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(४२८१ ॥ शानद्वारे ज्ञानानां प्रमाणान्तर्गतताविचारः॥ बार मलयगिरिपूज्या अप्याहुः नन्दीवृत्तौ ॥"यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासंभवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभोभवति यदशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि तदा भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव, ततस्तेषामपि काचिदव्यताक्षरोपलब्धिरवश्यं प्रतिपत्नव्या" इति (सा०२०९) मतिज्ञानश्रुतज्ञानरूपे द्वे भवतः सह । त्रीणि ते सावधिज्ञाने, समनःपर्यवे तु वा ॥ ९६३ ।। चतुर्णा सहभावोऽपि, च्छद्मस्थश्रमणे भवेत् । पञ्चानां सहभावे तु, मतद्वितयमुच्यते ॥ ९६४ ॥ ___अर्थ-एक जीपमा समका शानप्राति स पापेशानन सहचारिप" (एक साथे केटलां ज्ञान ? होय ते) विचाराय छे. ते आ प्रमाणे-एक जीवने विषे एक साथे एफ-बे-त्रण-ने चार ज्ञान होय ॥ ९६० ॥ ने आ प्रमाणे जेणे निमग ( गुरुना उपदेश विना स्वाभाविक) सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु होय नेवा श्रुनज्ञान नहिं पामेला जीवने केवळ एफ मतिज्ञानज होय ॥ ५६१ ॥ ॥ हेतुधीज ज्यां यत्तिज्ञान छे त्यां श्रुतज्ञान होय एवो नियम नहिं, परन्तु ज्यां श्रुतज्ञान छे त्यां मतिज्ञान तो निश्चयथी छ ज. ॥ ९६२ ॥ ए तत्वार्थवृष्यादिनो अभिमाय कदो अने नंदीमृत्रमा नी-" या मनिज्ञान त्यां श्रुनज्ञान अने ज्यां श्रुतज्ञान न्यां मतिज्ञान " एम कहेन्लु हैं, ए हेतुथो सिद्धान्तमा एकेन्द्रियोने पण श्रृनज्ञान म्वीकारलं है. जेम का छे के-" द्रव्येन्द्रियनो अभाव छने पण मूक्ष्म प्र, भाषेन्द्रियजन्यज्ञान होय के (माटे ) द्रव्यश्रुननो अभाव छते पण पृथ्विकायादिकने भारश्रुत छे.' भावेन्द्रियनो उपयोग वकुलादिमनी पेठे सर्व एकेन्द्रियोने (प्रथम कश्यो छे नेम) विचारबी. नथा नंदीनी वृत्तिमा पुज्यमलयगिरि आचार्य महाराज पण कहछे के-"जो के ते एकेन्द्रियादिने पर उपदेश सांभळवानो असंभव के तोपण तेओने तथा प्रकारको क्षयोपशम होवायी कंडक अव्यक्त (अस्पष्ट अक्षरनो लाभ होय के के लेना वशथी अक्षरोवडे व्यान एवं श्रुतज्ञान थाय छे, ते (अक्षरलाभ) आ प्रमाणे अंगीकार करयों ( जाणवों ) के नेओने पण आहारादिनो अभिन्याप उपजे