय सास्वादनभावमा रहो मिथ्यात्व पामे, कोइ बसमय रहे यावत कोइक छ आवलिफाफाल प्रमाण रहे छे, आ प्रमाणे एक जीवनी अपेक्षाय जघन्पथी एक समय अने उत्कृष्टयी छ आवालिफाकाल जाणवो, अने अनेक जीवोनी अपेक्षाये ज्यारे सास्वादननो विरहकाल न होय अने सतन सास्वादनमुणस्थानमा वर्तता जोरो विद्यमान होय त्यारे जघन्यथी एक जीवनी अपेक्षाये कहेलो काल (एक समय) छे तेनो तेज जाणवो,कारण उपशमसम्यक्त्वकाळना चरमसमये सास्वादनपणुं पामे चीजे समये मिथ्यात्व पामे अने ते वीजे समये सास्यादन पामनार वीजा जीवनो अभाव होबाथी जघन्य एकज समय जाणवो. अने उत्कर्षथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्यासमाभाग प्रमाण कालसुधी सास्वादनगुणस्थान अनेक जीवोनी अपेक्षाये होय छे, अर्थात् क्षेत्रपल्योपम (पल्योपमस्वरूपकाल समजवा मारे कल्पेला योजनप्रमाण पालामा वर्तनार आकाशपदेशराशिना असंख्यातमा भागमा वर्ति आकाशमदेश राशिमाथी प्रतिसमये एक एक प्रदेश अपहार करता जेटले फाले ते राशि खाली याय तेटला काल (असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीपमाण) सुधी निरन्तर सास्वादनगुणस्थान लभ्यमाम छे ते पछी अवश्य तेनो विरह याय. (३) त्रीजु मिश्रष्टि गुणस्थान-एक जीवनी अपेक्षाये जघन्यथी अने उत्कृष्थी अन्तर्मुहर्तकाल ममाण होय छे, मात्र जघन्यथी नानु अन्तर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी मोढुं अन्तर्मुहूर्त. नाना जीवापेक्षया मिश्रष्टिजीवो ज्यारे विद्यमान होय स्यारे जघन्यथी सम्पग्मिथ्या(मिश्रोदृष्टिगुणस्थान जयन्ययी अन्तमूहर्तकाल सुधी रिन्मनतर पाय छे, ते वाद विरह होय, उत्कर्षथो बीजा गुणम्याननी जेम क्षेत्रप Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५२) ॥ गुणस्थानछारे गुणस्थानेषु स्पर्शनाबारविचारः ॥ (बार ल्योपमना असंख्यातमा भागप्रमाण कालसुधी मिश्रदृष्टिगुणस्थान निरन्तर पमाय के. एटले उत्कर्षयो क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भाग प्रमाण काल जाणत्रो, (४) सोधु अविरतमम्याधिगणास्थान-गण प्रकारना जीवोने होय छे, १ औपशमिकसम्यक्त्वाळाने, २ क्षायिकसम्यक्त्ववालाने अने ३ क्षायोपशमिकसम्यक्त्वबाळाने, तेमां औपशमिक सम्यक्त्व अनादिमिध्यादृष्टिजीवोने यतुं १ तथा उपशमश्रेणि करनारने धतुं २ गम बे प्रकारचं छे, तेमां अनादिमिथ्यात्व त्यजीने यता प्राथमिक औपशामिक सम्यक्त्व सहित अविरसगुणस्थान अन्तमहतप्रमाण होय छे, अन्तमुहर्त बाद सैद्धान्तिकमते त्रिपुंज नहि करता होवायी मिथ्यात्वज पामे, अने कामैग्रन्थिकमते त्रिपुन कयु होवाथी कोड़ जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पामे, कोइक जीव मिश्रदृष्टि थाय, कोइक सास्वादन पामी मिध्यात्वे जाय, उपशमश्रेणिमा थता औपशमिकसम्यक्त्व सहित अविरतगुणस्थान पण अन्तर्मुहतिज रहे छे, क्षायिकसम्यक्त्य सहित अविरतणुणस्थान जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त वाद देशविरत्यादि गुण पामे तो अन्तर्मुहर्तकाल प्रमाण, अने उत्कृष्थी उत्कृष्टायुष्ये अनुत्तरविमानमां उत्पन्न थइ अझै आवी ज्यां मुधी चिरति न पामे त्यांमुधी पटले साधिक तेत्रीश सागरोपम प्रमाण जाणवू, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सहित अविरतगुणस्थान जघन्यथी अन्तर्मुहृर्तकाल ममाण, त्यारबाद पतित थाय-मिथ्यात्वादि पामे, अगर देशविरत्यादि गुण पामे, अथवा उपशमश्रेणि करे तो औपाभिक सम्यक्ल पामे, अ. थवा क्षायिकसम्यक्त्व पामे. उत्कर्षथी साधिक तेत्रीश सागरोपमप्रमाण होय छे, ने आ प्रमाणे-मायोपशमिक सम्यक्त्ववान् कोइ साधु उत्कृष्टस्थितिना अनुत्तर विमानमा तेत्रीश सागरोपमना आयुप्ये उत्पन थाय त्यां ते नेत्रीश सागरोपम सुधी अविरत होय छे, बळी त्यांची च्यवीने अहीं आन्या छतां ज्यांसुधी विरतिगुण प्राप्त न करे त्यांसुधी पण अविरत होप छे, माटे सातिरेक तेत्रीश सागरोपमकाल क्षायोपशामिक सम्यक्त्वसहित अविरतगुणस्थाननो जाणवो, शंका-कोइक जीव अनुत्तर विमानोमां तेत्रीश सागरोपम मुधी अविरतपणुं अनुभवी अहि आव्या छतां पण विरति पाम्यो नथी. अने अविरत सम्यक्त्वभावमांज आयुष्य पूर्ण करी सम्यक्त्वनीज आराधनाना को उत्कृष्ट बावीश सागरोपमनी स्थितिये घारमा देवलोक उत्पन्न थाप नो तेने अविरत सम्यक्त्वनो साधिक पञ्चावन सागरोपम विगैरे वधार काल पण संभवी शके छे छना नेत्रीशसागरोपमन काल केम कयो ? उत्तर-आ प्रमाणे Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३८ (५५३) उत्पत्ति थती होत तो सत्य छे, परन्तु आवीरीते अतिपतित सम्यक्त्ववाळो अवितभावमा रहेवा संभवज नथो, अथवा बीजा कोइपण कारणनी अपेक्षाये बहुश्रुतभगवन्तोए साधिक ३३ सागरोपमज काल को ले तत्र श्रीकेचलिमगवन्तो जाणे. नाना जीवापेक्षया अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान सर्वदा लभ्य होय छे, देव तिर्यञ्च अने नारक गति ए त्रणेसां प्रत्येके अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाळा असंख्यात जीवो होय छे, अने मनुष्यगतिमां संख्याता जीवो होय के चारे गतिनी अपेक्षाये समुदित विचारणाये क्षेत्रपल्पोपमना असंख्यातमा भागमां आवेला प्रदेशराशि प्रमाण अविरत सम्यग्दृष्टिजीवो सर्वदा विद्यमान होय छे, तेथी अनादि अनन्तकाल चोथा गुणस्थानननी जाणवी. ( ५ ) पचमुं देशचिरतगुणस्थान पण उपरनी माफक ऋण प्रकारना जीवोने होय छे, सामान्यथी देशविरतगुणस्थान एक जीवापेक्षाये जघन्यधी अन्तर्मुहूर्त रहे है, अन्तर्मुहूर्त बाद पतित थाय, मरण धाय अगर सर्वविरत थाय. उत्कर्ष थी देशोनपूर्वकोटिसृधी देशविरसगुणस्थान रहे छे से आ प्रमाणे- पूर्वकोटि आयुष्यवाळो कोइ जीव साधिक आठ वर्ष सुधी अविरत रही यावज्जीव देशबिरfa पाळे तेने साधिक आठवर्ष न्यून पूर्वकोटि काल - देशविरतगुणस्याननो जाणको, अनेक जीवोनी अपेक्षाये देशविरतगुणस्थान सर्वदा विद्यमान होय छे, देशविरतजीवो मनुष्यगतिमां संख्याता होय अने तियंचगतिमां असंख्याता होय, क्षेत्रपत्योपमना असंख्यातमा भागमां आवेल प्रदेशराशिममाण असंख्याता देशविरतगुणस्थानवाला जीवो सवाकाल होवाथी अनादि अनन्तकाल जाणवो. (६-७) प्रमसंपतगुणस्थान अने सातमुं अप्रमत्त संयतगुणस्थान ते वेज एकजीवनी अपेक्षाये जघन्यथी एकसमय होय छे, आयुष्यना चरमसमये प्रमत्तसंयतपणुं अथवा अप्रमत्तसंयतपणुं पामी मरण पामी अविरत थाय तेथी १ समय. उत्कर्षधी ते वेड अन्तर्मुहुर्तममाण होय छे से आ प्रमाणे- प्रमत्तसंयतपणे अन्तर्मुहूर्त रही संक्लिश्यमान अध्यवसाये देशविरतादि थाय. अथवा मरण पाये अथवा विशुद्धयमान अध्यवसाये अप्रमत्तसंयत थाय, तेज प्रमाणे अप्रमत्तसंयत अवस्थामां उत्कर्षथी अन्तर्मुहुर्त रहे त्यारबाद ममत्त संयतपणुं अथवा श्रेणिए आरोहण करें अगर देशविरस्यादि भाव पाये. शंका -- प्रमत्ससंयतभाव अने अप्रमतसंयतभाव अन्तर्मुहूर्ते अन्तर्मुहुर्ते परावर्तमान रहे हे पण वधारे काल रहेता नयी एम शाउपरथी जाण ? उत्तर - जे संक्लेशस्थानको मां वर्ततो ममत्तपणुं पाये अने जे विशुद्धि Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६४) ॥ गुणस्थानबारे गुणस्थानेषु कालखारविचारः॥ (बार स्थानकोमां अप्रमत्तमुनि थायछे ते दरेक स्थानको असंख्य लोकाकाशपदेशममाण होयछे, संयतभावमा वर्तता ते मुनिए ज्यांमृधी उपशमश्रेणिके क्षपकश्रेणिमा आरोहण कर्यै नथी त्यांसधी तथा स्वभावथी अन्तर्मुहर्त सुधी संक्लेशस्थानकोमारहीने विधुदिस्थानकोमा जायछे वली अन्तसंहर्त सुधी विशुद्धिस्थानकोमा रहीने संक्लेशस्थानकोमा जायछे, आ ममाणे देशोनपूर्वकोटि कालमधी अन्तर्मुहर्ते अन्नमहल प्रमत्तभाव अने अभमसभापर्नु परावर्तन थयाज करेछे माटे प्रमत्तसंपतभाव उत्कपंथी अन्तर्मुहर्तकाल रहेछे अने अप्रमत्तसंयतथाव पण उत्कर्षयी अन्तर्मुहुनकाल रहेछे, अधिक काल रहेता नथी. आ प्रमाणे एकजीयापेक्षया जाणवू, हवे अनेकजीवापेक्षया प्रमत्तसंपतगुणस्थान अने अममन संयत गुणस्थान ए देउ सदाकाल विद्यमान होयछे, ६ थी १४ सुधोना नवे गुणस्थानो मनुष्यगतिमांज होयछे प्रमत्तसंपतगणमानवाळा जोबो मोरित्व भगाग अपने अप्रमत्तसंपनगुणस्थानवाला जीवो कोटिशतपृथवत्वप्रमाण सदाकाल होत्राथी छठा अने सातमा ए बेउ शुणस्थाननो अनादि अनन्तकाल जाणवो. (८ थी ११मुंउपशमणिगत) आठमु अपूर्वकरणगुणस्थान, नवमुं अनिवृत्तिवादर संपराय गुणस्थान अने दशमुमुक्ष्मसंपरायगुणस्थान ए अणे गुणस्थानो उपशमश्रेणिमां तथा अपकणिमां एम बेउमा होय छ, पण अहीं उपशमणिगत लेवाना छे, अने अगीआरभु उपशान्तमोहवीतरागछस्थगुणस्थान उपशमश्रेणिमांज होय छे, उपशमश्रेणिना ए चारे पैकीना दरेक गुणस्थानको जयन्ययी एक समयकाल रहे छे, ते आप्रमाणे-कोइक जीव उपशमश्रेणिमां चडतो अथवा श्रेणियी उतरतो आठ, अपूर्वकरणगुणस्थान एक समय अनुभवी मरण पामे अने अनुत्तरविमानोमा अविरतसम्यग्दृष्टिपणे उत्पन्न थाय, तेथी एक समयज काल आउमा गुणस्थाननो जाणवी, तेज प्रमाणे कोइक जीव चढता उतरता नवर्मु गुणस्थान पामो समयमात्र रही तथा कोइक जीव चढता उतरता दशम गुणस्थान पामी समयमात्र रही तथा कोइक जीव अगीआर गुणस्थान पामी समयमात्र रही मरण पामी अनुत्तरविमानोर्मा अविरतसम्पन्हष्टिपणे उत्पन थाय तो एक समय मात्र काल चारे गुणस्थानको पैकी दरेक गुणस्थाननो जाणवो.अने उत्कर्षथी ए चारे गुणस्थानकोनो प्रत्येक काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण छ, अन्तर्मुहूर्त बाद बीर्जु गुणस्थान पामे अथवा मरण पामे माटे अन्तर्मुहूर्तकाल जाणवो, ए चारेनो समुदितकालपण अन्नमुहत छे पण ने अन्नमुहर्न मोटुं अने प्रत्येकनु अन्तर्मुह न्हाना प्रमा Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३८) (५५५) नुं जाणवु, उपशमश्रेणिनो सर्वकाल अन्तर्मुहुर्तज छे, अनेकजीवापेक्षाये पण उप शमश्रेणिगत ए चारे गुणस्थानकोये ज्यारे जीवो विद्यमान होय त्यारे मत्येके जघन्यथी एक समयमात्र पमाय के प्रथम समये प्रवेश करो बीजे समये मरण पाये अने बोजा नवा प्रवेश करे नहि तो एक समय जघन्यथो जाणवो. अने उत्कर्ष ए चारे गुणस्थाननो प्रत्येके तथा समुदित अन्तर्मुहुर्तकाल जावो, ते उपरांत अवश्य अन्तर पड़े छे. ( ८ थी १०-१२ मु क्षपक श्रेणिगत) क्षपकश्रणवर्ति आउनु अ पूर्वकरण, नवसु अनिवृत्तिबादरसंपराय, दशमु मक्ष्मसंपराय अने बारर्मु क्षीणमोहवीतरागछद्मस्थगुणस्थान ए चारे गुणस्थानको एक जीवापेक्षया प्रत्येकं अजयन्योत्कृष्ट स्थितिये अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रहे ले, क्षपकश्रेणिये चढेला नीचे उतरता नथी पण अवश्य सफल कर्मक्षये सिद्ध थाय छे, वचमां मरण पण होय नहि, बळी चारेनो समुदितकाल पण अजयन्योत्कृष्ट स्थितिये अन्तर्मुहर्तममाण होय छे, चारमा गुणस्थानना अन्तर्मुहूर्तकालना चरमसमये त्रण घातिकर्मनो क्षय यया पछी सयोगिकेवलिगुणस्थान प्राप्त करे छे. नानाजीवापेक्षया पण ज्यारे क्षपकश्रेणिगत ए चारे गुणस्थानोमां जीवो विद्यमान होय त्यारे प्रत्येक अथवा समुदित ए चारे गुणस्थानको अजघन्योत्कृष्टस्थितिये अन्तर्मुहूर्तप्रमाणना ले, निरन्तर चालतो सम्पूर्ण क्षपकश्रेणिनो काल अन्तर्मुहूर्तममाणज छे. मात्र एक जीवाश्रित अन्तर्मुहूर्तकालयी अनेक जीवाश्रित अन्तर्मुहूर्त सातसमये अधिक समजवं. निरन्तर सर्वविरति पामता जीवो तथा सिद्धिये जता जीवो अविच्छिन्न पणे आठ समय सूधी होय छे, तेम केवलज्ञानमाप्ति पण अविच्छिन्न अ समय सुत्री संभवे छे, ते प्रथमनो समय अन्तर्मुहूर्तमां गणायेल होवाथी बीजाथी आठ सुधीना सात समय अधिक समजवा, अथवा बीजा फोड़ हेतुये सरत समयाधिक अन्तर्मुहुर्तकाल बहुश्रुत भगवन्तोये वर्णव्यो छे, तव श्रीकेवलिभगवान् जाणे. (१३) तेरम सयोगिकेवलिगुणस्थान एकजीवापेक्षया जघन्यथी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जाणचं. केवलज्ञान पामी अन्तर्मुहर्तमां अन्तगरकेवलिं थनाराओ ( मोक्षे जनारा जीवो ) ने आ जघन्य काल जाणत्रो, उत्कर्षथी देशोनपूर्वकोटिफाल, पूर्वकोटिमा आयुयवाळा साधिक आठवर्षंनी वये चारित्र लड़ तरar क्षयकश्रेणिये आरोहण करी केवलज्ञान पामनाराओने उत्कृष्टकाल जाणवो, आ प्रमा Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५६) गुणस्थानकद्वारे गुणस्थानेषु कालान्तरद्वारविचारः ॥ 