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(१८३)
(सा० ७९)
|| लोकमकाशे तीयः सर्गः ॥
(Ro
शरीरनां
नान
औदारिक
वैद्रिय
चाहारक
तंजस
कार्मण
कारण कृत विशेष (पुल परिणाम
स्थूल पुदुगल
श्री वलु
लुं
० थी सू० दुगको बने लुं
आदा० थी खु० पुद्गलो बडे चमेल
॥ पांच शरीरमां कारणकृतविशेषादि ११ द्वारयन्त्रकम् ||
( ५ द्वारो )
तेज थी सृ० पुतलोबडे वनेल
प्रदेश संख्या० ( एक स्कंधम);
ल
देखने स
औथी सूक्ष्म ओग्यो असंख्य नारकने, कंटलायक बा० ए
पुदुग
अमव्यवी अनंत गुण सिद्धधी अनंतमे भागे
गुण
ये श्री अनं रूप गुण
आहारथी अनंत गुण
स्वामिः
३
तथी अने सगुण
सर्व तिच अने
सर्व मनुष्यने
र्या वायु, गर्भजनियच, ग० जरने.
कोइक प्रवद्र ਖਤਰ
सर्व संसारी जोधोने
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ग ति
४
य
उर्ध्व पंडुकवन सुधी
तिर्यक्र - १३ मारुवकद्वीपमा रुवक पर्वत सुधी
असंख्यङ्कोप समुद्र
महाविदेह सुधी
स्टोकना एक छेड़ाथी बीजा छेड सुधी ( परभव जत )
प्रयोजन
.
धर्माधिमंत्पित्ति मोक्ष प्राप्ति इत्यादि
एकानेकत्वादि नभोगल्यांवि संघल दि
मार्थ संशय छेद. जिनेन्द्र ऋ द्विदर्शन इत्याि
श्राप वरदान
भोजननो पश्चाष
इत्यादि
अन्यभयमां गति, विगेरे