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________________ % 3D (५५०) ॥ गुणस्थानद्वारे गुणस्थानेषु स्पशनाद्वारविचारः॥ [बार __ कारण भशन्तरमाज प्रमत्तसंयत चिगेरे अवस्थानो त्याग करी असंयतपणु द पामे छे. नेथी प्रमत्तसंयतादि जीवो स्वस्थानस्थन लेवाय छे, भरन ऐरवत अने महा. विदेवस्वरूप जे स्वस्थान ते लोकना असंख्यातमा भागमांजळे माटे उपर कश्या प्रमाणे लोकना एक असहयातमाभागने स्पर्श करनारा भमत्तसंयतादि ग्रन्थान्तरमा यताव्या छे, तो सातराजनी स्पर्शनाना वचननी साथे केवी रीते सङ्गति थाय ? उत्तर- सूत्रशैली सापेक्ष होवाथी सातराज स्पर्शनाना मूत्रमां उपर कहेलो प्रकार विवक्ष्यो नथी अने लोकना असायातमाभागनी स्पर्शनाना मूत्रमा सानराज स्पर्शनामां कहेलो प्रकार विवक्ष्यो नथी जेथी कोइ जातनी दोपापति नयी. [५ | देशविरसगुणस्थानवाळा मनुष्यगतिना जीको ऋजुगलिए वारमा अच्युन देवलोके उत्पन्न थाय छे, अने ते अच्युतदेवलोक तिर्यग्लोकना मध्ययी छ रज्जु प्रमाण होवाथी छगजनी स्पर्शना देशविरनिवाळा मनुष्योनी जाणवी आ प्रमाणे स्पर्शनावार विचार जाणवो ॥ ४ ॥ (५) पांचमुं कालद्धार-(१) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवाळा कालथी विचारीये तो त्रण प्रकार छ, अनादि अनन्त ?, अनादिसान्त २ अने सादिमान्त ३, तेमां जेओ कोइ दिवस मुक्ति पामवाना नथी तेवा अभव्यजीव तथा तथाविध सामग्रीना अभाचे जे मुक्तिसुख पामवाना नयी तेम व्यवहारराशिमा प्रवेश करवाना पण नथी तेवा भन्यजीव ए सर्वनी अपेक्षाये अनादिअनन्त प्रकार के, जे भन्यजीवो अनादिमिथ्याष्टि छतां अवश्य आगामिकाले सम्यक्त्व पामशे. ते जीवोनी अपेक्षाये अनादिसान्त प्रकार के २, तथा जे भव्यजीवो भव्यत्वपरित्राकादि कारणो पामी सम्यक्त्व पाम्या छतां पाछा अहेव आशातना विगैरे कोइपण कारणे सम्यक्त्वथी पतित थइ मिथ्यात्व पामे छे ते अवश्य कालान्तरे सम्पाव पामशे तेथी ते जीवनी अपेक्षाये सादिसान्त प्रकार के कारण सम्यक्त्व पाम्या बाद मिथ्यात्व पाम्यो माटे मिथ्यात्वगुणस्थाननी आदि थइ, वळी कालान्तरे अब श्य मिथ्यात्व दूर करशे-सम्यक्त्व पामशे तेथी मिथ्यात्वनो अन्त थयो एटले सादिसान्त प्रकार ३, आ सादिसान्त भांगानुं मिध्यात्व जघन्ययो अन्नमुहूर्त सुधी रहे ले, कारण सम्यक्त्वथी पडल्या बाद कोइक जीव तरतज अन्तर्मुहूर्तमां सम्यक्त्व पामे छे, अने उत्कृष्ट महाआशातनावन्त जीवीनु मिथ्यात्व देशोन अर्थपुद्गलपरावर्त सुधी रहे छे, एटले उत्कृष्टथी पण अर्थपुद्गल परावर्त अवश्य सम्पक्त्व पामे छे, आ ज हेतुथी मिथ्यात्वनो सादि अनन्त भांगो नयी कारण मिश्यानी
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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