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२४) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः । [सा० १४५० (३५) ॥ ६६४ ॥ तथा ज्ञानदर्शनादि गुणमय आत्मानो जे शुद्ध परिणाम ते मैंचयिकसम्यक्त्व, अने ते शुद्ध परिणामरूप) हेतुथी उत्पन्न थयेलं ते व्यावहारिक सम्यक्त्व कहेवायः ॥ ६६५ ॥ तथा परमार्थने नहिं जाणनार एवा पुरुषने पण "श्रीजिनेश्वर जे वचन छे तेज तत्व छे" एवा प्रकारनी श्रद्धा फरनारने द्रव्यमा म्प०, ने ते तखना जाणकारने भावसम्यक होय.॥६६६॥ अथवा जे क्षायोप० सम्य० तेज पौद्गलिक होवाधी द्रव्यसम्य०, कहेलुं छे, अने बोजा चे सम्यकन्व क्षाधिक अने औपशमिक आत्मानी परिणतिरूप होबाथी भावसम्य० कहेल . ।। ६६७ ॥ वळी आ सम्यक्त्व कारक-रोचक ने दीपक ए भेदथी त्रणपकारनु छे. अथवा क्षयोप०-उपशम-अने क्षायिक ए रीते पण सम्य० त्रण प्रकारनु छे॥६६८॥ जिनेश्वरे कहेला आचार अंगीकार करवाथी कारक थाय छे, अने ते आचारो उपर रुचिमात्र करनार(आदरनार नर्हि)ोने रोचक कहेलुं छे. ।। ६६९॥ पोते मिथ्या दृष्टि छतां देशनादिक (नी लब्धि) बडे जे जीव वीजा जीवने सम्यक्त्व मगर करे ते (मिथ्यावृष्टिने) दीपक सम्यः (दीवो जेम पोतानी पासे अधार ने बीजाने प्रकाश करे तेम] जाणयु. ॥ ६६९ ॥ प्रथम जे क्षायोप० वगैरे (त्रण)सम्यनु स्वरूप कायं ते त्रणमां सास्वादन सम्य० सहित करतां चार प्रकारर्नु सम्य० यायः ॥ ६७१ ॥ वळी ते चारमा वेदक सम्यक उमेरतां ५ प्रकारनु सम्प- पण थाय, त्या औपश० सम्यवमतां जीवने सास्वा० सम्य होय छे. ॥ ६७२ ॥ अने पूर्व कहेला त्रण पुंजमांधी चे पुंज क्षय थया बाद जीजा शुद्धपुंजना अन्त्य अणु (स्थितिखंड) येदतां उदय आवतां वेदक सम्यक्त्व होय छे ।। ६७३ ।। ( सम्यक्त्वनीस्थिति अने प्राप्ति)
पट्पष्टिः साधिकाऽन्धीनां,क्षायोपशमिकस्थितिः । उत्कृष्टा सा जघन्या चान्तर्मुहर्तमिता मता ॥६७४ ॥ ज्येष्ठाऽन्या चौपशमिकस्थितिरान्तर्मुहर्तिको । क्षायिकस्य स्थितिः सादिरनन्ता वस्तुतः स्मृता॥ ६७५ ॥ साधिकाः स्युभवस्थवे, सा त्रयस्त्रिंशदब्धयः। उत्कर्षतो जघन्या च, सा स्यादान्तर्मुहर्तिकी ॥ ६७६ ॥सास्वादनस्यावल्यः षट्, ज्येष्ठा लघ्वीक्षणात्मिका ।
१. अर्थात क्षायि० मम्य: पामतां क्षयोप० भो छेल्लो समय से बेदकमा