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________________ १०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २३८) (५५१) आदि थये अवश्य उस्कृष्टथी अर्धपुद्गलपरावते पण अन्त होय छे, आ प्रमाणे एक जीवनी अपेक्षाये मिथ्याष्टिगुणस्थान- कालमान का, अने अनेक जीवोनी अपेक्षाये नारक मनुष्य अने देवगतिमां प्रत्येकमा असङ्ख्याता मिथ्यादृष्टिजीवो सदाकाल विधमान होय छे, मात्र मनुष्यगतिमा सम्मूछिममनुष्यना विद्यमानकालमा असङ्ग्याता अने तेना विरहकालमां संख्याताजीवो जाणवा अने तिर्यंचगतिमां पृथ्व्यादि चार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय अने पञ्चेन्द्रियनी अपेक्षाये असंख्याता अने वनस्पतिनी अपेक्षाये अनन्ता जीवो मिथ्यात्वमा सदाकाल विद्यमान होय छे. अर्थात् नानाजीवापेक्षया मिथ्यात्वगुणस्थान अनादि अनन्त काल छे. (२) चीजें सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान एक जीवनी अपेक्षाये जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टयी छ आपलिका प्रमाण रहे थे. उपशमसम्यवत्व वमतो कोइक जीव एक समय सास्वादनभावमा रहो मिथ्यात्व पामे, कोइ बसमय रहे यावत कोइक छ आवलिफाफाल प्रमाण रहे छे, आ प्रमाणे एक जीवनी अपेक्षाय जघन्पथी एक समय अने उत्कृष्टयी छ आवालिफाकाल जाणवो, अने अनेक जीवोनी अपेक्षाये ज्यारे सास्वादननो विरहकाल न होय अने सतन सास्वादनमुणस्थानमा वर्तता जोरो विद्यमान होय त्यारे जघन्यथी एक जीवनी अपेक्षाये कहेलो काल (एक समय) छे तेनो तेज जाणवो,कारण उपशमसम्यक्त्वकाळना चरमसमये सास्वादनपणुं पामे चीजे समये मिथ्यात्व पामे अने ते वीजे समये सास्यादन पामनार वीजा जीवनो अभाव होबाथी जघन्य एकज समय जाणवो. अने उत्कर्षथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्यासमाभाग प्रमाण कालसुधी सास्वादनगुणस्थान अनेक जीवोनी अपेक्षाये होय छे, अर्थात् क्षेत्रपल्योपम (पल्योपमस्वरूपकाल समजवा मारे कल्पेला योजनप्रमाण पालामा वर्तनार आकाशपदेशराशिना असंख्यातमा भागमा वर्ति आकाशमदेश राशिमाथी प्रतिसमये एक एक प्रदेश अपहार करता जेटले फाले ते राशि खाली याय तेटला काल (असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीपमाण) सुधी निरन्तर सास्वादनगुणस्थान लभ्यमाम छे ते पछी अवश्य तेनो विरह याय. (३) त्रीजु मिश्रष्टि गुणस्थान-एक जीवनी अपेक्षाये जघन्यथी अने उत्कृष्थी अन्तर्मुहर्तकाल ममाण होय छे, मात्र जघन्यथी नानु अन्तर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी मोढुं अन्तर्मुहूर्त. नाना जीवापेक्षया मिश्रष्टिजीवो ज्यारे विद्यमान होय स्यारे जघन्यथी सम्पग्मिथ्या(मिश्रोदृष्टिगुणस्थान जयन्ययी अन्तमूहर्तकाल सुधी रिन्मनतर पाय छे, ते वाद विरह होय, उत्कर्षथो बीजा गुणम्याननी जेम क्षेत्रप
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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