'द्वार णे एक जीवापेक्षाये काल कह्यो, नानाजीवापेक्षाये सयोगिकेवलिगुणस्थाने वर्तता जीवो सदाकाळ विद्यमान होवाथी तेरमा गुणस्थाननो बिरह पडतो नथी एटले के सयोगिकेवलिगुणस्थान अनादि अनन्तस्थितिमान जाण. (१४) बौदमु अयोगिकेवलि गुणस्थान एकजीवापेक्षया अजयन्योत्कृष्टस्थितिये पवस्वाश रोचारणस्वरूप अन्तर्मुह त जीवापेक्षा पण अजघन्योत्कृस्थितिये अन्तर्मुहुर्त स्थितिमान जाणवु मात्र एक जीवापेक्षाना अन्तर्मुहूर्त काल करता नानाजीवापेक्षाये सात समय अधिककाल जाणवो कारण सिद्धि प्राप्तिनो निरन्तरकाल उत्कृष्ट आउसमयनो के अने अयोगिगुणस्था ननो काल अन्तर्मुहूर्त अनुभवी जीव मुक्ति प्राप्त करे छे, ते अन्तर्मुहूर्तकालमा प्रथम समयनो समावेश थह जाय छे, दोजाथी आठमा सुचना सातसमयो सुधी निरन्तर अयोगिगुणस्थानमां जीवो प्रवेश करे छे. अने नवमे समये अवश्य अन्तर पडे के मारे सात समयाथिक अन्तर्मुहूर्तकाल अयोगिगुणस्थाननो जाणवो. आ प्रमाणे कालवार स्वरूप निरूपण कयूँ. हवे कालद्वारा प्रसङ्गधी गुणस्यानकोनो नाना जोवोनी अपेक्षाये निरन्तर प्राप्तिकाल जाणवा माटे आटलो विशेष समजवो, सम्यक्त्य अने देशविरतिमां वर्तता पूर्व प्रतिपद्मजीव तो अनेक जीवोनी अपेक्षाये सर्वदा विद्यमान होय छे, पण प्रतिपद्यमाननी अपेक्षाये जघन्यथी एक समयज प्रतिपद्यमान होय, बीजे समये अन्तर पढे अने उत्कर्षथी आवलिकाना असङ्ख्यात्मा भाग सुधी निरन्तर सम्यक्तव तथा देशविरति पामता जीवो होय, त्यारपछी अवश्य अन्तर पडे, सर्वविरतिचारित्रमां पण तेज प्रमाणे ( जघन्यथी १ समय प्रतिपद्यमान होय ) आण. मात्र उत्कर्षथी सिद्धिप्राप्तिनो जेम आठ समय सुधी निरन्तर सर्वविरति पामता जीवो होय, त्यारबाद अवश्य अन्तर पढे, उपशमश्रेणि तथा उपशान अवस्थाने पामता जीवो जघन्यथी एक समय अने उत्कर्षथो संख्याता समय सुधी प्राप्त करे ते पछी अकप अन्तर पडे क्षपकश्रेणिना प्रतिपद्यमानजीवो पण तेज प्रमाणे जाणवा. ( इति कालद्वारस्वरूपम् ) (६ डुं अन्तरद्वार) अन्तर एटले अमुक गुणस्थान प्राप्त कर्यु होय तेनाथी पीजामां संक्रमण करे अने त्यारबाद केटलोफ काल फरी जेटले काले ते मूल गुणस्थान माप्त करे ते चचलो काल अन्तर कहेवाय. ( १ ) एक जीवापेक्षया पलं मिथ्यादृष्टिगुणस्थान त्याग करीने -+ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २३८) (२५७) अन्य गुणस्थानमा जइ फरी मिथ्यात्व गुणस्थान जघन्यथी अन्तर्मुहूते प्राप्त करे माटे मिथ्यात्वगुणस्थाननु जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त जाणवृ. अने उत्कृष्ट अन्तर कार्मग्रन्धिकोना अभिप्राय प्रमाणे-१३२ सागरोपमकाल प्रमाण जाणवू. कारण मिध्यादृष्टिनीय सम्यक्त्व प्राप्त करो उत्कपेयी सम्यक्त्वा ६६ सागरोपमकाल रहे, त्यारबाद एक अन्तर्मुहत सम्पग्मिथ्यात्व (मिश्रगुणस्थान)नो अनुभव फरी (कारण कर्मग्रन्थकारो सम्यक्त्वथी मिश्रा आवg माने छे.) फरी पण ६६ सागरोपम सुधी सम्यक्त्वनो अनुमान पछी बार गुणमा मोइ. साता जीव मुक्ति माप्त करे अने कोइक अधन्य जीव मिथ्यात्व प्राप्त करे नो तेवा जीवनी अपेक्षाये मिथ्यात्व त्याग कर्यांना कालथी आरम्भी फरीथी मिध्यात्व माप्त करनारर्नु उत्कृष्ट अन्तर बे छासठ (१३२) सागरोपमकाल जाणवू. वचमां आवतो मिश्रदृष्टिभावना अन्तर्मुहर्तकाल अल्प होवाथी विवश्यो नयी. आज कारणथी कर्मप्रकृतिपूर्णिमा " उक्कोसेणं अन्तोमुहूत्तम्भडियाओ दोछावट्ठोओ सागरोक्माणं मिच्छत्तस्स अन्तरकालो हवइ इति " तेमज बोजा ग्रन्थोमां पण अन्तमुहूर्ताधिक काल को छे, सैद्धान्तिक अभिप्राय प्रमाणे-सम्यक्त्वयी मिश्रमां गमन थतुं नयी, आ प्रमाणे एफजीवापेक्षया जघन्य अने उत्कृष्ट अन्तर बताव्यु अने नानाजीवापेक्षया चारे गतिमा मिथ्यात्वगुणस्थाने वर्तता मोवो सदेव विद्यमान होवाथी मिथ्यात्वगुणस्थाननु अन्तर परतुं नथी. (२) श्रीजु सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थाननु एक जीवापेक्षया जघन्य अन्तर पल्पोपमनी असंख्यातमो भाग जाणवो अर्थात् सास्वादनभाव भोगवीने फरीपण जो सास्वादनभाव पामे तो जघन्यथी पण पल्योफ्मनो अस यातमोभाग गये छते ज पामे छे ते पहेला पामी शकाय नहि, आ जघन्य पल्योपमना असत्येयभागरूप अन्तरकाल चारे गतिमा वर्तता घणा जीवोनी अपेक्षाये जाणवो अने एकवार उपशमश्रेणि प्राप्त करी उपशमश्रेणियी पढेलो जीव सास्वादनपणु अनुभवी जो फरी पाछो अन्तमुहर्ते उपशमश्रेणि पामीने त्यांथी पडयो छतो सास्वादनभाव पामे तो जघन्यथी अल्प अन्तर अन्तर्मुहर्तकाल पण पमाय छे. परन्तु ते अन्तर मात्र मनुष्यगतिमा ज यतुं होवाथी विवक्षा करी नयी, सास्वादनथी मिथ्यात्वे गयेलाने ते वखते तो अवश्य सम्यक्त्व अने मिश्र ए वेउ पुओं सत्तामां होय छे, ज्यां सुधी ते वे पुलो सत्तामा होय त्यांमुधी फरी औपमिकसम्यस्त्वनी प्राप्ति थती नथी, अने औपशमिकसम्यक्त्व बमतां Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८० ॥ गुणस्थानकडार मुणस्थानेषु अन्तरद्वारविचारः ॥ द्विार ज सास्वादन याय, तेथी मिथ्यात्वे गयेलो जीव सम्यक्त्वमोहनीय अने मिश्रमोहनीय ए बेउ पुनओने दरेक समये उकेलघा मांडे है, अर्थात् सम्यक्त्वमोहनीय अने मिश्रमोइनीयना दलीयाने मिथ्यात्वपुलमा शनिसमय नास्त्रे है, आ प्रमाणे ते चे पुनोने उकेलता उकेलता पल्योपमना असंख्यातमा भागरूप काले ते चे संपूर्ण उकेलाय छे, एटले के ते चे मोहनीयनो सर्वथा अभाव थाय छे, अर्थात् ते वे पुनोने संपूर्ण वकलता पल्योपमनी असंख्यातमो भाग काल लागे के, तेथी ओछा काले ते उकेली शकाता नयो, ते वे पुंगो उकेल्याबाद कोइ जीव औपशमिक सम्यक्त्व पामे, अने औपशमिक सम्यक्त्व वमतां सास्वादन पामे, माटे जघन्य अन्तर पल्योपमना असंख्यातमा भागर्नु का. उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल परावन काल जाणवू. सम्यक्त्वयी पडेला उत्कृष्ट आशातनावन्त जीवो अर्धपुद्गलपरावन सुधी मिथ्यात्वमा भमेछे. अने ते पछी अवश्य सम्यक्त्व पामे, तेमां कोइ जीव उपशमसम्यक्त्व पामी ते बमतां सास्वादन पामे माटे उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्थपुद्गलपरावर्त काल सासादननं जाणवू. अने नाना जीवापेक्षया सास्वादनगुणस्थाननु उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमना असंख्यातमाभाग प्रमाण काल होय छे.अर्थात् उत्कृष्टथी तेटला काल सुधी कोइपण जीव सास्वादनगुणस्थानके वर्ततो नयी पण उत्कृष्ट तेटला काल पछी अवश्य कोई जीव सास्वादनगुणस्थान पामे. (३) जीजा मिश्रदृष्टि (सम्यग्मिथ्यात्व) गुणस्थानन एक जीवा पेक्षया जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छ, अर्थात् मिश्रगुणस्थानथी मिथ्यात्वे गयो होय अथवा सम्यक्त्वमा गयो होय त्यां अन्तर्मुहूर्त रद्दी पाछो मिश्रमां आवे माटे जघन्य आंतम अन्तर्मुहर्त छे. अने उत्कृष्ट अन्तर देशोन अध पुद्ल परावर्तकाल जाणवू. नाना जीवापेक्षया मिश्रगुणस्यानचें उत्कृष्टअन्तर पल्योपमना असंख्यातमा भागप्रमाण काल ले. ते पछी अवश्य कोइ जोव मिश्रगुणस्थान पामे, (४ श्री ७) चोथा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान- पांचमा देशविरतगुणस्थानk छट्ठा प्रमत्तसंयतगुणस्थाननुं अने सातमा अप्रमत्त संयतगुणस्थानहुँ अर्थात् ए चारे गुणस्थानोनुं एक जीवापेक्षया प्रत्येक जघन्य अन्तर अन्तमहत अन्तर्मुहर्तपमाण जाणवू. अर्थात् ने ते मुणस्थानोथी च या छतां अधना पड्या छतां अन्य अन्य गुणस्थानोमां जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त रही फरी ते ते गुणस्थान पामे छे, माटे जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का छे, अने उत्कृप्र अन्तर देशोन अध पुद्गलपरावर्तकाल जाणवू, अने नाना जीवापेक्षया ए Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ३०] ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५५९) चारे गुणस्थाने वर्तता जीवो सदैव लोकमां विद्यमान होवाथी तेओनुं अन्तर होत नथी. बोधु गुणस्थान चारे गतिमां सदैव होय छे, पांचमुं तिर्यञ्च अने मनुव्यगतिमां सदैव होय छे. अने छट्टु सात गुणस्थान मनुष्यगतिमां सदैव होय छे, तेथी अन्तर नथी. ( ८ श्री ११ उपशमश्रेणिगत ) उपशमश्रेणिना आठमु अपूर्वकरण, नवमु अनिवृत्तिवादर संपराय, दशमु सूक्ष्मसंपराय अने अगीयारसु उपशान्त मोहवीतरागब्रह्मस्थ गुणस्थान ए चारे गुणस्थानोनुं - त्येके एक जीवापेक्षया जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त होय है, कारण एकवार उपशमश्रेणि कर्या बाद फरीथी अन्तर्मुहर्त बीजीवार कोइ जीव उपशमश्रेणि करे तो ए चार गुणस्थानकोनुं जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त थाय छे. जो के प्रथम आठमु विगेरे गुणस्थान प्राप्त करो नवमा विगेरे गुणस्थानकोये चढी फरी पाछा उतरी फरी श्रेणि करता ते गुणस्थान प्राप्त करवामां अनेक अन्तर्मुहूर्ती थाय छे तो पण अन्तर्मुहूर्तना असंख्यमेदो होवाथी ते सर्व अन्तर्मुहर्ती मळीने पण उपशमश्रेणिना कालरूप अन्तर्मुहुर्तमा समावेश पाने छे. माटे अन्तर्मुहूर्तरूप जे अन्तरकाल कमरे के ते यथार्थ छे तेमज बळी एकवार उपशमश्रेणि प्राप्त करी पाछा फरी क्षपकश्रेणि करे तो पण अपूर्वकरणादि गुणठाणाओनुं जयन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त घट शके छे, छतां सूत्राभिप्राये उपशमश्रेणि करनार ते भवमां क्ष श्रेणि करी शकतो नयी तेथी ने अपेक्षाये क्षपकश्रेणिवाळी प्रकार विवक्ष्यो नथी, अथवा उपशम भावयुक्त अपूर्वकरणादि गुणस्थान अने क्षपकभाव युक्त अपूर्व करणादि गुणस्थानोनी विलक्षणता होवाथी तथा वे वार उपशमश्रेणि करवानुं उभयसम्मत होवाथी उपशमश्रेणिनो प्रकार विवक्ष्यों के, उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुत्र परावर्तकाल प्रमाण जाणवू. अने नानाजीवापेक्षया उत्कृष्ट अन्तर ए चारे गुणस्थानोमा कोsपण जीव न होय तेवो विरहकाल पडे तो उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व अन्तर पडे, वर्षपृथक्त्व गया बाद कोड़ जीव अवश्य उपशमश्रेणि करनार लभ्य होय. ( ८ थी १०-१२ मुं क्षपक गित ) क्षपकश्रेणिगत ए चारे गुणस्थानकोर्नु एकजीवापेक्षया अन्तर पहर्तु नथी, कारण क्षपकश्रेणि करनार ते ते गुणस्थानको पामो गये आत्माओं फरी ते ते गुणस्थान पामवाना नथी, नानाजीवापेक्षया उत्कृष्ट अन्तर क्षपकश्रेणिगत ते चारे गुणस्थानकोमा कोइपण जीव विद्यमान न होय तेत्रो विरहकाल पड़े तो उत्कृष्ट अन्तर छ मासनं पड़े छमास Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) || गुणस्थानकद्वारे गुणस्थानेषु अन्तरद्वारविचारः ॥ खार पछी अवश्य कोइ जीव क्षपकश्रेणिकरनार लभ्य होय, सिद्धिनो उत्कृष्ट विरह छ मासनो होय, जेथी छमासे अवश्य क्षपकश्रेणिकरनार होयज. ( १३ मुं ) तेरमा सयोगिकेवलिगुणस्थाने जीवो सर्वदा विद्यमान होवाथी तेनुं अन्तर पडतुं नथी अने एकजीवापेक्षया पण ते गुणस्थान फरी पामवानुं नधी तेथी तेनुं अन्तर बताव्युं नथी. ( १४ मुं) अयोगिकेष लिगुणस्थाननुं एकजीवापेक्षया फरी ते गुस्थान पामवानुं न होवाथी अन्तर पडतुं नथी, अने नानाजीवापेक्षया उत्कृष्ट अन्तर छमासनुं होयछे, एटले के चौदमे गुणस्थाने कोइ पण जीव न होय तेवो विरकाल पडे तो उत्कर्षथी छमास सुधी कोड़ पण जोत्र चौदमुं गुणस्थान पातो नयो, छमास बाद अवश्य कोइ जीच च गुणस्थान पामे आ प्रमाणे अन्तरद्वारस्वरूप जाणवु. अन्तरद्वारनो प्रसङ्ग होवाथी गुणस्थानकीमा अनेक जीवोनी अपेक्षाये प्रतिपत्तिने उद्देशी अन्तर जाणया कंइक विशेष विचार विशेष जिज्ञासुओ माटे बतावीये छीये. चोथा अविरतसम्यम्ष्टगुणस्थान के पूर्वमतिपत्र जीवो तो सर्वदा असंख्यात विद्यमान छे, पण एक जीव अविरतसम्यग्दृष्टि पाम्या पछी चीजो को पण जी ते गुणस्थान न ज पा तेनुं मतिपत्तिनुं अन्तर पड़े तो सात दिवसनो निरन्तर अन्तर काल को छे, अर्थात् एक जीत्र चोधुं गुणस्थान पाम्यस पछी बीजो कोड़ जो वो गुणस्थान उत्कर्षथी सात दिवसने अन्तरे अवश्य पामे, एज प्रमाणे देशविर गुणस्थाननुं प्रतिपत्ति अन्तर चौद दिवस के, सर्वविरत गुणस्थाननुं प्रतिपत्ति अन्तर पंदर दिवस काल प्रमाणनुं छे. अने अयोगिगुणस्थाननुं प्रतिपत्ति अन्तर छ भासनुं होय छे, मुक्तिनो विरहकाल पण छ मास ज छे, कथुं छे केसम्मा तिमि गुणा, कमसो सग चोदस पन्नरदिणाणि । छम्मास अजोगिसं, नको त्रिपरिवज्जइ समर्थ || १ || " श्री आवश्यकमा देश निरतिनुं प्रतिपत्ति अन्तर बार दिवस कधुं छे. " विरयाविरइए होइ बारसगं " जघन्यथो तो सर्वे ठेका प्रतिपत्तिने उद्देशौ अतरकाल १ समय मात्र छे. आ प्रमाणे अन्तरबार स्वरूप करूं. ( ७ मु भागद्वार ) सातमा भागद्वारनो विचार नवमा अल्पबहुत्वद्वार विचारनी अन्तर्गत होवाथी अल्पाबहुत्वहारनी साथै ज ते कवाशे. " 9 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३८) (५६१) ( ८ मुं भावद्वार ) औदयिक १ औपशमिक २ क्षायोपशमिक ३ क्षायिक ४ अने पारिणामिक ५ ए पांच भावो छे, १ ओदयिकभाव - मैना उदयी धता पर्यायरूप परिणामो जेवा के गति, वेद, कषाय, विगेरे, २ औपशमिकभाव - कर्मना उपशमयी थता पर्यायरूप परिणामो औपशमिक सम्य अने औपशमिकचारित्र, ३ क्षायोपशमिकभाष - कर्मना क्षयोपशमयी यता पर्यायरूप परिणामो जेवा के-मत्यादिज्ञान, मत्यादि अज्ञान, चक्षुरादिदर्शन जिरे, ४ क्षायिक भाव-कर्मना क्षयथी थता पर्यायरूप परिणामो केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र अने दानादि पांच लब्धि, ५ पारिणामिकभावअनादि सिद्ध स्वभाव जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, आ पांच भारो पैकी कये कये गुणस्थानके केटला केटला भात्रो होय ते आ भारद्वारमां दर्शावाय है. ( १ ) पहेला मिध्यात्वगुणस्थानके औदयिक १ क्षायोपशमि क २ अने पारिणामिक ३ ए ऋण भावो जीवोमां होय छे, औदयिकभावना मनुष्यगति आदि गतिओ, वेदो, कपायो विगेरे मेदो. क्षायोपशमिक भावना मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभङ्गज्ञान, चक्षुर्दर्शनादि भेदो अने पारिणामिक भाये यव्यजीव मां भव्यत्व तथा जीवत्व अने अभव्यजीवोमां अभव्यत्व, जीवत्व होय छे. (२) बीजा सास्वादन गुणस्थानके - पण औदयिक क्षायोपश मिक अने पारिणामिक ए त्रण भावो होय छे, सिद्धान्तकारमते क्षायोपशमि भावमां ज्ञानविवक्षा छे, अने कर्मग्रन्थकारमते अज्ञान विवक्षा छे पारिणाfromrani अभयत्व अ होतुं नथी विगेरे विशेष विचार संभव प्रमाणे विचारतो. (३) त्रीजा मिश्रदृष्टिगुणस्थानके - पण औदायिक क्षायोपशमिक अने पारिणामिक ए त्रण भावो होय छे, त्यां क्षायोपशमिक भावमा ज्ञान अज्ञान उभय विवक्षा है. बाकी मेदविचारणा पूर्वनी माफक जाणवी. (४) चोथा अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान के भावोना ऋण प्रकारो पड़े छे, प्रथम प्रकार -? औदयिक २ क्षायोपशमिक अने ३ पारिणामिक ए प्रमाणे भाव क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाळा जीवोने होय छे. बीजो प्रकार -१ औदकिभाव २ क्षायोपशमिकभाव ३ औपशमिकभाव ४ पारिणामिकभाव ए चार arat औपशमिक सम्यन्त्रवान् जीवोने होय छे. बीजो प्रकार -१ औद विक भाव २ क्षायोपशमिकभाव ३ क्षायिकभाव ४ पारिणामिकभाव ए प्रमाणे चार भाव क्षायिक सम्यक्त्ववान जीवोने होय हे भेदविचारो पूर्वनी माफक• Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वार (५३२) (५) पांचमा देशविरसगुणस्थान के- पण तेज प्रमाणे भावोना श्रण प्र कारो पड़े छे मात्र अहीं क्षायोपशमिक भागमां देशविरतिचारित्र वधारे होय छे. || गुणस्थानकद्वारे गुणस्थानेषु भावद्वारविचारः | = (६-७) छड्डा प्रमत्त संयत गुणस्थान के अने सातमा अप्रमत्त संयतगुणस्थानके - पण उपर प्रमाणे भावोना ऋण ऋण प्रकारो पढे छे, मात्र अहीं लायोपशमिकभावमा देशविरतिने पदले सर्वविरतिचारित्र गणं. (८ यी ११ उपशमश्रेणिगत) आठमु अपूर्वकरण गुणस्थानक, नवसु अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानक. दशसु सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक अने अगीयारसु उपशान्तमोहवीतराग छद्मस्थ गुणस्थानक ए चारे उपशमश्रेणिगत गुणस्थान कोमां-याबोना वत्रे प्रकारो पड़े छे. औपशमिक सम्यक्त्वाळा जोवो उपशमश्रेणि करे छे तथा क्षायिकसम्यक्त्ववाळा पण उपशमश्रेणि करे छे, आ प्रमाणे वे प्रकारना जीवो उपशमश्रेणिकरता होवाथी भावना वे प्रकारो धाय छे, पहेलो प्रकार-उपशमसम्यक्त्त्व वाळा जीवो उपशमश्रेणि करे तो १ - औदविक २- क्षायोपशमिक ३ -औपशमिक अने ४ - पारिणामिक ए चार भावो होय छे, अने क्षायिकसम्यक्त्वसहित उपशमश्रेणि करे तो १- औदयिक २- क्षायोपशमिक ३ - औपशमिक ४क्षायिक भने ५ - पारिणामिक ए पांचे भावो साथ होय छे, कारण सम्यक्त्व क्षायिक होवाथी क्षायिकभाव के अने चारित्र औपशमिकभावनुं होवाथी औपनमिक भाव पण छे, बाकी ज्ञान, दर्शन अने लब्धिओ क्षायोपशमिकभावे, मनुष्यगafeit औदकभावे अने जीवस्त्र भव्यत्तव पारिणामिकभावे होयछे, विशेषस्वरूप जे जे गुणस्थानके तरतमवाए होय छे त्यां त्यां विशेष ग्रन्थोथी जोड़ लेवु. (८ थी १० तथा १२मु क्षपकश्रेणिगत) आठमु, नवमु, दशमु अने बारमुं क्षीणमोहवीतरागछद्मस्थगुणस्थान ए चारे क्षपकश्रेणिवर्ति गुस्थानकोमां- औपशमिकभाव शिवायना ? - औदयिक २- क्षायोपशमिक ३ -क्षायिक अने ४ - पारिणामिक ए चार भात्रो होय छे, उपशमसम्यक्त्वसहित क्षपकश्रेणि थती नथी. तेमज क्षपकश्रेणिये चढेलाने औपशमिकचारित्र पण होतुं नथी. (१३-१४) तेरमु सयोगिकेवलिगुणस्थानक अने चौदमु अयोगिकेवलिगुणस्थानक ए वे गुणस्थानको मां क्षायोपशमिकभाव निवृत्त थयेलो होवाथी १औदयिक २- क्षायिक अने पारिणामिक ए ऋण भावो होय है, औदयिकमा - म मनुष्यगति आदि, क्षायिकभावमा केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, 2 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) ॥श्रीलोफरकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५६३) क्षायिकचारित्र अने दानादि पांचब्धि अने पारिणामिफभावमा जीवत्व भव्यत्व ए भेदो होय छे, औपशमिकभाव मोहनीयफमनो ज थाय छे अने क्षायोपशमिकभाव चार घातिकर्मोनो थाय छे, केवलिभगवंतोने ते कर्मोनो क्षय ययेलो होबाथी ते वे भावो होता नथी.आप्रमाणे गुणस्थानकोमा भाषद्वारविचारणा करी. (९९ अल्पायहत्यबार)उपशामक,उपशामक एटले उपशमश्रेणिगत आउk नवर्मु, दशर्मु अने अगीमार मुंए चार गुणस्थाने वर्तता जीवो सर्वथी स्तोक होय, तेनाथीक्षपक एटले क्षपकश्रेणिगत ८-९-१०-१२ अने चौदमुं अयोगिकेवलिगुणस्थान ए पांच गुणस्थाने वर्तता संख्यातगुण होय, अल्पबहुत्व ज्यारे उत्कृष्टपदे ए गुणस्थानोमा जोवो विद्यमान होय ते कालनी अपेक्षाये जाणवू, चीजे काले तो कोइ वखत ते गुणस्थानोए जीयो न पा होय मनमः झोपलो रोनां या कोड बखत क्षपक जीवो वधारे तो कोई वखत उपशामक पण पधारे होय एम अनियमित अल्पवहुल होय, क्षपक करता सयोगिकेलिओ संख्येयगुण, ते करतो अप्रमत्चगुणस्थानवाळा संख्येयगुण, ते करतां ममत्तगुणस्थानवाळा संख्येपमुण, ते करतां देशविरतमुणस्थानवाळा असंख्येयगुण, ते करतां सास्वादन गुणस्यानवाळा असंख्येयगुण, आ अल्पवहुत्ल पण सास्वादनगुणस्थानमा ज्यारे उत्कृष्टपदे जीवो विद्यमान होय ते अपेक्षाये जाणवं, अन्यथा कोइ वखत सास्वादनगुणस्थाने जीवो न पण होय, होय तो जघन्यथी एक ये वण आदि होय, पण ज्यारे उत्कृष्टपदे जीवो होय त्यारे क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागवति आकाशपदेशराशि प्रमाण देशविरत तिर्यंच तथा मनुष्यजीवो होय छे, ते करतो असंख्यगुण मोटा प्रमाणवाळा क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागवति आकाशमदेशराशिषमाण सास्वादनवर्ति जीवो होय छे, तेनां करता मिश्रगुणस्थानवाला जीवो असंख्यानगुण वधारे होय, आ अल्पबहुत्वा पण उत्कृष्टपदे मिश्रगुणस्थानमा जीवो विद्यमान होय ते अपेक्षाये जाणवं, अन्यथा उपरनी माफक कोइ वरवन मिश्रगुणस्थानके जीवो न पण होय अने होय तो जघन्यथी एक ये त्रण विगेरे पण होय एम अनियमित अल्पबहुत्व होय, पण ज्यारे उत्कृष्ठपदे मिश्रगुणस्थाने जीवो होय स्यारे सास्वादनगुणस्थाने उत्कृष्टपदे जेटला जीवो होय ते करतां मिश्रगुणस्थाने असंख्येयगुण मोटा क्षेत्रपल्पोपमासंख्येयभागवति आकाशमदेशराशिप्रमाण होय छे, ते करतां अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवाळा असंख्येयगुण वधारे होय छे. मिश्रगुणस्थाने उत्कृष्टपदे वर्तनार जीवो करता असंख्येयगुण मोटा प्रमाणवाला क्षेत्रपज्योपमासंख्येयभागवति आकाशमदेशराशिप्रमाण जीवो होय छे, अविरतसम्यग्दृष्टि करतां नारक मनुष्य अने देवगति ए त्रण गतिओमां बर्तता मिथ्याष्टिओ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D (५६४) । गुणस्थानकबारे अल्पबहुत्व-भागवार-गुणश्रेणिविचारः ॥ (द्वार असंख्येयगुण वारे होय छे, ते करता तिर्यग्गतिवति मिथ्यादृष्टिजीवी अनन्तगुण होय छे. आ प्रमाणे अल्पयाहुत्वद्वार जाणवू अल्पवाहत्वद्वारविचारान्तर्गत भागद्वारविचार होवाथी प्रथम अवशिष्ट राखेल भागद्वारविचार नीचे प्रमाणे, मिथ्याष्टिजीवोने अनन्तमे भागे अविरतसम्यग्दृष्टिजीवो, अविरतसम्यग्दृष्टिने असंख्यातमे भागे मिश्रष्टिजीवो, मिश्रष्टिने असंख्यातमे भागे सास्वादनसम्पष्ट्रिजीवी, मास्वादनसम्यग्दृष्टिने असंख्यातमे भागे देशविरतजीवो, देशविग्लने असंख्यातसे भागे पलापरतणीको, मलयाने संख्यातमे भागे अप्रमत्तसंपतजीवो, अप्रमत्तसंयतने संख्यातमे भागे सयोगिकेवलिभगतो, सयोगिकेवलिने संख्यातमे भागे क्षपकणिवाळा तथा अयोगिकेवलिजीवो, क्षपकने संख्यातमे भागे उपशामक नथा उपशान्तमोह गुणस्थानवाला जीदो होय छे, आ प्रमाणे चौदगुणस्थानोमांसत्पदप्ररूपणतादि नव अनुयोगदार विचार जाणवो. ___प्रतिसमय असंख्यगुणद्धिनिर्जराना हेतुभून अध्यवसायविशुद्धि विशेषताये थती गुणश्रेणिओ अगीयार छ भने ते गुणस्थान विचारनी सहधर्मवाली होवाथी गुणस्थानद्वारनी साथे ज प्रसङ्ग प्राप्त है, परन्तु विस्तार भययी ते दर्शावी नथी मात्र तेना जिज्ञासुओ माटे नाममात्र दावीये छीये. (१) पहेली सम्यक्त्वोत्पादगुणश्रेणि-मिथ्याष्ट्रिजीवो जे कर्मनिर्जरा करे ले लेना करता धर्मपृच्छा विचारवान पृच्छाभिलाषी छतो साधु पांसे जनोप्रश्न करतो-सम्यक्त्व अङ्गीकारनी इच्छावाळो,अङ्गीकार करनार-अङ्गीकार करेलो ए सर्पने उत्तरोत्तर असंख्यगुण निर्जरा जाणवी (२) पीजी देशविरतगुणश्रेणि-उपर प्रमाणेज सम्यक्त्व पामेला जीव करता देशविरति पामवानी इच्छाबाळाने-पामताने अने पामेलाने अनुक्रमे असंख्यगुणनिर्जरा जाणवी. आ प्रमाणे सर्वगुणश्रेणिमा जाणवू. (३) श्रीजी सर्वधिरतगुणश्रेणि-(४)चौथी अनन्तानुबन्धिविसंयोजक. (५) पांचमी दर्शनमोहक्षपका (६) छठी उपशामका (७) सातमी उपशान्त० (८) आठमीक्षपक०-(५) नरमी क्षीणमोह०-(१०) दशमी सयोगिकेवलि०-११) अगीयारमी अयोगिकेलिगुणणि, आ सर्वमां उत्तरोत्तर असंख्यगुण निर्जरा जाणवी, कर्मनिजग माटे संयमस्थान आणि उत्तरोत्तर असंख्येयगुण प्रवधमान होय अने काल अयोगिकलिथी लइने विपरीत रीतिये संख्यातगुणद्धिये जाणवो. अर्थात जेटले काले जेटलं की अयोगिकवलि खपाये सेटटु ज कम सयोगिकेलि संग्ख्यातगुणदीर्घकाले खपाथे, आ प्रमाणे पश्वानुपूर्वीये पृच्छामिलापी मुवी जाणवू. विशेष विचार शतकवृत्ति आदियी जाणवो. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९) (५६५) ॥श्रीलोफमकाशे तृतीयः सर्गः (सा. २३८) ॥ गुणस्थान यन्त्रकम् ।। । गुणस्थानना । कया गुणने |क्षपकने होय | अणिगत | परमषमा साथे अंगे प नाम | | आषनार के नाम उपशमकमे? | अश्रेणिगत ? मदि आवणार? । . पियारव मिथ्यावमोहनीयना | पक्केने नहि | कोई महि । साथै आवनार उदयथो सास्वादन अमम्माना उदय वडे सम्यवान घमन यषाथी ३ । मित्र मिनमोहमीय ना उदयथो. नहिं आवनार . ! - । । । । अविरत असारहित स. सम्पबुष्टि होधायी. म्यत्व थिकम्प श्रेणिगत आकनार ५ । देशषिरत | अम पूर्ण प्रत ! होवायो महिं भावनार । ६ । प्रमश | निद्रादिस्पष्ट | प्रमा होवाथी । । अपमस निद्रादिप्रमाद (स्पष्ट) नहि होवाथो . Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६६) ॥गुणस्थानद्वारे गुणस्थानकेषु नववारयन्त्रकवर्णनम् ॥ (शार मरण थाय के ? उत्कृष्ट अरुपबहुल्य एक समययति जीवापेक्षया जधस्य तथा उत्कृष्ट स्थिति जघन्य तथा जनकर भयोगि सिद्ध जघ -अन्तर्मुहर्स मरण होय | भगवन्तो) थी | उ.-अन्यने अनादिसाश लादिसान्त अनन्तगुण. अभव्यने अनादि अनन्त अघ-अम्तमु उ०-के छासठसागर साधिक. ५ माथी असंख्य | जघ०-१ समय उ.-६ आषलिका अघपल्यामध्येयभाग 30-देशोन of पुनल पराष मरण न होय २अाथी असंख्य | जब-- अन्तर्मुहूर्त गुण ज०- , अघा-अन्तमु उ.-वेशीन । पुद्रल परावर्त | ३ माथी असंख्य जघ–भम्तमुहते मरण होय गुण उ.- साधिक ३३ सागर ६ हाथी असंख्य | जय-अन्तर्स उ७-यष ७मास न्यून गुण पूर्व कोरवर्ष ७माथी संश्य | जघ० १ समय गुण | उ०-देशविरतवत् । वा टेप्साहन अन्तर्मुहस) पृथक्य ) १३ माथी संख्य | जधः-१ समय गुण [कोशितपृथ- उ-अन्तर्मुहर्स कल्य] Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ॥श्रीलोकमफाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५६७) - - - -- .. () र | अपूर्वकरण अपूर्व पत्र पांच फरपोलो प्रारंभ यत्राथी बग्नेने (बम्ने) प्रणिगत नी आपनार अनिवृत्ति बादरसंपराय अध्यवमायो सल्य होवाचो मिवृत्ति (फेरफार न होषाथी सुक्ष्मलपराय सुक्ष्म (लोम) कपायना उदयथी उपशान्तमोह | समोहनीय उप- | | शान्त होषाथी | उपशमणिगत क्षीणमोड | सबमोहनीय भय पामेली होवायो पकने | अपकणिगत | १३ | सोगिकेवलि योग सहित केवळ शान होषाथी अयोगिकषलि | योग रहिम केषर- शान होवायी , । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६८ ) ॥ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानेषु सत्पदमरूपणता दिद्वार विचारः । (बार [G] (६) मरण होय. ار (७) १२ माथी विशेषा धिक [१६२ ] " सर्व अप [४] सरण सह ११ माथी संख्य गुण (१०८) १- माथी संख्यगुण | (कोटपृथक्त्व) मरण होय । ४ थाथी अनंतगुग ( सिद्ध अघन्य -१ समय उत्कृष्ट अन्त मुहूर्त. " अजघन्यो- } अन्तर्मुहूर्त स्कूट जप- अन्तर्मुहूर्त उ०- ८ वर्ष ७ मात्र स्यून पुषकोड वर्ष अजघन्यो स्कृष्ट पच हस्त्राक्षरीधारकाळ [ अन्तर्मुहूर्त ] (९) |उपशम जिग| सजोषापेक्षया जय- अतमुंहत उत्कृष्ट देशोन अर्धपुलपरा पर्त را १२ मची नयी नथो Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६२) ३०मुं) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ सा० २३८) चतुर्दशसु गुणस्थानेषु त्रिषेप्रयुत्तरपञ्चशत २६३ जीवभेदसंख्यायन्त्रकम् । जीवभेद गुणस्थान नाम. संख्या विशेष विचार. मिथ्यात्व गुणस्थाने कर्मग्रन्थ सास्वादन काग्मते सम्यग्दृष्टि ४०० गुणस्थाने सिद्धान्तमते ३९७ मिश्रष्टष्टि गुणस्थाने अविरतस म्यग्दष्टि गुणस्थाने ५३५ देशविरत गुणस्थाने छन्दा प्रमत्त संय यत गुणस्थान की चौदमा अयोगिकेवलि गुणस्थान सुधी गुणस्थानोमां १९८ ४२३ ગ્ १५ पांचसो पसल जीवभेदमांची पांच अनुत्तरदेषो अने नवलोकास्तिक प चाँद पर्याप्त तथा अपर्याप्त अठावोश भेदी बाद करतां वाकीना ५३५ जीवभेदो संभवी शके थे. ३ चादर अपर्याप्त पृथ्वीका य १, अकाय रे, प्रत्येकष नस्पतिकाय ३ पकेन्द्रिय ३ अपर्याप्त विकलेन्द्रिय पर्यासंमृद्धिमतिर्यञ्चपंचे. १० गर्भज पर्याप्त तथा अप तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय २०२ गर्भज्ञपर्याप्त ११ तथा अर्थात १०१ मनुष्य. १७- देवताना १९८ भेदमांथी पांच अनुसर अने नव लोकान्तिक प चौदना पर्याप्त अपर्याप्त मळी २८ शिवाय १७० ७ पर्याप्त नारकी (सिद्धान्तका रमते ३ पके० शिवाय ३९७ ) ५. गर्भज पर्यान तियंचो. १०१ गर्भज पर्याम मनुष्य ८५ पर्याप्त देवताओना ९९ भेटमाथी ५ अनुत्तर भने १ लोकान्तिका पर्यात चौव भेद बाद करता ८५ ७ पर्याप्त नारकोओ १० गर्भज पर्याप्त तथा अपर्याप्त तिचा. २०२ गर्भ पर्याप्त तथा अपर्याप्त मनुष्यो १९८ पर्याम तथा अपर्यात बारे निकायना देवी १३ पहेली छ मारकना पर्याप्ता तथा अपर्याप्त ए १२ तथा पर्याप्त सातमी नारकीना नारकी १ (मातमी नारकीमा अपर्याप्त जीवोमां न होय), ५. गर्भज पयर्याप्त तिर्यचो. १५. गर्भज पर्याप्त पांचभरत पांच पेरवत पांचमहा विदेह ए पंदर कर्मभूमिना मनुष्यों १५ गर्भज पर्याप्त पांच भरत. पांच पेरवत, पांच महा विदेश य पंदर कर्मभूमिता मनुष्यो १५६३ जोषभेदसंख्या-- ( २२ एकेन्द्रियभेदी) १ पृथ्वीकाय, २अपकाय, ३ से Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) ॥ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानेषु जीवमेदसङ्ख्यायन्त्रविचारः॥ (हार उकाय,वायुकाय अने ५साधारण वनस्पतिकाय ए पांचने सूक्ष्मपर्याप्ला अने सूक्ष्म अपर्याप्ता तथा चादरपर्याप्ता अमे यावर अपर्याप्त प चार भेदे गुणतां २० तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय यावरज होषाथो तेना पर्याप्त भने भपर्याप्त प के भव मेळवता वाधीश भेद पकेन्द्रियना थाय. (६ विकलेन्द्रिय ) जीन्द्रिय, चीन्द्रिय, धनुरिन्द्रिय, ए प्रणने पर्याप्ता अमे अपर्याप्ता पम ये मेरे गुणतां छ भेद थाय. [ १४ नारकजीयो ] खात नारकीला पर्याप्त अने अपर्याप्त पम ये भेदे गुणतां ५४ याय. ( २० तिर्यश्च पञ्चेन्द्रियभेदी ) जलचर वेघर ए बे भेद तथा स्थलचरना पड़पगा १, उरःपरिमप २ अने भुजपरिसर्प ३, पत्रण भेळवता पांचभेद थया, ते पांचने १ समूछिम पर्याप्त तथा २ समूछिम अप प्तिा अने ३ गर्भज पर्याप्ता तथा ४ गर्भज अपर्याप्त पचार भेदे गुणतां वीश मेद तिर्यञ्च पञ्चन्द्रियना थाय. [ ३०३ मनुष्यभेदो ] पांच भरत पांच पेषत भने पांच महाधिदेव प पंवर कर्मभूमि (१ नम्बम्होपमां,२ धातकोखण्डमां आने २ पुष्करार्धमा परीते पांच भरत, तेज प्रमाणे पांच परवत तथा पांघ महाधिदेह पण नाणवा अने तेषीज रीते अकर्मममि क्षेत्रोंनी पण पांच पांच संख्या प्राणधी. ) पांच विमपन्त, पांच हिरण्यवन्त, पांच हरिषर्ष, पांच रम्यक, पांच देशकश भने पांव उत्तरकुरु प श्रीश अकर्मभूमि, अने . अन्तरदीप [ भरतक्षेत्रनो उत्तर तरफना क्षुल्लाहमषन्त पर्वतमी लषणसमुद्रमा गयेली पूर्वदिशामा थे याशुना मृणामां बे अने पश्चिम दिशाना बे बाजुना खुणामां थे पम धार दादाओ तथा ऐरबतक्षेत्रनी दक्षिण तरफना शिवरिपर्वतभी तेज प्रमाणे लवणसमुद्रमा ग्येली चार दादाओ मळी आठ दादाओं उपर प्रत्येके सात सात अन्तहींप दोषाथी ५६ अन्तरसपा थाय ] ते १०१ भूमिमां उत्पन्न पता मनुप्यो जुदा जुदा स्वभाववाळा होषाधी क्षेत्रोदची भिन्न कवाय, तेमा समू छिममनुष्यो अपर्याप्लज होय ने जेयी ते १०१ तथा १०१ भूमिमा उत्पन्न यता गर्भज मनुन्यो पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता एम घे भेद होषापो २१२ भेवी याय कुल संमृछिम १०१ तथा गर्भ जना २०२ भेगा करता ३३ मनुष्यभेदो थाय. ( १९८ देषभेदो ) १. भुवनपति, १५ परमाधामी, ८ व्यन्तरो. ८ पाणव्यस्तरो, १० तिर्यग्जंभको, ५ चरज्योतिको, ५ स्थिरख्योतिको, ३ किस्विपिक, १२ सौध. मकरूपादि, . लोकान्तिक, ९ प्रयेयक, अने ५ अनुसर, म कुल ९९ भदने पर्याप्त तथा अपर्याप्त पम बे भेदे गुणतां १९८ भदो थाय, सर्वमली ५,६३ भेदो जीधना माणषा. २२. | एफेन्द्रिय १५ | नारको ५६३ । ६ | विकले न्द्रिय जीवमेद पन्त्रक | पञ्चेन्द्रिय नियंत्र | १९८ | देवता Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३९) (५७१) दशपञ्चाधिका योगाः, सप्त स्युस्तत्र कायिकाः । चत्वारो मानसोद्भूतास्तावन्त एव वाचिकाः ॥३॥ औदारिकस्तमिश्रः स्याद्वेत्रियस्तेन मिश्रितः । आहारकस्तन्मिश्रः सप्तमस्तैजसकार्मणः ॥ ४ ॥ पर्याप्तानां नृतिरश्चामौदारिकाभिधो भवेत् । स्यात्तन्मिश्रस्तु पर्याप्ता पर्याप्तानां तथोच्यते ॥ ५ ॥ कार्मणेन वैक्रियेणाहारकेणेति च त्रिधा । औदारिकमिश्रका - ययोगं योगीश्वरा जगुः ॥ ६ ॥ औदारिकाङ्गनामादितादृकर्मनियोगतः । उत्पत्तिदेशं प्राप्तेन, तिरश्चा मनुजेन वा ॥ ७ ॥ यददारिकमारब्धं न च पूर्णीकृतं भवेत् । तावदौदारिकमिश्रः, कार्मणेन सह धुवम् ॥ ८ ॥ तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शख परिज्ञाध्ययने- "तेएण कम्मएणं, आहारेई अनंतरं जीवो । तेण परं मिस्सेणं. जाव सरीस्स निष्पत्ती ॥ ९ ॥" ( तेजसेन कार्मणेन आहास्यत्यनन्तरं जीवः । ततः परं मिश्रेण यावत् शरीरस्य निष्पत्तिः ) (सा० २३९ ) अर्थ-३१ योगद्वारम् || योग पंदर छे तेमां ७ काययोग छे, चार मनथी उत्पन्न ययेला (मनोयोग) अने तेटलाज ( ४ ) वचनयोग के ॥ ३॥ औदारिक अने औदारिक मिश्र, वैकियने वैक्रियमिश्र, आहारक अने आहारकमिश्र, (ए छ ) अने सातमो तैजस कार्येण काययोग छे || ४ || स्यां पर्याप्त मनुष्य अने तिर्यचने औ दारिक नामनो काययोग होय छे, अने औदारिकमिश्र तो पर्याप्त अने अपर्या मने होय छे ते जेवी रोते होय छे तेवी रीते कहेवाय छे ॥ ५ ॥ कार्मणसाचे वैकिय साधे अने आहारक साथे एम ऋण प्रकारे औदारिकमिश्र काययोग योगीश्वरोए ( महामुनीश्वरोए ) को छे । ६ । औदारिक शरीर नाम कर्मादि तेवा प्रकारना] कर्मनी प्रेरणायो उत्पत्ति स्थाने आवेला तिचे अथवा मनुष्ये || || ज्यांसुत्री मारंभेलु औदारिकशरीर पूर्ण नथी रच्युं, त्यांमुधी निश्चयथी ते कार्मणनी साथे मिश्र एवो औदारिकमिश्रयोग होय है ॥ ८ ॥ नियुक्तिकारे १ भोसुत्रकृतांग आहारपरिज्ञाध्ययननियुक्तिमां पण छे. (३१मुं) Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ योगद्वारे पश्चदशयोगस्वरूपनिरूपणम् ॥ (द्वार (श्रीभद्रबाहुस्वामी आधारांगसूत्रना) शस्त्रपरिज्ञानामना अध्ययनमां - "तेजस (कोइ स्थळे 'जोएणं' एवो पाठ हे त्यांपण 'द्योतेन' ए ममाणे तेजस अर्थ करवो). अने कार्मेण कायवडे अनतर समये ( पूर्वभवना मरण समयधी तुना अनंतर, समये ) जीव आहार करे छे, अने त्यारबाद ज्यांमृधी शरीरनी रचना (उत्पत्ति) याय त्यांसुधी मिश्रवडे ( तैजसकार्मणसहित औदारिकादिवडे ) आहार करे" || ९ (५७२) ननु मिश्रत्वमुभयनिष्ठमौदारिकं यथा । मिश्रं भवेत्कार्मणेन, तथा तेनापि कार्मणम् ॥१०॥ ततश्चौदारिक मिश्रमेवेदं कथमुच्यते ? । अस्य कार्मणमिश्रत्वमपि किं नाभिधीयते ? ॥११॥ अत्राहुः || आसंसारं कार्मणस्यावस्थितत्वेन सर्वदा । सकलेवपि देहेषु, संभवेदस्य मिश्रता ||१२|| ततश्च ॥ कार्मणमिश्र मि'त्युक्ते, निर्णेतुं नैव शक्यते । किमादारिकसंबन्धि, किं वाऽपरशरीरजम् ||१३|| औदारिकस्य चोत्पत्तिं समाश्रित्य प्रधानता । कादाचित्कतया चास्य, प्रतिपत्तिरसंशया ॥ १४ ॥ तदौदारिकमिश्रत्वव्यपदेशोऽस्य यौक्तिकः । न तु कार्मणमिश्रत्वव्यपदेशस्तथाविधः || १५ || यदाप्यौदारिकदेहधरो वैक्रियलब्धिवान् । पञ्चाक्षतिर्यङ् मर्त्यश्च पर्याप्तो वादरानिलः ॥ १६ ॥ वैकियाङ्गमारभते, न च पूर्णीकृतं भवेत् । तदौदारिकमिश्रः स्याद्वैक्रियेण सह ध्रुवम् ॥ १७ ॥ एवमाहारका रम्भकाले तलब्धिशालिनः । सहाहारकदेहेन, मिश्र औदारिको भवेत् ॥ १८ ॥ यद्ययत्रोभयत्रापि, मिथस्तुल्यैव मिश्रता । तथाप्यारम्भकत्वेनौदारिकस्य प्रधानता ॥ १९ ॥ तत औदारिकेणैव व्यपदेशो द्वयोरपि । न वैक्रियाहारकाभ्यां व्यपदेशो तिनैः कृतः ॥ २० ॥ मतं सिद्धान्तिनामेतत् कर्मग्रन्थविदः पुनः । वेक्रियाहारकमिले, एव प्राहुरिमे क्रमात् ॥ २१ ॥ यदारम्भे वैक्रियस्य, परित्यागेऽपि त , 3 " Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ म) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ( सा० २३९)॥ (५७३) स्य ते । वदन्ति वैकियं मिश्रमेवमाहारकेऽपि च ॥ २२ ॥ वैकियदेहपर्याप्त्या, पर्याप्तस्य शरीरिणः । वैक्रियः काययोगःस्यातन्मिश्रस्तु द्विधा भवेत् ॥ २३ ॥ योऽपर्याप्तदशायां स्यान्मिओ नारकनाकिनाम् । योगः सम कार्मणेन, स स्याक्रियमिश्रकः ॥२४॥ तथा यदा मनुष्यो वा, तिर्यक् पञ्चेन्द्रियोऽथवा । वायुर्वा वेकियं कृत्वा, कृतकार्योऽथ तत्त्यजन् ॥ २५॥ औदारिकशरीरान्तः, प्रवेष्टुं यतते तदा । योगो वैक्रियमिश्रः स्यात्सममौदारिकेण च ।। २६ ॥ मिश्रीभावो यदप्यत्रोभयनिष्ठस्तभाष्यसौ ! प्राधान्याकिरोणेन, लगातो नौदारिकेण च ॥२७॥ प्राधान्यं तु वैक्रियस्य, प्राज्ञेनिरूपितं ततः।औदारिके तु प्रवेश, एतस्यैव बलेन यत् ।। २८ ॥ आहारकाङ्गपर्याप्त्या, पर्याप्तानां शरीरिणाम् । आहारकः काययोगः, स्याच्चतुर्दशपूर्विणाम् ॥ २९ ॥ आहारकवपुः कृत्वा कृतकार्यस्य तत्पुनः । त्यक्त्वा स्वाले प्रविशतः, स्यादाहाकमिश्रकः ॥ ३०॥ द्वयोः समेऽपि मिश्रत्ये, बलेनाहारकस्य यत् । औदारिकेऽनुप्रवेशस्तनेत्थं व्यपदिश्यते ॥ ३१ ॥ तैजस कार्मर्ण चेति, द्वे सदा सहचारिणी । ततो विवक्षितः सैको, योगस्तैजसकार्मणः ॥ ३२ ॥ जन्तूनां विग्रहगताययं केवलिनां पुनः । समुद्घाते समयेषु, स्यात्ततीयादिषु त्रिषु ।। ३३ ।। एवं निरूपिताः सप्त, योगाः कायसमुद्भवाः । अथ चित्तवचोजातांश्चतुरश्चतुरो अवे ॥ ३४ ॥ अर्थ-शंका-मिश्रपणानो व्यपदेश तो बनेमां रहेलो छ, एटले जेम कार्मणवडे औदारिकशरीर मिश्र छेतेम औदारिकवडे फार्मण पण मिश्र के ॥१०॥ नो पछी औदारिकमिश्र एम केम कहेवाय छे? अने तेने कार्मणमिश्र एम केम कहेवातुं नयी ?।।१६। उत्तर-आरवा संसार भ्रमणसुधी कार्मण शरीर सर्वकाळ अवस्थित होवाथी सदाफाश सर्व शरीरोनो साथे तेनी मिश्रता तो संभवे छ ज ॥१२॥ अने Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७४) ॥ योगद्वारे औदारिकमिश्रयांगविचारः ॥ (द्वार C तेथी "कार्मणमिश्र " एम को छतं ते कार्मणमित्र शुं औदारिकसंबंधि के के बीजा कोइ शरीर संबंध छे ? तेनो निर्णय करी शकात नथी ॥ १३ ॥ अने उत्पत्तिनी अपेक्षाए (ते घेळाए) औदारिकनी प्रधानता छे, अने ते कदाचित् उत्पतिवा होवाथी ते [ औदारिकसंबन्धी] तो स्वीकार निःसंशय पणे थाय है ॥ १४॥ ते मारे तेनो (उभय मिश्रनो) औदारिकमिश्रपणारूप व्यपदेश युक्तिवाळो छे, अने कार्मणमिश्रपणारूप व्यपदेश तेवा मकारनी युक्तिवाळो नथी ||१२|| वळी ज्यारे औदारिषदेने धारण करनार वैक्रिय लब्धिवाळो पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्येच मनुष्य पादराका || १६ || वैक्रिय शरीर रचवानी आरंभ करें परन्तु प्रनथ होय ते वखते वैक्रिय देह सहित (होवाथी) निश्चय औदारिकमिश्र योग होय ॥ १७ ॥ ए प्रमाणे आहारकलब्धिवाळा मुनिने आहारक देहना प्रारंभकाळे आहारकदेद्द सहित औदारिकमिश्र योग होय ||१८|| जो के अहिं बने स्थाने मिश्रता परस्पर तुल्यन छे तोपण आरंभकपणावडे औदारिकदेहनी प्रधानता के || १९ ॥ मारे बन्नेनो व्यपदेश औदारिकना नामवडे ज है, परन्तु श्री जिनेश्वरोए (ते मिश्रनो) आहारक अने वैयिना नाम वडे व्यपदेश फर्यो नश्री ||२०||ए सिद्धांतकारोनो मत के अने कर्मग्रंथना आणकारो तो ते बन्ने योगने अनुक्रमे वैयिम अने आहारकमिश्रण कहे हे ॥ २१ ॥ जे कारणयी ? या आरंभांने वैकियना त्यागमां पण तेओ ( कार्मग्रंथिको वैक्रियनी प्रधानता होवाथी) वैक्रियमिश्र ज कई छे तेमज आहारकमां पण तेवी रीतेज कहे छे ||२२|| वैयिशरीरनी पर्याप्तिवडे पर्याप्त थयेला जीवोने वैक्रियकाययोग होय, अने वैक्रियमिश्र तो वे प्रकारे होय है || २३ || त्यां नारक अने देवने अपर्याप्त अवस्थामां जै मिश्र योग है ते क्रियमिश्र योग कार्मण साथै मिश्र होय ॥२४॥ तथा मनुष्य अथवा तिच पंचेन्द्रिय अथवा वायु ज्यारे वैक्रिय शरीर करीने कृतकार्य (कार्य समाप्त थये) थयो छतो ते वैकियनो त्याग करतो ||२५|| ज्यारे औदारिकशरीरनी अंदर प्रवेश करवाने प्रयत्न करं स्थारे औदारिकसहित एवो वैयमिश्र योग होय ॥ २६ ॥ वळी अहिं पण मिश्रभाव बन्नेमां [बन्ने देहमां] रहेलो के तोपण (वैयिनी ) मवानतार सेने वैयिना नामधी मिश्र (क्रियमिश्र) १ भाषार्थ ए छे के औदारिकादि भवधारणीय शरीर जसकार्मणमी अपेक्षा कदाचित् उत्पत्तिबाळां दोषाथी मिश्रपणामां औदारिकादि शरीरनी मुख्यता ग्रहण करी आंदारिकमित्र क्रियमिश्र इत्यादि नाम आपवाथी कोमी लाप्ये मिश्र ? पवो मंशय रहेतो नथी. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ मुं] ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३९) (५७५) कहेलो छे, परन्तु औदारिकना नागवडे मिश्र [ औदारिकमिश्र ] कहेल नथी. ||२७|| जे माटे कारण एनाज [ क्रियनाज ] बळवडे औदारिककायमा प्रवेश होय ते कारणथी पंडित पुरुषोये वैक्रियनुंज प्रधानपशुं कहेलुं छे. ॥ २८ ॥ आहारकशरीरनी पर्याप्तिवडे पर्याप्त थयेला चौदपूर्वी मनुष्योने आहारक काययोग होय छे ।। २९ ।। बळी आहारकशरीर करीने कृतकार्य ययेला जीवने तेनो ( आहारक देहनो) त्याग करीने पोताना शरीरमां प्रवेश करतां आहारकमिश्र योग होय के ॥ ३० ॥ जे कारणथी अहिं पण मिश्रणुं बन्ने शरीरनुं तुल्य के तोपण आहारक देहना बळवडे औदारिकदेहसां प्रवेश होय के ते कारणथी एव प्रकारनो व्यपदेश थाय छे || ३१ ॥ तैजस अने कार्मण ए चे शरीर सदाकाळ साथै रहेनारां छे, तेथी ते बन्नेनो एकन तेजसकार्मण काययोग कहेलो छे ||३२|| ए योग जीवोने परभवमां त्रिगतिए जत (१-२ - ३ समय ) होय छे, अने केवळी भगवान ने समुद्यात बखते बीजो विगेरे ऋण ( बीजे-चोथे- पाँच ) समर्थ होय छे ॥ ३३ ॥ ए प्रमाणे कायाना व्यापारधी उत्पन्न येला साते योग कथा अने हवे मन अने वचनना व्यापारथी उत्पन्न थयेला चार चार योग कहुं हुं ॥ ३४ ॥ सत्यो मृषा सत्यमृषा, न सत्यो न मृषापि च । मनोयोगश्चतुर्वैवं, वाग्योगोऽप्येवमेव च ॥ ३५॥ तत्र च ॥ सन्त इत्यभिधीयन्ते, पदार्था मुनयोऽथवा । तेषु साधु हितं सत्यमसत्यं च ततोऽन्यथा ॥ ३६ ॥ पदार्थानां हितं तत्र, यथावस्थितचिन्तनात् । मुनीनां च हितं यस्मान्मोक्षमार्गेकसाधनम् ॥ ३७ ॥ स्वतो विप्रतिपत्तौ वा वस्तु स्थापयितुं किल । सर्वज्ञोक्तानुसारेण, चिन्तनं सत्यमुच्यते ॥ ३८ ॥ यथाऽस्ति जीवः सदसद्पो व्याप्य स्थितस्तनुम् । भोक्ता स्वकर्मणां सत्यमित्याविपरिचिन्तनम् ॥ ३९ ॥ प्रश्ने विप्रतिपत्तौ वा स्वभावादुत वस्तुषु । विकल्प्यते जैनमतोत्तीर्णे यत्तदसत्यकम् ॥ ४० ॥ नास्ति जीवो यथैकान्तनित्योऽनित्यो महानणुः । अकर्त्ता निर्गुणोऽसत्य'मित्यादिपरिचिन्तनम् ॥ ४१ ॥ किञ्चित्सत्यमसत्यं वा, यत्स्या > Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६) ॥ योगदारे मनोवचोयोगभेदविचारः ॥ (दार दुभयधर्मयुक् । स्यात्तत्सत्यमृषाभिख्य, व्यवहारनयाश्रयात्।४। यथाऽन्यवृक्षमिश्रेषु, बहुष्वशोकशाखिषु । अशोकवनमेवेदमित्यादिपरिचिन्तनम् ॥४३॥ सत्त्वात्कतिपयाशोकतरूणामत्र सत्यता । अन्येषामपि सद्भावाद्भवेदसत्यतापि च ।। १४ ॥ भवेदसत्यमेवेदं, निश्चयापेक्षया पुनः । विकल्पितस्वरूपस्यासद्भावादिह वस्तुनः॥ ४५ ॥ विनार्थप्रतितिष्ठासां, स्वरूपमात्रचिन्तनम् । उक्ततलक्षणायोगान्न सत्यं न मृषा च तत् ॥ ४६ ॥ यथा चैत्राद्याचनीया, गौरानेयो घटस्ततः । पर्यालोचनमित्यादि, स्यादसत्यामृपाभिधम् ॥ ४७॥ व्यवहारापेक्षयैव, पृथगेतदुदीर्यते । निश्चयापेक्षया सत्येऽसत्ये वाऽन्तर्भवेदिदम् ॥ ४८ ॥ तथाहि ॥ गौर्याच्येत्यादिसंकल्प, दम्भेन विदधीत चेत् । अन्तर्भवेत्तदाऽसत्ये, सत्ये पुनः स्वभावतः ॥ १९ ॥ सर्वमेतद्भावनीयं, वाग्योगेऽप्यविशेषतः। भाविताश्चिन्तने भेदा, भाव्यास्तेऽत्र तु जल्पने ॥ ५० ॥ एवं मनोवचोयोगाः, स्युः प्रत्येकं चतुर्विधाः । ततो योगाः पञ्चदश, व्यवहारनयाश्रयात् ॥ ५१ ।। __ अर्थ-सत्यमनोयोग-मृषा (असत्य) मनोयोग-सत्यमृषा [मिश्र] मनोयोग-अने असत्यामृषा ( व्यवहार ) मनोयोग एपमाणे मनोयोग चार प्रकारनो छे, अने वचनयोग पण ए प्रमाणेज चार प्रकारनो छे ॥३५।। स्यां संतः [सत्] एटले पदार्थ अथवा मुनिओ कहेवाय छे, तेओने विषे साधु पटले हितकारी जे मन ते सत्य, अने तेथी विपरीत ते असत्य. ।। ३६ । त्यां ( पदार्थोने ) पथार्थस्वरूपे चितववाथी (मानवाथी) पदार्थोंर्नु हित मनाय छे, अने मुनिओर्नु पण हिन मनाय छे, कारण के ( ते यथार्थ चितवन ) मोक्ष मार्गर्नु एक (मुख्य) साधन छे ॥३७॥ अथवा पोतानी मेळे अथवा विमतिपत्ति (विवाद) थये छते कोइ पदार्थनुं स्वरूप स्थापवाने . निर्णय करवाने ) माटे सर्वज्ञ कहेला - मेषं, नया' एक कडे छे के-आ पा आम छे, बीजो कहे है के नदि, आधी विरुद्ध प्रमिपत्ति तेनु नाम विप्रतिपत्ति पटले विधाइ. - Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३९) (५७७) स्वरूपने अनुसारे चितवन करई से सस्थमनोयोग ॥३८॥ जेमके सत् भने असा स्वरूपवाळो [ स्त्रद्रव्यादि अपेक्षाए सत् ने परद्रव्यादि अपेक्षाए असद एचो] जोर शरीरमा व्यापीने रहेलो छ, अने पोताना कतकर्मनो भोक्ता [ भोगवनार ] छे, इत्यादि(सत्स्वरूपाचितवन करवु ते १ सत्यमनोयोग कहेवाय. ॥३९॥ बळी मम थये छते अथवा परस्पर विरुद्धविचार (विवादोथी या स्वभावथी पदार्थाने विष [पदार्यविषयक सर्वज्ञ मतथी विपरीत विचाराय ते २ असत्यमनोयोग॥४०॥ जेमके जीव नयी-जीव एकान्ते नित्य छ वा अनित्यज छ अथवा (कायायी। म्होटो (सर्वव्यापि) छे-अथवा कायाथी न्हानो(अणुस्वरूप -श्यामाकतन्दुल प्रमाण)अकर्ता के गुणरहित के-इत्यादि जे चितवव॒ते असत्यमनोयोग कहेवाय॥४१॥ कंइक सत्प भने कांक असत्य एम जे बन्ने धर्मयुक्त होय ते व्यवहारनयनी अपेक्षाथी ३ सत्यमृषा (मिश्र)मनोयोग छे. ॥ ४२ ॥ जेम अन्य वृक्षो सहित बीमा अशोकनां घणां झाड होते छते आ अशोक वन के इत्यादि जेचितवq ने मिअंमनोयोग ॥४३॥ केटलाएक अशोकक्ष होवाथी सत्यपणुं अने बीजां वृक्षो पण होचायी । ते नहि कडेवायी) असत्यपणु पण छे. ॥ ४४ ॥ बळी निश्चयनयनी अपेक्षाए तो ए असल्पज छे का. रणके एमां विचार करेला स्वरूपवाळी वस्तुनो अभाव छे. ॥४५॥ वळी पदार्थनी (अमुक रूपे है एवं) स्थापन करवानी इच्छा विना स्वरूप मात्र- जे विचारयुं ते पूर्वे कहेला (सत्य अने असत्यना) लक्षणो नहि घटवाथी ते विचार सत्य नयी तेम असत्य पण नयी ते ४ ( असस्याऽमृषामनोयोग. ) ॥४६॥ जेम चैत्रनी पासेयी गाय मांगवी छे, तेनी पांसेयी (अथवा त्यांथी ) घडो लाववो छे, इत्पादि विचार फरवो ते असत्पामृषा नामनो मनोयोग छ ।॥४७॥ व्यवहार नपनी अपेक्षाएज ए (असत्याभूषा ) भेद जुदो गणाय छे, अने निश्चयनयनी अपेक्षाए तो ए मैद सस्यमां के असत्यमां अंतर्गत थाय छे ।। ४८ ॥ ते आ प्रमाणे-"गाय मागवानी छे" इत्यादि विचार जो दंभ-कपटवटे कों होय तो असत्पमा अंतर्गत याय, अने जो स्वभावयीज (सरळताथी) कर्यों होप तो पुनः सत्पमा अंतर्गत थाय ॐ ॥४९॥ १ अर्थात् अशोकषन कहेवामां षस्तुना यथार्थ स्वरूपनो विचार करेलो नयी माटे सत्यासत्य कषाय अने वीजा वृक्षोनो अभाष नथी मात्र अशोक भनी अधिकता होवापी अशोकमी मुख्यतार बमर्नु नाम अशोकवन कवाय एषा संस्कार पूर्वक जो " अशोकवन छ " पम चितववामां आवे तो ते सत्यममोयोग कवाय, कारण जिनेश्वरी पण पवा बनने अपेक्षा पूर्वक अशोक षन कहे थे, ने तेमने मिश्रयोग मथी. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७८) ॥योगबारे भाषावाग्योगविचारनिरूपणम् ॥ शिर ए सर्व स्वरूप षषनयोगमां कंइपण फेरफार विना विचार. अर्थात् जे [चार] मेद पियार(मनोयोग)ना संबंधमां दर्शाच्या ने (चारे भेद ) अहिं बोलवा वचननोग] ना संबंधमां विचारवा. ॥५०॥ ए प्रमाणे मनोयोग ने वचनयोग प्रत्येक चार चार प्रकारनाळे,तेथी व्यवहार नयनी अपेक्षाए १५ योग थया.॥५१ किमु कश्चिद्विशेषोऽस्ति, भाषावाग्योगयोर्ननु । भाषाधिकारो यत्प्रोक्तः, सूत्रे वाग्योगतः पृथक् ॥ ५२ ॥ अत्रोच्यते ॥ युज्यते इति योगः स्यादिति व्युत्पत्तियोगतः। भाषाप्रव. तको जन्तुयत्नो वाग्योग उच्यते ॥ ५३॥ भाषात्वेनापादिता या, भाषाहद्रव्यसंत(ह)तिः। सा भाषा स्यादतो भेदो, भाषावाग्योगयोः स्फुटः ॥५४॥ तथोक्तमावश्यकबृहवृत्तौ ॥"गिण्हइ य काइएणं निसिरइ तह वाइएण जोगेणं"ति । (गृह्णाति च कायिकेन, निसृजति तथा वाचिकेन योगेन) अत्र कश्चिदाह।। तत्र कायिकेन गृह्णातीत्येतद्युक्तं, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात्, निसृजति तु कथं वाचिकेन ?, कोऽयंवा वाग्योग ? इति, किं वागेव व्यापारापन्ना?,आहोश्चित्तद्विसर्गहेतुःकायसंरम्भ इति?, यदि पूर्वो विकल्पः स खल्वयुक्तः,तस्या योगत्वानुपपत्तेः, तथा च न वाक् केवला जीवव्यापारः, तस्याः पुद्गलमात्रपरिणामरूपत्वात्, रसादिवत् , योगश्चात्मनः शरीरवतो व्यापार इति, न च तया भाषा निस्सृज्यते, किंतु सेव निसृज्यत इत्युक्तं, अथ द्वितीयः पक्षः,ततः स कायव्यापार एवेति कृत्वा कायिकेनैव निसृजतीत्यापन्नम, अनिष्टं चैतद्, अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, इह तनुयोगविशेष एवं वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् तदभावात् . ततश्चात्मनः शरीरव्यापारे सति येन शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, येन तु कायसंरंभेण तान्येव मुञ्चति स वाचिक इति, तथा Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २४० (५७९) येन मनोद्रव्याणि मन्यते स मानस इति, कायव्यापार एवार्य व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः (सा. २४०) ॥ अर्थ-प्रश्न-भाषा अने वचनयोगमां एवो शुं कोइ तफावत छ ? के जेथी सूत्रमा भाषानो अधिकार वचनयोगधी अलग वणवेलो के ! ॥५२॥ उत्तर-युज्यते-जोडाय ने योग कहेवाय एवी व्युत्पत्तिना योगथी भापाने प्रवर्तावनारो एवो जीवनो जे प्रयत्न ते वचनयोग कहेवाय ।। ५३ ।। अने भाषापणे परिणमेली भाषायोग्य द्रव्यनी ( पृद्गलनी ) जे संहति ( समूह ) ते भाषा कहेवाय छे, ए हेतुथी भाषा अने वचनयोगनो भेद प्रगट रीतेज छे. ॥५४॥ श्री आवश्यक सूचनी बृहबृत्तिमा कर्जा ले के-" काययोगवडे ( भाषावगंणाने ) ग्रहण करे अने वचनयोगवडे बहार काहे " अहि कोश्क एवो पन करे छ के-रयां फाययोगवडे ( भाषावर्गणाने ) ग्रहण करे ने तो युक्त छे, कारणके वे काययोग आत्माना व्यापार रूपछे माटे, परन्तु वचनयोगवडे बहार काहे ते केवी रीने ?, अने वचनयोग ते !, शुं व्यापारने पास थयेली वाणी (तेज बचनयोग ?. के बहार निकळवामां निमित्तभूत कायानो प्रयल ते वचनयोग छे?, जो पथमनो विकल्प लइये के (व्याप्त थयेली वाणी) ते वचनयोग छे,तो ते विकत्य अयुक्त छे.कारणके ते वाणीने योगपणानी अनुपपत्ति छ (वाणीने योगपणु घरतुं नथी ). वळी केवळ वाणी जीवनो व्यापार नथी. कारण के ते वाणी तो रसा. दिनी पेठे मात्र पुदलपरिणामरूप छे. अने योग तो शरीरवाळा आत्मानो ग्यापार छ, अने ते दाणीवडे भाषा ( पुद्गलो) षडार नीकळे नाहि, परन्तु पाणी पोतेज निकळे छ एम पहेला कहेल छे. इवे जो बीजो पक्ष अंगीकार करीए तो ते कायानो व्यापारज हे ते कारणयी “कापयोगवडे करीने { भाषा पुगलोने ) बहार कादे" ए भाव प्राप्त थयो अने ए भार सो इष्ट नयी (माटे बचनयोग बढे बहार का एम कधु ने केवी रीते युक्त गणाय ? ) उत्तर- अभिप्राय नहिं जाणवायो, अहि तमोर कधु तेम नथी कारण के अहिं वचनयोग अने मनोयोग ते काययोग विशेषज के कारण के जो तेम न होप तो कायाना व्यापारथी शून्य ( रहिन ) एषा सिदनी पेठे तेनो (मन वचनयोगनो) काययोगना अभाये) अभाव थाय. ते कारणयो [ए तात्पर्य छे के ) आत्मानो शरीरद्वारा व्यापार प्रव] छते जेना वडे (शरीरना जे व्यापारवडे) शब्दपुद्गलोर्नु ग्रहण करे ते व्यापार काययोग कहेवाय, अने जे शरीर व्यापारवडे ने शन्दपुद्गलोने बहार काढे ते वचनयोग कहेवाय. नेवीन रीते जे शरीर Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८०) ॥ योगद्वारे पचनयोगभसातोभापामेदनिरूपणम् ॥ द्विार नमा स्नडे समजुनलोने निशर ने मनमोगा. अर्थात् व्यवहारने माटे ए काययोगज त्रण प्रकारे (भेदवाळो) ययेलो छे ते माटे "वचनयोगवटे बहार कादे") ए वात दोष रहितछे.(आ वात विशेषावश्यकभाष्यमां विशेष स्पष्ट करेलीछे.) अथ प्रसङ्गतो भाषास्वरूप वच्मि साऽपि हि। चतुर्विधोक्तन्यायेन, सत्याऽसत्यादिभेदतः ॥५५॥ सन्तो जीरादयो भावाः, सन्तो वा मुनयोऽथवा । मूलोत्तरगुणास्तेभ्यो, हिता सत्याऽभिधीयते ॥ ५६ ॥ अयं भावः ॥ मुक्तिमार्गाराधनी या, सा गीः सत्योच्यते हिता | सा तु सत्याऽप्यसत्यैव, याऽन्येषामहितावहा ॥ ५७ ॥ असत्या तु भवेझाषा, मुक्तिमागविराधनी । द्विस्वभावा तृतीयाऽन्त्या, नाराधनविराधनी ॥ ५८ ॥ उक्तं च ॥ "सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा । तबिवरीया मोसा मीसा जा तभयसहावा ॥ . ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सदो चिय केवलो असचमुसा" (सत्या हिता सतामिह सन्तोमुनयो गुणाः पदार्था वा । तद्विपरीता मृषा मिश्रा या तदुभयखभावा ॥ १ ॥ अनधिगता या तिसृष्वपि शब्दश्चैव केवलोऽसत्यमृषा) इति । (सा० २४१) अर्थ-हवे प्रसंगथी भाषानुं स्वरूप कई छु,ने भाषा पण पूर्वोक्तरीतिए निश्चये सत्य अने असत्यादि भेदयी ४ मकारनी छे । त्यां संतः एटले जीवादि पदार्थों अथवा संतः एटले मुनिओ अथवा संतः एटले मूळ अने उत्तरगुण तेभी प्रत्ये जे हितकारी भाषा ते सत्यभाषा कहेवाय छे ।।५५-५६।। तात्पर्य पछे के-मोक्षमार्गने आराधन करवा योग्य तेवी हितकारी भापा ते सत्य कहेवाय छे, परन्तु जे बीजाओने अहितकारी (मोक्षमार्गने पनिळ) पवी सत्यभाषा होय तोपण ते असल्यज छ । ५७ ॥ मोक्षमार्गने विराधवा वाळो जे भाषा ते ५ भाषानो सान्तर निरन्तर ग्रहणनिसर्ग विचार मन्द तीव्रप्रयन्नोच्चरित भाषान च्यामिस्वरूप, केटले समये लोकव्याप्ति १ विगैरे विचार प्रोविशेषा. वश्यक-प्रतापनाजी विगरे ग्रन्थोयी जाणवो. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २४२) (८१) असत्य छे, अने बे स्वभाववाळी ( मोक्षमार्गने कंइक आराधवावाळी अने कंडक विराघवावाळी ) ने बीजी (सत्यासत्य) भाषा छ, अने (मोक्षमार्गने ) न आराधवा वाळी के न विराधना वाळी एवी जे भाषा ते अन्त्यभेदवाळी (अमत्याऽमपा) भाषा छे. ॥ ५८ ॥ कधु के के–“अहिं मत्य पटले सबने हितकारी, अने सत् एटले मुनिमो-गुणो-अथवा पदार्थों जाणवा. ( ने प्रणेने जे हितकारी ते सत्य ) अने नेथी विपरीन ते असत्य, अने जे उभयस्वभाव पाळी होय ते मिश्र, अने जे भाषा एत्रणेने विषे नहि अधिकृत थयेली (अप्राम) होय परन्तु केवळ शब्दज होय ते असल्याऽमृषा जाणवी. " ॥१॥ __तत्र सत्या दशविधा, प्रज्ञप्ता परमर्षिभिः । एभिः प्रकारैर्दशभिर्वदन्न स्याहिराधकः ॥५९॥ तथाऽऽहुः ।। "जणवय १ सम्मय २ ठवणा ३ नाम ४ रूचे ५ पहुचसच्चे ६ अ । वबहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे १० अ ॥ १ ॥" [ जनपदसंमतस्थापनानामरूपप्रतीत्यसत्यं च । व्यवहारभावयोगे दशमं औपम्यसत्यं च ] ( सा० २४२ ) तस्मिस्तस्मिन् जनपदे, वचोऽर्थप्रतिपत्तिकृत् । सत्यं जानपद पिच्चं, कोकणादौ यथा पयः ॥ ६ ॥ भवेत्संमतसत्यं तद, य. सर्वजनसंमतम् । यथाऽन्येषां पङ्कजत्वेऽप्यरविन्दं हि पङ्कजम् ॥६१ ॥ तद्भवेत्स्थापनासत्य, स्थापितं तत्प्रतीतिकृत् । यथेककः पुरो विन्दुहृययुक्तः शतं भवेत् ॥६२॥अहंदादिविकल्पेन, कर्म लेप्यादिकं हि यत् । स्थाप्यते तदपि प्राज्ञैः, स्थापनासत्यमीरितम् ।। ६३ ॥ यद्यस्य निर्मितं नाम, नामसत्यं तु तद्भवेत् । अवर्धयन्नपि कुलं, यथा स्यात्कुलबद्धनः ॥