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________________ २६९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा. २०६) (४२५) ज्ञान कहेलं छे ते प्रत्यक्ष अने परोक्ष ए वे प्रमाणवाल छे. ॥ ९४३ ॥ त्या झान स्वरूप एवा पोताने अने घटादि रूप पर पदार्थने यथार्थपणे निश्चय करनारंजे ज्ञान ते प्रमाण कोल के. ॥ ९४४ ।। कह्यु छ के-" स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमागं" स्व एटले ज्ञान (पोते) अने पर एटले वाद्य पदार्थ तेनु वि-विशेष करीने (यथावस्थित स्वरूपे करीने अवसायि-निश्चय करनार जे ज्ञान ने प्रमाण कहेवाय छे, आ लक्षणमा ज्ञाननो निश्चय अपर ज्ञानथी माननार नैयायिकादिनो व्यवच्छेद करवाने स्थ पद छ, बाद्यपदार्थना अपलाप करनार ( नहि माननार ) विज्ञानवादि बौद्धोनुं निराकरण करवा पर पद छे, संशयात्मकज्ञान,विपर्यय (भम) ज्ञान,अनध्यवसाय अने बौद्धोये प्रमाणरूप मानेल निर्विकल्पक ज्ञाननो व्यवच्छेद करवा व्ययसायि पद छे. त्यां इन्धित लाने नोइन्द्रिय) मी पेक्षा विमान में बाल साक्षान्) ज्ञान जीवने थाप छेते म यक्षप्रमाण छेल्ला त्रण ज्ञानरूपछे । ९४२अने इन्द्रियोना आलम्बनथी आत्माने जे ज्ञान उत्पन्न थाय छे ते परीक्षण्माण प्रथमनां वे ज्ञान रूप छ. ।। ९४६ ॥ प्रत्यक्षज्ञानमा अने परोक्षज्ञानमा निश्चयरूप जे अपायांश नेज माकार अपायांश अहिं प्रमाण एवा व्यपदेशने धारण करें छे. ॥ ९४७ ।। जेम कायुं छे के-संशयादि रहित सर्व साकार ( विशेप ) एवो जे निर्णय (विशेष धर्मोनो निर्णय ) ते साकार विषयने जाणनार होत्राथी युद्धिमानोने ते प्रमाण (ए रूपे मान्य ) २. ॥ ९४८ ।। ए कारणथी ज सामान्य मात्र विषयवार्छ दर्शन ने प्रमाण न गणाय, अने ए रीते संशयादि ज्ञान ने पण प्रमाण न गणाय ॥९४९।। वळी ए कारणथी ज मनिज्ञानमा सम्यक्त्व दलिक सहित जे अपायांश ने क्षयोप० सम्यग्दृष्टि जीवोने प्रमाण छे.॥५५०॥ अने जेओन दर्शन सप्तक क्षय पाम्युं छे,तेओ(क्षायिकसम्यग्दृष्टि)ने केवळ (सम्य० दल रहित) अपायांश ज प्रमाण छे परन्तु व्यअनावाहादि अनिर्णयवाला होवाथी अप्रमाण है. ॥९५१॥ एतावार्थवृत्ति विगे --- - १ आहों आदिशध्द विपर्यय अन अनध्यघमायझानो पण ग्रहण करवा, नमा 'एकस्मिन्धगि विरुद्ध कोटिहयाबगाहि ज्ञान मंशयः '' पफ पदार्थमां विरुद्ध के कोटि (धर्म) ने प्रहण करनार झान ते संशय. अतस्मिलदध्ययमायो विपर्ययः विद्भककोटिमिशन" तवभाववति तत्प्रकारकं ज्ञान" इत्यादि अनेक लाक्षणी विपर्ययना छ. जेमा ने धम न होय नेमां सद्धर्मप्रकारक बान जेम शक्ति छीप)मा आ रजत (रुपुं) के ने ज्ञान ने विपर्यय अने "किमि ज्यालोचनमानकमनध्यवसायः " आ कांडक छ प विचारणान्मक, जेम जता मापसने घांसना स्पशन झाम ते अनध्यवसाय उपेक्षात्मक) ज्ञान कईयाय.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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