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॥ मोकाशे प्रथमः सर्गः ) ॥ अनन्तना भेदनिगमन तथा प्रयोजन ॥
एवं च नवधाऽनन्त,कर्मग्रन्थमते भवेत् 1 भवत्यष्टविध किश्च सिद्धान्ताश्रयिणां मते ॥ २०६ ॥ सर्वेषां रूपमेकेक--मेषां ज्येष्ठकनीयसाम् । मध्यमानां तु रूपाणि, भवन्ति बहुधा किल ।। २०७ ॥ संख्यातभेदं संख्यात-मसंख्यातविधं पुनः । असंख्यातमनन्तं चा-ऽनन्तभेदं प्रकीर्तितम् ॥२०८॥ प्रयोजन त्वेतेषां ॥थभविअ चउत्थणन्ते, पञ्चमि सम्माइपरिवडिअसिद्धा। सेसा अहमणन्ते, पजथूलवणाइ बावीस ॥ २०९ ॥ (सा०२०) (अभ
३ उत्कृष्ट युक्तअनत-सिद्धांतने मते जघ. यु. अनम्तमा अभ्यासमाथी १ कमी करवाथी थाय छे, अने कर्मग्रन्थमते जय० यु. अनन्तना संगमां, कमी करपाथी थाय छे.
. उत्कृष्ट अनन्तानन्त-सिद्धांतने मते आ उ० अनेक अनं० छ ज नहि, अमे कर्मप्रथमते अध० अन. अनं० नो अणधार वर्ग करी अनन्लतल्याषाका ६ पदाथों मेळची पुनः प्रणवार घो करी केवलनिकना पर्याय मेलपवायी ज. अनं. अनं० थाय छ, परन्तु मेय पदार्थना अभाव पनो व्यवहार नयी ( अहिं बन्ने मसनी पूरिट अपेक्षापूर्वक होचाथी अधिक समजाय छे. ) पुनः संख्यानी तुल्यता जघ० यु० असं० सुधोज रही छे. अने मध्य यु. अ. म. थो संख्या यदलाती पाली छ,
१ श्री पन्नघणामीमा ९८ घालना महापबहुत्यमां सम्यक्त्वपतितमी साथेज सिद्धी गणाच्या छे तथा आगळ आठमा अनन्तनी पापीस वस्तुओमां सिद्ध गण्या नथी, पधा अनेक कारणोथी अनेक आचार्योमा अभिप्राये सम्यसाषथी पटेला अने मितपरमात्मा पचमे अमन्ते वर्णव्या है, बळी केटलाफ विचारको अतीत अनादि अनन्त पुदगलपरावर्तरूप आठमा अनन्तप्रमाण का. लथी मुक्तिमार्ग पंहतो होगाथी कवाय जयन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथो छमासनो बिरहकाल गणीप अने से विरहकाल चार करतो पण ते अनस्तकालमा जघन्यथी एक समये एक अन उत्कृष्टथी पक्रसो आट जीधोनी मु. क्ति गणतां तथा घर्गणातुं रहस्य विचारता पण माठमा अनम्तप्रमाण पण सिधोनी सम्भव थषो जोइप,लेम कहै छे. तस्य केपालि जाणे. वास्तथोक रीते पक निगोदनो अनन्तमो भाग, अने अभव्यथी अनम्तगुणाजीयो सिद्ध पयेला छे.