SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५०६ ) || गुणस्थानद्वारे उपशान्तभो हगुणस्थानप्रसंगत उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार ==rET' स्वारबाद उपशमश्रेणिवाळा (मुनि) दशमे गुणस्थाने अनि दुर्जय एवा संज्वलनलोभने उपशान्त करें. ॥ २ श्री ५ ॥ अने जघन्थी १ समय अने उत्कृष्टपणे अन्तर्मुहूर्त धी उपशान्त कपायो थाय अने स्यारबाद निश्चयथी ॥ ६ ॥ अद्धाहृयथी ( ११ मा गुणस्थाननो अन्तर्मुहूर्तकाळ पूर्ण थवाथी) अथवा आयुष्यनो क्षय भवाथो नीचे पड़े ले ( उतरे ले ; त्यां अद्धा क्षयधी पडतो ने मुनि पचानुपूर्व‍ माये, श्रीने समये यली सेनाथी पण असंख्यातगुण प प्रमाणे यावत् चरम स मयसुधी दरेक समये असंख्यातगुण असंख्यातगुण उपशमावे. अने उपशमावेल दलीयानी अपेक्षाये दरेक समये यावत् विचरम ( उपान्त्य ) समयसुश्री परप्रकृतिने चिपे असंख्यातगुण असंख्यातगुण प्रक्षेप करे ( संक्रमाचे ). परन्तु श्वरम समयने विषे उपशमात्र जे लो ते परप्रकृतिमां संक्रमात्राला दलीयानी अपेक्षाये असंख्यातगुण जाणवु, आ प्रमाणे नपुंसकवेद उपशमायी. पनले नपुंसकत्रैव उपशस्ये ४ अमन्तानुषन्धि, १ मिथ्यात्वमोहनीय, १ मिश्रमोहनीय, १ सम्यक्त्वमोहनीय अने १ मपुंसकये ए प्रमाणे आठ मोहनीयमकृति उपशान्त था, त्यारपछी अन्तर्मुहुर्तकाले उपर बताया कमे खोद उपशमाये पटले नव प्रकृति उपशान्त थर, त्यारपछी अन्तर्मुहूर्त काले हास्यादिछ प्रकृतिओ उपशमाघे पटले पंदर प्रकृतिओ उपशान्त थर, अने तेज समये पुरुपना ग्रन्ध-उदय अने उदोरणानां तथा प्रथम स्थितिनां व्यवच्छेद थाय ( हास्यादि छ पलिनो उपशम यये छते पुरुषवेदनो प्रथम स्थितिमां सम मात्र उदय स्थिति शेष रहे छे. ते बखते पुरुषवेदनो बन्ध सहय इति कर्मकृतौ ) पुरुषवेदनी में आवहिकाप्रमाण प्रथमस्थिति शेष रहे आगाल थतो नथी, उदीरणा तो थायले, त्यारथी मांडीने छ नांवाय संबंधी दलीयुं पुरुषवेदमां प्रक्षेप करे ( संक्रमावे ) नहिं परन्तु संस्वलन कोधादिमांनांखे, कम्मपयडीमां पण छेके से आपलिका शेप र दलद्रग्रह न थाय हास्यादिषट्कनी उपशमना थया पछी समयीन वे आषनिकामात्र काले संपूर्ण पुरुषवेदने उपशमा, पुरुषवेदने आ प्रमाणे उपशमार्थ – प्रथन समये थोडे उपशमायें, घीने समये असंख्येयगुण, तेनायी पण त्रीझे समग्र असंख्य गुण, प्रमाणं घे समयन्यून आलिकाको चरमसमय आये त्यांसुधी असंख्ये गुण अवगुण उपशमना कहेगी. अंत ते ये समयन्यून आलिकाद्विक काल सुधी प्रतिसमय गयाप्रवृत नेक्रमे करी परप्रकृतियां संक्रमाचे, परन्तु प्र थम समये धणुं, यो समय विशेषहीन, तेथी पण बोजे समये विशेषहीन, ए प्रमाणे यावत चरम समय आये त्यांसुधी कहे पुरुपद उपशान्तये सोळ प्रकृतिओन उपशम भयो, ते पछी जे समये हास्यादिछतो उपशम थयो a great प्रथम स्थिति क्षीण यह ते समयी आग अप्रत्यास्थानाव 4,
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy