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________________ - - - ३'मुं] ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः (मा० २३४) (५१५) छद्मस्थवीतराग नामर्नुछे, अने ए गुणस्थान केवलिपणारूपनगर (विशिष्ट शहेर)मां प्रवेश करवाने मोटा दरवाजा सरखं छे, ॥ १७॥ अने त्यां उत्तम (वनगमनाराच) सहयणवाळो-आठवर्षथी अधिक उम्मरवाळो-मनुष्य-श्रेष्ठ (धर्म वा शुक्ल) ध्यानवाळो-अप्रमादी जीव क्षपफश्रेणिने अङ्गीकार करे छे ॥१८॥ तेज प्रमाणे कर्मग्रन्ध लघुत्तिमा कयु छे के "क्षपफणिने अङ्गीकार करेलो (करनार) मनुष्य आठ वर्षयी अधिक वयनो, अविरतादि (चार गुणस्थानमाथी) काइपण (गुणस्थान १ कार ई. ५ गुग. ET पाया काप अग्नर्मुहूर्तमा मयोगिकमली गुणस्थान प्राप्त थाय छे माटे २ क्षपकणिमा क्षपणा करवाना प्रकार आ प्रमाणे ?--क्षपकणि कर.. नार आठ वर्षनी उपर बर्तता वर्षभनाराच संघयणपाळा जिनेश्वर प्रभुना विद्यमानकालयति (ते काल आ अवसर्पिणीकालमा भरतक्षेपने आश्रयी श्रोप्रथमतीर्थंकर प्रभुना कालथी मांडीने श्रीजम्वृस्वामीभगवानमी केवलोपनि सुधीनो लाणी एल प्रमाणे परयत क्षेत्र विगैरेमा तथा तमाम चोयीशीकारटोमां पण जाणवु, धर्मशुक्नध्यानध्याता इत्यादि विशिष्ट गुणयुक्त जीवो होय ने नीची थे प्रकाग्ना होय, १ चमायुक, २ अन्यच्चायुक, बवायुष्कमा । येमानिक यद्वायुष्क, अने २ बीजा अन्यगतिबद्धायुष्क पम बे भेदी छे. बवायुकनीवो सर्यक्षपणा करता नथी, समकाये अरके छे, ते पण मानीक बदायक होय ते समकक्षयथी क्षायिकसम्यक्त्व पामी ऊपशमश्रेणिये पण चढ़े छे. अने अम्य गनिचद्धायुरा होय ते श्रेणिकादिनी पेठे कोइपण श्रेणिकरता नथी, भने अबदायुकि के होय ते संपूर्ण क्षपकणि करे छ, बसायुष्क होय के अचद्वायुष्क होय ते बन्न पण अविरत १, देशविरत २, प्रमत्त ३, अने अप्रमत्त , प. चार पैकी गुणस्थानके वर्ततो छतो अनम्तानुबन्धि ४ अने द. शममोहनीयनी क्षपणा करेछ. तनी विधि-अनन्तानुबन्धि धिमंयोजना [क्षप. गा)नो प्रकार जे पूर्व बतायी छे ते प्रमाणे जाणधी, दर्शनमोहनीयनी क्षपणा पण अनन्तानुबन्धिनो जमज जाणधी, कांफ विशेष स्वरूप मा प्रमाणे जाणवु,- दर्शमोहनीयनी श्रपणा माटे तत्पर थयेल जीय पर्ने यताबेला ग. याप्रवृत्तादि त्रण करण करे हे मात्र अपूर्वकरणना प्रथम समये नहि अश्य मां आवेला मिथ्यारव तथा मिश्रना दलिकनै गुममंकमे करी मम्यक्त्यमीहनीयमा प्रक्षेप करे, मिश्याच अने मिश्रन उबलनासयम पग आरंभे, ने आ प्रमाणे-पहेलो स्थितिखंड घणो मोटो उयेले. चौजी थी विशेषहीन, पीजो तेथी पण विशेफहीम, प प्रमाणे याश्त अपूर्वकरणना घरमसमय सूधी कडे अपूर्वकरणना प्रथमममये ने स्थिति सत्कर्म हनुं ते अपूर्वकरणना चरमसमये संगम्येयगुणहीन यय, प प्रमाणे स्थितिवन्ध पणा जाणवो, अपूर्वकरणमा प्रथमनमये जे दल्दो स्थितिगन्ध हतो सेनी अपेक्षाये तैना नमसमये सहयेय गुणहीन
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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