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________________ (४५२) || ज्ञानद्वारे ज्ञानपर्यायाणां अल्पबहुत्वनिरूपणम् ॥ (द्वार अल्पबहुत्व- त्यां मनः पर्यवज्ञानना स्वपर्याय सर्वथी अल्प छे, कारण के ए ज्ञान मात्र एक मनोद्रव्यनाज विषयवा छे, ॥ ४० ॥ बळी तेथी विभङ्गज्ञानना पर्यायो अनन्तगुणा छे, कारणके मनोज्ञानना विषयनी अपेक्षार विभङ्गज्ञाननो विषय मोटो छे. ॥ ४१ ॥ कारणके ऊर्ध्व अने अधःक्षेत्रमां नवमाद्यैवेयकथी प्रारम्भोने नीचे यावत् सातभी नरकपृथ्वी सुश्री अने तिर्यक दिशामा असंख्य दीपने समुद्र सुधिमां एटला क्षेत्रमां रूपि द्रव्योने दरेक द्रव्यना केटलाक पर्यायने ते ( विभङ्गज्ञानी ) जाणे छे, माटे मनः पर्यवज्ञानमा विपयनी अपेक्षाए ते ( विभङ्गना ज्ञेयपदार्थो ) अनन्तगुणा छे, (तेथी ज विभंगना स्वपर्यांयो मनः पर्यवज्ञानना स्वपर्ययो करतां अनन्तगुणा के ) ।। ४३ ।। ( अवधिज्ञानी ) सर्वरूपि द्रव्योने अने दरेक द्रव्यना असंख्य असंख्य पर्यायाने जाणे छे. माटे विभनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना स्वपर्याय अनन्तगुणा छे. ॥४४॥ ते ( अवधिज्ञानना स्वपर्यायो ) करता श्रुतअज्ञानम स्त्रप अनन्तगुण छे. कारण के अत अज्ञान सर्वरूपी अरूपी द्रव्य अने सर्वपर्यायना पियवा छे, ॥ ४५ ॥ तथा अज्ञानता विषयमां नहिं आवता एवा केलाएक farer श्रुतज्ञाना विषयवाळा होवाथी अने जाणवामां विशेष स्पष्टपणु होवाथी श्रुतज्ञानना पर्याय ते श्रुतअज्ञानना पर्यायोथी विशेषाधिक (मणाथी पन ) जेटला - परयो मतिज्ञानमा सेटलाज श्रुतज्ञान वगेरेना पण जाणत्रा, जेम कल्पमाथी मतिज्ञानना ४० पर्याय अने ६० परपथ महीने १०० पर्याय छे, तो श्रुतज्ञानमा ३० स्थपर्याय अने ७० परपर्याय पळी १०० सर्वपर्याय इत्यादि रीते शेष ज्ञामो पण सो सो पर्याय आणषा मनुं कारण पछे के एक विवक्षित ज्ञानमा स्वपर्यायों शिवायभा बीजा सर्वज्ञानमा स्व-पर्यायी से विचक्षितज्ञानना परपर्यायो छे अने ने पर पदार्थमा पर्यायो ते पण शिवक्षित ज्ञानना परपर्याय कडेघाय. जेथी सरवाळे दरेक कामना स्व-पर पर्यायां मलीने सरखी संख्यापण आषी रहे – अथवा जगत्‌मां जेटला सर्वपर्यायी मांथी विवक्षित ज्ञानमी स्वपर्यायी बाद करतां शेष सर्व ते विवक्षितज्ञानना परपर्याय काय पटले स्ष अने पर भंगा करता सर्वना सरखा ले. १ वस्तुतः श्रुतअकान सर्व द्रव्य अने केलापक पर्यायता विषयचा छे, छतां अहिं सर्वद्रव्य ने सर्वपर्यायमा विषयवा कधुं से अज्ञानी जीव जेटलां भ्रष्य अने जेटला पर्याय जाणे तेटळानी अपेक्षापण सर्व शब्द जोडधो उचित छे. " मतिश्रुतयोर्नियग्धः सर्वद्रव्येष्वसर्षपर्याय " [ तत्वार्थ अ १ ०२७] सूत्रमां मतिश्रुतज्ञाननो विषय सर्व द्रव्य अने असर्व पर्यायो कमा को भने नन्दिवादिमां जे सर्व पर्यायो का छे ते अभिलाप्यपययोनी अपेशाये सर्व शब्द ग्रहण कर्यो छे. अगर भाव शब्दे और विकादि सर्व भाषी लेषा.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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