६४ ॥ तत्तद्वेषाद्युपादानाद्रपसत्यं भवेदिह । यथाऽऽत्तमुनिनेपथ्यो. दा. म्भिकोऽप्युच्यते मुनिः ॥६५॥ वस्त्वन्तरं प्रतीत्य स्याहीर्घताहस्वतादिकम् । यदेकत्र तत्प्रतीत्यसत्यमुक्तं जिनेश्वरैः ॥६६॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८२) ॥ योगबारे भापाभेदस्वरूपनिरूपणम ॥ बार देय यथाऽऽनामिकाया, अधिकृत्य कनिष्ठिकाम् | तस्या एव च हार, मध्यकालधिया । यथा चैत्रस्य पुत्रत्वं, स्यात्तत्पितुरपेक्षया । पितृत्वमपि तस्यैव, स्वपुत्रस्य व्यपेक्षया । ६८ ॥ विवक्षया यल्लोकानां,तत्सत्यं व्यवहारतः ॥ गलत्यमत्रं शिखरो, दह्यतेऽनुदरा कनी ॥६९॥ भूभृत्तत्स्थतृणादीना-ममत्रोदकयोरपि । अविभेद विवक्षित्वा,लोको व्रते तथाविधं ॥७॥ संभोगबीजप्रभवो-दराभावे वदंति च । कन्यामनुदरां सत्य.. मित्यादिव्यवहारतः ॥ ७९ ॥ भावो वर्णादिकस्तेन, सत्यं तु भावतो यथा । नेकवर्णोऽपि नीलस्य, प्रवलत्वाच्छुको हरित् ।। ७२॥ स्थूलस्कन्धेषु सर्वेषु, सर्वे वर्णरसादयः। निश्चयावयवहारस्तु, प्रवलेन प्रवर्तते ॥ ७३ ॥ योगोऽन्यवस्तुसंबन्धो, योगसत्यं ततो भवेत् । छत्रयोगाद्यथा छत्री, छत्राभावेऽपि कर्हिचित् ॥ ७४ ।। हृद्यं साधर्म्यमौपम्यं, तेन सत्यं तु भूयसा । कायेषु विदितं यद--तटाकोऽयं पयोधिवत् ॥७५।। मृषाभाषापि दशधा, क्रोधमानविनिःसृता। मायालोभप्रेमहास्य-भय द्वेषविनिः सृताः ।। ७६ ॥ आख्यायिकानिःमृतातु, कथास्वसत्यवादिनः । चौर्यादिनाभ्याख्यातोऽन्य, उपधातविनिःमृता ॥ ७७॥ तथाहुः ॥ कोहे माणे माया लोभे पेज्जे तहेव दोसे य । हासे भय अक्खाइया, उवघाइया णिस्सिया दसमा ॥७८॥ (क्रोधे माने मायायां लोभे प्रेम्णि तथैव द्वेषे व ॥ हास्ये भये आख्यायिकायां उपघातितनिःसृता दशमा ॥ ) ( सा० २४३ ।। अर्थ-त्पां सत्यभाषा महामुनिओए १० प्रकारनी कहेली छे, अने ए १० प्रकारोबहे भाषा बोलतो जीव विराधक न होय ।।२९॥ ते १० प्रकार कहे लेजनपदसत्य, रसम्मत सत्य-३स्थापनासत्य-नामसत्य-९रूपमत्य-६ प्र Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %D ३१) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २४१)। (५४) तीत्य(अपेक्षा) सत्य-७व्यवहारसत्य-८भावसस्य-रयोगसस्य अने १०९ उपमासस्य ॥शाते ते देशने विभे [तेचा प्रकारना] पदार्थने ओळखावना जे वचन ते जनपदसत्य (१) कहेवाय, जेमके कुंकणादि देशमा पाणीने पिच कहेवामां आवे छ ।।६०॥ जे सर्वलोकने सम्मत (प्रमाण) थपेलं वचन के ते सम्मतसत्य (२) छे, जेम पंक कादवां जन्मवारूप पंकज पणु (घास देडका वगैरे) बोजा पदार्थोंमां छतां पण कमळनेज पंकज कहे, ॥६१।। ते वस्तुनी ओळखाण करनार जे फै। स्थापेलं होय ते स्थापनासत्य(३) कडेवाय. जेम एकडो आगळ वे बिंदुओ सहित होय तो ते सो कोवाय. [१२॥ अथवा आ अरिहंतादिक छे एवा विकल्पपूर्वक जे लेप्यादिक फर्म ( चित्रामण वगेरे वस्तु ) स्थपाय तेने पण बुद्धिमानोए स्थापना. सत्य कहेलं छै ।।६३॥ जेनुं जे नाम निर्णिन कयं तेनुं ते नाम नामसत्य [४) कहेवाय. जेमके कुछने नहि वधारता पुत्रने पण कुळवर्धन नामयी बोलावो.॥६॥ ते ते वेषादिक- ग्रहण करवायी आह रूपसत्य(५) कवाय, प्रेम धारण करेला युनिवेषवाळो दांभिक होय तोपण मुनि कहेवाय. ॥ ६५ ॥ बीजी वस्तुओने आअयिने जे लंबाइ वा म्होलाइ एकन वस्तुमा कहेवाय ते जिनेश्वरोए प्रतीत्यसत्प (६)कहेल छे ॥६६। जेम कनिश आंगळीनी अपेक्षाए अनामिका (कनिष्टा पासेनी) आंगळी दोघं कहेचाय, अने तेज [ अनामिका ] आंगळी मध्यमा आंगलीनी अपेक्षाए ह्रस्व ( टुंकी) कवाय ।। ६७ ॥ अथवा जेम तेना पितानी अपेलाए चैत्रने पुत्रपणु के, अने वेना (चैत्रना) पुत्रनी अपेक्षाए तेनेज पितापणुं पण छे. ॥६॥ लोकनो विवक्षावडे जे बोलाय छे ते व्यवहारसत्य (७), जेम वासण गळे छे, पर्वत पळे छ, कन्या पेट विनानी के इत्पादि. ॥६९॥ कारणके पर्वत अने पर्वतपर रहेला तण वगेरेनो तेमम वासण अने पाणीनो अभेद विवक्षीनेज ( वनेने एकरूप गणीने) लोको तेचा प्रकारे बोले छ ( माटे ते व्यवहार सत्य छे ). ॥७०॥ संभोग वीज बोय)धी थवावाळा (मोत्पत्तिवाळा) पेटना अभाचे कन्याने पेट विनानी कोछ इत्यादि सर्व सत्य व्यवहार सत्य छे. ॥७१|| भाव ते वर्णादि (वर्णगंध इत्यादि ) तेना बडे जे सत्य ओळखाय ते भाषसत्य [८] जेमके पोपट एक रंगवाळो नथी उतांपण लीलावर्णनी प्रकळताथी (अधिकताथी) पोपट लीला रंगवाळो कहेवाय छे ।। ७२ ॥ ए प्रमाणे सर्व बादरस्कन्धोमा निश्चययी सर्व वर्ण-गंध वगैरे छ, पण पोलबानो व्यवहार तो प्रबलपणा वडेज (जे वर्णादि अधिक होय ते विशेषवडेज ) प्रय . ॥७३।। योग एटले अन्य पदार्थनो संबंध ते संबंधथी Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८४ : ॥ योगद्वारे भाषाभेदविचारः॥ (भार (पोलातुं वचन) ते योगसत्या९)छे जेम छबना संबंधयी छत्री (छत्रवाळो) अने कोइक वखत छत्र न होय तो पण ( पहेलांनी अपेक्षाए) छत्री कहेवाय, ।। ७४ ॥ पली मनोहर एवं जे सरखापणु ते उपमर कईवाय, ते उपमावद्दे जे सस्य ते उपमासत्य (१०) छे, अने ते घ[खर काव्योमा प्रसिद्ध छे, जेमके आ तळाव समुद्र सरखं छे. ॥ ७ ॥ हवे मृषाभाषा पण दश प्रकारनी छे ते आ प्रमाणे- क्रोध२ मान-३ माया-४ लोभ-५ प्रेम-६ हास्य-७ भय-अने ८ उषयी नीकळेली ॥७६ ॥ तथा ५ आख्याथिकाची नोकळली ते कथा पसंगे असत्य बोलनारनी जाणवी, अने पोरी विगैरेना कलंकयी वीजा प्रत्ये आळ देवा (सम्बन्धी) निककेली भाषा ते (दशमी) १० उपघातयी निकळेलो उपधातभापा जाणवी. कई के के-क्रोधधी-मामयी-मायाथी-लोभथी-प्रेमधी-देषथी-हास्यथी-भयपी-आख्यायिकापी अने दशमी उपघातथी निफळेली [असत्यभाषा] जाणवो. ॥ ७७-७८ ॥ __ सत्यामृषापि दशधा, प्रथमोत्पन्नमिश्रिता १ विगतमि. श्रिता २ चान्यो-स्पन्नविगतमिश्रिता ३ ॥ ७९ ॥ जावाजीवमिश्रिते द्वे, स्याज्जीवाजीवमिश्रिता ४-५ । प्रत्येकमिश्रिता७नन्त-मिश्रिताद्धाविमिश्रिता९ ॥ ८॥ अद्धाद्धामिश्रिते१०त्यत्र, प्रथमोत्पन्नमिश्रिता । उत्पन्नानामनिश्चित्य, संख्यानं वदतो भवेत् ॥ ८१ ॥ यथात्र नगरे जाता, नूनं दशाद्य दारकाः। मृतास्तान् वदतोऽप्येवं, भवेहिगतमिश्रिता ॥८२|| एवं च ॥ उत्पन्नांश्च विपन्नांश्च, युगपद्दतो भवेत् । उत्पन्नविगतमिश्रा-ह्वयो भेदस्तृतीयकः ॥ ८३ ॥ शंखशंखनकादीनां, राशौ तान् जीवतो बहून् । दृष्ट्वाल्पांश्च मृतान् जीव--राश्युक्तोजीवमिश्रिता ।। ८४ ॥ तत्रैव च मृतान् भूरीन् , दृष्ट्वा स्वल्पांश्च जीवतः । अजीवराशिरित्येवं, वदतोऽजीवमिश्रिता ॥ ८५ ॥ एतावन्तोऽत्र जीवन्त, एतावन्तो मृता इति । तत्रानिश्चित्य वदतो जीवाजीवविमिश्रिता । ८६॥ अनन्तकायनिकर, दृष्ट्या Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥ श्रीलोकमफाशे तनीयः सर्गः (सा० २.५३) (५८५) प्रत्येकमिश्रितं । अनन्तकायं तं सर्व, वयतोऽनन्तमिभिता ॥ ८७॥ एवं प्रत्येकनिकर-मनंतकायमिश्रितं । प्रत्येकं घदतः सर्व, भवेत्प्रत्येकमिश्रिता ॥ ८८ ॥ अद्रा कालः स च दिनं, रात्रिर्वा परिगृह्यते। यस्यांशमिश्रिता साद्धा-मिश्रिता जायते यथा ।। ८९ ॥ कश्चन त्वरयन् कश्चिद्वदेदुत्तिष्ठ भो लघु ।रात्रिर्जातेति दिवसे, रात्रौ च रविरुद्गतः ॥९०॥ अद्धाद्धा खेकदेशः स्या-- द्रात्रेर्वा दिवसस्य वा ॥सा मिश्रिता ययाऽद्धाद्धामिश्रिता सा भवेदिह ॥ ९१॥ कश्चिद्यथाद्यपौरुष्यां, कचन त्वरयन् वदेत् । स्वरस्व जातो मध्यान्ह, एवमेव निशास्वपि ।। ९२ ।। अर्थ:-हये सत्यासत्यभाषा पण १० प्रकारनी छे, नेमा हलो उत्पन्न मिश्रित, पीजो विगतमिश्रितर, त्रीजी उत्पविगतमिश्रित ॥७९॥ जीवमिश्रित:-अजीपमिश्रित:- जीवाजीवमिश्रितद-प्रत्येकमिश्रित-अनंतमिश्रित८-अने (नवमी) अदामिश्रित छ, ॥ ८० ॥ तथा अदादामिश्रित १०. ए प्रमाणे अहिं ( १० प्रकार छ ) त्यां उत्पन्न थयेलाओनी संख्यानो निर्णय कर्यापिना बोलनारने प्रथम उत्पन्न मिश्रित (नामनी मिश्र भाषा) छे. (१)।। ८१ ॥ जेम आ नगरमा आजे निधय १० वाळको जनम्या ( प उत्पन्न मिश्रित ? भापा ) नेमज तेओने ए प्रमाणे (निर्णयविना) मरेला बोलनारने ( भाजे १० बाळको मरण पाम्या एम बोलनारने) विगत. मिश्रित नामनी मिश्रभाषा [२] होय, ॥ ८२ ॥ वळी ए प्रमाणे उत्पन्न थयेला अने मरण पामेलाभोने समकाळे बोलनारने उत्पन्नविगतमिश्र नामनो चीजो भेद [३] होय छे. ॥ ८ ॥ जेम श ( मोटा शक) अने शानक(ग्व) (क्षुद्र नाना शङ्क) वगैरेंना बगलामां नेओने घणा जीवता अने थोडा मरेला देखीने आ जीवराशि छे एम कहेवामा जीवमिश्रित भाषा ( ) जाणवी. || ८४ ॥ पळी तेज गलामां प्रणाओने मरेला अने थोडाओने जीवता जोइने आ अनोवराशि छे एम बोलनारने अजीवमिश्रित नामनी मिश्रभाषा (4) जाणवी. ॥ ८५ ।। वली तेज ढगलामा निर्णय कर्याविना आटला मरेला छे ने आटला जीवता के एम बोलनारने जीवाजीवमिश्रित नामनी मिश्रमापा (६) जाणवी. Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) ॥ योगदार भाषाभेदविचार मिश्रभाषाभेदविचारः ॥ (हार ॥ ८६ ।। वळी प्रत्येक जीवो सहित अनन्तकायनो ढमलो देखीने ते सर्वने आ अनन्तकाय छे एम बोलनारने अनंतमिश्रित माषा [७] छे. ॥८७॥ ए प्रमाणे अनन्तकाय सहित प्रत्येक जीवनो राशि जोइने सर्वने आ प्रत्येक राशि छे, एम पोलनारनी प्रत्येक मिश्रित भाषा (८) छे, ॥८८ ॥ अद्धा एटले काळ अने से दिवस अथवा रात्रिरूप ग्रहण कराय छे. तेमां जेनो (जे काळनो ) अंग मिश्रित होय ते अद्भामिश्रित भाषा (१) थाय छे. 1८९|| जेम कोइक माणस कोइने जलदी करतो घोले के हे भाइ ! जलदी ऊठ रात्रि पढो एम दिवसे बोले, अने रात्रे ( रात्रि छतां ) मूर्य उग्यो ( माटे जलदी ऊठ) पम पोले ( ते अद्धामिश्र भाषा (९) छे.)॥ ९० ॥ अद्धादा पटले रात्रिनो अथवा दिवमनो एक भाग, जे वडे (जे भाषा बहे ) ते ( भाग रूप भदादा ) मिश्रित थयेली होय ने अर्हि अद्धाद्धामिश्रित भापा (१०) जाणवी. ॥९॥ जेम कोडक पुरुष पहेला महरमां पीजा कोइ पुरुपने जलदी करतो कहे के तुं उतावळ कर कारणके मध्याह्न थयो, ए प्रमाणे रात्रिने विषे पण [ मध्य रात्रि थइगइ ] कई ( ते अदादामिश्र भाषा ) छे. ॥ १२ ।। आ प्रमाणे मिश्रभाषाना १० भेदस्वरूप कथु, या त्वसत्यामृषाभिख्या, भाषा सापि जिनेश्वरैः । प्रज्ञप्ता द्वादशविधा, विविधातिशयान्वितैः ॥ ९३ ॥ आमन्त्रण्याज्ञापनी च, याचनी प्रच्छनी तथा । प्रज्ञापनी प्रत्याख्यानी, भाषा चेच्छानुकूलिका ॥ ९४ ॥ अनभिगृहीता भाषा-भिगृहीता तथा परा । संदेहकारिणी भाषा, व्याकृताव्याकृता तथा ॥९५ ।। हे देवेत्यादि तत्राद्या, द्वितीया त्वमिदं कुरु। तृतीयेदं ददस्वेति, तुर्याज्ञातार्थनोदनं ॥ ९६ ॥ पञ्चमी तु विनी. तस्य, विनेयस्योपदेशनं । यथा हिंसायां निवृत्ता, जंतवः स्युश्चिरायुषः ।। ९७ ॥ उक्तं च ॥ पाणिवहाओ नियत्ता, हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाइ पन्नत्ता; पन्नवणी बीयरायेहिं ॥ ९८ ॥ [प्राणिवधान्निवृत्ता भवन्ति दीर्घायुषोऽरोगाश्च । एवमादि प्रज्ञप्ता प्रज्ञापनी वीतरागैः ] ( सा० २४४ ) षष्ठी Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ( सा० २४४)|| (५८७) तु याचमानस्य, प्रतिषेधात्मिका भवेत् । सप्तमी पृच्छतः कार्य, स्वीयानुमतिदानतः ॥ ९९ ।। कार्य यथाऽऽरभमाणः, कश्चित्कंचन पृच्छति । स प्राहेदं कुरु लघु, ममाप्येतन्मतं सखे ! ॥ १४०० ॥ उपस्थितेषु बहुषु, कार्येषु युगपद्यदि । किमिदानीं करोमीति, कश्चित्कञ्चन पृच्छति ॥१॥ स प्राह सुन्दरं यत्ते, प्रतिभाति विधेहि तत् । भाषाऽनभिगृहीताख्या, सा प्रज्ञप्ता जिनेश्वरैः ॥ २॥ अभिगृहीता तत्रैव, नियतार्थावधारणम् । यथाऽधुनेदं कर्तव्यं, न कर्त्तव्यमिदं पुनः ॥ ३ ॥ अनेकार्थवादिनी तु, भाषा संशयकारिणी । संशयः सि(सैन्धवस्योक्तौ, यथा लवणजिनोः ॥|| व्याकृतातुभवेद्भाषा, प्रकटार्थाभिधायिनी । अव्याकृता गभीरार्थाऽथवाऽव्यक्ताक्षराञ्चिता ॥५॥ आधास्तिस्रो दशविधास्तुर्या द्वादशधा पुनः । द्विचत्वारिंशदित्येवं, भाषाभेदा जिनेः स्मृताः ॥ ६ ॥ स्तोकाः सत्यगिरः शेषास्त्रयोऽसङ्ख्यगुणाः क्रमात् । अभापकाश्चतुभ्योऽपि, स्युरनन्तगुणाधिकाः॥७॥ इति योगाः ॥३१॥ ___ अर्थः-वळी जे असल्यामृषा नामनी भाषा छे ते पण विविध प्रकारना अतिशयषाळा जिनेश्वरोए १२ प्रकारनी कही छे, || १३ ॥ (ते आ प्रमाणे-) आमन्त्रणी-आज्ञापनी-याचनी-पृच्छनी-तथा प्रज्ञापनी प्रत्याख्यानी भाषा वळी इच्छानुकूल-अनभिगृहित भाषा नथा वोजी अभिगृहीता-संदेहकारिणी भाषा--तथा व्याकृत अने अव्याकृत भाषा (ए १२ प्रकार छे.) ।।९४-९५॥ ल्य हे देव ! इत्यादि (सम्बोधन वचनो) रहेली (आमंत्रणी) भाषा (१,तुं आ कर इत्यादि वोजी (आज्ञापनी भाषा (२), आ वस्तु, मने आप इत्यादि वीजी (पाचनी ) भाषा (३), अने अजाण्या अ. थनी मेरणावाळी ( अजाणी वात पूछवा रूप ) चोथी ( पृच्छनी) भाषा(४) के. ॥ ९६ ॥ अने विनयवान् शिष्यने जे उपदेश अपाय जेम के -" हिंसाथी निवृत्त ययेला माणीयो दीर्घ आयुष्यवाळा थाय छे" ने पांचमी (प्रज्ञापनी) भाषा [4] Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८८) [बार छे ।।९७|| कई छे के- “प्राणी वघयो विराम पामेला जत्रो दीर्घ आयुष्यवाळा अने निरोगी होय छे, इत्यादि भाषा वीतराग भगवाने प्रज्ञापनी नामनी कहेली छे " ||१८|| वळी मारनारने निषेध करवारूप भाषा छट्टो ( प्रत्याख्यानीनामनी) (६) छे, अने कार्य पूछनारने पोतानी सम्मति आपदाथी सातमी ( इछाम (कुल) नामनी) भाषा ( ७ ) . ॥९९॥ जेम कार्यने आरम्भ करतो कोइ पुरुष कोइकने पृछे, तो ते कहे के हे मित्र ? आ कार्य शीघ्र करो, गारे पण ए कार्य सम्मत (इष्ट) छे, (इच्छा(मेमो भाषा) के || १४००॥ ज्यारे एकी वखते घणां कार्य आवी पडे त्यारे हवे कयुं कार्य करु? एम कोक पुरुष कोइकने पृळे ॥ १४० १ तो ते कहे के तने जे ठीक लागे ते कर, एम कहे ते अनभिगृहीस नामनी भाषा ( ८ ) जाणवी ।। १४०२ । अने एज सम्बन्धमा निर्णय करेला कार्यने दर्शानवा चाळी, जेम हालमा आ कार्य कर अने आ कार्य न करतुं ( एम कहेवारूप ) अभिगृहीता नामनी भाषा [ ९ ] जाणवी || १४०३|| वळी जे भाषा अनेक अर्थ वा वाळी होय ते संशयकारिणी भाषा (१०) ले, जेम सैंधव कहेवामां लूण अने घोडानो संशय याय (कारणके " संघव " शब्दनो अर्थ ऌण विशेष अने घोडा ए बन्ने थाय . ।। १४०४ ॥ वळी जे भाषा स्पष्ट अर्थने कहेवावाळी होय ते व्याकृत भाषा (११), अने गम्भीर अर्थ अथवा अस्पष्ट अक्षरवाळी ते अव्याहन भाषा [१२] वाय. ॥१४०॥ ए प्रमाणे पहेली ऋण (सत्य-असत्य - ने मिश्र) भाषा दश दश दवाळी अने चोधी (व्यवहार) भाषा १२ मे ते सर्व मन्त्री भाषाना ४२ भेद श्री जिनेश्वरोए कहेला छे ॥ १४०६ ॥ वाळा जीवो सर्वश्री अल्पं ले, अने शेष ऋण भाषावाला अनुक्रमे अने चारथी पण अभाषक ( एकेन्द्रियने सिद्ध मळीने सर्व जीवो अनन्तगुणा अधिक छे. (११४०७॥ ए प्रमाणे योगद्वार कधुं ॥ इति योगद्वारम् ||३१|| ॥ योगभेद यन्त्रकम् ॥ || योगद्वारे भाषावाग्योग विचारनिरूपणम् ॥ -- १ सत्यमनोयोग असत्यमनोयोग मनोयोग भेद ४ सत्यवचन योग असंख्यगुणा है, ३ मिश्र ( सत्यासत्य ) मनोयोग ४ व्यवहार (असत्यामृपा) मनोयोग Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३ ४ ५ १४] || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २४४ ) वचनयोग भेद ४ प्रतिभेद ४२ (१) सत्य वचनयोग (१०) देशसत्य वचनयोग. सम्मत सत्य वचन स्थापना सत्य वच० नाम सत्य वच रूप सत्य वच० او ? क्रोधनिःसृत वच० २ मान निःसृत वच० ३ माया निःसृत वच० ४ लोभ निःसृत वचः ५ प्रेम निःसृत वच० १ आमंत्रणी वच० २ आज्ञापनी वच ३ याचना वच० ४ पृच्छना चच० ५ प्रज्ञापन वच० ६ मत्याख्यान वच० ? उत्पन्न मिश्रित बच० २ विगत मिश्रित वच० २ उत्पन्न विगत मिश्रित वच० ४ जीवमिश्रित बच" अजीव मिश्रित बच ६ प्रतीत्य सत्य चच० G व्यवहार सत्य चच० भाव सत्य वच० योग सत्य वच० १० उपमा सत्य वच० (२) असत्य वचनयोग (१०) ረ ९ ६ हास्य निःसृत वच ७ भय निःसृत वच० ८ द्वेष निःसृत वच० ९ आख्यायिका निःसृत वच० १० उपघात निःसृत वच० (३) मिश्र वचनयोग (१०) जीवाजीव मिश्रित बच० प्रत्येक मिश्रित वचः अनंत मिश्रित वच० ५ अद्धा मिश्रित बच १० अद्धाद्धा मिश्रित वच० ७ ८ (४) व्यवहार वचनयोग (१२) ७ इच्छानुकूलिक वच० ८ अनभिगृहित वच० ९ अभिगृहित वच० संदिग्ध वच० ११ व्याकृत वच० १२ अव्याकृत वच १० (५८९) Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ur D (५९०) ॥ योगदारे भाषामेदस्वरूपनिरूपणम् ॥ (हार, काययोग ७ १ औदारिकमिश्र फाययोग | ४ वैक्रिय काय. ५ २ औदारिक काय आहारकमिश्र काय ६ आहारक काय० ३ वैक्रियमिश्र काय. | ७ तैजसकामण काय के के जीवाः कियन्तः स्युरितिदृष्टान्तपूर्वकम् । निरूपणं यत्तन्मानमित्यत्र परिकीर्तितम् ॥८।। ३२ । परस्परं कतिपयसजातीयव्यपेक्षया । वक्ष्यते याऽल्पबहुता, साऽत्र ज्ञेया कनीयसी ॥ ९ ॥ ३३ । भूयांसो दिशि कस्यां के, जीवाः कस्यां च केऽल्पकाः । एवरूपाऽल्पबहुता, विज्ञेया दिगपेक्षया ॥१०॥३४ । प्राप्य पृथ्व्यादित्वमङ्गी, जघन्योत्कर्षतः पुनः । कालेन यावताऽऽप्नोति, तद्भावं स्यात्तदन्तरम् ॥ ११ ॥ ३५ । विवक्षितभवात्तुल्येऽतुल्ये च यद्भवान्तरे । गत्वा भूयोऽपि तत्रैव, यथासंभवमागतिः ॥ १२ ॥ जघन्यादुत्कर्षतश्च, वारानेतावतो भवेत् । इत्यादि यत्रोच्यतेऽसौ, भवसंवेध उच्यते ॥ १३॥ ३६ । सर्वजातोयजीवानां, परस्परव्यपेक्षया । वक्ष्यते याऽल्पबहुता, महाल्पवहुताऽत्र सा ॥ १४ ॥ ३७ । भवतु सुगम द्वारेभिः सदा- --- गमशोभनेनगरमिव सश्रीकं जीवास्तिकायनिरूपणम् । विमलमनसां चेतांसोह प्रविश्य परां मुदं, दधतु विविधैरथैर्व्यक्ती. कृतेश्च पदे पदे ॥१५॥ हरिणी ॥ विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गों निगलितार्थसार्थसुभगः पूर्णस्तृतोयः सुखम् ॥ १६ ॥ ॥ इति श्रोलोकप्रकाशे तृतीयः सगः समाप्तः ।। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. श्री ३७ ॥श्रीलो पारो नृतीपः सर्गः ॥ [सा० २४४] (५९१) ३२ मानसारम् ॥ फया कया जीवो केटला छ ? एम दृष्टान्त पूर्वक जे निरूपण कर ते अहिं मान (प्रमाणद्वार) कहेलं छे. ॥ १४०८ ।। ३ अल्पबहखद्वारम् ॥ बळी परस्पर केटलाक स्वजातीय जीवोनी अपेक्षाए जे अल्पबहुन्व आगळ कहेवाशे ने लधु अल्पषहुत्व. ॥ १४०० ।। १४ दिगल्पचहत्वद्वारम् || फया जीवो कइ दिशिमां पधारे ? अने फया जीवो कइ दिशिमा अल्प होय ? एवा प्रकारचं जे अल्पवहुन्व कहेयं ते दिशानी अपेक्षाए अल्पबहुन्च (दिश्यल्पयन्व ) कहेवाय. ॥ १.४१० ।। ३५ अन्तरवारम् ।। जीव पृथ्वीकायादिपण पामीने पुनः जेटला जपन्य वा उत्कृष्ट काळे ने भाव (पृथ्वीकायादिपणु) पामे ते अनतर कवाय १४११॥ ३६ भवसंवेध द्वारम || विवक्षित ( अमुक ) भवमाथी चोजा तुल्य (नेज) वा अनुल्य (भिन्न। भवमा जइने पुनः पण तेन भवमा यथायोग पणे जघन्यथी वा उत्कृष्थो आटलीबार आगमन थाय इत्यादि स्वरूप जेमा कवाय ले ने नवसंवेध कहवाय. ॥ १४१२-१४१३ ।। ३७ महाल्पयन्वहारम् ॥ सर्व जातना जीवोमां परस्परनो अपेक्षाये (सर्व जीव मेदोनुं समुदाय पणे ) जे अल्पवहुत्व कहेवाय ते अदि महाऽल्पवह त्व कहेवाय. ।। १४१४ ॥ ( आ प्रमाणे सर्व प्रारोन स्वरूप का) शोभा [लक्ष्मी] युक्त नगरनी जेम जीवास्तिकायनुं निरूपण उत्तम आंगमे करी मनोहर आ (उपर बतायेल ३७) द्वारोये करी मुखे गम-ज्ञान था (मुख पामवा-समजवा ) लायक थाओ, आ जीवास्तिकायनिरूपणरूप नगरमा निर्मळ मनवाला (विधानो-अकलुपित-नीतीमंपन्न जीरो) ना अन्तःकरणो प्रवेश करीने पदे पदे (पगले पगले) स्पष्ट कराएल विविध पदार्थोबडे उत्कृष्ट हर्षने धारण करो १जीवास्तिफायनिरूपण पक्षमा यथार्थ सकल जोधोना स्वरूपायोधरूप ज्ञानलकमी, नगरपक्षमा म्यादिलमो. २ जीवास्तिकाय निरुपणपक्षमा उत्तम मिद्धान्तमालिओथी मंदर अथवा उसम प्रकारना लाने की मनोहर एषा उपर बनायेला ३७वागेरूप दरवाजा, नगरपक्षमा उत्तम पुरुषांना आपाप करी सुंदर अधश उत्तम रीते (कोष जातनी अभ्यायादि पोडा न थाय तेथी रीने ) अपq जव अमाथी चाय तेषा मनोहर दरवाजा. __ ३ जीवास्तिकायनिरूपणपक्षमा सुखे करी जाणवु, समजवं. पाम, नगर पामा मथु, पाम. यस. विगरे. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (592) ॥तृतीयसर्योपसंहारः || (छार / [जेम सुखे जवा लायक उत्तमनगरमा न्याययुक्त जीवोना अन्तःकरणो प्रवेश करी ने स्थाने स्थाने स्पा थवेल ] (कोरपण अन्याय पामे नहि तेवा खल्ला थयेल) जुदी जुदी मातना पदार्थोवडे हर्प पामे छे तेम आ जीवास्तिकानिरूपणमा पग , विद्वानोना अन्त:करणो पेसीने स्थाने स्थाने स्पष्ट करेला विविध पदार्थोबडे , उत्कृष्ट आनन्दने पामो विश्वने आश्चर्य पमाडनारी कीर्तिवाळा श्रीज्ञानादि लक्ष्मी (शोभा ) युक्त वाचकोना इन्द्र पटले उपाध्यायमा अग्रेसर श्रीकिनिविजय महाराजना शिष्य अने (सांमारिक सम्बन्यथी) राजश्री माताना पुत्र अने श्रीतेजपाल पिताना पुत्र,श्रीविनयविजयजी उपाध्याय महाराज निश्पथी जे काव्य विस्तारता [रचता हवा, ते निश्चय करेलु जे जगत् तेना पदार्थों अथवा निश्चित थयेल्या एका जगतना पदार्थों दर्शाववाने दीपक समान अथवा जगनना नवोने प्रकाश करवार्मा निश्चल [अवाधिन] दीपक समान आ काव्यमा सिहान्तमाथी साररूपे मरेला अर्यसमूहबडे सौभाग्यवाळो (भव्यजोकोने व्हालो लागतो) आ श्रीजो सर्ग सुखे करीने समास थयो. // 16 // PraminishIHINICHNAIK Imaanwlodm AIMIMILIMSIMHINIDANIMKINMHARTIMIRHITalkafelamveduaranMarg ए पीयूषप्रतिमोपदेशप्रतियोधिताफम्यरनरपत्युदरोपिताहिसासत्क-अनादिसं. 0 सिरश्रीजेनसङ्घसत्ताकधीशत्रुञ्जयादितीर्थायत्ततोद्धोषणासत्कप्रदत्तस्फुरन्मानादिसन्मानसमलत-जगद्गुरुविरुदधारक-महाप्रभावधीतपागच्छाचार्यभ- हारकधीविजयहोरमूरीश्वरशिप्यमहोपाध्यायधीफिनि विजयगणिविनयावतंसनानाविधमन्धमन्दोहप्रणयनलब्ध यशाकीनिधवलीकृतदिङमण्डल महोणध्यायधीविनयविजयगणिविरचितम्य-न्याद्यनुयोगमयसिद्धान्तशास्त्रसमूहसंपादिनभ्य-नादुपनिषद्भुनस्य-निग्विालनत्यप्रकाशनैकरवृत्तिनिमिनस्य-द्रव्य-क्षेत्र. काल-भावेनिचमुर्विभागोपलक्षितस्य लोकप्रकाशाभिधेयस्याम्य ग्रन्थम्गादिमविभागमपे द्रव्यलोकप्रकारे शास्त्रतत्त्वप्रदर्शकानचित्रविस्तृनविशेषविवाग लकृतगुर्जग्भागनुवादविभूगिताऽर्य // तृतीयः सर्गः समाप्तः // / TALA PuneHinpaleu. 3 MARRIATE: Man B urmedam arefouk : Irenealrungus: rintenary போயே.FICIrelur RICurmyngumILISAITHIEFrieurNICIAII:III RENAISEITHI யாராவgalin ure மாHINEயா तृतीयमर्ग / चारैः सप्तत्रिशना पैसक्काः ममारिणोऽशिनः // निकपः / संगें तनीयके नेगं, द्वागणामनियिस्तृतिः | 1 ||