SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ च भागा-धिपेन देपावसरेऽचितस्त्वम् ॥ २ ॥ यदा अरासन्धप्रयुक्त विद्या-लेन जात स्वबलं जरानम् । तदा मुदा नेमिगिरा मुरारिः, पातालतस्त्वां तपसा मिमाय ॥ ३॥ नव प्रभो ? स्तात्रअलेन सिक्त, रोगैर्विमुक्तं कटकं बभूष । संस्थापितं तीर्थमिदं तदानी, शंखेश्वराख्यं यदुपुगवेन ॥ ४॥ तथा कथंचितव चैत्यमत्र, श्रीकृष्णराजो रचयांचकार । स द्वारकास्थोपि पथा भवन, ननाम नित्य किल समभाषम् ॥५॥ श्रीविक्रमान्मन्मथयाणमेरु-महेशतुल्ये समये व्यतीते । स्वं श्रेष्ठिना सजननामकेन, निवेशितः सर्वसमृद्धिवोऽभूः।। ६ ।। झंझपुरे सूर्यपुरोऽनवातं, स्व. सोऽधिगम्यागमनङ्गरूपम् । अधीकरबुर्जनशल्यभूपो,विमानतुल्यं तव देव ! वैत्यम् ॥ ७ ॥" महा प्रभावशालि श्रीशसेश्वर पार्श्वप्रभुना नामस्मरण मात्रथी सर्वे महाभयोना नाशनी साथै सर्व समृद्धिओनी प्राप्ति थाय छे. बहोळे भागे अनेक प्रभाषक आचार्याये मानेश्वर मनिश मानी शमभातमा मंगलाचरण करेलु छे तेम ज जे प्रभुनी भक्ति निमित्ते अनेक अतिशायि स्तोत्रो. स्तवनो, छन्दो विगेरे करेला छ जे अन्यारे घणाज प्रसिद्ध है. ते प्रभुनो नमस्कार अवश्य सफल विनोमो नाश करवापूर्वक प्रन्थ समामिनुं परम कारण छ, '11 __ आटले सुधी परमात्मानी स्वार्थ सम्पत्तिनु वर्णन कर्यु. हषे सेज प्रभुनी परार्थ मंपत्ति श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज तायिने प सुंदर विशेषणे वर्णवे छे. 'नायिने'रक्षा करनारा, प्रभुनी क्रिया, प्रभुनो उपदेश, प्रभुनु व्यान केवळ दयामांज प्रवर्नतुं होषाथी यथार्थ रक्षयिता प्रभुज है. प्रभु पोतेज अनुपम सुख पाम्या के नेटलज नधी, वीजामओने पण अपूर्व बोध देशना आपी हेज सुननी सन्मुखताये लावनारा छे. आथी तेमनी परार्थसंपत्ति अने घचमातिशयनो लाम थाय छे. आ लोकमां पार्वनाथाय' प विशेष्य पवनो 'ममः' किया साथ अन्वय था जबाथी शान्ताकाक्षपणु होइ पुनः तायिने' विशेषण पद आपतां "क्रियान्षयेन शान्ताकाइनस्य विशेग्यवाचकपदस्य विशेषणान्तरान्वयार्थ पुनरनुसन्धान समाप्तपुनरात्तत्वम" (काव्यदोषः) प न्यायथी 'जमात पुनरासत्व" नामक काव्यदोषापसिनी शंका प्रभुमा नमस्कार्यत्व गुणना हेतुरूप तायि विशेषणपदलभ्य मार्ग देशकत्वनी अन्ना विचारणा करतां उस्थिताकानपणुं होषाथी कोश्पण रीते अवकाश पामी शके तेम नधी. आ मंगल नमस्कार पोताना प्रारब्ध प्रन्थनी समामिमां आरे आवनार विनोना निवारणार्थे करी शिष्योने शिम भाखार सम. जावखो, प्रमादी शिष्योने अन्य पठननी शरुआतमा मंगलाचरण करतां भूल न थाय विगेरे अनेक उपकार निमित्त प्रन्यघटक करी मष्यत्रोताओ उपर असीम उपकार का छे ॥ १॥ हवे प्रत्यकार महाराज तेज अभीष्टदेवमा रहेल नमस्कार्यत्वगुणनो हेतु पता‘धवापूर्वक तेज श्रोशंखेश्वरपार्थपर्नु आशीःस्वरूप द्वितीय मालाचरण करे छे.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy