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________________ २६९) ॥ श्रीलोकपकाशे तृतीयः सर्गः ।। [सा० २१२) (४५१) अर्थ-वे अवधिज्ञानना स्वपर्यायो यतावे छे, क्षयोपशम निमित्तथी यवावाल, भनिमित्तथी थवावालं विगेरे भेदोथी, १.तिर्यंच-नारकी-देवता अने मनुस्य विगेरे स्वामि (अवधिज्ञानवाला जीव ) ना भेदयी. २. अनन्तभेदवाळा पोताना (अवधिज्ञानना) विषयरूप द्रव्य अने पर्यायोना भेदयी ३-(१) अने असंख्य मेदवाळा पोताना (अवविज्ञानना विषयरूप क्षेत्र अने काळना मेदयो ३(२)जे अवधिज्ञानना अनेक पकारना भेदो के ते सर्व अवधिज्ञानना स्वपर्यायो छे अने आ रीते ने सर्वपर्यायो जेना विभागो न पाही काय तेवा विभागोए करी अनन्ता होय छ. ॥ ३३-३४-३५-३६ ॥ ए प्रमाणे मनापर्यव तथा केवलज्ञानना पण (पोताना) निर्विभाज्य अंशोवडे आ. बागि कोरेगा यी रग ( अनन्त अनन्त स्वपर्यायो जाणवा,) ॥ ३७॥ तेमज अनन्त द्रष्य-पर्यायना झानयी पण अनन्त स्वपर्यायो जाणवा. ए रीने प्रणे अज्ञानमा एण अनन्त अनन्त स्वपर्यायो जाणवा. ॥३८॥ अने परपर्यायो तो सर्वज्ञानोमां पूर्वोक्त रीते जाणवा. ए आठे ज्ञान स्त्र अने परपर्यायनी अपेक्षाए परस्पर तुल्य छ, अने आगळ जे अल्पबहुत्व कहीश ते स्वपर्यापोनी अपेक्षाए समजवं. ।। ३९ ॥ आठे ज्ञानना पर्यायोगें १ मही अवधिमानना त्रण प्रकारे भेदो पढे छे ते बतायु छ, र निमितभेदयी, २ म्यामिभेदशी, ३ विषयभेश्यो. १ मनुष्यत्तियचोने क्षयोपशम निमित्तथी चतुं तथा देवता नारकीने भवप्रत्ययिक पतु अवधिमान २ स्वामिभेदयो अवधिशाषन्त सारे गतिमा ओधोना भेदयी,३ विषयभेदयी व्यथी वधिना विषयभूत सर्वतव्य मळी अनन्त द्रव्यरूप द्रव्यभेदोथी, क्षेत्रयी भवधिज्ञानमा विषयमूत प्रध्यनो अवगाहमाघाळा असंख्यात क्षेत्रभेदोथो, कालपी असंख्यात कालभेदीथी, भाषयो अधिनाविषयभूत सर्व मळी अनन्त पर्यायरूप पर्यायभेदोथी यता अवधिज्ञानना भेदो तेमज क्षयोपशमनी तरतमता मथा बि. मित्रता योगे पडता आनुगामिकादिभेदो, देशावधि सविधि आदि भेदी, सम्बद्ध असम्बद्धादि भेदो, तीत्रमन्दादि भेवो विगेरे अनेकपकारना अवधिनाममा भेदो ते सर्व अवधिज्ञानना स्वपर्यायो कठेवाय छे. २ मनःपर्यवमानना स्वविषयभूत द्रव्य अने पर्यायभेदथी अनन्त स्थाविषयभूत क्षेत्रकालना भेषधी असंख्य, अने निर्षिभाज्य अंशोवढे अनन्स स्वपर्याय छे. ३ केवळज्ञानना स्थविषयभूत प्रध्य क्षेत्र-काळ अने पर्याय भेदथी अनमत, स्वामिभेदथी पण अनन्त भने निर्विभाज्य अंशोध पण अनन्त स्वपर्याय छै. * मतिज्ञानमा में परपर्यायोन स्वरूप बतायु छ ते प्रमाणे ४ आठे शानोनी स्वपर्याय अने परपर्याय संख्या भंगी करता मरवाळ संपनी संख्या सस्य छ, से आ प्रमाणे कल्पित संख्याप्रमाणथो जाणवू.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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