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२६W] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १६०) (३९१) ण जाणवी ॥२॥अकारथी हकार सुधीना अक्षरो (खोलाता अक्षरो) ते व्यंजनाक्षर श्रुतज्ञान के. ए वने (लिपी अने व्यंजन ) पोते अज्ञानरूप (जहरूप) के तोपण श्रुतज्ञान कारण छे ॥ ७७५ ॥ मारे पूर्वाचार्योए से बन्नेने श्रुतज्ञान रूप कहेल के. अने अर्थनो बोध करनारी एपी जे अक्षरोपलब्धि ते लेन्ध्यक्षर श्रुतज्ञान छे. ॥ ७८० ॥ ते लब्ध्याक्षर श्रुतज्ञान [इन्द्रिय अने मनबहे ] ६ प्रकारनुं छे, कारणके श्रोत्रादि इन्द्रियोवडे पण शब्दना अर्थनो विचार करवारूप जे शान थाय छे ते अक्षरानुविद्ध-अक्षरयुक्त ज छ. ॥ ७८१ ॥ जेम शब्द सांभळवा. थी अथवा रूप देखवाथी "आ देवदत्त है। एवा प्रकारनो (चितवन अक्षर पूर्वक) वोध याय के. ॥७८२।। ए प्रमाणे शेष (त्रण) इन्द्रियोमां पण विचारवं, ते अक्षरवडे अभिलाप्य (बचनगोचर ) भावोने प्रतिपादन करनार अक्षरश्रुत कयुं छे अने तेथी चीजें अनक्षर श्रुत छ।।७८३॥कर्ष छे के उच्छ्वास लेवो, निःश्वासलेवो, धुंक, खांसी खावी, छींक, नाक नसीकg, गणगणाट करवो, अने खुंखारी फरवो इत्यादि अनक्षर श्रुतज्ञान छ" ।। ७८४ ॥ तात्पर्य ए ले के-उधरसखोखारो वगेरे के जे मने बोलावे के अथवा मने कहे छे इत्यादि वीजाना अभिमायने ग्रहणकरनार ( प्रगट करनार ) होय ते अनक्षर श्रुतज्ञान छे. ॥ ७८५ ॥ जो के अहिं शिरकंपनादि चेष्टाओ पण परनो अभिप्राय अणावनार के छा पण ने चेष्टाओ श्रोत्रेन्द्रिय ग्राय नहिं होबाथी श्रुतझान नथी.
श्रीविशेषावश्यक सूत्रनो वृत्तिमाकयु छ के-"रुद्वीए करीने तो जे संभकाय ते श्रुत कहेवाय,अने चेष्टा तो कदीपण संभळाती नथी. टीकार्थः-पूर्वोक्त न्यायधी (शिरः कंपनादिमा ) श्रुतपणानी प्राप्ति सम्पकमकारे आवे छे तो पण ते उच्चा सादिज श्रुतज्ञान कहेवाय, परन्तु शिकंपन अने हस्तपालनादि चेष्टाओ श्रुतज्ञान न कहेवाय. कारणके शास्त्रमा अने लोकमां पण एज प्रसिद्ध रुढी छे. अने कर्मग्रन्थनी वृत्तिमा तो शिरसकंपनादिकने पण अनक्षरश्रुतज्ञान गणेलु छे, ते
१ तास्पर्य ए छ के लल्लाता अमगे ते संज्ञाभर, (संकेतिताक्षर) उच्चाराता: अक्षरी ते व्यंजगाक्षर, अने मममां विधाराता अक्षरो अथषा आत्मामा बोधरूप अव्यक्त अक्षरो से लमध्यभर कठेवाय
२ शब्दमा अर्थनो विचार करतां पण आस्मानी अंदर अक्षर पंक्ति पू. का विचार कराय छे माटे ते अंतरंम अक्षरपंक्ति पज लब्ध्यक्षर अथवा अक्षरानुविद्धपणु कहेवाय.