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३०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २२६ (४८३) दृष्टि) जीवनुं जे गुणस्थान तेने पूर्वाचार्योए मिथ्याष्टिगुणस्थान कहेलु छ ॥ ३५ ॥ शंका-मिथ्यादृष्टि जीवोने दृष्टिनो [ बोधनो] विपर्यास होवाथी शानादि गुणनो सद्भाव कम होय ? के जेथी तेने गुणस्थानपणुं कहेवामा आये छे ॥ २६ ॥ उत्तर-जो के अहिं सर्वज्ञप्रभु कथित पदार्थोमा मिथ्यास्त्री जीवोने विपरीत श्रद्धा होय छे ।। ३७ ॥ तो पण मनुष्य पशु बगेरे पदार्थों संबंधी नेओने कइक [ मनुष्यने मनुष्यपणे-पशुने पशुपणे मानवारूप] अविपरीत श्रद्धा पण नि. श्चय होय छे. ॥ ८ ॥ बळी मनुष्यादि वीजा जीवो तो दर (एक वाजु) रहो ( कारण नेबोने तो ज्ञानादिलब्धि रिशिष्ट छे ) पण निगोदजीवोने पण यथार्थ ( अविपरीत ) एवं अन्यक्त ( अस्पष्ट ) स्पर्शमात्र ज्ञान होय छे ।। 2 ।।
१ प्रथम मिथ्यावृष्टिगुणस्थानकना संबंधमां मोगुणस्थानकमारोहकार फोहे के-अपनाना नानामि मि मानावंत जीयोने मिथ्यात्व अ. नाविकालथी होवाथो लेने गुणस्थान कहेवातुं नथी, परन्तु ने ओने पकमिध्यात्वबुनि थाय के सेषा व्यवहार राशिवनि जीवोने प्रथम गुणस्थान कडेवाय छ,-कर्ष छे के-- अमाचव्यकमिभ्यास्त्रं जीषेऽस्त्येष सबा परम ।
व्यकमिथ्यात्वधीप्राप्तिगुणस्थागतयोच्यते ॥१॥" पळो योगाचार्य भगवंतोता गुणहीन मिथ्याष्टिओमां "गुणांनु स्थान" पषी अग्षर्य गुणस्थान पवनी प्रवृत्ति घटी शकतो नथी परन्तु ज्यारे मिश्यावृष्टि जौषमां पण सत् पुरुषीने प्रणाम करषो विगेरे योगबीजोमा महजरूप गुणर्नु माजमपणु थाय छे स्यारेज सार्थक गुणस्थान पदतो प्रवृत्ति याय नेम फरमाधे छे. आयोगबीजना उपादाननुं स्वरूप मित्राष्टियान जीवोमाज घटे के. जे गुणस्थानकमारोहकार व्यसमिध्याव बुद्धि थयाथी व्यवहार राशिवाळाने गुगस्थान कहे छे, तेनुं तात्पर्य पण विपर्यस्त बुद्धिरूप मिथ्यात्मनुं व्यक्त । प्रकट ) यत्रा पर्यु लेखु नहि. कारण तेत्री विपरीत बुद्धिन व्यक्तपणु लाये तो ते बुद्धि अव्यक्त बुद्रि करतां घणो दुष्ट होबाथी कोर रोते पण गुणस्थामपद प्रवृत्तिनुं कारण था शके महि. परन्तु मित्रारष्टिरूपज व्यक्तता लेखी
आ विधारमो विशेष स्पष्ट खुलासा द्वात्रिंशदवाधिशिकामो पकधीशमी मात्रिशिकाना २५-२६ मा श्लोकोनी टीकामा भ्यायविशारद म्याथाचार्य महोपाध्याय थीमान् यशोविजयजीगणि महाराजे घणोज सारी गीले करेलो छ स्यांधी जोड लेयुं प्रवर्तते गुणस्थानपदं मिथ्याशीइ यत । अन्यथयोजमा मूनमम्यां त. स्योपपद्यते ॥ २४ ॥ व्यक्तमिध्यावधीधातिरप्यन्यत्रयमुस्यते । धने मले विशेषस्तु अक्ताव्यक्तधियानु क । २६ ॥ " चौदशो धुमालीश प्रन्यप्रणेता भगवान श्रीहरिभद्रसरिजी महाराजे पण फरमायु छ के " प्रथमं सदगुणास्थानं मामाम्येनोपणितम् । अस्यां तु सदस्थायां मुग्यमन्यधयांगतः ॥१॥