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२५९ ॥ श्रीलोकमकाशे तनीयः संगः ॥ सा० १५५) (३४) गुप्ताचार्य भगवागर्नु फरमान निवेदन फयु के-आर्यषन स्वामि माथं एक षसतिमा रहंशा नहि !" घियायु के भगवान श्रीभत्रगुतावार्थमहाराजनुं मिकारण निवारण होय नहि ? उपयोग आप्यो, कारण स्वरूप जाण्यु, भणापवानी अनुमति आपी शरमात करी, थोडा काळमा श्रीआर्यरक्षितजी नय. पूर्व भणी वृक्या, दशभु प्रारभ्यु. तंत्रामा मातपिताप यालाषया संदेशों कहाल्यो ! छेवटे संदेशाधी न आव्या स्यारे सांसारिकपक्षे तेमना लघुनन्धु फलगुरक्षितने त्यां मोकल्या तेमण श्रीगुगने बन्दना फरी पिना आदिन थपेला वियोगदुःखनु शान्तवन करवा प्रार्थना करी, यनस्यामिजी ने चिनति करी सेमणे भणवा माटें हुकम कर्यो, आगल भणयानो प्रयत्न शर राख्यो, फल्गु रक्षिते वीजा उपायथी नहि आवे तेम थिचागे कायुं भाइ जो आप पधारशो तो आपना दर्शनी माता-पिता विगेरे मर्व पण भाषलाय दोसा ग्रहण करशे." फल्गुर झिनने त्या प्रथम दीक्षा आपी बेजप्रकारे शिक्षाओ शीखवी पछी तेमनो आग्रह अवाथी भीवनस्वामिजीनी आRI मांगी छेवटे, मेरु-सर* सब, समुद्र-जलबिन्दुनुं वृष्टान्त सांभळ्याथी उदवेग पामेला जौह दशा पूर्व
माराथीज विच्छेद पामशे तेम अतशामथी जोधु अने रजा आपी. विहार फरता वशपुरमां पधार्या, श्रीगुरुमहाराभ तीलिपुत्राचार्य भगवंत आचार्य पद स्थाप्या, सर्व स्वजनबर्गने दीक्षा आपी तेमना पिता पण तेमना म्नाथी गृहस्थलिंग सहित तेमनी माथेज रहे छे, अनेक उपाय नेमने दीक्षा प्रापी तमना कुलिंग साधनो छोडाव्या उपायथी गोचरी (भिश्नाचर्या) प्रवृति कगषी, पण महालब्धिपात्र हता, तेममा समुदायमा योजा पण प्रण साधु परमलधिसम्पन्न हता. १ यत्रपुष्पमित्र रचतपुष्पमित्र आ बेड पण द्रव्य-शंघ-काल भात्री जेटला जेवा प्रकारना अनुक्रमे वला तथा घीनु समुदायने प्रयोजन होय तेरले तया प्रकाग्ना प्रव्यक्षेत्र-काल भाषवाटु लाबधा समर्थ छत्रीला दुलिका पुष्पमित्र जे हमश स्वाध्याय मा उद्यमशील. नवपूर्वयी अधिक भण्या छे,निरन्तर स्थाध्यायधिताधी दुर्वल थाय छे, जो न चिम्मषन करे तो विस्मरण थाय छ, आवेनुयो दुबलिका नाममी पसिद्धि था छ तेमना कुटुंबी चौद्रभक्त हना, तेओए आचार्य भगवान कप, अ बौद्धोमा ध्यागविज्ञान छे तेवु वीजामा मथी, श्रीप्रामार्य भगवन्त दुलिकापुष्पमित्रना शान्तयी परीक्षापूर्वक ध्यानमिद्धि घतात्री, विशषे धर्मदेशना सोमवाथी तेओ भाषक थया घळी ते गच्छमा विशेष ज्ञानादिगुणवान चार साधुओं जेमां मुख्य दुर्वलिका पुरुपमित्र (जमर्नु बरूप पर कई