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(२६) ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २१२ ● अतिमयत्न- अनुनासिक - निरनुनासिक इत्यादि विशेषोधी संयुक्तयोग- असंयुक्तयोग-विसंयोग- त्रिसंयोगी इत्यादि संयोग भेदथी अने अभिधेय ( श्रुतविषयक ) भावना अनंतपणाथी श्रुतज्ञान अनंत भेदाकुं छे. ॥ २६-२७|| केवळ अकार अने अन्य अक्षरयुक्त अकार जे पर्यायो पायेले ते सर्व पर्यायो प अकारना स्वपर्याय छे. अने तेथी बीजा पर्याय है ||२८|| अने एप्रमाणे सिद्धान्तमां अथवा श्रुतज्ञामां मत्येक अक्षर अनंत स्वपर्याय अने अनंत परपर्यायवाल छे, अने ते पर्यायो सर्व द्रव्यना पर्या राशि जेटली हे ॥ २९ ॥ कां छे के मूळगाथार्थः - प्रत्येक अक्षर पण स्त्र अने परपर्यायना भेदी दवा छे अने ते एक अक्षर सर्वद्रव्यना पर्याय राशिप्रमाणनों जाणो ॥ ३० ॥ तथा केवळ ( एकलो ) अने शेषवर्णयुक्त एवो अकार जे पर्यायोने पाये के ते तेना स्व पर्यायों के अने शेष कीना बीजा पर्यायो ते तेना (ते अक्षरना) परपर्यायो है. ॥३०॥ (टीकाभावः) तात्पर्य आ छे के' 'केवळ अने शेषवर्णयुक्त अकार जे पर्यायोने पाये छे ते तेना स्वपर्याय के अने शेष पहले शेषवर्ण सम्बन्धि अने घटादि अन्यपदार्थ सम्बन्धि पर्यायते तेना एटले अकारना परपयायो " ।। ३१ ।। (ए प्रमाणे ) मिद्धान्तम श्रुतज्ञान आवा प्रकारना अनेक अक्षरना पर्यायता समूहबडे सहित के ने कारणथी श्रुतज्ञान अनन्तपर्यायवाचं सिद्धान्तमां श्रुत-कलं . ॥ ३२ ॥
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अथावधेः स्वपर्याया विविधा या भिदोऽवधेः । क्षायोपशमिकभवप्रत्ययादिविभेदतः ॥ ३३ ॥ तिर्यग्नैरयिकस्वर्गिनरादि
* मुख अनं नासिकायो उच्चारण करातां वर्ण ते मानुनामिक १ मुखे क गगने में उच्चारण करातां ते निरनुनासिक २ व उधारण करवामां ज्यारे सर्वाङ्गने अनुसरतो तोत्र प्रयत्न होय स्थारे शरीर स्तब्धपणुं अनेक वरनुं सूत्रमपशु तथा स्थर अनं वायुनु तीव्रगतिपशुं षाथी रुक्षपणुं होय ते उदात्त, तेथी विपरीत ते अनुदान, उदात्त अने अनुदानो मन्त्रिपात धाथी स्वरित कबाय छे, अथवा जेना उच्चारणमां वायु उसे स्पर्शश्राप होग उदात्त, नीचे स्पर्श ने अनुशन, समाहार से स्वरित आ नया विवार, संवार, श्वास माइ घोषवत अघोष अल्पप्राण महामाण ५ सय वर्गच्वाग्मां बाले, अस्पष्ट ईस्ट, विवृत ईषद्विवृत, विवृततर, अतिचिततर अने अतिथिवृतनम ए सात अन्तर प्रयत्नो मयं वर्णना की. इत्यादि, असयुनेकाक्षर
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१- इत्यादि संयुक्तकाक्षरयोगी व संयोगी व पध द्विर्मयोगी धन प्रच्ध इत्यादि वियोगी पण कवाय