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जगद्गुरु-मरिचक्रचक्रवर्ति-मारा आन्मोद्धारक-परमोपकारिशिरोमणि-पूज्यपारश्रुतयोगसंपसंपादक-प्रानःस्मरणीय-जंगमकल्पनर-कलिकाले श्रीगौतमगुरुसमान-परमाराध्य-सदाध्येयपरमगुरु-सुगृहीतनामधेय-श्रीस्थानांगोक्तपंचातिशयघारक- आचार्य श्रीगुरुमहाराज विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज साहेबजीना पट्टधर-सिद्धांतवाचस्पति-न्यायविशारद-श्रुतज्ञानदाता-मारा विद्यागुरु सत्कृतिसानिध्यकारक-परमोपकारी-पूज्यपाद-गुरुभक्तिपरायण-भव्यजीवोने अध्यापनादिद्वारा कृतार्थ वनावनार-जैनतत्त्वपरीक्षा-नवतत्त्वविस्तरार्थ-दंडकविस्तरार्थ विगैरे अपूर्व ग्रंथोना अनावनार-गीतार्थशिरोमणि-आचार्य महाराज श्रीमान विजयोदयसरिजी महाराज साहेबजीए यंत्रादि महिन विस्तरार्थ लख्यो छे; तथा तेओश्रीए ज घणे ठेकाणे स्फुटनोटद्वारा पण स्पष्टिकरण घणुज सरस कयुं छे.
तेोश्रीनो आ अनहद उपकार अनाग्रही तत्त्वरसिक जीबो भृले तेम छ ज नही. तेथी आखो द्रव्यलोक भेगो बहार पाडवानी इच्छा छतां पण तत्त्वज्ञानना पिपासुओनी तीन मछाने मान आपीने प्रथमना त्रण सर्गनी आ प्रथम विभाग बहार पायो छे.
विषयानुक्रमणिका जुदी छपायेली होवाश्री अंथना विपयोनुं ज्ञान के द्वारा यइ शके तेम छे.
___ अंसमां आ ग्रंथना पठन-पाठन-निदिध्यासनद्वारा भव्यजीबो आत्मस्वरूप ओळखे, पदार्थतत्वनो यथार्थ योध मेळवे, हितमार्गमा प्रवर्ने, अहितमार्गथी पाछा हठी, पवित्र वीतराग परमात्ममार्गनी आराधना करी मुक्तिपद मेळवे एम हार्दिक निवेदन करी आ टुंक प्रस्तावनाने संक्षेपी लइश. तथा छमस्थ जीवोने शानावारककर्मना प्रतापे अनाभोगजन्य स्खलना अनिवार्य छे. कमु छ के
अवश्यंभाविनो दोपा, छअस्थत्वानुभावतः।
समाधि तन्वते मन्तः, किं नराश्चात्र चक्रगाः ॥ १ ॥
तेथी आ प्रथमां गुणग्राही वाचकवर्गने संशोधनजन्य नथा मुद्रणजन्य जे कांइ भूलचूक जणाय तेने महाशयो मुधारीने वाचशे तथा कृपा करी जणायशे तो बीजी आवृत्तिमां मुधारो पण थइ शकशे.
निवेदकभावनगर । तपोगच्छाधिपति-श्रुतयोगसंपत्संपादक-परमोपकारिशिरोमणिमौनएकादशी श्रीगुरु नेमिसूरीश्वरचरणकिंकर-उपाध्याय
पविजयगणि.