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[84] || लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ७८ ) स्याज्ज्येष्ठ मौदारिकान्तरम् । अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः || २०१|| तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ " उत्कर्षतस्त्रयस्त्रि 'शत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि तानि चैवं कश्चिच्चारिश्री वैक्रियशरीरं कृत्वाऽन्तर्मुहूर्त्त जीवित्वा स्थितिक्षयादविग्रहेणानुत्तरसुरेषु जायत इति । सा ०७८) वैक्रियस्यान्तरं कार्यस्थितिकालो वनस्पतेः । अर्धश्च पुद्गलपरावर्त्त आहारकान्नरम्॥ २०२ ॥ लघु चायस्य समयोऽन्तर्मुहूर्त्त तदन्ययोः । न संभवत्यन्तरं च, देहयोरुक्तशेषयोः ॥ २०३ ॥ इत्यन्तरकृतो विशेषः ॥ इति देहस्वरूपम् ९ ॥ (हवे आठमा अल्पबहुत्वकृतभेद बतावे छे.)
अर्थ-८ अल्पबहुत्व (संख्या) कृतभेदः -- आहारकशरीर सर्वश्री अल्प (- ओछी संख्यामां ) होय छे. कारण ते काइक वखते ज होय छे, अने जो होय तोषण जघन्यथी एक अथवा वेज होय ॥ १९४ ॥ अने उत्कृष्टथी ९००० होय. बळी जगतमां ए शरीरनी अससा (अभाव) जघन्यथी १ समय अने उत्कृष्टधी ६ माससुधी होय ॥ १२५ ॥ कां के के-" कोइकवस्त्रत लोकपां (जगत्मां) आहारशरीर उत्कृष्टषी ६ मासमुधी निययी होतुं नयी अने जघन्ययी एकज समय न होय " (अर्थात् जगत्मां अप्रूफ वखते कोइए आहारक शरीर रच्यूँ होय) ने ते अन्तर्मुहूर्तां विलय पाम्युं होय त्यारबाद एक समपने अन्तरे अथवा तो ६ मास पछी कोइने कोई मुनि आहारक शरीर रचे परन्तु बघु विलंब न थाय ) ॥ १९६ ॥ तथा आहारक शरीरथी वैकिय शहर असंख्य गुणां के, कारण ते वै शरीरना स्वामीओ ( एटले वै०शरीरवाळा ) देव अने नारकriat rite के ॥ १९७ ।। वही औदारिक शरीर ते वै थी पण असंख्य गुण अधिक छे, जोके तेना स्वाभिओ ( औ० श०वाळा ) अनंत के तोपण शरीर तो असंख्यातज के ॥ १९८ ॥ जेथी साशरण वनस्पतिमां दरेक
१ अस्य किल संवाद पाठस्य वैक्रियशरीरिण उत्कृष्टकास्त्युपपतिप्रतिपाद नमस्ता प्रतिपादितत्वाद विग्रहेणेतिपदस्य सार्थक्यम ||